लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ

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The Romantic
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Re: लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ

Unread post by The Romantic » 17 Dec 2014 09:49

“मधुर, क्या मैं एक बार आपके हाथों को चूम सकता हूँ ?”

मेरे अधरों पर गर्वीली मुस्कान थिरक उठी। अपने प्रियतम को प्रणय-निवेदन करते देख कर रूप-गर्विता होने का अहसास कितना मादक और रोमांचकारी होता है, मैंने आज जाना था। मैंने मन में सोचा ‘पूरी फूलों की डाली अपनी खुशबू बिखरने के लिए सामने बिछी पड़ी है और वो केवल एक पत्ती गुलाब की मांग रहे हैं !’

मैंने अपने हाथ उनकी ओर बढ़ा दिए।

उन्होंने कांपते हाथों से मेरे दोनों हाथों को एक बार फिर से पकड़ लिया और होले से उन पर अपने होंठ लगा दिए। उनकी छुअन मात्र से ही मेरा पूरा बदन एक अनोखे आनंद और रोमांच से झनझना उठा।

चुम्बन प्रेम का प्यारा सहचर होता है। चुम्बन हृदय स्पंदन का मौन सन्देश और प्रेम गुंजन का लहराता हुआ कम्पन होता है। यह तो नव जीवन का प्रारम्भ है।

‘ओ…. मेरे प्रेम के प्रथम चुम्बन ! मैं तुम्हें अपने हृदय में छुपा कर रखूँगी और अपने स्मृति मंदिर में किसी अनमोल खजाने की तरह सारे जीवन भर संजोकर अपने पास रखूंगी’

कुछ पलों तक वो अपने होंठों से मेरी हथेलियों को चूमते रहे। उनकी गर्म साँसें और हृदय की धड़कन मैं अपने पास महसूस कर रही थी। मेरा भी रोम रोम पुलकित हो रहा था। बारी बारी वो दोनों हाथों को चूमते रहे। फिर अचानक उन्होंने अपनी बाहें मेरी ओर फैला दी। मैं किसी अनजाने जादू से बंधी उनके सीने से लग गई। उन्होंने मुझे जोर से अपने बाहुपाश में भींच लिया।

मेरे और उनके दिलों की धड़कन जैसे कोई प्रतियोगिता ही जीतना चाह रही थी। प्रेम धीरे धीरे मेरी पीठ पर हाथ फिराने लगे। अब उनके दोनों हाथ मेरे कानों के दोनों ओर आ गए और उन्होंने मेरा सर पकड़ लिया। मेरी लरजती आँखें किसी नए रोमांच में उनींदी सी हो रही थी, अधर कांप रहे थे और पलकें अपने आप मुंद रही थी।

ओह…. अचानक मैंने उनकी गर्म साँसें अपने माथे पर महसूस की। फिर उनके थरथराते होंठों से मेरा माथा चूमा और फिर मेरी बंद पलकों को चूम लिया। मैं तो बस बंद पलकों से उनके बरसते प्रेम को ही अनुभव करती रह गई।

उनके कांपते होंठ जैसे कह रहे थे ‘मधुर, आज मैं तुम्हारे इन लरजते अधरों और पलकों की सारी लाज हर कर इनमें सतरंगी सपने भर दूंगा मेरी प्रियतमा’

मैंने मन ही मन कहा ‘हाँ मेरे साजन !’ पर मैंने अपनी पलकें नहीं खोली। मैं भला उनके इस सुनहरे सपने को कैसे तोड़ सकती थी।

फिर उनके होंठ मेरे गालों से होते हुए मेरे अधरों पर आकर रुक गए। होले से बस मेरे अधरों को छू भर दिया। जैसे कोई आशना भंवरा किसी कलि के ऊपर बैठ कर होले होले उसका मकरंद पी लेता है। आह …. बरसों के प्यासे इन अधरों का प्रथम चुम्बन तो मेरे रोम रोम को जैसे पुलकित करने लगा। मेरा मन अब चाहने लगा था कि वो जोर से मेरे अधरों को अपने मुँह में भर कर किसी कुशल भंवरे की तरह इनका सारा मधु पी जाएँ। आज मैंने जाना कि गुलाब की अधखिली कलि पर पड़ी ओस (शबनम) की बूँद पर जब सूरज की पहली किरण पड़ती है तो वो चटक कर क्यों खिल उठती है। अमराई की भीनी सुगंध को पाकर कोयलिया क्यों पीहू पीहू बोलने लगती है।

“मधुर ?”

“हाँ मेरे प्रियतम !”

“मधुर मैं एक चातक की तरह अपने धड़कते दिल और लरजते होंठों से तुम्हारे अधरों को चूम रहा हूँ। आज तुमने मेरे उन सारे ख़्वाबों को जैसे पंख लगा कर हकीकत में बदल डाला है। मैं अपनी सपनीली आँखों में तुम्हारे लिए झिलमिलाते सितारों की रोशनी संजो लाया हूँ। तुम्हारे इन अधरों की मिठास तो मैं अगले सात जन्मों तक भी नहीं भूल पाऊंगा मेरी प्रियतमा !”

“मेरे प्रेम ! मेरे प्रियतम ! मेरे प्रथम साजन ! … आह …” पता नहीं किस जादू से बंधी मैं बावरी हुई उनके होंठों को जोर जोर से चूमने लगी। आज मैंने जाना कि क्यों सरिता सागर से मिलने भागी जा रही है ? क्यों बादल पर्वतों की ओर दौड़ रहे हैं। क्यों परवाने अपनी जान की परवाह किये बिना शमा की ओर दौड़े चले आते हैं, पपीहरा पी कहाँ पी कहाँ की रट क्यों लगाए है। क्यों कोई कलि किसी भ्रमर को अपनी और ललचाई आँखों से ताक रही है ….

