ज़िंदगी के रंग compleet

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rajaarkey
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ज़िंदगी के रंग compleet

Unread post by rajaarkey » 13 Oct 2014 16:34

raj sharma stories

ज़िंदगी के रंग--1

आज जिस प्यार मे पागल फिरते हो

कल उस से ही दिल तुडवाओगे

आज जिन दोस्तो की दोस्ती पे नाज़ है

कल उन से ही पीठ पे छुरा खाओगे

है मतलब की दुनिया साली

यहाँ कोई किसी का यार नही

उपर से ये ज़िंदगी भी है बेवफा

कब साँस साथ छोड़ जाए कोई अएतबार नही

ज़िंदगी को जितना समझने की कोशिश करोगे

उतना ही इसकी उलझनों मे उलझ जाओगे

आज जिस मौत से डर के भागे फिरते हो

एक दिन वो भी आएगा

जब इसको भी ज़िंदगी से ज़्यादा हसीन पाओगे

नैनीताल के छोटे से गाओं की लड़की के सपने बहुत बड़े थे. उसकी ज़िंदगी से भरी खूबसूरत आँखे एक नयी दुनिया को देखने के सपने बचपन से ही आँखो मे बुन रही थी. वो दूसरी लड़कियो की तरहा छोटी सी उमर मे शादी कर के घर ग्रहस्ती संभालने की बजाए कुछ ऐसा करना चाहती थी जिस से ना सिर्फ़ उसके माता पिता का नाम रोशन हो बल्कि पूरा देश उस पे गर्व कर सके. अपने ख्वाओ की तरहा उसका नाम भी बहुत ही सुंदर था, मोना. मोना बचपन से ही अपनी हम उमर लड़कियो मे सब से सुंदर दिखती थी और ज्यूँ ज्यूँ उसकी उमर बढ़ी, उसका हुस्न भी दिल नॅशिन होता चला गया. लंबा कद, भर पूर कशिश हल्का सांवला रंग, भरी हुई छातियाँ जो वो जब भी साँस लेती थी हिलती हुई हर जवान लड़के को उसकी तरफ ललचाई हुई नज़ारो से देखने पर मजबूर कर देती थी. उसके घने लंबे बाल जब खुले होते थे तो उसकी पीठ पर हवा से लहराते बहुत सुंदर लगते थे. नैनीताल के कितने ही छोरे इन ज़ुल्फो से खेलने को मच्छल रहे थे. उसकी बादाम जैसी गहरी आँखे ज़िंदगी से यूँ भरी हुई थी के अगर मुर्दे को भी गौर से देख ले तो उस मे जान डाल दें. मोना के गुलाब जैसे सुंदर होंठ हंसते हुए उसके मोतियों की तरहा चमकते दाँतों के साथ अंधेरे मे भी उजाला कर देते थे. इन होंठों का रस चूसने को कितने की भंवरे उसके इर्द गिर्द मंडराते रहते थे मगर ना ही उसने कभी किसी को घास डाली और ना ही कभी किसी मे इतनी हिम्मत हुई की अपने मन की बात उसको कह सके

शायद इस की एक वजह ये भी थी के नैनीताल मे सब ही मोना के पिता मास्टर दीना नाथ का बहुत अेहतराम करते थे. उन्हो ने अपनी सारी ज़िंदगी इंसानियत और प्यार का पाठ पढ़ाते हुए गुज़ार दी थी. दीना नाथ की बस ऐक ही बेटी थी और वो उनकी आँखो का तारा थी. उनको फखर था के उनकी बिटिया पढ़ लिख कर देश की सेवा करना चाहती थी. जहाँ मोना के पिता अपनी बिटिया के ख्वाब सुन कर खुशी से फूले ना समाते थे वहाँ उस की मा पूजा अंदर ही अंदर बहुत घबराती थी. वो जानती थी के ये दुनिया बड़ी ही ज़ालिम है और कितनी कलियाँ जो खिलने के ख्वाब देखती हैं उन को ये खिलने से पहले ही मुरझाने पे मजबूर कर देती है. वो रोज़ाना पूजा पाठ करने के बाद ये ही दुआ भगवान से माँगा करती थी के उस की मासूम बिटिया इस हवस से भरे दरिंदे समाज से बची रहे और अपने पागलपन के खोवाब छोड़ कर अपने हाथ पीले कर के अपना घर बसा ले. मगर भगवान को भी कुछ और ही मंज़ूर था..........

