दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

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Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 14:13

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मुन्नी भूख से रोने लगी। कविमोहन झटके से वर्तमान में लौटा। इन्दु ने दूध की खाली बोतल उठाकर थोड़े-से पानी से खँगाली और ग्लास में रखा दूध भरने लगी।

‘‘ठंडा ही पिला दोगी?’’ कवि ने पूछा।

‘‘तुम सोये नहीं अभी तक,’’ इन्दु बोली, ‘‘गरमी के दिन हैं, नुकसान नहीं करेगा। और फिर दो ज़ीने उतरने की मेरी तो हिम्मत नहीं है।’’

सवेरे कवि के चिल्लाने से उसका कमरा तो नीचे कर दिया गया पर माँ ने इन्दु से बातचीत बन्द कर दी। वे घंटों मुँह फुलाये रहीं। कनक और उड़द की बोरियाँ आधी उनके कमरे में और आधी परचून की दुकान में चिनी गयीं। बाबा ने भडक़कर कहा, ‘‘पल्लेदारों की मजूरी हम नहीं देबेंगे। तुमने उठवाई, तुम्हीं दो।’’

कवि के पास वजीफे और ट्यूशनों के रुपये थे। उसने भुगतान कर दिया।

शाम तक माँ ने परिवर्तन से समझौता कर लिया। उन्हें भी आराम था कि वे कभी भी इन्दु को काम में लगा सकती थीं।

भग्गो ने भइया के बटुए में करारे नोट देखे तो बोली, ‘‘भइयाजी, हमें हरे रंग की धोती दिला दो।’’

‘‘क्यों तेरे पास क्या धोती नहीं है?’’

‘‘है पर हरे रंग की कहाँ है। हरियाली तीज पर सब हरा रंग पहनती हैं।’’

कवि को जिज्ञासा हुई क्या इन्दु के पास हरे रंग की धोती है। पर संकोच में वह माँ से मुख़ातिब हुआ, ‘‘जीजी तुम्हें भी धोती लेनी है?’’

माँ बेटे की बात से निहाल हो गयीं। बोली, ‘‘कबी, मोय ले जाके असकुंडा घाट पे द्वारकाधीशजी के दरशन कराय दे और चाट खवाय दे।’’

दोपहर में एकान्त पाकर कवि ने पत्नी से कहा, ‘‘शाम को तुम भी चलना घूमने।’’

‘‘बेबी की टाँग टूटी है, मुन्नी को दस्त आ रहे हैं, मुझे नहीं जाना।’’

‘‘फिर मत कहना कि पूछा नहीं। हमारा प्रोग्राम तो तय है।’’

‘‘मेरे लिए एक दोना मटर बनवा लाना, मिर्च-मसाला चटक।’’

जाना पाँच बजे था पर भग्गो ने साढ़े तीन बजे से सजना शुरू कर दिया। उसने अपना ट्रंक खखोर डाला। उसे कोई धोती पसन्द नहीं आयी। बगल के कमरे में आकर उसने होठ बिसूरे, ‘‘भैयाजी दरशनों पर जाने के लिए एक भी नई धोती नायँ। भाभी से कहो न अपनी रेशमी साड़ी दे दें।’’

‘‘तू खुद च्यौं नहीं कहती,’’ कवि बीच से हट गया।

इन्दु को ननद पर लाड़ आ गया। भगवती की दिनचर्या तो उसकी अपनी प्रतिदिनता से भी ज्या दा नीरस थी। ऊपर से बात-बात में पिता की झिडक़ी।

इन्दु ने कहा, ‘‘वही नीले बक्से में से ले-ले जो तुझे भाये।’’

भग्गो ऐसी खुश हो गयी जैसे उसे ख़ज़ाना मिल गया हो। उसने बक्से का पल्ला खोलकर, चमकती आँखों से उसमें रखे नीले, पीले, गुलाबी और लाल कपड़े देखे। फिर उसने कहा, ‘‘भाभी गुलाबीवाली ले लूँ!’’

इन्दु ने अपने हाथ से उसे साड़ी के साथ गुलाबी जम्पर भी दे दिया, ‘‘भग्गो बीबी, मेरे लिए एक पत्ता मटर लेती आना। मसाला चटक हो।’’

‘‘ज़रूर भाभी यह भी कोई कहने की बात है।’’

बाबा का भी मूड अच्छा था। उन्होंने दादी को चवन्नी दी, ‘‘मेरे लिए चवन्नी का दही ले आना। छप्परवाले हलवाई से ही लेना। ऊपर से नेक मलाई डलवा लेना।’’

कवि ने कहा, ‘‘दादाजी दही मैं ले लूँगा। चवन्नी तुम रखो।’’

