रेल यात्रा compleet

Discover endless Hindi sex story and novels. Browse hindi sex stories, adult stories ,erotic stories. Visit theadultstories.com
raj..
Platinum Member
Posts: 3402
Joined: 10 Oct 2014 07:07

Re: रेल यात्रा

Unread post by raj.. » 13 Oct 2014 21:45



शीतल उसकी नीयत भांप गयी- "तुमने जुबान दी थी। तुमने कहा था की राजपूत
जुबान के पक्के। "

"होते हैं!" राजपूत ने शीतल की बात पूरी की- "हाँ पक्के होते हैं जुबान
के पर वो अपने लंड के भी पक्के होते हैं। गंडवा समझ रखा है क्या? अगर
मैंने तेरे जैसी चिकनी चूत को ऐसे ही जाने दिया तो मेरे पूर्वज मुझ पर
थूकेंगे कि कलयुग में एक राजपूत ऐसा भी निकला। " कहते ही उसने शीतल को
अपनी बाँहों में दबोच लिया। और उसकी कटोरियों को जोर जोर से चूसने लगा।
शीतल ने अपने को छुड़ाने की पूरे मन से कोशिश की। राजपूत ने एक हाथ पीछे
ले जाकर उसकी गांड के बीचों बीच रख दिया।

उसने अपनी उंगली शीतल की गांड़ में ठोड़ी सी फंसा दी।

"ये क्या कर रहे हो। छोडो मुझे।!" शीतल बुदबुदाई

"ये तेरे चुप रहने की जमानत है मेरी जान, अब अगर तुमने नखरे किये तो
उंगली तेरी गांड में घुसेड़ दूंगा समझी! " और फिर से उसकी चूचियां चूसने
लगा। गांड़ में ऊँगली फंसाए। थोड़ी सी!

आशीष ने जब काफी देर तक शीतल के पैरों को नहीं देखा तो उसने उठकर देखा।
वहां तो कोई भी नहीं था। उसने देखा राजपूत भी गायब है तो उसके दिमाग की
बत्ती जली। वह सीट से उतरा और गुसलखाने की तरफ गया। जब आशीष वहां पहुंचा
तो राजपूत शीतल को ट्रेन की दीवार से सटाए उसकी चूचियों का मर्दन कर रहा
था। आशीष वहीँ खड़ा हो गया और छिप कर खेल देखने लगा!

धीरे धीरे शीतल के बदन की गर्मी बढ़ने लगी। अब उसको भी मजा आने लगा था।
दोनों की आँखें बंद थी। धीरे धीरे वो पीछे होते गए और राजपूत की कमर
दूसरी दीवार के साथ लग गयी। अब शीतल भी आहें भर रही थी। उसके सर को अपनी
चूचियों पर जोर जोर से दबा रही थी।

राजपूत ने दीवार से लगे लगे ही बैठना शुरू कर दिया। शीतल भी साथ साथ नीचे
होती गयी। राजपूत अपनी एड़ियों पर बैठ गया और शीतल उसकी जाँघों पर, दोनों
तरफ पैर करके। शीतल को पता भी न चला की कब राजपूत ने पूरी उंगली को अन्दर
भेज दिया है उसकी गांड में। अब राजपूत गांड में ऊँगली चलाने भी लगा था।
शीतल खूंखार होती जा रही थी। उसको कुछ पता ही न था वो क्या कर रही है। बस
करती जा रही थी, बोलती जा रही थी। कुछ का कुछ और आखिर में वो बोली- "मेरी
चूत में फंसा दो लंड।"

पर लंड तो कब का फंसा हुआ था। राजपूत की गांड में ऊँगली के दबाव से वह
आगे सरकती गयी और आगे राजपुताना लंड आक्रमण को तैयार बैठा था। चूत के पास
आते ही लंड ने अपना रास्ता खुद ही खोज लिया। और जब तक शीतल को पता चलता।
वो आधा घुस कर दहाड़ रहा था। चूत की जड़ पर कब्ज़ा करने के लिए।