दीना नाथ जी ने ज़िंदगी भर इज़्ज़त तो बहुत कमाई थी मगर एक छोटे गाओं का स्कूल टीचर अपनी थोड़ी इस तनख़्वा से भला क्या जोड़ सकता है? बनिया उधार ना करे तो घर का चूल्हा ठंडा हो जाए ऐसे सफेद पोशौं का तो. इस के बावजूद मास्टर जी ने अपनी बिटिया को अपनी हसियत से बढ़ कर ज़िंदगी की हर खुशी देने की कोशिश की थी. परंतु जब बात मोना के देल्ही के बड़े कॉलेज मे जा के पढ़ने की आई तो बेचारे दीना नाथ जी वो कैसे पूरी कर सकते थे? दिल ही दिल मे मास्टर जी बहुत रो रहे थे और उस वक़्त से डर रहे थे जब उन्हे मोना का ये सपना तोड़ना पड़ेगा पर ज़िंदगी कभी कभार ग़रीबो पे भी मुस्कुरा देती है. उनकी इस समस्या को मोना ने खुद ही सुलझा दिया जब उससे देल्ही कॉलेज ऑफ इंजिनियरिंग मे स्कॉलरशिप मिल गयी. मास्टर जी की खुशी तो आसमान को छू रही थी और पहली बार मोना की माता पूजा को भी ऐसा लगा के उनकी बिटिया के सपने सच मे साकार होंगे. पूरा परिवार बहुत खुश था परंतु ग़रीबो की खुशियाँ और नेताओं के वादे ज़्यादा देर नही टिकते. अभी इस खुशी को वो सही तरहा से महसूस भी नही कर पाए थे के एक नयी समस्या खड़ी हो गयी, मोना देल्ही मे रहेगी कहाँ? कॅंपस फी तो देने की गुंजाइश नही थी मास्टर जी की और भला कोनसा बॅंक एक जल्द ही रिटाइर होने वाले मास्टर को लोन देता है? सच पूछिए तो बॅंक लोन तो बने ही अमीरों को और अमीर करने और ग़रीबो को सदा उन की गुलामी करने के लिए हैं. परिवार के तीनो सदस्य इस समस्या का उपाय निकालने के लिए सोचने लगे पर कुछ ही देर मे उन की उम्मीदें ख़तम होती नज़र आने लगी. दीना नाथ जी और मोना तो बस हिम्मत हार ही चुके थे जब पूजा ने ये कहा......

पूजा:"आरे हां ये पहले क्यूँ नही सोचा मैने?" मोना और मास्टर जी की आँखों मे एक बार फिर उम्मीद की किरण नज़र आने लगी और वो पूजा की तरफ देखने लगे.

मास्टर जी:"आरे भली मानस अब कुछ बताओ गी भी के नही?"

पूजा:"आप को मेरी बचपन की सहेली ममता याद है ना? सुना है कि उसका घर तो वैसे भी किसी महल से कम नहीं. उसके पास होगी तो मुझे इस की चिंता भी नही होगी. आप कहो तो तुरंत फोन पे बात करती हूँ उस से." ममता का नाम सुनते ही मास्टर जी के चेहरे से ख़ुसी चली गयी थी.

मास्टर जी:"आरी ओह भगवान किस दुनिया मे रहती है तू? ये बचपन की दोस्तियाँ जवानी मे बचपन की सुनी कहानियों जैसी हो जाती हैं. कहाँ वो और कहाँ हम? भला वो क्यूँ मोना को अपने घर रहने की इजाज़त देंगे? ऐसी उम्मीद ही मत बांधो के कल को अपनी ही नज़रौं मे ही शर्मिंदा हो जाओ."



पूजा:"आअप भी ना बस.....मेरी तो बेहन की तरहा है वो. भला अपनी बेहन से मदद लेने मे कैसी शरम? जब उसने डॉक्टर सहाब के साथ भाग कर शादी की थी तो हमने ही उन्हे अपने घर मे जगह दी थी ना? आज भी नही भूली वो इस बात को. आप चिंता मत की जिए और मुझे उससे बात करने दी जिए." मास्टर जी अभी भी इस बात से पूरी तरहा से सहमत नही हुए थे. उन्हो ने ऐसा कभी पूजा को कहा तो नही मगर उन्हे ममता हमेशा बहुत मतलबी लगी थी. पर शायद वो ही उसको समझने मे भूल कर गये हों? ये ही उम्मीद लगाए वो पूजा को बाज़ार फोन करने के लिए ले गये.

