कथा चक्रवर्ती सम्राट की - hindi sex novel

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Re: कथा चक्रवर्ती सम्राट की - hindi sex novel

Unread post by admin » 13 Oct 2015 09:30

महाराज तो फिर महाराज ही थे यूँ ही उनका नाम शिशन्धवज न पड़ा था.

मित्रगण , यहाँ यह बताना उचित होगा की महाराज का ‘शिशन्धवज’ नाम कैसे रूढ़ हुआ . महाराज का जन्म नाम असिधवज है परंतु युद्ध में हारे पक्षों की महिलाओं से संबंध बनाना पुंसवक राज्य की परंपरा रही है ऐसे ही एक बार विदीर्ण नगर पर महाराज असिधवज ने आक्रमण किया , विदीर्ण नगर की सेना ने जान की बाज़ी

लगाई किंतु अपने राज्य को बचा न सके.
अंत में विदीर्ण राज को समर्पण करना पड़ा और असिधवज की शर्तों को मानना पड़ा जिसके तहत उन्हें अपनी पटरानी देवी योगिता को महाराज के सिपुर्द करना पड़ा . महाराज असिधवज इससे प्रसन्न हुए और विदीर्ण राज और उनके पुत्र को देवी योगिता के साथ एक साप्ताह बिताने के पश्चात जीते गये धन और राज्य के साथ

छोड़ दिया .

देवी योगिता ने ही महाराज के साथ बिताए अपने अंतरंग क्षणों की याद और सम्मान में महाराज असिधवज को ‘ शिशिनध्वज’ का नाम दिया . तब से यही नाम आरूढ़ हो गया.

“देवी योगिता ने यूँ ही नहीं महाराज के लिंग को पताका की उपमा दी है” स्वयं से हँसती हुई सिक्ता बोली उसकी जांघों के बीच अभी भी महाराज का “ध्वज” लहरा रहा था . नीचे सरक कर उसने महाराज के लिंग को अपने मुख मे ले लिया . महाराज ने सिक्ता के केश कस कर पकड़े और एक झटके से उसका विपुल केश संभार

खुल कर उसकी गर्दन से होता हुआ उसके नितंबों तक आ गया. खुले हुए लंबे काले घने बालो में कामुक सिक्ता की सुंदरता के आगे इंद्र की अप्सराएँ कहीं नहीं ठहरती थी.

सिक्ता ने अपनी कोमल जिव्हा से महाराज के शिश्न को सहलाना शुरू किया जो अब फूल कर ककड़ी जितना मोटा और मूली जितना लंबा हो गया था .

महाराज कामावेश में आ कर आहें भर रहे थे वहीं सिक्ता उनके कठोर लिंग को अपने मुँह में लिए उसे अपने मुख रस से लीप कर कोमल बना रही थी . सिक्ता पूरे मनोयोग से अपने महाराज से मुख मैथुन कर रही थी यह तो तय था कि आज की गयी सेवा के बदले महाराज उसे अवश्य ही कोई पुरस्कार देंगे परंतु वह महाराज को

रिझाने का पूरा प्रयत्न कर रही थी उसने सोचा ” हे काम, कृपया मेरी सहायता करें मुझ निरीह नारी में अपनी कामशक्ति का हज़ारवा अंश भी भर दें
तो मैं महाराज को तृप्त कर अपना जीवन स्तर सुधार सकूँ . इधर महाराज ने अपने बाएँ हाथ किलांबी लंबी उंगलियों से सिक्ता के स्तनों का मर्दन शुरू किया उधर सिक्ता और तपने लगी .”आह… महाराज का स्पर्श कितना अलहाददायक और कोमल है…रुद्र्प्रद तो मेरे इन स्तनों को गुब्बारा समझ कर निर्दयता से मसल देते हैं”

उसका मन अंजाने ही अपने महाराज और पति की तुलना करने लगा.

