Re: दुक्खम्-सुक्खम्
Posted: 25 Dec 2014 14:33
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आगरे के गोकुलपुरा में रहते हुए, कुछ दिन तो इन्दु और बेबी-मुन्नी का बहुत मन लगा। अगल-बगल होते हुए भी आगरे और मथुरा की सभ्यता, संस्कृति बिल्कुल अलग थी। घर की दिनचर्या भी भिन्न थी। फिर यहाँ इन्दु के ऊपर काम की अनिवार्यता और जिम्मेदारी नहीं थी। मन हुआ तो भाभी के साथ कपड़े धुलवा लिये, तरकारी कटवा दी, नहीं हुआ तो बच्चों को लेकर छत पर चली गयी।
इन्दु के चार भाई थे जिनमें से दो अभी पढ़ रहे थे। बड़े दो भाइयों ने यहाँ बीच बाज़ार में दवाओं की दुकान खोली थी ‘फ्रंटियर गुप्ता स्टोर’। बड़े भाई इंटर पास थे और छोटे भाई ने फ़ार्मेसी में डिप्लोमा किया था। पश्चिम पंजाब में अपना समृद्ध सराफ़ा व्यापार छोडक़र दवाओं की शीशी और गोलियों में मन लगाना आसान तो नहीं था पर उन्होंने अपनी सूझबूझ से बहुत जल्द व्यापार जमा लिया। कालीचरण और लालचरण को दवाओं की अच्छी जानकारी हो गयी। वे दवाओं के साथ आया साहित्य और निर्देश पुस्तिका ख़ूब ध्यान से पढ़ते। रोगी को दवा देते समय वे सलाह भी देते, ‘‘यह ख़ाली पेट खाना, यह दवा नाश्ते के बाद की है। इस दवा से ख़ुश्की हो जाती है, दूध ज़रूर पीना।’’
रोगी अभिभूत हो जाता। उसे लगता बिना फीस दिये यहाँ सेंत में डॉक्टर मिल जाता है। उन दोनों बड़े भाइयों को लोग डॉक्टर साहेब कहते। सुबह दुकान खुलने से पहले लालचरण पिछले कमरे में अक्सर खरल में अनेसिन और एस्प्रो की गोलियाँ पीसते और उनकी छोटी पुडिय़ा बना लेते। यह सिरदर्द, बदनदर्द की पुडिय़ा थी। इसका कागज़ सफेद रहता और हर पुडिय़ा पर नम्बर एक लिखा रहता। इसी तरह बैरालगन और बैलेडिनॉल की गोलियाँ पीसकर वे पीले कागज़ में पुडिय़ा बनाते जिन पर नम्बर दो लिखा रहता। यह पेटदर्द की पुडिय़ा थी। इन दो पुडिय़ों के चलते लालचरण ने बहुत यश और धन अर्जित किया। सीधे-सादे अनपढ़ ग्राहक उन्हें दो पुडिय़ा का जादूगर मानते। कालीचरण ने मिक्सचर बनाना सीख लिया था। उनके मिक्सचरों से खाँसी, जुकाम, बुख़ार और बदहज़मी ठीक हो जाती।
‘फ्रंटियर गुप्ता स्टोर’ की कमाई अच्छी थी। रात नौ बजे दोनों भाई जब दुकान बढ़ाकर लौटते उनकी जेबें नोटों और फुटकर पैसों से फूली रहतीं। सारा पैसा वे एक रूमाल पर उँड़ेलकर गिनते और कुछ रेजगारी रोककर बाकी पैसे रुपये तिजोरी में रखते जाते। यह रेजगारी वे बीवी-बच्चों में बाँट देते। उनके घर लौटने की बच्चे-बच्चे को प्रतीक्षा रहती। अक्सर माँ-बच्चों में बहस हो जाती। माएँ चाहतीं कि बच्चे अपनी रेज़गारी उनके पास जमा करें। बच्चे कहते, ‘पापा ने हमें दिये हैं, हम अपनी गुल्लक में डालेंगे।’
इन्दु के आने पर रेज़गारी में तीन हिस्से और बनने लगे। बड़े भाई कालीचरण इन्दु, बेबी, मुन्नी को भी पैसे देते। इन्दु निहाल हो जाती। भाई का प्यार और अपनापन वह अपनी आत्मा तक महसूस करती। लेकिन भाभियों के चेहरे कठिन हो जाते। प्रकट में कुछ न कहतीं लेकिन चौके में बैठ खुसर-पुसर करतीं कि बीबीजी जाने कब विदा होंगी!
कालीचरण, लालचरण की एक और आदत थी। रोज़ रात को वे मौसम की कोई-न-कोई खाने की चीज़ घर ज़रूर लाते। कभी लीची तो कभी खुबानी, कभी चैरी। इस तरह वे एबटाबाद के उन दिनों को वापस लौटाने की चेष्टा करते जब उन्होंने ये सब फल इफ़रात में देखे और खाये थे। दालमोठ और तले हुए काजू तथा सेम के बीज भी उन्हें पसन्द थे। फुर्सत के किसी छोटे-से हिस्से में लालचरण, पंछी या अग्रवाल हलवाई के यहाँ से ये नमकीन ख़रीदकर रख लेते। उन सबकी थाली जब परोसी जाती उसमें भोजन के साथ थोड़े-से काजू, सेमबिज्जी और दालमोठ ज़रूर रखी जाती। इन्दु के आने पर भाइयों को न जाने कब के भूले-बिसरे स्वाद याद आने लगे। कालीचरण कहते, ‘‘इन्दो तुझे पता है अम्माजी काँजी के बड़े कैसे बनाती थीं?’’
इन्दु इन दिनों बच्ची की तरह चहक रही थी, ‘‘हाँ भैया, मैं ही तो दाल पीसती थी। इमामदस्ते में राई कूटना, मर्तबान में तले हुए बड़े और पानी डालना सब मेरे काम थे। अम्माजी से उठा-बैठा कहाँ जाता था।’’
‘‘ये भाभी और रुक्मिणी बनाती हैं पर वह स्वाद नहीं आता।’’ लालचरण कहते।
भाभियाँ तन जातीं। रुक्मिणी अपनी बैठी आवाज़ में प्रतिवाद करती, ‘‘चाहे कित्ता भी अच्छा बना दो, ये तो यही कहेंगे कि अम्माजी जैसा नहीं बना।’’
‘‘कोई तो कसर रह जावे है।’’ लालचरण कहते।
‘‘भाभी आप मर्तबान में हींग का धुआँ देती हैं कि नहीं।’’ इन्दु पूछती।
‘‘हम तो हींग, पिट्ठी में डालते हैं।’’
‘‘वह तो सभी डालते हैं। मर्तबान में हींग की ख़ुशबू ज़रूर होनी चाहिए। उसी से बड़ों में स्वाद आता है।’’
‘‘हमें तो पता ही नायँ मर्तबान में हींग कैसे मली जाय!’’
‘‘वह लो। सीधी-सी बात है। बलता हुआ अंगारा चिमटे से उठाकर साफ जमीन पर रखो। उसके ऊपर हींग की छोटी डली डालो। इसके ऊपर मर्तबान मूँदा मार दो। पाँच मिनट वैसे ही पड़ा रहने दो। अब मर्तबान उठाकर जल्दी से उसके मुँह पर ढक्कन बन्द करो। पाँच मिनट बाद ढक्कन खोलकर मनमर्जी अचार डाल लो।’’
‘‘बीबीजी आपैई डाल के जाना काँजी के बड़े। हमपे तो होवे ना इत्ती पंचायत।’’
कालीचरण ने अनुज पत्नी को डाँट दिया, ‘‘इन्दु के मत्थे मढ़ दिया काम, तुम कुछ सीखोगी कि गँवार ही बनी रहोगी।’’
‘‘देखेंगे कै रोज बहन खिलाएगी!’’ कहकर दोनों भाभियाँ सामने से हट गयीं।
इन्दु को एहसास हुआ कि भाभियाँ बुरा मान गयीं। उसने अस्फुट स्वर में कहा, ‘‘भैया आप भी क्या ले बैठते हो। अम्माजी गयीं, उनके साथ ही कितनी सारी चीज़ें चली गयीं, किस-किसको याद करोगे!’’