एक बात बताऊँ ? जब रमेश भैया की शादी हुई थी तब मैं मिक्की (मेरी भतीजी) जितनी बड़ी थी। कई बार मैंने भैया और भाभी को आपस में चूमा चाटी करते देखा था। भाभी तो भैया से भी ज्यादा उतावली लगती थी। मुझे पहले तो अटपटा सा लगता था पर बाद में उन बातों को स्मरण करके मैं कई बार रोमांच में डूब जाया करती थी। प्रेम से सगाई होने के बाद उस रात मैंने मिक्की को अपनी बाहों में भर कर उसे खूब चूमा था। मिक्की तो खैर बच्ची थी पर उस दिन मैंने चुम्बन का असली अर्थ जाना था। हाय राम …. मैं भी कितना गन्दा सोच रही हूँ।

प्रेम ने मुझे अपनी बाहों में जकड़ रखा था। मैं अब चित्त लेट गई थी और वो थोड़ा सा मेरे ऊपर आ गए थे। उन्हने मेरा सर अपने हाथों में पकड़ लिया और फिर अपने जलते होंठ मेरे बरसों के प्यासे लरजते अधरों से जैसे चिपका ही दिए थे। मैंने भी उन्हें अपनी बाहों में जोर से कस लिया। उनके चौड़े सीने के नीचे मेरे उरोज दब रहे थे। उनके शरीर से आती पौरुष गंध ने तो मुझे जैसे काम विव्हल ही बना दिया था।

मुझे लगा मैं अपने आप पर अपना नियंत्रण खो दूँगी। मेरे लिए यह नितांत नया अनुभव था। मैं धीरे धीरे प्रेम के रंग में डूबती जा रही थी। एक मीठी कसक मेरे सारे शरीर को झनझना रही थी।

हम दोनों आँखें बंद किये एक दूसरे को चूमे जा रहे थे। कभी वो अपनी जीभ मेरे मुँह में डाल देते कभी मैं अपनी जीभ उनके मुँह में डाल देती तो वो उसे किसी कुल्फी की तरह चूसने लगते। कभी वो मेरे गालों को कभी गले को चूमते रहे। मेरे कोमल नर्म मुलायम अधर उनके हठीले होंठों के नीचे पिस रहे थे। मुझे लग रहा था कहीं ये छिल ही ना जाएँ पुच की आवाज के साथ उनके मुँह का रस और आती मीठी सुगंध मुझे अन्दर तक रोमांच में सुवासित करने लगी थी। मैं तो बस उम्… उम्…. ही करती जा रही थी।

अब उनका एक हाथ मेरे उरोजों पर भी फिरने लगा था। मुझे अपनी जांघों के बीच भी कुछ कसमसाहट सी अनुभव होने लगी थी। मुझे लगा कि मेरी लाडो के अन्दर कुछ कुलबुलाने लगा है और उसमें गीलापन सा आ गया है। अब वो थोड़े से नीचे हुए और मेरे उरोजों की घाटी में मुँह लगा कर उसे चूमने लगे। मेरे लिए यह किसी स्वर्गिक आनंद से कम नहीं था। मैं तो आज चाह रही थी कि वो मेरी सारी लाज हर लें। मेरी तो मीठी सिसकियाँ ही निकलने लगी थी।

अचानक उनके हाथ मेरी पीठ पर आ गया और और कुर्ती के अन्दर हाथ डाल कर मेरी नर्म पीठ को सहलाने लगे। मुझे लगा यह तंग कुर्ती और चोली अब हमारे प्रेम में बाधक बन रही है।

“मधुर !”

“उम्म्म …?”

“वो… वो… मैं तुम्हारी कमर पर भी एक गज़रा लगा दूं क्या ?”

ओह … यह प्रेम भी अजीब आदमी है। प्रेम के इन उन्मुक्त क्षणों में इन्हें गज़रे याद आ रहे हैं। ऐसे समय में तो यह कहना चाहिए था कि ‘मधुर अब कपड़ों की दीवार हटा दो !’ मुझे हंसी आ गई।

प्रेम मेरे ऊपर से हट गया। मेरा मन उनसे अलग होने को नहीं कर रहा था पर जब प्रेम हट गया तो मैं भी उठ कर पलंग के दूसरी तरफ (जहां छोटी मेज पर गुलदान और नाईट लेम्प रखा था) खड़ी हो गई।

प्रेम ने मेरी कुर्ती को थोड़ा सा ऊपर करके मेरी कमर पर गज़रा बांध दिया। फिर मेरी नाभि के नीचे पेडू पर एक चुम्बन लेते हुए बोला “मधुर ! अगर तुम यह कुर्ती निकाल दो तो तुम्हारी पतली कमर और नाभि के नीचे गज़रे की यह लटकन बहुत खूबसूरत लगेगी।”

मैं उनका मनोरथ बहुत अच्छी तरह जानती थी। वो सीधे तौर पर मुझे अपने कपड़े उतारने को नहीं बोल पा रहे थे। अगर वो बोलते तो क्या मैं उन्हें अब मना कर पाती ? मैंने मुस्कुराते हुए उनकी और देखा और अपने हाथ ऊपर उठा दिए। प्रेम ने झट से कुर्ती को नीचे से पकड़ कर उसे निकाल दिया। अब तो मेरी कमर से ऊपर केवल डोरी वाली एक पतली सी अंगिया (चोली) और अमृत कलशों के बीच झूलता मंगलसूत्र ही बचा था। मुझे लगा अचानक मेरे उरोज कुछ भारी से हो रहे हैं और इस चोली को फाड़ कर बाहर निकलने को मचल रहे हैं। मैंने मारे शर्म के अपनी आँखें बंद कर ली।

अब प्रेम ने मुझे अपने सीने से लगा लिया। उनके दिल की धड़कन मुझे साफ़ महसूस हो रही थी। उनके फिसलते हाथ कभी पीठ पर बंधी चोली की डोरी से टकराते कभी मेरे नितम्बों पर आ जाते। मेरी सारी देह एक अनूठे रोमांच में डूबने लगी थी।

