दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

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Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 14:31

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दिल्ली के घर भी क्या घर। कोठरियाँ बनाम कमरे और कमरे बनाम बरामदे। एक तरफ़ दीवार में जड़ी हुई आलमारियाँ, दूसरी तरफ़ सडक़ की ओर खुलनेवाली कतारबद्ध खिड़कियाँ। खिड़कियों की नीचाई और सडक़ पर चलते आदमियों की ऊँचाई में अद्भुत तालमेल, कुछ ऐसा कि बेसाख्ता अन्दरवालों की आँख बाहर और बाहरवालों की आँख अन्दर टिकी रहे। न न पर्दे कैसे लगाए जा सकते हैं, घर में हवा का एकमात्र रास्ता हैं ये खिड़कियाँ, हवा और मनोरंजन का। जिन्होंने पर्दे लगा रखे हैं, वे भी सरके ही रहते हैं। भला हो विद्युत-व्यवस्था का, खिडक़ी-दरवाज़े, दिन-रात खुले रखने पड़ते हैं, चोरी और गर्मी, इन दोनों आशंकाओं की भिड़न्त में गर्मी हर बार जीतती है।

दिल्ली—एक नगर। नगर में कितने नगर—रूपनगर, कमलानगर, प्रेमनगर, शक्तिनगर, मौरिसनगर, किदवईनगर, विनयनगर, सन्तनगर, देवनगर, लक्ष्मीबाई नगर। मज़ा यह कि कोई चाहे कितनी भी दूर रहता हो, बसों में धक्के-मुक्के खाता अपने दफ्तर पहुँचता हो, उसे मुग़ालता यही रहता है कि वह दिल्ली में रहता है। जब गाँव-कस्बे से उसके रिश्तेदार मेहमान बनकर आते हैं वह उन्हें प्रदर्शनी दिखाता है, लाल किला और बुद्धजयन्ती पार्क घुमाता है, और एक के बाद एक टूटते दस-दस के नोट देखते हुए दिन गिनता है कि मेहमान कब जाएँ और वह वापस अपनी पटरी पर फिर बैठ जाए—दफ्तर से घर, घर से दफ्तर। सच पूछो तो दिल्ली का मतलब है दस-पाँच नेताओं की दिल्ली। दिल्ली की असली मलाई बस वही चाट रहे हैं, बाकी सारे घास काट रहे हैं।

कवि ने अपने इकलौते कमरे का इकलौता दरवाज़ा बन्द किया और ताला डालने की रस्म पूरी की। यह ताला किसी भी चाभी से खोला जा सकता है। है तो किसी उम्दा कम्पनी का पर जब से कवि ने होश सँभाला इसे घर में इस्तेमाल होते देखा। घिस-घिसकर चिकना लोहे का बट्टा जैसा हो गया है। जीजी ने यह ताला और इस जैसी कई कंडम चीज़ें उसे भेंट कर दीं जब वह मथुरा से चला। ताला बदलने का इरादा रोज़ करता है कवि, पर ताला ख़रीदने की बात उसे हास्यास्पद लगती है। पहले उसे कुछ ऐसा सामान ख़रीदना होगा जो ताले का औचित्य साबित कर सके।

कवि रोज़ रात दस बजे के बाद घर लौटता है। तब वह इतना थका होता है कि कई बार बिना कपड़े बदले, बिना चादर झाड़े, बिना बत्ती बुझाए तुरन्त सो जाता है। कमरे की बदरंग दीवारें, घिसी चादर, तिडक़े प्लेट-प्याले और टूटा स्टोव उसे सिर्फ तब नज़र आते हैं जब कोई दोस्त अचानक छुट्टी के रोज़ चला आता है। काम के बाद वह कॉफ़ी-हाउस चला जाता है। वहाँ शोर का एक अंश बनना उसे अच्छा लगता है, सिगरेट पीना भी और कभी-कभार कॉफ़ी। इन तीनों चीज़ों की तासीर ऐसी है कि इनके रहते भूख महसूस नहीं होती, न अकेलापन, न उदासी।

वह इन तीनों में से दो से हमेशा घबराता आया है। वह न अकेलापन बर्दाश्त कर सकता है न उदासी। कई बार सुबह चार-पाँच बजे के बीच मकान-मालकिन की नवजात लडक़ी के रोने से उसकी नींद टूटी है और फिर देर तक उसे नींद नहीं आयी है। अपनी बेबी-मुन्नी याद आने लगी हैं। कवि अपने आसपास के घरों की प्रारम्भिक आवाज़ें सुनता है—दूधवालों की साइकिलों की खडख़ड़ाहट, महरियों की खटखट, किसी-न-किसी घर या मन्दिर से अखंडपाठ की रटंत, बूढ़ों के गलों की खर्राहट। हर आवाज़ के साथ आराम एक असम्भव प्रक्रिया बन जाता। कहीं पड़ोस की युवा गृहणी का बिन्दी पुँछा चेहरा दिख जाता तो गज़ब अकेलापन, उदासी और सन्त्रास उसे दबोच लेते। ऐसे मौकों पर इन्दु की याद इतने ज़ोर से आती कि उसे लगता वह भागता हुआ मथुरा लौट जाए। इसीलिए कवि को ऐसे दिन पसन्द हैं जब वह सुबह आठ बजे उठे और उठते ही कॉलेज जाने की हड़बड़ी हो जाए।

कॉलेज के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि एक बार इसके परिसर में दाखिल हो जाओ, शेष जगत और जीवन की परेशानियाँ भुला दी जाती हैं। एक ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व यहाँ इतना कामयाब होता है कि उतनी देर अपना असली व्यक्तित्व सामने ही नहीं आता। कवि अभी नया है इसलिए कोई उसके साथ ज्या दा आत्मीय नहीं हो पाया है। कक्षाओं के विद्यार्थी ज़रूर उसके पढ़ाने के ढंग से उसकी ओर खिंचे हैं। कॉमर्स, इकनॉमिक्स और एकाउंट्स की नीरस पढ़ाई से उकताकर वे जब इंग्लिश का पाठ्यक्रम देखते हैं वह उन्हें प्रिय लगता है। पढ़ाते हुए बीच-बीच में कविताओं के अंश उद्धृत करना कवि का शौक है। इससे व्याख्यान में ताज़गी बनी रहती है और विद्यार्थी एकाग्र रहते हैं।

दरियागंज में आवास की समस्त सम्भावनाएँ टटोलने के बाद ही कविमोहन ने कूचापातीराम में यह आधा कमरा लेने की मजबूरी स्वीकार की। दरियागंज प्रकाशकों, मुद्रकों और कागज़ के थोक विक्रेताओं का इलाक़ा है। किसी ज़माने में यहाँ पिछवाड़े की गलियों में जनता रहती थी। अब तो इसके चप्पे-चप्पे में व्यवसाय का जाल फैला हुआ है। यथार्थवादी लोगों ने यहाँ तलघर भी बना लिये हैं जो बिजली के भरोसे जगमगाते रहते हैं।

अपने विभाग के अब्दुल राशिद के साथ वह दरियागंज के सामने की गली का चक्कर भी लगा आया। चितली कबर यों तो देखने में ऐसी लगती थी जैसी शहर की कोई भी गली। इस लम्बी और सँकरी गली में रहना और कमाना साथ-साथ चलता था। छोटे दरवाज़ों वाले ऐसे मकान थे जो बड़े सहन में खुलते और कई मंजिला साफ़-सुथरा ढाँचा नज़र आता। अब्दुल राशिद हर जगह कहते, ‘‘बड़ी बी, इन्हें सिर छुपाने की जगह दरकार है। माशाअल्ला शादीशुदा हैं, बाल-बच्चे वाले हैं, जो किराया आप वाजिब ठहराएँगी, दे देंगे। मेरे साथ ही कॉमर्स कॉलेज में तालीम देते हैं।’’ बड़ी बी कहलाई जानेवाली महिला कोई जर्जर, उम्रदराज़ ऐसी औरत होती जो हालात से हिली होती। वह कानों को हाथ लगाकर कहती, ‘‘लाहौल बिला कूवत, बेटा देखते नहीं, क्या तो माहौल है दिल्ली का। कल को अगर किसी दंगाई ने आकर इन्हें कतल कर दिया तो मैं क़यामत के रोज़ किसे मुँह दिखाऊँगी।’’ एक और बड़ी बी ने कहा, ‘‘इनसे कहो, पुरानी दिल्ली के मोहल्लों में मकान तलाश करें। यहाँ तो आदमजात का भरोसा नहीं।’’

कविमोहन मन-ही-मन डर गया। उसने मकान के बाहर दुकानों में जरी और रेशम की ताराक़शी होते देखी और सोचा, ‘यहाँ न रहना ही अच्छा है। मुल्क़ के हालात की सबसे ज्या दा तपिश यहीं पहुँची लगती है।’

