रेल यात्रा compleet

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raj..
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रेल यात्रा compleet

Unread post by raj.. » 13 Oct 2014 21:30

रेल यात्रा

रेलवे स्टेशन पर भारी भीड़ थी। आने वालों की भी और जाने वालों की भी।
तभी स्टेशन पर घोषणा हुई- "कृपया ध्यान दें, दिल्ली से मुंबई को जाने
वाली राजधानी एक्सप्रेस १५ घंटे लेट है।"

सुनते ही आशीष का चेहरा फीका पढ़ गया। कहीं घर वाले ढूँढ़ते रेलवे स्टेशन
तक आ गए तो। उसने 3 दिन पहले ही आरक्षण करा लिया था मुंबई के लिए। पर
घोषणा सुनकर तो उसके सारे प्लान का कबाड़ा हो गया। हताशा में उसने चलने
को तैयार खड़ी एक पैसेन्जर ट्रेन की सीटी सुनाई दी। हड़बड़ाहट में वह उसी
की ओर भागा।

अन्दर घुसने के लिए आशीष को काफी मशक्कत करनी पड़ी। अन्दर पैर रखने की जगह
भी मुश्किल से थी। सभी खड़े थे। क्या पुरुष और क्या औरत। सभी का बुरा हाल
था और जो बैठे थे। वो बैठे नहीं थे, लेटे थे। पूरी सीट पर कब्ज़ा किये।

आशीष ने बाहर झाँका। उसको डर था। घरवाले आकर उसको पकड़ न लें। वापस न ले
जाएं। उसका सपना न तोड़ दें। हीरो बनने का!

आशीष घर से भाग कर आया था। हीरो बनने के लिए। शकल सूरत से हीरो ही लगता
था। कद में अमिताभ जैसा। स्मार्टनेस में अपने सलमान जैसा। बॉडी में आमिर
खान जैसा ( गजनी वाला। 'दिल' वाला नहीं ) और अभिनय (एक्टिंग) में शाहरुख़
खान जैसा। वो इन सबका दीवाना था। इसके साथ ही हिरोइन का भी।

उसने सुना था। एक बार कामयाब हो जाओ फिर सारी जवान हसीन माडल्स, हीरो के
नीचे ही रहती हैं। बस यही मकसद था उसका हीरो बनने का।

रेलगाड़ी के चलने पर उसने रहत की सांस ली।
हीरोगीरी के सपनों में खोये हुए आशीष को अचानक पीछे से किसी ने धक्का
मारा। वो चौंक कर पीछे पलटा।

"देखकर नहीं खड़े हो सकते क्या भैया। बुकिंग करा रखी है क्या?"

आशीष देखता ही रह गया। गाँव की सी लगने वाली एक अल्हड़ जवान युवती उसको
झाड़ पिला रही थी। उम्र करीब 22 साल होगी। ब्याहता (विवाह की हुई ) लगती
थी। चोली और घाघरे में। छोटे कद की होने की वजह से आशीष को उसकी श्यामल
रंग की चूचियां काफी अन्दर तक दिखाई दे रहीं थीं। चूचियों का आकार ज्यादा
बड़ा नहीं लगता था। पर जितना भी था। मनमोहक था। आशीष उसकी बातों पर कम
उसकी छलकती हुई मस्तियों पर ज्यादा ध्यान दे रहा था।
उस अबला की पुकार सुनकर भीड़ में से करीब 45 साल के एक आदमी ने सर निकल
कर कहा- "कौन है बे?" पर जब आशीष के डील डौल को देखा तो उसका सुर बदल
गया- "भाई कोई मर्ज़ी से थोड़े ही किसी के ऊपर चढ़ना चाहता है। या तो कोई
चढ़ाना चाहती हो या फिर मजबूरी हो! जैसे अब है। " उसकी बात पर सब ठाहाका
लगाकर हंस पडे।

तभी भीड़ में से एक बूढ़े की आवाज आई- "कविता! ठीक तो हो बेटी "

पल्ले से सर ढकते उस 'कविता ' ने जवाब दिया- "कहाँ ठीक हूँ बापू!" और फिर
से बद्बदाने लगी- "अपने पैर पर खड़े नहीं हो सकते क्या?"

