Re: दुक्खम्-सुक्खम्
Posted: 25 Dec 2014 14:35
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ये आज़ादी के बाद के दिनों की दिल्ली थी। इसका प्रधान रंग तिरंगा था। लालकिले पर आज़ाद भारत का परचम शान से लहरा रहा था। लेकिन ठीक उसके नीचे लालकिले की बाहरी दीवार से सटे न जाने कितने शरणार्थी अपने टीन-कनस्तर, गठरी-मोटरी लेकर खुले में बैठे हुए थे। सबके चेहरों पर परेशानी और उलझन थी। स्त्रियों ने अपने सिर दुपट्टों से ढँके हुए थे लेकिन तेज़ हवा चलने पर दुपट्टे फिसल जाते। कभी अगस्त का बादल बरस जाता तो खुले आसमान के नीचे पड़े सामान को समेटने की नाकाम कोशिश में कई जोड़ी बाँहें उघड़ जातीं। दरियागंज, तुर्कमान गेट, लालकिला, जैन मन्दिर और गुरुद्वारा सीसगंज की तरफ़ से ऐलानियाँ ताँगा कई बार मुनादी करता निकलता ‘‘भाइयो और बहनो, सरकार की तरफ़ से जगह-जगह कैम्प लगाये गये हैं, आपसे गुज़ारिश है वहाँ जाकर अपना नाम दर्ज करवाएँ और अपनी बारी का इन्तज़ार करें। खुले में रात न बितायें।’’
मुनादी सुननेवाले बेघर-बार लोग और सिकुडक़र बैठ जाते। कई कैम्पों की बुरी हालत देखने के बाद ही वे खुले आसमान के तले आकर बैठे थे। कैम्पों में इन्सान जानवरों से भी बदतर हाल में रह रहे थे। इनकी तरफ़ देखने पर आज़ादी की सारी उमंग झूठी लगती।
कविमोहन कॉलेज जाते और आते वक्त ये दृश्य देखकर उदास हो जाता। कॉलेज में उसे संस्थापक दिवस समारोह की कार्यक्रम-समिति में रखा गया। प्रिंसिपल चाहते थे कि वह कुछ फडक़ते हुए देशगान तैयार करवाये। लेकिन कवि का मन आज़ादी की विसंगतियों से डाँवाडोल रहता। वह विद्यार्थियों को ‘मेरे नगपति मेरे विशाल’ और ‘बढ़े चलो, बढ़े चलो’ जैसे गाने कंठस्थ नहीं करवा पाया। इनकी बजाय उसने दिनकर की पुस्तक ‘हुंकार’ से कविता ली—
‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं
पापी महलों का अहंकार देता तब मुझको आमन्त्रण।’
एक और समूहगान उसने प्रतीक से लिया—
‘बोल अरी हो धरती बोल
राजसिंहासन डाँवाडोल।’
छात्र और छात्राओं को इन कविताओं की शब्द योजना और स्वर समझ आ गया और उन्होंने अभ्यास कर इन्हें कंठस्थ कर लिया। कुहू अलग अपनी नृत्यनाटिका का पूर्वाभ्यास करवा रही थी। समारोह से एक दिन पूर्व प्रिंसिपल ने बताया कि वे ड्रेस रिहर्सल देखना चाहते हैं।
विद्यार्थियों का उत्साह चरम पर था। उन्होंने फाइनल समारोह की तरह ही ड्रेस रिहर्सल का आयोजन किया।
बाकी सब आइटम तो ठीक रहे पर समूहगान पर प्रिंसिपल अटक गये। उन्होंने कहा, ‘‘जलसे में हमने रक्षामन्त्री को बतौर मुख्य अतिथि बुलवाया है। अगर वे पूछेंगे ‘राजसिंहासन डाँवाडोल’ से आपका क्या तात्पर्य है तो हम क्या जवाब देंगे’।’’
कवि ने कहा, ‘‘सर यह स्वाधीनता से पहले की कविता है, तभी के ज़ज्बात इसमें आये हैं।’’
‘‘यह बात कविता से कहाँ ज़ाहिर हुई है?’’ प्रिंसिपल ने एतराज़ किया।
इसी प्रकार दिनकर की कविता पर आक्षेप लगा। प्रिंसिपल को ख़तरा था कि इसे व्यंग्य-आरोप न समझ लिया जाए।
ड्रेस रिहर्सल के दिन ये दोनों समूहगान आयोजन में से निकाल दिये गये। कुहू से कहा गया कि वह अपनी नृत्य नाटिका में उर्वशी का एक और नृत्य जोडक़र आइटम को लम्बा बना दे।
समूहगान के छात्रों में मायूसी छा गयी। दो-तीन छात्र आक्रोश में आ गये। कवि के दोनों आइटम आयोजन से बाहर हो गये। यकायक वह संस्थापक-समारोह में आउटसाइडर बन गया।
अगले दिन उत्सव था। कविमोहन कॉलेज गया ही नहीं। वह अपने कमरे में लेटे-लेटे बाँसवेल की ‘लाइफ़ ऑफ़ जॉन्सन’ पढ़ता रहा। कवि की अनुपस्थिति को तीखेपन से कुहू ने महसूस किया। उसे लगा वह अकारण ही कारण बन गयी। वैसे भी उसे कवि का रवैया समझ नहीं आता। कभी वह पीछे हटे समुद्र-सा पराजित, परास्त और प्रत्यावर्तित दिखता। कुहू को लगता उनकी मित्रता का आधार अजनबीयत पर टिका है। वह उसके बारे में कुछ भी तो नहीं जानती।