बाबा ने तर्जनी दिखाई, ‘‘हिसाब तो हिसाब है, फिर अभी मेरे हाथ-पैर चलते हैं।’’

उस दिन घर पर किसी के भी भाग्य में न चाट लिखी थी न दही। घटिया पर ताँगे के घोड़े की टाँग फिसल गयी। ताँगा डगमग होकर गड़बड़ाया। पीछे की तरफ़ भग्गो और दादी गिरीं सडक़ पर। भग्गो जल्दी से सँभलकर उठी पर उसके दोनों हाथों का सामान ज़मीन पर गिर गया। उसने एक हाथ में मटर का दोना और दूसरे में दही का कुल्हड़ पकड़ रखा था। दादी अपने आप नहीं उठ पायीं। कविमोहन और भग्गो ने तुरन्त उन्हें घपची में ले लिया, ‘‘रोओ मत जीजी, कुछ नहीं हुआ। समझो बड़ी खैर हुई।’’

दादी अपना दुखता पैर उघाडक़र उसकी ख़ैरियत देख रही थीं। उन्होंने सडक़ पर दही बिछा देखकर कातर स्वर में कहा, ‘‘कबी तेरे दादाजी किल्लावेंगे। दही तो गया फैल।’’

कवि ने कहा, ‘‘दूसरा ताँगा कर पहले तुम्हें घर छोड़ आऊँ। फिर मैं दही ला दूँगा।’’

भग्गो के चोट नहीं लगी थी पर ताँगे की चिमटी में फँसकर साड़ी में खोंप लग गयी। वह डर रही थी कि भाभी क्या कहेंगी। उसने कहा, ‘‘भैया, भाभी के लिए मटर भी बनवा लेना।’’

‘‘चुप कम्बखत,’’ दादी ने झिडक़ा, ‘‘तुझे मटर की पड़ी है, यहाँ टाँग का भुरकस निकल गया।’’

घर पहुँचकर दादी तख्त‘ पर बैठकर हाय-हाय करने लगीं। इन्दु अपने कमरे में पति के कुरते की उधड़ी जेब सिल रही थी।

‘‘आ गयीं जीजी।’’ उसने चाव से कहा।

दादी ने कहा, ‘‘हाय मैं मर गयी री। इन्दु मेरा छुनछुना तो गरम करके लगा।’’

इन्दु तुरन्त रसोई में गयी। चूल्हे के पीछे से सिलवर का वह बड़ा कटोरा उठाया जो हल्दी के कारण हमेशा पीला रहता था। उसमें एक कलछी घी डालकर चढ़ाया। फिर उसने गरम घी में पिसी हुई हल्दी और सोंठ डाली। जब सब मिलकर छुनछुनाने लगा और हल्दी नारंगी रंग की हो गयी, सँड़सी से कटोरा पकड़ उसने सास के आगे रखा।

दादी ने इशारे से रुई माँगी।

रजाई-गद्दों का पुराना रुअड़ उनके कमरे में ही एक किनारे रखा रहता था।

दादी ने अपनी सूखी, पतली, लौकी जैसी टाँग के पंजे में बँधे रुअड़ के पुलिन्दे पर से पट्टी उतारी और रुअड़ हटाकर देखा। इस पैर का पंजा छोटा-सा था और उसकी छोटी-छोटी जुड़ी उँगलियों के नाखून नहीं थे। दादी ने दोनों हाथ से पैर थामकर कहा, ‘‘अरे राम रे, बड़ी टीस हो रही है।’’

इन्दु ने ताज़ी गर्म हल्दी सोंठ का छुनछुना लगाकर पट्टी बाँध दी।

तभी कविमोहन दही का कुल्हड़ लिये बाज़ार से लौटा। उसे देखते ही इन्दु के मुँह से निकल गया, ‘‘हमारी मटर लाये हो?’’

अब तक दादी एकदम अनुकूल और आत्मीय थी, यकायक वे प्रतिकूल और अनात्मीय बनकर भभकीं, ‘‘बहू तुझे चाट की पड़ी है, यहाँ तो मरते-करते बचे हम सब।’’ दुर्घटना की सुनकर इन्दु के मन में यही आया कि दादाजी के लिए फिर से दही आ सकता है तो मेरे लिए चाट क्यों नहीं!

