Bhoot bangla-भूत बंगला

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raj..
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Bhoot bangla-भूत बंगला

Unread post by raj.. » 13 Dec 2014 07:27

भूत बंगला पार्ट--1

मैं पेशे से एक वकील हूँ. नाम इशान आहमेद, उमर 27 साल, कद 6 फुट, रंग गोरा. लॉ कॉलेज में हर कोई कहता था के मैं काफ़ी हॅंडसम हूँ. कैसे ये मुझे अब तक समझ नही आया क्यूंकी मेरी ज़िंदगी में अब तक कभी कोई लड़की नही आई. मैं शहर के उस इलाक़े में रहता हूँ जहाँ सबसे ज़्यादा अमीर लोग ही बस्ते हैं. नही घर मेरा नही है. किराए पर भी नही है. बस यूँ समझ लीजिए के मेरे यहाँ रहने से उस घर की देखभाल हो जाती है इसलिए मैं यहाँ रहता हूँ.

मेरी माली हालत कुच्छ ज़्यादा ठीक नही है. बड़ी मुश्किल से लॉ कॉलेज की फीस भर पाया था. जैसे तैसे करके अपने लॉ की पढ़ाई पूरी की और प्रॅक्टीस के लिए शहेर चला आया. 3 साल से यहाँ हूँ पर अब तक कोई ख़ास कामयाबी हाथ नही आई पर मैं मायूस नही हूँ. अभी तो पूरी ज़िंदगी पड़ी है.पर एक दिन मैं कामयाब ज़रूर कहलऊंगा, ये भरोसा पूरा है मुझे अपने उपेर.

जिस इलाक़े में मैं रहता हूँ यहाँ शुरू से आख़िर तक वही लोग बस्ते हैं जिनके पास अँधा पैसा है. इतना पैसा है के वो सारी ज़िंदगी बैठ कर खाएँ तो ख़तम ना हो. बड़े बड़े घर, उनके सामने बने शानदार गार्डेन्स, सॉफ सुथरी सड़क. कॉलोनी के ठीक बीच में एक पार्क बना हुआ था जिसके चारों तरफ तकरीबन 6 फुट की आइरन की फेन्स बनी हुई थी.

पर इस सारी खूबसूरती में एक दाग था. बंगलो नो 13. उस पूरे घर पर उपेर से नीचे तक धूल चढ़ि हुई थी. खिड़कियाँ गंदी हो चुकी थी जिनपर मैने आज तक कोई परदा नही देखा था. घर के सामने गार्डेन तो क्या एक फ्लवर पॉट तक नही था. पैंट उतर चुका था. घर के सामने जाने कब्से सफाई नही हुई थी और काफ़ी कचरा जमा हो गया था. घर का दरवाज़ा देखने से ऐसा लगता था के बस अभी गिर ही जाएगा. घर का हाल ऐसा था के हमारे देश के मश-हूर बिखारी भी उस घर में भीख माँगने नही जाते थे.

उस घर के बारे में कहानियाँ कुच्छ ऐसी थी के कोई भी उसमें रहने के ख्याल से ही काँप उठता था. उस घर के बारे में लोग बातें भी इतनी खामोशी से करते थे के जैसे किसी ने सुन लिया तो उनपर मुसीबत आ जाएगी. कहा जाता था के उस घर पर काला साया है और कोई भटकती आत्मा उस घर में निवास करती है और इसी वजह से पिच्छले 20 साल से उस घर में कोई रह नही पाया था. कुच्छ इन कहानियों की वजह से, कुच्छ अकेलेपन, कुच्छ पुरानी ख़स्ता हालत की वजह से उस बंगलो को भूत बंगलो के नाम से जाना जाने लगा था. इसके किसी एक कमरे में बहुत पहले एक खून हुआ था और कहा जाता के उसी दिन से इस बंगलो में उसी की आत्मा भटकती है जिसका खून हुआ था. देखने वालो का कहना था के उन्होने अक्सर रात के वक़्त एक रोशनी को बंगलो के एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते देखा था और कयि बार किसी के करहने की आवाज़ भी सुनी थी. सफेद सारी में लिपटी हुई एक औरत को उस घर में भटकते हुए देखने का दावा बहुत सारे लोग करते थे.

इन कहानियों में कितना सच था ये कह पाना बहुत मुश्किल था पर जबकि वो घर बहुत ही कम किराए पर मिल रहा था कोई भी इंसान उसमें रहने को राज़ी नही था. वो घर पूरे शहेर में धीरे धीरे मश-हूर हो गया था. जो उस घर में रहेगा वो मारा जाएगा ऐसी बात हर किसी के दिमाग़ में बैठ चुकी थी. और एक साल गर्मी के मौसम में ये सारा भ्रम उस दिन ख़तम हो गया जब मिस्टर. भैरव मनचंदा उस घर में रहने आए. वो कोई 70 साल के दिखने में एक सीधे सादे से आदमी लगते थे. कोई नही जानता था के वो कहाँ से आए थे पर बंगलो नो 13 उन्होने किराए पर लिया और उस घर की ही तरह खुद भी एक अकेलेपन से भरी ज़िंदगी वहाँ जीने लगे.

शुरू शुरू में तो बात यही चलती रही के भूत बंगलो में रहने वाला इंसान एक हफ्ते से ज़्यादा नही टिक पाएगा पर जब धीरे धीरे एक हफ़्ता 6 महीने में बदल गया और मिस्टर मनचंदा ने वहाँ से नही गये तो लोगों ने भूत बंगलो के भूत को छ्चोड़के उनके बारे में ही बातें शुरू कर दी. बहुत थोड़े वक़्त में बंगलो और भूत की तरह उनके बारे में भी कई तरह की अजीब अजीब कहानियाँ सुनाई जाने लगी.

ऐसी कयि कहानियाँ मैने अपने घर के मलिक की बीवी से सुनी जो अक्सर मुझसे मिलने आया करती थी या यूँ कहूँ के ये देखने आती थी के मैं घर से कुच्छ चुराकर कहीं भाग तो नही गया. वो मुझे बताया करती थी के कैसे मिस्टर मनचंदा उस घर में अकेले पड़े रहते हैं, कैसे वो किसी से बात नही करते, कैसे उन्हें देखने से ये लगता है के उनके पास भी बहुत सा पैसा है, कैसे वो अक्सर रात को शराब के नशे में घर आते देखे गये हैं और कैसे वो काम वाली बाई जो अक्सर दिन के वक़्त भूत बंगलो में जाकर कभी कभी सफाई कर देती थी अब वहाँ नही जाती क्यूंकी उसे लगता है के मिस्टर मनचंदा के साथ कुच्छ गड़बड़ है.

इन सब बातों पर मैने कभी कोई ध्यान नही दिया. मेरा सारा ध्यान तो बस इस बात पर रहता था के मैं कैसे अपनी ज़िंदगी में कामयाभी हासिल करूँ. और इसी सब के बीच एक दिन मेरी मिस्टर मनचंदा से मुलाक़ात हुई. वो मुलाक़ात भी बड़ी अजीब थी.

नवेंबर की एक रात मैं लेट नाइट शो देखकर अकेला घर लौट रहा था. चारों तरफ गहरा कोहरा था. शहेर की सड़कों पर हर गाड़ी की स्पीड धीमी हो गयी थी और क्यूंकी वो इलाक़ा जहाँ मैं रहता था, कल्प रेसिडेन्सी, पेड़ों से घिरा हुआ था वहाँ कोहरा कुच्छ ज़्यादा ही गहरा था. मैं कॉलोनी के गेट से अंदर दाखिल हुआ तो एक कदम भी आगे बढ़ाना मुश्किल हो गया. मैं यहाँ पिच्छले 2 साल से था इसलिए सड़क का अंदाज़ा लगाता हुआ अपने घर की तरफ बढ़ा. क्यूंकी सड़क पर लगे लॅंप पोस्ट की रोशनी भी नीचे सड़क तक नही पहुँच पा रही थी इसलिए मैने सड़क के दोनो तरफ बने रेलिंग का सहारा लेना ठीक समझा. रेलिंग का सहारा लेता मैं धीरे धीरे आगे बढ़ा. सर्दी इतनी ज़्यादा थी के एक भारी जॅकेट पहने हुए भी मैं सर्दी से काँप रहा था.

मैं धीरे धीरे अंदाज़ा लगते हुआ अपने घर की तरफ बढ़ ही रहा था के सामने से एक भारी आवाज़ ने मुझे चौंका दिया.

"कौन है?" मैने रुकते हुए पुचछा

"एक खोया हुआ इंसान" फिर वही भारी आवाज़ आई "एक भटकती आत्मा जिसे भगवान माफ़ करने को तैय्यार नही है"

मैं उपेर से नीचे तक जम गया. ध्यान से देखा तो सामने एक साया कोहरे के बीच खड़ा था. उसके दोनो हाथ सड़क के किनारे बनी रेलिंग पर थे और उसने झुक कर अपना चेहरा भी अपने हाथ पर रखा हुआ हुआ. मैने धीरे से आगे बढ़कर उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा पर वो वैसे ही झुका खड़ा रहा. अपना सर अपने हाथों पर रखे ऐसे रोता रहा जैसे किसी बात पर पछ्ता रहा हो. आवाज़ में दर्द सॉफ छलक रहा था.