कवि के जीवन में कुहू वहीं तक थी जहाँ इन्दु उसे अकेला छोड़ती। उसके मन में एक बुद्धिजीवी साथी की ललक बनी हुई थी। उसे लगता उसके पहलू में कोई हो जो उसके सपने और सरोकार समझे, जिसे वह अपने मन का साथी बना सके और जिसके लिए उसकी ख़ुशी अहम हो।
कॉलेज में फ्री पीरियड के दौरान उन दोनों में वार्तालाप तो अक्सर होता पर वह संवाद से ज्याकदा विवाद की शक्ल ले लेता। बल्कि अब तो बाकी अध्यापक बाकायदा इन्तज़ार करते कि इनकी बहस छिड़े तो उनका भी वक्त कटे।
सबसे पहला विवाद का विषय तो यही हो जाता आज चाय मँगाई जाए या कॉफी। कुहू को कॉफी पसन्द थी। कवि चाय-प्रेमी था। वह कहता, ‘‘कैंटीनवाले को कॉफी बनानी नहीं आती, इंडियन कॉफी हाउस जैसी कॉफी यहाँ कभी नहीं मिल सकती।’’
कुहू कहती, ‘‘यहाँ की चाय तो और भी रद्दी है, उसमें फ्लेवर है ही नहीं।’’
स्टाफ़-रूम में मौजूद मेहरोत्रा कहता, ‘‘फिज़ूल झगड़ रहे हो तुम लोग, जिसे चाय पीनी है चाय मँगाये, जिसे कॉफी पीनी है, कॉफी।’’
कोहली फुटनोट जड़ता, ‘‘कुहेलीजी की रुचियाँ हाइक्लास हैं, कविमोहन की, मिडिल क्लास। जोड़ी नहीं बैठती।’’
कुहू मन मारकर चाय पी लेती।
कभी साहित्य के प्रश्नों पर बहस छिड़ जाती जो कई दिन चलती। कुहू की आदत थी वह जिस भी कवि की कविता क्लास को पढ़ाती, उसी का राग अलापना शुरू कर देती। इन दिनों वह शैले पढ़ा रही थी। उसने लायब्रेरी से लेकर शैले की जीवनी ‘एरियल’ से लगाकर समस्त किताबें पढ़ डालीं। वह शैले की जीवन-शैली, क्रान्तिकारिता और काव्य-प्रतिभा के गुणगान से भरी हुई थी। कवि को शैले बुरा नहीं लगता था लेकिन वह उसका दीवाना भी नहीं था।
‘‘मैं यह मानता हूँ शैले ने अपना जीवन गलत ढंग से जिया। इसकी वजह से उसने तो दुख पाया ही, उससे जुड़े सभी लोगों ने बेवजह दुख उठाया।’’ कवि ने स्टाफ़-रूम में कुहू से कहा।
‘‘तुम पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो। वह इतना संवेदनशील था कि और किसी तरह जीना उसके बस में नहीं था। कच्ची उम्र में अपनी सौतेली बहन के प्रेम में पड़ गया, ज़रा बड़ा हुआ तो हैरियट की ख़ूबसूरती उसे ले डूबी।’’ बोलते-बोलते कुहू भावुक हो उठी।
‘‘उसने हैरियट को सिर्फ सताया, उसे आत्महत्या के लिए मजबूर किया, वह क्रिमिनल था।’’ कवि ने कहा।
‘‘तुम उसके प्रति ज़ालिम हो रहे हो। उसकी कविताओं के बरक्स उसका जीवन रखकर देखो। ऐसा कवि ही हताशा के हक़ में लिख सकता है।’’
‘‘क्या यह अच्छा है, अपनी पीड़ा में छपक-छपक नहाना? उससे कहीं सशक्त कवि वर्ड्ज़वर्थ और कोलरिज हैं।’’ कवि ने प्रतिवाद किया।
‘‘तुमने भी किन मीडियॉकर के नाम ले लिये,’’ कुहू ने कहा, ‘‘वर्ड्ज़वर्थ में कहीं उत्तेजना का चरमबिन्दु नहीं है, वह ताउम्र सत्तानवे डिग्री पर लिखता रहा।’’
‘‘तुम यह उम्मीद क्यों करती हो कि लेखक अपना कुल जीवन दाँव पर लगाकर लिखता रहे? लेखक को इसी जीवन में बहुत से काम करने रहते हैं, लिखना उनमें से एक काम है।’’
‘‘नहीं इस तरह कोई जीनियस नहीं लिख सकता।’’
तभी घंटी बजने से उनकी बहस स्थगित हो गयी लेकिन शेष दिन के लिए दोनों को विचारमग्न छोड़ गयी।
कवि सोचने लगा कि उसकी नज़र में शैले पलायनवादी, सुखवादी और अव्यावहारिक इन्सान था लेकिन एक लेखक के तौर पर वह स्वयं क्या है? एक तरफ़ वह अपने को जिम्मेदार नागरिक मानता है दूसरी तरफ़ वह अपने घर का बोझ माता-पिता के ऊपर डालकर अविवाहित जीवन जैसी स्वाधीनता कमाने की कोशिश करता है। उसके जीवन में क्या कम विसंगतियाँ हैं। जैसे शैले ने हैरियट को मौत की कगार पर पहुँचाया वह भी अपनी पत्नी को तिल-तिल मार रहा है। महज़ कुछ रुपये घर भेज देने को वह अपने कर्तव्य की पूर्ति समझता है।
उसे यह भी समझ आने लगा था कि कुहू शायद उसे अविवाहित मानकर ही चल रही है। वैसे कॉलेज में अब्दुल, अपूर्व और कई साथियों को पता था कि वह विवाहित है पर उन सबसे कुहू की कोई अनौपचारिक मित्रता नहीं थी। यह कुहू का भोलापन था अथवा कवि का काइयाँपन कि अब तक वह अपने विवाहित होने की जानकारी उसे नहीं दे सका। वह अपने को रोज़ यही भुलावा देता रहा कि बिना किसी सन्दर्भ और प्रसंग के वह कैसे कुहू से कह सकता था, सुनो मैं बाल-बच्चेदार आदमी हूँ, तुम मुझे अपना सम्भावित साथी मत समझो।
