गोदान -प्रेमचंद

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Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:11

बालक मालती की गोद में आ कर जैसे किसी बड़े सुख का अनुभव करने लगा। अपनी जलती हुई उँगलियों से उसके गले की मोतियों की माला पकड़ कर अपनी ओर खींचने लगा। मालती ने नेकलेस उतार कर उसके गले में डाल दी। बालक की स्वार्थी प्रकृति इस दशा में भी सजग थी। नेकलेस पा कर अब उसे मालती की गोद में रहने की कोई ऐसी जरूरत न रही। यहाँ उसके छिन जाने का भय था। झुनिया की गोद इस समय ज्यादा सुरक्षित थी।

मालती ने खिले हुए मन से कहा - बड़ा चालाक है। चीज ले कर कैसा भागा!

झुनिया ने कहा - दे दो बेटा, मेम साहब का है।

बालक ने हार को दोनों हाथों से पकड़ लिया और माँ की ओर रोष से देखा।

मालती बोली - तुम पहने रहो बच्चा, मैं माँगती नहीं हूँ।

उसी वक्त बँगले में आ कर उसने अपना बैठक का कमरा खाली कर दिया और उसी वक्त झुनिया उस नए कमरे में डट गई।

मंगल ने उस स्वर्ग को कौतूहल-भरी आँखों से देखा। छत में पंखा था, रंगीन बल्ब थे, दीवारो पर तस्वीरें थीं। देर तक उन चीजों को टकटकी लगाए देखता रहा। मालती ने बड़े प्यार से पुकारा - मंगल !

मंगल ने मुस्करा कर उसकी ओर देखा, जैसे कह रहा हो - आज तो हँसा नहीं जाता मेम साहब! क्या करूँ। आपसे कुछ हो सके तो कीजिए।

मालती ने झुनिया को बहुत-सी बातें समझाईं और चलते-चलते पूछा - तेरे घर में कोई दूसरी औरत हो, तो गोबर से कह दे, दो-चार दिन के लिए बुला लावे। मुझे चेचक का डर है। कितनी दूर है तेरा घर?

झुनिया ने अपने गाँव का नाम और घर का पता बताया। अंदाज से अट्ठारह-बीस कोस होंगे।

मालती को बेलारी याद था। बोली - वही गाँव तो नहीं, जिसके पच्छिम तरफ आधा मील पर नदी है?

'हाँ-हाँ मेम साहब, वही गाँव है। आपको कैसे मालूम?'

'एक बार हम लोग उस गाँव में गए थे। होरी के घर ठहरे थे। तू उसे जानती है?'

'वह तो मेरे ससुर हैं मेम साहब! मेरी सास भी मिली होंगी?'

'हाँ-हाँ, बड़ी समझदार औरत मालूम होती थी। मुझसे खूब बातें करती रही। तो गोबर को भेज दे, अपने माँ को बुला लाए।'

'वह उन्हें बुलाने नहीं जाएँगे।'

'क्यों?'

'कुछ ऐसा ही कारन है।'

झुनिया को अपने घर का चौका-बरतन, झाड़ू-बुहाई, रोटी-पानी सभी कुछ करना पड़ता। दिन को तो दोनों चना-चबेना खा कर रह जाते। रात को जब मालती आ जाती, तो झुनिया अपना खाना पकाती और मालती बच्चे के पास बैठती। वह बार-बार चाहती कि बच्चे के पास बैठे, लेकिन मालती उसे न आने देती। रात को बच्चे का ज्वर तेज हो जाता और वह बेचैन हो कर दोनों हाथ ऊपर उठा लेता। मालती उसे गोद में ले कर घंटों कमरे में टहलती। चौथे दिन उसे चेचक निकल आई। मालती ने सारे घर को टीका लगाया, खुद को टीका लगवाया, मेहता को भी लगाया। गोबर, झुनिया, महराज, कोई न बचा। पहले दिन तो दाने छोटे थे और अलग-अलग थे। जान पड़ता था, छोटी माता है। दूसरे दिन दाने जैसे खिल उठे और अंगूर के दानों के बराबर हो गए और फिर कई-कई दाने मिल कर बड़े-बड़े आंवले जैसे हो गए। मंगल जलन और खुजली और पीड़ा से बेचैन हो कर करुण स्वर में कराहता और दीन, असहाय नेत्रों से मालती की ओर देखता। उसका कराहना भी प्रौढ़ों का-सा था, और दृष्टि में भी प्रौढ़ता थी, जैसे वह एकाएक जवान हो गया हो। इस असहाय वेदना ने मानो उसके अबोध शिशुपन को मिटा डाला हो। उसकी शिशु-बुद्धि मानो सज्ञान हो कर समझ रही थी कि मालती ही के जतन से वह अच्छा हो सकता है। मालती ज्यों ही किसी काम से चली जाती, वह रोने लगता। मालती के आते ही चुप हो जाता। रात को उसकी बेचैनी बढ़ जाती और मालती को प्राय: सारी रात बैठना पड़ जाता, मगर वह न कभी झुँझलाती, न चिढ़ती। हाँ, झुनिया पर उसे कभी-कभी अवश्य क्रोध आता, क्योंकि वह अज्ञान के कारण जो न करना चाहिए, वह कर बैठती। गोबर और झुनिया दोनों की आस्था झाड़-फूँक में अधिक थी, पर यहाँ उसको कोई अवसर न मिलता। उस पर झुनिया दो बच्चे की माँ हो कर बच्चे का पालन करना न जानती थी। मंगल दिक करता, तो उसे डाँटती-कोसती। जरा-सा भी अवकाश पाती, तो जमीन पर सो जाती और सबेरे से पहले न उठती, और गोबर तो उस कमरे में आते जैसे डरता था। मालती वहाँ बैठी है, कैसे जाय? झुनिया से बच्चे का हाल-हवाल पूछ लेता और खा कर पड़ रहता। उस चोट के बाद वह पूरा स्वस्थ न हो पाया था। थोड़ा-सा काम करके भी थक जाता था। उन दिनों जब झुनिया घास बेचती थी और वह आराम से पड़ा रहता था, तो वह कुछ हरा हो गया था, मगर इधर कई महीने बोझ ढोने और चूने-गारे का काम करने से उसकी दशा गिर गई थी। उस पर यहाँ काम बहुत था। सारे बाग को पानी निकाल कर सींचना, क्यारियों को गोड़ना, घास छीलना, गायों को चारा-पानी देना और दुहना। और जो मालिक इतना दयालु हो, उसके काम में काम-चोरी कैसे करे? यह एहसान उसे एक क्षण भी आराम से न बैठने देता, और तब मेहता खुद खुरपी ले कर घंटों बाग में काम करते तो वह कैसे आराम करता? वह खुद सूखता जाता था, पर बाग हरा हो रहा था।

मिस्टर मेहता को भी बालक से स्नेह हो गया था। एक दिन मालती ने उसे गोद में ले कर उनकी मूँछें उखड़वा दी थीं। दुष्ट ने मूँछों को ऐसा पकड़ा था कि समूल ही उखाड़ लेगा। मेहता की आँखों में आँसू भर आए थे।

मेहता ने बिगड़ कर कहा था - बड़ा शैतान लौंडा है।

मालती ने उन्हें डाँटा था - तुम मूँछें साफ क्यों नहीं कर लेते?

