काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

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Jemsbond
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

Unread post by Jemsbond » 27 Dec 2014 19:10

अपडेट 8

रवि झाड़ियों में छिप गया. उसके मन में बदले की भवना थी. इसी लड़की के कारण उसे हवेली में मज़ाक का पात्र बनना पड़ा था. उसने कंचन को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया था. वो ये कैसे भूल सकता था कि बिना वजह इस लड़की ने उसके कपड़े जलाए थे. इसी की वजह से वो दो दिन तक जोकर बना हवेली में फिरता रहा. इन्ही विचारों के साथ वो झाड़ियों में छिपा रहा और कंचन के बाहर आने की राह देखता रहा.

कुच्छ देर बाद एक एक करके लड़कियाँ बाहर आती गयीं और अपने अपने कपड़े पहन कर अपने अपने घर को जाने लगी. रवि 1 घंटे से झाड़ियों की औट से ये सब देख रहा था. अब सूर्य भी अपने क्षितिज पर डूब चुका था. चारो तरफ सांझ की लालिमा फैल चुकी थी. अब नदी में केवल 2 ही लड़कियाँ रह गयी थी. उनमें एक कंचन थी दूसरी उसकी कोई सहेली. कुच्छ देर बाद उसकी सहेली भी नदी से बाहर निकली और अपने कपड़े पहनने लगी. अचानक उसे ये एहसास हुआ कि यहाँ कंचन के कपड़े नही हैं. उसने उसके कपड़ों की तलाश में इधर उधर नज़र दौड़ाई, पर कपड़े कहीं भी दिखाई नही दिए. उसने कंचन को पुकारा. - "कंचन, तुमने अपने कपड़े कहाँ रखे थे? यहाँ दिखाई नही दे रहे हैं."

"वहीं तो थे. शायद हवा से इधर उधर हो गये हों. मैं आकर देखती हूँ" कंचन बोली और पानी से बाहर निकली. वह उस स्थान पर आई जहाँ पर उसने अपने कपड़े रखे थे. वहाँ पर सिर्फ़ उसकी ब्रा और पैंटी थी. बाकी के कपड़े नदारद थे. वह अपने कपड़ों की तलाश में इधर उधर नज़र दौड़ने लगी. वो कभी झाड़ियों में ढूँढती तो कभी पत्थरों की औट पर. लेकिन कपड़े उसे कहीं भी दिखाई नही दिए. अब कंचन की चिंता बढ़ी. वो परेशानी में इधर उधर घूमती रही, फिर अपनी सहेली के पास गयी. "लता कपड़े सच मच में नही हैं."

"तो क्या मैं झूठ बोल रही थी." लता मुस्कुराइ.

"अब मैं घर कैसे जाउन्गि?."

"थोड़ी देर और रुक जा. उजाला ख़त्म होते ही घर को चली जाना. अंधेरे में तुम्हे कोई नही पहचान पाएगा."

"तू मेरे घर से कपड़े लेकर आ सकती है?" कंचन ने सवाल किया.

"मैं....! ना बाबा ना." लता ने इनकार किया - "तू तो जानती ही है मेरी मा मुझे आने नही देगी. फिर क्यों मुझे आने को कह रही है?"

"लता, तो फिर तू भी कुच्छ देर रुक जा. दोनो साथ चलेंगे. यहाँ अकेले में मैं नही रह सकूँगी." कंचन ने खुशामद की.

"कंचन, मैं अगर रुक सकती तो रुक ना जाती. ज़रा सी देर हो गयी तो मेरी सौतेली मा मेरी जान ले लेगी."

कंचन खामोश हो गयी. वो अच्छी तरह से जानती थी, लता की सौतेली मा उसे बात बात पर मारती है. एक काम को 10 बार करवाती है. वो तो अक्सर इसी ताक में रहती है कि लता कोई ग़लती करे और वो इस बेचारी की पिटाई करे. उसका बूढ़ा बाप भी अपनी बीवी के गुस्से से दूर ही रहता था.

"क्यों चिंता कर रही है मेरी सखी. मेरी माँ तो तू ऐसे ही मेरे साथ घर चल." लता ने उसे सुझाव दिया.

"ऐसी हालत में कोई देखेगा तो क्या कहेगा?" कंचन चिंतित स्वर में बोली.