आशीष ने उसके चेहरे को देखा। रंग गोरा नहीं था पर चेहरे के नयन - नक्श तो
कई हीरोइनों को भी मात देते थे। गोल चेहरा, पतली छोटी नाक और कमल की
पंखुड़ियों जैसे होंठ। आशीष बार बार कन्खियों से उसको देखता रहा।

तभी कविता ने आवाज लगायी- "रानी ठीक है क्या बापू? वहां जगह न हो तो यहाँ
भेज दो। यहाँ थोड़ी सी जगह बन गयी है। "
और रानी वहीं आ गयी। कविता ने अपने और आशीष के बीच रानी को फंसा दिया।
रानी के गोल मोटे चूतड आशीष की जांघों से सटे हुए थे। ये तो कविता ने
सोने पर सुहागा कर दिया।
अब आशीष कविता को छोड़ रानी को देखने लगा। उसके लट्टू भी बढे बढे थे। उसने
एक मैली सी सलवार कमीज डाल राखी थी। उसका कद भी करीब 5' 2" होगा। कविता
से करीब 2" लम्बी! उसका चहरा भी उतना ही सुन्दर था और थोड़ी सी लाली भी
झलक रही थी। उसके जिस्म की नक्काशी मस्त थी। कुल मिला कर आशीष को टाइम
पास का मस्त साधन मिल गया था।

रानी कुंवारी लगती थी। उम्र से भी और जिस्म से भी। उसकी छातियाँ भारी
भारी और कसी हुई गोलाई लिए हुए थी। नितम्बों पर कुदरत ने कुछ ज्यादा ही
इनायत की थी। आशीष रह रह कर अनजान बनते हुए उसकी गांड से अपनी जांघें
घिसाने लगा। पर शायद उसको अहसास ही नहीं हो रहा था। या फिर क्या पता उसको
भी मजा आ रहा हो!

raj..
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Re: रेल यात्रा

Unread post by raj.. » 13 Oct 2014 21:31


अगले स्टेशन पर डिब्बे में और जनता घुश आई और लाख कोशिश करने पर भी कविता
अपने चारों और लफ़ंगे लोगों को सटकर खड़ा होने से न रोक सकी।

उसका दम सा घुटने लगा। एक आदमी ने शायद उसकी गांड में कुछ चुभा दिया। वह
उछल पड़ी। - "क्या कर रहे हो? दिखता नहीं क्या?"

"ऐ मैडम। ज्यास्ती बकवास नहीं मारने का। ठंडी हवा का इतना इच शौक पल
रैल्ली है। तो अपनी गाड़ी में बैठ के जाने को मांगता था। " आदमी भड़क कर
बोला और ऐसे ही खड़ा रहा।
कविता एकदम दुबक सी गयी। वो तो बस आशीष जैसों पर ही डाट मार सकती थी।

कविता को मुशटंडे लोगों की भीड़ में आशीष ही थोडा शरीफ लगा। वो रानी समेत
आशीष के साथ चिपक कर खड़ी हो गई जैसे कहना चाहती हो, "तुम ही सही हो, इनसे
तो भगवन बचाए!"

आशीष भी जैसे उनके चिपकने का मतलब समझ गया। उसने पलट कर अपना मुंह उनकी
ही ओर कर लिया और अपनी लम्बी मजबूत बाजू उनके चारों और बैरियर की तरह लगा
दी।

कविता ने आशीष को देखा। आशीष थोड़ी हिचक के साथ बोला- "जी उधर से दबाव पड़
रहा है। आपको परेशानी ना हो इसीलिए अपने हाथ बर्थ (सीट) से लगा लें। "

कविता जैसे उसका मतलब समझी ही ना हो। उसने आशीष के बोलना बंद करते ही
अपनी नजरें हटा ली। अब आशीष उसकी चुचियों को अन्दर तक और रानी की चूचियों
को बहार से देखने का आनंद ले रहा था। कविता ने अब कोशिश भी नहीं की उनको
आशीष की नजरों से बचाने की।
"कहाँ जा रहे हो?..." कविता ने लोगों से उसको बचने के लिए जैसे धन्यवाद्
देने की खातिर पूछ लिया।

"मुंबई " आशीष उसकी बदली आवाज पर काफी हैरान था- "और तुम?"

"भैया जा तो हम भी मुंबई ही रहे हैं। पर लगता नहीं की पहुँच पायेंगे
मुंबई तक!" कविता अब मीठी आवाज में बात कर रही थी।।
"क्यूँ?" आशीष ने बात बढ़ा दी!