ममता पूजा से केवल 2 साल छोटी थी मगर जिस की ज़िंदगी मे धन की कोई फिकर ना हो उस के चेहरे पर गम के काले बादल महसूस भी नही होते. ये ही वजह थी के ममता पूजा से दिखने मे 8-9 साल छोटी लगती थी. जवानी के ज़माने मे उस के हुश्न के चर्चे पूरे नानिताल मे थे. इन ही जवानी के जल्वो को देख कर तो उसने देल्ही से आए डॉक्टर किसन कुमार का दिल मोह लिया था. ममता की सगाई बचपन मे ही उसकी मौसी के बेटे से हो गयी थी. जब ममता और डॉक्टर जी के कारनामो के किस्से घर मे पोहन्चे तो ममता को घर मे क़ैद कर दिया गया. ऐसे मे ना सिर्फ़ उसको घर से भागने मे बल्कि कुछ दिन अपने घर भी पूजा ने छुपने दिया था. देल्ही मे डॉक्टर सहाब के परिवार ने ममता को ना सिर्फ़ अपनाया बल्कि उसको हर वो खुशी दी जो एक ब्याह के लाई गयी बहू को दी जाती हैं. एक पागलपन की हद तक चाहने वाले पति के होने के बावजूद ममता नैनीताल की तरहा देल्ही मे भी सब मर्दों के मन मोहने मे लगी रहती थी. दूसरो के अपनी ओर देख कर आहे भरते देखने मे उससे बहुत मज़ा आता था. डॉक्टर साहब के सब दोस्त भी भाबी के जलवों के शेदाई थे. जब डॉक्टर जी ने अपनी धरम पत्नी के साथ अलग घर लिया तो वो दोस्त जो पहले ज़्यादा मिलते भी नही थे उनका भी घर मे आना जाना शुरू हो गया. डॉक्टर साहब ममता से बहुत ही प्यार करते थे. उनके मन मे कभी किसी किस्म का शक नही आया बल्कि वो खुश थे के ममता को तब भी कंपनी मिल जाती थी, जब वो काम मे मसरूफ़ रहते थे. वो अपने दोस्तों के भी शूकर गुज़ार थे जो ममता को इतने मेह्न्गे तोहफे दिया करते थे. सच मे वो बहुत किस्मत वाले थे जो ऐसी धरम पत्नी और दोस्त उन्हे मिले थे. ममता देल्ही की पार्टी लाइफ की भी बड़ी शैदाई थी. फिर चाहे पार्टी किसी के जनम दिन की हो या बस दोस्तो मे गेट टुग्दर ही हो, सब कुछ उसके ही इर्द गिर्द घुमा करता था. आज इस उमर मे भी वो अपनी लाइफ मे बहुत खुश रहती थी. जवानी की वो बहार भले ही अब ना रही हो, फिर भी वो अपने आप को देल्ही की जवान तितलियौं मे घेरे रखती थी और अपने गंदे चुटकुलो के कारण भी बहुत मशहूर थी. एक दिन अचानक उन्हे जब अपनी मूँह बोली बेहन पूजा का फोन आया और उसने मोना के बारे मे बता कर ये पूछा के क्या वो उसके पास रह सकती है तो कुछ पल तो वो चुप रही फिर कुछ सोच कर हां कर दी. आज के ज़माने मे अच्छे काम करने वाले मिलते ही कहाँ थे और फिर एक जवान लड़की उनके साथ हर पार्टी मे नज़र आए गी तो निगाहे उन पे भी तो जमी रहेंगी. उनकी बिटिया तो सीधे मुँह उनसे बात भी नही करती थी जब से उसने ममता को डॉक्टर साहब के दोस्त मिश्रा जी की बाहौं मे एक दिन स्कूल से जल्दी घर आ के देख लिया था. भला पूछो ये भी कोई बड़ी बात है? देल्ही जैसे बड़े शहरों मे तो ऐसी छोटी छोटी बातों की कोई आहेमियत ही नही है. अगर डॉक्टर जी भी ममता को मिश्रा जी के साथ देख लेते तो बुरा ना मानते तो फिर ये कल की लड़की क्यूँ इतनी नाराज़ है? ऐसे मे ममता को मोना का ख़याल आ गया जिसे आखरी बार बस साल पहले ही उस ने नैनीताल देखा था.

ममता:"मोना........ह्म्‍म्म....

...क्या नैनीताल की हुस्न की ये परी भी मेरी तरहा सब को अपना दीवाना बना पाएगी? लगती तो बहुत शर्मीली है मगर मेरे साथ रहे गी तो जीना सीख लेगी." ये सोचते हुए एक मक्कार सी हँसी ममता के चेहरे पे आ गयी.

दोसरि तरफ मोना कुछ दिन बाद देल्ही जाने वाली ट्रेन पर नैनीताल से बैठ गयी. ट्रेन मे बैठे 2 जवान और एक बुढ्ढा भी अपनी आँखो से मोना के कपड़े उतारने मे लगे हुए थे. पर खुआबों की दुनिया मे खोई मोना ने ये महसूस नही किया और अपनी छाती से गिरे दुपट्टे को ठीक नही किया. वैसे भी ये तो आँखो से पीने वाले रसिया थे, बहुत जल्द ही वो देल्ही के भेड़ियो के बीच मे रहने वाली थी.

ममता कितने ही देर चुप चाप अपने आगे हाथ मे घिसा हुआ सूटकेस पकड़ी लड़की को देखती रही. ट्रेन स्टेशन का शोर और भीड़ भाड़ भी उसे इस लड़की के सामने नज़र नही आ रहे थे. क्या ये वो ही लड़की है जिसे मैने नैनीताल मे देखा था? लड़की तो वो ही थी पर फरक ये था के उस दिन मोना ने अपने सब से अच्छे कपड़े ममता के आने की वजा से पहने हुए थे और उस की सहेली ने उसका मेक अप भी किया था. आज वो जैसे आम तोर पे सीधे साधे कपड़े पहने बगैर मेक अप के होती है वैसे ही थी. सर पे पूजा ने जाने से पहले उसके मालिश भी कर दी थी और तेल की बू अभी तक गयी नही थी. "बाप रे बाप! पार्टी पे ले जाना तो छोड़ो, इसको तो नौकरानी के तौर पे भी मैं किसी से मिला नही पाउन्गि." ममता सोचने लगी. मोना ममता को ऐसे देखते हुए बहुत घबरा रही थी पर ममता घूर्ना बंद ही नही कर रही थी और ना ही कुछ बोल रही थी. आख़िर हिम्मत कर के मोना ने ही अपना मूँह खोला....