"क्या हुआ? कौन हैं आप?" मैने कंधे पर अपने हाथ का दबाव बढ़ाते हुए पुचछा

"शराब" उस आदमी ने वैसे ही झुके हुए कहा "मैं एक सबक हूँ हर उस इंसान के लिए जो नशा करता है, वो इंसान जो अपनी ज़िंदगी को सीरियस्ली नही लेता, हर वो इंसान जो रिश्तों की कदर नही करता, वो ज़िंदगी जो अपनी समझ नही पाता. मैं एक सबक हूँ उन सबके लिए"

"आपको घर जाना चाहिए" मैने कहा

"मिल ही नही रहा" उस आदमी ने कहा "यहीं कहीं है पर कहाँ है समझ नही आ रहा. मुझे पता ही नही के मैं कहाँ हूँ"

"आप इस वक़्त कल्प रेसिडेन्सी में हैं" मेरा हाथ अब भी उस आदमी के कंधे पर था और वो अब भी वैसे ही झुका हुआ था.

"बंगलो नो. 13" वो आदमी सीधा हुआ "इस कोहरे में बंगलो नो. 13 नही मिल रहा. वहाँ जाना है मुझे"

"ओह" मैने उस आदमी को सहारा दिया "मेरे साथ आइए मिस्टर मनचंदा. मैं आपको घर तक छ्चोड़ आता हूँ"

जैसे ही उनका नाम मेरे ज़ुबान पर आया वो फ़ौरन 2 कदम पिछे को हो गये और मेरी तरफ ऐसे देखने लगे जैसे मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हों. आँखें सिकुड़कर मेरे चेहरे की तरफ घूर्ने लगी.

"कौन हो तुम?" मुझसे सवाल किया गया "मुझे कैसे जानते हो?"

"मेरा नाम इशान आहमेद है. यहीं कल्प रेसिडेन्सी में ही रहता हूँ. आपने बंगलो नो 13 का नाम लिया तो मैं समझ गया के आप हैं, मिस्टर मनचंदा, बंगलो के किरायेदार" मैने जवाब दिया

"बंगलो का भूत कहो" उन्होने मेरे साथ कदम आगे बढ़ाए "जिसकी हालत भूत से भी ज़्यादा बुरी है"

भूत से भी ज़्यादा बुरी?" मैने उन्हें सहारा देते हुए कदम आगे बढ़ाए

"मेरे गुनाहों का सिला बेटे. मैं आज वही काट रहा हूँ जो मैने कभी खुद बोया था. मेरे साथ ..... "अचानक उन्हें ज़ोर से खाँसी आई और बात अधूरी रह गयी

मुझे उनकी हालत पर काफ़ी तरस आया. बंगलो में इस हालत में रात भर उन्हें अकेला छ्चोड़ना मुझे ठीक नही लग रहा था पर मैं इस बात के लिए भी तैय्यार नही था के भूत बंगलो में मैं उनके साथ पूरी रात रुक जाऊं.

"कहाँ ले जा रहे हो मुझे" उन्होने सवाल किया

"आपके घर" मैने जवाब दिया

"तुम उन लोगों में से तो नही हो ना?" उन्होने फिर मेरे चेहरे की तरफ देखते हुए सवाल किया

"किन लोगों में से सर?" मैने सवाल का जवाब सवाल से दिया

"वही जो मुझे नुकसान पहुँचना चाहते हैं" जवाब आया

मुझे लगने लगा के ये आदमी शायद पागल है और इस वक़्त अपने पिच्छा च्छुदाने में ही समझदारी थी इसलिए मैने बहुत ही आराम से उनकी बात का जवाब दिया, बेहद प्यार से.

"मैने आपको कोई नुकसान नही पहुँचना चाहता मिस्टर मनचंदा."

धीरे धीरे हम बंगलो नो 13 तक पहुँचे.

"मेरा ख्याल है के आपको फ़ौरन सो जाना चाहिए" मैने उन्हें दरवाज़े पर छ्चोड़ते हुए कहा.

"जाना मत. मुझे अकेले अंदर जाते हुए डर लगता है. कितना अंधेरे है, कितनी सर्दी, कितनी खामोशी" उन्हें फिर से मेरा हाथ पकड़ लिया " रूको थोड़ी देर जब तक के मैं रोशनी का इंटेज़ाम नही कर लेता"

तब मुझे ध्यान आया के बंगलो में लाइट नही थी. क्यूंकी वो इतने सालों से वीरान पड़ा था इसलिए वहाँ का एलेक्ट्रिसिटी कनेक्षन हटा दिया गया था और पिच्छले 6 महीने से मनचंदा उस घर में बिना एलेक्ट्रिसिटी के रह रहा था.

"ठीक है मैं आपको अंदर तक छ्चोड़ देता हूँ" मैने कहा और जेब से लाइटर निकालकर जलाया. बंगलो के सामने बने गार्डेन से अंधेरे में होते हुए मैं उन्हें लेकर बंगलो के दरवाज़े तक पहुँचा. अंधेरे में उस घर को देखकर मैं समझ गया के क्यूँ उसको भूत बंगलो के नाम से पुकारते हैं. गहरी खामिषी और कोहरे के बीच खड़ा वो मकान खुद भी किसी भूत से कम नही लग रहा था. चारों तरफ सिर्फ़ हमारे कदमों की आहट ही सुनाई पड़ रही थी. मेरी धड़कन तेज़ हो चुकी थी और मैं खुद भी काँप रहा था. कुच्छ सर्दी से और कुच्छ डर से.

मनचंदा ने दरवाजा खोला और अंदर दाखिल हो गये जब्किमै वहीं बाहर दरवाज़े पर खड़ा रहा. वो मेरे हाथ से लाइटर ले गये था इसलिए मैं अंधेरे में खड़ा हुआ था. थोड़ी देर बाद अंदर टेबल पर रखा हुआ एक लॅंप जल उठा और चारों तरफ कमरे में रोशनी हो गयी.

मैने एक नज़र कमरे में डाली. लॅंप की हल्की रोशनी में जो नज़र आया उसे देखकर लगता नही था के मैं किसी भूत बंगलो में देख रहा था. मैने मनचंदा की तरफ नज़र डाली पर हल्की रोशनी में चेहरा नही देख पाया.

"मैं चलता हूँ" मैने अपना लाइटर भी वापिस नही लिया और कदम पिछे हटाए

"गुड नाइट" अंदर से सिर्फ़ इतनी ही आवाज़ आई.

मैं बंगलो से जल्दी जल्दी निकलकर अपने घर की तरफ बढ़ा. ये थी मेरी और मिस्टर मनचंदा की पहली मुलाक़ात.

मेरी मकान मालकिन एक ऐसी औरत थी जिसकी हमारे देश में शायद कोई कमी नही. एक घरेलू औरत जो उपेर से तो एकदम सीधी सादी सी दिखती हैं पर दिल में हज़ारों ख्वाहिशें दबाए रखती हैं. रुक्मणी सुदर्शन कोई 40 साल की थी. रंग गोरा और चेहरा खूबसूरत कहा जा सकता था.पहले उसके इस घर में मेरे सिवा और कोई नही रहता था. वो और उसका पति शहेर में बने उनके एक दूसरे घर में रहते थे जो हॉस्पिटल से नज़दीक पड़ता था. मिस्टर सुदर्शन की तबीयत काफ़ी खराब रहती थी जिसकी वजह से उन्होने अपनी ज़िंदगी के आखरी 10 साल बिस्तर पर ही गुज़ारे थे. उनके गुज़र जाने के बाद रुक्मणी ने वो घर बेंच दिया और यहीं इस घर में मेरे साथ शिफ्ट कर लिया था.

उसके चेहरे को नज़दीक से देखने पर उनकी उमर का अंदाज़ा होता था पर जिस्म से वो किसी 20-22 साल की लड़की को भी मात देती थी. वो अपने बहुत ख़ास तौर पर ध्यान रखती थी. अच्छे कपड़े पेहेन्ति थी और महेंगी ज्यूयलरी उसका शौक था. पति के मर जाने के बाद उसे कुच्छ करने की ज़रूरत नही थी. काफ़ी दौलत छ्चोड़ कर गये थे मिस्टर सुदर्शन अपने पिछे. उनकी कोई औलाद नही इसलिए वो सारा पैसा रुक्मणी आराम से बैठ कर खा सकती थी. वो ज़्यादातर वेस्टर्न आउटफिट्स में रहती थी और तंग कपड़ो में उसका जिस्म अलग ही निखरता था. अपने जिस्म पर उसने ना तो कोई ज़रूरत से ज़्यादा माँस चढ़ने दिया था और ना ही कहीं उमर का कोई निशान दिखाई देता था. सच कहूँ तो मैं शकल सूरत से अच्छा दिखता हूँ इस बात का सबूत भी उसने ही पहली बार मुझे दिया था.

रुक्मणी को शायद ये उम्मीद थी के इस उमर भी उसके सपनो का राजकुमार आएगा और उसे अपने साथ ले जाएगा. वो इसी उम्मीद पर ज़िंदा भी थी. अपने आपको को हर तरफ से खूबसूरत दिखाने की वो पूरी कोशिश करती थी और शायद मुझमें उसे अपना वो राजकुमार नज़र आने लगा. शुरू तो सब हल्के हसी मज़ाक से हुआ पर ना जाने कब वो मेरे करीब आती चली गयी और हम दोनो में जिस्मानी रिश्ता बन गया. अब हक़ीकत ये थी के वो दिन में तो मकान मालकिन होती थी पर रात में मेरे बिस्तर पर मेरी प्रेमिका का रोल निभाती थी.