कवि ने तय किया कल वह किसी भी तरह कुहू को जता देगा कि उसके परिवार में कौन-कौन है। काश उसके पास इन्दु और बच्चों की कोई तस्वीर होती। तब उसका काम बड़ा आसान हो जाता। वह किताब में से तस्वीर गिरा देता और उठाते हुए कहता, ‘देखो कुहू, मेरा प्यारा परिवार। मेरी पत्नी इतनी सुन्दर है कि नरगिस, निम्मी उसके आगे पानी भरें। और ये हैं मेरी बच्चियाँ।’ लेकिन तस्वीर के बिना कवि उन्हें तस्वीर से भी कहीं ज्या दा सप्राण, सुन्दर और आत्मीय बना देगा, यह वह जानता था।
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अगले दिन कॉलेज में कुहू का सामना करने के लिए कवि ने पिछली रात आँखों में काटी। दिमाग में तरह-तरह के जाले थे जो तर्क-वितर्क से हट नहीं रहे थे। कवि सोच रहा था उन दोनों के बीच घोषित सम्बन्ध तो महज़ इतना था कि वे एक ही कॉलेज के एक विभाग में सहकर्मी थे। दोनों को ही कविता पढ़ाने में विशेष रुचि थी हालाँकि उनके प्रिय कवि अलग थे। दोनेां को साहित्यिक बहस का शौक था। यह अलग बात है कि कई बार उनकी बहस एकाधिक दिन तक चला करती और स्टाफ़-रूम में मौजूद बाकी लोग दिलचस्पी से यह नज़ारा देखते। इसके साथ-साथ सतह के नीचे पनपने वाली वह मित्रता थी जिसकी पृष्ठभूमि दोनों की असावधानी से निर्मित हुई थी। कुहू के बार-बार ज़ोर देने पर कविमोहन के उसके घर जाने के छ:-सात प्रसंग, देवाशीष के कविता या अध्ययन-सुधार के चार-पाँच सत्र और कुल जमा एक बार कवि का उनके घर पर रात्रिकालीन भोजन। उस दिन की बात से कवि को आज भी हँसी आ जाती है। कैसे कुहू की माँ ने ताज्जुब से कहा था, ‘ओ माँ यह बोका माछेर झोल खाता नहीं, इसको हम क्या खिलाएँ?’ उस रात कवि ने उनके यहाँ सिर्फ चने की दाल से लूची खायी थी। कवि को उस परिवार का उत्फुल्ल भाव पसन्द था। वहाँ सब सदस्यों का आपस में सहज संवाद था। लडक़े-लडक़ी की मित्रता के प्रति न कोई सन्देह न संकोच। बल्कि उसके पिता स्वयं कहते, ‘‘कोबी इस पूजो पर तुम हमारे साथ कोलकाता चलो, बहुत अच्छा लगेगा।’’ घर की हदों में कुहू भी एकदम अलग किस्म की लडक़ी बन जाती, शैले और वर्ड्सवर्थ पर झगडऩेवाली युवती की जगह ताश के पत्ते बाँटती, फेंकती, एक अल्हड़ लडक़ी।
उस परिवार के ताने-बाने में कवि एक सदस्य की तरह स्वीकार कर लिया गया था, यहाँ तक कि कवि को बोलचाल की बांग्ला समझ आने लगी थी। वह रवीन्द्रनाथ ठाकुर और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा लिखित दोनों बांग्ला प्राइमर भी खरीद लाया था। रात जब वह आखिरी बस से दस बजे जाने को कहता, कुहू उसे छोडऩे घर के फाटक तक आती और व्यग्रता से पूछती, ‘‘फिर कब आओगे?’’ थोड़ी देर दोनों ठिठके खड़े रहते। पूरे चाँद की चाँदनी में न सिर्फ बेगमबेलिया के पत्ते वरन् कुहू के बाल भी चमकते, उसका दुपट्टा एक क्षण कवि के ऊपर लहरा जाता और वह कहती, ‘‘एदियू टिल वी मीट अगेन।’’ कवि बस की जगह बादलों पर सवार होकर वापस लौटता।
कवि को याद आया एक दिन कुहू की माँ ने कहा, ‘‘ये लडक़ी, कोबी, एकदम पागल है। इधर बंगाली मार्केट में नहीं उधर करोलबाग जाकर शॉपिंग करना बोलती। तुम इसको ले जाओ, हम तो कभी करोलबाग गया नहीं।’’
एक इतवार वे दोनों करोलबाग गये थे। कुहू चिडिय़ा की तरह चहक रही थी। उसने सलवार-सूट का कपड़ा, पाउडर, शमीज, छोटे टॉवेल और मेवे खरीदे। फिर बोली, ‘‘अरे मुझे बॉबपिन्ज़ और क्लिप खरीदने थे, वह तो मैं भूल ही गयी।’’ वह कवि की बाँह पकडक़र एक तरह से घसीटती हुई ही वापस चल पड़ी थी मार्केट की ओर जहाँ नुक्कड़ पर ही क्लिपवाला और चाट-पकौड़ी वाला बैठा था। जब कुहू ने बालों के लिए तरह-तरह के ढेर सारे क्लिप्स और पिन खरीदे, कवि ने भी तीन जोड़ी सुन्दर से क्लिप्स खरीद लिये थे।
कुहू ने शरारत से कहा था, ‘‘अपनी तीन गर्ल फ्रेंड्स के लिए?’’