"अब इतनी भीड़ में क्या भरोसा! मैंने कहा तो है बापू को की जयपुर से
तत्काल करा लो। पर वो बूढ़ाऊ माने तब न!"

"भाभी! बापू को ऐसे क्यूँ बोलती हो?" रानी की आवाज उसके चिकने गालों जैसी
ही मीठी थी।

आशीष ने एक बार फिर कविता की चूचियों को अन्दर तक देखा। उसके लड में तनाव
आने लगा। और शायद वो तनाव रानी अपनी गांड की दरार में महसूस करने लगी।
रानी बार बार अपनी गांड को लंड की सीधी टक्कर से बचने के लिए इधर उधर
मटकाने लगी। और उसका ऐसा करना ही उसकी गोल मटोल गांड के लिए नुक्सान देह
साबित होने लगा।।

लंड गांड से सहलाया जाता हुआ और अधिक सख्त होने लगा। और अधिक खड़ा होने लगा।
पर रानी के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे। वो दाई गोलाई को बचाती तो लड
बायीं पर ठोकर मारता और अगर बायीं को बचाती तो दाई पर उसको लंड चुभता हुआ
महसूस होता।

उसको एक ही तरीका अच्छा लगा। रानी ने दोनों चुतरों को बचा लिया। वो सीधी
खड़ी हो गयी। पर इससे उसकी मुसीबत और भयंकर हो गयी। लंड उसकी गांड की
दरारों के बीचों बीच फंस गया। बिलकुल खड़ा होकर। वो शर्मा कर इधर उधर
देखने लगी। पर बोली कुछ नहीं।

आशीष ने मन ही मन एक योजना बना ली। अब वो इन के साथ ज्यादा से ज्यादा
रहना चाहता था।

"मैं आपके बापू से बात करू। मेरे पास आरक्षण के चार टिकेट हैं। मेरे और
दोस्त भी आने वाले थे पर आ नहीं पाए! मैं भी जयपुर से उसी में जाऊँगा। कल
रात को करीब 10 बजे वो जयपुर पहुंचेगी। तुम चाहो तो मुझे साधारण किराया
दे देना आगे का!" आशीष को डर था कि किराया न मांगने पर कहीं वो और कुछ न
समझ बैठे। उसका लंड रानी कि गांड में घुसपैठ करता ही जा रहा था। लम्बा हो
हो होकर!
"बापू!" जरा इधर कू आना! कविता ने जैसे गुस्से में आवाज लगायी।

"अरे मुश्किल से तो यहाँ दोनों पैर टिकाये हैं! अब इस जगह को भी खो दूं
क्या?" बुढ़े ने सर निकाल कर कहा।

रानी ने हाथ से पकड़ कर अन्दर फंसे लंड को बहार निकालने की कोशिश की। पर
उसके मुलायम हाथों के स्पर्श से ही लंड फुफकारा। कसमसा कर रानी ने अपना
हाथ वापस खींच लिया। अब उसकी हालत खराब होने लगी थी। आशीष को लग रहा था
जैसे रानी लंड पर टंगी हुयी है। उसने अपनी एडियों को ऊँचा उठा लिया ताकि
उसके कहर से बच सके पर लंड को तो ऊपर ही उठना था। आशीष की तबियत खुश हो
गयी।!
रानी आगे होने की भी कोशिश कर रही थी पर आगे तो दोनों की चूचियां पहले ही
एक दुसरे से टकरा कर मसली जा रही थी।

अब एड़ियों पर कब तक खड़ी रहती बेचारी रानी। वो जैसे ही नीचे हुयी, लंड
और आगे बढ़कर उसकी चूत की चुम्मी लेने लगा।
रानी की सिसकी निकाल गयी- "आह्हह्ह्ह!"

"क्या हुआ रानी?" कविता ने उसको देखकर पूछा।

"कुछ नहीं भाभी!" तुम बापू से कहो न आरक्षण वाला टिकेट लेने के लिए भैया से!"
आशीष को भैया कहना अच्छा नहीं लगा। आखिर भैया ऐसे गांड में लंड थोड़ा ही फंसाते हैं।

raj..
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Re: रेल यात्रा

Unread post by raj.. » 13 Oct 2014 21:32

धीरे धीरे रानी का बदन भी बहकने सा लगा। आशीष का लंड अब ठीक उसकी चूत के
मुहाने पर टिका हुआ था। चूत के दाने पर।

"बापू " कविता चिल्लाई।

"बापू " ने अपना मुंह इस तरफ निकाला, एक बार आशीष को घूरा इस तरह खड़े
होने के लिए और फिर भीड देखकर समझ गया की आशीष तो उनको उल्टा बचा ही रहा
है- "क्या है बेटी?"