"कोई कुच्छ नही कहेगा. उल्टे लोग तुम्हारी इस कंचन काया की प्रशंसा ही करेंगे." लता उसके पास आकर उसके कंधो पर हाथ रख कर बोली - "सच कहती हूँ, गाओं के सारे मजनू तुम्हे ऐसी दशा में देखकर जी भर कर सच्चे दिल से दुआएँ देंगे."

"लता तुम्हे मस्ती चढ़ि है और यहाँ मेरी जान निकली जा रही है." कंचन गंभीर स्वर में बोली.

"तुम्हारे पास और कोई चारा है?" लता उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली - "या तो तू ऐसे ही मेरे साथ घर चल...या फिर कुच्छ देर रुक कर अंधेरा होने का इंतेज़ार कर. लेकिन मुझे इज़ाज़त दे. मैं चली." ये कहकर लता अपने रास्ते चल पड़ी. कंचन उसे जाते हुए देखती रही.

रवि झाड़ियों में छिपा ये सब देख रहा था. लता के जाते ही वो बाहर निकला. और धीमे कदमो से चलता हुआ कंचन की और बढ़ा. कंचन उसकी ओर पीठ किए खड़ी थी. रवि उसके निकट जाकर खड़ा हो गया और उसे देखने लगा. किसी नारी को इस अवस्था में देखने का ये उसका पहला अवसर था. कंचन गीले पेटिकोट में खड़ी थी. उसका गीला पेटिकोट उसके नितंबो से चिपक गया था. पेटिकोट गीला होने की वजह से पूरा पारदर्शी हो गया था. हल्की रोशनी में भी उसके भारी गोलाकार नितंब रवि को सॉफ दिखाई दे रहे थे. दोनो नितंबो के बीच की दरार में पेटिकोट फस सा गया था. वह विस्मित अवस्था में उसके लाजवाब हुश्न का दीदार करता रहा. अचानक से कंचन को ऐसा लगा कि उसके पिछे कोई है. वह तेज़ी से घूमी. जैसे ही वो पलटी चीखती हुई चार कदम पिछे हटी. वो आश्चर्य से रवि को देखने लगी. रवि ने उसकी चीख की परवाह ना करते हुए उसे उपर से नीचे तक घूरा. उसकी अर्धनग्न चूचियाँ रवि की आँखों में अनोखी चमक भरती चली गयी. उसकी नज़रें उन पहाड़ जैसे सख़्त चुचियों में जम गयी. गीले पेटिकोट में उसके तने हुए बूब्स और उसकी घुंडिया स्पस्ट दिखाई दे रही थी. रवि ने अपने होठों पर जीभ फेरी.

कंचन की हालत पतली थी. ऐसी हालत में अपने सामने किसी अजनबी मर्द को पाकर उसका दिल धाड़ धाड़ बज रहा था. सीना तेज़ी से उपर नीचे हो रहा था. उसे अपने बदन पर रवि के चुभती नज़रों का एहसास हुआ तो उसने अपने हाथों को कैंची का आकर देकर अपनी छाती को ढकने का प्रयास करने लगी. वो लाज की गठरी बनी सहमी से खड़ी रही. फिर साहस करके बोली - "आप यहाँ इस वक़्त....आपको इस तरह किसी लड़की को घूरते लज्जा नही आती?"

उत्तर में रवि मुस्कुराया. फिर व्यंग भरे शब्दों में बोला - "ये तो वही बात हो गयी. कृष्ण करे तो लीला. हम करे तो रासलीला."

"मैं समझी नही." कंचन रूखे स्वर में बोली.

रवि ने अपने हाथ आगे किए और उसके कपड़े दिखाए. कंचन रवि के हाथो में अपने कपड़े देखकर पहले तो चौंकी फिर आँखें चढ़ाकर बोली -"ओह्ह...तो आपने मेरे कपड़े चुराए थे. मुझे नही पता था आप शहरी लोग लड़कियों के कपड़े चुराने के भी आदि होते हैं. लेकिन ये बड़ी नीचता का काम है. लाइए मेरे कपड़े मुझे दीजिए."