देखा जाए तो वे सब लडक़पन के स्वाद थे जिनमें उत्तर-पश्चिम पंजाब सीमान्त का हवा-पानी और माँ का हाथ शामिल था। गहनों के क़ारोबार की समृद्धि जीवन के हर पहलू में झलकती। एबटाबाद में माँ के हाथ की बनी गुच्छी की रसेदार तरकारी इतनी लज़ीज़ होती कि चाहे कितनी भी बने थोड़ी पड़ जाती। तीनों भाई-बहन उसे बोटी की सब्ज़ी कहते। रसे में डूबकर गुच्छियाँ फूल जातीं। उन्हें चूस-चूसकर स्वाद लेने में सामिष भोजन का आनन्द आता।
इसी तरह से मेथी-दाने की खटमिट्ठी चटनी, खरबूज़े के बीज और काली मिर्च की तिनगिनी केवल यादें बनकर रह गयी थीं।
इन्दु ने देखा आजकल दोनों भाभियाँ उससे कम बोलतीं। आपस में उनकी बातचीत पूर्ववत् चलती। उसके आने पर वे चुपचाप चौके के काम में लग जातीं।
बच्चों में कोई दूरी नहीं थी। बड़े भाई के तीनों बेटे श्याम, रवि और विनय और छोटे भाई का बेटा सुशील, बेबी-मुन्नी के साथ मिलकर धमा-चौकड़ी मचाते। चोर-सिपाही खेलते हुए श्याम, बेबी के बालों का रिबन खींचकर खोल देता। उसके बाल बिखर जाते। तब वह उसे चिढ़ाता ‘भूतनी आ गयी, भूतनी देखो।’ बेबी पैर पटकने लगती। मुन्नी उसके पास जाकर उसे पुच-पुच करती। विनय बेबी की उमर का था। बेबी उसकी किताब फाड़ देती। वह मारने लपकता। दोनों गुत्थमगुत्था हो जाते। बड़ी मुश्किल से उन्हें छुड़ाया जाता। कभी-कभी विनय और बेबी के बीच ज्ञान-प्रतियोगिता होती। श्याम टीचर बन जाता। हाथ में फुटरूलर लेकर वह पूछता—
‘‘वॉट इज़ यौर नेम?
‘‘वॉट इज़ यौर फादर्स नेम?’’
‘‘वॉट इज़ यौर मदर्ज नेम?’’
‘‘वेयर डू यू लिव?’’
‘‘वेयर इज़ यौर नोज़?’’
‘‘वेयर आर यौर आईज़?’’
‘‘वेयर आर यौर टीथ?’’
‘‘वेयर आर यौर इयर्ज?’’
इस प्रतियोगिता में बेबी थोड़ा चकरा जाती। उसे अँग्रेज़ी का ज्या दा ज्ञान नहीं था। वह विनय को देखकर अपनी नाक, कान, आँख को हाथ लगाती जाती।
श्याम पास-फेल घोषित करता, ‘‘विनय फस्र्ट, बेबी फेल।’’
‘‘ऊँ ऊँ ऊँ’’ बेबी रोती और पैर पटकती। सब बच्चे उसे चिढ़ाते, ‘‘तेरा नाम प्रतिभा नहीं पपीता है। ए पपीता इधर आ?’’
बेबी दौडक़र इन्दु की गोद में लिपट जाती, ‘‘मम्मी अपने घर चलो, भइया गन्दा।’’
इस बार सुरेश घर आया तो इन्दु ने कहा, ‘‘सुरेश मुझे यहाँ छोडक़र तू तो भूल ही गया कि बहन को वापस भी ले जाना है।’’
सुरेश हँसा, ‘‘नहीं, भूला नहीं। मैंने तो सोचा वहाँ काम में खटती हो, ज़रा आराम कर लो।’’
‘‘नहीं भैया, वहाँ जीजी को परेशानी हो रही होगी।’’
‘‘इन्दु जीजी मेरी मुसीबत यह है कि अगले हफ्ते मेरे इम्तहान शुरू हो रहे हैं। मैं एक भी दिन बरबाद नहीं कर सकता। कहो तो तुम्हें रेल में बैठा दूँ, वहाँ दादाजी उतार लेंगे।’’
‘‘क्या बताऊँ भैया, ससुराल में ऊँट कौन करवट बैठे किसे क्या पता, इसी बात में किल्ल-पौं न शुरू कर दें। ये भी दिल्ली में हैं, सो और मुश्किल।’’
एक-दो दिन दिमाग दौड़ाने में लग गये कि इन्दु वापस कैसे जाए। भाभियाँ ननद के जाने के प्रस्ताव से इतनी उत्साहित हो गयीं कि उन्होंने सेरों पकवान बना डाले। बच्चियों के लिए रेडीमेड फ्रॉकें आ गयीं ओर इन्दु के लिए ऑरगैंडी की साड़ी। इन्दु ने दबी जुबान से कहा, ‘‘दादाजी, जीजी और भग्गो के लिए कछू हो तो मैं सिर ऊँचा करके जाऊँ।’’ भाभियों ने दरियादिली दिखायी। सबके लिए धोती जोड़ा और कमीज़-जम्पर का इन्तज़ाम किया गया।
भाइयों के लिए दुकान छोडक़र जाना मुमकिन नहीं था। उन्होंने इन्दु को इंटर क्लास की टिकटें थमाकर कहा, ‘‘हमारी पहचान के श्यामसुन्दर मोदी इसी गाड़ी से मथुरा जा रहे हैं, वह तुम्हारी देखभाल कर लेंगे।’’
इन्दु ने एक नज़र उन्हें देखकर हाथ जोड़ दिये। वे ठिगने और अधेड़, सेठ किस्म के आदमी थे जो गाड़ी चलने के पहले ही अपनी बर्थ पर लेटकर ‘फिल्मी दुनिया’ पढ़ रहे थे।
इन्दु किसी भी तरह मथुरा पहुँचना चाहती थी। उसने भाइयों को चिन्तामुक्त किया, ‘‘आप फिकर न करें, खाना-पानी सब मेरे पास है। आप चलें, नमस्ते।’’
इंटर के डिब्बे में बहुत-थोड़े यात्री थे। एक पूरी बर्थ पर बेबी-मुन्नी और इन्दु बैठ गये। शाम चार बजे गाड़ी चली। इसका मथुरा पहुँचने का निर्धारित समय साढ़े छ: था। अक्सर यह लेट हो जाती थी। आखिर कितना लेट होगी, यही सोचकर इस गाड़ी को चुना गया था। फिर स्टेशन के इतनी पास घर होने से इसका भी डर नहीं था कि इन्दु घर कैसे पहुँचेगी? कोई-न-कोई घर से आ ही जाएगा। कितनी भी लद्धड़ हो, गाड़ी आखिर बढ़ तो मंजिल की ओर रही थी।
खिडक़ी से रह-रहकर कोयला आ रहा था।
मोदीजी लद्द से ऊपर से उतरे और उन्होंने एक झटके में खिडक़ी बन्द कर दी।
बेबी-मुन्नी चिल्लाने लगीं, ‘‘खिडक़ी खोलो, मम्मी खिडक़ी।’’
बौखलाकर मोदीजी ने खिडक़ी आधी खोल दी। बच्चों को सरकाकर वे इन्दु के पास बैठ गये।
इन्दु को यह बड़ी अभद्रता लगी। उसने अपना आप कुछ अधिक समेट लिया और आत्मस्थ होकर बैठ गयी। मोदीजी ने बातचीत की पहल की, ‘‘आपके घर में कौन-कौन हैं?’’
‘‘पूरा परिवार है।’’ इन्दु ने कहा।
‘‘लालचरण बता रहा था इन बच्चियों के बाप तो दिल्ली में रहते हैं।’’
‘‘इससे क्या, घर तो उन्हीं का है।’’
‘‘आपको तो बड़ी परेशानी होती होगी। यहाँ सास का चंगुल, वहाँ उनके ऊपर अनजान औरतों का।’’
‘‘सास तो मेरी माँ जैसी है।’’ इन्दु ने कहा और अपनी जगह से उठकर बच्चों के पास खिडक़ी से लगकर बैठ गयी। बेबी रोने लगी, ‘‘हम खिडक़ी पर बैठेंगे।’’
इन्दु ने बेबी को गोद ले लिया।
मोदीजी ने मुन्नी को पुचकारा, ‘‘आजा बेटा चाचा की गोदी।’’
मुन्नी घबराकर माँ से चिपक गयी।
ऊपर से इन्दु शान्त मुद्रा में, खिडक़ी से बाहर नज़र टिकाये थी। अन्दर उसका दिल धड़धड़ा रहा था। डिब्बे में चढ़ते हुए उसने देखा था उसमें मुश्किल से सात-आठ मुसाफिर थे। उसे लग रहा था कहीं ये सब बीच के स्टेशन भरतपुर पर उतर गये तो वह क्या करेगी। उसने सोचा अगर अब यह आदमी कोई हरकत करेगा तो वह चलती गाड़ी से कूद पड़ेगी। उसका रुख देखकर मोदीजी सामने की बर्थ पर चले गये। लेकिन इन्दु को लग रहा था कि वे ‘फिल्मी कलियाँ’ पढऩे के बहाने उसी के चेहरे पर नज़र गड़ाये हुए हैं।
इन्दु को सुरेश पर गुस्सा आया। साथ आ जाता तो कोई फेल नहीं हो जाता। कुछ ही घंटों की बात थी। उसी दिन लौट जाता।
बेबी इन्दु को हिला-हिलाकर पूछ रही थी, ‘‘मम्मी, मम्मी, भैया मुझे भूतनी क्यों कहता है?’’