मोना:"ना...नमस्ते ममता आंटी". "आंटी! इस को मैं आंटी नज़र आती हूँ?" ममता अगर मोना को देख कर कुछ खास खुश नही हुई थी तो अब ये लफ्ज़ सुन कर तो उसका दिल कर रहा था के इस जाहिल लड़की को ट्रेन मे वापिस बिठा के नैनीताल भेज दे. बड़ी मुस्किल से उसने अपना गुस्सा काबू मे रख कर नौकर को कहा...

ममता:"बंसी, मेडम का सूटकेस गाड़ी मे रखो." ममता ने ये चंद इल्फ़ाज़ भी इस लहजे मे कहे थे के मोना का डर से खून खुसक हो गया. ट्रेन स्टेशन से घर तक के सफ़र मे दोनो गाड़ी मे चुप रहे. बस कुछ था तो देल्ही की सड़कों का शोर और गाड़ी मे "पप्पू कॅन'ट डॅन्स साला" की सीडी बज रही थी. घर पोहन्च्ने के बाद ममता ने पहली बार मोना से बात की......

क्रमशः....................

rajaarkey
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Re: ज़िंदगी के रंग

Unread post by rajaarkey » 13 Oct 2014 16:35

ज़िंदगी के रंग--2

गतान्क से आगे..................

ममता:"भूक लग रही हो तो खाना खुद डाल के खा लेना और अगर थॅकी हो तो कमरे मे जा कर आराम कर लो." इस से पहले के मोना कोई जवाब देती, ममता ये कह कर वहाँ से जा भी चुकी थी. ममता के इस ठंडे रवैये पे मोना को दुख तो बहुत पोहन्चा मगर साथ ही साथ ये खुशी के वो देल्ही मे हैं उस के चेहरे पे एक मुस्कान ले आई. ड्राइवर के इलावा घर मे बस एक नौकर ही था, बंसी. वो सॉफ सफाई से ले कर घर का सौदा लाने तक घर के सारे काम खुद ही करता था. ममता बस खाना खुद पकाती थी क्यूँ के डॉक्टर साहब को किसी और के हाथ का खाना पसंद आता नही था. बंसी 19 साल का छोटे से कद और गहरे साँवले रंग का मामूली सा लड़का था. ऐसे जवान लड़के को घर मे रखते पहले तो डॉक्टर किसन को अजीब लग रहा था फिर जब देखा के उसकी वजह से ममता को कितनी आसानी हो गयी है तो उन की भी चिंता दूर हो गयी.

बंसी:"आइए मैं आप को आप का कमरा दिखा दूँ." ये कह कर बंसी दूसरी मंज़िल पे जाने के लिए सूटकेस उठा कर सीडीयाँ चढ़ने लगा. कमरा यौं तो बिल्कुल घर के बाकी कमरों के मुक़ाबले मे मामूली सा था लेकिन मोना के घर के मुक़ाबले मे तो बहुत ही बढ़िया था. मोना तुकर तुकर कमरा देखने मे लगी हुई थी और वो बंसी की नज़रे नही महसूस कर पाई जो उसको घूर घूर के देख रही थी.

बंसी:"में साहब अगर कुछ भी चाहिए हुआ तो मुझे बिंदास बोल देना." वो मुस्कुरा कर बोला.

मोना:"जी." मोना बस इतना ही कह पाई.

बंसी:"क्या खाना गरम कर के कमरे मे ला दूँ?"

मोना:"ना...नही मुझे भूक नही लगी."

बंसी: "ठीक है मेम साहब मे चलता हूँ. वैसे मेरा नाम बंसी है." ये कह कर वो कमरे से चला गया. भूक तो मोना को बहुत लगी थी पर जाने क्यूँ उसने बंसी को इनकार कर दिया था और अब अपने आप को कोस रही थी इनकार करने की वजह से. भूक के साथ साथ सफ़र की थकान भी हो गयी थी इस लिए वो बत्ती बुझा के लेट गयी. खाली पेट बिस्तेर कितना ही अच्छा क्यूँ ना हो, नींद अछी नही आती. शाम को दरवाज़े की दस्तक से उसकी आँख खुली. जब दरवाज़ा खोल के देखा तो बंसी खड़ा था.

बंसी:"मेम साहब खाने की टेबल पे आप को बीबी जी बुला रही हैं."

मोना:"तुम जाओ मे आती हूँ." बंसी एक नज़र उसकी खोबसूरत छाती पे डाल कर चला गया जो लगता था मुस्किल से कमीज़ मे फँसी हुई है. "भगवान बस एक बार हमे भी इस जन्नत के मज़े करवा दो फिर चाहे जीवन भर जहन्नुम मे जलाते रहना" वो मन ही मन मे कहता हुआ वहाँ से चला गया. मोना मूँह हाथ धो कर जल्दी से नीचे खाने की मेज़ पे चली गयी. डॉक्टर साहब ने ममता के मुक़ाबले मे उसका अच्छे तरीके से स्वागत किया और उस के माता पिता का हाल चाल भी पूछा और ये भी कहा के इस को अपना ही घर समझो. मोना को डॉक्टर साहब पहली नज़र मे ही बहुत पसंद आए और उसको उसके पिता जी की याद आ गयी.