कवि ने सकपकाकर कहा था, ‘‘मेरी तीन बहनें हैं।’’
उस क्षण कवि बता सकता था कि वह यह सौगात अपनी पत्नी के लिए खरीद रहा है लेकिन उसमें नैतिक साहस ही न हुआ। उसे बहनों का नाम लेना सर्वथा सुरक्षित लगा।
रात में इन बातों की निष्प्रयोजनता कवि के सामने खुलती जा रही थी। वह तय कर रहा था कि उसे यह ख़बर पहले कुहू-परिवार को देनी चाहिए अथवा कुहू को! कभी वह सोचता उसे पहले कुहू को बताना चाहिए क्योंकि परिवार को तो वह कुहू के माध्यम से जान पाया है। कभी उसे लगता एक बार परिवार उसके सत्य को स्वीकार कर ले फिर तो कुहू का व्यवहार समयानुसार सहज हो जाएगा।
इन्हीं द्वन्द्वों में फँसा जब कवि कॉलेज पहुँचा उसने पाया आज कुहू कॉलेज आयी ही नहीं है।
कवि कुछ प्रकृतिस्थ होकर स्टॉफ़-रूम में अपनी कुर्सी पर बैठ गया। कुछ देर बाद उसके हैड ने ही बताया, ‘‘कुहेली भट्टाचार्य के फादर को हार्ट अटैक हो गया है। उसका फोन आया था।’’
कवि को हैरानी हुई, ‘‘कब की बात है।’’
‘‘लास्ट नाइट बताया था उसने।’’
कविमोहन ने किसी तरह एक पीरियड लिया, फिर वह बंगाली मार्केट की तरफ़ चल पड़ा।
घर पर ताला लगा था। पड़ोसी ने बताया शायद जीवन हॉस्पिटल गये हैं सब लोग।
सघन चिकित्सा कक्ष के बाहर गलियारे में बेंच पर चिन्तामग्न बैठे तीन चेहरे माँ, देवाशीष और कुहू के थे। उन्हीं से कवि को पता चला कि रात खाने के बाद पिताजी को यकायक बेचैनी हुई, बाँह में तेज़ दर्द हुआ और वे बेहोश हो गये। डॉ. आहूजा को बुलाकर दिखाया तो उन्होंने इन्हें हॉस्पिटल लाने की सलाह दी। गम्भीर हार्ट अटैक था। इस वक्त दवाओं के असर से बेसुध हैं।
मौजूदा हालात में पिताजी की देखभाल के अलावा और किसी विषय पर बातचीत का सवाल ही नहीं था। कॉलेज के कुछ और लोग भी उन्हें देखने आये लेकिन कवि पर उनके पास बैठने की बाक़ायदा ड्यूटी लगी थी। कुहू के चाचा का परिवार कलकत्ते से दो दिनों के लिए आकर बीमार का हाल देख गया। सेवासुश्रूषा का असली वज़न घर के लोगों पर ही था और कवि भी घर का हिस्सा समझा जाने लगा।
एक शाम वह भट्टाचार्यजी के पास बैठा किताब पढ़ रहा था। तभी स्टॉफ नर्स ने आकर उनका रक्तचाप जाँचा। वह कवि से मुस्कराकर बोली, ‘‘आपके फ़ादर हैं ये?’’
‘‘नहीं, फ़ादर जैसे हैं।’’
‘‘फ़ादर इन लॉ?’’
‘‘नहीं, माय फ्रेंड्स फ़ादर।’’
नर्स के जाने के बहुत देर बाद जब कवि भट्टाचार्यजी को फलों का रस पिला रहा था, उन्होंने अचानक कहा, ‘‘कोबी, हमंऔ लगता हम अब लडक़ी का बिये कर दें।’’
कवि एकबारगी समझा नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। उसे प्राइमर से यह तो पता था कि बोई का मतलब किताब होता है। बिये का मतलब वह नहीं जानता था।
भट्टाचार्यजी कहने लगे, ‘‘रिटायर होकर हम सोचता था, सब काम धीरे-धीरे करेगा। अब तबियत बोलता, तड़पड़ काम करने का जैसे हज़ारे रन बनाता। ताड़ाताड़ी।’’
‘‘सब हो जाएगा, पहले आप स्वस्थ होकर घर तो पहुँचें।’’
कवि ने उनको शान्त किया। उसे आभास हुआ कि उनका मतलब कुहू की शादी से है। यह वह मौका नहीं था जब कवि इस सत्य का उद्घाटन करता कि वह विवाहित है, दो बच्चों का पिता। एक इनसान की जान पर बनी थी और अगले चार घंटे, उनकी सुश्रूषा का भार कवि पर था।
जब कुहू रात के लिए थर्मस में दूध लेकर हॉस्पिटल आयी तब भी कवि यह न पूछ सका कि सुनो कुहू, बिये का मतलब क्या होता है?
अपने कमरे के एकान्त में, बिस्तर पर, थके-हारे, लेटे हुए कवि को बड़े तीखेपन से लग रहा था भारतीय समाज पुरुषों के प्रति कम क्रूर नहीं रहा है। क्यों नहीं समाज ने कुछ ऐसे प्रतीक चिह्न स्थापित किये जिनको धारण करने से पुरुषों का विवाहित होना ज़ाहिर हो सके। स्त्रियों को कम-से-कम यह छूट है कि वे मंगलसूत्र, सिन्दूर, आलता और बिन्दी के सहारे अपने विवाहित होने का सबूत पेश कर सकती है। पुरुष के सर्वांग पर कहीं नहीं लिखा होता कि वह विवाहित है अथवा अविवाहित। पुरुष शिथिल, थुलथुल, अधेड़ दिखने लगे तब तो लोग समझ लें कि हाँ यह बाल-बच्चेदार आदमी है, अन्यथा अगर वह कवि की तरह लम्बा, दुबला, लडक़े जैसे युवा और आकर्षक व्यक्तित्व का हो तो यह समस्या हर सम्पर्क में उपस्थित हो सकती है। पश्चिम में मर्द के बायें हाथ की अनामिका में अँगूठी का होना उसका शादीशुदा होना बताता है पर भारतीय समाज में मर्द की उँगली में अँगूठी कोई स्पष्ट घोषणा-पत्र नहीं है। शादी पर कविमोहन को ससुराल से अँगूठी दी गयी थी जिस पर ú खुदा हुआ था। कवि ने उसे एक भी बार पहनकर नहीं देखा। उसे हमेशा लगता था अँगूठी पहननेवाले हाथ व्यापारियों के हाथ होते हैं। कलम-पेन्सिल पकडऩेवाले हाथों में अँगूठी शोभा नहीं बाधा लगती है। उसकी अँगूठी घर की तिजोरी में कहीं पड़ी होगी। कवि को बच्चनजी की पंक्तियाँ याद आने लगीं—