इन सब बातों के बावजूद वो दिल की बहुत अच्छी थी. हमेशा हस्ती रहती और जिस तरह से वो 24 घंटे बोलती रहती थी वो पूरे कल्प रेसिडेन्सी में मश-हूर था. हर रात मेरा बिस्तर गरम करने के बावजूद भी कभी उसने मुझपर कोई हक नही जताया था और ना ही कभी उस रात के रिश्ते को कोई और नाम देने की कोशिश की थी. मैं जानता था के वो दिल ही दिल में मुझे चाहती है पर उसने कभी खुले तौर पर कभी ऐसा कोई इशारा नही किया और ना ही कभी ये ज़ाहिर किया के वो मुझसे शादी की उम्मीद करती थी. उसके लिए बस मैं उसका सपनो का वो राजकुमार था जिसे वो शायद सपनो में रखना चाहती थी. शायद डरती थी के अगर उस सपने को हक़ीक़त का रूप देना चाहा तो शायद सपना भी बाकी ना रहे.

मैं उसके घर के सबसे बड़े कमरे में रहता था और किराया उसने मुझसे लेना बंद कर दिया था. उल्टा वो मेरी हर ज़रूरत का ऐसे ख्याल रखती जैसे मेरी बीवी हो. सुबह मुझे जगाना, नाश्ता बनाना मेरे कपड़े ठीक करना और रात को फिर से चुपचाप नंगी होकर मेरे बिस्तर पर आ जाना. ये हर रोज़ का रुटीन था. ना इससे ज़्यादा कभी उसने कुच्छ कहा और ना ही मैने. वो शायद एक अच्छी बीवी बनती और एक अच्छी माँ भी पर वक़्त ने ये मौका दिया ही नही.

उसे कल्प रेसिडेन्सी के बारे में सब पता होता था. अक्सर खाने के बीच किसके यहाँ क्या हो रहा है वो मुझे बताया करती थी. ऐसा लगता था जैसे वो कोई चलता फिरता न्यूसपेपर है. मैने फ़ैसला किया के मनचंदा के बारे में अगर कोई मुझे बता सकता है तो वो रुक्मणी ही है. उसे जितना पता होगा उससे ज़्यादा किसी को पता नही होगा. मैं दिल में सोचा के एक बार उससे बात करूँ.

उस रात मैं नाहकर बाथरूम से निकला तो रुक्मणी मेरे कमरे में लगे फुल लेंग्थ मिरर के सामने खड़ी बाल ठीक कर रही थी. वो मेरी और देखकर मुस्कुराइ और फिर से अपने बाल बनाने लगी. मैने सामने खड़ी औरत को उपेर से नीचे तक देखा. खिड़की की तरफ से आती हल्की रोशनी में वो किसी बला से कम नही लग रही थी. एक हल्की से काले रंग की नाइटी पहनी हुई थी जो उसके घुटनो तक आ रही थी. रोशनी नाइटी से छन्कर इस बात का सॉफ इशारा कर रही थी के उसने नाइटी के अंदर कुच्छ नही पहना हुआ था. 36 साइज़ की चूचिया, पतली कमर, उठी हुई गांद उस वक़्त किसी भी मर्द का दिल उसके मुँह तक ले आते और ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ. मैने अपने जिस्म पर लपेटा हुआ टवल उतारकर एक तरफ फेंका और पूरी तरह नंगा होकर उसके पिछे आ खड़ा हुआ.

मेरे करीब आते हुई उसने कॉम्ब नीचे रख दिया और अपने पेट पर रखे मेरे हाथों को अपने हाथों में पकड़ लिया. मेरा खड़ा हुआ लंड नाइटी के उपेर से उसकी गांद पर रगड़ रहा था और इसका असर उसपर होता सॉफ नज़र आ रहा था. धीरे धीरे उसकी साँस भारी हो चली थी. मैने हाथ थोड़ी देर उसके पेट पर फिराते हुए उसके गले को चूमना शुरू किया. उसने खुद ही अपना चेहरा मेरी तरफ घुमा दिया और हमारे होंठ एक दूसरे से मिल गये. वो पूरे जोश में मेरे होंठ चूम रही थी और मेरे हाथ अब उसकी चूचियो तक आ चुके थे. नाइटी के उपेर से मैं ज़ोर ज़ोर से उसकी चूचिया दबा रहा था और पिछे से अपना लंड उसकी गांद पर रगड़ रहा था.

अचानक वो पूरे जोश में पलटी और बेतहाशा मेरे चेहरे को चूमने लगी. मेरा माथा, मेरे गाल, होंठ, गर्दन को चूमते हुए वो नीचे की और बढ़ने लगी. छाती से पेट और फिर पेट के नीचे वो लंड तक पहुँचती पहुँचती अपने घुटनो पर बैठ गयी. अब मेरा लंड उसके चेहरे के ठीक सामने था. उसने मेरे लंड को अपने हाथ में पकड़ा और नज़र मेरी ओर उठकर धीरे धीरे लंड हिलाते हुए मुस्कुराइ. मैने भी जवाब में मुस्कुराते हुए धीरे धीरे उसकी बालों को सहलाया. थोड़ी देर ऐसे ही लंड हिलाने के बाद उसने अपना मुँह खोला और मेरे लंड को आधा अपने मुँह के अंदर ले लिया.

"आआहह रुक्मणी" उसके होंठ और गरम ज़ुबान को अपने लंड पर महसूस करते ही मैं कराह उठा.

ये एक काम वो बखूबी करती थी. लंड ऐसे चूस्ति थी के कई बार मुझे उसको ज़बरदस्ती रोकना पड़ता था और कई बार तो मैं ऐसे ही ख़तम भी हो जाता था और फिर दोबारा लंड खड़ा होने तक रुकना पड़ता था ताकि उसे चोद सकूँ. अपने मुँह और हाथों की हरकत का ऐसी ताल बैठाती थी के लंड संभालना मुश्किल हो जाता था और इस बार भी ऐसा ही हो रहा था. मेरा लंड उसने जड़ से अपने हाथ में पकड़ा हुआ था. जैसे ही वो लंड मुँह से निकालती तो उसका हाथ लंड को हिलाने लगता और फिर धीरे से वो लंड फिर मुँह में ले लेती.

मैं जनता था के अगर मैने उसको रोका नही तो वो मुझे ऐसे ही खड़ा खड़ा ख़तम कर देगी इसलिए मैने लंड उसके मुँह से निकाला और उसको पकड़कर खड़ा किया. खड़े होते ही उसने फिर मुझे चूमना शुरू कर दिया और मैने भी उसी जोश के साथ जवाब दिया. उसके होंठ चूमते हुए मेरे हाथ सरकते हुए उसकी कमर तक आए और उसकी नाइटी को उपेर की ओर खींचने लगे. वो भी इशारा समझ गयी और हाथ उपेर कर दिए. अगले ही पल उसकी नाइटी उतार चुकी और हम दोनो पूरी तरह से नंगे खड़े थे. मैने उसको अपनी बाहों में उठाया और बिस्तर पर लाकर गिरा दिया और खुद भी उसके साथ ही बिस्तर पर आ गया.

"ओह इशान" जैसे ही मैने उसका एक निपल अपने मुँह में लिया वो कराह उठी. मेरे एक हाथ उसकी दूसरी चाहती को दबा रहा था और दूसरे हाथ की 2 उंगलियाँ उसकी चूत के अंदर थी.

"ईशान्न्न्न्न " वो बार बार मेरा नाम ले रही थी और हाथ से मेरा लंड हिला रही थी. आँखें दोनो बंद किए हुए वो मेरे हाथ के साथ साथ अपनी कमर हिला रही थी. मैं बारी बारी से कभी उसके निपल चूस्ता और कभी धीरे से काट लेता.

"अब रुका नही जाता.... प्लज़्ज़्ज़्ज़ " उसने कराहते हुए कहा और मुझे पकड़कर अपने उपेर खींचने लगी. मैं भी इशारा समझ कर उसके उपेर आ गया. रुक्मणी की दोनो टांगे मुड़कर हवा में उपेर की तरफ हो चुकी थी और चूत खुलकर मेरे सामने थी. उसने एक हाथ से मेरा लंड पकड़ा और चूत पर रख दिया. मैने हल्का धक्का लगाया और धीरे धीरे मेरा लंड उसकी चूत के अंदर दाखिल हो गया.

"आआअहह " वो एक बार फिर ज़ोर से कराही और नीचे से कमर हिलाती हुई मेरे साथ हो चली.

"बंगलो नो 13 के बारे में आप क्या जानती हैं?" मैने उसकी चूत पर ज़ोर ज़ोर से धक्के मारते हुए कहा

"हां?" उसने चौंकते हुए अपनी आँखें खोली और मेरी तरफ देखा. मैने एक धक्का ज़ोर से मारा तो उसने फिर कराह कर अपनी आँखें बंद कर ली

"बंगलो नो 13. आप जानती हैं कुच्छ उसके बारे में?" मेरा लंड लगातार उसकी चूत में अंदर बाहर हो रहा था.

उसने हां में सर हिलाया

"क्या?" मैने फिर सवाल किया

"सब कुच्छ" वो नीचे से अपनी कमर हिलाते हुए बोली " भूत बंगलो है वो. एक आत्मा निवास करती है वहाँ. पर आप क्यूँ पुच्छ रहे हो? वो भी इस वक़्त?"