श्वास लेने के लिए सिक्ता ने तनिक मुँह खोला तो महाराज का शिश्न उछल कर बाहर आया और सिक्ता की भौहों और आँखों से टकराया उससे गर्म धवल उज्ज्वल चिपचिपा रस किसी ज्वालामुखी से निकलते लावे की भाँति फूट पड़ा और सिक्ता के मुख मंडल पर बिखर गया.

महाराज की इसी वीर्य की खातिर ही तो सिक्ता पूरे मनोयोग से प्रयत्न कर रही थी आख़िर उसकी मेहनत रंग लाई .अपनी लंबी गुलाबी जिव्हा और उंगलियों से अपने चेहरे पर चिपके महाराज के वीर्य को सिक्ता यूँ चाट कर साफ कर रही थी जैसे कोई बिल्ली दूध पीने के बाद अपनी मूछों में लगे दूध की बूँदें चाट्ती है.

सिक्ता किसी मदोन्मत्त कामासक्त किसी अप्सरा की भाँति लग रही थी. शरीर से गर्म कड़क लिंग के स्पर्श की अनुभूति होने से स्पंदन करतीं पलकें और लिंग के आकर को बढ़ता देख तद् अनुपात में विस्मय चकित तराशी हुईं कमानी भौंहों के नीचे फैलती नीली आँखें वह विस्मय और आनंद से थरथराते हुए गाल और होंठ और

उस थरथराहट से चिपकी हुई वीर्य की बूँदों का नीचे ढूलक कर कंधों और स्त्नाग्रो पर गिर कर उष्णता का प्रतिभास वह सब कुछ दिव्य था सुखद था और अदभुद था

सिक्ता के मुख से टपकता वीर्य देख कर महाराज को भी दोबारा जोश चढ़ आया औरउनका लिंग बढ़ कर लौकी के आकार का हो गया अब अंतिम वार का क्षण था उन्होने नग्न सिक्ता को अपनी बाहों में उठा लिया इसके साथ ही उसके शरीर से अंतिम वस्त्र भी नीचे गिर पड़ा . उन्होने सिक्ता को बाँहों में उठाकर उसके होंठों पर

अपने होंठ रख दिए और अपनी जिव्हा उसकी जिव्हा से भिड़ा दी. दोनो जिव्हाएँ प्रेमवश युद्ध करने लगीं कभी सिकटा के मुख में महाराज की जिव्हा होती तो कभी महाराज के मुख में सिक्ता की , मुख में प्रेमरसों का आदान प्रदान हुआ महाराज सिक्ता का सारा रस पी गये परंतु महाराज के मुख रस का स्वाद सिक्ता को ज़रा भी न

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Re: कथा चक्रवर्ती सम्राट की - hindi sex novel

Unread post by admin » 13 Oct 2015 09:30

भाया वह कड़वा तीखा था उसने अचानक ही महाराज की गोदी में वह उगल दिया . भय से सिक्ता काठ हो गयी उसे लगा महाराज अब अवश्य ही अपने इस अपमान के बदले में उसे प्राण दंड देंगे.
किंतु महाराज तो निर्मल उदार और दया का सागर थे उन्होने हंसते हुए अपने हाथों से अपने सीने के बालो से चिपकी हुए और सिक्ता के उगले हुए रस को अपनी लंबी लंबी उंगलियों से साफ किया और उनका पुन रसास्वादन किया. महाराज के लिंग के इर्द गिर्द जो बेतरतीब केश उगे थे उसमें अब भी सिक्ता द्वारा उगला हुआ

रस लगा हुआ था ,महाराज ने उसे अपनी उंगलियों से समेट कर शिश्न के अंग्र भाग में लगाया. यह देख कर सिक्ता का हृदय प्रसन्नता से फूला न समाया आज उसकी इच्छा पूरी होने वाली थी किंतु उसने अपनी प्रसन्नता जाहिर न करी वह महाराज की बाहों में पड़ी उनको सहला रही थी. तदुपरांत महाराज ने उसकी बाँयी टाँग को