इसी तरह भटकते-भटकते वह चाँदनी चौक पहुँच गया। यहाँ बाज़ार एकदम रौशन था। ऐसा लगता था कुल दिल्ली यहीं उमड़ आयी है। एक ख़ास बात उसने यह देखी कि कपड़ों की दुकानों के शोकेस में साड़ी के साथ फ्रॉक या स्कर्ट-ब्लाउज़ का मॉडल ज़रूर सजा था। एक तरफ़ अँग्रेज़ों को मुल्क़ से बाहर कर देने का संकल्प था तो दूसरी तरफ़ उनसे व्यापार की उम्मीद। दरीबा कलाँ की चकाचौंध बस देखते बनती थी। कविमोहन के मन में चाह हुई कि कुछ महीनों बाद वह यहाँ इन्दु को साथ लाकर सोने की अँगूठी दिलाये। उसने आज तक इन्दु को कोई उपहार नहीं दिया था। चाँदनी चौक मुख्य बाज़ार था जिसके दायें-बायें मशहूर गलियाँ फूटती थीं। हर गली के नुक्कड़ पर खाने-पीने की कोई-न-कोई दुकान। चाट की दुकानों की भरमार थी। पानी के बताशे कई किस्म के मिलते, आटे के, सूजी के, हर्र के और सोंठ के गोलगप्पे। इसी तरह यहाँ आलू टिकिया सेंकने के अलग अन्दाज़ थे। कविमोहन को यहाँ आकर बुआ की याद ने सताया। उसे ग्लानि हुई कि इतने महीनों में उसने सिर्फ एक बार बुआ को याद किया। घंटेवाले हलवाई से उसने एक सेर सोहनहलवा पैक करवाया और फतहपुरी की तरफ़ बढ़ गया।

24

फतहपुरी के घर 13/39 में गज़ब गहमागहमी थी। मकान की पुताई हो रही थी। कई मज़दूर लगे हुए थे।

फूफाजी ने उसे देखते ही कहा, ‘‘अच्छा हुआ तुम आ गये। हम यही सोच रहे थे कवि को किसके हाथ कहाँ खबर भेजें। पता तो तुमने छोड़ा नहीं!’’

‘‘क्या ख़ुशख़बरी है?’’ कवि ने पूछा।

जवाब बुआ ने दिया, ‘‘तुम्हारे छोटे भाई लड्डू का ब्याह तय हो गया है। लडक़ीवालों ने माँगकर रिश्ता लिया है। साड़ी के ब्यौपारी हैं। कहते हैं लड्डू को कपड़े का ब्यौपार खुलवाएँगे। चलो रोज की खिचखिच से जान छूटेगी उसकी।’’

‘‘लडक़ी कैसी है?’’

‘‘वह तो हमने देखी नायँ। नाऊ ने बताया साच्छात फूलकुमारी है। पान खाय तो गले में पीक का निशान देख लो। उमर बस इक्कीस। लड्डू तो छब्बीस उलाँककर सत्ताईस में पड़ गयौ।’’

‘‘बुआ एक नज़र खुद डाल लेतीं लडक़ी पर तो अच्छा था।’’

‘‘लो बोलो, नाऊ हर हफ्ते पचासों बयाह करावै। वह क्या झूठ बोलेगा। तू अपनी नीयत बता। बरात में चलेगौ कि नायँ।’’

‘‘जरूर चलूँगौ, मेरे भाई का ब्याह है।’’

फूफाजी खुश हो गये। अचानक उनके चेहरे पर उदासी के बादल घिर आये, ‘‘मथुरा से बस यही भर रिश्ता बचा है कवि। दादाजी से हमें कोई उम्मीद नायँ कि वो आवेंगे या जीजी को भेज देंगे।’’

‘‘उन्हें ख़बर की?’’

‘‘हाँ, सबसे पहले! वहाँ से इक्कीस रुपये का मनीऑर्डर आया। फॉर्म के नीचे लिखा था ‘‘दुकान छोडक़र आना मुश्किल है। बेटे की शादी की बधाई लो।’’

कवि को अन्दर-ही-अन्दर एक अव्यक्त सुख मिला। कम-से-कम पिता ने पारिवारिक औपचारिकता तो निभायी।

‘‘मेरा काम क्या रहेगा, फूफाजी आप अभी बता दें।’’

‘‘बेटा तुम्हारे जिम्मे हमारे पढ़े-लिखे बराती रहेंगे। किसको क्या चाहिए, कैसे आएगा, सब तुम्हारे जिम्मे। मैं विमला से कह दूँगा, तुम्हें फिज़ूल के कामों में न फँसाये।’’

कुछ दिन के लिए फूफाजी के मकान की दशा बिल्कुल बदल गयी। जमादार सुबह-शाम मकान के आगे और पिछवाड़े झाड़ू लगाता रहा। बचनी धोबन रोज़ सुबह आकर कपड़े पछाड़ जाती। फिर भी बुआ के सामने कामों का अम्बार लगा था।

सबसे बड़ा काम था नीचे ड्योढ़ी में फाटक लगने का। फाटक वर्षों पहले गलकर टूट गया था। तब से ड्योढ़ी छाबड़ीवालों, खोमचेवालों और ठेलेवालों की आम रिहाइश बन गयी थी। खुली, खाली जगह देखकर छोटे-छोटे फेरीवाले यहीं टिककर सुस्ताते। बहती सडक़ और बाज़ार होने के कारण, यहीं उनकी फुटकर बिक्री भी होती रहती। फूफाजी को ये सब लोग आते-जाते सलाम कर देते, इसके अलावा और कोई लेन-देन नहीं था। शुरू में जब एक-दो दुकानदारों ने वहाँ बैठना शुरू किया था, फूफाजी ने सोचा चलो अच्छा है, मकान की चौकीदारी रहेगी। देखते-देखते यहाँ खोमचे और छाबड़ीवालों का ठिकाना ही बन गया। अपने घर का ज़ीना चढऩे के लिए भी परेशानी होने लगी। फाटक लगाने का इरादा तो कई बार किया। ड्योढ़ी की दोनों तरफ़ की दीवार में ज़ंग खाये मज़बूत कुन्दे अभी भी लटके दिख जाते थे। लेकिन बुआ का पूरा परिवार कमाई की जद्दोजहद में इस काम के लिए फुर्सत नहीं निकाल पाया।

‘‘इस काम में तो काफी खर्च आएगा?’’ कवि ने कहा।

‘‘लडक़ीवालों ने वरिच्छा में इक्कीस सौ रुपये चढ़ाये हैं, कुछ मेरे पास धरे हैं, फाटक लगने से समझो, मकान की शान बन जाएगी।’’ बुआ ने कहा।

परिवार का हौसला अन्त तक बना रहा। फाटक लग गया, वार्निश हो गयी, नया निवाड़ का पलंग आ गया, मकान की पुताई, दरवाज़ों का रंग-रोगन सब पूरा हो गया। वही घर अब कुछ बड़ा और कायदे का लगने लगा।

ऐसा तभी तक था जब तक कम्मो का सामान नहीं आया था। लड्डू की बहू कामिनी के साथ विदाई की बेला में सिर्फ एक बक्सा और एक आलमारी आयी। दोनों सामान लड्डू के कमरे में स्थापित कर दिये गये। फिर शुरू हुआ दहेज का सामान भेजने का सिलसिला तो कमरे छोड़ दालान और बरामदा भी भर गये, सामान ख़त्म न हुआ। गहने-कपड़े तो पहले ही, बक्से में आ चुके थे। अब गृहस्थी का बाकी सरंजाम आया। सर्दी-गर्मी के अलग बिस्तर, खाने, पकाने के अलग-अलग नाप के बर्तन, पंखा, रेडियो, साइकिल, यहाँ तक कि स्टोव और अँगीठी भी भेजी गयी। नरोत्तम अग्रवाल ने बार-बार मना किया कि गृहस्थी का कुल सामान उनके यहाँ इफ़रात में है पर कम्मो के पिता और चाचा नहीं माने।

आखिरकार रहस्य का उद्घाटन इस प्रकार हुआ जिसके लिए विमला बुआ और नरोत्तम फूफा तैयार नहीं थे। विजेन्द्र गिरधारी चक्रधारी साड़ी भंडार में बैठकर काम समझने लग गया था। उसके आने से कम्मो के पिता गिरधारी और चाचा चक्रधारी को आराम हो गया था। घर का आदमी पाँच ओपरे आदमियों पर भारी पड़ता है। फिर विजेन्द्र की नज़र और बुद्धि तेज़ थी। वह इशारे से बात समझता। ग्राहकों से बात करना, गल्ले का मिलान और दुकान बढ़ाना ऐसे काम थे जिनमें गिरधारी और चक्रधारी कई बार चकरा जाते। दोनों के ही परिवार में बेटा नहीं था, हाँ बेटियों की भरमार थी।

एक दिन विजेन्द्र ने कहा, ‘‘माँ मुझे दुकान बढ़ाते-बढ़ाते दस बज जाते हैं। मन तो करता है वहीं लुढक़कर सो रहूँ। तुम्हारी फिकर में गिरते-पड़ते घर आ जाता हूँ। यहाँ कम्मो के आने से घिचपिच भी बहुत हो गयी है।’’

माँ ने कहा, ‘‘नहीं, बहू से क्या घिचपिच।’’

‘‘तुम्हारी राजी हो तो मैं वहीं रह लिया करूँ। दुकान के ऊपर, छत पर बहुत बढिय़ा दो कमरों का सैट खाली पड़ा है, चौका, गुसलखाना सब है वहाँ।’’

माँ को पहले बात की गम्भीरता समझ नहीं आयी। उसने कहा, ‘‘मुँह खोलकर उन लोगों से माँगना पड़ेगा। वे पहले ही इत्ता देकर घर भर चुके हैं।’’

लड्डू के मुँह से औचक निकल गया, ‘‘वे तो शुरू से कह रहे हैं, यहीं आकर रहो, इसे अपना ही समझो।’’ माँ सन्न रह गयी। बेटा जाएगा तो बहू भी यहाँ क्यों रहेगी!