इस बीच भगवती कपड़े बदल चुकी थी। भाभी की साड़ी जम्पर की तह लगाकर वह रखने जा ही रही थी कि मुँह फुलाये इन्दु कमरे में आयी, ‘‘तुम ताँगे पर से गिरीं, कहीं साड़ी में खोंप तो नहीं लग गयी।’’

‘‘नहीं भाभी, पूछ लो भैयाजी से। मैं तो गिरी ही नहीं। झट से खड़ी हो गयी।’’ भग्गो भाभी का जी नहीं दुखाना चाहती थी।

थोड़ी देर में दादी तो कूलती-कराहती अपने तख्ती पर करवट बदलती सो गयीं। कविमोहन भी लालटेन और किताब लेकर छत पर चला गया।

रह गयी भग्गो और इन्दु। दोनों की आँखों में नींद भरी थी। जब तक दादाजी दुकान का गल्ला मिलाकर, शौच से आकर हाथ-पैर धोकर ब्यालू पर बैठे, बेटी और बहू जँभाइयाँ लेने लगीं।

दादाजी ने पराँठे का कौर तोडक़र दही और कौले की तरकारी लगाकर मुँह में रखा।

उन्होंने फौरन कहा, ‘‘च्यौं इन्दु जे दई क्या घर में जमायौ है।’’

‘‘नहीं तो।’’ इन्दु बोली।

भग्गो ने कहा, ‘‘हम बताएँ दादाजी, दही तो गया गिर, हमारा ताँगा रपट गया था। यह तो भैयाजी फिर से जाकर लाये हैं।’’

दादाजी का खाना ख़राब हो गया। थाली सरकाकर गरजे, ‘‘रहने दो मोय नायँ खानी रोटी। एक चवन्नी का छप्परवाले से दई मँगाया वह भी सुसरा नायँ लायौ। जे दई से तो हम कुल्लौ भी नायँ करैं। मार सपरेटा है।’’

अब तक दादाजी की किल्लाहट ऊपर पहुँच गयी थी। कवि ऊपर से उतरकर आया, ‘‘क्या आधी रात में खोइया मचा रखा है, आप खा-पीकर सो जाएँ और दूसरों को भी सोने दें।’’

दादाजी आपे से बाहर हो गये, ‘‘मेरे पैसे लुट गये, मैं बोलूँ भी न, डोलूँ भी न। तुझे सोने की पड़ी है तो तू सो। मैंने कपूत पैदा किया, मैं कैसे सोऊँगा।’’

कविमोहन पैर पटकता हुआ ऊपर चला गया और भड़ाम से छत के किवाड़ लगा लिये।

भग्गो चुपके से अपने बिस्तर पर चली गयी।

इन्दु ने कुछ देर दादाजी का इन्तज़ार किया। जब आँगन से हाथ धोने और कुल्ला करने की आवाज़ आयी तो उसने भी चौका बढ़ा दिया।

Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 14:14

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कुछ लड़ाइयों का भी एक क्रमश: होता है। ज़रूरी नहीं कि वे अगले ही दिन गतांक से आगे चल दें। कभी-कभी बीच में कई दिन युद्ध विराम रहता। यकायक किसी और प्रसंग से सन्दर्भ को चिनगारी लग जाती और गोलाबारी शुरू।

आज की उनकी किचकिचाहट की असली वजह कुछ और थी। बड़ी बेटी लीला का पति मन्नालाल आज सवेरे दुकान खुलते ही आ धमका था। उसके साथ कनखल के महामंडलेश्वर स्वामी बिरजानन्द थे। दामाद ने बताया महाराजजी के भंडारे में लाला नत्थीमल के नाम एक सौ एक रुपये लिखे गये हैं, सो वे अदा करें। दादाजी बिलबिला पड़े। एक तो इतनी बड़ी रकम निकालकर देनी, दूसरे अभी दुकान खोली भर थी, बोहनी भी नहीं हुई थी। स्वामी बिरजानन्द के सामने अपनी इज्ज़त रखने का भी ख़याल था उन्हें।

यों लाला नत्थीमल मालदार आदमी थे। उनके गल्ले और बक्से में कलदार रुपयों की कमी न थी पर अभी जब उनका स्वास्थ्य टनाटन था, दानपुण्य पर पैसे लुटाना उन्हें ज़हर लगता। फिर उन्हें यह भी अखरता कि बड़ा दामाद मन्नालाल अपनी आटा चक्की की ओर ध्यान न देकर साधु-संन्यासियों के बीच जमना की रेती पर चिमटा बजाता डोलता है।

मन्नालाल के रंग-ढंग एक उभरते हुए भगत के थे। इसका पता शादी के बाद ही लगा जब लीला ने अपनी माँ से कहा, ‘‘जीजी जे बताओ आदमी औरत बन जाय तो औरत आदमी च्यों न हो जाय?’’