इन्दु ने बेबी को चूम लिया, ‘‘हम भैया को मारेंगे। हमारी बेबी तो रानी बेटी है, भूतनी नहीं है।’’
कालीचरण ने विदा के समय इन्दु को काफी रुपये शगुन के तौर पर दिये थे। इन्दु ने बहुत मना किया, ‘‘रहने दो भैया, पहले ही तुम्हारा बहुत ख़र्च हो गया।’’
कालीचरण की आँखें पनिया गयीं। उन्हें लगा अपनी इस छोटी बहन को उन्होंने कुछ भी तो नहीं दिया। माँ की मौत पर इन्दु आयी नहीं थी सो दोनों बहुओं ने सास का सारा गहना कपड़ा आपस में बन्दरबाँट कर लिया। क़ायदे से उसमें इन्दु का हक़ बनता था। लालचरण ने बहुत-सी दवाओं की पुडिय़ाँ दीं। कहने लगा, ‘‘रख लो, बच्चोंवाला घर है, हारी-बीमारी में काम आएँगी। हरेक पुडिय़ा पर बीमारी का नाम लिखा है।’’
अब इन्दु ने रूमाल खोलकर देखा, दवाओं के अलावा सौ के तीन नोट और दस-दस के दो-तीन नोट थे। तीन सिक्के एक रुपये के थे। इनके अलावा सलूनो के दिन भी चारों भाइयों ने सौ-सौ का पत्ता उसे दिया था। बेबी-मुन्नी को अलग मिले थे।
दवाइयाँ थैले में डालकर इन्दु ने रुपयों को रूमाल में लपेटकर ब्लाउज़ के अदर रख लिया।
मुन्नी निंदासी हो रही थी। इन्दु ने बेबी को गोद से उतारकर मुन्नी को थाम लिया।
बच्चे इस समय इन्दु के लिए झंझट भी बने थे और कवच भी। उसने सोचा बच्चे साथ न होते, तब यह आदमी लम्पटपना दिखाता तो वह खींचकर एक रैपटा लगाती। ज्याउदा कुछ करता तो वह चलती गाड़ी से कूद जाती पर इन अबोध बच्चों का वह क्या करे जो उसके बिना एक पल भी नहीं रह सकते। पति की अनुपस्थिति में इन्हीं में उसका दिल लगा रहता। उसे लगता ये उसके सजीव खिलौने हैं।
गाड़ी बिना अटके मथुरा पहुँच गयी। इन्दु को इतनी उतावली थी कि वह पहले से ही मुन्नी को गोद में सँभाले खड़ी हो गयी।
बेबी ने उसकी साड़ी पकड़ते हुए कहा, ‘‘मम्मी सामान!’’
धीमी होती गाड़ी से इन्दु ने प्लेटफॉर्म पर नज़र दौड़ाई। लाला नत्थीमल, बिल्लू-गिल्लू का हाथ थामे खड़े हुए थे। उसने हाथ हिलाया। उसे इतनी सुरक्षा की भावना कभी नहीं मिली थी जितनी इस समय मिली। उसके उतरते ही, पास खड़ा छिद्दू लपककर डिब्बे से उसका सामान उतार लाया। बेबी-मुन्नी को बिल्लू-गिल्लू ने कसकर पकड़ लिया। वे भी भैया-भैया कहने लगीं। लाला नत्थीमल बहू-बच्चों को देखकर खिल गये। छिद्दू से बोले, ‘‘सामान भारी हो तो कुली कर लो।’’
छिद्दू ने बक्सा ख़ुद पकड़ा, डोलची बिल्लू को पकड़ाई और थैला कन्धे पर टाँगने की कोशिश करने लगा।
इन्दु पलटकर देखने लगी कि उसका रक्षक-भक्षक कहाँ पर है। मोदीजी का कहीं नामनिशान भी नहीं था। गाड़ी रुकते ही वे उलटी दिशा में चल पड़े थे।
लाला नत्थीमल ने ख़ुशी में एक कुली रोका और सारा सामान उसके सिर पर लदवा दिया। छिद्दू ने बेबी को गोदी उठा लिया। मुन्नी माँ के पास जाने को मचल रही थी। उसे दादाजी ने घपची में भरकर उठा लिया, ‘‘इधर आ मेरा लटूरबाबा, मैं तोय गोदी लूँ।’’
बिल्लू ने कहा, ‘‘मामी हमारे लिए का लाई हो?’’
इन्दु बड़ी असमंजस में पड़ी। उसे ख़बर ही नहीं थी कि लीला बीबी जी यहीं पर हैं।
इन्दु ने उसका हाथ थामकर कहा, ‘‘तूने तो बताया ही नहीं, क्या लाती। मैं तो तेरे लिए खूब-सी दालमोठ, पेठा और मठरी लायी हूँ।’’
बिल्लू मामी का हाथ डुलाता हुआ बोला, ‘‘जे तो मोय बहुत भाये है।’’ सबके पहुँचने पर सारा परिवार बैठक में आ गया। विद्यावती की आँखें चमक उठीं, ‘‘आ गयी इन्दु, सँभारौ अपनी गिरस्ती। इत्ते दिना को चली गयी। जे नईं सोची कि जीजी का का होगा।’’
इन्दु ने उनके पाँव पड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे तो जीजी, आपका ध्यान रोज आता रहा।’’
इन्दु ने डोलची खोलकर सब पकवान निकालकर रख दिये।
फैनी, घेवर, पेठा, दालमोठ, मठरी के साथ-साथ शक्करपारे, पुए और बेसन के सेव भी थे।
अब उसने बक्सा खोलकर सास-ससुर और भगवती के कपड़े निकाले।
लीला ने कहा, ‘‘मेरे लिए कछू नायँ आयौ।’’
इन्दु बोली, ‘‘बीबीजी उन्हें खबर होती आप यहाँ पर हैं तो जरूर भेजते।’’
‘‘हम कहीं रहैं, हैं तो हम याई घर के।’’
‘‘बीबीजी, आप मेरी धोती ले लो।’’ इन्दु ने अपनी साड़ी निकालकर लीला को दी।
‘‘देखा कैसी सुलच्छनी है मेरी बहू, अपनी तीयल नन्द को थमा रही है।’’
लीला ने साड़ी वापस करते हुए कहा, ‘‘रख ले इन्दु, मैं तो हँसी कर रही थी। मैं अब पहर-ओढक़र कहाँ जाऊँगी?’’
लीला के चेहरे पर दुख की छाया आकर चली गयी।
इन्दु ने कहा, ‘‘बीबीजी ऐसे क्यों सोचती हैं, अभी आपकी उमर ही क्या है! कल को ननदेऊजी आ जाएँगे, सब ठीक हो जाएगा।’’
थोड़ी देर सब पर चुप्पी छा गयी।
तभी बेबी और गिल्लू एक-दूसरे के पीछे दौड़ते आये। बेबी के हाथ में सेलखड़ी का छोटा-सा ताजमहल था। गिल्लू ताजमहल हाथ में लेकर देखना चाहता था। ‘मेरा है, मेरा है’ कहकर बेबी उसे छीन रही थी। पता चला श्याम भैया ने बेबी को यह खिलौना दिया था।
बिल्लू बोला, ‘‘मुझे दिखाओ का है।’’
बेबी ने हाथ पीछे हटाया। गिल्लू ने पीछे हाथ बढ़ाया। बेबी के हाथ से ताजमहल छूट गया। ज़मीन पर गिरकर सेलखड़ी का ताजमहल चकनाचूर हो गया।
लाला नत्थीमल को गुस्सा आ गया। उन्होंने लपककर गिल्लू का कान पकड़ लिया, ‘‘तोड़ डारा न खिलौना, चैन पड़ गया तोय।’’
लीला का मुँह बन गया, ‘‘बासे नईं न टूटो, बेबी ने गिरायौ।’’
‘‘तू चुप रह लीली। बालक इसी तरह बिगड़ते हैं। बड़ी देर से ये पीछे पिलच रहा था।’’
‘‘बिना बाप का बालक है, जो मर्जी कर लो। याकी जान निकार लो।’’ लीला बोली।
विद्यावती ने पति को झिडक़ा, ‘‘बच्चों की बात में ना बोला करो।’’
‘‘क्यों न बोलें, छोरी अभी आयी अभी बाको खिलौना टूट गयौ।’’
लीला को यकायक चंडी चढ़ गयी। उसने गिल्लू को बाँह से पकड़ा और अपने कमरे की तरफ़ धमाधम मारते हुए कहती गयी, ‘‘मरते भी नहीं ससुरे, मेरी जान को छोड़ गये हैं मुसीबतें। कौन कुआँ में कूद जाऊँ मैं!’’