कविता ने घूंघट निकल लिया था- "इनके पास आरक्षण की टिकेट हैं जयपुर से
आगे के लिए। इनके काम की नहीं हैं। कह रहे हैं सामान्य किराया लेकर दे
देंगे!"

उसके बापू ने आशीष को ऊपर से नीचे तक देखा। संतुष्ट होकर बोला- "अ ये तो
बड़ा ही उपकार होगा। भैया हम गरीबों पर! किराया सामान्य का ही लोगे न!"

आशीष ने खुश होकर कहा- "ताऊ जी मेरे किस काम की हैं। मुझे तो जो मिल
जायेगा। फायदे का ही होगा।" कहते हुए वो दुआ कर रहा था की ताऊ को पता न
हो की टिकेट वापस भी हो जाती हैं।
"ठीक है भैया। जयपुर उतर जायेंगे। बड़ी मेहरबानी!" कहकर भीड़ में उसका
मुंह गायब हो गया।

आशीष का ध्यान रानी पर गया वो धीरे धीरे आगे पीछे हो रही थी। उसको मजा आ रहा था।

कुछ देर ऐसे ही होते रहने के बाद उसकी आँखें बंद हो गयी। और उसने कविता
को जोर से पकड़ लिया।

"क्या हुआ रानी?"

सँभलते हुए वह बोली। "कुछ नहीं भाभी चक्कर सा आ गया था।

अब तक आशीष समझ चूका था कि रानी मुफ्त में ही मजे ले गयी चुदाई जैसे।
उसका तो अब भी ऐसे ही खड़ा था।
एक बार आशीष के मन में आई कि टाइलेट में जाकर मुठ मार आये। पर उसके बाद
ये ख़ास जगह खोने का डर था।
अचानक किसी ने लाइट के आगे कुछ लटका दिया जिससे आसपास अँधेरा सा हो गया।

लंड वैसे ही अकड़ा खड़ा था रानी कि गांड में। जैसे कह रहा हो। अन्दर घुसे
बिना नहीं मानूंगा मेरी रानी!

लंड के धक्को और अपनी चूचियों के कविता भाभी की चूचियों से रगड़ खाते
खाते वो जल्दी ही फिर लाल हो गयी।
इस बार आशीष से रहा नही गया। कुछ तो रोशनी कम होने का फायदा। कुछ ये
विश्वास की रानी मजे ले रही है। उसने थोडा सा पीछे हटकर अपने पेन्ट की
जिप खोल कर अपने घोड़े को खुला छोड़ दिया। रानी की गांड की घटी में खुला
चरने के लिए के लिए!
रानी को इस बार ज्यादा गर्मी का अहसास हुआ। उसने अपना हाथ नीचे लगा कर
देखा की कहीं गीली तो नहीं हो गयी नीचे से। और जब मोटे लंड की मुंड पर
हाथ लगा तो वो उचक गयी। अपना हाथ हटा लिया। और एक बार पीछे देखा।
आशीष ने महसूस किया, उसकी आँखों में गुस्सा नहीं था। अलबत्ता थोडा डर
जरुर था। भाभी का और दूसरी सवारियों के देख लेने का।
थोड़ी देर बाद उसने धीरे-2 करके अपनी कमीज पीछे से निकाल दिया।

अब लंड और चूत के बीच में दो दीवारें थी। एक तो उसकी सलवार और दूसरा उसकी कच्छी.

आशीष ने हिम्मत करके उसकी गांड में अपनी उंगली डाल दी और धीरे धीरे सलवार
को कुरेदने लगा। उसमें से रास्ता बनाने के लिए।
योजना रानी को भा गयी। उसने खुद ही सूट ठीक करने के बहाने अपनी सलवार में
हाथ डालकर नीचे से थोड़ी सी सिलाई उधेड़ दी। लेकिन आशीष को ये बात तब पता
चली। जब कुरेदते कुरेदते एक दम से उसकी अंगुली सलवार के अन्दर दाखिल हो
गयी।

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