अब उसे समझ आया कि उसके बेटे को घर-जमाई बनाया जा रहा है।

नरोत्तम और विमला ने बेटे को समझाने के सभी जतन किये। विजेन्द्र ने कहा, ‘‘मैं कहीं दूर थोड़ेई जा रहा हूँ। जब तुम्हारा जी चाहे आ जाना।’’

कामिनी तो जैसे तैयार ही बैठी थी। जिस रफ्तार से उसका सारा सामान फतहपुरी आया उससे दस गुनी रफ्तार से सब वापस चाँदनी चौक चला गया। कमरे खाली लगने लगे। कम्मो ने सास-ससुर के पाँव छूते हुए कहा, ‘‘जीजी हम आते रहेंगे, आप कोई फिकर न करें।’’

Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 14:32

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आगरे की तरह दिल्ली में भी कविमोहन का कविता-प्रेम बरक़रार था। उसके अन्दर ऊर्जा और ऊष्मा का विस्फोट शब्दों में होता। तब जो भी कागज़ उसके सामने आता उस पर वह अपनी कविता टाँक देता। उसे शेक्सपियर का नायक ऑर्लेंडो याद आ जाता जो अपनी कविताएँ लिखकर पेड़ों पर लटका देता था। कविमोहन डायरी के पृष्ठों पर, अख़बार के कागज़ों पर, चीनी के लिफ़ाफों पर, कहीं भी अपने काव्योच्छ्वास लिख डालता। कॉलेज लायब्रेरी में उसे पत्रिकाओं की जानकारी मिल जाती। उसने दो पत्रिकाओं में अपनी एक-एक कविता भेजी। एक तो तत्काल वापस आ गयी। दूसरी तीन माह बाद छप गयी। कविमोहन को आश्चर्य और आह्लालाद की अनुभूति हुई। छपने पर कवि उसे कई बार पढ़ गया। यह रचना कागज़ से पहले उसके मन के पृष्ठों पर कई बार लिखी जा चुकी थी। कविता इस प्रकार थी—

होने सवार ज्यों बढ़े चरण

चमका एड़ी का गौर वर्ण

कर नमस्कार, कुछ नमित वदन

जब मुड़ीं हो गये रक्त कर्ण।

चल दी गाड़ी घर घर घर घर

खिंचता ही गया सनेह-तार

धानी साड़ी फर फर फर फर

उड़-उडक़र दीखी बार-बार

पल भी न लगा सब क्लान्त शान्त

मैं खड़ा देखता निर्निमेष,

लो फिर सुलगा यह प्राण प्रान्त,

बस प्लेटफॉर्म की टिकट शेष।’’

कॉलेज के हिन्दी-विभाग की गोष्ठी में कविमोहन ने अपनी इस सद्य:-प्रकाशित कविता का सस्वर पाठ किया तो वहाँ ज़लज़ला आ गया। लड़कियों ने घोषणा की कि प्रेम की स्थिति की यह सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। वे कवि की प्रेरणा का स्रोत जानना चाहती थीं। कवि अपनी छात्राओं से उतना खुला हुआ नहीं था। होता तो वह कहता जो तुम समझ रही हो यह वैसी अनुभूति नहीं है। कविमोहन ने जीवन की पाठशाला में पहला प्रेम का पाठ इन्दु के ज़रिये ही पढ़ा था। दूर रहते हुए उसके लिए पत्नी ही प्रेयसी थी जिसे सम्बोधित कर वह कभी उत्तप्त तो कभी सन्तप्त कविता लिखा करता। यह अजीब लेकिन सत्य था कि जब कवि घर से दूर रहता तो घर उसके बहुत क़रीब रहता। घर उसकी धमनियों में ख़ून की तरह सनसनाता। घर से दूर उसे न पिता गलत लगते न माँ। भग्गो और बेबी-मुन्नी में भी उसे ब्रह्मंड नज़र आता। लेकिन घर के पास फटकते ही समस्त अपवाद, ऐतराज़, अवरोध और असहमतियाँ एक-एक कर सिर उठातीं और वह भन्ना जाता कि अब छुट्टियों में भी वह घर नहीं आया करेगा। इन्दु का भुनभुनाना, बड़बड़ाना उसे दाम्पत्य से विमुख करने लगता। तब उसे कूचापातीराम का वह अँधेरा, अधूरा कमरा ज्याधदा आत्मीय और अपना लगता जहाँ बैठ वह हफ्ते में छह-सात कविताएँ रच लेता।

कुहेली भट्टाचार्य यों तो अँग्रेज़ी विभाग में कविमोहन की सहकर्मी थी लेकिन कवि को सुनने वह हिन्दी-विभाग में आ जाती। हिन्दी-विभाग के प्राध्यापक उसे हिन्दी-प्रेमी के रूप में पहचानते थे। कैम्पस पर सब उसे कुहू कहते थे। कुहू का छोटा भाई देवाशीष इंग्लिश में कमज़ोर था। पढ़ाई के लिए वह कुहू के हाथ के नीचे आता नहीं था। भट्टाचार्य परिवार चाहता था कि देवाशीष अँग्रेज़ी में पारंगत हो जाए तो ख़ानदान की इज्ज़त बची रहे। पिता डॉ. आनन्दशंकर भट्टाचार्य ने कहा, ‘‘देख लेना देवू अगर तुम अँग्रेज़ी नहीं पढ़े तो दर-दर की ठोकरें खाओगे। बांग्ला किस्से-कहानियाँ पढऩे से नौकरी नहीं मिलेगी।’’

देवाशीष मार्लो के उबाऊ नाटक ‘डॉ. फॉस्टस’ के ऊपर शरत्बाबू का ‘श्रीकान्त’ रखकर पढ़ता रहता।

कुहू ने कविमोहन से आग्रह किया, ‘‘आप बस देवू के अन्दर पढ़ाई के लिए लगन पैदा कर दीजिए, आगे का काम मैं सँभाल लूँगी।’’

‘‘मैं तो अब ट्यूशन करता नहीं।’’

‘‘आप गलत समझे। आपसे ट्यूशन करने को कौन कह रहा है। हफ्ते में एक बार आकर उसकी दिलचस्पी देख-सुन जाइए।’’

‘‘आप उसी के स्कूल का कोई टीचर क्यों नहीं ढूँढ़तीं।’’

‘‘टीचर यह काम नहीं कर सकता। आप उसे सही प्रेरणा देंगे, मुझे भरोसा है।’’

‘‘देखूँगा। कह नहीं सकता कब आऊँ।’’

कविमोहन ने प्रसंग टाल तो दिया पर मन से निकाल नहीं पाया। अपने पर थोड़ा घमंड भी हुआ। इतने कम समय में वह छात्रों का प्रिय शिक्षक बन गया था। कॉलेज में वह छात्रों से घिरा रहता। कॉलेज में पिकनिक रखी जाती तो हर क्लास का आग्रह होता कवि उनके साथ चले। शहर में कोई नयी किताब चर्चित होती तो छात्र उस पर कविमोहन की राय जानना चाहते।

स्टाफ़-रूम में युवा प्रवक्ताओं के बीच बहस छिड़ी हुई थी। राशिद, किसलय और कुहू इस बात पर अड़े हुए थे कि पंडित नेहरू हमारे देश के लिए गाँधी से ज्याहदा ज़रूरी हैं। कविमोहन और सुनील सेठी का कहना था महात्मा गाँधी न होते तो नेहरू भी न होते। पंडित नेहरू के लिए स्वाधीन भारत का स्वप्न गाँधीजी ने ही साकार कर दिखाया।

राशिद बोला, ‘‘कुछ भी कहो, गाँधीजी घनघोर इम्प्रेक्टिकल तो रहे हैं। उन्होंने पार्टिशन के लिए हाँ न भरी होती तो इतनी मारकाट और हिंसा जो हुई वह न होती।’’

उसके यह कहते ही कविमोहन उत्तेजित हो गया, ‘‘किसने कहा पार्टिशन महात्माजी का विचार था! तुम अख़बार नहीं पढ़ते, रेडियो नहीं सुनते या तुम एकदम ठस्स हो।’’

राशिद बुरा मान गया, ‘‘माइंड यौर लेंग्वेज। मैं अख़बार भी पढ़ता हूँ और रेडियो भी सुनता हूँ। कौन नहीं जानता कि गाँधी और जिन्ना के बीच डैडलॉक (गतिरोध) की वजह से ही पार्टिशन हुआ। आज जो पंजाब और सिन्ध से लुटे-पिटे लोगों के काफिले दिल्ली पहुँच रहे हैं उसने इस आज़ादी को भी धूल चटा दी है।’’

कुहू ने उसे टोका, ‘‘आपकी बात राजनीतिक हो सकती है, इतिहास-सिद्ध नहीं है। हमारे देश के टुकड़े गाँधी-जिन्ना डैडलॉक से नहीं बल्कि अँग्रेज़ों की फूट डालो, राज करो नीति के कारण हुए। आप जो आज इतनी आसानी से बापू के खिलाफ़ बोल रहे हैं, यह हक़ भी आपको बापू की उदारता ने ही दिया है। यह उन्हीं का फ़ैसला था कि आप यहाँ नज़र आ रहे हैं।’’

किसलय ने कहा, ‘‘यह सारी बातचीत ऑफ द मार्क हो रही है। बहस का मुद्दा गाँधी-नेहरू था न कि गाँधी-जिन्ना। विभाजन हम सबके लिए एक सेंसिटिव इश्यू है। हम जानते हैं गाँधीजी ने जिन्ना से इतनी मुलाक़ातें सिर्फ इसलिए कीं ताकि विभाजन रोका जा सके। कौन चाहता है कि उसके देश का नक्शा रातोंरात छोटा हो जाए। फिर अपने मुल्क में रह रहे ज्या दातर मुसलिमों के पूर्वज हिन्दू थे। उन्होंने हिन्दू धर्म त्याग कर मुसलिम बनना मंजूर किया। हम सब राशिद को दोस्त मानते हैं कि नहीं?’’