राजपूत ने अपने लंड को फंसाए फंसाए ही उंगली गांड से निकाली और शीतल को
कमर से पकड़ कर जमीन पर लिटा दिया। उसकी टाँगे तो पहले ही राजपूत की
टांगों के दोनों ओर थीं। राजपूत ने उसकी टांगों को ऊपर उठा और उसकी चूत
के सुराख़ को चौड़ा करता चला गया। इस तरह से पहली बार अपनी चूत चुदवा रही
शीतल को इतने मोटे लंड का अपनी बुर में जाते हुए पता तक नहीं चला।

raj..
Platinum Member
Posts: 3402
Joined: 10 Oct 2014 07:07

Re: रेल यात्रा

Unread post by raj.. » 13 Oct 2014 21:46


धक्के तेज होने लगे। सिसकियां, सिस्कारियां तेज़ होती गयी। करीब 15 मिनट
तक लगातार बिना रुके धक्के लगाने के बाद राजपूत भाई ने उसकी चूत को लबालब
कर दिया। शीतल का बुरा हाल हो गया था उसकी चूत 3-4 बार पानी छोड़ चुकी थी
और बुरी तरह से दुःख रही थी।

राजपूत अपना लंड निकाल कर चौड़ी छाती करके बोला- "ये ले अपने.......अरे
कपड़े कहाँ गए???"

"यहाँ हैं भाई साहब!" आशीष ने मुस्कुराते हुए कपडे राजपूत को दिखाए।
ओह यार! ये तो अब मर ही जाएगी। आधे घंटे से तो मैं रगड़ रहा था इसको "
राजपूत को जैसे आईडिया हो गया था अब क्या होगा।
शीतल को तो अब वैसे भी उल्टियां सी आने लगी थी। पहली ही बार में इतनी
लुम्बी चुदाई। उसके मुंह से बोल नहीं निकल पा रहे थे। न ही उसने कपडे
मांगे।

राजपूत- यार मेरा तो अभी एक गेम और खेलने का मूड है। पर यार ये मर जाएगी।
अगर तेरे बाद मैंने भी कर दिया तो!

शीतल को लगा की अगर ये मान गया तो राजपूत फिर करेगा। इससे अच्छा तो मैं
इसी को तरी कर लूं। वो खड़ी हो चुकी थी।

आशीष- एक बार और करने का मूड है क्या भाई!
राजपूत- है तो अगर तू छोड़ दे तो।

आशीष ने उसको कविता के पास चढ़ा दिया। और वापस आ गया!

आशीष ने आकर उसको बाँहों में लिया और आराम से उसके शरीर को चूमने लगा।
जैसे प्रेमी प्रेमिका को चूमता है। सेक्स से पहले!
इस प्यार भरे दुलार से शीतल के मन को ठंडक मिली और वो भी उसको चूमने लगी।
आशीष ने चूमते हुए ही उसको कहा- "कर सकती हो या नहीं। एक बार और!"
अब शीतल को कम से कम डर नहीं था। शीतल ने कहा अगर आप बुरा न मानो तो मेरी
सीट पर चलते हैं। फिर देख लेंगे।!
आशीष ने उसको कपडे दे दिए और वो सीट पर चले गए!

शीतल ने अपनी कमर आशीष की छाती से लगा रखी थी। आशीष उसके गले को चूम रहा
था। अब शीतल को डर नहीं था। इसीलिए वो जल्दी जल्दी तैयार होने लगी। उसने
अपनी गर्दन घुमा कर आशीष के होंठों को अपने मुंह में ले लिया और चूसने
लगी। ऐसा करने से आशीष के लंड में तनाव आ गया और वो शीतल की गांड पर दबाव
बढ़ाने लगा। शीतल की चूत में फिर से वासना का पानी तैरने लगा! उसने पीछे
से अपना स्कर्ट उठा दिया। आशीष के हाथ उसके टॉप में घुस कर उसकी चूचियों
और निप्पलों से खेल रहे थे!