अचानक उनके हाथ मेरे लहंगे की डोरी पर आ गए और इस से पहले की मैं कुछ समझूं उन्होंने डोरी को एक झटका लगाया और लहंगा किसी मरी हुई चिड़िया की तरह मेरे पैरों में गिर पड़ा। मेरी जाँघों के बीच तो अब मात्र एक छोटी सी पेंटी और छाती पर चोली ही रह गई थी। प्रेम के हाथ मेरी जाँघों के बीच कुछ टटोलने को आतुर होने लगे थे। मुझे तो अब ध्यान आया कि नाईट लैम्प की रोशनी में मेरा तो सब कुछ ही उजागर हो रहा है।

“ओह नहीं प्रेम … ? पहले यह लाइट … ओह … रुको … प्लीज …। ” मेरे लिए तो यह अप्रत्याशित था। मेरी तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। मैं अपने आपको उनकी पकड़ से छुड़ाने के लिए कसमसा रही थी ताकि नीचे होकर अपना लहंगा संभाल सकूं। हमारी इसी झकझोरन में मेरा हाथ साथ वाली मेज पर पड़े गुलदान से जा टकराया। इसी आपाधापी में में वो गुलदान नीचे गिर कर टूट गया और मेरी तर्जनी अंगुली में भी उसका एक टुकड़ा चुभ गया।

चोट कोई ज्यादा नहीं थी पर अंगुली से थोड़ा सा खून निकलने लगा था। प्रेम ने जब अंगुली से खून निकलता देखा तब उन्हें अपनी जल्दबाजी और गलती का अहसास हुआ।

“स … सॉरी … म … मधु मुझे माफ़ कर देना !”

“क … कोई बात नहीं !” मैंने अपनी अंगुली को दूसरे हाथ से पकड़ते हुए कहा।

“ओह…. सॉरी मधु … तुम्हारे तो खून निकलने लगा है !” वो कुछ उदास से हो गए।

अब उन्होंने पहले तो मेरा हाथ पकड़ा और फिर अचानक मेरी अंगुली को अपने मुँह में ले लिया। मैंने बचपन में कई बार ऐसा किया था। जब कभी चोट लग जाती थी तो मैं अक्सर उस पर दवाई या डिटोल लगाने के स्थान पर अपना थूक लगा लिया करती थी। पर आज लगी इस चोट के बारे में कल जब मीनल पूछेगी तो क्या बताऊँगी ?

मुझे बरबस हिंदी के एक प्रसिद्ध कवि की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई :

नई नवला रस भेद न जानत, सेज गई जिय मांह डरी

रस बात कही तब चौंक चली तब धाय के कंत ने बांह धरी

उन दोउन की झकझोरन में कटी नाभि ते अम्बर टूट परी

कर कामिनी दीपक झांप लियो, इही कारण सुन्दर हाथ जरी

इही कारण सुन्दर हाथ जरी…

अब प्रेम ने उठ कर उस नाईट लैम्प को बंद तो कर दिया पर रोशनदान और खिड़की से आती चाँद की रोशनी में भी सब कुछ तो नज़र आ ही रहा था। रही सही कसर बाथरूम में जलती लाइट पूरी कर रही थी। अब तो मेरे शरीर पर केवल एक चोली और पेंटी या गज़रे ही बचे रह गए थे। मैंने लाज के मारे अपना एक हाथ वक्ष पर रख लिया और दूसरा हाथ अपने अनमोल खजाने पर रख कर घूम सी गई।

ओह … मुझे अब समझ आया कि गज़रा लगाना तो एक बहाना था वो तो मेरे कपड़े उतरवाना चाहता था। कितना नासमझ है यह प्रेम भी। अगर वो मुझे स्वयं अपने कपड़े उतारने को भी कहता तो क्या मैं इस मधुर मिलन के उन्मुक्त पलों में उन्हें मना कर पाती ?

प्रेम कुछ शर्मिंदा सा हो गया था उसने मुझे पीछे से अपनी बाहों में भरे रखा। उनका एक हाथ मेरी कमर पर था और दूसरा मेरे उरोजों पर। वो मेरी पीछे चिपक से गए थे। अब मुझे अपने नितम्बों पर कुछ कठोर सी चीज की चुभन महसूस हुई। मैंने अपनी जांघें कस कर बंद कर ली। पुरुष और नारी में कितना बड़ा विरोधाभास है। प्रकृति ने पुरुष की हर चीज और अंग को कठोर बनाया है चाहे उनका हृदय हो, उनकी छाती हो, उनका स्वभाव हो, उनके विचार हों या फिर उनके कामांग। पर नारी की हर चीज में माधुर्य और कोमलता भरी होती है चाहे उसकी भावनाएं हों, शरीर हो, हृदय हो या फिर उनका कोई भी अंग हो।

प्रेम कुछ उदास सा हो गया था। वो अपनी इस हरकत पर शायद कुछ शर्मिंदगी सी अनुभव कर रहा था। मैं अपने प्रियतम को इस मधुर मिलन की वेला में इस प्रकार उदास नहीं होने देना चाहती थी। मैं घूम कर फिर से उनके सीने से लग गई और उनके गले में बाहें डाल कर उनके होंठों पर एक चुम्बन ले लिया। जैसे किसी शरारती बच्चे को किसी भूल के लिए क्षमा कर दिया जाये तो उसका हौसला और बढ़ जाता है प्रेम ने भी मेरे होंठों, गालों और उरोजों की घाटी में चुम्बनों की झड़ी ही लगा दी। इसी उठापटक में मेरा जूड़ा खुल गया था और मेरे सर के बाल मेरे नितम्बों तक आ गए।

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Re: लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ

Unread post by The Romantic » 17 Dec 2014 09:50

हम दोनों ही अभी तक फर्श पर ही खड़े थे। मैंने उन्हें पलंग पर चलने का इशारा किया। उन्होंने मुझे अपनी बाँहों में उठा लिया और हम एक दूसरे से चिपके पलंग पर आ गए। अब प्रेम ने अपना कुरता और पायजामा उतार फेंका। अब उनके शरीर पर भी केवल एक चड्डी ही रह गई थी। हलकी रोशनी में उसके अंदर बना उभार मुझे साफ़ दिखाई दे रहा था।

मेरा अप्रतिम सौन्दर्य भी तो मात्र एक हल्की सी चोली और पेंटी में ढका पलंग पर अपने साजन की प्रतीक्षा में जैसे बिखरा पड़ा था। प्रेम तो मेरे इस रूप को अपलक निहारता ही रह गया। उसकी आँखें तो बस मेरी तेज़ होती साँसों के साथ उठते गिरते वक्षस्थल और जाँघों के बीच गज़रे की लटकन के ऊपर अटकी ही रह गई थी। उन्हें अपनी और निहारता देख मैंने लाज के मारे मैं अपने हाथ अपनी आँखों पर रख लिये।

“मेरी प्रियतमा ! मेरी स्वर्ण नैना ! अपनी इन नशीली आँखों को खोलो ना ?” उन्होंने मेरी ठोड़ी को छूते हुए कहा।

मैं क्या बोलती। मैंने अपने हाथ अपने चहरे से हटा लिए और अपनी बाहें उनकी ओर फैला दी। उन्होंने मेरे ऊपर आते हुए झट मुझे अपनी बाहों में भर लिया। इस बार तो वो इतने उतावले हो रहे थे कि जरा सी देर होते ही जैसे कोई गाड़ी ही छूट जायेगी। मैंने भी कस कर अपने बाहें उनकी पीठ पर लपेट ली।

अब वो कभी मेरे गालों को कभी अधरों को कभी उरोजों की घाटी को और कभी मेरी नर्म बाहों को चूमते और सूंघते। पहले तो मुझे लगा वो बाजुओं पर बंधे गज़रे को सूंघ रहे होंगे पर बाद में मुझे समझ आया कि वो तो मेरी बगल से आती मादक गंध को सूंघ रहे थे। मैंने कहीं पढ़ा था युवा स्त्री की देह से, विशेष रूप से उसकी बगलों से, एक मादक गंध निकलती है जो पुरुष को सम्भोग के लिए प्रेरित और आकर्षित करती है।

अचानक उनके हाथ मेरी पीठ पर आ गए और चोली की डोरी टटोलने लगे। हे भगवान ! ये तो मुझे पूरी ही निर्वस्त्र कर देंगे। मीनल सच कहती थी कि देख लेना प्रेम तो तुम्हें पूरी तरह इको फ्रेंडली करके ही दम लेंगे।

उनके हाथ में चोली की डोर आ ही गई। मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा। उनका दूसरा हाथ मेरे कूल्हों पर और कभी कभी मेरी जांघों के बीच भी फिर रहा था। मेरी तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। मैं इस बार कोई विरोध नहीं करना चाहती थी। जैसे ही उन्होंने डोरी को खींचा, मेरे दोनों अमृत कलश स्वतंत्र हो गए। उन्होंने चोली को निकाल फेंका। मैंने मारे शर्म के उन्हें कस कर अपनी बाहों में भींच लिया।

उनका मुँह अब मेरे अमृत कलशों के ठीक बीच लगा था। उन्होंने मेरे नर्म उरोजों पर हलके से अपने होंठों और गालों को फिराया तो मेरे स्तनाग्र (चूचक) तो अहंकारी होकर इतने अकड़ गए जैसे कोई भाले की नोक हों। चने के दाने जैसे चूचक तो गुलाबी से रक्तिम हो गए। मुझे लगा मेरी लाडो में जैसे खलबली सी मचने लगी है। ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था।

एक बात आपको बताती हूँ। मेरे बाएं स्तन के एरोला (चूचकों के चारो ओर बना लाल घेरा) के थोड़ा सा नीचे एक छोटा सा तिल है। मीनल ने शरारत करते हुए उस जगह पर मेहँदी से फूल-बूटे बना दिए थे। प्रेम ने ठीक उसी जगह को चूम लिया। ओह … मीनल ने तो मेरी दाईं जांघ पर अंदर की तरफ जो तिल है उस पर भी फूल सा बना दिया था। मीनल बताती है कि ‘जिस स्त्री की दाईं जांघ पर तिल होता है वो बड़ी कामुक होती है। उसकी शमा नाम की एक सहेली है उसकी दाईं जांघ पर भी तुम्हारी तरह तिल है और उसका पति उसे आगे और पीछे दोनों तरफ से खूब मज़ा ले ले कर बजाता है’

हे भगवान् ! अगर प्रेम ने मेरे इस तिल को देख लिया तो क्या सोचेगा और करेगा ? मैं तो मर ही जाऊँगी।

मैं अपने विचारों में खोई थी कि अचानक प्रेम ने मेरे एक स्तनाग्र (चूचक) को मुँह में भर लिया और उसे पहले तो चूसा और फिर होले से उसे दांतों के बीच लेकर दबा दिया। मेरी तो एक मीठी किलकारी ही निकल गई। उनका एक हाथ मेरी जाँघों के बीच होता हुआ मेरी लाडो को स्पर्श करने लगा था। ओह … मीनल ने भी जानबूझ कर मुझे इस प्रकार की पेंटी पहने को कहा था। वो कहती थी कि मैं इस पेंटी में बिलकुल आइटम लगूंगी। यह पेंटी तो इतनी पतली और पारदर्शी है कि इतनी हलकी रोशनी में भी मेरी लाडो के मोटे मोटे पपोटे स्पष्ट दिखाई दे रहे होंगे। आगे से केवल 2 इंच चौड़ी पट्टी सी है जो छुपाती कम और दिखाती ज्यादा है। पेंटी इतनी कसी रहती है कि उसकी आगे वाली यह पट्टी दोनों कलिकाओं में बीच धंस सी जाती है।