'मेरी मूँछें मुझे प्राणों से प्रिय हैं।'

'अबकी पकड़ लेगा, तो उखाड़ कर ही छोड़ेगा।'

'तो मैं इसके कान भी उखाड़ लूँगा।'

मंगल को उनकी मूँछें उखाड़ने में कोई खास मजा आया था। वह खूब खिल-खिला कर हँस रहा था और मूँछों को और जोर से खींचा था, मगर मेहता को भी शायद मूँछें उखड़वाने में मजा आया था, क्योंकि वह प्राय: दो-तीन बार रोज उससे अपने मूँछों की रस्साकशी करा लिया करते थे।

इधर जब से मंगल को चेचक निकल आई थी, मेहता को भी बड़ी चिंता हो गई थी। अक्सर कमरे में जा कर मंगल को व्यथित आँखों से देखा करते। उसके कष्टों की कल्पना करके उनका कोमल हृदय हिल जाता था। उनके दौड़-धूप से वह अच्छा हो जाता, तो पृथ्वी के उस छोर तक दौड़ लगाते, रुपए खर्च करने से अच्छा होता, तो चाहे भीख ही माँगना पड़ता, वह उसे अच्छा करके ही रहते, लेकिन यहाँ कोई बस न था। उसे छूते भी उनके हाथ काँपते थे। कहीं उसके आंवले न टूट जाय। मालती कितने कोमल हाथों से उसे उठाती है, कंधों पर उठा कर कमरे में टहलाती है और कितने स्नेह से उसे बहला कर दूध पिलाती है। यह वात्सल्य मालती को उनकी दृष्टि में न जाने कितना ऊँचा उठा देता है। मालती केवल रमणी नहीं है, माता भी है और ऐसी-वैसी माता भी नहीं, सच्चे अर्थो में देवी और माता और जीवन देने वाली, जो पराए बालक को भी अपना सकती है, जैसे उसने मातापन का सदैव संचय किया हो और आज दोनों हाथों से उसे लुटा रही हो। उसके अंग-अंग से मातापन फूटा पड़ता था, मानो यही उसका यथार्थ रूप हो। यह हाव-भाव, यह शौक-सिंगार उसके मातापन के आवरण-मात्र हों, जिसमें उस विभूति की रक्षा होती रहे।

रात का एक बज गया था। मंगल का रोना सुन कर मेहता चौंक पड़े। सोचा, बेचारी मालती आधी रात तक तो जागती रही होगी, इस वक्त उसे उठने में कितना कष्ट होगा, अगर द्वार खुला हो तो मैं ही बच्चे को चुप करा दूँ। तुरंत उठ कर उस कमरे के द्वार पर आए और शीशे से अंदर झाँका। मालती बच्चे को गोद में लिए बैठी थी और बच्चा अनायास ही रो रहा था। शायद उसने कोई स्वप्न देखा था, या और किसी वजह से डर गया था। मालती चुमकारती थी, थपकती थी, तस्वीरें दिखाती थी, गोद में ले कर टहलती थी, पर बच्चा चुप होने का नाम न लेता था। मालती का यह अटूट वात्सल्य, यह अदम्य मातृ-भाव देख कर उनकी आँखें सजल हो गईं। मन में ऐसा पुलक उठा कि अंदर जा कर मालती के चरणों को हृदय से लगा लें। अंतस्तल से अनुराग में डूबे हुए शब्दों का एक समूह मचल पड़ा - प्रिए, मेरे स्वर्ग की देवी, मेरी रानी, डार्लिंग.....

और उसी प्रेमोन्माद में उन्होंने पुकारा - मालती, जरा द्वार खोल दो।

मालती ने आ कर द्वार खोल दिया और उनकी ओर जिज्ञासा की आँखों से देखा।

मेहता ने पूछा - क्या झुनिया नहीं उठी? यह तो बहुत रो रहा है।

मेहता ने संवेदना-भरे स्वर में कहा - आज आठवाँ दिन है, पीड़ा अधिक होगी। इसी से।

'तो लाओ, मैं कुछ देर टहला दूँ, तुम थक गई होगी।'

मालती ने मुस्करा कर कहा - तुम्हें जरा ही देर में गुस्सा आ जायगा।

बात सच थी, मगर अपनी कमजोरी को कौन स्वीकार करता है? मेहता ने जिद करके कहा - तुमने मुझे इतना हल्का समझ लिया है?

मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उनकी गोद में जाते ही वह एकदम चुप हो गया। बालकों में जो एक अंतर्ज्ञान होता है, उसने उसे बता दिया, अब रोने में तुम्हारा कोई फायदा नहीं। यह नया आदमी स्त्री नहीं, पुरुष है और पुरुष गुस्सेवर होता है और निर्दयी भी होता है और चारपाई पर लेटा कर, या बाहर अँधेरे में सुला कर दूर चला जा सकता है और किसी को पास आने भी न देगा।

मेहता ने विजय-गर्व से कहा - देखा, कैसा चुप कर दिया !

मालती ने विनोद किया - हाँ, तुम इस कला में भी कुशल हो। कहाँ सीखी?

'तुमसे।'

'मैं स्त्री हूँ और मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता।'

मेहता ने लज्जित हो कर कहा - मालती, मैं तुमसे हाथ जोड़ कर कहता हूँ, मेरे उन शब्दों को भूल जाओ। इन कई महीनों में कितना पछताया हूँ, कितना लज्जित हुआ हूँ, कितना दु:खी हुआ हूँ, शायद तुम इसका अंदाज न कर सको।

मालती ने सरल भाव से कहा - मैं तो भूल गई, सच कहती हूँ।

'मुझे कैसे विश्वास आए?'

'उसका प्रमाण यही है कि हम दोनों एक ही घर में रहते हैं, एक साथ खाते हैं, हँसते हैं, बोलते हैं।'

'क्या मुझे कुछ याचना करने की अनुमति न दोगी?'

उन्होंने मंगल को खाट पर लिटा दिया, जहाँ वह दुबक कर सो रहा। और मालती की ओर प्रार्थी आँखों से देखा, जैसे उसकी अनुमति पर उनका सब कुछ टिका हुआ हो।

मालती ने आर्द्र हो कर कहा - तुम जानते हो, तुमसे ज्यादा निकट संसार में मेरा कोई दूसरा नहीं है। मैंने बहुत दिन हुए, अपने को तुम्हारे चरणों पर समर्पित कर दिया। तुम मेरे पथ-प्रदर्शक हो, मेरे देवता हो, मेरे गुरू हो। तुम्हें मुझसे कुछ याचना करने की जरूरत नहीं, मुझे केवल संकेत कर देने की जरूरत है। जब तक मुझे तुम्हारे दर्शन न हुए थे और मैंने तुम्हें पहचाना न था, भोग और आत्म-सेवा ही मेरे जीवन का इष्ट था। तुमने आ कर उसे प्रेरणा दी, स्थिरता दी। मैं तुम्हारे एहसान कभी नहीं भूल सकती। मैंने नदी की तट वाली तुम्हारी बातें गाँठ बाँध लीं। दु:ख यही हुआ कि तुमने भी मुझे वही समझा, जो कोई दूसरा पुरुष समझता, जिसकी मुझे तुमसे आशा न थी। उसका दायित्व मेरे ऊपर है, यह मैं जानती हूँ, लेकिन तुम्हारा अमूल्य प्रेम पा कर भी मैं वही बनी रहूँगी, ऐसा समझ कर तुमने मेरे साथ अन्याय किया। मैं इस समय कितने गर्व का अनुभव कर रही हूँ, यह तुम नहीं समझ सकते। तुम्हारा प्रेम और विश्वास पा कर अब मेरे लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया है। यह वरदान मेरे जीवन को सार्थक कर देने के लिए काफी है। यह मेरी पूर्णता है।