बिल्लू दीपक को लेकर कमरे में चला गया। घर में सन्नाटा खिंच गया।
इन्दु का जी अकुला गया। कितने चाव में वह घर लौटी थी।
ऐसा नहीं कि घर भर को लीला की व्यथा का अन्दाज़ा नहीं था। महीनों से मन्नालाल का कोई अता-पता नहीं था। अपनी तीन बच्चों से भरी गृहस्थी को वे कच्ची डोर से लटकता छोड़ जाने कहाँ धूनी रमा रहे थे। गुस्सा होता तो उतरता भी। यह तो सीधे-सीधे वैराग्य दिखाई दे रहा था, परिवार-विमुखता जिसमें दायित्वबोध का नकार था। उनके न होने से चक्की का काम भी ठप्प पड़ा था। जियालाल मनमर्जी करने लगा था। सुबह के घंटों में जब बिल्लू-गिल्लू स्कूल में होते, चक्की पर कोई काम ही न होता। लीला पूछताछ करती तो कहता, ‘‘सुबह-सुबह कनक के कनस्तर लेकर कौन निकरता है। चक्की का काम दुपहर-शाम की चीज है।’’
सरो के पेड़ जैसी अपनी लम्बी, सुन्दर बेटी लीला को देखकर विद्यावती के कलेजे से आह निकल जाती। वह सोचती लीला का कितना गलत विवाह हुआ है। बनिया जाति अपने बेमेल विवाहों के लिए ख़ासी मशहूर थी। यह बेमेल केवल आयु का नहीं गुणों का भी था। स्वजातीय विवाह करने के फेर में माँ-बाप अपनी भोली लडक़ी का रिश्ता किसी काइयाँ लडक़े से कर देते तो कोमल हृदया का कठोर वर से। कहीं लडक़ी दरियादिल होती तो लडक़ा कंजूस मक्खीचूस। कई बार ऐसा सम्बन्ध हो जाता कि लडक़ी अनपढ़ और लडक़ा उच्च शिक्षित। ऐसे दम्पति मन मारकर लोकलाज निभाने की खातिर एक छत के नीचे रहते पर उनके दाम्पत्य में दरार-ही-दरार होती। माता-पिता लड़कियों से सलाह लेना, उनकी मर्जी पूछना और मन टटोलना एकदम ग़ैरज़रूरी समझते। वे अपनी सुविधानुसार सम्बन्ध तय करते भले उसके बाद ब्याही हुई बेटी की उन्हें सारी जिन्दगी जिम्मेदारी उठानी पड़ती।
बहू-बेटियों के बारे में सोच-सोचकर विद्यावती का मन आँधी का पात बन जाता। कवि इतने महीनों से बाहर था। इन्दु कब तक सास-ससुर और बाल-बच्चों में मन लगाएगी, कहना मुश्किल था। उम्र का तकाज़ा था कि दोनों इकट्ठे रहते। कवि कॉलेज में पढ़ाता है। कहीं किसी से मन न मिला बैठे। तुकबन्दी करनेवाले आधे बावले होते हैं। कुन्ती ज़रूर अपने गिरस्त में रमी हुई लगती। कभी-कभार वह पोस्टकार्ड पर अपना समाचार भेज देती कि वह राज़ी-ख़ुशी है और भगवान से उनकी राज़ी-ख़ुशी मनाती है। भगवती पर पढऩे का शौक ऐसा चर्राया था कि कोई काम कहो, वह मुँह के आगे पोथी पसारकर बैठ जाती।
लीला के दस गुणों के बीच एक भारी दोष उसकी बेलगाम ज़ुबान थी। गुस्सा आ जाने पर वह न छोटा-बड़ा देखती न रिश्ता-नाता। बस, मुँह से लाल मिर्च उगलने लगती। उसकी इसी आदत के मारे उसकी ससुराल के लोगों ने उससे किनारा कर रखा था। कई पड़ोसिनें कहतीं, लाला नत्थीमल का स्वभाव इस लीला में ही उतर आया है, राजी रहे तो मक्खन मुलायम, नाराजी हो तो दुर्वासा दुबक जाएँ। बच्चों को कभी-कभी बेहद मार पड़ जाती पर वे भी न जाने कौन-सी मिट्टी के गढ़े थे कि चुपचाप पिट लेते, गालों पर आँसुओं के छापे लेकर सो जाते लेकिन जागने पर अपनी मैया की गोद में ही दुबकते।
इस वक्त भी बच्चे पिटने के बाद भूखे सो गये थे। दीपक को मार नहीं पड़ी पर वह सहमकर सो गया। लीला ने लालटेन की बत्ती बढ़ा दी और बच्चों के पास दुहरी होकर पड़ गयी। गुस्सा शान्त हो गया था लेकिन मन अशान्त था। अँधेरे मे उसे अपना पिछला-अगला समय जैसे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। उसे पछतावा हो रहा था कि माँ-बाप और भाभी के सामने उसने इतनी तीती बानी बोली। यही एक घर था जहाँ वह कभी भी बच्चों को लेकर आ जाती। इस वक्त उसका मन हो रहा था बच्चों को छूकर वह क़सम ले-ले कि कभी बिना सोचे-समझे मुँह नहीं खोलेगी। लेकिन उन बातों का क्या हो जो पहले ही उसकी ज़ुबान से निकल चुकी हैं। उसे बड़े तीखेपन से याद आया एक बार पहले भी पति से उसकी कहा-सुनी हुई थी। हुआ यह था कि लीला ने मन्नालाल और बच्चों के स्वेटर लक्स साबुन के चिप्स से धोकर सूखने के लिए आँगन की बड़ी चटाई पर फैलाये। सामने के घर का कुत्ता मोती पता नहीं कब स्वेटरों के ऊपर अपने गन्दे पैरों से गुज़र गया। जब लीला सूखते कपड़ों का मुआयना करने निकली उसने कुत्ते के पंजों के निशान देखे। वह समझ गयी यह काम मोती के सिवा और किसी का नहीं है। वह सोटी लेकर गली में निकली। मोती अपने घर के आसपास मँडरा रहा था। उसने इतनी कसकर सोटी मारी कि कुत्ता वहीं ढेर हो गया। गुस्से से फनफनाती लीला ने अपने घर आकर किवाड़ भड़ से बन्द कर लिये।
थोड़ी देर में गली में शोर मच गया—मोती को किसी जालिम ने मार डाला। बताओ सीधा-साधा जीव। जिसने मारा वह नरक जाएगा। और क्या!
मन्नालाल अन्दर बैठे सब सुन-देख रहे थे। उन्होंने लीला से कहा, ‘‘जीव-हत्या करके आयी हो। सिर से नहाओ तब कुछ छूना।’’
‘‘हम क्या जानबूझकर मारे हैं। उसने सारे स्वेटर बरबाद कर दिये वाई मारे हमें गुस्सा आ गयौ।’’
‘‘तुझे तो मेरे पे भी गुस्सा आतौ है। किसी दिन मोय भी मार डालेगी।’’
‘‘तुम्हारी जुबान भी क्या चीज है! तुम और मोती एक हो का?’’
‘‘दोनों जीव हैं। जो कोई ने तुझे देखा होगा तो अभाल पुलिस तुझे आय के पकड़ लेगी।’’
‘‘तुम तो हमेशा मेरा बुरा ही चाहो, मोय फाँसी चढ़ा दो, जाओ ढिंढोरा पीट दो।’’ कहते हुए लीला ने अपना सिर कूट डाला।
मन्नालाल बौखला गये, ‘‘हें हें लीली का कर रही हो, मैं तो यों ही कह रहा था।’’
पर लीला को होश कहाँ था। वह तो अपने आपको कूटे गयी जब तक घबराकर मन्नालाल घर से बाहर नहीं निकल गये।
मोती की मौत की बात तो किसी तरह दब गयी। थाना-कचहरी की नौबत नहीं आयी। पर मन्नालाल के निकल जाने की बात सुबह तक आग पकड़ गयी।
किसी ने कहा—उसने मन्नालाल को गली में भागते हुए देखा।
किसी ने कहा—जब मन्नालाल घर से निकले उनके पूरे बदन पर राख पुती हुई थी।
जितने मुँह उतनी बातें।
सबसे ज्यातदा परेशानी बच्चों को हुई। वे जब बाहर निकलते लोग उनसे च्-च् हमदर्दी जताते, ‘‘क्यों बेटा, तुम्हारे बाबू का कोई समाचार मिला। कब आय रहे हैं।’’
बच्चों के चुप रहने पर लोग कहते, ‘‘ये बच्चे अनाथ हो गये। बेचारे बाप का दिल टूट गया, अब क्या लौटेगा।’’
तब तो मन्नालाल तीसरे दिन पूर्णानन्द गिरिजी महाराज की पार्टी के संग नाचते-गाते, मजीरा बजाते लौट आये थे।
लौटते ही उन्होंने लीला से इक्कीस लोगों की रासमंडली का खाना बनवाया, पूड़ी, कचौड़ी, आलू की तरकारी, मुरायता और काशीफल का साग। रात तक लीला को इतनी साँस नहीं मिली कि पति से पूछ सके ‘तुम कहाँ चले गये थे? ऐसे भी कोई घरबार छोडक़र जाता है?’