प्रेम लगातार मुझे चूमे जा रहा था। कभी वो एक उरोज को मुँह में भर लेता और दूसरे को होले से मसलता और फिर दूसरे को मुँह में लेकर चूसने लग जाता। अब वो होले होले नीचे सरकने लगा। उसने पहले मेरी नाभि को चूमा और फिर पेडू को। मेरी तो हालत ही खराब होने लगी थी। मेरे ना चाहते हुए भी मेरी जांघें अपने आप खुलने लगी। उसने पेंटी के ऊपर से ही मेरी लाडो को चूम लिया। उनकी गर्म साँसों का आभास पाते ही मुझे लगा मेरी सारी देह तरंगित सी होकर झनझना उठी है और कुछ गर्म सा द्रव्य मेरी लाडो से बह निकला है।

ईईईईईईईईईईईई ………

प्रेम ने मेरी दाईं जांघ पर ठीक उसी जगह जहाँ मेहंदी से फूल बना था, चूम लिया (तिल वाली जगह)। मेरी तो किलकारी ही निकल गई। मैंने उनका सर अपने हाथों में पकड़ लिया। प्रेम कभी मेरी जाँघों को चूमते कभी लाडो की उभरी हुई फांकों को ऊपर से चूम लेते। मीनल सच कहती थी इस दुनिया में प्रेम मिलन से आनंददायी कोई दूसरी क्रिया तो हो ही नहीं सकती।

पेंटी इतनी कसी थी कि हाथ तो अंदर जा नहीं सकता था, प्रेम अपनी एक अंगुली पेंटी की किनारी के अंदर सरका कर होले से मेरी कलिकाओं को टटोलने लगे। मेरी तो मारे रोमांच और लाज के सिसकी ही निकल गई। उनकी अँगुलियों का प्रथम स्पर्श पाते ही मेरी गीली, गुलाबी और नर्म नाज़ुक कलिकाएँ जैसे थिरक सी उठी और रोम रोम तरंगित सा होने लगा। मैंने दो दिन पहले ही अपनी केशर क्यारी को साफ़ किया था। आपको बता दूँ, मैं अपनी बगलों और लाडो पर उगे बालों कैंची से ही ट्रिम किया करती थी इसलिए वो अभी तक बहुत मुलायम ही हैं। और लाडो तो बिना बालों के अब चकाचक बनी थी।

जैसे ही उनकी अंगुली मेरे चीरे के बीच आई मुझे लगा मेरी आँखों में सतरंगी तारे से झिलमिलाने लगे हैं। मुझे लगा मेरा रतिरस निकल जाएगा। मेरा मन अब आनंद के सागर के किनारे पर ना रह कर उसमें डूब जाने को करने लगा था। मेरी लम्बी श्वास छूट रही थी। मेरी सारी देह में जैसे तूफ़ान सा आ रहा था और साँसे अनियंत्रित होने लगी थी। मेरा मन करने लगा था की अब प्रेम को जो करना है जल्दी से कर डालें, अब सहन नहीं हो रहा है। मैं तो इस समय सारी लाज छोड़ कर पूर्ण समर्पित बन चली थी।

अब उनके हाथ मुझे अपनी पेंटी की डोरी पर सरकते अनुभव हुए। मैं किसी भी प्रकार के नए रोमांच को झेलने के लिए अपने आप को मानसिक रूप से तैयार कर चुकी थी। उन्होंने डोरी को हल्का सा झटका लगाया और फिर केले के छिलके की तरह उस दो इंच चौड़ी पट्टी वाली पेंटी को खींच कर निकाल दिया। बड़ी मुश्किल से अब तक सहेज और छुपा कर रखा मेरा अनमोल खजाना उजागर हो गया। अनछुई कच्ची कलि अपनी मुलायम पंखुड़ियों को समेटे ठीक उनकी आँखों के सामने थी। प्रेम थोड़ा सा उठ खड़ा हुआ और मेरी लाडो को देखने लगा। मैंने मारे शर्म के अपने दोनों हाथ अपनी आँखों पर रख लिए।

“मधुर तुम बहुत खूबसूरत हो !”

एक बार तो मेरे मन में आया कि कह दूँ ‘हटो परे झूठे कहीं के ?’ पर मैं ऐसा कैसे बोल पाती। मेरा सारा शरीर एक अनोखे स्पंदन से झनझना उठा, पता नहीं प्रेम की क्या हालत हुई होगी।

होले से उनके हाथ मेरी लाडो की ओर बढ़े। उनका पहला स्पर्श पाते ही मेरी दबी दबी किलकारी ही निकल गई और जांघें स्वतः आपस में भींच गई। पहले तो उन्होंने मेरी भगोष्ठों (कलिकाओं) को होले से छुआ फिर अपनी अंगुली मेरे रक्तिम चीरे पर 2-3 बार होले होले फिराई। उसके बाद उन्होंने अपने अंगूठे और तर्जनी अंगुली से मेरी लाडो की गुलाबी पंखुड़ियों को चौड़ा कर दिया। जैसे किसी तितली ने अपने पंख फैला दिए हों या गुडहल की कमसिन कलि चटक कर खिल उठी हो। उन्होंने अपनी एक अंगुली को होले से रतिरस में डूबी लाडो के अंदरूनी भाग में ऊपर से नीचे फिराया और फिर नीचे से ऊपर करते हुए मेरे योनि-मुकुट को दबा दिया।

मेरे लिए यह क्षण कितने संवेदनशील थे मैं ही जानती हूँ। मेरे सारे शरीर में झनझनाहट सी महसूस होने लगी थी और लगा मेरा सारा शरीर जैसे तरावट से भर गया है।

मुझे तो लगने लगा था कि आज मेरा रतिरस सारे बाँध ही तोड़ देगा। कुंवारी देह की प्रथम रस धार …… चिपचिपा सा मधु रस उनकी अंगुली को भिगो सा गया।

अरे यह क्या …. उन्होंने तो उस अंगुली को अपने मुँह में ही ले लिया। उनके चेहरे पर आई मुस्कान से इसकी मिठास और स्वाद का अनुमान लगाया जा सकता है।

“मधुर तुम्हारी मुनिया का मधुर बहुत मीठा है !”