ममता:"बंसी खाना परोस दो." खाना बहुत ही स्वादिष्ट पका था. डॉक्टर साहब का मन मोहने के लिए ममता हमेशा मेक अप और खाने पर बहुत ध्यान देती थी. तभी तो शादी के इतने साल बाद भी डॉक्टर साहब उन ही के गुण गा रहे थे. मोना का तो भूक से बुरा हाल था और फिर इतना अच्छा खाना देख के उस से रहा नही गया. उसको खाते देख कर ममता सोचने लगी "ये तो खाती भी जानवरों की तरहा है. हे भगवान कहाँ फँस गयी मैं?"

अगले दिन कॉलेज का पहला दिन था. पहले ही दिन क्लास रूम मे इतना शोर था जैसे सब एक दूसरे को बरसों से जानते हो. मोना इतने करीब आस पास के अजनबियो को हैरत से देख रही थी तो कभी वहाँ मौजूद लड़कियों के कपड़े देख कर हैरान हो रही थी. ज़्यादा तर स्कर्ट्स मे थी और एक तो इतनी छोटी मिनी स्कर्ट मे थी के लगता था नंगी ही आ गयी है. सब लड़कियों पे भंवरों की तरहा लड़के मंडरा रहे थे और मिनी स्कर्ट वाली पे तो 4 जने ऐक वक़्त मे ही किस्मत आज़माई कर रहे थे के जाने किस की लॉटरी निकल जाए? ऐसे मे मोना से ना किसी ने बात की और ना ही उसे गौर से देखा सिवाए दो आँखो के जो वो जब से क्लास मे आई थी उससे तकने मे लगी हुवी थी. उन आँखो ने दुनियावी पैंट पोलिश, जो बाकी लड़कियो ने किया हुआ था, उन की बजाए इस सादगी मे भी छुपी हुस्न की मल्लिका को पहचान लिया था. ऐसे ही मोना को देखते हुए अली के दिल से बस ऐक ही सदा निकली.....

है जो अगर ये प्यार तो फिर इस प्यार की गहराई मे अब डूब जाने दे

आए खुदा दीदार-ए-यार करवा ही दिया है तो मंज़िल मक़सूद तक भी पोहन्च जाने दे

क्यूँ ऐसा है के दुनिया मे बसे चेहरौं मे से एक चेहरा मन मोह लेता है?

क्या कभी नादान उमऱ की भी मुहब्बत का अंजाम सुर्खुरू होता है?

आज इस हसीना को देख के मेरा मन ये समझ पाया है

क्यूँ तेरे सजदे मे एक शेनशाह भी गुलाम होता है

अली देल्ही का ही रहने वाला था. पिता जी की कपड़ों की बहुत मशहूर दुकान थी जहाँ उसके बड़े भाई इमरान भी पिछले 2 साल से काम कर रहे थे. पढ़ाई पे कभी उसने पूरी तरहा से ध्यान नही दिया था मगर किसी ना किसी तरहा से यहाँ तक पास हो हो के आ ही गया था. अली के पिता असलम साहब ने भी कभी उस पे ज़्यादा ज़ोर नही डाला था के वो पढ़ाई पे ध्यान दे. शायद इसकी वजा ये थी के उनको पता था के कल को इस ने भी उनकी दुकान पे हाथ बटाना है. फिर चाहे 40% ले आए या 90%, धन्दे का इससे भला क्या ऩफा नुकसान होगा?

अली अपने दराज़ कद, खूबसूरत चेहरे और मज़बूत शरीर की वजा से कॉलेज की लड़कियो मे बहुत माशूर था. कुछ चुलबुले मन के लड़के भी उसकी तरफ लालच भरी नज़रौं से देखा करते थे. लड़कियाँ तो उस पे डोरे डालती रहती थी पर वो था के किसी को घास नही डालता था. उसके दोस्त राहुल और रोहन उससे चेहरा कतराते थे के कहीं वो नवाबी शौक तो नही रखता? ऐसा तो खेर नही था मगर उसने अपने मन मे जैसी लड़की की छवि बसा ली थी वेसी उसे कभी नज़र नही आई. फिर ऐसा क्यूँ था के मोना को देख कर उसका दिल तेज़ धड़कने लगा था? साँसे थी के बस थम सी गयी थी और जिस्म बेकरार हो गया था. मोना के शर्मीलेपन को देख कर वो इतना तो समझ ही गया था के ना तो वो दोसरि लड़कियो की तरहा थी और ना ही उससे फटाक से मन की बात कर देना ठीक होगा. थोड़ा समय इसको देल्ही की ज़िंदगी मे ढलने के लिए दे दो फिर कोई अच्छा मौका देख कर पहले दोस्ती का कदम बढ़ाउंगा वो मन ही मन मे प्लान बनाने लगा.