रवि व्यंग से मुस्कुराया. -"मुझे भी नही पता था कि गाओं के सीधे साधे से दिखने वाले लोग, अपने घर आए मेहमान का स्वागत उसके कपड़े जलाकर करते हैं. क्या ये नीचता नही है."सहसा उसकी आवाज़ में कठोरता उभरी - "अब क्यों ना मैं अपने उस अपमान का बदला तुमसे लूँ. क्यों ना तुम्हारे बदन से ये आख़िरी कपड़ा भी नोच डालूं."

कंचन सकपकाई. उसकी आँखों से मारे डर के आँसू बह निकले. वो सहमी सी आवाज़ में बोली - "मैने आपके कपड़े नही जलाए थे साहेब. वो तो...वो तो...." कंचन कहते कहते रुकी. वह खुद तो लज्जित हो चुकी थी अब निक्की को शर्मसार करना ठीक नही समझा.

"वो तो क्या? कह दो कि वो काम किसी और ने किए थे. जो लड़की मेरे रूम में मेरे जले हुए कपड़े रख के गयी थी वो तुम नही कोई और थी."

"साहेब....मैं सच कहती हूँ, मैने आपके कपड़े नही जलाए."

"तुम्हारा कोई भी झूठ तुम्हारे किए पर परदा नही डाल सकता. तुम्हारे इस गोरे शरीर के अंदर का जो काला दिल है उसे मैं देख चुका हूँ."

कंचन रुआन्सि हो उठी, रवि के ताने उसके दिल को भेदते जा रहे थे. उसने सहायता हेतु चारो तरफ नज़र दौड़ाई पर उसे ऐसा कोई भी दिखाई नही दिया. जिससे वो मदद माँग सके. उसने उस पल निक्की को जी भर कोसा. काश कि वो उसकी बातों में ना आई होती. उसने एक बार फिर रवि के तरफ गर्दन उठाई और बोली - "साहेब, मेरे कपड़े दे दो. मेरे घर में सब परेशान होंगे." उसकी आवाज़ में करुणा थी और आँखें आँसुओं से डबडबा गयी थी. वो अब बस रोने ही वाली थी.

क्रमशः....................................

Jemsbond
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

Unread post by Jemsbond » 27 Dec 2014 19:11

Update 8

ravi jhadiyon mein chheep gaya. uske man mein badle ki bhvna thi. isi ladki ke kaaran use haveli mein mazaak ka paatr banna pada tha. Usne kanchan ko sabak sikhane ka nishchay kar liya tha. wo ye kaise bhul sakta tha ki bina wajah is ladki ne uske kapde jalaye the. isi ki wajah se wo do din tak joker bana haveli mein firta raha. Inhi vichaaron ke sath wo jhadiyon mein chheepa raha aur kanchan ke bahar aane ki raah dekhta raha.

Kuchh der baad ek ek karke ladkiyan bahar aati gayin aur apne apne kapde pehan kar apne apne ghar ko jane lagi. Ravi 1 ghante se jhadiyon ki aut se ye sab dekh raha tha. Ab surya bhi apne kshitij par dub chuka tha. Charo taraf saanjh ki laalima fail chuki thi. Ab nadi mein keval 2 hi ladkiyan rah gayi thi. Unmein ek kanchan thi dusri uski koi saheli. Kuchh der baad uski saheli bhi nadi se bahar nikli aur apne kapde pehanne lagi. achanak use ye ehsaas hua ki yahan kanchan ke kapde nahi hain. Usne uske kapdon ki talash mein idhar udhar nazar daudayi, par kapde kahin bhi dikhayi nahi diye. Usne kanchan ko pukara. - "kanchan, tumne apne kapde kahan rakhe the? yahan dikhayi nahi de rahe hain."

"wahin to the. shayad hawa se idhar udhar ho gaye hon. Main aakar dekhti hoon" kanchan boli aur paani se bahar nikli. Wah us sthan par aayi jahan par usne apne kapde rakhe the. wahan par sirf uski bra aur panty thi. Baaki ke kapde nadarad the. Wah apne kapdon ki talaash mein idhar udhar nazar daudane lagi. Wo kabhi jhadiyon mein dhunhdti to kabhi pattharon ki aut par. Lekin kapde use kahin bhi dikhayi nahi diye. Ab kanchan ki chinta badhi. Wo pareshani mein idhar udhar ghumti rahi, phir apni saheli ke paas gayi. "lata kapde sach much mein nahi hain."