"आत्मा?" मैने उसके सवाल का जवाब दिए बिना कहा "कौन मनचंदा?"

मेरी बात सुनकर वो हस पड़ी और उसने अपनी आँखें खोली

"मेरा वो मतलब नही था. वो बेचारा तो अभी ज़िंदा है पर है अजीब और उससे बड़े अजीब आप हो जो इस वक़्त ऐसी बातें कर रहे हो" उसने मेरे बाल सहलाते हुए कहा

मैने लंड बाहर निकालकर पूरे ज़ोर से एक धक्का मारा और फिर अंदर घुसा दिया. उसकी आँखें फेल गयी

"आआहह. धीरे इशान. मार ही डालोगे क्या?"

"अजीब क्यूँ है मनचंदा?" मैने मुस्कुराते हुए पुचछा

"अजीब ही तो है" रुक्मणी बोली "कहाँ से आया है कोई नही जानता. ना किसी से मिलता है, ना बात करता है ना किसी को कुच्छ बताता है"

"तो इसमें अजीब क्या है?" मैं उसका एक निपल अपने मुँह में लेते हुए बोला "अगर कोई अकेला खामोशी से रहना चाहता है तो ये उसकी मर्ज़ी है"

"खामोश वो रहते हैं जीने पास च्छुपाने को कुच्छ होता है" रुकमी अपने निपल मेरे मुँह में और अंदर को घुसते हुए बोली "और जिस तरह से वो मनचंदा रहता है उससे तो लगता है के या तो वो कोई चोर है, या कोई गुंडा या कोई खूनी"

"और ऐसा किस बिना पर कह सकती हैं आप?" मैने उसका एक निपल छ्चोड़कर दूसरा मुँह में लिया और चूसने लगा. नीचे लंड अब भी चूत में अंदर बाहर हो रहा था.

मेरे इस सवाल पर वो भी खामोश हो गयी. शायद समझ नही आया के क्या जवाब दिया. फिर थोड़ी देर बाद बोली

"वो उस भूत बंगलो में रहता है"

"तो क्या हुआ?" मैने चूत पर धक्को की स्पीड बढ़ाते हुए कहा "कोई कहाँ रहना चाहता है ये उसकी अपनी मर्ज़ी होती है

"ऐसे इलाक़े में जहाँ इतने अच्छे घरों के लोग रहते हैं वहाँ इस अंदाज़ में रहने का कोई हक नही है मिस्टर मनचंदा को. वो जिस घर में रहता है उस घर तक की फिकर नही है उसको. सिर्फ़ 2 कमरे सॉफ करवा रखे हैं. एक बेडरूम और एक ड्रॉयिंग रूम.बाकी कमरे ऐसे ही गंदे पड़े रहते हैं. और वो बाई जो वहाँ काम करने जाती है कहती है के शराब बहुत पीता है आपका वो मनचंदा. खाना भी होटेल से माँगता है. ना वो न्यूसपेपर पढ़ता, ना ही उसका कोई लेटर आता, ना वो किसी से मिलते, सारा दिन बस घर में पड़ा रहता है और रात को उल्लू की तरह बाहर निकलता है. अब आप ही बताओ के कोई उसके बारे में क्या सोचे?"

"हो सकता है वो अकेला रहना चाहता हो" मैने कहा तो रुक्मणी इनकार में सर हिलाने लगी.

उसकी इस बात पर मैने उसके एक निपल पर अपने दाँत गढ़ा दिए. वो ज़ोर से करही और मेरे सर पर हल्के से एक थप्पड़ मार दिया.

इसमें ग़लत क्या है?" मैने फिर सवाल किया

"शायद नही है पर फिर उससे मिलने जो लोग आते हैं वो कहाँ से आते हैं?" रुक्मणी की ये बात सुनकर मैने धक्के मारने बंद किए और लंड छूट में घुसाए उसकी तरफ देखने लगा.

"क्या मतलब?" मैने पुचछा

मतलब ये के उससे मिलने कुच्छ लोग आते हैं पर वो सामने के दरवाज़े से नही आते. बंगलो में एक ही दरवाज़ा है सामने की तरफ और उसके ठीक सामने पोलीस चोकी है जहाँ एक पोलिसेवला 24 घंटे रहता है."

"हां तो?" मैने उसकी एक चूची पर हाथ फिराता हुआ बोला

"तो ये के उस पोलिसेवाले ने मनचंदा को हमेशा अकेले ही देखा है. वो हमेशा अकेले ही घर के अंदर जाता है पर रात को उस पोलिसेवाले ने अक्सर घर की खिड़की से 2-3 लोगों के साए देखे हैं. अब आप ही बताओ के वो कहाँ से आते हैं"

"शायद पिछे के दरवाज़े से?" हमारी चुदाई अब पूरी तरह रुक चुकी थी

"नही. बंगलो में पिछे की तरफ कोई दरवाज़ा है ही नही. पीछे की तरफ एक यार्ड बना हुआ है जिसके चारों तरफ फेन्स लगी हुई है. बंगलो में जाने के लिए सामने के दरवाज़े से ही जाना पड़ता है पर जो कोई भी उस आदमी से मिलने आता है वो दरवाज़े से नही आता" रुक्मणी एक साँस में बोली

"शायद दिन में आए हों" मैने सोचते हुए कहा

"नही. वहाँ 2 ही पोलिसेवालों की ड्यूटी लगती है. कभी एक दिन में होता है तो कभी दूसरा रात में. शिफ्ट चेंज करते रहते हैं आपस में. और उन दोनो में से किसी ने भी कभी किसी वक़्त किसी को बंगलो में जाते नही देखा. पता किया है मैने" रुक्मणी भी अब मेरे नीचे नंगी पड़ी होने के बावजूद चुदाई छ्चोड़कर बंगलो के बारे में खुलकर बात कर रही थी.

"तो हो सकता है के मनचंदा के साथ कोई और भी रहता हो वहाँ" मैने फिर सोचते हुए कहा

"बिल्कुल नही. उस घर को उसने अकेले ही किराए पर लिया है और कोई नही है वहाँ. इस बात का सबूत है वो काम करने वाली बाई जो अक्सर सफाई के लिए बंगलो में जाती है. उसने उस मनचंदा के सिवा वहाँ किसी को भी नही देखा. और मुझे तो लगता है के मनचंदा उसका असली नाम है ही नही"

"वो क्यूँ?" मैने मुस्कुराते हुए पुचछा

"क्यूंकी मुझे ऐसा लगता है और मुझे ये भी लगता है के अब हमें उस बारे में बात करना छ्चोड़कर दूसरी तरफ ध्यान देना चाहिए. इस वक़्त उससे ज़्यादा ज़रूरी कुच्छ और है ध्यान देने लायक" कहते हुए रुक्मणी ने अपनी एक चूची पकड़कर हल्के से दबाई,

मैं उसका इशारा समझते हुए दोबारा चूत पर धक्के मारने लगा. कुच्छ देर ऐसे ही चोदने के बाद मैने उसे घुटनो के बल झुका दिया और पिछे से उसकी गांद पकड़ कर चोदने लगा

क्रमशः..................

raj..
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Re: Bhoot bangla-भूत बंगला

Unread post by raj.. » 13 Dec 2014 07:27

भूत बंगला पार्ट--२

गतान्क से आगे.......................