‘हम कब अपनी बात छिपाते।
हम अपना जीवन अंकित कर
फेंक चुके हैं राज-मार्ग पर
जिसके जी में आये पढ़ ले, थमकर पल भर आते-जाते
हम कब अपनी बात छिपाते।’
यही ठीक रहेगा, कवि ने सोचा। वह कुहू को पत्र लिखकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर देगा।
कवि का मन कुछ हल्का हो आया। शब्द की दुनिया पर उसे सबसे ज्या्दा भरोसा था।
करवट-करवट सोकर देखा लेकिन उसको नींद न आयी। कवि कागज़-कलम लेकर बैठ गया।
उसने लिखना शुरू किया—मेरी दोस्त कुहू। फिर कुछ सोचकर उसने मेरी शब्द काट दिया। —मेरी दोस्त कुहू। उसे क्या हक है कुहू को मेरी कहने का। आगे उसने लिखा—‘तुम सोचोगी जब मैं रोज़ इतने घंटे तुम्हारे पास, तुम्हारे साथ होता हूँ, चिट्ठी लिखने की आखिर क्या ज़रूरत पड़ गयी। आज अस्पताल में पिताजी को यकायक तुम्हारी फिक्र होने लगी। उन्होंने कहा वे चाहते हैं तुम्हारी बिये कर दें। बांग्ला सहज ज्ञान पोथी में बिये शब्द का अर्थ तो नहीं दिया पर मैं समझ रहा हूँ कि उनका तात्पर्य तुम्हारे विवाह से है।
इसके लिए पहल तो तुम्हें करनी होगी। जैसी सहज, सजग और प्रखर तुम हो अपने अनुरूप साथी ढूँढऩे का काम सबसे सही तरीके से तुम ही कर सकती हो। अपने आसपास साथियों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो मुझे कोई भी तुम्हारे योग्य नहीं लगता, मैं भी नहीं। काश तुम मुझे पाँच साल पहले मिली होतीं। तब मैं अपना नया उज्ज्वल प्रथमोल्लास तुम्हें अर्पित करता। अब तो मेरी दशा कुछ-कुछ एलियट की कविता की शुरुआत जैसी है—
‘लेट अस गो देन यू एंड आय
वैन द ईवनिंग इज़ स्प्रेड अगेंस्ट द स्काय
लाइक ए पेशेंट ईथराइज़्ड अपॉन द टेबिल।’
मेरी पत्नी इन्दु सुन्दर और अच्छी है लेकिन मेरे विचारलोक में प्रविष्ट नहीं है। उसे अधिक शिक्षित करने का मुझे समय और अवसर भी नहीं मिला। तुममें मैंने अपनी सोलमेट की झलक देखी जिसका स्विचबोर्ड हमेशा सक्रिय और संवेदनयुक्त रहता है।
इस पत्र को लिखते हुए मैं एक साथ चिन्तातुर और चिन्तामुक्त, दोनों हो रहा हूँ। तुम समझ सकती हो।
तुम्हारा
कविमोहन
पत्र पूरा कर कवि उसे एक बार पढ़ गया। अब उसने सम्बोधन में से दोस्त शब्द भी काट दिया—मेरी दोस्त कुहू—सिर्फ कुहू बच रहा। अन्त में भी एक शब्द काटना पड़ा—तुम्हारा। उसने दूसरी बार पत्र पढ़ा। कटे हुए शब्द लाशों की तरह पृष्ठ पर पड़े थे। कवि चाहता तो चिट्ठी दुबारा नये कागज़ पर लिख सकता था। पर उसकी आदत थी वह कोई भी चीज़ बस एक बार लिखता। कविता से लेकर लेख तक उसका यही अभ्यास था। हाँ, कागज़ पर उतरने से पहले पंक्तियाँ उसके मन-मस्तिष्क में उमड़ती रहतीं।
पत्र को मोडक़र उसने लिफ़ाफे में डाला। लिफ़ाफे के ऊपर कुहू का नाम लिखते हुए हाथ कुछ काँप गया। दूसरा लिफ़ाफ़ा लम्बा था, रचनाएँ भेजनेवाला। उसमें निजी ख़त डालना अच्छा नहीं लगता। कवि ने मेज़ पर चिट्ठी रख छोड़ी। उसके ऊपर पेन रख दिया। सोचा सुबह दूसरा लिफ़ाफ़ा लाकर नाम नये सिरे से लिख देगा।
आमतौर से कवि देर में सोकर उठता था और हड़बड़ी में तैयार होकर कॉलेज चल देता। आज सुबह-सुबह हल्की फडफ़ड़ाहट से उसकी नींद खुल गयी। उसने पाया खिडक़ी से आ रही हवा से कलम के नीचे दबा कागज़ रह-रहकर फडफ़ड़ा रहा है जैसे कह रहा हो, मुझे सँभाल लो, मैं किसी भी पल उड़ जाऊँगा।
कवि ने बाँह बढ़ाकर चिट्ठी उठा ली। चिट्ठी पर नज़र डाली। थोड़ा असन्तोष हुआ। उसे लगा चिट्ठी अधूरी है। उसने पुनश्च लिखकर उसमें जोड़ा, ‘आज मुझे तुम्हारे प्रिय कवि शैले की पंक्तियाँ याद आ रही हैं—
‘We look before and after
And pine for what is not.
Our sincerest laughter
is with some pain fraught
Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.’
जब तक चिट्ठी कमरे में रखी रही कविमोहन को चुनौती देती रही। उसे लग रहा था यह चिट्ठी उसे अँगूठा दिखा रही है, ‘तुम मुझे डाक में डालोगे ही नहीं। तुम्हें बंगाली मार्केट का पता भूल जाएगा। तुम्हारे पास न लिफ़ाफ़ा है, न डाकटिकट। तुम इस शहर में अपनी एकमात्र दोस्त को अपनी बेवकूफ़ी से खो दोगे। तुम्हारा नाम कविमोहन नहीं मूर्खमोहन है।’
कवि से न नाश्ता खाया गया न खाना। वह कॉलेज भी नहीं गया। उसने अख़बार भी नहीं पढ़ा। उसके दिमाग में आँधी चलती रही। किस मुँह से वह कॉलेज जाता रहेगा। कुहू उसे क्यों क्षमा करेगी! और उसका परिवार!