‘‘बिल्कुल, बिल्कुल’’ कई आवाज़ें उठीं।

वास्तव में 1947 में हो यह रहा था कि पिछले छह महीनों की उथल-पुथल में हर मुसलिम घर में एक विभाजन घटित हुआ था। घर के कुछ सदस्य यहीं अपने वतन, अपने शहर में रहना चाहते थे जैसे वर्षों से रहते आये थे। कुछ सदस्यों का मन उखड़ गया था, वे नये मुल्क से नयी उम्मीद पाले हुए थे। उन्होंने अपना सामान तक़सीम कर पाकिस्तान जाना कबूल कर लिया। एक ही घर में एक भाई हिन्दुस्तानी बन गया तो दूसरा पाकिस्तानी। कहीं माँ-बाप हिन्दुस्तान में रह गये, सन्तानें पाकिस्तान चली गयीं। दिल को समझाने को वे कहते, ‘अरे मेरे बच्चे कहीं दूर नहीं गये हैं, यहाँ से बस थोड़े घंटों की दूरी है, जब मर्जी आकर मिल जाएँगे’ पर जानेवाले जानते थे कि कोई भी जाना बस जाना ही होता है, एक बार जड़ें उखड़ गयीं फिर न गाँव अपना मिलता है न गली। फिर भी लोग लगातार जा रहे थे कि वे अपनी जिन्दगी में तब्दीली लाना चाहते थे।

‘‘यह मसला इक्की-दुक्की का नहीं, मामला पूरी क़ौम का है।’’

‘‘क़ौम भी तो इनसानों से बनती है।’’

कवि ने कहा, ‘‘राशिद तुम्हारी बातों से तकलीफ़ पहुँच रही है। अगर तुम हमारे बीच एक घायल रूह की तरह रहोगे, हमें कैसे चैन आएगा!’’

कवि देख रहा था कि राशिद के सोच-विचार में पिछले छह महीनों में बुनियादी बदलाव आया था। उसके अन्दर से सहज विश्वासी बेफिक्र नागरिक विदा हो गया। उसकी जगह एक जटिल, शक्की और शिक़ायतों का पुलिन्दा आ बैठा। अभी कल तक वह कवि को चितली कबर के मुहल्ले में कमरा दिलाने के लिए उसके साथ घूम-भटक रहा था।

सभी ने राशिद के स्वभाव में आये इस परिवर्तन पर ग़ौर किया। वे सोचने लगे कि स्टाफ़ में मौजूद बाकी ग्यारह-बारह लोग भी क्या ऐसी उथल-पुथल से गुज़र रहे होंगे। कहने को ये सभी पढ़े-लिखे लोग थे।

आज़ादी हासिल होते ही गाँधीजी का व्यक्तित्व एक लाचार ट्रेजिक हीरो की शक्ल में सामने आया था। कहाँ तो उन्होंने कहा था, ‘अगर कांग्रेस बँटवारे को स्वीकार करना चाहती है तो उसे मेरी लाश पर से गुज़रना होगा। जब तक मैं जिन्दा हूँ, कभी हिन्दुस्तान का बँटवारा स्वीकार नहीं करूँगा।’ कहाँ उनके साथी और समर्थक कब अलग राह चल पड़े उन्हें पता ही नहीं चला। एक घनघोर उदासी उन पर छा गयी और वे अँग्रेज़ों की साठ-गाँठ पहचानते हुए भी इसे रोक नहीं पाये। शातिर लोग उन्हें काशी या हिमालय चले जाने की सलाह देने लगे। गाँधीजी ने कहा—‘‘मैं तो शायद यह सब देखने को जीवित न रहूँ लेकिन जिस अशुभ का मुझे डर है, वह यदि कभी देश पर आ जाए, आज़ादी ख़तरे में पड़ जाए तो आनेवाली पीढिय़ों को मालूम होना चाहिए कि यह सब सोचना इस बूढ़े के लिए कितना यातनाकारी था।’’

26

इतवार की शाम पाँच बजे जब ढूँढ़ता-ढाँढता कविमोहन कुहू के घर बंगाली मार्केट के पिछवाड़े पहुँचा तो बाहर फाटक तक उनके रेडियो से क्रिकेट कमेंट्री सुनाई दे रही थी। फाटक पर नेमप्लेट के पास ही कॉलबेल लगी थी। कॉलबेल दबाने पर पाजामा और टीशर्ट पहने एक किशोर लडक़ा बाहर आया। उसने हँसते हुए दोनों हाथ जोड़े और कहा, ‘‘गुड ईवनिंग सर।’’

‘‘तुम देवू हो, देवाशीष?’’

‘‘बेशक! आइए आप बाबा के पास बैठिए।’’

अन्दर बैठक में बेंत के सोफे पर देवू के पिता आनन्द शंकर भट्टाचार्य रेडियो के पास बैठे थे। उनके घुटनों के पास क्रिकेट का बल्ला रखा था और हाथों में गेंद थी। कविमोहन के अभिवादन पर उन्होंने ज़रा-सा सिर हिला दिया लेकिन ध्यान उनका कमेंट्री पर ही रहा।

तभी कुहू अन्दर के दरवाज़े से आयी और कवि को ‘आइए’ कहकर साथ ले गयी।

बाहर बड़ा-सा आँगन था जिसके चारों ओर तरह-तरह के पौधे लगे हुए थे।

सलवार-कुरते और दुपट्टे में कुहू एकदम स्कूली लडक़ी नज़र आ रही थी। कॉलेज में उसके बाल जो जूड़े में बँधे रहते थे, इस वक्त कमर के नीचे तक लहरा रहे थे। उसका साँवला रंग यौवन की आभा में दमक रहा था। सबसे सुन्दर उसकी आँखें लग रही थीं जिनमें काजल की लकीर के सिवा, चेहरे पर प्रसाधन का और कोई चिह्न नहीं था।

अन्दर के कमरे में कुहू की माँ किताब पढ़ रही थीं। उन्होंने कवि का परिचय मिलने पर उसका मुस्कराकर स्वागत किया। किताब उन्होंने पलटकर रख दी। वे कुहू से बोलीं, ‘‘मैं चाय भिजवाती हूँ।’’

अब तक कुहू ने अपनी उत्तेजना पर क़ाबू पा लिया था। मूढ़े पर कवि को बैठाकर बोली, ‘‘क्रिकेट मैच वाले दिन ड्राइंगरूम में बैठना मुश्किल हो जाता है।’’

‘‘पिताजी को क्रिकेट का शौक रहा है?’’

‘‘देख रहे हैं न। हाथ में गेंद ओर पास में बल्ला रखकर कमेंट्री सुनते हैं। कभी छक्का पड़ता है तो इतने जोश में आ जाते हैं कि गेंद उछाल देते हैं।’’

‘‘ख़ुद भी खिलाड़ी रहे होंगे।’’

‘‘वह तो थे। कॉलेज में इतने इनाम जीते बाबा ने। अब घुटनों में दर्द रहता है, खेलना बन्द हो गया।’’

देवाशीष ट्रे में चाय और बिस्किट लेकर आया।

कुहू ने कहा, ‘‘देव, ये कविमोहनजी तुम्हारे लिए आये हैं।’’

‘‘पता है दीदी, मैं फाटक पर ही आपसे मिल लिया।’’

कवि को कुहू-घर दिलचस्प लगा। पिता खेल-प्रेमी, माँ पुस्तक-प्रेमी और बेटा, दोनों।

‘‘इन दिनों क्या पढ़ रहे हो?’’

‘‘श्रीकान्त।’’

‘‘बस कहानी-उपन्यास पढक़र टाइम वेस्ट करता है ये। कॉलेज का कोर्स कौन पूरा करेगा?’’

‘‘अभी परीक्षा में बहुत समय है। हो जाएगा।’’

‘‘आप इसकी कॉपियाँ देखें। हर पेज पर लिखता है वन्स अपॉन अ टाइम (एक बार की बात है) और कोरा छोड़ देता है। पूछो तो कहता है, अभी सोच रहा हूँ।’’

‘‘तुम तो कहानी-लेखक बन जाओगे।’’ कवि ने हँसकर देवू से कहा।

‘‘लेकिन यह तो कोई कैरियर नहीं है। बाबा चाहते हैं यह भी पढ़-लिखकर प्रोफेसर बने।’’

‘‘रास्ता तो सही है। उसे पढऩे का भी शौक है और लिखने का इरादा। किस इयर में हो देवू?’’