“छी … हटो परे … झूठे कहीं के … ?” पता नहीं मेरे मुँह से कैसे निकल गया।

हे भगवान् ! कहीं प्रेम अब मेरी लाडो को तो मुँह में नहीं भर लेगा ? मैं तो सोच कर ही सिहर उठी। पर मैंने पूरा मन बना लिया था कि मैं आज उन्हें किसी चीज के लिए मना नहीं करूंगी।

अब प्रेम ने भी अपना अन्डरवीयर उतार फेंका। मैंने कनखियों से देखा था उनका गोरे रंग का “वो” कोई 7 इंच लम्बा और डेढ़ दो इंच मोटा तो जरुर होगा। वो तो झटके से मारता ऐसा लग रहा था जैसे मुझे सलामी दे रहा हो। मुझे तो उसे देखते ही झुरझुरी सी आ गई। हे भगवान् ! यह मेरी छोटी सी लाडो के अंदर कैसे जाएगा।

उनका “वो” अब मेरी जाँघों के बीच चुभता सा महसूस हो रहा था। उनकी साँसें बहुत तेज़ हो रही थी। मैं जानती थी अब वो पल आने वाले हैं जिसे मधुर मिलन कहते हैं। सदियों से चले आ रहे इस नैसर्गिक आनंददायी क्रिया में नया तो कुछ नहीं था पर हम दोनों के लिए तो यह दाम्पत्य जीवन का प्रारम्भ था।

“मधुर …. ?”

“हुं …?”

“वो… वो … मेरी प्रियतमा … तुम बहुत खूबसूरत हो !”

“हुं…!”

“तुम भी कुछ बोलो ना ?”

मेरी हंसी निकलते निकलते बची। मैं जानती थी वो क्या चाहते हैं पर ऐसी स्थिति में शब्द मौन हो जाते हैं और कई बार व्यक्ति चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाता। जुबान साथ नहीं देती पर आँखें, धड़कता दिल और कांपते होंठ सब कुछ तो बयान कर देते हैं।

मेरा मन तो कह रहा था कि ‘मेरे प्रेम … मेरे सनम … जो करना है कर लो … ये प्रेम दीवानी तुम्हें किसी चीज के लिए मना नहीं करेगी ’ पर मैंने कुछ कहने के स्थान पर उन्हें अपनी बाहों में जोर से कस लिया।

“मधुर, मैं आपको बिलकुल भी कष्ट नहीं होने दूंगा ! बस एक बार थोड़ा सा दर्द होगा मेरे लिए सहन कर लेना मेरी प्रियतमा !”

मैंने उनके होंठों पर एक चुम्बन ले लिया। मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं। मेरा अनुमान था अब वो अपने “उसका” मेरी “लाडो” से मिलन करवा देंगे।

पर उन्होंने थोड़ा सा ऊपर खिसक कर तकिये के नीचे रखा कंडोम (निरोध) का पैकेट निकाला और उसे हाथ में मसलते हुए अनमने से होकर बोले “वो … वो … मैं निरोध लगा लूँ क्या ?”

मैं जानती थी मधुर मिलन की प्रथम रात्रि में कोई भी पुरुष निरोध प्रयोग नहीं करना चाहता। यह नैसर्गिक (प्रकृतिवश) होता है। प्रकृति की बातें कितनी अद्भुत होती हैं। हर जीवधारी मादा के साथ संसर्ग करते समय अपना बीज (वीर्य) उसकी कोख में ही डालना चाहता है ताकि उसकी संतति आगे बढ़ती रहे।

“ओह … प्रेम … कोई बात नहीं मैं पिल्स ले लूंगी…..!”

उन्हें तो मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। वो मुँह बाए मेरी ओर देखते ही रहे। फिर उन्होंने उस निरोध के पैकेट को फेंक दिया और मुझे बाहों में भर कर जोर से चूम लिया। अब उनका एक हाथ मेरी लाडो के चीरे पर फिर से फिसलने लगा। मेरे चीरे के दोनों ओर की फांकें तो इतनी पतली हैं जैसे कोई कटार की धार हों। जी में आया कह दूँ ‘जनाब जरा संभल कर कहीं इस कटार जैसे पैनी फांकों से अपनी अंगुली ही ना कटवा लेना !’

पर मुझे लगा उनकी अँगुलियों में कुछ चिकनाई सी लगी है। ओह … मुझे तो बाद में समझ आया की उन्होंने अपनी अँगुलियों पर कोई सुगन्धित क्रीम लगा रखी है। उन्होंने अपने “उस” पर भी जरूर क्रीम लगाई होगी।

फिर उन्होंने अपने मुन्ने को मेरी मुनिया (लाडो) के चीरे पर रख दिया। मैंने अपनी साँसें रोक ली और अपने दांत कस कर भींच लिए। मैंने मन में सोच लिया था मुझे कितना भी दर्द क्यों ना हो मैं ना तो चिल्लाउंगी ना उन्हें परे हटाने का प्रयास करूंगी। मेरी लाडो तो कब से उनके स्वागत के लिए आतुर होकर प्रेम के आंसू बहाने लगी थी।

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Re: लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ

Unread post by The Romantic » 17 Dec 2014 09:51



अब उन्होंने अपना एक हाथ मेरी गर्दन के नीचे लगा लिया और दूसरे हाथ से उन्होंने अपने”उसको” मेरी लाडो के चीरे पर ऊपर नीचे घिसना चालू कर दिया। शायद वो स्वर्ग गुफा के प्रवेश द्वार को (छेद) ढूंढ़ रहे होंगे। मैं साँसें रोके इस नए अचम्भे के लिए तैयार थी। अब वह पल आने वाले थे जिसका हर लड़की अपने यौवन में विवाह तक इंतजार करती है और जिसे सिर्फ अपने पति के लिए बचाकर रखना चाहती है। पर वो बस उसे ऊपर नीचे रगड़ते ही रहे। जैसे ही उनका”वो” मेरी मदनमणि से टकराता मेरी सारी देह में नई तरंग सी उठ जाती। मैंने मन में सोचा कितना अनाड़ी है यह प्रेम भी । इसे तो अपना गंतव्य ही नहीं मिल रहा है। मेरा तो मन करने लगा था मैं नीचे से अपने नितम्ब उचकाऊं और उसे अन्दर समेट लूं।

पर ऐसा करने की नौबत नहीं आई। अचानक वो थोड़ा सा रुके और गंतव्य स्थल पर अपना खूंटा लगा कर दोनों हाथों से मुझे कस कर भींच लिया और अपने होंठ मेरे अधरों पर रख कर उन्हें अपने मुँह में भर लिया। मैं तो सोचती थी कि वो अब फिर से मुझे जोर से चूमेगा पर यह क्या ????

उन्होंने एक धक्का सा लगाया और कोई मोटी नुकीली सी चीज किसी आरी की तरह मुझे अपनी लाडो के अंदर धंसती महसूस हुई। जैसे सैकड़ों चींटियों ने एक साथ मेरी लाडो को काट खाया हो, किसी भंवरे ने कमसिन कलि की पत्तियों में डंक मार दिया हो, किसी कुशल शिकारी ने एक ही वार में अपना लक्ष्य-भेदन कर लिया हो। अब तक किसी अभेद्य दुर्ग की तरह सुरक्षित मेरा कौमार्य जीत लिया। सरसराता हुआ उनका “वो” मेरी गीली और रपटीली मुनिया की कोमल झिल्ली को रोंदता और चीरता हुआ अंदर समां गया। मुझे लगा जैसे कोई बिजली सी कड़की है और उसी के साथ मेरे दिल की सारी मस्ती चीत्कार में बदलती चली गई।

मेरी तो जैसे साँसें ही जम गई थी। मैं दर्द के मारे बिलबिला उठी। मुझे लगा कुछ गर्म गर्म सा द्रव्य मेरी लाडो के अंदर से निकल कर मेरी जाँघों को गीला करता हुआ नीचे बह रहा है। मैं उनकी बाहों में कसमसाने लगी। मैंने अपने आप पर नियंत्रण रखने का बहुत प्रयास किया पर मेरे मुँह से घुटी घुटी गूं … गूं की हलकी आवाजें तो निकल ही गई। मुझे लगा उनका”वो” मेरी नाभि तक आ गया है।

ऐसा नहीं था कि मुझे कोई बहुत भयंकर दर्द हो रहा था पर प्रथम संगम में कुछ दर्द हो होना ही था। यह मन का नहीं शरीर का विरोध था कुछ कसमसाहट के साथ मेरी अंकों से आंसू लुढ़क कर गालों पर आ गए।

अब मैं इन्हें प्रेम के आंसू कहूं या दर्द के, मैं तो निर्णय ही नहीं कर पाई। हाँ थोड़े दर्द और जलन के साथ मुझे ख़ुशी थी कि मैं आज अपने प्रियतम की पूर्ण समर्पित बन गई हूँ। मैं तो अपने प्रियतम के लिए इस छोटे से दर्द के अहसास को भूल कर जन्मों की प्यास और तमन्नाओं को भोग लेना चाहूंगी।

अब एक हाथ से वो मेरे माथे को सहलाने लगे और अपने मुँह से मेरे अधरों को मुक्त करते हुए बोले,”बस बस मेरी प्रियतमा … हो गया … बस अब तुम्हें कोई दर्द नहीं होगा।”

कह कर उन्होंने मेरे गालों पर लुढ़क आये आंसुओं को चूम लिया। मैं तो प्रेम बावरी बनी उनके बरसते प्रेम को देखती ही तरह गई। मैंने उन्हें अपनी बाहों में भरे रखा और इशारा किया कि थोड़ी देर हिलें नहीं। कुछ पलों तक हम दम साधे ऐसे ही एक दूसरे की बाहों में जकड़े पड़े रहे।

भंवरे ने डंक मार दिया था और शिकारी अपना लक्ष्य भेदन कर चुका था। अब कलि खिल चुकी थी और भंवरे को अपनी पंखुड़ियों में कैद किये अपना यौवन मधु पिलाने को आतुर हो रही थी। सारी देह में जैसे कोई मीठा सा विष भरे जा रहा था। एक मीठी कसक और जलन के साथ मुझे ऐसा आनंद मिल रहा था कि मन की कोयलिया पीहू पीहू करने लगी थी। दर्द के अहसास को दबाये मैं उनकी चौड़ी छाती के नीचे दबी उनकी बगलों से आती मरदाना गंध में डूब ही गई।

थोड़ी देर बाद जब मैंने अपनी आँखें खोली तो देखा उनका चेहरा गर्वीली मुस्कान से लबालब भरा था। उनकी इस मुस्कान और ख़ुशी के लिए तो मैं कितना भी बड़ा दर्द सहन कर लेती। मैंने अपनी आँखें फिर से बंद कर लीं और उन्हें अपनी बाहों में कस लिया। अब एक बार फिर से वो अपने होंठ मेरे अधरों पर रख कर चूमने लगे। मेरे कांपते और थरथराते होंठ उनके साथ आपस में जुड़ गए। अब तो मैंने अपनी जांघें जितनी चौड़ी कर सकती थी कर दी। उनके हाथ मेरे कंधे, गालों, अमृत कलशों और कमर पर फिरने लगे थे।