अगले दिन मंडली को विदा देकर मन्नालाल ने अकेले पड़ते ही अपनी तर्जनी दिखाकर लीला को बरजा, ‘‘ख़बरदार जो कचर-कचर जबान चलायी। इस बार तो मैं बच्चन का खयाल करके आ गया, अबकी गया तो कभी इधर पलटूँगा भी नहीं।’’
लीला ख़ून और खलबलाहट का घूँट पीकर रह गयी।
आगरे के गोकुलपुरा में रहते हुए, कुछ दिन तो इन्दु और बेबी-मुन्नी का बहुत मन लगा। अगल-बगल होते हुए भी आगरे और मथुरा की सभ्यता, संस्कृति बिल्कुल अलग थी। घर की दिनचर्या भी भिन्न थी। फिर यहाँ इन्दु के ऊपर काम की अनिवार्यता और जिम्मेदारी नहीं थी। मन हुआ तो भाभी के साथ कपड़े धुलवा लिये, तरकारी कटवा दी, नहीं हुआ तो बच्चों को लेकर छत पर चली गयी।
इन्दु के चार भाई थे जिनमें से दो अभी पढ़ रहे थे। बड़े दो भाइयों ने यहाँ बीच बाज़ार में दवाओं की दुकान खोली थी ‘फ्रंटियर गुप्ता स्टोर’। बड़े भाई इंटर पास थे और छोटे भाई ने फ़ार्मेसी में डिप्लोमा किया था। पश्चिम पंजाब में अपना समृद्ध सराफ़ा व्यापार छोडक़र दवाओं की शीशी और गोलियों में मन लगाना आसान तो नहीं था पर उन्होंने अपनी सूझबूझ से बहुत जल्द व्यापार जमा लिया। कालीचरण और लालचरण को दवाओं की अच्छी जानकारी हो गयी। वे दवाओं के साथ आया साहित्य और निर्देश पुस्तिका ख़ूब ध्यान से पढ़ते। रोगी को दवा देते समय वे सलाह भी देते, ‘‘यह ख़ाली पेट खाना, यह दवा नाश्ते के बाद की है। इस दवा से ख़ुश्की हो जाती है, दूध ज़रूर पीना।’’
रोगी अभिभूत हो जाता। उसे लगता बिना फीस दिये यहाँ सेंत में डॉक्टर मिल जाता है। उन दोनों बड़े भाइयों को लोग डॉक्टर साहेब कहते। सुबह दुकान खुलने से पहले लालचरण पिछले कमरे में अक्सर खरल में अनेसिन और एस्प्रो की गोलियाँ पीसते और उनकी छोटी पुडिय़ा बना लेते। यह सिरदर्द, बदनदर्द की पुडिय़ा थी। इसका कागज़ सफेद रहता और हर पुडिय़ा पर नम्बर एक लिखा रहता। इसी तरह बैरालगन और बैलेडिनॉल की गोलियाँ पीसकर वे पीले कागज़ में पुडिय़ा बनाते जिन पर नम्बर दो लिखा रहता। यह पेटदर्द की पुडिय़ा थी। इन दो पुडिय़ों के चलते लालचरण ने बहुत यश और धन अर्जित किया। सीधे-सादे अनपढ़ ग्राहक उन्हें दो पुडिय़ा का जादूगर मानते। कालीचरण ने मिक्सचर बनाना सीख लिया था। उनके मिक्सचरों से खाँसी, जुकाम, बुख़ार और बदहज़मी ठीक हो जाती।
‘फ्रंटियर गुप्ता स्टोर’ की कमाई अच्छी थी। रात नौ बजे दोनों भाई जब दुकान बढ़ाकर लौटते उनकी जेबें नोटों और फुटकर पैसों से फूली रहतीं। सारा पैसा वे एक रूमाल पर उँड़ेलकर गिनते और कुछ रेजगारी रोककर बाकी पैसे रुपये तिजोरी में रखते जाते। यह रेजगारी वे बीवी-बच्चों में बाँट देते। उनके घर लौटने की बच्चे-बच्चे को प्रतीक्षा रहती। अक्सर माँ-बच्चों में बहस हो जाती। माएँ चाहतीं कि बच्चे अपनी रेज़गारी उनके पास जमा करें। बच्चे कहते, ‘पापा ने हमें दिये हैं, हम अपनी गुल्लक में डालेंगे।’
इन्दु के आने पर रेज़गारी में तीन हिस्से और बनने लगे। बड़े भाई कालीचरण इन्दु, बेबी, मुन्नी को भी पैसे देते। इन्दु निहाल हो जाती। भाई का प्यार और अपनापन वह अपनी आत्मा तक महसूस करती। लेकिन भाभियों के चेहरे कठिन हो जाते। प्रकट में कुछ न कहतीं लेकिन चौके में बैठ खुसर-पुसर करतीं कि बीबीजी जाने कब विदा होंगी!
कालीचरण, लालचरण की एक और आदत थी। रोज़ रात को वे मौसम की कोई-न-कोई खाने की चीज़ घर ज़रूर लाते। कभी लीची तो कभी खुबानी, कभी चैरी। इस तरह वे एबटाबाद के उन दिनों को वापस लौटाने की चेष्टा करते जब उन्होंने ये सब फल इफ़रात में देखे और खाये थे। दालमोठ और तले हुए काजू तथा सेम के बीज भी उन्हें पसन्द थे। फुर्सत के किसी छोटे-से हिस्से में लालचरण, पंछी या अग्रवाल हलवाई के यहाँ से ये नमकीन ख़रीदकर रख लेते। उन सबकी थाली जब परोसी जाती उसमें भोजन के साथ थोड़े-से काजू, सेमबिज्जी और दालमोठ ज़रूर रखी जाती। इन्दु के आने पर भाइयों को न जाने कब के भूले-बिसरे स्वाद याद आने लगे। कालीचरण कहते, ‘‘इन्दो तुझे पता है अम्माजी काँजी के बड़े कैसे बनाती थीं?’’
इन्दु इन दिनों बच्ची की तरह चहक रही थी, ‘‘हाँ भैया, मैं ही तो दाल पीसती थी। इमामदस्ते में राई कूटना, मर्तबान में तले हुए बड़े और पानी डालना सब मेरे काम थे। अम्माजी से उठा-बैठा कहाँ जाता था।’’
‘‘ये भाभी और रुक्मिणी बनाती हैं पर वह स्वाद नहीं आता।’’ लालचरण कहते।
भाभियाँ तन जातीं। रुक्मिणी अपनी बैठी आवाज़ में प्रतिवाद करती, ‘‘चाहे कित्ता भी अच्छा बना दो, ये तो यही कहेंगे कि अम्माजी जैसा नहीं बना।’’
‘‘कोई तो कसर रह जावे है।’’ लालचरण कहते।
‘‘भाभी आप मर्तबान में हींग का धुआँ देती हैं कि नहीं।’’ इन्दु पूछती।
‘‘हम तो हींग, पिट्ठी में डालते हैं।’’
‘‘वह तो सभी डालते हैं। मर्तबान में हींग की ख़ुशबू ज़रूर होनी चाहिए। उसी से बड़ों में स्वाद आता है।’’
‘‘हमें तो पता ही नायँ मर्तबान में हींग कैसे मली जाय!’’
‘‘वह लो। सीधी-सी बात है। बलता हुआ अंगारा चिमटे से उठाकर साफ जमीन पर रखो। उसके ऊपर हींग की छोटी डली डालो। इसके ऊपर मर्तबान मूँदा मार दो। पाँच मिनट वैसे ही पड़ा रहने दो। अब मर्तबान उठाकर जल्दी से उसके मुँह पर ढक्कन बन्द करो। पाँच मिनट बाद ढक्कन खोलकर मनमर्जी अचार डाल लो।’’
‘‘बीबीजी आपैई डाल के जाना काँजी के बड़े। हमपे तो होवे ना इत्ती पंचायत।’’
कालीचरण ने अनुज पत्नी को डाँट दिया, ‘‘इन्दु के मत्थे मढ़ दिया काम, तुम कुछ सीखोगी कि गँवार ही बनी रहोगी।’’
‘‘देखेंगे कै रोज बहन खिलाएगी!’’ कहकर दोनों भाभियाँ सामने से हट गयीं।
इन्दु को एहसास हुआ कि भाभियाँ बुरा मान गयीं। उसने अस्फुट स्वर में कहा, ‘‘भैया आप भी क्या ले बैठते हो। अम्माजी गयीं, उनके साथ ही कितनी सारी चीज़ें चली गयीं, किस-किसको याद करोगे!’’