"to kya main jhooth bol rahi thi." lata muskurayi.

"ab main ghar kaise jaungi?."

"thodi der aur ruk ja. ujala khatm hote hi ghar ko chali jana. Andhere mein tumhe koi nahi pehchan payega."

"tu mere ghhar se kapde lekar aa sakti hai?" kanchan ne sawal kiya.

"main....! Na bab na." lata ne inkaar kiya - "Tu to janti hi hai meri maa mujhe aane nahi degi. Phir kyon mujhe aane ko keh rahi hai?"

"lata, to phir tu bhi kuchh der ruk ja. Dono sath chalenge. Yahan akele mein main nahi rah sakungi." kanchan ne khusamad kiya.

"kanchan, main agar ruk sakti to ruk na jaati. jara si der ho gayi to meri sauteli maa meri jaan le legi."

Kanchan khamosh ho gayi. wo achhi tarah se janti thi, lata ki sauteli maa use baat baat par marti hai. Ek kaam ko 10 baar karwati hai. Wo to aksar isi taak mein rahti hai ki lata koi galti kare aur wo is bechari ki aah bhar pitayi kare. Uska budha baap bhi apni biwi ke gusse se door hi rahta tha.

"kyon chinta kar rahi hai meri sakhi. Meri maan to tu aise hi mere sath ghar chal." lata ne use sujhav diya.

"aisi haalat mein koi dekhega to kya kahega?" kanchan chintit swar mein boli.

"koi kuchh nahi kahega. ulte log tumhari is kanchan kaaya ki prashansa hi karenge." lata uske paas aakar uske kandho par hath rakh kar boli - "sach kehti hoon, gaon ke sare majnu tumhe aisi dasha mein dekhkar jee bhar kar sache dil se duayen denge."

"lata tumhe masti chadhi hai aur yahan meri jaan nikli ja rahi hai." kanchan gambheer swar mein boli.

"tumhare paas aur koi chara hai?" lata uski aankhon mein jhankte hue boli - "ya to tu aise hi mere sath ghar chal...ya phir kuchh der ruk kar andhera hone ka intezaar kar. Lekin mujhe izazat de. Main chali." ye kehkar lata apne raste chal padi. Kanchan use jaate hue dekhti rahi.

Ravi jhadiyon mein chheepa ye sab dekh raha tha. Lata ke jaate hi wo bahar nikla. Aur dheeme kadmo se chalta hua kanchan ki aur badha. Kanchan uski aur pith kiye khadi thi. ravi uske nikat jakar khada ho gya aur use dekhne laga. kisi naari ko is avashtha mein dekhne ka ye uska pehla avsar tha. Kanchan geele petticoat mein khadi thi. Uska geela petticoat uske nitambo se chipak gaye the. Petticoat geela hone ki wajah se pura pardarshi ho gaya tha. Halki roshni mein bhi uske bhari golakar nitamb ravi ko saaf dikhayi de rahe the. dono nitambo ke beech ki darar mein petticoat fas sa gaya tha. Wah vismit avashtha mein uske laajwab hushn ka deedar karta raha. Achanak se kanchan ko aisa laga ki uske pichhe koi hai. Wah teji se ghumi. Jaise hi wo palti chikhti hui chaar kadam pichhe hati. wo aashcharaya se ravi ko dekhne lagi. Ravi ne uski cheekh ki parwah na karte hue use upar se niche tak ghura. Uski ardhnagn chhatiyan ravi ke ankhon mein anokhi chamak bharti chali gayi. Uski nazrein un pahad jaise sakht chuchiyon mein jam gaye. Geele peticoat mein uske tane hue boobs aur uski ghundiya spast dikhayi de rahe the. Ravi ne apne hothon par jeebh fera.

Kanchan ki haalat patli thi. aisi haalat mein apne saamne kisi ajnabi mard ko paakar uska dil dhaad dhaad baj raha tha. Seena teji se upar niche ho raha tha. Use apne badan par ravi ke chubhti nazron ka ehsaas hua to usne apne hathon ko kainchi ka aakar dekar apni chhati ko dhakne ka pryaas karne lagi. Wo laaj ki gathri bani sahmi se khadi rahi. Phir saahas karke boli - "aap yahan is waqt....aapko is tarah kisi ladki ko ghurte lajja nahi aati?"