चुदाई के बाद रुक्मणी वहीं मेरे साथ नंगी ही सो गयी. वो तो नींद में चली गयी पर मेरी आँखों से नींद कोसो दूर थी. हालाँकि ये सच था के रुक्मणी की कही बात सिर्फ़ उसका अपना ख्याल था पर ये भी सच था के कुच्छ अजीब था मनचंदा के बारे में जो मुझे परेशान सा कर रहा था. वो जिस तरह से अकेला रहता था, कहाँ से आया था किसी को पता नही था और सोचता था के कोई उसको नुकसान पहुँचाना चाहता है और आख़िर में बंगलो के अंदर देखे गये कुच्छ और लोग, पता नही मैं एक वकील था इसलिए इन बातों में इतनी दिलचस्पी दिखा रहा था ये बस यूँ ही पर मैं ये जानता था के मेरे दिमाग़ को सुकून तभी मिलेगा जब मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल जाएँगे.मैं ये भी जानता था के किसी के पर्सनल मामले में यूँ दखल देना ठीक नही पर मेरी क्यूरीयासिटी इस हद तक जा चुकी थी के मैं आधी रात को ही बिस्तर से उठ खड़ा हुआ और सर्दी में घर से बाहर निकल गया. मैं खुद देखना चाहता था के क्या सच में बंगलो के अंदर कोई और भी दिखाई देता है.
धीरे धीर चलता मैं बंगलो नो 13 के सामने पहुँचा. बंगलो से थोड़ी ही दूर पर पोलीस चोवकी थी जहाँ पर पोलिसेवला कंबल में लिपटा गहरी नींद में डूबा हुआ था. मैं बंगलो के सामने सड़क के दूसरी तरफ खड़ा जाने किस उम्मीद में उस घर की और देखने लगा. बंगलो के ड्रॉयिंग रूम की खिड़की पर परदा गिरा हुआ था और उसके दूसरी तरफ से रोशनी आ रही थी. शायद मिस्टर मनचंदा अभी सोए नही थे. थोड़ी देर यूँ ही खड़े रहने के बाद मुझे खुद पर हसी आने लगी के कैसे मैं एक औरत के कहने पर आधी रात को यहाँ आ खड़ा हुआ. मैं जाने को पलटा ही था के मेरे कदम वहीं जम गये. खिड़की पर पड़े पर्दे के दूसरी तरफ दो साए नज़र आए. एक आदमी का और एक औरत का. मुझे एक पल के लिए यकीन नही हुआ के मैं क्या देखा रहा हूँ पर जब वो साए थोड़ी देर ऐसे ही खड़े रहे तो मुझे यकीन हो गया के मुझे धोखा नही हो रहा है. मैं ध्यान से खिड़की की तरफ देखने लगा जिसके पर्दे पर मुझे बस 2 काले साए दिखाई दे रहे थे.
जिस अंदाज़ में वो साए अपने हाथ हिला रहे थे उसे देखकर अंदाज़ा होता था के दोनो में किसी बात पर कहासुनी हो रही है जो धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी.वो बार बार एक पल के लिए खिड़की के सामने से हट जाते और फिर उसी तरह झगड़ा करते हुए फिर खिड़की के सामने दिखाई देते. कुच्छ देर तक यही चलता रहा और फिर अचानक से उस आदमी के साए ने औरत के साए को गर्दन से पकड़ लिया और किसी गुड़िया की तरह बुरी तरह हिला दिया.वो औरत आदमी की पकड़ से छूटने की कोशिश करने लगी और मुझे ऐसा लगा जैसे मैने एक चीख सुनी हो.
पता नही क्या सोचकर पर फ़ौरन मैं बंगलो के दरवाज़े की तरफ भागा. शायद मैं उस औरत को मुसीबत से बचाना चाहता था. दरवाज़े पर पहुँचकर मैने ज़ोर से दरवाज़र खटखटाया और ठीक उसी पल ड्रॉयिंग रूम में जल रही रोशनी बुझ गयी और मुझे कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया. पागलों की तरह मैं वहाँ खड़ा दरवाज़ा पीट रहा था. मुझे पूरा यकीन था के वो आदमी का साया मनचंदा ही था और उस औरत को मार रहा था.जब बड़ी देर तक दरवाज़ा नही खुला तो मैने पोलीस चोवकी तक जाने का फ़ैसला किया और बंगलो से निकल कर वापिस सड़क पर आ गया. एक आखरी नज़र मैने बंगलो पर डाली और पोलीस चोवी की तरफ बढ़ा. मैं मुश्किल से कुच्छ ही कदम चला था के सामने से मुझे एक आदमी आता दिखाई दिया. जब वो आदमी नज़दीक आया तो मैने उसका चेहरा देखा और मेरी आँखे हैरत से फेल गई.
वो आदमी मनचंदा था जो मेरे ख्याल से बंगलो के अंदर होना चाहिए था.

"मनचंदा साहब" मैं थोड़ा परेशान होते हुए बोला "आप?"
"हाँ मैं" उसने जवाब दिया "क्यूँ?"
"पर आप" मेरा सर चकरा उठा था "आप तो ..... "
"मैं क्या?" मनचंदा ने पुचछा
"मुझे लगा के आप घर के अंदर हैं" मैने बंगलो की तरफ देखते हुए कहा
"आपको ग़लत लगा" मनचंदा ने जवाब दिया "मैं अंदर नही बाहर हूँ. यहाँ आपके सामने"
"तो आपके घर में कौन है?"
"जहाँ तक मुझे पता है कोई नही" मनचंदा मेरे इन सवालो से ज़रा परेशान होने लगा था
"पर मैने किसी को देखा वहाँ. बंगलो के अंदर" मैने घर की तरफ इशारा करते हुए कहा
"बंगलो के अंदर?" मनचंदा चौंक उठा "कौन?"
"पता नही" मैने जवाब दिया "पर कोई था वहाँ"
"आपको धोखा हुआ होगा" मनचंदा ने मुस्कुराने की कोशिश की
"नही" मैं अपनी बात पे अड़ गया "मैं कह रहा हूँ के मैने किसी को देखा है और मुझे कोई ग़लती नही हुई"
"तो चलिए हम खुद ही चलकर देख लेते हैं" मनचंदा बंगलो की तरफ बढ़ा
"पर वो तो अब वहाँ से चले गये " मैं वहीं खड़ा रहा
"चले गये?" मनचंदा फिर मेरी तरफ पलटा
"हाँ" मैने कहा "मैने दरवाज़ा खटखटाया था क्यूंकी मुझे लगा के घर के अंदर कोई झगड़ा चल रहा है और उसी वक़्त घर में रोशनी बुझ गयी और किसी ने दरवाज़ा नही खोला. मेरे ख्याल से वो आदमी और औरत वहाँ से भाग गये"
मेरी बात सुनकर मनचंदा थोड़ी देर खामोश रहा और मेरी तरफ देखता रहा.फिर वो मुस्कुराते हुई मेरे थोड़ा करीब आया और बोला
"आपको ज़रूर कोई धोखा हुआ होगा. घर में इस वक़्त कोई नही हो सकता. मैने जाने से पहले खुद दरवाज़ा बंद किया था और मैं पिछे 4 घंटे से बाहर हूँ"
"आपको क्या लगता है के मैं पागल हूँ? जागते हुए सपना देख रहा था मैं?" मुझे हल्का गुस्सा आने लगा
"आप सपना देख रहे थे या नही इस बात का पता अभी लग जाएगा. चलिए हम लोग चलके खुद बंगलो के अंदर देख लेते हैं" मनचंदा फिर बंगलो की तरफ बढ़ा. हम दोनो सड़क के बीच भरी सर्दी में आधी रात को खड़े बहेस कर रहे थे.
"माफ़ कीजिएगा" मैं अपनी जगह पर ही खड़ा रहा "शायद मुझे इस मामले में पड़ना ही नही चाहिए था. ये आपका ज़ाति मामला है जिससे मेरा कोई लेना देना नही. पर एक बात मैं आपको बता दूँ मिस्टर मनचंदा. मुझे ज़्यादा कॉलोनी वाले आपको लेकर तरह तरह की बातें कर रहे हैं. हर कोई ये कहता फिर रहा है के आपके पिछे आपके बंगलो में कोई और भी होता है. और आप जिस तरह से रहते हैं, चुप चाप, किसी से मिलते नही उसे देखकर तो यही लगता है के आपके बारे में इस तरह की बातें होती रहेंगी और कोई ना कोई एक दिन पोलीस ले ही आएगा आपके यहाँ"
"पोलीस?" मनचंदा एकदम चौंक गया "नही नही. ये ठीक नही है. मेरा घर मेरी अपनी ज़िंदगी है. पोलिसेवाले अंदर ना ही आएँ तो बेहतर है. मैं एक शांत किस्म का आदमी हूँ और किस्मत का मारा भी जिसे अकेलापन पसंद है. मेरे घर में किसी और के होने की बात बकवास है"
"फिर भी जब मैने कहा के आपके घर में कोई है तो आप डर तो गये थे" मैने अपनी बात पर ज़ोर देते हुए कहा
"डर?" मनचंदा ने जवाब दिया "मैं क्यूँ डरने लगा और किससे डरँगा?"
"शायद उनसे जो आपको तकलीफ़ पहुँचाना चाहते हैं?" मैने मनचंदा की हमारी पहली मुलाक़ात की कही बात दोहराई
मनचंदा फ़ौरन 2 कदम पिछे को हो गया और मुझे घूर्ने लगा. उसके चेहरे पर परेशानी के भाव सॉफ देखे जा सकते थे.
"तुम इस बारे में क्या जानते हो?" उसने मुझसे पुचछा
"उतना ही जितना आपने बताया था मुझे उस रात जब मैं आपको घर छ्चोड़कर गया था" मैने उसे याद दिलाते हुए कहा
"उस रात मैं अपने होश में नही था. वो मैं नही शराब बोल रही थी" उसने जवाब दिया
"पर शराब सच बोल रही थी" मैने कहा
"देखिए" मनचंदा ने गहरी साँस लेते हुए कहा "मैं एक बहुत परेशान आदमी हूँ, अपनी ज़िंदगी का सताया हुआ हूँ"
"मैं चलता हूँ" मैने कहा "मेरी किस्मत खराब थी के रात के इस वक़्त मैं इस तरफ चला आया और आधी रात को सर्दी में यहाँ खड़ा आपस बहस कर रहा हूँ पर मुझे लगता है के अब हमें अपने अपने घर जाना चाहिए"
"एक मिनिट" मनचंदा ने मुझे रोकते हुए कहा "मैं आपका एहसान मानता हूँ के आपने मुझे होशियार करने की कोशिश की. कॉलोनी के लोगों से और मेरे घर में किसी के होने की बात से भी. तो इस वजह से ये मेरा फ़र्ज़ बनता है के मैं भी ये साबित करूँ के आप ग़लत हैं. मेरे घर में कोई नही है. आप एक बार मेरे साथ बंगलो की तरफ चलते देख अपनी तसल्ली कर लीजिए के वहाँ कोई इंसान नही था."
"अगर इंसान नही था तो कोई भूत भी नही था. जहाँ तक मैं जानता हूँ भूतों की परच्छाई नही बनती" मैने मज़ाक सा उड़ाते हुए कहा
"आप खुद चलते अपनी तसल्ली क्यूँ नही कर लेते" मनचंदा ने एक बार फिर मुझे अपने साथ बंगलो में चलने को कहा