यह कहते-कहते मालती के मन में ऐसा अनुराग उठा कि मेहता के सीने से लिपट जाए। भीतर की भावनाएँ बाहर आ कर मानो सत्य हो गई थीं। उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। जिस आनंद को उसने दुर्लभ समझ रखा था, वह इतना सुलभ, इतना समीप है! और हृदय का वह आह्लाद मुख पर आ कर उसे ऐसी शोभा देने लगा कि मेहता को उसमें देवत्व की आभा दिखी। यह नारी है, या मंगल की, पवित्रता की और त्याग की प्रतिमा!

उसी वक्त झुनिया जाग कर उठ बैठी और मेहता अपने कमरे में चले गए और फिर दो सप्ताह तक मालती से कुछ बातचीत करने का अवसर उन्हें न मिला। मालती कभी उनसे एकांत में न मिलती। मालती के वह शब्द उनके हृदय में गूँजते रहते। उनमें कितनी सांत्वना थी, कितनी विनय थी, कितना नशा था!

दो सप्ताह में मंगल अच्छा हो गया। हाँ, मुँह पर चेचक के दाग न भर सके। उस दिन मालती ने आस-पास के लड़कों को भरपेट मिठाई खिलाई और जो मनौतियाँ कर रखी थीं, वह भी पूरी की। इस त्याग के जीवन में कितना आनंद है, इसका अब उसे अनुभव हो रहा था। झुनिया और गोबर का हर्ष मानो उसके भीतर प्रतिबिंबित हो रहा था। दूसरों के कष्ट निवारण में उसने जिस सुख और उल्लास का अनुभव किया, वह कभी भोग-विलास के जीवन में न किया था। वह लालसा अब उन फूलों की भाँति क्षीण हो गई थी, जिसमें फल लग रहे हों। अब वह उस दर्जे से आगे निकल चुकी थी, जब मनुष्य स्थूल आनंद को परम सुख मानता है। यह आनंद अब उसे तुच्छ पतन की ओर ले जाने वाला, कुछ हल्का, बल्कि वीभत्स-सा लगता था। उसे बड़े बँगले में रहने का क्या आनंद, जब उसके आस-पास मिट्टी के झोंपड़े मानो विलाप कर रहे हों। कार पर चढ़ कर अब उसे गर्व नहीं होता। मंगल जैसे अबोध बालक ने उसके जीवन में कितना प्रकाश डाल दिया, उसके सामने सच्चे आनंद का द्वार-सा खोल दिया।

एक दिन मेहता के सिर में जोर का दर्द हो रहा था। वह आँखें बंद किए चारपाई पर पड़े तड़प रहे थे कि मालती ने आ कर उनके सिर पर हाथ रख कर पूछा - कब से यह दर्द हो रहा है?

मेहता को ऐसा जान पड़ा, उन कोमल हाथों ने जैसे सारा दर्द खींच लिया। उठ कर बैठ गए और बोले - दर्द तो दोपहर से ही हो रहा था और ऐसा सिर-दर्द मुझे आज तक नहीं हुआ था, मगर तुम्हारे हाथ रखते ही सिर ऐसा हल्का हो गया है, मानो दर्द था ही नहीं। तुम्हारे हाथों में यह सिद्धि है।

मालती ने उन्हें कोई दवा ला कर खाने को दे दी और आराम से लेट रहने की ताकीद करके तुरंत कमरे से निकल जाने को हुई।

मेहता ने आग्रह करके कहा - जरा दो मिनट बैठोगी नहीं?

मालती ने द्वार पर से पीछे फिर कर कहा - इस वक्त बातें करोगे तो शायद फिर दर्द होने लगे। आराम से लेटे रहो। आजकल मैं तुम्हें हमेशा कुछ-न-कुछ पढ़ते या लिखते देखती हूँ। दो-चार दिन लिखना-पढ़ना छोड़ दो।

'तुम एक मिनट बैठोगी नहीं?'

'मुझे एक मरीज को देखने जाना है।'

'अच्छी बात है, जाओ।'

मेहता के मुख पर कुछ ऐसी उदासी छा गई कि मालती लौट पड़ी और सामने आ कर बोली - अच्छा, कहो क्या कहते हो?

मेहता ने विमन हो कर कहा - कोई खास बात नहीं है। यही कह रहा था कि इतनी रात गए किस मरीज को देखने जाओगी?

'वही रायसाहब की लड़की है। उसकी हालत बहुत खराब हो गई थी। अब कुछ सँभल गई है।'

उसके जाते ही मेहता फिर लेट रहे। कुछ समझ में नहीं आया कि मालती के हाथ रखते ही दर्द क्यों शांत हो गया। अवश्य ही उसमें कोई सिद्धि है और यह उसकी तपस्या का, उसकी कर्मण्य मानवता का ही वरदान है। मालती नारीत्व के उस ऊँचे आदर्श पर पहुँच गई थी, जहाँ वह प्रकाश के एक नक्षत्र-सी नजर आती थी। अब वह प्रेम की वस्तु नहीं, श्रद्धा की वस्तु थी। अब वह दुर्लभ हो गई थी और दुर्लभता मनस्वी आत्माओं के लिए उद्योग का मंत्र है। मेहता प्रेम में जिस सुख की कल्पना कर रहे थे, उसे श्रद्धा ने और भी गहरा, और भी स्फूर्तिय बना दिया। प्रेम में कुछ मान भी होता है, कुछ ममत्व भी। श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना इष्ट बना लेती है। प्रेम अधिकार करना चाहता है, जो कुछ देता है, उसके बदले में कुछ चाहता भी है। श्रद्धा का चरम आनंद अपना समर्पण है, जिसमें अहम्मन्यता का ध्वंस हो जाता है।

मेहता का वृह्त ग्रंथ समाप्त हो गया था, जिसे वह तीन साल से लिख रहे थे और जिसमें उन्होंने संसार के सभी दर्शन-तत्वों का समन्वय किया था। यह ग्रंथ उन्होंने मालती को समर्पित किया, और जिस दिन उसकी प्रतियाँ इंग्लैंड से आईं और उन्होंने एक प्रति मालती को भेंट की, वह उसे अपने नाम से समर्पित देख कर विस्मित भी हुई और दु:खी भी।

उसने कहा - यह तुमने क्या किया? मैं तो अपने को इस योग्य नहीं समझती।

मेहता ने गर्व के साथ कहा - लेकिन मैं तो समझता हूँ। यह तो कोई चीज नहीं। मेरे तो अगर सौ प्राण होते, तो वह तुम्हारे चरणों में न्योछावर कर देता।

'मुझ पर! जिसने स्वार्थ-सेवा के सिवा कुछ जाना ही नहीं।'

'तुम्हारे त्याग का टुकड़ा भी मैं पा जाता, तो अपने को धन्य समझता। तुम देवी हो।'

'पत्थर की, इतना और क्यों नहीं कहते?'