Uttar mein ravi muskuraya. Phir vyang bhare shabdon mein bola - "ye to wahi baat ho gayi. Krishn kare to leela. Hum kare to raasleela."

"main samjhi nahi." kanchan rukhe swar mein boli.

ravi ne apne hath aage kiye aur uske kapde dikhaye. Kanchan ravi ke hatho mein apne kapde dekhkar pehle to chaunki phir aankhen chadhakar boli -"ohh...to aapne mere kapde churaye the. mujhe nahi pata tha aap shehri log ladkiyon ke kapde churane ke bhi aadi hote hain. lekin ye badi nichta ka kaam hai. Laaiye mere kapde mujhe dijiye."

Ravi vyang se muskuraya. -"mujhe bhi nahi pata tha ki gaon ke seedhe saadhe se dikhne wale log, apne ghar aaye mehmaan ka swagat uske kapde jalakar karte hain. Kya ye nichta nahi hai."sahsa uski awaaz mein kathorta ubhri - "ab Kyon na main apne us apamaan ka badla tumse loon. Kyon na tumhare badan se ye aakhiri kapda bhi noch dalun."

Kanchan sakpakayi. Uski aankhon se maare dar ke aansu beh nikle. Wo sahmi si awaaz mein boli - "maine aapke kapde nahi jalaye the saheb. Wo to...wo to...." kanchan kehte khete ruki. Wah khud to lajjit ho chuki thi ab nikki ko sharmshar karna theek nahi samjha.

"wo to kya? Keh do ki wo kaam kisi aur ne kiye the. Jo ladki mere room mein mere jale hue kapde rakh ke gayi thi wo tum nahi koi aur thi."

"saheb....main sach kehti hoon, maine aapke kapde nahi jalaye."

"tumhara koi bhi jhoot tumhare kiye par parda nahi daal sakta. Tumhare is gore sharir ke andar ka jo kaala dil hai use main dekh chuka hoon."

Kanchan runwasi ho uthi, ravi ke taane uske dil ko bhedte ja rahe the. Usne sahayata hetu charo taraf nazar duadai par use aisa koi bhi dikhai nahi diya. Jisse wo madad maang sake. Usne us pal nikki ko jee bhar kosa. Kaash ki wo uski baaton mein na aayi hoti. Usne ek baar phir ravi ke taraf gardan uthayi aur boli - "saheb, mere kapde de do. Mere ghar mein sab pareshan honge." uski awaaz mein karuna thi aur aankhen aansuon se dabdaba gayi thi. Wo ab bas rone hi wali thi.

Jemsbond
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 12:40

अपडेट 9



रवि ने उसके चेहरे को ध्यान से देखा. उसका चेहरा शर्म और भय से पीला पड़ गया था. उसकी खूबसूरत आँखों में आँसू की मोटी मोटी बूंदे चमक उठी थी. उसके होंठ कांप कंपा रहे थे. वो लाचारी से अपने सूखे होठों पर जीभ फ़ीरा रही थी. उसे उसकी हालत पर दया आ गयी. उसने अपने हाथ में पकड़ा कपड़ा उसकी ओर फेंका और बोला - "ये लो अपने कपड़े, पहनो और घर जाओ. मैं उन लोगों में से नही हूँ जो किसी की विवशता का फ़ायदा उठाने में अपनी शान समझते हों. लेकिन घर जाने के बाद अगर फ़ुर्सत मिले तो अपने मन के अंदर झाँकना और सोचना कि मैने तुम्हारे साथ जो किया वो क्यों किया. अब तो शायद तुम्हे ये समझ में आ गया होगा कि किसी के मन को ठेस पहुँचाने से सामने वाले के दिल पर क्या गुजरती है." रवि जाने के लिए मुड़ा, फिर रुका और पलटकर कंचन से बोला -"एक बात और.....अगर तुम किसी के दिल में अपने लिए प्यार ना भर सको तो कोशिश करना कि कोई तुमसे नफ़रत भी ना करे." ये कहकर रवि मुड़ा और अपनी बाइक की तरफ बढ़ गया.