मोना के कॉलेज का पहला दिन तो जैसे तैसे निकल ही गया पर अपने शर्मीलेपन की वजह से वो लोगो से बात नही कर पाई. खैर कम से कम उसने ऐक सहेली तो बना ही ली जो उसके बाजू वाली कुर्सी पे बैठी थी और उसका नाम किरण था. किरण ने अपने बेबाक अंदाज़ और खूबसूरती से मोना को पहले ही दिन बहुत मुतसिर कर दिया था. किरण वैसे वो ही लड़की थी जो मिनी स्कर्ट मे थी. कॉलेज के ज़्यादा तर लड़के उसपे आवारा भंवरो की तरहा मंडराते रहते थे पर वो थी के फ्लर्ट तो सब से करती थी पर नज़दीक किसी को अपने ज़्यादा नही आने देती थी. उस की ज़ालिम अदाए बेचारे लड़को को दिन मे दो दो बार तेल की शीशी के साथ तन्हाई मे कुछ "खास" समय बिताने पे मजबूर कर रही थी. किरण के पिता कोई 5 साल पहले ही एक हादसे मे चल बसे थे. वो और उसकी माता अब अपने खानदानी मकान मे रह रहे थे. घर का खर्चा चलाने के लिए उन्हो ने घर की दोसरि मंज़िल किराए पे चढ़ा ही दी थी. थोड़ी आमदनी होने के बावजूद उसको देख कर ऐसा हरगिज़ नही लगता था के उसको पैसों की कोई कमी है.

मोना जब कॉलेज से घर पोहन्चि तो घर मे गहरा सन्नाटा था. डॉक्टर सहाब के वापिस आने मे अभी काफ़ी समय था. बंसी भी कहीं दिख नही रहा था. वो चुप चाप अपने कमरे की तरफ जाने लगी के उससे एक अजीब सी आवाज़ सुनाई दी. जाने क्यूँ वो जिस दिशा से आवाज़ आई थी उस तरफ चलने लगी. ममता के कमरे का दरवाज़ा थोडा सा खुला हुआ था और आवाज़ वहीं से आ रही थी. जब वो कमरे के पास पहोन्चि तो जो नज़र आया उसे देख कर उसकी आँखे फटी की फटी रह गयी. ममता नन्गम नंगी बिस्तर पे लेटी हुई थी और उसकी टाँगे खोल के उनके बीच मे बंसी उसकी चूत को ज़ोर ज़ोर से चाटने मे लगा हुआ था.

ममता:"आहा आहा अहाआआआआअ". ये बैगैर्ति का नंगा नाच अपनी आँखौं के सामने देख कर मोना वहीं जड़ हो गयी थी पर जाने क्यूँ ना चाहते हुए भी उसकी निगाहें कमरे से हट ही नही पा रही थी......

ममता ने हवस की आग मे पागल हो कर बंसी को सर से पकड़ा हुआ था और अपनी गांद उठा उठा के और कभी हिल हिल के उससे अपनी फुददी चटवा रही थी. बंसी भी इस महारत के साथ अपनी ज़ुबान से बार बार ऐसे चाट रहा था जैसे कुत्ता बर्तन से पानी पीता है.

ममता:"आह बंसीईइ लूट ले आह लूट लीईई अपनी मालकिन की जवानी को." उस हालत मे चटाई लगाते हुए भी बंसी के ज़हन मे ये सुन कर आया "साली कहाँ की जवानी? मुझे तो तेरी चूत पे भी सफेद बाल दिखाई दे रहे हैं. हाई रे किस्मत किस गटर मे मुँह मारने पे मजबोर कर रही है?"

ममता:"चल बस अब साआआआााअ नही जा रहा. बुझा दे मेरी प्यास". ये कह कर ममता ने उसके सर को थोड़ा ज़ोर से पीछे किया और अपनी दोनो टाँगें हवा मे उठा दी. बंसी को भी इसी समय का इंतेज़ार था. उसकी दोनो टाँगे अपने कंधौं पे रख कर अपने लंड को उसकी चूत के साथ लगा दिया पर अंदर नही डाला. उसको ममता का ऐसे तड़पाना बहुत अच्छा लगता था. ऐसे लगता था उसको जैसे ममता उसकी नौकरानी हो और वो नही.

ममता:"चल मेरी जान डाल भी दे ना अब तो रहा नही जा रहा". ये कह कर ममता ने खुद ही पीछे से उसके चूतर पकड़ कर अपनी तरफ ज़ोर से जो खेंचा तो उसका 6 इंच का लंड आधे से ज़्यादा ममता की चूत मे परवेश कर गया.

ममता:"औईईईईईईईईईईईईईई मर गयी रह. ये मैं नही ले पाउन्गी. साला बाहर निकाल इसे." "रंडी साली हमेशा येई ड्रामा करती है. तेरी चूत का तो वो हाल हो गया है के मेरा सर भी अंदर चला जाए और तुझे महसूस तक भी ना हो" वो मन ही मन मे सोच के मुस्कराने लगा.

क्रमशः....................

rajaarkey
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Re: ज़िंदगी के रंग

Unread post by rajaarkey » 13 Oct 2014 16:36

ज़िंदगी के रंग--3

गतान्क से आगे..................