मेरा सारा सौन्दर्य उनके नीचे दबा बिछा पड़ा था। उनकी हर छुअन और घर्षण से मैं आनंद उस झूले पर सवार हो गई थी जिसकी हर पींग के साथ यह आनंद एक नई उँचाई छू लेता था। हर चुम्बन के साथ मेरे अधरों की थिरकन बढ़ती जा रही थी।

मैं तो अब जैसे आसमान में उड़ने लगी थी। मेरा मन कर रहा था मैं जोर से कहूं ‘मेरे साजन मुझे बादलों के पार ले चलो, जहां हम दोनों के अलावा और कोई ना हो। तुम्हारे बाहूपाश में जकड़ी बस इसी तरह अभिसार करती रहूँ। मैं तुम्हें अपना सर्वस्व सौंप कर निश्चिन्त हो जाऊँ !’

अब मैंने अपने पैर थोड़े ऊपर उठा कर उनकी कमर से लपेट लिए। ऐसा करने से मेरे नितम्ब थोड़े ऊपर हो गए। अब उन्होंने मेरे गोल और कसे हुए नितम्बों पर भी हाथ फिराना चालू कर दिया। मुझे लगा जैसे कोई तरल सा द्रव्य मेरी लाडो से बह कर मेरी जाँघों से होता हुआ नीचे चादर को भिगो रहा है। मुझे गुदगुदी सी होने लगी थी।

अब उन्होंने धक्कों की गति कुछ बढ़ा दी थी। मेरा दर्द ख़त्म तो नहीं हुआ था पर कम जरूर हो गया था। उनका हाथ मेरे अमृत कलशों को मसलने लगा था। कभी वो उसके शिखरों (चूचक) को मसलते कभी उन्हें मुँह में लेकर चूम लेते कभी दांतों से दबा देते। मेरा तो रोम रोम पुलकित होने लगा था।

मुझे लगा मेरी सारी देह तरंगित सी होने लगी है और मेरी आँखों में सतरंगी सितारे से जगमगाने लगे हैं।

आह….

मैंने अपने पैर थोड़े से खोल दिए और अपने पैरो को हवा में ही चौड़ा कर दिया ताकि उनको किसी प्रकार की कोई परेशानी ना हो। ओह … मेरे ऐसा करने से मेरे पांवों में पहनी निगोड़ी पायल तो मेरे मन की कोयलिया के साथ रुनझुन ही करने लगी। लयबद्ध धक्कों के साथ पायल और चूड़ियों की झंकार सुनकर वो भी रोमांचित से होने लगे और मुझे जोर जोर से चूमने लगे।

मेरा यह रोमांच और स्पंदन अब अपने चरम पर था। मुझे लगा मेरी साँसे उखड़ने लगी हैं और पूरी देह अकड़ने लगी है। मैंने उनके होंठों को अपने मुँह में कस लिया और अपनी बाहों को उनकी कमर पर जोर से कस लिया। मेरी प्रेम रस में डूबी सीत्कार निकालने लगी थी। मुझे लगा आज मेरी लाज के सारे बंधन ही टूट जायेंगे।

प्रेम का भी यही हाल था। वो अब जल्दी जल्दी धक्के लगाने लगे थे। उनकी साँसें और दिल की धड़कन भी बहुत तेज़ होने लगी थी और चहरे का रंग लाल होने लगा था। वो भी अब मुझे जोर जोर से चूमे जा रहे थे मेरे उरोजों को मसले जा रहे थे। सच है इस प्रेम मिलन से बड़ा कोई सुख और आनंद तो हो ही नहीं सकता। मैं तो चाह रही थी समय रुक जाए और हम दोनों इस असीम आनंद को आयुपर्यंत भोगते ही चले जाएँ।

“मेरी प्रियतमा … मेरी सिमरन … मेरी मधुर … आह …मैं तुम्हें बहुत प्रेम करता हूँ !”

“हाँ मेरे साथिया … मेरे प्रेम … मैं तो कब की आपके इस प्रेम की प्यासी थी … आह …”

“मेरी जान आह…. या ….”

“प्रेम मुझे भी कुछ हो रहा है…. आह …ईईईईईईईई….”

अचानक मुझे लगा मेरी लाडो में कुछ उबाल सा आने लगा है। ऐसा मेरे साथ पहली बार हो रहा था। मैं तो जैसे छटपटाने सी लगी थी। अचानक मैंने उनके होंठों को इतना जोर से चूसा कि मुझे लगा उनमें तो खून ही निकल आएगा। मैंने उन्हें इतना जोर से अपनी बाहों में भींचा की मेरी कलाइयों में पहनी चूड़ियाँ ही चटक गई और उसके साथ ही मुझे लगा मैं आनन्द के परम शिखर पर पहुँच गई हूँ। मैं कितनी देर प्रकृति से लड़ती, मेरा रति रस अंततः छूट ही गया।

और उसी के साथ ही बरसों की तपती प्यासी धरती को जैसे बारिस की पहली फुहार मिल जाए, कोई सरिता किसी सागर से मिल जाए, किसी चातक को पूनम का चाँद मिल जाए या फिर किसी पपीहरे को पीय मिल जाए, उनका काम रस मेरी लाडो को भिगोता चला गया। मेरी लाडो ने अंदर संकोचन करना शुरू कर दिया था जैसे इस अमृत की हर बूँद को ही सोख लेगी। अचानक मेरी सारी देह हल्की हो उठी और मेरे पैर धड़ाम से नीचे गिर पड़े। उन्होंने भी 3-4 अंतिम धक्के लगाए और फिर मुझे कस कर अपनी बाहों में भर कर मेरे ऊपर लेट गए।

मेरी “इसने” अपने “उसको” कस कर अंदर भींच लिया। (मुझे क्षमा करना मैं चूत और लंड जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकती)

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