आखिरकार सत्य का बोझ और अधिक सहना कवि के लिए असह्य हो गया और शाम पाँच बजे वह चिट्ठी डाकपेटी में छोड़ आया।
ये आज़ादी के बाद के दिनों की दिल्ली थी। इसका प्रधान रंग तिरंगा था। लालकिले पर आज़ाद भारत का परचम शान से लहरा रहा था। लेकिन ठीक उसके नीचे लालकिले की बाहरी दीवार से सटे न जाने कितने शरणार्थी अपने टीन-कनस्तर, गठरी-मोटरी लेकर खुले में बैठे हुए थे। सबके चेहरों पर परेशानी और उलझन थी। स्त्रियों ने अपने सिर दुपट्टों से ढँके हुए थे लेकिन तेज़ हवा चलने पर दुपट्टे फिसल जाते। कभी अगस्त का बादल बरस जाता तो खुले आसमान के नीचे पड़े सामान को समेटने की नाकाम कोशिश में कई जोड़ी बाँहें उघड़ जातीं। दरियागंज, तुर्कमान गेट, लालकिला, जैन मन्दिर और गुरुद्वारा सीसगंज की तरफ़ से ऐलानियाँ ताँगा कई बार मुनादी करता निकलता ‘‘भाइयो और बहनो, सरकार की तरफ़ से जगह-जगह कैम्प लगाये गये हैं, आपसे गुज़ारिश है वहाँ जाकर अपना नाम दर्ज करवाएँ और अपनी बारी का इन्तज़ार करें। खुले में रात न बितायें।’’
मुनादी सुननेवाले बेघर-बार लोग और सिकुडक़र बैठ जाते। कई कैम्पों की बुरी हालत देखने के बाद ही वे खुले आसमान के तले आकर बैठे थे। कैम्पों में इन्सान जानवरों से भी बदतर हाल में रह रहे थे। इनकी तरफ़ देखने पर आज़ादी की सारी उमंग झूठी लगती।
कविमोहन कॉलेज जाते और आते वक्त ये दृश्य देखकर उदास हो जाता। कॉलेज में उसे संस्थापक दिवस समारोह की कार्यक्रम-समिति में रखा गया। प्रिंसिपल चाहते थे कि वह कुछ फडक़ते हुए देशगान तैयार करवाये। लेकिन कवि का मन आज़ादी की विसंगतियों से डाँवाडोल रहता। वह विद्यार्थियों को ‘मेरे नगपति मेरे विशाल’ और ‘बढ़े चलो, बढ़े चलो’ जैसे गाने कंठस्थ नहीं करवा पाया। इनकी बजाय उसने दिनकर की पुस्तक ‘हुंकार’ से कविता ली—
‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं
पापी महलों का अहंकार देता तब मुझको आमन्त्रण।’
एक और समूहगान उसने प्रतीक से लिया—
‘बोल अरी हो धरती बोल
राजसिंहासन डाँवाडोल।’
छात्र और छात्राओं को इन कविताओं की शब्द योजना और स्वर समझ आ गया और उन्होंने अभ्यास कर इन्हें कंठस्थ कर लिया। कुहू अलग अपनी नृत्यनाटिका का पूर्वाभ्यास करवा रही थी। समारोह से एक दिन पूर्व प्रिंसिपल ने बताया कि वे ड्रेस रिहर्सल देखना चाहते हैं।
विद्यार्थियों का उत्साह चरम पर था। उन्होंने फाइनल समारोह की तरह ही ड्रेस रिहर्सल का आयोजन किया।
बाकी सब आइटम तो ठीक रहे पर समूहगान पर प्रिंसिपल अटक गये। उन्होंने कहा, ‘‘जलसे में हमने रक्षामन्त्री को बतौर मुख्य अतिथि बुलवाया है। अगर वे पूछेंगे ‘राजसिंहासन डाँवाडोल’ से आपका क्या तात्पर्य है तो हम क्या जवाब देंगे’।’’
कवि ने कहा, ‘‘सर यह स्वाधीनता से पहले की कविता है, तभी के ज़ज्बात इसमें आये हैं।’’
‘‘यह बात कविता से कहाँ ज़ाहिर हुई है?’’ प्रिंसिपल ने एतराज़ किया।
इसी प्रकार दिनकर की कविता पर आक्षेप लगा। प्रिंसिपल को ख़तरा था कि इसे व्यंग्य-आरोप न समझ लिया जाए।
ड्रेस रिहर्सल के दिन ये दोनों समूहगान आयोजन में से निकाल दिये गये। कुहू से कहा गया कि वह अपनी नृत्य नाटिका में उर्वशी का एक और नृत्य जोडक़र आइटम को लम्बा बना दे।
समूहगान के छात्रों में मायूसी छा गयी। दो-तीन छात्र आक्रोश में आ गये। कवि के दोनों आइटम आयोजन से बाहर हो गये। यकायक वह संस्थापक-समारोह में आउटसाइडर बन गया।
अगले दिन उत्सव था। कविमोहन कॉलेज गया ही नहीं। वह अपने कमरे में लेटे-लेटे बाँसवेल की ‘लाइफ़ ऑफ़ जॉन्सन’ पढ़ता रहा। कवि की अनुपस्थिति को तीखेपन से कुहू ने महसूस किया। उसे लगा वह अकारण ही कारण बन गयी। वैसे भी उसे कवि का रवैया समझ नहीं आता। कभी वह पीछे हटे समुद्र-सा पराजित, परास्त और प्रत्यावर्तित दिखता। कुहू को लगता उनकी मित्रता का आधार अजनबीयत पर टिका है। वह उसके बारे में कुछ भी तो नहीं जानती।
कवि के जीवन में कुहू वहीं तक थी जहाँ इन्दु उसे अकेला छोड़ती। उसके मन में एक बुद्धिजीवी साथी की ललक बनी हुई थी। उसे लगता उसके पहलू में कोई हो जो उसके सपने और सरोकार समझे, जिसे वह अपने मन का साथी बना सके और जिसके लिए उसकी ख़ुशी अहम हो।
कॉलेज में फ्री पीरियड के दौरान उन दोनों में वार्तालाप तो अक्सर होता पर वह संवाद से ज्याकदा विवाद की शक्ल ले लेता। बल्कि अब तो बाकी अध्यापक बाकायदा इन्तज़ार करते कि इनकी बहस छिड़े तो उनका भी वक्त कटे।