मुझे खामोश देखकर मनचंदा ने एक बार फिर मुझे अंदर चलने को कहा. समझ नही आ रहा था के क्या करूँ. बंगलो नो 13 बहुत बदनाम था, तरह तरह की कहानियाँ इस घर के बारे में मश-हूर थी. उस घर में आधी रात को एक आज्नभी के साथ जाना मुझे ठीक नही लग रहा था. एक तरफ तो मेरा दिल ये कह रहा था के एक बार अंदर जाकर घर देख ही आउ और दूसरी तरफ डर भी लग रहा था. डर मनचंदा का नही था, वो एक बुद्धा आदमी था मेरा क्या बिगाड़ सकता था. डर इस बात का था के अगर घर के अंदर और लोग हुए तो?और अगर मनचंदा उनके साथ मिला हुआ तो? पर मेरी क्यूरिषिटी ने एक बार फिर मुझे मजबूर कर दिया के मैं एक बार देख ही आऊँ. मैने मनचंदा को इशारा किया और उसके पिछे बंगलो की तरफ चल पड़ा.
थोड़ी ही देर में मैं और मनचंदा बंगलो के अंदर ड्रॉयिंग रूम में खड़े थे. बंगलो में लाइट नही थी. मनचंदा ने आगे बढ़कर सामने रखा लॅंप जलाया.
"वो लोग जिनकी परच्छाई आपने पर्दे पर देखी थी, अगर वो सही में थे तो यहाँ खड़े होंगे" मनचंदा ने खिड़की के करीब रखी एक तबके की और इशारा करते हुए कहा
मैने हां में सर हिलाया
"अब एक बात बताओ इशान" उसने पहली बार मुझे मेरे नाम से बुलाया "तुम कहते हो के वो लोग आपस में लड़ रहे थे पर इस कमरे को देखकर क्या ऐसा लगता है के यहाँ कोई अभी अभी लड़ रहा था?"
मैने खिड़की की ओर देखा
"लड़ाई से मेरा मतलब ये नही था के कोई यहाँ कुश्ती कर रहा था मनचंदा साहब. लड़ाई से मेरा मतलब था के आपस में कहा सुनी हो रही थी. और ये पर्दे देख रहे हैं आप?" मैने खिड़की पर पड़े पर्दे की ओर इशारा किया "जब मैने देखा था तो खिड़की पर पर्दे नही थे. सिर्फ़ शीशे में अंदर खड़े लोगों की परच्छाई नज़र आ रही थी. ये पर्दे मेरे दरवाज़ा नॉक करने के बाद गिराए गये हैं"
"पर्दे जाने से पहले मैने गिराए थे इशान" मनचंदा ने तसल्ली के साथ कहा
जवाब में मैने कुच्छ नही कहा. सिर्फ़ इनकार में अपना सर हिलाया. जिस बात की मुझे उस वक़्त सबसे ज़्यादा हैरत हो रही थी वो ये थी के मैं क्यूँ ये साबित करने पर तुला हूँ के घर में कोई था. मुझे क्या फरक पड़ता है अगर कोई था भी तो और अगर नही था तो मेरा क्या फायडा हो रहा है. और दूसरी बात ये के क्यूँ मनचंदा इतना ज़ोर डालकर मेरे सामने ये साबित करना चाह रहा है के घर में कोई नही है. मैने मान भी लिया तो क्या बदल जाएगा और ना माना तो उसका क्या बिगाड़ लूँगा. इस बात से मेरा शक यकीन में बदल गया के कुच्छ है जो वो च्छुपाना चाह रहा है. मैं फिर उसकी तरफ पलटा.
पहली बार मैने मनचंदा को पूरी रोशनी में देखा. वो एक मीडियम हाइट का आदमी था. क्लीन शेव, चेहरे पर एक अजीब सी परेशानी. उसके चेहरे से उड़ा रंग और उसकी सेहत देखकर ही लगता था के वो काफ़ी बीमार है. आँखों में देखने से पता चलता था के वो शायद ड्रग्स भी लेता है. मैं उसकी तरफ देख ही रहा था के वो ख़ासने लगा. अपनी जेब से रुमाल निकालकर जब उसने अपना मुँह सॉफ किया तो रुमाल पर खून मुझे सॉफ नज़र आ रहा था.
उसके बारे में 2 ख़ास बातें मुझे दिखाई दी. एक तो उसके चेहरे के लेफ्ट साइड में एक निशान बना हुआ था, जैसे किसी ने चाकू मारा हो या किसी जंगल जानवर ने नोच दिया हो. निशान उसके होंठ के किनारे से उपर सर तक गया हुआ था. और दूसरा उसके राइट हॅंड की सबसे छ्होटी अंगुली आधी कटी हुई थी. हाथ में सिर्फ़ बाकी की आधी अंगुली ही बची थी.
"आप काफ़ी बीमार लगते हैं" मैने तरस खाते हुए कहा
"बस कुच्छ दिन की तकलीफ़ है. उसके बाद ना ये जिस्म बचेगा और ना ही कोई परेशानी" उसने मुस्कुरकर जवाब दिया
"इतनी सर्दी में आपको बाहर नही होना चाहिए था" मैने कहा
""जानता हूँ. पर इतने बड़े घर में कभी कभी अकेले दम सा घुटने लगता है इसलिए बाहर चला गया था"
उसके घर के बारे में ज़िक्र किया तो मैने नज़र चारो तरफ दौड़ाई. घर सच में काफ़ी बड़ा था इसका अंदाज़ा ड्रॉयिंग रूम को देखकर ही हो जाता था. मनचंदा ने ड्रॉयिंग रूम को काफ़ी अच्छा सज़ा रखा था. ज़मीन पर महेंगा कालीन, चारो तरफ महेंगी पेंटिंग्स, महेंगा फर्निचर, काफ़ी अमीर लगता था वो. कमरे में रखी हर चीज़ इस बात की तरफ सॉफ इशारा करती थी के मनचंदा के पास खर्च करने को पैसे की कोई कमी नही है. टेबल पर रखी शराब भी वो थी जो अगर मैं शराब पिया करता तो सिर्फ़ फ्री की पार्टीस में पीना ही अफोर्ड कर सकता था.
"काफ़ी अच्छा बना रखा है आपने घर को" मैने कहा तो मनचंदा मुस्कुराने लगा. "पर हैरत है के आपने सिर्फ़ 2 कमरों की तरफ ध्यान दिया है. बाकी घर का हर कमरा ऐसे ही गंदा पड़ा है"
"मुझे सिर्फ़ रहने के लिए 2 कमरों की ज़रूरत है इशान. बाकी कमरे सॉफ करके करूँगा भी क्या? वैसे तुम्हें कैसे पता के मैने बाकी घर ऐसे ही छ्चोड़ रखा है?" उसने पुचछा
"आप इस कॉलोनी में सबसे फेमस आदमी हैं मनचंदा साहब. आपके बारे में पूरी कॉलोनी को पता है" मैने भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया
"शायद वो कम्बख़्त काम करने वाली बहुत बोल रही है" मनचंदा ने कहा और मेरी खामोशी को देखकर समझ गया के वो सच कह रहा है.
"आइए बाकी का घर भी देख लीजिए ताकि आपको तसल्ली हो जाए के घर में कोई नही था मेरे पिछे" उसकी बात सुनकर मैं फिर चौंक उठा. जितना ज़ोर डालकर वो ये साबित करना चाह रहा था के मैं ग़लत था, वो बात काफ़ी अजीब लग रही थी मुझे.

raj..
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Re: Bhoot bangla-भूत बंगला

Unread post by raj.. » 13 Dec 2014 07:28


उसने मुझे पुर घर का चक्कर लगवा दिया. हर कमरा खोलकर दिखाया. किचन का वो दरवाज़ा जो पिछे लॉन में खुलता था वो भी दिखा दिया. दरवाज़ा अंदर से बंद था तो वहाँ से भी कोई नही आ सकता था. पूरे घर का चक्कर लगाकर हम एक बार फिर ड्रॉयिंग रूम में पहुँचे.
"अब तसल्ली हुई के आपको सिर्फ़ एक धोखा हुआ था?" मनचंदा ने पुचछा तो मैने इनकार में सर हिलाया
"पर आपने खुद देख लिया के घर में कोई घुस ही नही सकता था. और अगर कोई यहाँ था को कहाँ गया? घर तो अंदर से बंद है" उसने फिर अपनी बात पर ज़ोर डाला
"मुझे नही पता के ये कैसे मुमकिन है मनचंदा साहब और ना ही मैं मालूम करना चाहता" मैने कहा "अपना घर दिखाने के लिए शुक्रिया. मैं चलता हूँ"
कहते हुए मैं दरवाज़ा की तरफ बढ़ा और खोलकर बाहर निकल गया
"जाओ" पीछे से मुझे मनचंदा की आवाज़ आई "और सबसे कह देना के मुझे अकेला छ्चोड़ दें. मेरे बारे में बाते ना करें. अकेला छ्चोड़ दें मुझे यहाँ घिस घिसकर मरने के लिए"