'त्याग की, मंगल की, पवित्रता की।'

'तब तुमने मुझे खूब समझा! मैं और त्याग! मैं तुमसे सच कहती हूँ, सेवा या त्याग का भाव कभी मेरे मन में नहीं आया। जो कुछ करती हूँ, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वार्थ के लिए करती हूँ। मैं गाती इसलिए नहीं कि त्याग करती हूँ, या अपने गीतों से दुखी आत्माओं को सांत्वना देती हूँ, बल्कि केवल इसलिए कि उससे मेरा मन प्रसन्न होता है। इसी तरह दवा-दाई भी गरीबों को दे देती हूँ, केवल अपने मन को प्रसन्न करने के लिए। शायद मन का अहंकार इसमें सुख मानता है। तुम मुझे ख्वाहमख्वाह देवी बनाए डालते हो। अब तो इतनी कसर रह गई है कि धूप-दीप ले कर मेरी पूजा करो!'

मेहता ने कातर स्वर में कहा - वह तो मैं बरसों से कर रहा हूँ मालती, और उस वक्त तक करता जाऊँगा, जब तक वरदान न मिलेगा।

मालती ने चुटकी ली - तो वरदान पा जाने के बाद शायद देवी को मंदिर से निकाल फेंको।

मेहता सँभल कर बोले - तब तो मेरी अलग सत्ता ही न रहेगी, उपासक उपास्य में लय हो जायगा।

मालती ने गंभीर हो कर कहा - नहीं मेहता, मैं महीनों से इस प्रश्न पर विचार कर रही हूँ और अंत में मैंने यह तय किया है कि मित्र बन कर रहना स्त्री-पुरुष बन कर रहने से कहीं सुख कर है। तुम मुझसे प्रेम करते हो, मुझ पर विश्वास करते हो, और मुझे भरोसा है कि आज अवसर आ पड़े तो तुम मेरी रक्षा प्राणों से करोगे। तुममें मैंने अपना पथ-प्रदर्शक ही नहीं, अपना रक्षक भी पाया है। मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ, तुम पर विश्वास करती हूँ, और तुम्हारे लिए कोई ऐसा त्याग नहीं है, जो मैं न कर सकूँ। और परमात्मा से मेरी यही विनय है कि वह जीवन-पर्यंत मुझे इसी मार्ग पर दृढ़ रखे। हमारी पूर्णता के लिए, हमारी आत्मा के विकास के लिए, और क्या चाहिए? अपनी छोटी-सी गृहस्थी बना कर, हमारी आत्माओं को छोटे-से पिजड़े में बंद करके, अपने दु:ख-सुख को अपने ही तक रख कर, क्या हम असीम के निकट पहुँच सकते हैं? वह तो हमारे मार्ग में बाधा ही डालेगा। कुछ विरले प्राणी ऐसे भी हैं, जो पैरों में यह बेड़ियाँ डाल कर भी विकास के पथ पर चल सकते हैं और चल रहे हैं। यह भी जानती हूँ कि पूर्णता के लिए पारिवारिक प्रेम और त्याग और बलिदान का बहुत बड़ा महत्व है, लेकिन मैं अपनी आत्मा को उतना दृढ़ नहीं पाती। जब तक ममत्व नहीं है, अपनापन नहीं है, तब तक जीवन का मोह नहीं है, स्वार्थ का जोर नहीं है। जिस दिन मन में मोह आसक्त हुआ और हम बंधन में पड़े, उस क्षण हमारा मानवता का क्षेत्र सिकुड़ जायगा नई-नई जिम्मेदारियाँ आ जायँगी और हमारी सारी शक्ति उन्हीं को पूरा करने में लगने लगेंगी। तुम्हारे जैसे विचारवान्, प्रतिभाशाली मनुष्य की आत्मा को मैं इस कारागार में बंद नहीं करना चाहती। अभी तक तुम्हारा जीवन यज्ञ था, जिसमें स्वार्थ के लिए बहुत थोड़ा स्थान था। मैं उसको नीचे की ओर न ले जाऊँगी। संसार को तुम जैसे साधकों की जरूरत है, जो अपनेपन को इतना फैला दें कि सारा संसार अपना हो जाए। संसार में अन्याय की, आतंक की, भय की दुहाई मची हुई है। अंधविश्वास का, कपट-धर्म का, स्वार्थ का प्रकोप छाया हुआ है। तुमने वह आर्त पुकार सुनी है। तुम भी न सुनोगे, तो सुनने वाले कहाँ से आएँगे? और असत्य प्राणियों की तरह तुम भी उसकी ओर से अपने कान नहीं बंद कर सकते। तुम्हें वह जीवन भार हो जायगा। अपनी विद्या और बुद्धि को, अपनी जागी हुई मानवता को और भी उत्साह और जोर के साथ उसी रास्ते पर ले जाओ। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे चलूँगी। अपने जीवन के साथ मेरा जीवन भी सार्थक कर दो। मेरा तुमसे यही आग्रह है। अगर तुम्हारा मन सांसारिकता की ओर लपकता है, तब भी मैं अपना काबू चलते तुम्हें उधर से हटाऊँगी और ईश्वर न करे कि मैं असफल हो जाऊँ, लेकिन तब मैं तुम्हारा साथ दो बूँद आँसू गिरा कर छोड़ दूँगी, और कह नहीं सकती, मेरा क्या अंत होगा, किस घाट लगूँगी, पर चाहे वह कोई घाट हो, इस बंधन का घाट न होगा। बोलो, मुझे क्या आदेश देते हो?

मेहता सिर झुकाए सुनते रहे। एक-एक शब्द मानो उनके भीतर की आँखें इस तरह खोले देता था, जैसी अब तक कभी न खुली थीं। वह भावनाएँ जो अब तक उनके सामने स्वप्न-चित्रों की तरह आईं थीं, अब जीवन सत्य बन कर स्पंदित हो गई थीं। वह अपने रोम-रोम में प्रकाश और उत्कर्ष का अनुभव कर रहे थे। जीवन के महान संकल्पों के सम्मुख हमारा बालपन हमारी आँखों में फिर जाता है। मेहता की आँखों में मधुर बाल-स्मृतियाँ सजीव हो उठी, जब वह अपने विधवा माता की गोद में बैठ कर महान सुख का अनुभव किया करते थे। कहाँ है वह माता, आए और देखे अपने बालक की इस सुकीर्ति को। मुझे आशीर्वाद दो। तुम्हारा वह जिद्दी बालक आज एक नया जन्म ले रहा है।

उन्होंने मालती के चरण दोनों हाथों से पकड़ लिए और काँपते हुए स्वर में बोले - तुम्हारा आदेश स्वीकार है मालती!