सबसे पहला विवाद का विषय तो यही हो जाता आज चाय मँगाई जाए या कॉफी। कुहू को कॉफी पसन्द थी। कवि चाय-प्रेमी था। वह कहता, ‘‘कैंटीनवाले को कॉफी बनानी नहीं आती, इंडियन कॉफी हाउस जैसी कॉफी यहाँ कभी नहीं मिल सकती।’’
कुहू कहती, ‘‘यहाँ की चाय तो और भी रद्दी है, उसमें फ्लेवर है ही नहीं।’’
स्टाफ़-रूम में मौजूद मेहरोत्रा कहता, ‘‘फिज़ूल झगड़ रहे हो तुम लोग, जिसे चाय पीनी है चाय मँगाये, जिसे कॉफी पीनी है, कॉफी।’’
कोहली फुटनोट जड़ता, ‘‘कुहेलीजी की रुचियाँ हाइक्लास हैं, कविमोहन की, मिडिल क्लास। जोड़ी नहीं बैठती।’’
कुहू मन मारकर चाय पी लेती।
कभी साहित्य के प्रश्नों पर बहस छिड़ जाती जो कई दिन चलती। कुहू की आदत थी वह जिस भी कवि की कविता क्लास को पढ़ाती, उसी का राग अलापना शुरू कर देती। इन दिनों वह शैले पढ़ा रही थी। उसने लायब्रेरी से लेकर शैले की जीवनी ‘एरियल’ से लगाकर समस्त किताबें पढ़ डालीं। वह शैले की जीवन-शैली, क्रान्तिकारिता और काव्य-प्रतिभा के गुणगान से भरी हुई थी। कवि को शैले बुरा नहीं लगता था लेकिन वह उसका दीवाना भी नहीं था।
‘‘मैं यह मानता हूँ शैले ने अपना जीवन गलत ढंग से जिया। इसकी वजह से उसने तो दुख पाया ही, उससे जुड़े सभी लोगों ने बेवजह दुख उठाया।’’ कवि ने स्टाफ़-रूम में कुहू से कहा।
‘‘तुम पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो। वह इतना संवेदनशील था कि और किसी तरह जीना उसके बस में नहीं था। कच्ची उम्र में अपनी सौतेली बहन के प्रेम में पड़ गया, ज़रा बड़ा हुआ तो हैरियट की ख़ूबसूरती उसे ले डूबी।’’ बोलते-बोलते कुहू भावुक हो उठी।
‘‘उसने हैरियट को सिर्फ सताया, उसे आत्महत्या के लिए मजबूर किया, वह क्रिमिनल था।’’ कवि ने कहा।
‘‘तुम उसके प्रति ज़ालिम हो रहे हो। उसकी कविताओं के बरक्स उसका जीवन रखकर देखो। ऐसा कवि ही हताशा के हक़ में लिख सकता है।’’
‘‘क्या यह अच्छा है, अपनी पीड़ा में छपक-छपक नहाना? उससे कहीं सशक्त कवि वर्ड्ज़वर्थ और कोलरिज हैं।’’ कवि ने प्रतिवाद किया।
‘‘तुमने भी किन मीडियॉकर के नाम ले लिये,’’ कुहू ने कहा, ‘‘वर्ड्ज़वर्थ में कहीं उत्तेजना का चरमबिन्दु नहीं है, वह ताउम्र सत्तानवे डिग्री पर लिखता रहा।’’
‘‘तुम यह उम्मीद क्यों करती हो कि लेखक अपना कुल जीवन दाँव पर लगाकर लिखता रहे? लेखक को इसी जीवन में बहुत से काम करने रहते हैं, लिखना उनमें से एक काम है।’’
‘‘नहीं इस तरह कोई जीनियस नहीं लिख सकता।’’
तभी घंटी बजने से उनकी बहस स्थगित हो गयी लेकिन शेष दिन के लिए दोनों को विचारमग्न छोड़ गयी।
कवि सोचने लगा कि उसकी नज़र में शैले पलायनवादी, सुखवादी और अव्यावहारिक इन्सान था लेकिन एक लेखक के तौर पर वह स्वयं क्या है? एक तरफ़ वह अपने को जिम्मेदार नागरिक मानता है दूसरी तरफ़ वह अपने घर का बोझ माता-पिता के ऊपर डालकर अविवाहित जीवन जैसी स्वाधीनता कमाने की कोशिश करता है। उसके जीवन में क्या कम विसंगतियाँ हैं। जैसे शैले ने हैरियट को मौत की कगार पर पहुँचाया वह भी अपनी पत्नी को तिल-तिल मार रहा है। महज़ कुछ रुपये घर भेज देने को वह अपने कर्तव्य की पूर्ति समझता है।
उसे यह भी समझ आने लगा था कि कुहू शायद उसे अविवाहित मानकर ही चल रही है। वैसे कॉलेज में अब्दुल, अपूर्व और कई साथियों को पता था कि वह विवाहित है पर उन सबसे कुहू की कोई अनौपचारिक मित्रता नहीं थी। यह कुहू का भोलापन था अथवा कवि का काइयाँपन कि अब तक वह अपने विवाहित होने की जानकारी उसे नहीं दे सका। वह अपने को रोज़ यही भुलावा देता रहा कि बिना किसी सन्दर्भ और प्रसंग के वह कैसे कुहू से कह सकता था, सुनो मैं बाल-बच्चेदार आदमी हूँ, तुम मुझे अपना सम्भावित साथी मत समझो।
कवि ने तय किया कल वह किसी भी तरह कुहू को जता देगा कि उसके परिवार में कौन-कौन है। काश उसके पास इन्दु और बच्चों की कोई तस्वीर होती। तब उसका काम बड़ा आसान हो जाता। वह किताब में से तस्वीर गिरा देता और उठाते हुए कहता, ‘देखो कुहू, मेरा प्यारा परिवार। मेरी पत्नी इतनी सुन्दर है कि नरगिस, निम्मी उसके आगे पानी भरें। और ये हैं मेरी बच्चियाँ।’ लेकिन तस्वीर के बिना कवि उन्हें तस्वीर से भी कहीं ज्या दा सप्राण, सुन्दर और आत्मीय बना देगा, यह वह जानता था।
32