माँ का माथा ठनका। वैसे भी माँ देख रही थी कि शादी का एक महीना बीतने पर भी लीला पर सुहाग की लाली अभी चढ़ी नहीं थी। घर आ जाती तो उसे वापस जाने की कोई हड़बड़ी न होती। मन्नालाल भी कई-कई दिन लिवाने न आते। जब आते तो छोटी बहन भग्गो, जीजा को खूब छकाती।

‘‘दीदी तो अब दिवाली बाद जाएगी। जाके वहीं धूनी रमाओ जहाँ चले गये थे जीजा।’’

मन्नालाल गुस्से से सिर झटकते और आँखें दिखाते, ‘‘हम सच में चले जामेंगे, बैठ के रोना।’’

‘‘कहाँ जाओगे?’’

‘‘बिन्दावन।’’

लीला कोठरी से बोल पड़ती, ‘‘यह बिन्दावन तो मेरी ससुराल भई है। न काम देखना न काज बस बिन्दावन में रास रचाना।’’

मन्नालाल लाल-लाल आँखें दिखाते, ‘‘चलना है तो सीधी तरह चलो। नहीं, पड़ी रहना बाप के द्वारे।’’

अब दादाजी दुकान से उठकर आते। वे अन्दर जाते और जाने कोन जादू से थोड़ी देर में जीजी चमड़े के थैले में विदाई का सामान भरकर लीला को उनके हवाले कर देतीं।

लीला की शादी सोलहवें साल में छयालीस वर्षीय मन्नालाल से जब हुई तो सतघड़े के निवासियों ने छाती पीट ली, ‘‘हाय ऐसा कठकरेज बाप हमने नायँ देखौ जो कच्ची कली को सिल पे दे मारे।’’

कच्ची सडक़, गली रावलिया पर मन्नालाल की तीन तिखने की पक्की लाल कोठी इस बात का सबूत थी कि आटा चक्की का काम भले ही छोटा हो, उसमें मुनाफ़ा बड़ा है।

ब्याह के बिचौलिये मुरली मास्टर ने बताया था कि मन्नालाल बड़ा सूधा है। इसकी सिधाई की वजह से ही इसे पता न चला और इसकी पहली पत्नी सरग सिधार गयी। इसकी जान को दो लडक़े छोड़ गयी जो अब पल-पुसकर पाँच और छह साल के हैं। बच्चे इतने सयाने हैं कि अभी से चक्की सँभालते हैं। लाला नत्थीमल ने मात्र इतना जाँचा कि ब्याह में कितना खर्च आएगा। मुरली मास्टर के यह कहने पर कि भगत का कहना है आप तीन कपड़ों में कन्या विदा कर दो, वे उफ़ न करेंगे, नत्थीमल ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो गये। खड़ी चोट पाँच हज़ार की रकम बच रही थी, यह उनका सौभाग्य ही था। यह तो शादी के बाद ही उन पर ज़ाहिर हुआ कि जिसे वे अपना दुहाजू दामाद समझे थे, दरअसल वह तिहाजू था। उसके दोनों बेटे अलग माँओं की सन्तान थे। बिल्लू पहली माँ से था तो गिल्लू दूसरी माँ से। लाला नत्थीमल ने इस बात की तह में जाने की कोई कोशिश नहीं की कि मन्नालाल की दो-दो स्त्रियाँ कैसे दुर्घटनावश दिवंगत हो गयीं।

लाला नत्थीमल के अन्दर एक अदद दुर्वासा भी बैठा हुआ था जो लीला को उसकी नादानी की उचित सज़ा देना चाहता था। एक दिन जब वे दुकान से, लघुशंका के लिए, मोरी पर आये उन्होंने देखा छत पर खड़ी लीला दो छत दूर वकील द्वारकाप्रसाद के बेटे से देखादेखी कर रही है। बीस साल की लीला बड़ी सुन्दर और चंचल थी। उन्हें बहुधा अपनी पत्नी से कहना पड़ता था कि लीला को सँभालकर रखो, उसे ज़माने की हवा न लगे। उन्हें लगा उनकी बड़ी बेटी ज़माने की हवाओं के बीचोंबीच खड़ी है। उन्होंने तभी तय कर लिया कि जो पहला वर मिलेगा वे उससे लीला के हाथ पीले कर देंगे।

उनकी निगाह में मन्नालाल दुहाजू होते हुए भी सुपात्र था क्योंकि उसने जीवन की आर्थिक चिन्ताओं पर विजय प्राप्त कर ली थी। दो पत्नियों की मौत के बारे में पता चलने पर जीजी ज़रूर थरथरायी थीं पर दादाजी ने उन्हें तसल्ली दी थी, ‘‘वे दोनों होंगी कलमुँही। हमारी बेटी तो राजरानी रहेगी। दो-दो का गहना-कपड़ा भी सब उसी को मिलेगा।’’