ममता:"देख देख केसे हंस रहा है हरामी. तुझे शरम नही आती आपनी मालकिन को ऐसे चोदते हुए?"

बंसी:"शरम कैसी? अभी तो तेरी मोटी गांद भी मारूँगा कुतिया." इस हालत मे पोहन्च कर ममता को अच्छा लगता था जब बंसी उसको गंदी गंदी गलियाँ देते हुए चोदता था. उसके पति ने तो शादी के बाद कभी उसकी प्यास सही तराहा से बुझाई ही नही. डॉक्टर साहब का तो शादी की रात को भी सही तरहा से खड़ा नही हुआ था तो आगे जा के क्या खाक कुछ करना था?

वहाँ मोना ये सब देख कर और जैसी गंदी ज़ुबान बंसी और ममता इस्तीमाल कर रहे थे थर थर काँप रही थी. बड़ी मुस्किल से उसने धीरे धीरे कमरे से पीछे हटना शुरू किया. और धीरे धीरे सीढ़ियाँ चढ़ के अपने कमरे मे जा के दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया. जाने क्यूँ उसका जिस्म अभी तक काँप रहा था और तन मे एक अजीब सी आग लगी हुई थी. दिल कर रहा था के जा के ठंडे पानी से नहा ले लेकिन टांगे साथ ही नही दे पा रही थी. वो चुपके से अपने बिस्तर पे लेट गयी और उपर चादर ले ली. ऐसा तो नही था के नैनीताल मे उसने मोहल्ले की कुछ औरतो को कभी सब्ज़ी वाले तो कभी गली मे खड़े आवारा लड़कों को इशारा कर के अपने घर मे बुलाते ना देखा हो. फिर ऐसा क्यूँ था के वो ये सब कुछ देख कर इस हालात मे चली गयी थी? शायद इस लिए के जब वो नैनीताल मे अपने स्कूल से घर आया करती थी तो घर दाखिल होते साथ ही उससे उसकी मा पूजा पाट करती नज़र आती थी. उसके पिता जी भी घर उसके साथ ही आते थे और उसकी माता जी सब को पूजा से फारिग हो कर खाना परोस देती थी. और अब देखो यहाँ क्या देखना पड़ रहा है? उसकी तबीयत ऐसी हुई थी के इन चीज़ो से उसे घिन आना सॉफ ज़ाहिर था लेकिन ये भी सच है के उसके दिमाग़ मे उसने जो भी देखा उसकी फिल्म अभी तक चल रही थी. ये भी पहली बार था जब उसने किसी मरद के लंड को ऐसे देखा हो. "कैसा अजीब लग रहा था वो? साँप की तरह खड़ा हुआ और देखने मे इतना सख़्त पर जाने क्यूँ उससे छूने का मोना का मन किया था. कैसा लगता होगा उसको पकड़ के?" जाने कब नैनीताल से उसके ख़याल जो उसने देखा वहाँ चले गये और बार बार उसे बंसी का लंड याद आ रहा था. जब थोड़ी सी उसने होश संभाली थी हैरत से काँप उठी. मोना का हाथ उसकी शलवार के अंदर था...

मोना अपना हाथ अपनी सलवार मे देख कर हैरान रह गयी. उसका हाथ कैसे सलवार मे चला गया वो ये भी पूरी तरहा समझ नही पाई थी के देखा के वो अपना हाथ धीरे धीरे अपनी चूत पे मल रही है. घबरा के जब उसने हाथ बाहर निकाला तो देखा के उसकी उंगलियाँ गीली थी. "ये मुझे क्या हो रहा है?" वो सोचने लगी. उसके तन मे एक अजब सी आग लगी हुई थी. दिमाग़ ठंडा करने के लिए वो नहाने चली गयी. ठंडे पानी की बूँदें जैसे ही उसके गर्म बदन पे पड़ी तो वो काँप उठी. धीरे धीरे जैसे जैसे उसका जवान बदन पानी मे भीगता गया, उसका दिमाग़ भी ठंडा होता चला गया. नहा धो के जब वो अपने कमरे मे आ गयी तो अब हवस की जगह गुस्सा उसके सर पे सवार हो गया था. "भला ममता आंटी ऐसे किस तरहा कर सकती हैं? कितनी खुश नशीब हैं वो के इतना प्रेम करने वाले पति मिले हैं और फिर भी वो अपने बेटे की उम्र के लड़के के साथ यौं मूह काला कर रही हैं? अब मे क्या करूँ? आंटी से ऐसी बात भला कैसे कह सकती हूँ पर चुप रहना भी तो ठीक नही." कुछ कॉलेज की थकान थी तो कुछ भूक से भी वो नढाल हो गयी थी. उपर से ये जो कुछ भी उस ने देखा उसके बारे मे सौच सौच कर उसका दिमाग़ भी थक गया था. ये ही बाते सौचते सौचते उसकी आँख लग गयी. कुछ घंटे बाद जब खाने के लिए उसको बंसी बुलाने आया तो देखा के कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ है. अंदर बिस्तर पे मोना उल्टी लेटी गहरी नींद सो रही थी और हल्के हल्के खर्राटे भी मार रही थी. उसकी कमीज़ थोड़ी उपर को खिसक गयी थी और उसकी कुँवारी गांद शलवार से साफ महसूस हो रही थी. ये देख कर बंसी के मूह मे तो पानी आ गया और उसका लंड जिस ने कुछ देर पहले ही ममता की ठुकाई की थी पत्थर की तरहा सख़्त हो गया. वो धीरे से मोना की तरफ बढ़ने लगा........