कंचन उसे जाते हुए देखती रही. उसकी आँखों में अभी भी आँसू भरे हुए थे. उसके कानो में रवि के कहे अंतिम शब्द गूँज रहे थे.

"मुझे माफ़ कर दो साहेब." वह बड़बड़ाई - "मैं जानती हूँ मेरी वजह से आपका दिल टूटा है, भूलवश मैने आपके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाई है. पर मुझसे नफ़रत मत करना साहेब....मैं बुरी लड़की नही हूँ....मैं बुरी लड़की नही हूँ साहेब."

कंचन भारी कदमो से झाड़ियों की ओर बढ़ी और अपने कपड़े पहनने लगी. कपड़े पहन लेने के बाद वो अपने घर के रास्ते चल पड़ी. पूरे रास्ते वो रवि के बारे में सोचती रही. कुच्छ देर बाद वो अपने घर पहुँची. कंचन ने जैसे ही अपने घर के आँगन में कदम रखा बुआ ने पुछा - "कंचन इतनी देर कैसे हो गयी आने में? कितनी बार तुझे समझाया. सांझ ढले बाहर मत रहा करो. तुम्हे अपनी कोई फिक़र रहती है कि नही?"

कंचन ने बुआ पर द्रष्टी डाली, बुआ इस वक़्त आँगन के चूल्‍हे में रोटियाँ बना रही थी. चूल्‍हे से थोड़ी दूर चारपाई पर उसका बाप सुगना बैठा हुआ था. कंचन उसे बाबा कहती थी. - "आज देर हो गयी बुआ, आगे से नही होगी." कंचन बुआ से बोली और अपने कमरे की ओर बढ़ गयी. उसके मिट्टी और खप्रेल के घर में केवल दो कमरे थे. एक कमरे में कंचन सोती थी, दूसरे में उसकी बुआ शांता, सुगना की चारपाई बरामदे में लगती थी. चिंटू के लिए अलग से चारपाई नही बिछती थी. उसकी मर्ज़ी जिसके साथ होती उसके साथ सो जाता. पर ज़्यादातर वो कंचन के साथ ही सोता था. कंचन अपने रूम के अंदर पहुँची. अंदर चिंटू पढ़ाई कर रहा था. कंचन को देखते ही वह घबराया. और किताब समेटकर बाहर जाने लगा.

"कहाँ जा रहा है?" कंचन ने उसे टोका.

"क....कहीं नही, बाहर मा....मामा के पास." वह हकलाया.

"मा के पास या मामा के पास?" कंचन ने घूरा - "और तू इतना हकला क्यों रहा है?"

चिंटू सकपकाया. उसके माथे पर पसीना छलक आया. चेहरा डर से पीला पड़ गया, उसने बोलने के लिए मूह खोला पर आवाज़ बाहर ना निकली.

कंचन के माथे पर बाल पड़ गये. वा उसे ध्यान से देखने लगी. "कुच्छ तो बात है?" कंचन मन में बोली - "इसकी घबराहट अकारण नही है."

चिंटू कंचन को ख्यालो में डूबा देख दबे कदमो से वहाँ से निकल लिया. कंचन सोचती रही. सहसा उसकी आँखें चमकी. जब वो नदी में स्नान कर रही थी तब उसने चिंटू की आवाज़ सुनी थी. पर देख नही पाई थी. -"कहीं ऐसा तो नही इसी ने मेरे कपड़े चुराकर साहेब को दिए हों." वह बड़बड़ाई - "ऐसा ही हुआ होगा. वरना साहेब को क्या मालूम मेरे कपड़े कौन से हैं?"

बात उसके समझ में आ चुकी थी. कंचन दाँत पीसती कमरे से बाहर निकली. चिंटू उसके बाबा की गोद में बैठा बाते कर रहा था. कंचन को गुस्से में अपनी ओर आते देख उसके होश उड़ गये. पर इससे पहले कि वो कुच्छ कर पाता, कंचन उसके सर पर सवार थी. कंचन ने उसका हाथ पकड़ा और खींचते हुए कमरे के अंदर ले गयी. कमरे में पहुँचकर कंचन ने चिंटू को चारपाई पर बिठाया और अंदर से दरवाज़े की कुण्डी लगाने लगी. चिंटू ये देखकर भय से काँप उठा. उसे समझते देर नही लगी कि आज उसकी पिटाई निश्चिंत है. उसने उस पल को कोसा जब पैसे के लालच में आकर उसने शहरी बाबू की बात मानी थी.