वाकई लीला को रुपये-पैसे, कपड़े-ज़ेवर की कोई कमी नहीं थी। बक्से भरे रखे थे। इस पर भी मन्नालाल जब लौटते उसके लिए नयी काट के लहँगे, ओढऩी, जम्पर ज़रूर लाते। दो-चार कलदार भी थमा देते। खाने-पीने की कोई दिक्‍कत नहीं थी। चक्की से आटे के कनस्तर आ जाते। चावल-दाल के कुठियार भरे रखे थे। कुंजडिऩ रोज़ ताज़ी सब्ज़ी दे जाती। चक्की का काम, बिल्लू, गिल्लू, मुनीम जियालाल की मदद से सँभाल लेते। थे तो वे सिर्फ पाँच व सात साल के पर वे गम्भीर वयस्क जैसा बर्ताव करते। अक्सर शाम को जब वे दोनों चक्की से लौटते, उनके कपड़ों और बालों पर आटे की महीन परत जमी होती। लीला को वे दो छोटे मन्नालाल नज़र आते। वह सबसे पहले, अँगोछे से उनके सिर पोंछती फिर उन्हें पैर-हाथ धोने को कहती और तब रसोई में ले जाकर खाना देती।

तीसरे साल लीला का मन खट्टी अमिया खाने का होने लगा। उसने अपनी आँखों के गुलाबी डोरे पति की आँखों में डालकर जब यह समाचार उसे दिया, मन्नालाल ने कहा, ‘‘चलो यह भी पल जाएगा।’’ लीला को अच्छा नहीं लगा। उसने तुनककर कहा, ‘‘तुम्हारा तीसरा होगा, मेरा तो पहला है!’’ मन्नालाल मुस्कुराये। दोपहर बाद उन्होंने कच्चे आम का एक टोकरा घर भिजवा दिया।

उस आयु में लीला यह तो नहीं समझती थी कि दाम्पत्य किसे कहते हैं पर सान्निध्य की प्यास उसे थी। वह चाहती कि पाँचवें महीने में पति उसके पेट पर हाथ रखकर बच्चे की हरकत महसूस करे पर पति अक्सर ‘भागवत’ ग्रन्थ में डूबे रहते। वे रात-रात इस एक पुस्तक के सहारे बिताते।

जितनी लीला डर रही थी उतनी तकलीफ़ उसे प्रसव में नहीं हुई। घर में ही दाई ने आकर अन्दरवाले कमरे में उसका जापा करवा दिया। लडक़े को चिलमची में नहलाकर लीला के बगल में लिटा दिया और कमरे की सफाई के बाद बिल्लू-गिल्लू को आवाज़ लगायी, ‘‘ऐ छोरो देख लो कैसा केसरिया भैया पैदा भया है।’’

शाम को मन्नालाल ने पुत्र के दर्शन किये। उसकी मुट्ठी अपने हाथ में लेकर बोले, ‘‘मेरा लड्डूगोपाल है यह!’’ उन्होंने पत्नी को गिन्नी की अँगूठी देकर कहा, ‘‘सुस्थ हो जाओ तो सुनार से अपनी सीतारामी भी बनवा लेना।’’

मथुरा के अन्य बनियों-व्यापारियों की तरह मन्नालाल अग्रवाल ज़रा भी कृपण नहीं थे। चक्की से इतनी नगद आमदनी नहीं थी कि वे भर-भरकर रासमंडलियों पर लुटाते पर उनके पास पुश्तैनी रकम की बहुतायत थी। उनके दादा के इकलौते थे उनके पिता और पिता के इकलौते थे मन्नालाल। दो पीढिय़ों का धन उनके हाथ में था। लेकिन मन्नालाल में तुनकमिज़ाजी थी। कभी छोटी-सी बात पर भन्ना पड़ते। लीला से कहते, ‘‘देख भागवान किच-किच तो मोसे किया न कर। जिस दिन मैं तंग आ गया तो उठा अपनी भागवत, बस चला जाऊँगा, पीछे मुडक़र भी नहीं देखूँगा।’’

लीला सहम जाती। वह सारे घर का काम सँभालती। उसकी सहनशक्ति केवल एक बात से चरमराती। उनके घर आये दिन कोई-न-कोई रासमंडली, कीर्तनमंडली डेरा जमाये रहती। मन्नालाल उनकी ख़ातिर में जी-जान से जुट जाते। लीला को ये रासधारी और कीर्तनिये बहुत बुरे लगते। वे डटकर खाते, शोर मचाते और उनके बर्ताव से ऐसा लगता जैसे कृष्णभक्ति से उनका कोई सम्बन्ध नहीं। उनके लिए, चारों पहर, चूल्हे में आग बली रहती। कई बार बच्चे बिना खाये सो जाते पर मेहमानों के चोचले खतम न होते। ऐसा कोई ऐब न था जो उनमें न हो फिर भी मन्नालाल उनकी सेवा में तन-मन-धन लुटाये रहते।

Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 14:14

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इस बार होली पर कविमोहन घर नहीं गया। यह एम.ए. का आखिरी साल था और होली के तुरन्त बाद परीक्षा होनी थी। फिर यह भी सच था कि छुट्टियों में होस्टल में पढ़ाई ज्यादा अच्छी तरह होती। होस्टल तकरीबन खाली हो जाता। डेढ़ सौ विद्यार्थियों की जगह मुश्किल से चालीस-पचास बचते। मेस के सेवक भी छुट्टी पर चले जाते। ले-देकर बड़े महाराज और दुखीराम रह जाते। थोड़े-से लडक़ों का खाना वे बड़े ध्यान से बनाते। पूरे फागुन बड़े महाराज शाम के समय भाँग मिली ठंडाई घोटते और लोटे से सेवन करते। शाम की ब्यालू वे बड़ी तरंग में तैयार करते; कभी आलू की तरकारी में नमक की जगह सूजी डाल देते। जब विद्यार्थी शोर मचाते तो कहते, ‘‘जे अँगरेज सरकार ऐसी जालिम आयी कि नमक की लुनाई, गुड़ की मिठाई सब सूई से खींचकर निकार लेवे है।’’ दुखीराम खी-खी हँस पड़ता और सबकी थाली में थोड़ा-थोड़ा नमक परोस देता।

होली में दो दिन दावत बनती। बड़े महाराज क्या बनाएँगे, यह उनके स्नान के समय पता चल जाता। वे नल के नीचे नहाते जाते और जनेऊ के धागे से अपनी पीठ काँछते हुए गाते—

‘‘सेम भिंडी मटर सौं बोले कौला

कचनारिन को जल्दी बुलायलेऊ जी

नेक धनिये की चटनी घोटायलेऊ जी।’’

होली पर लडक़े शर्त बदकर दावत जीमते। बीस, पच्चीस यहाँ तक कि तीस-तीस पूडिय़ाँ खानेवाले वीर भी दिखाई दे जाते। पत्तल में उस दिन भाँग की बरफ़ी भी परोसी जाती। कविमोहन ने अपनी बरफ़ी गिरधारी को दी तो गिरधारी बोला, ‘‘यार आज तो तुझे चखनी पड़ेगी।’’

कवि ने कहा, ‘‘मुझे तो देखकर ही चढ़ गयी, तुम खाओ।’’

बरफ़ी में बुडक़ा मारकर गिरधारी तरंग में झूमने का नाटक करने लगा।

‘‘अभी तो तुम्हारे पेट तक पहुँची भी नहीं है!’’ कवि ने कहा।

बड़े महाराज बोले, ‘‘आप महात्मा गाँधी के चेले क्या जानो होली का हुड़दंगा, कहने को आप मथुरा के हो।’’

गिरधारी सिर हिलाते हुए गाने लगा—

‘‘मोरी भीजी रे सारी सारी रे

कैसौ चटक रंग डारौ।’’

खाना खत्म कर, मुँह में पान का बीड़ा दबा सभी लडक़े नाचने-गाने लगे। बड़े महाराज, दुखीराम भी भाँग की तरंग में खूब मटके। एक से एक तानें उठायी गयीं—

‘‘हरी मिर्चें ततैया जालिम ना डारौ रे।’’

‘‘होरी पे नायँ आयौ बड़ौ बेईमान

फागुन में नायँ आयौ कैसो नादान।’’

तभी डॉ. राजेन्द्र, लडक़ों को होली की बधाई देने पहुँच गये। सभी छात्र उनसे गले मिले, उन्हें अबीर लगाया और सबने उनके चरण-स्पर्श किये। कवि उनके निकट खड़ा हो गया।

विद्यार्थियों का आमोद-प्रमोद देखकर डॉ. राजेन्द्र ने कहा, ‘‘लाख तुम अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ो, तुम्हें राग-रंग का इससे अच्छा उदाहरण विश्व-संस्कृति में नहीं मिल सकता।’’

कवि ने याद दिलाया, ‘‘मिड समर नाइट्स ड्रीम?’’

‘‘उसमें भी यह तरंग नहीं है।’’

थोड़ी देर होस्टल में रुककर डॉ.राजेन्द्र चले गये।

विद्यार्थियों की मौज-मस्ती अभी थमी नहीं थी।

कवि ने गिरधारी से पूछा, ‘‘मस्ती तो चढ़ गयी। अब यह पतंग उतरेगी कैसे?’’

