कायाकल्प - Hindi sex novel

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कायाकल्प - Hindi sex novel

Unread post by sexy » 02 Oct 2015 08:11

हम लोग आज उस युग में रहते हैं, जहाँ चहुओर भागमभाग मची हुई है। बचपन से ही एक घुड़दौड़ की शिक्षा और प्रशिक्षण दी जाती है – जो भिन्न भिन्न लोगों के लिए भिन्न भिन्न होती है। मेरे एक अभिन्न मित्र के अनुसार आज हमको मात्र उपभोक्ता बनने की शिक्षा दी जा रही है। और ऐसा हो भी क्यों न? दरअसल हमने आज के आधुनिक परिवेश में भोग करने को ही विकास मान रखा है। पारिवारिक, नैतिक और सामाजिक मूल्य लगभग खतम हो चुके हैं। प्रत्येक व्यक्ति को केवल ‘उपभोक्ता’ बननें के लिये ही विवश व प्रोत्साहित किया जा रहा है। जो जितना बड़ा उपभोक्ता वो उतना ही अधिक विकसित – चाहे वह राष्ट्र हों, या फिर व्यक्ति! मैंने भी इसी युग में जनम लिया है और पिछले तीस बरसों से एक भयंकर घुड़दौड़ का हिस्सेदार भी रहा हूँ। अन्य लोगो से मेरी घुड़दौड़ शायद थोड़ी अलग है – क्योंकि बाकी लोग मेरी घुड़दौड़ को सम्मान से देखते हैं। और देखे भी क्यों न? समाज ने मेरी घुड़दौड़ को अन्य प्रकार की कई घुड़दौड़ों से ऊंचा दर्जा जो दिया हुआ है।

अब तक संभवतः आप लोगो ने मेरे बारे में कुछ बुनियादी बातों का अनुमान लगा ही लिया होगा! तो चलिए, मैं अब अपना परिचय भी दे देता हूँ। मैं हूँ रूद्र – तीस साल का तथाकथित सफल और संपन्न आदमी। इतना की एक औसत व्यक्ति मुझसे इर्ष्या करे। सफलता की इस सीढ़ी को लांघने के लिए मेरे माता-पिता ने बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुत से कष्ट देखे और सहे थे – इसलिए उन्होंने बहुत प्रयास किया की मैं वैसे कष्ट न देख सकूँ। अतः उन्होंने अपना पेट काट-काट कर ही सही, लेकिन मेरी शिक्षा और लालन पालन में कोई कमी न आने दी। सदा यही सिखाया की ‘पुत्र! लगे रहो। प्रयास छोड़ना मत! आज कर लो, आगे सिर्फ सुख भोगोगे!’ मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ की मेरे माँ बाप की शिक्षा मिथ्या थी। प्रयास करना, मेहनत करना अच्छी बाते हैं – दरअसल यह सब मानवीय नैतिक गुण हैं। किन्तु मेरा मानना है की इनका ‘जीवन के सुख’ (वैसे, सुख की हमारी आज-कल की समझ तो वैसे भी गंदे नाले में स्वच्छ जल को व्यर्थ करने के ही तुल्य है) से कोई खास लेना देना नहीं है। और वह एक अलग बात है, जिसका इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है। मैं यहाँ पर कोई पाठ पढ़ने नहीं आया हूँ।

जीवन की मेरी घुड़दौड़ अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी, की मेरे माँ बाप मुझे जीवन की जिन मुसीबतों से बचाना चाहते थे, वो सारी मुसीबतें मेरे सर पर मानो हिमालय के समस्त बोझ के सामान एक बार में ही टूट पड़ी। जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रहा था, तभी मेरे माँ बाप, दोनों का ही एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया, और मैं इस निर्मम संसार में नितान्त अकेला रह गया। मेरे दूरदर्शी जनक ने अपना सारा कुछ (वैसे तो कुछ खास नहीं था उनके पास) मेरे ही नाम लिख दिया था, जिससे मुझे कुछ अवलंब तो अवश्य मिला। ऐसी मुसीबत के समय मेरे चाचा-चाची मुझे सहारा देने आये – ऐसा मुझे लगा – लेकिन वह केवल मेरा मिथ्याबोध था। वस्तुतः वो दोनों आये मात्र इसलिए थे की उनको मेरे माँ बाप की संपत्ति का कुछ हिस्सा मिल जाए, और उनकी चाकरी के लिए एक नौकर (मैं) भी। किन्तु यह हो न सका – माँ बाप ने मेहनत करने के साथ ही अन्याय न सहने की भी शिक्षा दी थी। लेकिन मेरी अन्याय न सहने की वृत्ति थोड़ी हिंसक थी। चाचा-चाची से मुक्ति का वृतांत मार-पीट और गाली-गलौज की अनगिनत कहानियों से भरा पड़ा है, और इस कहानी का हिस्सा भी नहीं है।