‘‘फस्र्ट इयर।’’

‘‘इसकी पढ़ाई थोड़ी पिछड़ गयी है। मैंने तो उन्नीस साल में बी.ए. पूरा कर लिया था।’’

कुहू की माँ एक प्लेट में सन्देश लेकर आयीं। उन्होंने कवि और कुहू के आगे प्लेट कर देवू से कहा, ‘‘खोकन मिष्टी खाबे?’’

‘‘नहीं माँ, भूख नहीं है।’’ देवाशीष बोला।

‘‘आमार हाथी खेएनौ।’’ कहते हुए माँ ने अपना हाथ बेटे के मुँह की तरफ़ बढ़ाया। उनके लिए उन्नीस साल का लडक़ा भी शिशु था जिसे वे अपने हाथ से खिलाना चाहतीं। घर भर के लाड़ले से पढ़ाई की सख्ती कौन करे, यह भी एक समस्या थी।

‘‘जिसे पढऩे का शौक हो उसके लिए कोर्स की किताबें पढऩा मुश्किल नहीं होता। और एक बात बताएँ देवाशीष। एक बार बी.ए. पार हो जाए तो एम.ए. आसान होता है क्योंकि तब एक ही विषय रह जाता है।’’

‘‘यही तो मैं दीदी से कहता हूँ। इंग्लिश तो मैं पढ़ लूँ पर फिलॉसफी और पोलिटिकल साइंस का क्या करूँ।’’

‘‘ये दोनों भी दिलचस्प विषय हैं। किस कॉलेज में हो?’’

‘‘हिन्दू कॉलेज।’’

‘‘गुड। वह तो अच्छा कॉलेज है।’’

बातों-बातों में सात बज गये। कवि जब जाने को उद्यत हुआ, कुहू की माँ ने आग्रह किया, ‘‘खाना खाकर जाओ।’’

‘‘आज इजाज़त दीजिए, फिर कभी।’’

देवाशीष उसे बस स्टॉप तक छोडऩे आया। कवि ने उसे सुझाव दिया कि वह कभी-कभी वापसी में उसके कॉलेज की तरफ़ आ जाया करे।

देवाशीष ने कहा, ‘‘दादा, मैंने भी दो-चार कविताएँ लिखी हैं। आपको दिखाऊँगा।’’

Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 14:32

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रक्षाबन्धन पर बस एक ही छुट्टी थी। लेकिन कवि का मथुरा पहुँचना ज़रूरी था। इसलिए वह तडक़े की गाड़ी में सवार हो गया। उस समय भी गाड़ी ठसाठस भरी हुई थी। खड़े और बैठे हुए लोगों के चेहरों पर आज के त्योहार का कोई चिह्न नहीं था। पता नहीं सवेरे-सवेरे सब कहाँ जा रहे थे।

मथुरा स्टेशन पर उतर कविमोहन आह्लालादित हो उठा। स्टेशन के प्लेटफॉर्म से ही सौंताल के मोरों का समवेत स्वर ‘मियाओ, मियाओ’ सुनाई दे रहा था। गर्मी ने भी मानो कुछ देर की छुट्टी ले रखी थी। यह कहना मुश्किल था कि धूप, आज के साथ कैसा सलूक करेगी लेकिन इस कुनमुनाती सुबह का मिज़ाज अच्छा था।

घर स्टेशन से दूर नहीं था फिर भी कवि ने रिक्शा कर लिया। उसे इन्दु और बच्चों को देखने की भीषण उत्कंठा हो रही थी।

उसके आने से माता-पिता और दो बहनों के चेहरे खिल उठे। तीसरी बहन कुन्ती ने डाक से राखी भेज दी थी कि माँजी की तबियत ख़राब होने के कारण वह आ नहीं सकेगी। कवि का ध्यान बार-बार सीढिय़ों की तरफ़ जा रहा था।

जीजी बोलीं, ‘‘बहू तो हफ्ता भर पहले ही आगरा चली गयी। कौन जाने कब लौटेगी।’’

कवि के मन में यकायक कोई बल्ब बुझ गया।

लीला ने कहा, ‘‘हम तो जब आयँ बहू हमें दिखती ही नायँ। कभी वह चौके में होय कभी नहानघर में। उसे पता ही नहीं बड़ी ननद की इज्ज़त कैसे की जाए।’’

भग्गो ने प्रतिवाद किया, ‘‘नहीं दीदी, भाभी तो तुम्हारी बहुत इज्ज़त करती है। बिल्लू-गिल्लू के कमीज़-पजामे उन्होंने ही सींकर भेजे थे।’’

जीजी ने कहा, ‘‘अरे कवि कब-कब आता है। उसे आज यहाँ होना चाहिए था।’’

कवि को अचानक ख़याल आया, ‘‘जीजी, उसे भी तो अपने भाइयों को सलूनो की राखी बाँधनी है।’’

‘‘वह ठीक है पर शादी के बाद ससुराल का भी ख़याल रखना चाहिए। कुन्ती को देखो, सास की ज़रा तबियत ख़राब भई तो चिट्ठी पठा दी।’’

‘‘तुमसे पूछकर ही गयी होगी।’’ कवि ने कहा।

‘‘जे तूने भली कही। जब तू जाने लगा तभी याने कह दी थी कि सलूनो पर वह जरूर जाएगी। सो रानी साहेबा अपनी कुमारियों को लेकर चल दीं।’’

‘‘अकेली?’’

‘‘नायँ, छोटा भाई सुरेश आया था लिवाने।’’

‘‘कब आने की कह गयी है।’’

‘‘हमसे तो कुछ कही नायँ। सुरेश ने कही वह अगले महीने छोड़ जायगा।’’

‘‘इत्ते दिनों को चली गयी।’’

‘‘देख लो, बाय ज़रा फिकर नहीं जीजी कैसे घर सँभारेंगी।’’

अपनी निराशा दबाकर कवि ने कहा, ‘‘चलो बहुत दिनों बाद आगरे गयी है इन्दु।’’

भग्गो एक तश्तरी में पेठा और दालमोठ लेकर आयी, ‘‘सुरेश भैया लाये थे, खाओ।’’

विद्यावती ने टोका, ‘‘पहले नहा-धोकर राखी बाँधो, तभी मुँह जूठा करना।’’

कवि बोला, ‘‘भग्गो, पहले चाय तो पिला।’’

‘‘अभी लायी’’ कहकर वह चौके में गयी।

चाय मिली पर कवि को रुची नहीं। चाय में दूध और चीनी भरपूर थी पर पत्ती की ख़ुशबू और रंगत नदारद थी। इन्दु के सिवा कोई भी ढंग से चाय बनाना नहीं जानता था।

यों घर भरा हुआ था पर कवि को खाली लग रहा था। बार-बार उसे पत्नी और बच्चों का ध्यान आता। उसका मन हो रहा था वह आगरे चला जाए लेकिन यह मुमकिन नहीं था। कॉलेज में रक्षाबन्धन की सिर्फ एक छुट्टी थी। शाम की गाड़ी से ही उसे लौटना होगा।

बहनों ने राखी की बड़ी तैयारी कर रखी थी। लीला ने ख़ुद अपने हाथ से कलाबत्तू की राखी बनायी थी। भगवती बाज़ार से सलमे सितारे जड़ी राखी लेकर आयी थी। आरती का थाल भी दोनों ने अलग ढंग से सजाया। लीला उसके लिए पैंट और कमीज़ का कपड़ा भी लायी। कवि ने कहा, ‘‘आज के दिन बहनें लेती हैं, देती नहीं।’’

लीला बोली, ‘‘तू छोटा होकर बड़ी बातें करनी सीख गयौ है। बड़ी बहनों को हक़ होता है छोटे भाई को कुछ भी दें।’’

कवि ने बहनों को नेग दिया और बिल्लू-गिल्लू और दीपक को भी रुपये दिये।

फिर उसने दस-दस के दो नोट विद्यावती की गोदी में डालकर कहा, ‘‘जीजी, अभी मुझे अच्छा मकान मिला नायँ, मिल जाय तो तुम्हें ले जाकर दिल्ली घुमा दूँ।’’

लाला नत्थीमल बच्चों को देखकर प्रसन्न हो रहे थे। बिल्लू-गिल्लू और दीपक के आने से घर-आँगन चहक उठा था। कवि का माँ को दिल्ली ले चलने का चाव देखकर उनके कलेजे में एक हूक उठी कि बेटे ने बाप से एक बार नहीं कहा कि आपको भी दिल्ली घुमाऊँगा। उन्होंने तसल्ली लेने की कोशिश की—चलो यह कहता भी तो मैं दुकान-मकान छोडक़र कैसे चल देता। इसकी महतारी का तो पाँव चरखे के चक्कर में बाहर निकल गया है। अब बहू के न होने से थोड़ी अक्ल ठिकाने आयी है वरना तो मेरी कभी सुनी ही नहीं इसने।