देखा जाए तो वे सब लडक़पन के स्वाद थे जिनमें उत्तर-पश्चिम पंजाब सीमान्त का हवा-पानी और माँ का हाथ शामिल था। गहनों के क़ारोबार की समृद्धि जीवन के हर पहलू में झलकती। एबटाबाद में माँ के हाथ की बनी गुच्छी की रसेदार तरकारी इतनी लज़ीज़ होती कि चाहे कितनी भी बने थोड़ी पड़ जाती। तीनों भाई-बहन उसे बोटी की सब्ज़ी कहते। रसे में डूबकर गुच्छियाँ फूल जातीं। उन्हें चूस-चूसकर स्वाद लेने में सामिष भोजन का आनन्द आता।
इसी तरह से मेथी-दाने की खटमिट्ठी चटनी, खरबूज़े के बीज और काली मिर्च की तिनगिनी केवल यादें बनकर रह गयी थीं।
इन्दु ने देखा आजकल दोनों भाभियाँ उससे कम बोलतीं। आपस में उनकी बातचीत पूर्ववत् चलती। उसके आने पर वे चुपचाप चौके के काम में लग जातीं।
बच्चों में कोई दूरी नहीं थी। बड़े भाई के तीनों बेटे श्याम, रवि और विनय और छोटे भाई का बेटा सुशील, बेबी-मुन्नी के साथ मिलकर धमा-चौकड़ी मचाते। चोर-सिपाही खेलते हुए श्याम, बेबी के बालों का रिबन खींचकर खोल देता। उसके बाल बिखर जाते। तब वह उसे चिढ़ाता ‘भूतनी आ गयी, भूतनी देखो।’ बेबी पैर पटकने लगती। मुन्नी उसके पास जाकर उसे पुच-पुच करती। विनय बेबी की उमर का था। बेबी उसकी किताब फाड़ देती। वह मारने लपकता। दोनों गुत्थमगुत्था हो जाते। बड़ी मुश्किल से उन्हें छुड़ाया जाता। कभी-कभी विनय और बेबी के बीच ज्ञान-प्रतियोगिता होती। श्याम टीचर बन जाता। हाथ में फुटरूलर लेकर वह पूछता—
‘‘वॉट इज़ यौर नेम?
‘‘वॉट इज़ यौर फादर्स नेम?’’
‘‘वॉट इज़ यौर मदर्ज नेम?’’
‘‘वेयर डू यू लिव?’’
‘‘वेयर इज़ यौर नोज़?’’
‘‘वेयर आर यौर आईज़?’’
‘‘वेयर आर यौर टीथ?’’
‘‘वेयर आर यौर इयर्ज?’’
इस प्रतियोगिता में बेबी थोड़ा चकरा जाती। उसे अँग्रेज़ी का ज्या दा ज्ञान नहीं था। वह विनय को देखकर अपनी नाक, कान, आँख को हाथ लगाती जाती।
श्याम पास-फेल घोषित करता, ‘‘विनय फस्र्ट, बेबी फेल।’’
‘‘ऊँ ऊँ ऊँ’’ बेबी रोती और पैर पटकती। सब बच्चे उसे चिढ़ाते, ‘‘तेरा नाम प्रतिभा नहीं पपीता है। ए पपीता इधर आ?’’
बेबी दौडक़र इन्दु की गोद में लिपट जाती, ‘‘मम्मी अपने घर चलो, भइया गन्दा।’’
इस बार सुरेश घर आया तो इन्दु ने कहा, ‘‘सुरेश मुझे यहाँ छोडक़र तू तो भूल ही गया कि बहन को वापस भी ले जाना है।’’
सुरेश हँसा, ‘‘नहीं, भूला नहीं। मैंने तो सोचा वहाँ काम में खटती हो, ज़रा आराम कर लो।’’
‘‘नहीं भैया, वहाँ जीजी को परेशानी हो रही होगी।’’
‘‘इन्दु जीजी मेरी मुसीबत यह है कि अगले हफ्ते मेरे इम्तहान शुरू हो रहे हैं। मैं एक भी दिन बरबाद नहीं कर सकता। कहो तो तुम्हें रेल में बैठा दूँ, वहाँ दादाजी उतार लेंगे।’’
‘‘क्या बताऊँ भैया, ससुराल में ऊँट कौन करवट बैठे किसे क्या पता, इसी बात में किल्ल-पौं न शुरू कर दें। ये भी दिल्ली में हैं, सो और मुश्किल।’’
एक-दो दिन दिमाग दौड़ाने में लग गये कि इन्दु वापस कैसे जाए। भाभियाँ ननद के जाने के प्रस्ताव से इतनी उत्साहित हो गयीं कि उन्होंने सेरों पकवान बना डाले। बच्चियों के लिए रेडीमेड फ्रॉकें आ गयीं ओर इन्दु के लिए ऑरगैंडी की साड़ी। इन्दु ने दबी जुबान से कहा, ‘‘दादाजी, जीजी और भग्गो के लिए कछू हो तो मैं सिर ऊँचा करके जाऊँ।’’ भाभियों ने दरियादिली दिखायी। सबके लिए धोती जोड़ा और कमीज़-जम्पर का इन्तज़ाम किया गया।
भाइयों के लिए दुकान छोडक़र जाना मुमकिन नहीं था। उन्होंने इन्दु को इंटर क्लास की टिकटें थमाकर कहा, ‘‘हमारी पहचान के श्यामसुन्दर मोदी इसी गाड़ी से मथुरा जा रहे हैं, वह तुम्हारी देखभाल कर लेंगे।’’
इन्दु ने एक नज़र उन्हें देखकर हाथ जोड़ दिये। वे ठिगने और अधेड़, सेठ किस्म के आदमी थे जो गाड़ी चलने के पहले ही अपनी बर्थ पर लेटकर ‘फिल्मी दुनिया’ पढ़ रहे थे।
इन्दु किसी भी तरह मथुरा पहुँचना चाहती थी। उसने भाइयों को चिन्तामुक्त किया, ‘‘आप फिकर न करें, खाना-पानी सब मेरे पास है। आप चलें, नमस्ते।’’
इंटर के डिब्बे में बहुत-थोड़े यात्री थे। एक पूरी बर्थ पर बेबी-मुन्नी और इन्दु बैठ गये। शाम चार बजे गाड़ी चली। इसका मथुरा पहुँचने का निर्धारित समय साढ़े छ: था। अक्सर यह लेट हो जाती थी। आखिर कितना लेट होगी, यही सोचकर इस गाड़ी को चुना गया था। फिर स्टेशन के इतनी पास घर होने से इसका भी डर नहीं था कि इन्दु घर कैसे पहुँचेगी? कोई-न-कोई घर से आ ही जाएगा। कितनी भी लद्धड़ हो, गाड़ी आखिर बढ़ तो मंजिल की ओर रही थी।
खिडक़ी से रह-रहकर कोयला आ रहा था।
मोदीजी लद्द से ऊपर से उतरे और उन्होंने एक झटके में खिडक़ी बन्द कर दी।
बेबी-मुन्नी चिल्लाने लगीं, ‘‘खिडक़ी खोलो, मम्मी खिडक़ी।’’
बौखलाकर मोदीजी ने खिडक़ी आधी खोल दी। बच्चों को सरकाकर वे इन्दु के पास बैठ गये।
इन्दु को यह बड़ी अभद्रता लगी। उसने अपना आप कुछ अधिक समेट लिया और आत्मस्थ होकर बैठ गयी। मोदीजी ने बातचीत की पहल की, ‘‘आपके घर में कौन-कौन हैं?’’
‘‘पूरा परिवार है।’’ इन्दु ने कहा।
‘‘लालचरण बता रहा था इन बच्चियों के बाप तो दिल्ली में रहते हैं।’’
‘‘इससे क्या, घर तो उन्हीं का है।’’
‘‘आपको तो बड़ी परेशानी होती होगी। यहाँ सास का चंगुल, वहाँ उनके ऊपर अनजान औरतों का।’’
‘‘सास तो मेरी माँ जैसी है।’’ इन्दु ने कहा और अपनी जगह से उठकर बच्चों के पास खिडक़ी से लगकर बैठ गयी। बेबी रोने लगी, ‘‘हम खिडक़ी पर बैठेंगे।’’
इन्दु ने बेबी को गोद ले लिया।
मोदीजी ने मुन्नी को पुचकारा, ‘‘आजा बेटा चाचा की गोदी।’’
मुन्नी घबराकर माँ से चिपक गयी।
ऊपर से इन्दु शान्त मुद्रा में, खिडक़ी से बाहर नज़र टिकाये थी। अन्दर उसका दिल धड़धड़ा रहा था। डिब्बे में चढ़ते हुए उसने देखा था उसमें मुश्किल से सात-आठ मुसाफिर थे। उसे लग रहा था कहीं ये सब बीच के स्टेशन भरतपुर पर उतर गये तो वह क्या करेगी। उसने सोचा अगर अब यह आदमी कोई हरकत करेगा तो वह चलती गाड़ी से कूद पड़ेगी। उसका रुख देखकर मोदीजी सामने की बर्थ पर चले गये। लेकिन इन्दु को लग रहा था कि वे ‘फिल्मी कलियाँ’ पढऩे के बहाने उसी के चेहरे पर नज़र गड़ाये हुए हैं।
इन्दु को सुरेश पर गुस्सा आया। साथ आ जाता तो कोई फेल नहीं हो जाता। कुछ ही घंटों की बात थी। उसी दिन लौट जाता।
बेबी इन्दु को हिला-हिलाकर पूछ रही थी, ‘‘मम्मी, मम्मी, भैया मुझे भूतनी क्यों कहता है?’’