उठा कर कहा “देवी सिक्ता मैं आज तुम्हारे द्वारा की गयी सेवा से अति प्रसन्न हूँ आज मैं तुम्हें एक उपहार दूँगा तदुपरांत तुम मुझसे कोई भी वर मुझसे माँग सकती हो” अपने दोनो हाथ जोड़ कर महाराज को नमन करती हुई सिक्ता विनम्रता पूर्वक बोली “मेरा अहो भाग्य है महाराज” इसके बाद उसने महाराज से उपहार की अपेक्षा

में अपनी हथेलियाँ आगे बढ़ा दी. “ऐसे नहीं” महाराज बोले “अपनी टाँगें फैलाओ” सिक्ता ने तुरंत आज्ञा का पालन किया “अति उत्तम” महाराज बोले इसके बाद महाराज ने सिक्ता को सूचित किया “आज मैं तुम्हें गर्भधारण कराने जा रहा हूँ तुम अपने पति की संतानों के साथ साथ मेरी संतान की भी माता कहलाओगी , तुम्हें कभी

किसी वास्तु की कमी नही खलेगी , तुम्हारे पति भी पुरस्कृत होंगे और आज के बाद तुम्हारा जीवन एक तुच्छ परिचारिका सा तिरस्कृत न होगा”

महाराज की अधिकार वाणी सुन कर सिक्ता का मन बल्लियों सा उछल पड़ा किंतु दूसरे ही क्षण उसे शंका ने आ घेरा.
उसे स्मरण हुआ उसके पति रुद्र्प्रद की बताई घटना का कुछ वर्ष पहले महाराज शिशिन्ध्वज वन में आखेट करने के गये थे तब उन्होने अज्ञानता वश एक श्वान ( कुत्ता) मुद्रा में अपनी पत्नी से संभोग रत एक ऋषि दंपत्ति को ग़लती से जंगली भेड़िया समझ कर उन पर अपना शब्दभेदी बान चला दिया था जिससे ऋषि के मर्म पर

उस बान का आघात हुआ था और उनका लॅंड बान के तीक्ष्ण आघात से दो टुकड़ो में कट कर बेकार हो चुका था.

जब महाराज शिशिन्ध्वज वहाँ पंहुचे तो अपने द्वारा हुए अनर्थ को देख कर वह भय से सिहर उठे थे. बड़ा भयानक दृश्य था
रक्त के फव्वारे के मध्य ऋषि अचेत पड़े थे बगल में उनका लॅंड कटा पड़ा था , ऋषिपत्नी अपने पति की इस भयन्कर अवस्था को देख कर भय से चिल्ला रहीं थी अपनी प्रिय पति का बहता खून रोकने के लिए कभी वह अपनी दोनो हथेलियों से दबातिं और कभी उनके अंडकोष को अपने मुँह में ले कर उनका चोषण करतीं.

परंतु बहता रक्त न रुकना था न रुका , ऋषि का काल आ गया था सो कोई लाभ न हुआ. ऋषिपत्नी स्वयं सामर्थ्यशाली थी उसने अपने अन्तर्ज्ञान से तत्क्षण यह पता लगा लिया कि इस दुर्घटना का उत्तरदायी कौन है. उसने अपनी अंजुलि में अपने दिवंगत पति का कटा हुआ शिश्न ले कर महाराज के सम्मुख शाप वाणी उच्चारित की

-” हे राजन जिस प्रकार तूने श्वान मुद्रा में लिप्त संतान प्राप्ति के उद्देश्य से संभोग का आनंद उठाते इस स्त्री से उसके पति के पौरुष को छीना है उसी प्रकार अपने जीवन के उत्तरकाल में जब तो किसी स्त्री से संतानोत्पत्ति के लिए रममाण होगा तेरा लिंग तेरा साथ छोड़ देगा ”

“क्षमा देवी क्षमा …इतना भयंकर दंड न दो” महाराज उस ऋषिपत्नी के पैरों में गिर कर बोले