बस यहाँ पर यह बताना पर्याप्त होगा की उन दोनों कूकुरों से मुझे अंततः मुक्ति मिल ही गयी। बाप की सारी कमाई और उनका बनाया घर सब बिक गया। मेरे मात-पिता से मुझको जोड़ने वाली अंतिम भौतिक कड़ी भी टूट गयी। घर छोड़ा, आवासीय विद्यालयों में पढ़ा, और अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए (जो मेरे माता पिता की न सिर्फ अंतिम इच्छा थी, बल्कि तपस्या भी) विभिन्न प्रकार की क्षात्रवृत्ति पाने के लिए मुझे अपने घोड़े को सबसे आगे रखने के लिए मार-मार कर लहू-लुहान कर देना पड़ा। खैर, विपत्ति भरे वो चार साल, जिसके पर्यंत मैंने अभियांत्रिकी सीखी, जैसे तैसे बीत गए – अब मेरे पास एक आदरणीय डिग्री थी, और नौकरी भी। किन्तु यह सब देखने के लिए मेरे माता पिता नहीं थे और न ही उनकी इतनी मेहनत से बनायी गयी निशानी।

घोर अकेलेपन में किसी भी प्रकार की सफलता कितनी बेमानी हो जाती है! लेकिन मैंने इस सफलता को अपने माता-पिता की आशीर्वाद का प्रसाद माना और अगले दो साल तक एक और साधना की – मैंने भी पेट काटा, पैसे बचाए और घोर तपस्या (पढाई) करी, जिससे मुझे देश के एक अति आदरणीय प्रबंधन संस्थान में दाखिला मिल जाए। ऐसा हुआ भी और आज मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ। कहने सुनने में यह कहानी बहुत सुहानी लगती है, लेकिन सच मानिए, तीस साल तक बिना रुके हुए इस घुड़दौड़ में दौड़ते-दौड़ते मेरी कमर टूट गयी है। भावनात्मक पीड़ा मेरी अस्थि-मज्जा के क्रोड़ में समा सी गयी है। ह्रदय में एक काँटा धंसा हुआ सा लगता है। और आज भी मैं एकदम अकेला हूँ। कुछ मित्र बने – लेकिन उनसे कोई अंतरंगता नहीं है – सदा यही भय समाया रहता है की न जाने कब कौन मेरी जड़ें काटने लगे! और न ही कोई जीवनसाथी बनने के इर्द-गिर्द भी है। ऐसा नहीं है की मेरे जीवन में लडकियां नहीं आईं – बहुत सी आईं और बहुत सी गईं। किन्तु जैसी बेईमानी और अमानवता मैंने अपने जीवन में देखी है, मेरे जीवन में आने वाली ज्यादातर लड़कियां वैसी ही बेइमान और अमानवीय मिली। आरम्भ में सभी मीठी-मीठी बाते करती, लुभाती, दुलारती आती हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनके चरित्र की प्याज़ जैसी परतें हटती है, और उनकी सच्चाई की कर्कशता देख कर आँख से आंसू आने लगते हैं।

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Re: कायाकल्प - Hindi sex novel

Unread post by sexy » 02 Oct 2015 08:12

सच मानिए, मेरा मानव जाति से विश्वास उठता जा रहा है, और मैं खुद अकेलेपन के गर्त में समाता जा रहा हूँ। तो क्या अब आप मेरी मनःस्तिथि समझ सकते हैं? कितना अकेलापन और कितनी ही बेमानी जिन्दगी! प्रतिदिन (अवकाश वाले दिन भी) सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक कार्य में स्वयं को स्वाहा करता हूँ, जिससे की इस अकेलेपन का बोझ कम ढ़ोना पड़े। पर फिर भी यह बोझ बहुत भारी ही रहता है। कार्यालय में दो-तीन सहकर्मी और बॉस अच्छे व्यवहार वाले मिले। वो मेरी कहानी जानते थे, इसलिए मुझे अक्सर ही छुट्टी पर जाने को कहते थे। लेकिन वो कहते हैं न, की मुफ्त की सलाह का क्या मोल! मैं अक्सर ही उनकी बातें अनसुनी कर देता।