बेटे के प्यार से विद्यावती निहाल हो गयी। कुछ-कुछ मचलकर कह उठी, ‘‘अब तू आयौ है तो मोय डागदर के भी दिखाय दे। बायीं आँख से कछू टिपै ही नायँ। बस पनियाई रहै।’’

कवि को चिन्ता हुई ‘‘आँखें कब ख़राब हुई, तुमने बताया ही नहीं।’’

‘‘तू यहाँ हो तो बताऊँ।’’

‘‘मैंने तुम्हें बोरिक पाउडर लाकर दिया था कि नायँ। कित्ती बार धोयी तुमने आँख। छोरे के आगे चोचले करने का क्या मतबल है।’’ लाला नत्थीमल बिगड़ गये। दरअसल उनकी भी आँखों में यही समस्या हो गयी थी। उन्हें एक कम्पाउंडर ग्राहक ने यह इलाज बताया था तो वे दो पुडिय़ा बोरिक पाउडर लाये थे। एक उन्होंने पत्नी को दी थी।

सचाई यह थी कि विद्यावती ने एक भी बार आँख धोयी नहीं थी। कवि को देखकर नसें ऐसी शिथिल हुईं कि सभी शिक़ायतें याद आने लगीं।

शाम की गाड़ी से कवि का वापस आना ज़रूरी था। उसने कहा, ‘‘भग्गो, तू जीजी को आँख के डॉक्टर के पास ले जाना। रुपये जीजी के पास हैं।’’

विद्यावती का चेहरा पीला पड़ गया। वे डर गयीं। पता नहीं पति क्या सोचे कि कवि ने उन्हें कारूँ का खजाना दे दिया है।

‘‘भैयाजी, बड़े डागदर की फीस सोलह रुपये है।’’

‘‘तो क्या हुआ। जीजी देंगी, हैं न जीजी?’’

‘‘मैं कहूँ अपनी मैया के इलाज को तू रुपयों की गाँठ बाँधकर दे जाय रहा है, बाप से तोय छँटाँक भर भी प्यार नहीं है कि उसका हाल भी पूछे।’’ नत्थीमल बोल पड़े।

‘‘दादाजी आप स्वयं समर्थ हो, आपको हम क्या आसरा देंगे, आप तो घर भर का आसरा हो।’’

लाला नत्थीमल तारीफ़ से खुश तो हुए पर उन्होंने टेक नहीं छोड़ी।

‘‘कुछ भी कह, सच्ची बात तो यह है कि बच्चे घर से दूर जाकर निठुर हो जाते हैं। माँ-बाप से ज्यादा उन्हें अपनी आज़ादी की फिकर होवै। अब देख ले कुन्ती समसाबाद ब्याही तो वहीं की हो गयीं। तू दिल्लीवाला बन गया। सबको आजादी का चस्का लग गया।’’

‘‘इसमें क्या बुराई है। दादाजी यह समझ लो पूरी दुनिया में सारी मारकाट आजादी की खातिर है। आजादी के बिना तरक्की भी नहीं होती।’’

‘‘चलो अब तो आज़ादी मिल गयी, अब देखें तू कितनी तरक्की करेगौ।’’

‘‘हैं, आजादी मिल गयी का?’’ विद्यावती चौंकी।

‘‘समझ लो सब तैयारी हो गयी है। गाँधी, नेहरू, पटेल, आज़ाद सबने अँग्रेज़ों के सामने अपनी शर्तें रख दी हैं। वाइसराय राजी हो गये हैं। बस एक बात बुरी है कि हिन्दुस्तान का बड़ा-सा हिस्सा कटकर अलग हो जाएगा।’’

‘‘कहाँ चला जाएगा।’’

‘‘पराया देश बन जाएगा। पाकिस्तान कहलाएगा। तभी देख रही हो न सिन्ध, पंजाब, कश्मीर से लोग भागे चले आ रहे हैं। इसी तरह यहाँ के लोग वहाँ जा रहे हैं।’’

‘‘भैयाजी इससे क्या फायदा। बात तो वही रही।’’

लाला नत्थीमल बोले, ‘‘वही कैसे रही। हिन्दुओं को हिन्दुस्तान में अच्छा लगता है, मुसलमानों को पाकिस्तान में। इन दोनों जातियों में भाईचारा तो रहा पर रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं बना।’’

‘‘रही-सही कसर लीग ने पूरी कर दी। जिन्ना जैसे लिबरल आदमी को कठमुल्ला बना लिया। हमारे कॉलेज में कई साथी एकदम कट्टर बन गये हैं।’’

‘‘तू उनके साथ मत रहा कर।’’

‘‘साथ काम करते हैं, उठना-बैठना तो पड़ता है।’’

‘‘ऐसे काम का क्या फायदा। यहाँ घर की घर में काम का ढेर लगा पड़ा है। लीला अच्छी-भली चक्की बन्द करबे की सोच रही है। मेरा हाल भी डाँवाडोल है।’’

‘‘दादाजी, मेरी पढ़ाई की कुछ तो कद्र कीजिए। मैं तो कहूँ लीली दीदी चक्की या तो बेच दें या एक मुनीम रख लें। बिल्लू-गिल्लू को पढ़ाई में लगाओ न कि चक्की में।’’

लीला को बुरा लगा। कवि खुद तो कोई फ़र्ज के नीचे आता नहीं, बच्चों को भी बाग़ी बना रहा है।

बिगडक़र बोली, ‘‘रहने दे बड़ा आया लाटसाब। हमारे मूड़ पे पड़ी, हम काट लेंगे।’’

भगवती ने बात बदलने को कहा, ‘‘तिमाही इम्तहान में मेरे सबसे ऊँचे नम्बर आये हैं, भैयाजी, कॉपी दिखाऊँ।’’

वाकई हर विषय में उसके प्रथम श्रेणी के प्राप्तांक थे।

कवि बहुत खुश हुआ। उसकी पीठ ठोककर शाबासी दी और पूछा, ‘‘तब तो तू क्लास में अव्वल आयी होगी।’’

‘‘कहाँ,’’ भगवती ने मुँह लटका लिया, ‘‘दो लडक़ों के नम्बर मुझसे भी ज्याीदा हैं। मनमोहन और गोविन्द को मैं पछाड़ ही नहीं सकती।’’

‘‘अगली बार और मेहनत कर तो अव्वल आ जाएगी। अगर उन लडक़ों को पछाड़ देगी न, तो मैं दिल्ली से तेरे लिए बड़ा-सा इनाम लाऊँगा।’’

‘‘सब पढ़ैया-लिखैया लेकर बैठ गये किसी को फिकर नहीं मेरी नैया कैसे पार लगेगी।’’ लीला सिर पर हाथ मारकर रोने लगी। विद्यावती उसे घपची में भरकर चुप करावें पर लीला का तो जैसे बाँध ही टूट गया।

‘‘देख लिया न भैया जी येई मारे मेरी पढ़ाई चूल्हे में झुँक जाय है।’’ भगवती ने दबी ज़ुबान से भाई को बताया।

‘‘दीदी, तुम्हारे रोने से तो जीजाजी आ नहीं जाएँगे। ये तो लडऩे से पहले सोचना था न!’’ कवि ने कहा।

‘‘बताओ जीजी, मैं लड़ी थी या कुबोल बोली। मोय तो दादाजी ने जिस ठौर बैठा दिया वहाँ चुपचाप बैठ गयी। मोय सूधी जान के ही यह सब हुआ। कोई तेज बैयर होती तो आदमी को टस्स से मस्स न होवे देती।’’

कवि का जी घबराने लगा। उसे लगा वह फिर एक चक्रव्यूह में समाता जा रहा है। अन्दर से आवाज़ें आने लगीं, ‘यहाँ से भाग निकलो, यही वक्त है।’

कवि ने घड़ी देखी, माता-पिता के पैर छुए, बहनों के सिर पर हाथ फेरा, भतीजों को प्यार किया और अपना झोला उठा स्टेशन के लिए चल पड़ा।

बिल्लू-गिल्लू कहते रहे, ‘‘मामा लाओ हम झोला ले चलें। स्टेशन पहुँचाकर लौट आएँगे।’’

कवि ने कहा, ‘‘नहीं भैया, अपनी मैया का ध्यान रखना, वह रोवे न।’’

स्टेशन पहुँचकर पता चला कि गाड़ी आधा घंटा देर से आएगी। कवि बेंच पर बैठ गया। उसे घर से निकलकर राहत महसूस हो रही थी। उसे बड़ी ज़ोर से कुहू का घर याद आया। एक वह घर था जहाँ हर आदमी स्वाधीन, मुखर और सुखी था। एक यह घर है जहाँ शुभ से शुभ अवसर की मिट्टी पलीद हो जाती है। बिना लड़ाई-झगड़े, आँसू और अंगारे के बात सिलटती ही नहीं। इन्दु की ग़ैरहाजिरी में यह घर असहनीय हो जाता है। उसे अपने ऊपर खीझ आयी कि उसे यह याद क्यों नहीं रहा कि सलूनों पर इन्दु आगरे गयी होगी। न आता वह मथुरा, बहनों को मनीऑर्डर से रुपये भेज देता।