और दोनों एकांत हो कर प्रगाढ़ आलिंगन में बँध गए। दोनों की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी।

Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:11

सिलिया का बालक अब दो साल का हो रहा था और सारे गाँव में दौड़ लगाता था। अपने साथ वह एक विचित्र भाषा लाया था, और उसी में बोलता था, चाहे कोई समझे या न समझे। उसकी भाषा में ट, ल और घ की कसरत थी और स, र आदि वर्ण गायब थे। उस भाषा में रोटी का नाम था ओटी, दूध का तूत, साफ का छाग और कौड़ी का तौली। जानवरों की बोलियों की ऐसी नकल करता है कि हँसते-हँसते लोगों के पेट में बल पड़ जाता है। किसी ने पूछा - रामू, कुत्ता कैसे बोलता है? रामू गंभीर भाव से कहता - भों-भों, और काटने दौड़ता। बिल्ली कैसे बोले - और रामू म्याँव-म्याँव करके आँखें निकाल कर ताकता और पंजों से नोचता। बड़ा मस्त लड़का था। जब देखो खेलने में मगन रहता, न खाने की सुधि थी, न पीने की। गोद से उसे चिढ़ थी। उसके सबसे सुख के क्षण वह होते, जब द्वार पर नीम के नीचे मनों धूल बटोर कर उसमें लोटता, सिर पर चढ़ाता, उसकी ढेरियाँ लगाता, घरौंदे बनाता। अपनी उम्र के लड़कों से उसकी एक क्षण न पटती। शायद उन्हें अपने साथ खेलने के योग्य न समझता था।

कोई पूछता - तुम्हारा नाम क्या है?

चटपट कहता - लामू।

'तुम्हारे बाप का क्या नाम है?'

'मातादीन।'

'और तुम्हारी माँ का?'

'छिलिया।'

'और दातादीन कौन है?'

'वह अमाला छाला है।'

न जाने किसने दातादीन से उसका यह नाता बता दिया था।

रामू और रूपा में खूब पटती थी। वह रूपा का खिलौना था। उसे उबटन मलती, काजल लगाती, नहलाती, बाल सँवारती, अपने हाथों कौर बना-बना कर खिलाती, और कभी-कभी उसे गोद में लिए रात को सो जाती। धनिया डाँटती, तू सब कुछ छुआछूत किए देती है, मगर वह किसी की न सुनती। चीथड़े की गुड़ियों ने उसे माता बनना सिखाया था। वह मातृ-भावना जीता-जागता बालक पा कर अब गुड़ियों से संतुष्ट न हो सकती थी।

होरी के घर के पिछवाड़े जहाँ किसी जमाने में उसकी बरदौर थी, उसी के खंडहर में सिलिया अपना एक फूस का झोंपड़ा डाल कर रहने लगी थी। होरी के घर में उम्र तो नहीं कट सकती थी।

मातादीन को कई सौ रुपए खर्च करने के बाद अंत में काशी के पंडितों ने फिर से ब्राह्मण बना दिया था। उस दिन बड़ा भारी होम हुआ, बहुत-से ब्राह्मणों ने भोजन किया और बहुत से मंत्र और श्लोक पढ़े गए। मातादीन को शुद्द गोबर और गोमूत्र खाना-पीना पड़ा। गोबर से उसका मन पवित्र हो गया। मूत्र से उसकी आत्मा में अशुचिता के कीटाणु मर गए।

लेकिन एक तरह से इस प्रायश्चित ने उसे सचमुच पवित्र कर दिया। होम के प्रचंड अग्निकुंड में उसकी मानवता निखर गई और होम की ज्वाला के प्रकाश से उसने धर्म-स्तंभों को अच्छी तरह परख लिया। उस दिन से उसे धर्म के नाम से चिढ़ हो गई। उसने जनेऊ उतार फेंका और पुरोहिती को गंगा में डुबा आया। अब वह पक्का खेतिहर था। उसने यह भी देखा कि यद्दपि विद्वानों ने उसका ब्राह्मणत्व स्वीकार कर लिया, लेकिन जनता अब भी उसके हाथ का पानी नहीं पीती, उससे मुहूर्त पूछती है, साइत और लग्न का विचार करवाती है, उसे पर्व के दिन दान भी दे देती है, पर उससे अपने बरतन नहीं छुलाती।

जिस दिन सिलिया के बालक का जन्म हुआ, उसने दूनी मात्रा में भंग पी, और गर्व से जैसे उसकी छाती तन गई और उँगलियाँ बार-बार मूँछों पर पड़ने लगीं। बच्चा कैसा होगा? उसी के जैसा? कैसे देखे? उसका मन मसोस कर रह गया।

तीसरे दिन उसे रूपा खेत में मिली। उसने पूछा - रुपिया, तूने सिलिया का लड़का देखा?

रुपिया बोली - देखा क्यों नहीं! लाल-लाल है, खूब मोटा, बड़ी-बड़ी आँखें हैं, सिर में झबराले बाल हैं, टुकुर-टुकुर ताकता है।

मातादीन के हृदय में जैसे वह बालक आ बैठा था, और हाथ-पाँव फेंक रहा था। उसकी आँखों में नशा-सा छा गया। उसने उस किशोरी रूपा को गोद में उठा लिया, फिर कंधों पर बिठा लिया, फिर उतार कर उसके कपोलों को चूम लिया।

रूपा बाल सँभालती हुई ढीठ हो कर बोली - चलो, मैं तुमको दूर से दिखा दूँ। ओसारे में ही तो है। सिलिया बहन न जाने क्यों हरदम रोती रहती है।

मातादीन ने मुँह फेर लिया। उसकी आँखें सजल हो आई थीं और होंठ काँप रहे थे।

उस रात को जब सारा गाँव सो गया और पेड़ अंधकार में डूब गए, तो वह सिलिया के द्वार पर आया और संपूर्ण प्राणों से बालक का रोना सुना, जिसमें सारी दुनिया का संगीत, आनंद और माधुर्य भरा हुआ था।

सिलिया बच्चे को होरी के घर में खटोले पर सुला कर मजूरी करने चली जाती। मातादीन किसी-न-किसी बहाने से होरी के घर आता और कनखियों से बच्चे को देख कर अपना कलेजा और आँखें और प्राण शीतल करता।

धनिया मुस्करा कर कहती - लजाते क्यों हो, गोद में ले लो, प्यार करो, कैसा काठ का कलेजा है तुम्हारा! बिलकुल तुमको पड़ा है।

मातादीन एक-दो रुपए सिलिया के लिए फेंक कर बाहर निकल आता। बालक के साथ उसकी आत्मा भी बढ़ रही थी, खिल रही थी, चमक रही थी। अब उसके जीवन का भी एक उद्देश्य था, एक व्रत था। उसमें संयम आ गया, गंभीरता आ गई, दायित्व आ गया।