इन्दु ने बेबी को चूम लिया, ‘‘हम भैया को मारेंगे। हमारी बेबी तो रानी बेटी है, भूतनी नहीं है।’’
कालीचरण ने विदा के समय इन्दु को काफी रुपये शगुन के तौर पर दिये थे। इन्दु ने बहुत मना किया, ‘‘रहने दो भैया, पहले ही तुम्हारा बहुत ख़र्च हो गया।’’
कालीचरण की आँखें पनिया गयीं। उन्हें लगा अपनी इस छोटी बहन को उन्होंने कुछ भी तो नहीं दिया। माँ की मौत पर इन्दु आयी नहीं थी सो दोनों बहुओं ने सास का सारा गहना कपड़ा आपस में बन्दरबाँट कर लिया। क़ायदे से उसमें इन्दु का हक़ बनता था। लालचरण ने बहुत-सी दवाओं की पुडिय़ाँ दीं। कहने लगा, ‘‘रख लो, बच्चोंवाला घर है, हारी-बीमारी में काम आएँगी। हरेक पुडिय़ा पर बीमारी का नाम लिखा है।’’
अब इन्दु ने रूमाल खोलकर देखा, दवाओं के अलावा सौ के तीन नोट और दस-दस के दो-तीन नोट थे। तीन सिक्के एक रुपये के थे। इनके अलावा सलूनो के दिन भी चारों भाइयों ने सौ-सौ का पत्ता उसे दिया था। बेबी-मुन्नी को अलग मिले थे।
दवाइयाँ थैले में डालकर इन्दु ने रुपयों को रूमाल में लपेटकर ब्लाउज़ के अदर रख लिया।
मुन्नी निंदासी हो रही थी। इन्दु ने बेबी को गोद से उतारकर मुन्नी को थाम लिया।
बच्चे इस समय इन्दु के लिए झंझट भी बने थे और कवच भी। उसने सोचा बच्चे साथ न होते, तब यह आदमी लम्पटपना दिखाता तो वह खींचकर एक रैपटा लगाती। ज्याउदा कुछ करता तो वह चलती गाड़ी से कूद जाती पर इन अबोध बच्चों का वह क्या करे जो उसके बिना एक पल भी नहीं रह सकते। पति की अनुपस्थिति में इन्हीं में उसका दिल लगा रहता। उसे लगता ये उसके सजीव खिलौने हैं।
गाड़ी बिना अटके मथुरा पहुँच गयी। इन्दु को इतनी उतावली थी कि वह पहले से ही मुन्नी को गोद में सँभाले खड़ी हो गयी।
बेबी ने उसकी साड़ी पकड़ते हुए कहा, ‘‘मम्मी सामान!’’
धीमी होती गाड़ी से इन्दु ने प्लेटफॉर्म पर नज़र दौड़ाई। लाला नत्थीमल, बिल्लू-गिल्लू का हाथ थामे खड़े हुए थे। उसने हाथ हिलाया। उसे इतनी सुरक्षा की भावना कभी नहीं मिली थी जितनी इस समय मिली। उसके उतरते ही, पास खड़ा छिद्दू लपककर डिब्बे से उसका सामान उतार लाया। बेबी-मुन्नी को बिल्लू-गिल्लू ने कसकर पकड़ लिया। वे भी भैया-भैया कहने लगीं। लाला नत्थीमल बहू-बच्चों को देखकर खिल गये। छिद्दू से बोले, ‘‘सामान भारी हो तो कुली कर लो।’’
छिद्दू ने बक्सा ख़ुद पकड़ा, डोलची बिल्लू को पकड़ाई और थैला कन्धे पर टाँगने की कोशिश करने लगा।
इन्दु पलटकर देखने लगी कि उसका रक्षक-भक्षक कहाँ पर है। मोदीजी का कहीं नामनिशान भी नहीं था। गाड़ी रुकते ही वे उलटी दिशा में चल पड़े थे।
लाला नत्थीमल ने ख़ुशी में एक कुली रोका और सारा सामान उसके सिर पर लदवा दिया। छिद्दू ने बेबी को गोदी उठा लिया। मुन्नी माँ के पास जाने को मचल रही थी। उसे दादाजी ने घपची में भरकर उठा लिया, ‘‘इधर आ मेरा लटूरबाबा, मैं तोय गोदी लूँ।’’
बिल्लू ने कहा, ‘‘मामी हमारे लिए का लाई हो?’’
इन्दु बड़ी असमंजस में पड़ी। उसे ख़बर ही नहीं थी कि लीला बीबी जी यहीं पर हैं।
इन्दु ने उसका हाथ थामकर कहा, ‘‘तूने तो बताया ही नहीं, क्या लाती। मैं तो तेरे लिए खूब-सी दालमोठ, पेठा और मठरी लायी हूँ।’’
बिल्लू मामी का हाथ डुलाता हुआ बोला, ‘‘जे तो मोय बहुत भाये है।’’ सबके पहुँचने पर सारा परिवार बैठक में आ गया। विद्यावती की आँखें चमक उठीं, ‘‘आ गयी इन्दु, सँभारौ अपनी गिरस्ती। इत्ते दिना को चली गयी। जे नईं सोची कि जीजी का का होगा।’’
इन्दु ने उनके पाँव पड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे तो जीजी, आपका ध्यान रोज आता रहा।’’
इन्दु ने डोलची खोलकर सब पकवान निकालकर रख दिये।
फैनी, घेवर, पेठा, दालमोठ, मठरी के साथ-साथ शक्करपारे, पुए और बेसन के सेव भी थे।
अब उसने बक्सा खोलकर सास-ससुर और भगवती के कपड़े निकाले।
लीला ने कहा, ‘‘मेरे लिए कछू नायँ आयौ।’’
इन्दु बोली, ‘‘बीबीजी उन्हें खबर होती आप यहाँ पर हैं तो जरूर भेजते।’’
‘‘हम कहीं रहैं, हैं तो हम याई घर के।’’
‘‘बीबीजी, आप मेरी धोती ले लो।’’ इन्दु ने अपनी साड़ी निकालकर लीला को दी।
‘‘देखा कैसी सुलच्छनी है मेरी बहू, अपनी तीयल नन्द को थमा रही है।’’
लीला ने साड़ी वापस करते हुए कहा, ‘‘रख ले इन्दु, मैं तो हँसी कर रही थी। मैं अब पहर-ओढक़र कहाँ जाऊँगी?’’
लीला के चेहरे पर दुख की छाया आकर चली गयी।
इन्दु ने कहा, ‘‘बीबीजी ऐसे क्यों सोचती हैं, अभी आपकी उमर ही क्या है! कल को ननदेऊजी आ जाएँगे, सब ठीक हो जाएगा।’’
थोड़ी देर सब पर चुप्पी छा गयी।
तभी बेबी और गिल्लू एक-दूसरे के पीछे दौड़ते आये। बेबी के हाथ में सेलखड़ी का छोटा-सा ताजमहल था। गिल्लू ताजमहल हाथ में लेकर देखना चाहता था। ‘मेरा है, मेरा है’ कहकर बेबी उसे छीन रही थी। पता चला श्याम भैया ने बेबी को यह खिलौना दिया था।
बिल्लू बोला, ‘‘मुझे दिखाओ का है।’’
बेबी ने हाथ पीछे हटाया। गिल्लू ने पीछे हाथ बढ़ाया। बेबी के हाथ से ताजमहल छूट गया। ज़मीन पर गिरकर सेलखड़ी का ताजमहल चकनाचूर हो गया।
लाला नत्थीमल को गुस्सा आ गया। उन्होंने लपककर गिल्लू का कान पकड़ लिया, ‘‘तोड़ डारा न खिलौना, चैन पड़ गया तोय।’’
लीला का मुँह बन गया, ‘‘बासे नईं न टूटो, बेबी ने गिरायौ।’’
‘‘तू चुप रह लीली। बालक इसी तरह बिगड़ते हैं। बड़ी देर से ये पीछे पिलच रहा था।’’
‘‘बिना बाप का बालक है, जो मर्जी कर लो। याकी जान निकार लो।’’ लीला बोली।
विद्यावती ने पति को झिडक़ा, ‘‘बच्चों की बात में ना बोला करो।’’
‘‘क्यों न बोलें, छोरी अभी आयी अभी बाको खिलौना टूट गयौ।’’
लीला को यकायक चंडी चढ़ गयी। उसने गिल्लू को बाँह से पकड़ा और अपने कमरे की तरफ़ धमाधम मारते हुए कहती गयी, ‘‘मरते भी नहीं ससुरे, मेरी जान को छोड़ गये हैं मुसीबतें। कौन कुआँ में कूद जाऊँ मैं!’’