थोड़ी ही देर बाद मैं अपने घर अपने कमरे के अंदर था. रुक्मणी अब भी गहरी नींद में पड़ी सो रही थी. जो चादर उसने अपने जिस्म पर पहले डाल रखी थी अब वो भी नही थी और वो पूरी तरह से नंगी बिस्तर पर फेली हुई थी. मैं उसके बगल में आकर लेट गया और आँखे बंद करके सोने की कोशिश करने लगा पर नींद आँखों से कोसो दूर थी. समझ नही आ रहा था के क्या सच घर के अंदर कोई था ये मुझे धोखा हुआ था और ये मनचंदा ऐसी मरने की बातें क्यूँ करता है? कौन है ये इंसान? क्या कोई पागल है? कहाँ से आया है? ये सोच सोचकर मेरा दिमाग़ फटने लगा. समझ नही आ रहा था के मैं क्यूँ इतना उसके बारे में सोच रहा हूँ.
इन ख्यालों को अपने दिमाग़ से निकालने के लिए मैं रुक्मणी की तरफ पलटा. वो मेरी तरफ कमर किए सो रही थी. मैने धीरे से एक हाथ उसकी कमर पर रखा और सहलाते हुए नीचे उसकी गांद तक ले गया. वो नींद में धीरे से कसमसाई और फिर सो गयी. मैने हाथ उसकी गांद से सरकते हुए पिछे से उसकी टाँगो के बीच ले गया और उसकी चूत को सहलाने लगा. एक अंगुली मैने धीरे से उसकी चूत में घुमानी शुरू कर दी. मेरा लंड अब तक तन चुका था. मैने अपने शॉर्ट्स उतारकर एक तरह फेंके और पिछे से रुक्मणी के साथ सॅट गया और ऐसे ही लंड उसकी चूत में घुसने की कोशिश करने लगा पर कर नही सका क्यूंकी रुक्मणी अब भी सो रही थी. एक पल के लिए मैं उसे सीधी करके चोदने की सोची पर फिर ख्याल छ्चोड़कर सीधा लेट गया.
लड़कियों के मामले में मेरी किस्मत हमेशा ही खराब रही. हर कोई ये कहता रहा के मुझे मॉडेलिंग करनी चाहिए, हीरो बन जाना चाहिए पर कभी कोई लड़के मेरे करीब नही आई. इसकी शायद एक वजह ये भी थी के मैं खुद कभी किसी लड़की के पिछे नही गया. मैं हमेशा यही चाहता था के लड़की खुद आए और इसी इंतेज़ार में बैठा रहा पर कोई नही आई. पूरे कॉलेज हाथ से काम चलाना पड़ा और फिर फाइनली वर्जिनिटी ख़तम हुई भी तो एक ऐसी औरत के साथ जो विधवा थी और मुझे उमर में कम से कम 15 साल बड़ी थी.
कॉलेज में कयि लड़कियाँ थी जो मुझे पता था के मुझे पसंद करती हैं पर उनमें से कभी कोई आगे नही बढ़ी और मैं भी अपनी टॅशन में आगे नही बढ़ा. मैने एक ठंडी आह भरी और अपनी आँखें बंद कर ली, सोने की कोशिश में.
अगले दिन सुबह 9 बजे मैं अपने ऑफीस पहुँचा. मैं उन वकीलों में से था जो अब भी अपने कदम जमाने की कोशिश कर रहे थे. जिस बिल्डिंग में मेरा ऑफीस था वो रुक्मणी के पति की और अब रुक्मणी की थी. पूरी बिल्डिंग किराए पर थी और रुक्मणी के लिए आमदनी का ज़रिया था पर मेरा ऑफीस फ्री में था. मेरे घर की तरह ही इस जगह भी मैं मुफ़्त में डेरा जमाए हुए था.
दरवाज़ा खोलकर मैं अंदर दाखिल हुआ तो सामने प्रिया बैठी हुई थी.
प्रिया मेरी सेक्रेटरी थी. उसे मैने कोई 6 महीने पहले काम पर रखा था रुक्मणी के कहने पर. वो कहती थी के अगर सेक्रेटरी हो तो क्लाइंट्स पर इंप्रेशन अच्छा पड़ता है. प्रिया कोई 25 साल की मामूली शकल सूरत की लड़की थी. रंग हल्का सावला था. उसके बारे में सबसे ख़ास बात ये थी के वो बिल्कुल लड़को की तरह रहती थी. लड़को जैसे ही कपड़े पेहेन्ति थी, लड़को की तरह ही उसका रहेन सहन था, लड़को की तरह ही बात करती थी और बॉल भी कंधे तक कटा रखे थे. कहती थी के कंधे तक भी इसलिए क्यूंकी इससे छ्होटे उसकी माँ उसे काटने नही देती थी.
"गुड मॉर्निंग" उसने मेरी तरफ देखकर कहा और फिर सामने रखी नॉवेल पढ़ने लगी
"गुड मॉर्निंग" मैने जवाब दिया "कैसी हो प्रिया?"
"जैसी दिखती हूँ वैसी ही हूँ" उसने मुँह बनाते हुए जवाब दिया
मैं मुस्कुराते हुए अपनी टेबल तक पहुँचा और बॅग नीचे रखा
"मूड खराब है आज. क्या हुआ?" मैने उससे पुचछा
"कुच्छ नही" उसने वैसे ही नॉवेल पढ़ते हुए जवाब दिया
"अरे बता ना" मैने फिर ज़ोर डाला
"कल देखने आए थे मुझे लड़के वाले. कल शाम को" उसने नॉवेल नीचे रखते हुए कहा
"तो फिर?" मैने पुचछा
"तो फिर क्या. वही हुआ जो होना था. मना करके चले गये" वो गुस्से में उठते हुए बोली
"क्यूँ?" मैने पुचछा
"कहते हैं के मैं किसी घर की बहू नही बन सकती" वो मेरी टेबल के करीब आई
"और ऐसा क्यूँ?" मैने फिर सवाल किया
"उनके हिसाब से जो लड़की लड़कियों की तरह रहती ही नही वो किसी की बीवी क्या बनेगी. कहते हैं मैं लड़की ही नही लगती" उसकी आँखे गुस्से से लाल हो रही थी
"आप ही बताओ" उसने मुझपर ही सवाल दाग दिया "क्या मैं लड़की नही लगती"
मैने उसको और चिडाने के लिए इनकार में सर हिला दिया. उसको यूँ गुस्से में देखकर मुझे मज़ा आ रहा था.
मेरी इस हरकत पर वो और आग बाबूला हो उठी.
"क्यूँ नही लगती मैं लड़की. क्या कमी है?" उसने अपने आपको देखते हुए कहा. मैने जवाब में कुच्छ नही कहा
"बोलो. क्या नही है मुझमें लड़कियों जैसा?" कहते हुए उसने अपने दोनो हाथ से अपनी चूचियो की ओर इशारा किया "आपको क्या लगता है के ये मुझे मच्छर ने काट रखा है"
उसकी ये बात सुनकर मैं अपनी हसी चाहकर भी नही रोक सका.
"वो बात नही है प्रिया" मैने उसे अपने सामने रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया."देख जो बात मैं तुझे कह रहा हूँ शायद तुझे थोड़ी सी अजीब लगे पर यकीन मान मैं तेरे भले के लिए कह रहा हूँ"
वो एकटूक मुझे देखे जा रही थी
"जबसे तू आई है तबसे मैं तुझे ये बात कहना चाह रहा था पर तू नयी नयी आई थी तो मुझे लगा के कहीं बुरा ना मान जाए. फिर हम दोनो एक दूसरे के साथ बॉस और एंप्लायी से ज़्यादा दोस्त बन गये तब भी मैने सोचा के तुझे ये बात कहूँ पर फिर कोई ऐसा मौका ही हाथ नही लगा."
"क्या कह रहे हो मुझे कुच्छ समझ नही आ रहा" उसने अपना चश्मा ठीक करते हुए कहा
"बताता हूँ. अच्छा एक बात मुझे सच सच बता. क्या तेरा दिल नही करता के तेरी ज़िंदगी में कोई लड़का हो, जो तुझे चाहे, तेरा ध्यान रखे. ज़िंदगी भर तेरे साथ चले" मैने उससे पुचछा
"हां करता तो है" उसने अपनी गर्दन हिलाते हुए कहा
"तो तू ही बता. क्या तू एक ऐसे लड़के के साथ रहना चाहेगी जो लड़कियों के जैसे कपड़े पेहेन्ता हो, मेक उप करता हो और लड़कियों की तरह रहता हो?" मैने थोड़ा सीरीयस होते हुए कहा
कुच्छ पल के लिए वो चुप हो गयी. नीचे ज़मीन की और देखते हुए कुच्छ सोचती रही. मैने भी कुच्छ नही कहा.
"मैं समझ गयी के आप क्या कहना चाह रहे हो" उसने थोड़ी देर बाद कहा
"बिल्कुल सही समझी. मैं ये नही कहता के तू लड़की नही. लड़की है पर लड़कियों जैसी बन भी तो सही" मैने मुस्कुराते हुए कहा
"कैसे?" उसने अपने उपेर एक नज़र डाली"मैं तो हमेशा ऐसे ही रही हूँ"
"ह्म्‍म्म्म" मैने उसे उपेर से नीचे तक देखते हुए कहा "तेरे पास सारे कपड़े ऐसे लड़कों जैसे ही हैं?"
"हां" उसे अपना सर हां में हिलाया
"तो कपड़ो सही शुरू करते हैं" मैने कहा "आज शाम को तू कुच्छ लड़कियों वाले कपड़े खरीद जैसे सलवार कमीज़ या सारी"
"ठीक है" उसने मुस्कुराते हुए कहा "शाम को ऑफीस के बाद चलते हैं"
"चलते हैं का क्या मतलब?" मैं चौंकते हुए बोला "अपनी मम्मी के साथ जाके ले आ"
"अरे नही" उसने फ़ौरन मना किया "मम्मी के साथ नही वरना वो तो पता नही क्या बाबा आदम के ज़माने के कपड़े ले देंगी. आप प्लीज़ चलो ना साथ"
वो बच्चो की तरह ज़िद कर रही थी. मैं काफ़ी देर तक उसको मना करता रहा पर जब वो नही मानी तो मैने हार कर हाँ कर दी.
दोपहर के वक़्त मैं कोर्ट से अपने ऑफीस में आया ही था के फोन की घंटी बज उठी. प्रिया ऑफीस में नही थी. शायद खाना खाने गयी हो ये सोचकर मैने ही फोन उठाया.
"इशान आहमेद" मैने फोन उठाते हुए कहा
"इशान मैं मिश्रा बोल रहा हूँ" दूसरी तरफ से आवाज़ आई "क्या कर रहा है?"
"कुच्छ नही बस अभी कोर्ट से ऑफीस पहुँचा ही हूँ. खाना खाने की तैय्यारि कर रहा था." मैने जवाब दिया
"एक काम कर पोलीस स्टेशन आ जा. खाना यहीं साथ खाते हैं. तुझसे कुच्छ बात करनी है" मिश्रा ने कहा
"क्या हुआ सब ख़ैरियत?" मैने पुचछा
"तो आ तो जा. फिर बताता हूँ" वो दूसरी तरफ से बोला
रंजीत मिश्रा मेरा दोस्त और एक पोलिसेवला था. उससे मेरी मुलाक़ात आज से 2 साल पहले एक केस के सिलसिले में हुई थी और उसके बाद हम दोनो की दोस्ती बढ़ती गयी. इसकी शायद एक वजह ये थी के तकरीबन ज़िंदगी के हर पहलू के बारे में हम एक ही जैसा सोचते थे. हमारी सोच एक दूसरे से बिल्कुल मिलती थी. वो मुझे उमर में 1 या 2 साल बड़ा था. सच कहूँ तो मेरे दोस्त के नाम पे वो शायद दुनिया का अकेला इंसान था. पोलीस में इनस्पेक्टर की पोस्ट पर था और अपनी ड्यूटी को वो सबसे आगे रखता था. रिश्वत लेने या देने के सख़्त खिलाफ था और अपनी वर्दी की पूजा किया करता था. इन शॉर्ट वो उन पोलिसेवालो मे से था जो अब शायद कम ही मिलते हैं.
उसका यूँ मुझे बुलाना मुझको थोड़ा अजीब लगा. प्रिया अब तक वापिस नही आई थी. मैने उसकी टेबल पर एक नोट छ्चोड़ दिया के मैं मिश्रा से मिलने जा रहा हूँ और ऑफीस लॉक करके पोलीस स्टेशन की तरफ चल पड़ा.