“कदापि नहीं तुझे अपने किए का दंड भुगतना ही होगा यही तेरी नियती है” ऋषिपत्नी क्रुद्ध हो कर बोली

“अब मुझे संतान प्राप्ति के लिए किसी अन्य पुरुष से संभोग करना होगा” ऋषिपत्नी के स्वर में मायूसी झलक रही थी “और इस कारण मेरी होने वाली संतान मेरे पति के गुणों से सदा वंचित ही रहेगी , भला कौन मुझ ऋषिपत्नी से प्रणय करेगा”

“देवी यदि आप आज्ञा दें तो मुझे आपकी सेवा का अवसर प्रदान करें” महाराज बोले.

“तथास्तु” ऋषिपत्नी ने कहा “परंतु मेरा श्राप मिथ्या न हो सकेगा मैं तुमसे संभोग के बाद तुम्हें अपनी श्राप की काट बताऊंगी”

तत्पश्चात मृत ऋषि की चिता रच कर उन्हें उन्होने अग्नि को अर्पित किया और उसी अग्नि के समक्ष फेरे ले कर संतान प्राप्ति का प्राण ले कर ३ दिन और ३ रातें उन्होनें संभोग किया. परंतु चौथे दिन जब वह काम क्रीड़ा में व्यस्त थे ऋषि अपनी चिता से पुन उठ खड़े हुए. अपनी अर्धांगिनी को पर पुरुष का लिंग चूस्ते देख उनका पारा

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Unread post by admin » 13 Oct 2015 09:31

सांत्वे आसमान पर जा पंहुचा ” कुलटा नारी तूने अपने कुल का नाम बर्बाद किया जा मैं तुझे श्राप देता हूँ क़ि तू तत्क्षण ही कुतिया बन जा”
ऋषिपत्नी को सफाई रखने का मौका न मिला और वह कुतिया बन गयी. फिर ऋषि ने महाराज को श्राप दिया जिस प्रकार संतान प्राप्ति के लिए मेरी पत्नी को तुझसे संभोग करना पड़ा तो तुझे भी संतान प्राप्ति के लिए अपनी पत्नियों का औरों से संभोग कराना पड़ेगा.

महाराज ऋषि से अनुनय विनय करते रह गये पर ऋषि ने उनकी एक ना सुनी और अपनी कुतिया को लेकर वहाँ से अंतर्ध्यान हो गये.

सिक्ता इस कथा का स्मरण कर भय से काठ हो गयी परंतु उसने सोचा “तो मैं कौन सी महाराज की अर्धांगिनी हूँ ? ऋषि के श्रापनुसार महाराज कभी भी अपनी पत्नियों को गर्भ धारणा नहीं करवा सकते , मैं चाहे महाराज की प्रिया हूँ आख़िर हूँ तो परिचारिका ही , महाराज को प्रसन्न किया है और उन्होने मुझे वचन भी दे दिया है ,

अवश्य ही मीं उनसे संतान उत्पन्न करूंगीं और यह कपोल कल्पित कहानी तो रुद्र्प्रद की बताई है वह जनता है कि मैं महाराज की सेवा में रहती हूँ सो मेरा मन महाराज से विमुख हो कदाचित् इसलिए उसने मुझे यह कहानी सुनाई हो”

महाराज अब अपने लौकी के आकार के लॅंड को सिक्ता की योनि में बलपूर्वक प्रवेश कराने के लिए अब सिद्ध हो चुके थे.

सिक्ता ने अपने दोनो पैर फैलाते हुए अपने नितंबों के नीचे तकिये रख लिए , महाराज के वीर्य की एक बूँद भी वह गँवानी नहीं चाहती थी. महाराज आगे बढ़े और उन्होनें अपनी हथेली सिक्ता की योनि से सटा लीं और उंगलियों के पोरों से उसकी योनि को टटोलने लगे. जब जान उनकी उंगलियाँ योनि होंठों को स्पर्श करतीं या

मसलती थी सिक्ता की चीत्कार निकल जाती.