लेकिन, पिछले दिनों मेरा हवा-पानी बदलने का बहुत मन हो रहा था – वैसे भी अपने जीवन में मैं कभी भी बाहर (घूमने-फिरने) नहीं गया। मेरे मित्र मुझको “अचल संपत्ति” कहकर बुलाने लगे थे। अपनी इस जड़ता पर मुझको विजय प्राप्त करनी ही थी। इन्टरनेट पर करीब दो माह तक शोध करने के बाद, मैंने मन बनाया की उत्तराँचल जाऊंगा! अपने बॉस से एक महीने की छुट्टी ली – आज तक मैंने कभी भी छुट्टी नहीं ली थी। लेता भी किसके लिए – न कोई सगा न कोई सम्बन्धी। मेरा भला-मानुस बॉस ऐसा प्रसन्न हुआ जैसे उसको अभी अभी पदोन्नति मिली हो। उसने तुरंत ही मुझको छुट्टी दे दी और यह भी कहा की एक महीने से पहले दिखाई मत देना। छुट्टी लेकर, ऑफिस से निकलते ही सबसे पहले मैंने आवश्यकता के सब सामान जुटाए। वह अगस्त मास था – मतलब वर्षा ऋतु। अतः समस्त उचित वस्तुएं जुटानी आवश्यक थीं। सामान पैक कर मैं पहला उपलब्ध वायुयान लेकर उत्तराँचल की राजधानी देहरादून पहुच गया। उत्तराँचल को लोग देव-भूमि भी कहते हैं – और वायुयान में बैठे हुए नीचे के दृश्य देख कर समझ में आ गया की लोग ऐसा क्यों कहते है। मैंने अपनी यात्रा की कोई योजना नहीं बनायीं थी – मेरा मन था की एक गाडी किराए पर लेकर खुद ही चलाते हुए बस इस सुन्दर जगह में खो जाऊं। समय की कोई कमी नहीं थी, अतः मुझे घूमने और देखने की कोई जल्दी भी नहीं थी। हाँ, बस मैं भीड़ भाड़ वाली जगहों (जैसे की हरिद्वार, ऋषिकेश इत्यादि) से दूर ही रहना चाहता था। मैंने देहरादून में ही एक छोटी कार किराए पर ली और उत्तराँचल का नक्शा, ‘जी पी एस’ और अन्य आवश्यक सामान खरीद कर कार में डाल लिया और आगे यात्रा के लिए चल पड़ा।

अगले एक सप्ताह तक मैंने बद्रीनाथ देवस्थान, फूलों की घाटी, कई सारे प्रयाग, और कुछ अन्य छोटे स्थानिक मंदिर भी देखे। हिमालय की गोद में चलते, प्राकृतिक छटा का रसास्वादन करते हुए यह एक सप्ताह न जाने कैसे फुर्र से उड़ गया। प्रत्येक स्थान मुझको अपने ही तरीके से अचंभित करता। अब जैसे बद्रीनाथ देवस्थान की ही बात कर लें – मंदिर से ठीक पूर्व भीषण वेग से बहती अलकनंदा नदी यह प्रमाणित करती है की प्रकृति की शक्ति के आगे हम सब कितने बौने हैं। इसी ठंडी नदी के बगल ही एक तप्त-कुंड है, जहाँ भूगर्भ से गरम पानी निकलता है। हम वैज्ञानिक तर्क-वितर्क करने वाले आसानी से कह सकते हैं की भूगर्भीय प्रक्रियाओं के चलते गरम पानी का सोता बन गया। किन्तु, एक आम व्यक्ति के लिए यह दैवीय चमत्कार से कोई कम नहीं है। मंदिर के प्रसाद में मिलने वाली वन-तुलसी की सुगंध, थके हुए शरीर से साड़ी थकान खींच निकालती है। और सिर्फ यही नहीं। प्रत्येक सुबह, सूरज की पहली किरणें नीलकंठ पर्वत की छोटी पर जब पड़ती हैं, तो उस पर जमा हुआ हिम (बरफ) ऐसे जगमगाता है, जैसे की सोना!