‘‘पतंग तो अब दालमंडी जाकर ही उतरेगी।’’ गिरधारी ने मटकते हुए कहा।

कवि पीछा छुड़ाकर अपने कमरे की ओर चल दिया। उसे तनावमुक्त होने के ऐसे अस्थायी अड्डे बनावटी लगते थे। दरअसल जब भी वह स्त्री की उपस्थिति की अभिलाषा करता, उसके सामने इन्दु के सिवा दूसरी कोई छवि ही न आती। इसमें शक़ नहीं कि वह पूरी तरह अपनी पत्नी के प्रेम में पड़ा हुआ पुरुष था। उसने सोचा था आज एरिस्टोटिल की ‘पोयटिक्स’ अच्छी तरह पढ़-गुन लेगा पर इन्दु की याद ने इतना उद्विग्न कर दिया कि पढ़ाई में मन ही नहीं लगा। लैम्प बुझाकर वह लेट गया। करवट-करवट उसे प्रिया नज़र आयी। उसे यह भी याद आया कि विवाह की रात उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए वह इन्दु से ज्यादा काँप रहा था। इन्दु के गोरे गुलाबी हाथ में उसका हाथ कितना रूखा, काला और कठोर लगा था। उसे यह भी भय हुआ कि कहीं इन्दु उसे नापास तो नहीं कर देगी। विवाह की रस्म से लेकर अब तक का समय अजब तरीक़े से कटा था। जैसे ही वे घर पहुँचे थे पिता ने कहा था, ‘‘कवि, ये जामा जूते पाग जल्दी उतारकर दे दे तो वापस करवा दें, फिजूल किराया चढ़ेगा।’’

जीजी उसके लिए धोती-कमीज़ ले आयी थीं। इन्दु को अन्दर के कमरे में लड़कियों के बीच भेज दिया गया था। वैसे तो कवि उन सजावटी कपड़ों में अटपटा महसूस कर रहा था लेकिन उसे लगा माता-पिता कुछ ज्याेदा ही कौवापन दिखा रहे हैं। मुँह दिखायी में जितना शगुन आया था, जीजी ने अपनी धोती की खूँट में बाँध लिया। कुछ रिश्तेदार कपड़े और अँगूठी, लौंग जैसे हल्के गहने लाये थे। उन सब पर बहनों ने क़ब्ज़ा कर लिया। उसके बाद जीजी ने कहा, ‘‘हमारी बहू बेचारी बड़ी सीधी है, मुँह में बोल तो याके हैई नायँ।’’ अकेलापन पाकर कवि ने पूछा था, ‘‘तुम्हें जीजी और बहनों की बातों का बुरा तो नहीं लगा।’’

इन्दु ने मुस्कराते हुए गर्दन हिला दी।

‘‘तुम्हारी सब चीज़ें बँट गयीं?’’

‘‘उनका हक़ था लेने का। मेरे पास बहुत है।’’

ऐसा नहीं कि ये शुरू की सलज्जता थी जो बाद में बदली। इन्दु का भोलापन निरीहता की सीमा तक जाता था। उसने ससुराल के समस्त अनुशासन, मितव्ययिता और प्रतिदिनता को बिना किसी प्रतिवाद, कुछ इस तरह स्वीकार कर लिया कि कवि अपने अध्ययन-चिन्तन की दुनिया में जीने के लिए स्वतन्त्र हो गया। इन पाँच वर्षों में बस इतना अवश्य हुआ कि इन्दु ने घर की जटिलता पर तो उफ़ न की, किन्तु कुटिलता पर उसे क्रोध आया। गुस्से में कभी वह खाना छोड़ देती, कभी बोलना।

इस रात भी कवि को वही लग रहा था जो अक्सर लगा करता था कि जल्द-से-जल्द एम.ए. उत्तीर्ण कर वह किसी कॉलेज में नौकरी पा ले। उसने कल्पना की उसे दिल्ली में नौकरी मिल गयी है। वह पत्नी और बच्चों के साथ शहर में मकान लेकर रह रहा है। कैसा होगा, अलग शहर में अपना एकल परिवार लेकर रहना! उसे मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति याद आ गयी : ‘निन्दित कदाचित् है प्रथा अब सम्मिलित परिवार की।’ उसे लगा मथुरा में उसका अपना घर एक ऐसा वास है जिसमें न सुख है न चैन, न शान्ति न सामंजस्य। वहाँ सब एक-दूसरे से गुँथे हुए चींटों की तरह चिपके रहते हैं और चोट करते रहते हैं।