कंचन दरवाज़े की कुण्डी लगाकर उसके पास आकर खड़ी हो गयी. -"क्यूँ रे...तू मुझसे भागता क्यों फिर रहा है?"

"दीदी, क्या तुम सच-मुच मुझे मरोगी?" चिंटू ने डरते डरते पुछा.

कंचन ने चिंटू के पीले चेहरे को देखा तो उसका सारा क्रोध गायब हो गया. वह मुस्कुराइ, फिर उसके साथ चारपाई में बैठकर उसके गालो को चूमकर बोली -" नही रे, मैं भला तुम्हे मार सकती हूँ, पर तूने ही मेरे कपड़े साहेब को दिए थे ना? सच सच बता, नही तो अबकी ज़रूर मारूँगी"

चिंटू मुस्कुराया. उसने कंचन को देखा और शरमाते हुए बोला - "हां !"

"क्यों दिए थे?" कंचन फिर से उसके गालो को चूमते हुए बोली.

"नही बताउन्गा, तुम मारोगी." चिंटू हंसा.

"नही बतायेगा तो मारूँगी," कंचन ने आँखें दिखाई - "बता ना क्यों दिए थे मेरे कपड़े?"

"उसने मुझे पैसे दिए और बोला क़ि वो जो कहेगा अगर मैं करूँगा तो वो मुझे और पैसे देगा." चिंटू ने कंचन को नदी का पूरा वृतांत सुना दिया.

"पैसे कहाँ है?" कंचन ने सब सुनने के बाद पुछा.

चिंटू ने अपने जेब से पैसे निकालकर कंचन को दिखाया फिर बोला -"दीदी मुझे लगा आप मुझे मरोगी. आज के बाद मैं फिर कभी ऐसा नही करूँगा...सच्ची.!"

कंचन मुस्कुराइ और उसे अपनी छाती से भींचती हुई मन में बोली - "तू नही जानता, तेरी वजह से आज मुझे क्या मिला है." अगले ही पल उसके मन में सवाल उभरा. "लेकिन ऐसा क्या मिला है मुझे जो मैं इतनी खुश हो रही हूँ? साहेब ने तो मुझसे कोई अच्छी बात भी नही की, उन्होने तो मेरा अपमान ही किया है. फिर क्यों मेरा मन मयूर बना हुआ है?"

"नही साहेब ने मेरा अपमान नही किया, उन्होने जो भी कहा मेरे भले के लिए कहा, वे तो अच्छे इंसान हैं, आज अगर वो चाहते तो मेरे साथ क्या नही कर सकते थे. लेकिन उन्होने कुच्छ नही किया. वे सच में अच्छे इंसान हैं."

"चलो मान लिया वे अच्छे इंसान हैं. लेकिन मैं क्यों उनके बारे में सोच रही हूँ. मुझे क्या अधिकार है उनके बारे में सोचने का. कहीं ऐसा तो नही कि मैं उनसे प्यार करने लगी हूँ."

"अगर मैं करती भी हूँ तो क्या बुरा है, प्यार करना कोई बुरा तो नही. प्यार तो एक ना एक दिन सभी को होता है, मुझे भी हो जाने दो."

कंचन का दिल धड़का. उसके सीने में मीठी मीठी कसक सी हुई. वह अपनी छाती को मसल्ने लगी. "ये क्या हो रहा है मुझे, मैं क्यों उनके बारे में इतना सोच रही हूँ. कुच्छ तो हुआ है मुझे, क्या सच में मुझे प्यार हो गया है?

कंचन के मन में प्रेम का अंकुर फुट चुका था. और उसकी वृधि बड़ी तेज़ी से हो रही थी. रवि से नदी में मुलाक़ात उसपर बहुत भारी पड़ी थी. उसे ना तो उगलते बन रहा था ना निगलते. वह पल प्रतिपल रवि के ख्यालो में डूबती जा रही थी. वो चाहकर भी उस विचार से पिछा नही छुड़ा पा रही थी.

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