raj..
Platinum Member
Posts: 3402
Joined: 10 Oct 2014 07:07

Re: रेल यात्रा

Unread post by raj.. » 13 Oct 2014 21:47



शीतल ने ऐसे ही पैंटी नीचे कर दी और अपने चुतड़ पीछे धकेल दिए। लंड अपनी
जगह पर जाकर सेट हो गया।
आशीष ने शीतल की एक टांग को घुटने से मोड़ कर आगे कर दिया। इससे एक तो
चूत थोड़ी बाहर को आ गयी दूसरे उसका मुंह भी खुल गया।

आशीष को रास्ता बताने की जरुरत ही न पड़ी। लंड खुद ही रास्ता बनाता अन्दर
सरकता चला गया।
इस प्यार में मज़बूरी न होने की वजह से शीतल को ज्यादा मजे आ रहा था। वो
अपनी गांड को आशीष के लंड के धक्कों की ताल से ताल मिला कर आगे पीछे करने
लगी। दोनों जैसे पागल से हो गए। धक्के लगते रहे। लगाते रहे। कभी आशीष
तेज़ तो कभी शीतल तेज़। धक्के लगते रहे। और जब धक्के रुके तो एक साथ।
दोनों पसीने में नहाए हुए थे। एक दुसरे से चिपके हुए से। आशीष ने भी यही
किया। उसकी चूत को एक बार फिर से भर दिया। दोनों काफी देर तक चिपके रहे।
फिर उठकर गुसलखाने की और चले गए। वहां राजपूत कविता को अपने तरीके सिखा
रहा था।
**********************************************************
अगले दिन ट्रेन मुंबई रेलवे स्टेशन पर रुकी। कविता ने नीचे उतरते ही आशीष
का हाथ थाम लिया और उसकी ओर मुस्कुराती हुयी बोली- "तुम कह रहे थे
तुम्हारा यहाँ कोई नहीं है। अगर तुम चाहो तो हमारे साथ चल सकते हो।"

आशीष की तो पाँचों उंगलियाँ अब घी में थी- "ठीक है, तुम कहती हो तो चल
पड़ता हूँ।" उसने कविता का हाथ दबाते हुए उसकी ओर आँख मारी।

"हाँ। हाँ। क्यूँ नहीं। तुम शहर में अजनबी हो बेटा। कुछ दिन हमारे साथ
रहोगे तो तुम्हे इधर-उधर का ज्ञान हो जायेगा। चलो हमारे साथ। कुछ दिन
आराम से रहना-खाना।" ताऊ न कहा और चारों साथ-साथ स्टेशन से बाहर निकल गए!

लगभग आधे घंटे बाद चारों एक मैली कुचैली सी बस्ती में पहुँच गए। हर जगह
गंदगी का आलम था। मकानों के नाम पर या तो छोटे-छोटे कच्चे घर थे। या फिर
झुग्गी झोपड़ियाँ।

"हम यहाँ रहेंगे?" आशीष ने मरी सी आवाज में पूछा।

"अरे चलो तो सही। अपना घर ऐसा नहीं है। अच्छा खासा है भगवान की दया से।
तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी वहां" बूढ़े ने आशीष की ओर खिसियाते हुए
कहा।

"हम्म्म! !" आशीष ने हामी भरी और रानी की और देखा। वो भी इस जगह से अनजान
थी। इसीलिए उनके पीछे-पीछे चल रही थी।

"लो भाई, ये आ गया अपना घर, ठीक है न?" बूढ़ा मुस्कुराते हुए घर के बाहर खड़ा हो गया।

घर वास्तव में ही काफी बड़ा था। पुराना जरूर था। पर उन झुग्गी-झौपड़ियों
के बीच खड़ा किसी महल से कम नहीं लग रहा था।
"ए बापू आ गए, चलो उठो!" अन्दर से किसी लड़की की आवाज आई। दरवाजा खुला और
चारों अन्दर चले गए।

Post Reply