गाड़ी खचाखच भरी हुई आयी। हर डिब्बे से उतरे इक्का-दुक्का यात्री किन्तु चढ़े कहीं ज्या दा। कवि किसी तरह एक जनरल डिब्बे में सवार हो गया लेकिन वहाँ बैठने की तिल भर गुंजाइश नहीं थी। चार सवारियों की बर्थ पर छह-सात ठस-ठसकर बैठी थीं। बीच-बीच में कई सवारियाँ अपना टीन का ट्रंक रास्ते में खिसकाकर उस पर टिकी हुई थीं। इससे खड़े होनेवाले मुसाफिरों की ज्याकदा मुसीबत थी। हर कोई उनसे कहता, ‘कहाँ सिर पर चढ़े चले आ रहे हो, अलग हटकर खड़े हो।’ पैर टिकाने की जगह मुहाल थी।

यह रेल का डिब्बा क्या था भारतदेश का जिन्दा नक्शा था। कहीं कुल्लेदार साफे में सजे सिर आपस में पंजाबी में बोल रहे थे कहीं दाढ़ीवाले चेहरे उर्दू में आज के हालात पर तबसिरा कर रहे थे। कवि की तरफ़वाले हिस्से में दो औरतें काले बुर्के में एक-दूसरी से सटकर बैठी थीं। उसी बर्थ पर चार स्त्रियाँ और चार बच्चे भी आसीन थे। इन स्त्रियों ने दुपट्टे से सिर ढँक रखा था। उनके चेहरे निर्विकार थे लेकिन बच्चों को डाँटते और टोकते वक्त उनमें गुस्से का पुट आ जाता।

अलीगढ़ पर दोनों बुर्केवाली सवारियाँ और उनके साथी दो मर्द डिब्बे से उतर गये। खाली जगह पर बैठने की हड़बड़ी में खड़े यात्रियों में काफ़ी खलबली मची। तभी एक मोटी-सी स्त्री उस खाली जगह में लेटकर अपने पेट पर हाथ फेरने और हाय-हाय करने लगी। उसकी तबियत ख़राब लग रही थी। साथवाली स्त्री उसे अख़बार से हवा करने लगी। खड़े हुए लोगों में से एक को भी बैठने की जगह नहीं मिली क्योंकि अब तक ठस-ठसकर बैठे लोग कुछ पसरकर बैठ गये। गाड़ी सरकने को थी कि डिब्बे में चार सवारियाँ और घुस आयीं। बुर्कानशीन स्त्री, दो लडक़े और एक आदमी। आदमी ने अन्दर बर्थ पर पहुँचते ही सवारियों को घुडक़ा, ‘‘यहाँ खड़े होने की जगह नहीं और आपको लेटने की सूझी है। ठीक से बैठो, लेडीज़ को बैठना है।’’ उसकी घुडक़ी में कडक़ थी। लेटी हुई औरत कराहते हुए बैठ गयी। बुर्केवाली स्त्री बैठी और दोनों बच्चों को भी बैठाने लगी। एक तो किसी तरह फँसकर बैठा दूसरा नहीं बैठ पाया। आदमी ने बिगडक़र कहा, ‘‘छोटे बच्चों का टिकट नहीं लगता, उन्हें सीट पर क्यों बिठाया है, गोदी लो।’’ औरतें बोल पड़ीं, ‘‘तुम कहाँ के कानूनदाँ हो जी, हमारे बच्चे ऐसे ही बैठेंगे।’’ आदमी ने जेब से टिकट निकालकर दिखाये, ‘‘देखो इन बच्चों का हमने टिकट कटाया है।’’

‘‘तो हम क्या करें? हम तो झाँसी से बैठकर आ रहे हैं।’’

एक छोटे बच्चे को उठाकर वह आदमी ज़बरदस्ती महिला की गोद में डालने लगा। बच्चा चिल्ला उठा। तभी सामने की बर्थ से एक आदमी उठा और बिगड़ैल आदमी की बाँह झिंझोडक़र बोला, ‘‘ख़बरदार जो बच्चे को हाथ लगाया।’’

‘‘तुम्हारे बच्चे बैठेंगे, हमारे खड़े रहेंगे क्या? ग़ाजियाबाद तक जाना है।’’

‘‘ऐसा ही नखरा है तो फस्र्ट क्लास में जाते, थर्ड क्लास में क्यों आये हो।’’

बिगड़ैल आदमी और भी उग्र हो गया, ‘‘जगह तुम्हारे बाप की नहीं है, रेल तो सबकी है, चुप करके बैठो।’’

एक स्त्री अपने आदमी से चुप होने का इशारा कर रही थी। बच्चे भी बेचैन हो रहे थे।

आदमी ने जोश में आकर बिगड़ैल आदमी को हल्का-सा धक्का दे दिया।

बिगड़ैल ने कमीज़ की जेब में हाथ डालकर फौरन रामपुरी चाकू निकाल लिया, ‘‘साले अभी चीरकर रख दूँगा, सारा मोबिलऑइल निकल जाएगा तेरा।’’

सभी बच्चे और औरतें डर के मारे चिल्लाने लगे। कई लोग उठकर खड़े हो गये, ‘‘जाने दो भई, क्यों गरम होते हो, बैठना है तो बैठ जाओ।’’

बिगड़ैल आदमी ने ख़ूनी नज़रों से प्रतिद्वन्द्वी को देखते हुए चाकू मोडक़र जेब के हवाले किया। यात्रियों ने उसके लिए जगह बना दी। बच्चे सहमकर पहले ही माँओं से जा चिपके थे। बिगड़ैल आदमी का परिवार ठीक से बैठ गया। डिब्बे का माहौल तनावपूर्ण हो गया। पहले की बतकही और शोर थम गया। शिकोहाबाद पर जब गाड़ी में थोड़ी जगह हुई तो सवारियाँ उठकर इस तरह बैठ गयीं कि हिन्दू एक तरफ़ हो गये और बाकी तबके दूसरी तरफ़।

भारत का विभाजन अभी घोषित नहीं हुआ था लेकिन जनता रोज़ विभाजित हो रही थी। विभाजन से ज्या दा विभाजन की ख़बरें लोगों को उद्वेलित कर रही थीं। अख़बारों में कभी कैबिनेट मिशन के उद्देश्य छपते जो पढऩे में मासूम लगते लेकिन लोगों में उनकी मीमांसा का अलग ही रूप निकलता। इन उद्देश्यों में भारत-विभाजन का कोई संकेत नहीं था लेकिन जनता के मन में अँग्रेज़ सरकार के लिए घोर अविश्वास था। उन्हें लगता ऐसा हो ही नहीं सकता कि टोडी बच्चा हमेशा के लिए वापस ब्रिटेन चला जाए।

कुछ लोग महात्मा गाँधी की अहिंसावादी नीतियों को ही विभाजन का जिम्मेदार ठहराते। उन्हें लगता आम सहमति निर्मित करने के चक्कर में गाँधीजी हर निर्णय में ढुलमुलपन दिखा रहे हैं। दूसरी ओर मुहम्मद अली जिन्ना दो टूक शब्दों में कह रहे थे हिन्दुस्तान कभी भी एक राष्ट्र नहीं था। एक हिन्दुस्तान में न जाने कितने हिन्दुस्तान छुपे बैठे थे। एक तरफ़ सभी रियासतों के राजा अपना अलग वर्चस्व बनाये हुए थे, दूसरी ओर मुसलमान यहाँ के समाज में अलग-थलग पड़े थे। जिन्ना ने साफ़ शब्दों में कहा कि हिन्दुस्तान की हर समस्या का हल पाकिस्तान है।

एक समय ऐसा था जब गाँधीजी और जिन्ना दोनों हिन्दुस्तान को अँग्रेज़ शिकंजे से आज़ाद कराना चाहते थे। यह अँग्रेज़ सरकार की सफलता थी कि उन्होंने उदार जिन्ना को अनुदार और संकीर्ण विचारधारा की तरफ़ मोड़ दिया। उन्होंने गाँधीजी को सम्पूर्ण भारत का नेता मानने की बजाय सिर्फ हिन्दुओं का नेता माना क्योंकि इससे उनकी सम्प्रदायवादी नीति को बल मिलता था। जिन्ना ने तो अपने को मुसलमानों का प्रतिनिधि नेता घोषित कर साफ़ कह दिया, ‘‘हम दस करोड़ लोग हैं, हम अपने अधिकारों के लिए आखिरी दम तक लड़ेंगे।’’ उनके ऐसे बयानों से मुसलिम मानसिकता में एक हेकड़ी और आत्मविश्वास पैदा हुआ। पाकिस्तान की स्थापना लोगों के लिए युटोपिया जैसा स्वप्न बनती गयी। वहाँ जाने के इच्छुक लोगों को हिन्दुस्तान कबाड़घर की तरह लगने लगा जहाँ वे अपना रद्दी सामान और परिवार के अवांछित सदस्य पटककर नये-नकोर देश में जा सकते थे।