एक दिन रामू खटोले पर लेटा हुआ था। धनिया कहीं गई थी। रूपा भी लड़कों का शोर सुन कर खेलने चली गई। घर अकेला था। उसी वक्त मातादीन पहुँचा। बालक नीले आकाश की ओर देख-देख हाथ-पाँव फेंक रहा था, हुमक रहा था-जीवन के उस उल्लास के साथ जो अभी उसमें ताजा था। मातादीन को देख कर वह हँस पड़ा। मातादीन स्नेह-विव्हल हो गया। उसने बालक को उठा कर छाती से लगा लिया। उसकी सारी देह और हृदय और प्राण रोमाँचित हो उठे, मानो पानी की लहरों में प्रकाश की रेखाएँ काँप रही हों। बच्चे की गहरी, निर्मल, अथाह, मोद-भरी आँखों में जैसे उसको जीवन का सत्य मिल गया। उसे एक प्रकार का भय-सा लगा, मानो वह दृष्टि उसके हृदय में चुभी जाती हो - वह कितना अपवित्र है, ईश्वर का वह प्रसाद कैसे छू सकता है? उसने बालक को सशंक मन के साथ फिर लिटा दिया। उसी वक्त रूपा बाहर से आ गई और वह बाहर निकल गया।

एक दिन खूब ओले गिरे। सिलिया घास ले कर बाजार गई हुई थी। रूपा अपने खेल में मगन थी। रामू अब बैठने लगा था। कुछ-कुछ बकवाँ चलने भी लगा था। उसने जो आँगन में बिनौले बिछे देखे, तो समझा बताशे फैले हुए हैं। कई उठा कर खाए और आँगन में खूब खेला। रात को उसे ज्वर आ गया। दूसरे दिन निमोनिया हो गया। तीसरे दिन संध्या समय सिलिया की गोद में ही बालक के प्राण निकल गए।

लेकिन बालक मर कर भी सिलिया के जीवन का केंद्र बना रहा। उसकी छाती में दूध का उबाल-सा आता और आँचल भीग जाता। उसी क्षण आँखों से आँसू भी निकल पड़ते। पहले सब कामों से छुट्टी पा कर रात को जब वह रामू को हिए से लगा कर स्तन उसके मुँह में दे देती, तो मानो उसके प्राणों में बालक की स्फुर्ति भर जाती। तब वह प्यारे-प्यारे गीत गाती, मीठे-मीठे स्वप्न देखती और नए-नए संसार रचती, जिसका राजा रामू होता। अब सब कामों से छुट्टी पा कर वह अपनी सूनी झोपड़ी में रोती थी और उसके प्राण तड़पते थे, उड़ जाने के लिए उस लोक में, जहाँ उसका लाल इस समय भी खेल रहा होगा। सारा गाँव उसके दु:ख में शरीक था। रामू कितना चोंचाल था, जो कोई बुलाता, उसी की गोद में चला जाता। मर कर और पहुँच से बाहर हो कर वह और भी प्रिय हो गया था, उसकी छाया उससे कहीं सुंदर, कहीं चोंचाल, कहीं लुभावनी थी।

मातादीन उस दिन खुल पड़ा। परदा होता है हवा के लिए। आँधी में परदे उठाके रख दिए जाते हैं कि आँधी के साथ उड़ न जायँ। उसने शव को दोनों हथेलियों पर उठा लिया और अकेला नदी के किनारे तक ले गया, जो एक मील का पाट छोड़ कर पतली-सी धार में समा गई थी। आठ दिन तक उसके हाथ सीधे न हो सके। उस दिन वह जरा भी नहीं लजाया, जरा भी नहीं झिझका।

और किसी ने कुछ कहा भी नहीं, बल्कि सभी ने उसके साहस और दृढ़ता की तारीफ की।

होरी ने कहा - यही मरद का धरम है। जिसकी बाँह पकड़ी, उसे क्या छोड़ना!

धनिया ने आँखें नचा कर कहा - मत बखान करो, जी जलता है। यह मरद है? मैं ऐसे मरद को नामरद कहती हूँ। जब बाँह पकड़ी थी, तब क्या दूध पीता था कि सिलिया बांभनी हो गई थी?

एक महीना बीत गया। सिलिया फिर मजूरी करने लगी थी। संध्या हो गई थी। पूर्णमासी का चाँद विहँसता-सा निकल आया था। सिलिया ने कटे हुए खेत में से गिरे हुए जौ के बाल चुन कर टोकरी में रख लिए थे और घर जाना चाहती थी कि चाँद पर निगाह पड़ गई और दर्द-भरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। आँचल दूध से भीग गया और मुख आँसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रूदन का आनंद लेने लगी।

सहसा किसी की आहट पा कर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आ कर सामने खड़ा हो गया और बोला - कब तक रोए जायगी सिलिया? रोने से वह फिर तो न आ जायगा।

और यह कहते-कहते वह खुद रो पड़ा।

सिलिया के कंठ में आए हुए भर्त्सना के शब्द पिघल गए। आवाज सँभाल कर बोली - तुम आज इधर कैसे आ गए?

मातादीन कातर हो कर बोला - इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखा, चला आया।

'तुम तो उसे खेला भी न पाए।'

'नहीं सिलिया, एक दिन खेलाया था।'

'सच?'

'सच!'

'मैं कहाँ थी?'

'तू बाजार गई थी?'

'तुम्हारी गोद में रोया नहीं?'

'नहीं सिलिया, हँसता था।'

'सच?'

'सच!'

'बस, एक ही दिन खेलाया?'

'हाँ, एक ही दिन, मगर देखने रोज आता था। उसे खटोले पर खेलते देखता था और दिल थामकर चला जाता था।'

'तुम्हीं को पड़ा था।'

'मुझे तो पछतावा होता है कि नाहक उस दिन उसे गोद में लिया। यह मेरे पापों का दंड है।'

सिलिया की आँखों में क्षमा झलक रही थी। उसने टोकरी सिर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ-साथ चला।

सिलिया ने कहा - मैं तो अब धनिया काकी के बरौठे में सोती हूँ। अपने घर में अच्छा नहीं लगता।

'धनिया मुझे बराबर समझाती रहती थी।'

'सच?'

'हाँ सच। जब मिलती थी, समझाने लगती थी।'

गाँव के समीप आ कर सिलिया ने कहा - अच्छा, अब इधर से अपने घर जाओ। कहीं पंडित देख न लें।

मातादीन ने गर्दन उठा कर कहा - मैं अब किसी से नहीं डरता।

'घर से निकाल देंगे तो कहाँ जाओगे?'

'मैंने अपना घर बना लिया है।'

'सच?'

'हाँ, सच।'

'कहाँ, मैंने तो नहीं देखा।'

'चल तो दिखाता हूँ।'

दोनों और आगे बढ़े। मातादीन आगे था। सिलिया पीछे। होरी का घर आ गया। मातादीन उसके पिछवाड़े जा कर सिलिया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा हो गया और बोला - यही मेरा घर है।

सिलिया ने अविश्वास, क्षमा, व्यंग और दु:ख भरे स्वर में कहा - यह तो सिलिया चमारिन का घर है।

मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते हुए कहा - यह मेरी देवी का मंदिर है।

सिलिया की आँखें चमकने लगीं। बोली - मंदिर है तो एक लोटा पानी उँड़ेल कर चले जाओगे!

मातादीन ने उसके सिर की टोकरी उतारते हुए कंपित स्वर में कहा - नहीं सिलिया, जब तक प्राण है, तेरी शरण में रहूँगा। तेरी ही पूजा करूँगा!