बिल्लू दीपक को लेकर कमरे में चला गया। घर में सन्नाटा खिंच गया।
इन्दु का जी अकुला गया। कितने चाव में वह घर लौटी थी।
ऐसा नहीं कि घर भर को लीला की व्यथा का अन्दाज़ा नहीं था। महीनों से मन्नालाल का कोई अता-पता नहीं था। अपनी तीन बच्चों से भरी गृहस्थी को वे कच्ची डोर से लटकता छोड़ जाने कहाँ धूनी रमा रहे थे। गुस्सा होता तो उतरता भी। यह तो सीधे-सीधे वैराग्य दिखाई दे रहा था, परिवार-विमुखता जिसमें दायित्वबोध का नकार था। उनके न होने से चक्की का काम भी ठप्प पड़ा था। जियालाल मनमर्जी करने लगा था। सुबह के घंटों में जब बिल्लू-गिल्लू स्कूल में होते, चक्की पर कोई काम ही न होता। लीला पूछताछ करती तो कहता, ‘‘सुबह-सुबह कनक के कनस्तर लेकर कौन निकरता है। चक्की का काम दुपहर-शाम की चीज है।’’
सरो के पेड़ जैसी अपनी लम्बी, सुन्दर बेटी लीला को देखकर विद्यावती के कलेजे से आह निकल जाती। वह सोचती लीला का कितना गलत विवाह हुआ है। बनिया जाति अपने बेमेल विवाहों के लिए ख़ासी मशहूर थी। यह बेमेल केवल आयु का नहीं गुणों का भी था। स्वजातीय विवाह करने के फेर में माँ-बाप अपनी भोली लडक़ी का रिश्ता किसी काइयाँ लडक़े से कर देते तो कोमल हृदया का कठोर वर से। कहीं लडक़ी दरियादिल होती तो लडक़ा कंजूस मक्खीचूस। कई बार ऐसा सम्बन्ध हो जाता कि लडक़ी अनपढ़ और लडक़ा उच्च शिक्षित। ऐसे दम्पति मन मारकर लोकलाज निभाने की खातिर एक छत के नीचे रहते पर उनके दाम्पत्य में दरार-ही-दरार होती। माता-पिता लड़कियों से सलाह लेना, उनकी मर्जी पूछना और मन टटोलना एकदम ग़ैरज़रूरी समझते। वे अपनी सुविधानुसार सम्बन्ध तय करते भले उसके बाद ब्याही हुई बेटी की उन्हें सारी जिन्दगी जिम्मेदारी उठानी पड़ती।
बहू-बेटियों के बारे में सोच-सोचकर विद्यावती का मन आँधी का पात बन जाता। कवि इतने महीनों से बाहर था। इन्दु कब तक सास-ससुर और बाल-बच्चों में मन लगाएगी, कहना मुश्किल था। उम्र का तकाज़ा था कि दोनों इकट्ठे रहते। कवि कॉलेज में पढ़ाता है। कहीं किसी से मन न मिला बैठे। तुकबन्दी करनेवाले आधे बावले होते हैं। कुन्ती ज़रूर अपने गिरस्त में रमी हुई लगती। कभी-कभार वह पोस्टकार्ड पर अपना समाचार भेज देती कि वह राज़ी-ख़ुशी है और भगवान से उनकी राज़ी-ख़ुशी मनाती है। भगवती पर पढऩे का शौक ऐसा चर्राया था कि कोई काम कहो, वह मुँह के आगे पोथी पसारकर बैठ जाती।
लीला के दस गुणों के बीच एक भारी दोष उसकी बेलगाम ज़ुबान थी। गुस्सा आ जाने पर वह न छोटा-बड़ा देखती न रिश्ता-नाता। बस, मुँह से लाल मिर्च उगलने लगती। उसकी इसी आदत के मारे उसकी ससुराल के लोगों ने उससे किनारा कर रखा था। कई पड़ोसिनें कहतीं, लाला नत्थीमल का स्वभाव इस लीला में ही उतर आया है, राजी रहे तो मक्खन मुलायम, नाराजी हो तो दुर्वासा दुबक जाएँ। बच्चों को कभी-कभी बेहद मार पड़ जाती पर वे भी न जाने कौन-सी मिट्टी के गढ़े थे कि चुपचाप पिट लेते, गालों पर आँसुओं के छापे लेकर सो जाते लेकिन जागने पर अपनी मैया की गोद में ही दुबकते।
इस वक्त भी बच्चे पिटने के बाद भूखे सो गये थे। दीपक को मार नहीं पड़ी पर वह सहमकर सो गया। लीला ने लालटेन की बत्ती बढ़ा दी और बच्चों के पास दुहरी होकर पड़ गयी। गुस्सा शान्त हो गया था लेकिन मन अशान्त था। अँधेरे मे उसे अपना पिछला-अगला समय जैसे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। उसे पछतावा हो रहा था कि माँ-बाप और भाभी के सामने उसने इतनी तीती बानी बोली। यही एक घर था जहाँ वह कभी भी बच्चों को लेकर आ जाती। इस वक्त उसका मन हो रहा था बच्चों को छूकर वह क़सम ले-ले कि कभी बिना सोचे-समझे मुँह नहीं खोलेगी। लेकिन उन बातों का क्या हो जो पहले ही उसकी ज़ुबान से निकल चुकी हैं। उसे बड़े तीखेपन से याद आया एक बार पहले भी पति से उसकी कहा-सुनी हुई थी। हुआ यह था कि लीला ने मन्नालाल और बच्चों के स्वेटर लक्स साबुन के चिप्स से धोकर सूखने के लिए आँगन की बड़ी चटाई पर फैलाये। सामने के घर का कुत्ता मोती पता नहीं कब स्वेटरों के ऊपर अपने गन्दे पैरों से गुज़र गया। जब लीला सूखते कपड़ों का मुआयना करने निकली उसने कुत्ते के पंजों के निशान देखे। वह समझ गयी यह काम मोती के सिवा और किसी का नहीं है। वह सोटी लेकर गली में निकली। मोती अपने घर के आसपास मँडरा रहा था। उसने इतनी कसकर सोटी मारी कि कुत्ता वहीं ढेर हो गया। गुस्से से फनफनाती लीला ने अपने घर आकर किवाड़ भड़ से बन्द कर लिये।
थोड़ी देर में गली में शोर मच गया—मोती को किसी जालिम ने मार डाला। बताओ सीधा-साधा जीव। जिसने मारा वह नरक जाएगा। और क्या!
मन्नालाल अन्दर बैठे सब सुन-देख रहे थे। उन्होंने लीला से कहा, ‘‘जीव-हत्या करके आयी हो। सिर से नहाओ तब कुछ छूना।’’
‘‘हम क्या जानबूझकर मारे हैं। उसने सारे स्वेटर बरबाद कर दिये वाई मारे हमें गुस्सा आ गयौ।’’
‘‘तुझे तो मेरे पे भी गुस्सा आतौ है। किसी दिन मोय भी मार डालेगी।’’
‘‘तुम्हारी जुबान भी क्या चीज है! तुम और मोती एक हो का?’’
‘‘दोनों जीव हैं। जो कोई ने तुझे देखा होगा तो अभाल पुलिस तुझे आय के पकड़ लेगी।’’
‘‘तुम तो हमेशा मेरा बुरा ही चाहो, मोय फाँसी चढ़ा दो, जाओ ढिंढोरा पीट दो।’’ कहते हुए लीला ने अपना सिर कूट डाला।
मन्नालाल बौखला गये, ‘‘हें हें लीली का कर रही हो, मैं तो यों ही कह रहा था।’’
पर लीला को होश कहाँ था। वह तो अपने आपको कूटे गयी जब तक घबराकर मन्नालाल घर से बाहर नहीं निकल गये।
मोती की मौत की बात तो किसी तरह दब गयी। थाना-कचहरी की नौबत नहीं आयी। पर मन्नालाल के निकल जाने की बात सुबह तक आग पकड़ गयी।
किसी ने कहा—उसने मन्नालाल को गली में भागते हुए देखा।
किसी ने कहा—जब मन्नालाल घर से निकले उनके पूरे बदन पर राख पुती हुई थी।
जितने मुँह उतनी बातें।
सबसे ज्यातदा परेशानी बच्चों को हुई। वे जब बाहर निकलते लोग उनसे च्-च् हमदर्दी जताते, ‘‘क्यों बेटा, तुम्हारे बाबू का कोई समाचार मिला। कब आय रहे हैं।’’
बच्चों के चुप रहने पर लोग कहते, ‘‘ये बच्चे अनाथ हो गये। बेचारे बाप का दिल टूट गया, अब क्या लौटेगा।’’
तब तो मन्नालाल तीसरे दिन पूर्णानन्द गिरिजी महाराज की पार्टी के संग नाचते-गाते, मजीरा बजाते लौट आये थे।
लौटते ही उन्होंने लीला से इक्कीस लोगों की रासमंडली का खाना बनवाया, पूड़ी, कचौड़ी, आलू की तरकारी, मुरायता और काशीफल का साग। रात तक लीला को इतनी साँस नहीं मिली कि पति से पूछ सके ‘तुम कहाँ चले गये थे? ऐसे भी कोई घरबार छोडक़र जाता है?’
अगले दिन मंडली को विदा देकर मन्नालाल ने अकेले पड़ते ही अपनी तर्जनी दिखाकर लीला को बरजा, ‘‘ख़बरदार जो कचर-कचर जबान चलायी। इस बार तो मैं बच्चन का खयाल करके आ गया, अबकी गया तो कभी इधर पलटूँगा भी नहीं।’’
लीला ख़ून और खलबलाहट का घूँट पीकर रह गयी।