ऐसे चमत्कार वहां पग-पग पर होते रहते हैं। ताज़ी ठंडी हवा, हरे भरे वृक्ष, जल से भरी नदियों का नाद, फूलों की महक और रंग, नीला आकाश, रात में (अगर भाग्यशाली रहे तो) टिमटिमाते तारे और विभिन्न नक्षत्रों का दर्शन, कभी होटल में, तो कभी ऐसे खुले में ही टेंट में रहना और सोना – यह सब काम मेरी घुड़दौड़ वाली जिंदगी से बेहद भिन्न थे और अब मुझे मज़ा आने लग गया था। मैंने मानो अपने तीस साल पुराने वस्त्रों को कहीं रास्ते में ही फेंक दिया और इस समय खुले शरीर से प्रकृति के ऐसे मनोहर रूप को अपने से चिपटाए जा रहा था।

सबसे आनंददायी बात वहां के स्थानीय लोगो से मिलने जुलने की रही। सच कहता हूँ की उत्तराँचल के ज्यादातर लोग बहुत ही सुन्दर है – तन से भी और मन से भी। सीधे सादे लोग, मेहनतकश लोग, मुकुराते लोग! रास्ते में कितनी ही सारी स्त्रियाँ देखी जो कम से कम अपने शरीर के भार के बराबर बोझ उठाए चली जा रही है – लेकिन उनके होंठो पर मुस्कराहट बदस्तूर बनी हुई है! सभी लोग मेरी मदद को हमेशा तैयार थे – मैंने एकाध बार लोगो को कुछ रुपये भी देने चाहे, लेकिन सभी ने इनकार कर दिया – ‘भला लोगो की भलाई का भी कोई मोल होता है?’ छोटे-छोटे बच्चे, अपने सेब जैसे लाल-लाल गाल और बहती नाक के साथ इतने प्यारे लगते, की जैसे गुड्डे-गुडियें हों! इन सब बातो ने मेरा मन ऐसा मोह लिया की मन में एक तीव्र इक्छा जाग गयी की अब यही पर बस जाऊं।

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Re: कायाकल्प - Hindi sex novel

Unread post by sexy » 02 Oct 2015 08:12

खैर, मैं इस समय ‘फूलों की घाटी’ से वापस आ रहा था। वहां बिताये चार दिन मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। कोई साधे तीन किलोमीटर ऊपर स्थित इस घाटी में अत्यंत स्थानीय, केवल उच्च पर्वतीय क्षेत्र में पाये जाने वाले फूल मिलते हैं। फूलों से भरी, सुगंध से लदी इस घाटी को देखकर ऐसा ही लगता है की उस जगह मैं वाकई देवों और अप्सराओं का स्थान होगा। बचपन में आप सब ने दादी की कहानियों में सुना होगा की परियां जमीन पर आकर नाचती हैं। मेरे ख़याल से अगर धरती पर कोई ऐसा स्थान है, तो वह ‘फूलों की घाटी’ ही है। मेरे जैसा एकाकी व्यक्ति इस बात को सोच कर ही प्रसन्न हो गया की इस जगह से “मानव सभ्यता” से दूर-दूर तक कोई संपर्क नहीं हो सकता। न कोई मुझे परेशान करेगा, और न ही मैं किसी और को। लेकिन पहाड़ो के ऊपर चढ़ाई, और उसके बात उतराई में इतना प्रयास लगा की बहुत ज्यादा थकावट हो गयी। इतनी की मैं वहां से वापस आने के बाद करीब आधा दिन तक मैं अपनी गाडी में ही सोता रहा।