'झूठ कहते हो।'

'नहीं, मैं तेरे चरण छू कर कहता हूँ। सुना, पटवारी का लौंडा भुनेसरी तेरे पीछे बहुत पड़ा था। तूने उसे खूब डाँटा।'

'तुमसे किसने कहा?'

'भुनेसरी आप ही कहता था।'

'सच?'

'हाँ, सच।'

सिलिया ने दियासलाई से कुप्पी जलाई। एक किनारे मिट्टी का घड़ा था, दूसरी ओर चूल्हा था, जहाँ दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मँजे-धुले रखे थे। बीच में पुआल बिछा था। वहीं सिलिया का बिस्तर था। इस बिस्तर के सिरहाने की ओर रामू की छोटी-सी खटोली जैसे रो रही थी, और उसी के पास दो-तीन मिट्टी के हाथी-घोड़े अंग-भंग दशा में पड़े हुए थे। जब स्वामी ही न रहा तो कौन उनकी देखभाल करता? मातादीन पुआल पर बैठ गया। कलेजे में हूक-सी उठ रही थी, जी चाहता था, खूब रोए।

सिलिया ने उसकी पीठ पर हाथ रख कर पूछा - तुम्हें कभी मेरी याद आती थी?

मातादीन ने उसका हाथ पकड़ कर हृदय से लगा कर कहा - तू हरदम मेरी आँखों के सामने फिरती रहती थी। तू भी कभी मुझे याद करती थी।

'मेरा तो तुमसे जी जलता था।'

'और दया नहीं आती थी?'

'कभी नहीं।'

'तो भुनेसरी?'

'अच्छा, गाली मत दो। मैं डर रही हूँ, कि गाँव वाले क्या कहेंगे।'

'जो भले आदमी हैं, वह कहेंगे, यही इसका धरम था। जो बुरे हैं, उनकी मैं परवा नहीं करता।'

'और तुम्हारा खाना कौन पकाएगा?'

'मेरी रानी, सिलिया।'

'तो बांभन कैसे रहोगे?'

'मैं बांभन नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पाले, वही बांभन है, जो धरम से मुँह मोड़े, वही चमार है।'

सिलिया ने उसके गले में बाँहे डाल दीं।

Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:12

होरी की दशा दिन-दिन गिरती ही जाती थी। जीवन के संघर्ष में उसे सदैव हार हुई, पर उसने कभी हिम्मत नहीं हारी। प्रत्येक हार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की शक्ति दे देती थी, मगर अब वह उस अंतिम दशा को पहुँच गया था, जब उसमें आत्मविश्वास भी न रहा था। अगर वह अपने धर्म पर अटल रह सकता, तो भी कुछ आँसू पुँछते, मगर वह बात न थी। उसने नीयत भी बिगाड़ी, अधर्म भी कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, जिसमें वह पड़ा न हो, पर जीवन की कोई अभिलाषा न पूरी हुई, और भले दिन मृगतृष्णा की भाँति दूर ही होते चले गए, यहाँ तक कि अब उसे धोखा भी न रह गया था, झूठी आशा की हरियाली और चमक भी अब नजर न आती थी।

हारे हुए महीप की भाँति उसने अपने को इस तीन बीघे के किले में बंद कर लिया था और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फाके सहे, बदनाम हुआ, मजूरी की, पर किले को हाथ से न जाने दिया, मगर अब वह किला भी हाथ से निकला जाता था। तीन साल से लगान बाकी पड़ा हुआ था और अब पंडित नोखेराम ने उस पर बेदखली का दावा कर दिया था। कहीं से रुपए मिलने की आशा न थी। जमीन उसके हाथ से निकल जायगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे। भगवान की इच्छा! रायसाहब को क्या दोष दे? असामियों ही से उनका भी गुजर है। इसी गाँव पर आधे से ज्यादा घरों पर बेदखली आ रही है, आवे। औरों की जो दशा होगी, वही उसकी भी होगी। भाग्य में सुख बदा होता, तो लड़का यों हाथ से निकल जाता?

साँझ हो गई थी। वह इसी चिंता में डूबा बैठा था कि पंडित दातादीन ने आ कर कहा - क्या हुआ होरी, तुम्हारी बेदखली के बारे में? इन दिनों नोखेराम से मेरी बोलचाल बंद है। कुछ पता नहीं। सुना, तारीख को पंद्रह दिन और रह गए हैं।

होरी ने उनके लिए खाट डाल कर कहा - वह मालिक हैं, जो चाहे करें, मेरे पास रुपए होते तो यह दुर्दसा क्यों होती। खाया नहीं, उड़ाया नहीं, लेकिन उपज ही न हो और जो हो भी, वह कौड़ियों के मोल बिके, तो किसान क्या करे?

'लेकिन जैजात तो बचानी ही पड़ेगी। निबाह कैसे होगा? बाप-दादों की इतनी ही निसानी बच रही है। वह निकल गई, तो कहाँ रहोगे?'

'भगवान की मरजी है, मेरा क्या बस?'

'एक उपाय है, जो तुम करो।'

होरी को जैसे अभय-दान मिल गया। उनके पाँव पकड़ कर बोला - बड़ा धरम होगा महराज, तुम्हारे सिवा मेरा कौन है? मैं तो निरास हो गया था।

'निरास होने की कोई बात नहीं। बस, इतना ही समझ लो कि सुख में आदमी का धरम कुछ और होता है, दु:ख में कुछ और। सुख में आदमी दान देता है, मगर दु:ख में भीख तक माँगता है। उस समय आदमी का यही धरम हो जाता है। सरीर अच्छा रहता है, तो हम बिना असनान-पूजा किए मुँह में पानी भी नहीं डालते, लेकिन बीमार हो जाते हैं, तो बिना नहाए-धोए, कपड़े पहने, खाट पर बैठे पथ्य लेते हैं। उस समय का यही धरम है। यहाँ हममें-तुममें कितना भेद है, लेकिन जगन्नाथपुरी में कोई भेद नहीं रहता। ऊँचे-नीचे सभी एक पंगत में बैठ कर खाते हैं। आपत्काल में श्रीरामचंद्र ने सबरी के जूठे फल खाए थे, बालि का छिप कर बध किया था। जब संकट में बड़े-बड़ों की मर्जादा टूट जाती है, तो हमारी-तुम्हारी कौन बात है? रामसेवक महतो को तो जानते हो न?'

होरी ने निरूत्साह हो कर कहा - हाँ, जानता क्यों नहीं।

'मेरा जजमान है। बड़ा अच्छा जमाना है उसका। खेती अलग, लेन-देन अलग। ऐसे रोबदाब का आदमी ही नहीं देखा! कई महीने हुए उनकी औरत मर गई है। संतान कोई नहीं। अगर रुपिया का ब्याह उससे करना चाहो, तो मैं उसे राजी कर लूँ। मेरी बात वह कभी न टालेगा। लड़की सयानी हो गई है और जमाना बुरा है। कहीं कोई बात हो जाय, तो मुँह में कालिख लग जाए। यह बड़ा अच्छा औसर है। लड़की का ब्याह भी हो जायगा और तुम्हारे खेत भी बच जाएँगे। सारे खरच-बरच से बचे जाते हो।'

रामसेवक होरी से दो ही चार साल छोटा था। ऐसे आदमी से रूपा के ब्याह करने का प्रस्ताव ही अपमानजनक था। कहाँ फूल-सी रूपा और कहाँ वह बूढ़ा ठूँठ! जीवन में होरी ने बड़ी-बड़ी चोट सही थीं, मगर यह चोट सबसे गहरी थी। आज उसके ऐेसे दिन आ गए हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती है और उसमें इनकार करने का साहस नहीं है। ग्लानि से उसका सिर झुक गया।

दातादीन ने एक मिनट के बाद पूछा - तो क्या कहते हो?