यादों के क्रम में यकायक कवि को याद आ गयी लडक़पन की एक घटना। भरतियाजी के यहाँ पुत्र-जन्म की ज्यौनार का न्यौता था। दादाजी को दो दिन से पेचिश हो रही थी। जीजी अलग अपनी टाँग के दर्द से तड़प रही थीं। भरतियाजी एक तो मथुरा के बड़े आदमी थे, दूसरे उनसे दादाजी के परिवार की दो पुश्तों की नज़दीकी थी। यह तय किया गया कि कवि के साथ भग्गो कुन्ती चली जाएँगी। लीला को तेरहवाँ साल लग गया था अत: उसका घर से बाहर निकलना ठीक नहीं समझा गया।

कवि को याद है तीनों बच्चे हँसी-ख़ुशी दावत खाकर लौटे थे। दादाजी ने दो दिन बाद थोड़ी-सी खिचड़ी खायी थी और लेटे हुए थे। उन्होंने कवि को बुलाकर पूछा था, ‘‘क्या-क्या खायबे को मिला?’’

कुन्ती उछलकर बोली, ‘‘पूड़ी, कचौड़ी, बूँदी का रायता, मुरायता...’’

‘‘जे तो साईसों के यहाँ भी होता है। मिठाई बता।’’

भग्गो ने कहा, ‘‘पँचमेल मिठाई ही।’’

कुन्ती बोली, ‘‘हट सात मेल की तो मैंने गिनी थी, ऊपर से तले हुए काजू और गिरी।’’

कवि ने कहा, ‘‘बताएँ लड़ुआ था, बालूशाही थी, जिमीकन्द था—’’

कुन्ती हँस पड़ी, ‘‘जिमीकन्द नहीं दादाजी कलाकन्द था। भैयाजी कलाकन्द को जिमीकन्द च्यौं बोलते हो?’’

दादाजी का धैर्य चुक गया। वे भडक़े, ‘‘ससुरे सात मेल की मिठाई भकोस आये, नाम गिनाने में मैया मर रही है।’’

बच्चों ने बहुत याद करने की कोशिश की, उन्हें बाकी चार मिठाइयों का नाम ही नहीं याद आया।

दादाजी ने उठकर एक-एक थप्पड़ तीनों को मारा। गाली दी और कहा, ‘‘आज गये सो गये, अब कभी ससुरों को भेजूँ नायँ।’’

दावत की मस्ती काफ़ूर हो गयी। तीनों सिसकियाँ लेते हुए सो गये।

जीजी ने कवि को थपकते हुए धीरे-से कहा था, ‘‘बाप नहीं जे कंस है कंस। रोते नहीं हैं बेटे, तोय मेरी सौंह।’’

खट्टी-मीठी और तीती यादों के बीच कब कवि की आँख लग गयी, उसे पता नहीं चला।

कविमोहन के सभी पर्चे बढिय़ा हुए। उसका मन प्रफुल्लित हो गया।

डॉ. राजेन्द्र ने कहा, ‘‘तुम्हारी प्रथम श्रेणी आ जाए तो मैं तुम्हें इसी कॉलेज में रखवा दूँ। प्रिंसिपल मेरी बात बड़ी मानते हैं।’’

कवि ने उनके पैर छू लिये।

उमंग और उम्मीद से भरा वह मथुरा के लिए रवाना हुआ। एक महीने बाद एम.ए. का नतीजा घोषित होने की सम्भावना थी। ट्यूशनें छोडऩे का थोड़ा अफ़सोस था लेकिन उसे पता था कि उसे बड़े आकाश में उडऩा है। ट्यूशन से ज्यादा तकलीफ़ हॉस्टल छोडऩे में हो रही थी। न जाने कितने मित्र बन गये थे। कवि के कारण ही हॉस्टल में आये दिन कवि-गोष्ठियाँ होती रहती थीं जिनमें कभी वह अपनी तो कभी प्रसिद्ध कवियों की कविताओं का सस्वर वाचन करता। कई बार पैरोडी भी बनाता जिससे दोस्तों का ख़ूब मनोरंजन होता। उसकी बनाई बच्चनजी की ‘मधुशाला’ की पैरोडी बहुत पसन्द की गयी थी। कविमोहन ने लिखा था—

‘‘टीचर बोला कूड़मगज़ है, पड़ा मूर्ख से है पाला

पीयेगा क्या खाक कि उसने तोड़ दिया अपना प्याला

मधु भी विष होता है साक़ी, अगर बलात् पिलाएगा

नाज़ करे अन्दाज़ करे पर विवश न करती मधुशाला।’’

अन्तिम दिन हॉस्टल में विदाई की शाम रखी गयी। तब कवि ने अपनी गहन, उदास आवाज़ में अपनी आशु कविता सुनाई थी—

‘‘मेरे आश्रय देनेवाले जाता हूँ गृह ओर

तुझे छोड़ते हो जाता हूँ मैं कारुण्य विभोर

ओ मेरे विश्वास विदा

मेरे छात्रावास विदा।’’

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