असलम साहब यूँ तो अभी 48 साल के ही हुए थे मगर जैसी ज़िंदगी जी थी उसकी वजा से वो अपने आप को 70-80 साल का महसूस करने लग गये थे. उनकी धरम पत्नी को गुज़रे हुए कोई 7 साल हो गये थे. सुमेरा की मौत के कुछ ही दिनो बाद उनके दोस्त और खानदान वाले उनको दूसरी शादी करने के मशवरे देने लग गये थे. पर उन्होने बच्चे जवान हो गये हैं का बहाना बना के टाल दिया. सच तो ये था के वो आज भी अपनी सुमेरा को उतना ही चाहते थे. सुमेरा की मौत ने तो जैसे उनके अंदर के इंसान को मार ही दिया था. ना किसी चीज़ मे खुशी मिलती थी अब और ना ही कोई शाम को घर वापिस आने की वजा दिखाई देती थी. दोस्त वगिरा को जब उनकी धरम पत्नियो के साथ देखता तो सुमेरा की याद और भी तंग करने लगती थी. उनके बच्चे अली और इमरान ही उनके जीने की अब तो वजा रह गये थे. इमरान की अभी पछले साल ही उन्हो ने बड़े धूम धाम से शादी करवाई थी और वो धीरे धीरे काम मे भी पहले से ज़्यादा ध्यान देने लग गया था. ये देख के उन्हे बहुत खुशी होती थी. अब तो बस अली ही रह गया था. "वो भी पढ़ाई मुकामल कर ले तो उसके लिए भी कोई अच्छा सा रिश्ता देखता हूँ" वो सोचते हुए घर आ गये. घर आने के बाद उनकी नज़र अली पे पढ़ी जो टीवी के सामने बैठा हुआ था. टीवी पे कोई क्रिकेट मॅच लगा हुआ था. ये देख कर उनको हैरत हुई क्यूँ के अली तो क्रिकेट बिल्कुल शुक से नही देखता था. जब उन्हो ने उसको गौर से देखा तो ना जाने किन ख्यालो मे खोया हुआ था. उसने तो ये भी महसूस नही किया के वो पास ही खड़े हुए हैं. पछले कुछ दिन से असलम साहब देख रहे थे के अली चुप चाप सा रहने लगा था और ना जाने किन ख्यालो मे खोया रहता था.वो भी इस उम्र से गुज़रे हुए थे और दुनिया देखी थी. उससे ऐसा देख कर सौचने लगे "कहीं इससे प्यार तो नही हो गया?"............

किरण जो कॉलेज मे कितने ही दिलों की धड़कन बन गयी थी खुद उसके दिल मे क्या था ये तो शायद भगवान ही जानता था. वो दूसरी लड़कियों से बहुत मुख्तलिफ थी. शायद इसी लिए लड़कियों से ज़्यादा उसके कोलेज मे लड़के दोस्त थे जो उसके लिए तरहा तरहा के तोफे लाया करते थे. वो उनका दिल रखने के लिए हमेशा उनके तोफे कबूल कर लेती थी. बचपन मे उसने अपने पिता को बहुत मेहनत करते देखा था. करीम ख़ान एक दफ़्तर मे चपरासी थे और मेहनत कर कर के उनके जूते घिस जाते थे मगर घर का चूल्हा भी मुस्किल से जल पाता था. किरण के शुरू से ही सपने बहुत उँचे थे पर उसके पिता अपनी ग़ुरबत की वजा से मुस्किल से ही कभी उसकी किसी भी ज़िद को पूरा कर पाते थे. किरण ने छोटी उमर से ही ये देख लिया था के इस दुनिया मे पेसे वालो की ही चाँदनी है. ग़रीब तो ज़िंदगी भर घुरबत की चक्की मे आटे की तरहा पिसते हैं और फिर भी अपने घर मे चूल्हा भी मुस्किल से जला पाते हैं. उसने तभी ये फ़ैसला कर लिया था के बड़ी हो कर वो कभी किसी चीज़ को नही तरसे गी. जो भी उसकी खुशी होगी वो ज़रूर पूरी होगी और आज ऐसा ही हो रहा था. कॉलेज की अमीर घरानों वाली लड़कियाँ भी अक्सर उसके कपड़ों वगेरह से जला करती थी. इतना मेह्न्गा बनाव सिंगार भला वो केसे कर रही थी किसी को अंदाज़ा नही थी पर किरण ज़िंदगी की एक बहुत बड़ी सच्चाई को समझ गयी थी. इस दुनिया मे हर एक चीज़ की एक कीमत होती है और कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है........

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