होरी ने साफ जवाब न दिया। बोला - सोच कर कहूँगा।

'इसमें सोचने की क्या बात है?'

'धनिया से भी तो पूछ लूँ।'

'तुम राजी हो कि नहीं?'

'जरा सोच लेने दो महाराज! आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मरजाद भी तो रखना है।'

'पाँच-छ: दिन के अंदर मुझे जवाब दे देना। ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो और बेदखली आ जाए।'

दातादीन चले गए। होरी की ओर से उन्हें कोई अंदेशा न था। अंदेशा था धनिया की ओर से। उसकी नाक बड़ी लंबी है। चाहे मिट जाय, मरजाद न छोड़गी। मगर होरी हाँ कर ले तो वह रो-धो कर मान ही जायगी। खेतों के निकलने में भी तो मरजाद बिगड़ती है।

धनिया ने आ कर पूछा - पंडित क्यों आए थे?

'कुछ नहीं, यही बेदखली की बातचीत थी।'

'आँसू पोंछने आए होंगे। यह तो न होगा कि सौ रुपए उधार दे दें।'

'माँगने का मुँह भी तो नहीं।'

'तो यहाँ आते ही क्यों हैं?'

'रुपिया की सगाई की बात भी थी।'

'किससे?'

'रामसेवक को जानती है? उन्हीं से।'

'मैंने उन्हें कब देखा, हाँ नाम बहुत दिन से सुनती हूँ। वह तो बूढ़ा होगा।'

'बूढ़ा नहीं है। हाँ अधेड़ है।'

'तुमने पंडित को फटकारा नहीं। मुझसे कहते तो ऐसा जवाब देती कि याद करते।'

'फटकारा नहीं, लेकिन इनकार कर दिया। कहते थे, ब्याह भी बिना खरच-बरच के हो जायगा और खेत भी बच जाएँगे।'

'साफ-साफ क्यों नहीं बोलते कि लड़की बेचने को कहते थे। कैसे इस बूढ़े का हियाव पड़ा?'

लेकिन होरी इस प्रश्न पर जितना ही विचार करता, उतना ही उसका दुराग्रह कम होता जाता था। कुल-मर्यादा की लाज उसे कम न थी, लेकिन जिसे असाध्य रोग ने ग्रस लिया हो, वह खाद्य-अखाद्य की परवाह कब करता है? दातादीन के सामने होरी ने कुछ ऐसा भाव प्रकट किया था, जिसे स्वीकृति नहीं कहा जा सकता, मगर भीतर से वह पिघल गया था। उम्र की ऐसी कोई बात नहीं। मरना-जीना तकदीर के हाथ है। बूढ़े बैठे रहते हैं, जवान चले जाते हैं। रूपा के भाग्य में सुख लिखा है, तो वहाँ भी सुख उठाएगी, दु:ख लिखा है, तो कहीं भी सुख नहीं पा सकती। और लड़की बेचने की तो कोई बात ही नहीं। होरी उससे जो कुछ लेगा, उधार लेगा और हाथ में रुपए आते ही चुका देगा। इसमें शर्म या अपमान की कोई बात ही नहीं है। बेशक, उसमें समाई होती, तो रूपा का ब्याह किसी जवान लड़के से और अच्छे कुल में करता, दहेज भी देता, बरात के खिलाने-पिलाने में भी खूब दिल खोल कर खर्च करता, मगर जब ईश्वर ने उसे इस लायक नहीं बनाया, तो कुश-कन्या के सिवा और वह क्या कर सकता है? लोग हँसेंगे, लेकिन जो लोग खाली हँसते हैं, और कोई मदद नहीं करते, उनकी हँसी की वह क्यों परवा करे। मुश्किल यही है कि धनिया न राजी होगी। गधी तो है ही। वही पुरानी लाज ढोए जायगी। यह कुल-प्रतिष्ठा के पालने का समय नहीं, अपनी जान बचाने का अवसर है। ऐसी ही बड़ी लाज वाली है, तो लाए, पाँच सौ निकाले। कहाँ धरे हैं?

दो दिन गुजर गए और इस मामले पर उन लोगों में कोई बातचीत न हुई। हाँ, दोनों सांकेतिक भाषा में बातें करते थे।

धनिया कहती - वर-कन्या जोड़ के हों, तभी ब्याह का आनंद है।

होरी जवाब देता - ब्याह आनंद का नाम नहीं है पगली, यह तो तपस्या है।

'चलो तपस्या है?'

'हाँ, मैं कहता जो हूँ। भगवान आदमी को जिस दसा में डाल दें, उसमें सुखी रहना तपस्या नहीं, तो और क्या है?'

दूसरे दिन धनिया ने वैवाहिक आनंद का दूसरा पहलू सोच निकाला। घर में जब तक सास-ससुर, देवरानियाँ-जेठानियाँ न हों, तो ससुराल का सुख ही क्या? कुछ दिन तो लड़की बहुरिया बनने का सुख पाए।

होरी ने कहा - वह वैवाहिक-जीवन का सुख नहीं, दंड है।

धनिया तिनक उठी - तुम्हारी बातें भी निराली होती हैं। अकेली बहू घर में कैसे रहेगी, न कोई आगे न कोई पीछे।

होरी बोला - तू तो इस घर में आई तो एक नहीं, दो-दो देवर थे, सास थी, ससुर था। तूने कौन-सा सुख उठा लिया, बता?

'क्या सभी घरों में ऐसे ही प्राणी होते हैं।'

'और नहीं तो क्या आकाश की देवियाँ आ जाती हैं? अकेली तो बहू! उस पर हुकूमत करने वाला सारा घर। बेचारी किस-किसको खुस करे। जिसका हुक्म न माने, वही बैरी। सबसे भला अकेला।'

फिर भी बात यहीं तक रह गई, मगर धनिया का पल्ला हल्का होता जाता था। चौथे दिन रामसेवक महतो खुद आ पहुँचे। कलां-रास घोड़े पर सवार, साथ एक नाई और एक खिदमतगार, जैसे कोई बड़ा जमींदार हो। उम्र चालीस से ऊपर थी, बाल खिचड़ी हो गए थे, पर चेहरे पर तेज था, देह गठी हुई। होरी उनके सामने बिलकुल बूढ़ा लगता था। किसी मुकदमे की पैरवी करने जा रहे थे। यहाँ जरा दोपहरी काट लेना चाहते हैं। धूप कितनी तेज है, और कितने जोरों की लू चल रही है। होरी सहुआइन की दुकान से गेहूँ का आटा और घी लाया। पूरियाँ बनीं। तीनों मेहमानों ने खाया। दातादीन भी आशीर्वाद देने आ पहुँचे। बातें होने लगीं।

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