“आहह…महाराज..कितना सुखद है आपका स्पर्श , महाराज कृपा कीजिए महाराज आहह… हाँ महाराज आपने सही स्थान पकड़ा है … आ .. आ… आईईईईई….महाराज मैं आपसे भिक्षा मांगती हूँ .. आहह..”

महाराज ने अपना अंगुष्ठ उसके योनि द्वार पर रख कर अनामिका और छिन्ग्लि द्वारा होंठों को विलग कर मध्य उंगली को छिद्र में बलपूर्वक अंदर घुसाया .

“आहह हह महाराज” पीड़ा से सिक्ता की चीखों से पूरा कक्ष गूँज उठा.

“सिक्ता , हमें तुम्हारी योनि में प्रवेश करने से पूर्व तुम्हारे छिद्र की गहराई को मापना होगा” महाराज बोले.
“हम अभी अपनी उंगलियों को स्निग्ध करते हैं जिससे तुम्हें संभोग में कोई पीड़ा न होगी”
सिक्ता की आँखें भर आईं “कितने सहृदय हैं महाराज , रुद्र्प्रद होते तो क्रोध वश चूल्*हे की जलती लकड़ी से ही योनि पर प्रहार करते”
महाराज ने दो तालियाँ बजाईं , द्वार पर एक सेवक आ कर खड़ा हो गया. “भीतर प्रवेश करो सेवक” महाराज ने आदेश दिया. सेवक अंदर आया , सेवक ने देखा कि महाराज एक विवस्त्र परिचारिका पर नगनवस्था में पीछे से चढ़े हुए हैं
सेवक परिचारिका का मुख दर्शन न कर पाया क्योंकि उसके काले रेशमी केशों से उसका मुख ढँका हुआ था.

“सेवक तत्काल जाओ तथा आधा सेर घी , मधुपर्क और आधा सेर गुलकंद का लेप बना कर लाओ , शीघ्राती शीघ्र ”

सेवक वहाँ से सर पर पाँव रखकर भागा , उसे यह भली भाँति ज्ञात था विलंब होने पर महाराज उसी को नग्न कर उसके जाननांगो पर वह लेप लगवा कर उसे लाल पीले चींटों से भरे वृक्ष पर बाँध कर दुर्दशा कर देंगे.

सेवक ने महाराज को अधिक प्रतीक्षा न कराई महाराज के कहे अनुसार सोने की कटोरी में वह लेप बना कर लाया .
महाराज अपनी उदारता के लिए सर्वश्रुत थे सेवक द्वारा आज्ञा के तत्क्षण पालन से वह अतिव प्रसन्न हुए.

“सेवक हम तुम्हारी त्वरित सेवा से अति प्रसन्न हुए हम तुम्हें आज्ञा देते हैं हमारी इस भोग्या परिचारिका की योनि पर यह लेप लगाओ और उसकी योनि को चाट कर उसे स्निग्ध करो ” सेवक फूला न समाया , यह स्वामी द्वारा सेवक का किया गया सबसे बड़ा सम्मान था .

उसने विनम्रता पूर्वक कहा “आपके इस कथन से मैं कृतकृतय हुआ महाराज परंतु जिस प्रकार सिंह के शिकार को गीदड़ सियार और गिद्ध स्वयं सिंह की उपस्थिति में मुँह लगाने की चेष्टा नहीं कर सकते वैसे ही आपके इस क्षुद्र सेवक को आपके सम्मुख आपकी भोग्या परिचारिका की योनि को अपने मुख रस से आप्लावित करने

में संकोच हो रहा है”

महाराज हंस कर बोले “इसे तुम हमारी आज्ञा मानों हे सेवक”

“जो आज्ञा महाराज” सेवक बोला और शैया की ओर लंबे लंबे डग भरता हुआ आ पंहुचा . महाराज में निकट ही खड़े हो कर परिचारिका की साडी से अपना अंग पोंछ रहे थे.

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