विभाजन की वार्ता ऊँचे राजनीतिक स्तर पर चलने से आम जन के मनोविज्ञान पर लगातार प्रतिगामी प्रभाव पड़ रहे थे। लोगों के दिमाग में जैसे चॉक से लकीर खिंच गयी थी, हम यहाँ के, वे वहाँ के; जबकि अभी यह भी स्पष्ट नहीं था कि देश के कौन से हिस्से पाकिस्तान में जाएँगे। अचानक अफ़वाह फैलती कि अलीगढ़ पाकिस्तान में चला जाएगा। लोग अचम्भा करते कैसे अलीगढ़ दूसरे देश में जाएगा, क्या उसके पहिये लग जाएँगे या पाकिस्तान में एक नया शहर बसाकर उसका नाम अलीगढ़ रखा जाएगा। लोग सोचते अगर सारे ताले बनानेवाले कारीगर पाकिस्तान चले गये तो हम हिन्दुस्तानी अपने घरों में ताले कहाँ से लाकर लगाएँगे। तभी ख़बर उड़ती कि अजमेर तो पाकिस्तान ज़रूर चला जाएगा। अजमेर शरीफ़ के बिना उनका गुज़र ही नहीं। यहाँ के लोग कहते, ‘‘अजमेर शरीफ़ पर तो हम भी चादर चढ़ाते हैं, ऐसे कैसे वे उठाकर ले जाएँगे।’’ 1947 के ये दिन बड़ी उलझन, ऊहापोह और असमंजस के दिन थे। स्कूल के बच्चे अपनी तरह के तुक्के लगाते, ‘‘अब लाल क़िला और ताजमहल यहाँ नहीं रहेगा। इसकी एक-एक ईंट उखाडक़र ये लोग पाकिस्तान ले जाएँगे।’’

सुननेवाले बच्चे कहते, ‘‘वहाँ जाकर कैसे जोड़ेंगे?’’

पहलेवाले बच्चे कहते, ‘‘अरे अपने साथ तस्वीर ले जाएँगे। तस्वीर देख-देखकर जोड़ेंगे।’’

औरतें कहतीं, ‘‘हमने तो सुनी है फिरोज़ाबाद भी पाकिस्तान में चला जाएगा। सारे मनिहार अपना साँचा-भट्टी वहीं लगाएँगे।’’

‘‘हाय राम फिर हमें चूड़ी कौन पहराएगा। हम क्या नंगी-बुच्ची कलाइयाँ रखेंगी?’’ कुछ और औरतें पूछतीं।

जानकार औरतें अपनी साथिनों की घबराहट बढ़ाने के लिए बतातीं कि बनारसी साड़ी बुननेवाले जुलाहे, बुनकर सब पाकिस्तान जानेवाले हैं।

अबोध औरतें हिन्दुस्तान के भविष्य को लेकर भयभीत हो जातीं। उन्हें लगता उनकी बेटियों के ब्याह में न जामदानी साड़ी आएगी, न मेंहदी लगेगी न शहनाई बजेगी, न चूडिय़ाँ पहनी जाएँगी।

औरतें कहतीं, ‘‘किसने कहा बँटवारा होना चाहिए। जैसे सब मिलजुलकर इत्ते बरस रहते रहे वैसे ही रहते रहें।’’

दिल्ली, बम्बई और लन्दन में बैठे नेताओं को जनता की राय दरकार नहीं थी। एक बार बँटवारे की बात उठी तो उसमें क्षेपक जुड़ते गये। हर उदारवादी नेता के विचार को अतिवादियों ने तोड़ा, मरोड़ा और उसका भुरकस निकाल दिया। मौलाना अबुलकलाम आज़ाद को सिर्फ इसलिए गालियाँ मिलीं क्योंकि वे मुसलमान होते हुए भी एक देश, एक राष्ट्र व एक संघीय सरकार की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहे थे। केबिनेट मिशन के सर क्रिप्स ने उनसे कहा कि मुसलिम बहुल प्रान्तों के लिए अलग अधिकार-तालिका बना दी जाए तो आज़ाद ने कहा कि यह विकल्प एक संघीय सरकार की अवधारणा के विरुद्ध होगा। गाँधीजी ने अन्त तक कहा कि वे दो राष्ट्र के सिद्धान्त से एकदम असहमत हैं। इससे किसी का भला नहीं होगा।

सन् 1947 में आज़ादी आते तक गाँधीजी अपनी मान्यताओं में बिल्कुल अकेले पड़ गये। महत्त्वाकांक्षी नेताओं को लगने लगा कि आज़ादी की लड़ाई अनिश्चित काल तक चलती रहेगी, अँग्रेज़ कभी भारत नहीं छोड़ेंगे, गाँधीजी अहिंसा की जिद ठाने, सबको घिसटाएँगे और लीग लोगों में बगावत के बीज डालती रहेगी।

बँटवारे की चर्चा इतने लम्बे समय तक चली कि जनता में बदहवासी फैलती गयी। सडक़ों पर, घरों में, दुकानों में लूटपाट, छुरेबाज़ी और हाथापाई की घटनाएँ आम हो गयीं। कश्मीर, पंजाब और सिन्ध से भागकर लोगों ने दिल्ली और अन्य शहरों का रुख किया। दिल्ली में यकबयक इतनी भीड़ बढ़ गयी कि मकान तलाश करना दुश्वार हो गया। शक़-शुबहे का वातावरण ऐसा कि जो शरणार्थी नहीं था उसे भी शरणार्थी मानकर लोग झट अपना दरवाज़ा बन्द कर लेते।

कवि के सामने समस्या थी कि सीमित आमदनी में से वह आधी तनखा घर भेजे तो आधी से गुज़र कैसे हो। कभी-कभी पैसे बचाने के विचार से वह स्टोव पर ख़ुद खिचड़ी बनाने का उपक्रम करता लेकिन हर बार कुछ-न-कुछ गड़बड़ हो जाती। कभी खिचड़ी कच्ची रह जाती तो कभी जलकर ढिम्मा बन जाती। कभी उसमें नमक ज्याादा पड़ जाता तो कभी बिल्कुल फीकी रह जाती। खाना बनाने के बाद बर्तन-साफ़ करना भी एक समस्या थी। ज्याददा समय उसे सडक़ छाप रेस्तराँ और ढाबों पर मयस्सर रहना पड़ता। उसकी इच्छा होती कहीं एक कमरा और रसोई का भी मकान मिल जाए तो वह इन्दु और बच्चों को यहाँ बुला ले। लेकिन मकान महँगे होते जा रहे थे।

कवि को यह देखकर हैरानी होती कि सिन्ध, पंजाब से आये लोगों में किस हद तक संघर्षधर्मिता और जिजीविषा थी। सीताराम बाज़ार के इधरवाले मोड़ पर एक अधेड़ आदमी चटाई बिछाकर बडिय़ाँ पापड़ बेचने लगा था। उसने एक गत्ते पर लिखकर टाँग रखा था ‘अमृतसर की बडिय़ाँ-पापड़’। अमृतसर में स्वर्णमन्दिर के सामनेवाली गली में उसकी बड़ी-सी दुकान थी जिस पर बड़ी-पापड़ के अलावा मसाले और दालें बिकती थीं। दंगों में उसकी दुकान आग के हवाले हो गयी। घर पर थोड़ा माल रखा था, वही लेकर वह अपनी पत्नी के साथ दिल्ली चला आया। उसने गुरुद्वारे में शरण ली लेकिन लंगर में खाना नहीं खाया। अपने शहर में वह दस को खिलाकर खाता था। मुफ्त की रोटी उसे स्वीकार नहीं थी। वह सारा दिन सीताराम बाज़ार में बड़ी-पापड़ बेचता। उसकी पत्नी दुपट्टे से अपना सिर लपेटे पास में बैठी रहती। रात को वे चाँदनी चौक या लाजपतराय मार्केट में ढाबे से ख़रीदकर दाल-रोटी खाते। पटरी पर लगनेवाली दुकानों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। जो लोग अपना थोड़ा-बहुत सामान लाने में कामयाब हो गये थे उन्होंने उसी से अपना धन्धा शुरू कर दिया। ऊँची दुकानों के मुकाबले वे सस्ते में सामान देते। ग्राहक से मीठी बोली बोलते। दिल्ली के लिए यह बिल्कुल नये किस्म का व्यापार-विनिमय था। गोरे रंग और कंजी आँखोंवाले ख़ूबसूरत पंजाबी और सिन्धी विक्रेता ग्राहकों को ‘आओजी बादशाहो’, ‘मालिक’ और ‘साहब’ कहकर सम्बोधित करते। दिल्ली अभी तक ख़ानदानी किस्म के मोटे थुलथुल सेठों से परिचित रही जो गद्दी पर ठस्स बैठे रहते। उनका व्यापार मुनीम और सेल्समैन के जरिए चलता। उनकी सूरत देखकर लगता ग्राहक और मौत बस एक दिन आते हैं। ग्राहक के प्रति कोई स्वागत भाव उनमें न होता। ऊपर से ये व्यापारी दुकान में जगह-जगह लिखकर तख्तियाँ लटका देते ‘एक दाम’, ‘उधार मुहब्बत की कैंची है’। कम आमदनीवाला ग्राहक ऐसी जगहों में घुसने की हिम्मत ही न करता। इनके बरक्स, अपने ठीये-ठिकाने से उखड़े हुए लोग अपने दोस्ताना व्यवहार से ग्राहक का दिल जीत लेते। उन्होंने दिल्ली में कपड़ों को कुछ और रंगीन बना दिया, खाने को कुछ और चटख़ारेदार और व्यापार की रफ्तार में फुर्ती भर दी।

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