शामला बाई हमारे देश की वो औरत है जो हर शहर, हर गली और हर मोहल्ले में मिलती है. घर में काम करने वाली नौकरानी जो कि अगर देखा जाए तो हमारे देश का सबसे बड़ा चलता फिरता न्यूज़ चॅनेल होती हैं. मोहल्ले के किस घर में क्या हो रहा है उन्हें सब पता होता है और उस बात को मोहल्ले के बाकी के घर तक पहुँचना उनका धरम होता है. घर की कोई बात इनसे नही छिपटी. बीवी अगर बिस्तर पर पति से खुश नही है तो ये बात भले ही खुद पति देव को ना पता हो पर घर में काम करने वाली बाई को ज़रूर पता होती है और कुच्छ दिन बाद पूरे मोहल्ले को पता होती है.
ऐसी ही थी शामला बाई. वो मेरे घर और आस पास के कई घर में काम करती और उनमें से ही एक घर बंगलो नो 13 भी था. वो रोज़ सुबह तकरीबन 10 बजे मनचंदा के यहाँ जाती और घर के 2 कमरो की सफाई करके आ जाती थी. मनचंदा के बारे में जितनी भी बातें कॉलोनी वाले करते थे उनमें से 90% खुद शामला बाई की कही हुई थी. वो आधी बहरी थी और काफ़ी ऊँचा बोलने पर ही सुनती थी और जब बात करती तो वैसे ही चिल्ला चिल्लाके बात करती थी. वो जब मेरे यहाँ काम करने आती तो मैं अक्सर घर से बाहर निकल जाता था और तब तक वापिस नही आता था जब तक के वो सफाई करके वापिस चली ना जाए. अक्सर घर से कई चीज़ें मुझे गायब मिलती थी और मैं जानता था के वो किसने चुराई हैं पर फिर भी मैं कभी उसके मुँह नही लगता था. वो उन औरतों में से थी जिसने जितना दूर रही उतना अच्छा. पर जो एक बात मुझे उसकी सबसे ज़्यादा पसंद थी वो ये थी के वो टाइम की बड़ी पक्की थी. उसका एक शेड्यूल था के किस घर पर कितने बजे पहुँचना है और वो ठीक उसी वक़्त उस घर की घंटी बजा देती थी. ना एक मिनिट उपेर ना एक मिनिट नीचे.
वो रोज़ाना सुबह 7 बजे मनचंदा के यहाँ सफाई करने जाती और 8 बजे तक सब ख़तम करके निकल जाती थी. जाते वक़्त वो पास के एक होटेल से मनचंदा के लिए नाश्ता पॅक करते हुए ले जाती थी और फिर दोबारा दोपहर 12 बजे उसे दोपहर का खाना देने जाती थी. रुक्मणी ने मुझे बताया था के सिर्फ़ इतने से काम के लिए मनचंदा उसको ज़रूरत से कहीं ज़्यादा पैसे देता था. शायद वो उन पैसो के बदले में उससे ये उम्मीद करता था के वो मनचंदा के बारे में कॉलोनी में कहीं किसी से कुच्छ नही कहेगी. पर शामला बाई ठीक उसका उल्टा करती थी. वो उससे पैसे भी लेती और उसी की बुराई भी करती. जब उसके पास बताने को कुच्छ ना बचता तो अपने आप नयी नयी कहानियाँ बनती और पूरे कॉलोनी को सुनाती फिरती.
कहा जाए तो शामला बाई एक बेहद ख़तरनाक किस्म की औरत थी जिसको शायद आज से 400 - 500 साल पहले चुड़ैल बताकर ज़िंदा जला दिया जाता.वो असल में मनचंदा की सबसे बड़ी दुश्मन थी जो खुद उसके अपने घर में थी. अगर उसको ज़रा भी पता चल जाता के वो उसके बारे में कैसी कैसी बातें करती है तो शायद उसे अगले ही दिन चलता कर देता. शामला बाई को पूरा यकीन था के मनचंदा ने कहीं कुच्छ किया है और अब वो अपने गुनाह से छिपाने के लिए यहाँ इस भूत बंगलो में छुप कर बैठा हुआ है. वो शायद खुद भी लगातार इस कोशिश में रहती थी के मनचंदा का राज़ मालूम कर सके पर कभी इस बात में कामयाब नही हो सकी.
मनचंदा ने उसको अपने घर के एक चाबी दे रखी थी ताकि अगर वो कभी सुबह घर पर ना हो तो शामला अंदर जाकर सफाई कर सके. और अक्सर होता भी यही था के वो रोज़ाना सुबह 10 बजे जाकर मनचंदा को नींद से जगाती थी.
उस सुबह भी कुच्छ ऐसा ही हुआ था. शामला बाई होटेल पहुँची. होटेल का मलिक पिच्छले 6 महीने से मनचंदा के यहाँ खाना भिजवा रहा था इसलिए अब वो शामला बाई के आने से पहले ही ब्रेकफास्ट पॅक करवा देता था. उस दिन भी शामला बाई होटेल पहुँची तो ब्रेकफास्ट पॅक रखा था. उसने पॅकेट उठाया और बंगलो नो 13 में पहुँची. अपनी चाबी से उसने दरवाज़ा खोला और जैसे ही ड्रॉयिंग रूम में घुसी तो उसकी आँखें हैरत से खुली रह गयी.
पूरा ड्रॉयिंग रूम बिखरा हुआ था. कोई भी चीज़ अपनी जगह पर नही थी. टेबल पर रखे समान से लेकर आल्मिराह में रखी बुक्स तक बिखरी पड़ी थी. खिड़की पर पड़े पर्दे टूट कर नीचे गिरे हुए थे. शामला बाई ने ब्रेकफास्ट टेबल पर रखा और हैरत में देखती हुई ड्रॉयिंग रूम के बीच में आई. तब उसकी नज़र कमरे के एक कोने की तरफ पड़ी और उसके मुँह से चीख निकल गयी.
वहाँ कमरे के एक कोने में मनचंदा गिरा पड़ा था. आँखें खुली, चेहरा सफेद और छाती से बहता हुआ खून. उसको देखकर कोई बच्चा भी ये कह सकता था के वो मर चुका है.
"मैं अभी वहीं से आ रहा हूँ" कहते हुए मिश्रा ने खाना मेरी तरफ बढ़ाया "उसकी छाती पर किसी चाकू का धार वाली चीज़ से वार किया गया था. वो चीज़ सीधा उसके दिल में उतर गयी इसलिए एक ही वार काफ़ी था उसकी जान लेने के लिए."



क्रमशः........................

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