वापसी में मैं एक घने बसे कस्बे में (जिसका नाम मैं आपको नहीं बताऊँगा) आ गया। मैंने गाडी रोक दी की, थोडा फ्रेश होकर खाना खाया जा सके। एक भले आदमी ने मेरे नहाने का बंदोबस्त कर दिया, लेकिन वह बंदोबस्त सुशीलता से परे था। सड़क के किनारे खुले में एक हैण्डपाइप, और एक बाल्टी और एक सस्ता सा साबुन। खैर, मैंने पिछले ३ दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए मेरा ध्यान सिर्फ तरो-ताज़ा होने का था। मैं जितनी भी देर नहाया, उतनी देर तक वहां के लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना रहा। विशेषतः वहां की स्त्रियों के लिए – वो मुझे देख कर कभी हंसती, कभी मुस्कुराती, तो कभी आपस में खुसुर-फुसुर करती। वैसे, अपने आप अपनी बढाई क्या करूँ, लेकिन नियमित आहार और व्यायाम से मेरा शरीर एकदम तगड़ा और गठा हुआ है और चर्बी रत्ती भर भी नहीं है। व्यायाम करना मेरे लिए सबसे बड़ा भोग-विलास है, यद्यपि कभी कभार द्राक्षासव का सेवन भी करता हूँ, लेकिन सिर्फ कभी कभार। इसी के कारण मुझे पिछले कई वर्षों से प्रतिदिन बारह घंटे कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हो सकता है की ये स्त्रियाँ मुझे आकर्षक पाकर एक दूसरे से अपनी प्रेम कल्पना बाँट रही हों – ऐसे सोचते हुए मैंने भी उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया।

खैर, नहा-धोकर, कपडे पहन कर मैंने खाना खाया और अपनी कार की ओर जाने को हुआ ही था की मैंने स्कूल यूनिफार्म पहने लड़कियों का समूह जाते हुए देखा। मुझे लगा की शायद किसी स्कूल में छुट्टी हुई होगी, क्योंकि उस समूह में हर कक्षा की लड़कियां थी। मैं यूँ ही अपनी कार के पास खड़े-खड़े उन सबको जाते हुए देख रहा था की मेरी नज़र अचानक ही उनमे से एक लड़की पर पड़ी। उसको देखते ही मुझे ऐसे लगा की जैसे धूप से तपी हुई ज़मीन को बरसात की पहली बूंदो के छूने से लगता होगा।

वह लड़की आसमानी रंग का कुरता, सफ़ेद रंग की शलवार, और सफ़ेद रंग का ही पट्टे वाला दुपट्टा (यही स्कूल यूनिफार्म थी) पहने हुए थी। उसने अपने लम्बे बालो को एक चोटी में बाँधा हुआ था। अब मैंने उसको गौर से देखा – उसका रंग साफ़ और गोरा था, चेहरे की बनावट में पहाड़ी विशेषता थी, आँखें एकदम शुद्ध, मूँगिया रंग के भरे हुए होंठ और अन्दर सफ़ेद दांत, एक बेहद प्यारी सी छोटी सी नाक और यौवन की लालिमा लिए हुए गाल! उसकी उम्र बमुश्किल अट्ठारह की रही होगी, इससे मैंने अंदाजा लगाया की वह बारहवीं में पढ़ती होगी।

‘कितनी सुन्दर! कैसा भोलापन! कैसी सरल चितवन! कितनी प्यारी!’

“संध्या… रुक जा दो मिनट के लिए…” उसकी किसी सहेली ने पीछे से उसको आवाज़ लगाई। वह लड़की मुस्कुराते हुए पीछे मुड़ी और थोड़ी देर तक रुक कर अपनी सहेली का इंतज़ार करने लगी।

‘संध्या..! हम्म.. यह नाम एकदम परफेक्ट है! सचमुच, एकदम सांझ जैसी सुन्दरता! मन को आराम देती हुई, पल-पल नए-नए रंग भरती हुई .. क्या बात है!’ मैंने मन ही मन सोचा।

मैंने जल्दी से अपना कैमरा निकाला और दूरदर्शी लेन्स लगा कर उसकी तस्वीरे तब तक निकालता रहा जब तक की वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी। उसके जाते ही मुझे होश आया! होश आया, या फिर गया?

‘क्या लव एट फर्स्ट साईट ऐसे ही होता है?’ ‘लव एट फर्स्ट साईट’ – यह वाक्य अगर किसी को कहो, तो वह यही कहेगा की दरअसल ऐसा कुछ नहीं होता। ऐसी भावना लालसा के वेश में लिपटी वासना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। वे इसको प्रेम की एक झूठी भावना कहकर उपहास करने लगेंगे।

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