अगले दिन कॉलेज में कुहू का सामना करने के लिए कवि ने पिछली रात आँखों में काटी। दिमाग में तरह-तरह के जाले थे जो तर्क-वितर्क से हट नहीं रहे थे। कवि सोच रहा था उन दोनों के बीच घोषित सम्बन्ध तो महज़ इतना था कि वे एक ही कॉलेज के एक विभाग में सहकर्मी थे। दोनों को ही कविता पढ़ाने में विशेष रुचि थी हालाँकि उनके प्रिय कवि अलग थे। दोनेां को साहित्यिक बहस का शौक था। यह अलग बात है कि कई बार उनकी बहस एकाधिक दिन तक चला करती और स्टाफ़-रूम में मौजूद बाकी लोग दिलचस्पी से यह नज़ारा देखते। इसके साथ-साथ सतह के नीचे पनपने वाली वह मित्रता थी जिसकी पृष्ठभूमि दोनों की असावधानी से निर्मित हुई थी। कुहू के बार-बार ज़ोर देने पर कविमोहन के उसके घर जाने के छ:-सात प्रसंग, देवाशीष के कविता या अध्ययन-सुधार के चार-पाँच सत्र और कुल जमा एक बार कवि का उनके घर पर रात्रिकालीन भोजन। उस दिन की बात से कवि को आज भी हँसी आ जाती है। कैसे कुहू की माँ ने ताज्जुब से कहा था, ‘ओ माँ यह बोका माछेर झोल खाता नहीं, इसको हम क्या खिलाएँ?’ उस रात कवि ने उनके यहाँ सिर्फ चने की दाल से लूची खायी थी। कवि को उस परिवार का उत्फुल्ल भाव पसन्द था। वहाँ सब सदस्यों का आपस में सहज संवाद था। लडक़े-लडक़ी की मित्रता के प्रति न कोई सन्देह न संकोच। बल्कि उसके पिता स्वयं कहते, ‘‘कोबी इस पूजो पर तुम हमारे साथ कोलकाता चलो, बहुत अच्छा लगेगा।’’ घर की हदों में कुहू भी एकदम अलग किस्म की लडक़ी बन जाती, शैले और वर्ड्सवर्थ पर झगडऩेवाली युवती की जगह ताश के पत्ते बाँटती, फेंकती, एक अल्हड़ लडक़ी।
उस परिवार के ताने-बाने में कवि एक सदस्य की तरह स्वीकार कर लिया गया था, यहाँ तक कि कवि को बोलचाल की बांग्ला समझ आने लगी थी। वह रवीन्द्रनाथ ठाकुर और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा लिखित दोनों बांग्ला प्राइमर भी खरीद लाया था। रात जब वह आखिरी बस से दस बजे जाने को कहता, कुहू उसे छोडऩे घर के फाटक तक आती और व्यग्रता से पूछती, ‘‘फिर कब आओगे?’’ थोड़ी देर दोनों ठिठके खड़े रहते। पूरे चाँद की चाँदनी में न सिर्फ बेगमबेलिया के पत्ते वरन् कुहू के बाल भी चमकते, उसका दुपट्टा एक क्षण कवि के ऊपर लहरा जाता और वह कहती, ‘‘एदियू टिल वी मीट अगेन।’’ कवि बस की जगह बादलों पर सवार होकर वापस लौटता।
कवि को याद आया एक दिन कुहू की माँ ने कहा, ‘‘ये लडक़ी, कोबी, एकदम पागल है। इधर बंगाली मार्केट में नहीं उधर करोलबाग जाकर शॉपिंग करना बोलती। तुम इसको ले जाओ, हम तो कभी करोलबाग गया नहीं।’’
एक इतवार वे दोनों करोलबाग गये थे। कुहू चिडिय़ा की तरह चहक रही थी। उसने सलवार-सूट का कपड़ा, पाउडर, शमीज, छोटे टॉवेल और मेवे खरीदे। फिर बोली, ‘‘अरे मुझे बॉबपिन्ज़ और क्लिप खरीदने थे, वह तो मैं भूल ही गयी।’’ वह कवि की बाँह पकडक़र एक तरह से घसीटती हुई ही वापस चल पड़ी थी मार्केट की ओर जहाँ नुक्कड़ पर ही क्लिपवाला और चाट-पकौड़ी वाला बैठा था। जब कुहू ने बालों के लिए तरह-तरह के ढेर सारे क्लिप्स और पिन खरीदे, कवि ने भी तीन जोड़ी सुन्दर से क्लिप्स खरीद लिये थे।
कुहू ने शरारत से कहा था, ‘‘अपनी तीन गर्ल फ्रेंड्स के लिए?’’
कवि ने सकपकाकर कहा था, ‘‘मेरी तीन बहनें हैं।’’
उस क्षण कवि बता सकता था कि वह यह सौगात अपनी पत्नी के लिए खरीद रहा है लेकिन उसमें नैतिक साहस ही न हुआ। उसे बहनों का नाम लेना सर्वथा सुरक्षित लगा।
रात में इन बातों की निष्प्रयोजनता कवि के सामने खुलती जा रही थी। वह तय कर रहा था कि उसे यह ख़बर पहले कुहू-परिवार को देनी चाहिए अथवा कुहू को! कभी वह सोचता उसे पहले कुहू को बताना चाहिए क्योंकि परिवार को तो वह कुहू के माध्यम से जान पाया है। कभी उसे लगता एक बार परिवार उसके सत्य को स्वीकार कर ले फिर तो कुहू का व्यवहार समयानुसार सहज हो जाएगा।
इन्हीं द्वन्द्वों में फँसा जब कवि कॉलेज पहुँचा उसने पाया आज कुहू कॉलेज आयी ही नहीं है।
कवि कुछ प्रकृतिस्थ होकर स्टॉफ़-रूम में अपनी कुर्सी पर बैठ गया। कुछ देर बाद उसके हैड ने ही बताया, ‘‘कुहेली भट्टाचार्य के फादर को हार्ट अटैक हो गया है। उसका फोन आया था।’’
कवि को हैरानी हुई, ‘‘कब की बात है।’’
‘‘लास्ट नाइट बताया था उसने।’’
कविमोहन ने किसी तरह एक पीरियड लिया, फिर वह बंगाली मार्केट की तरफ़ चल पड़ा।
घर पर ताला लगा था। पड़ोसी ने बताया शायद जीवन हॉस्पिटल गये हैं सब लोग।
सघन चिकित्सा कक्ष के बाहर गलियारे में बेंच पर चिन्तामग्न बैठे तीन चेहरे माँ, देवाशीष और कुहू के थे। उन्हीं से कवि को पता चला कि रात खाने के बाद पिताजी को यकायक बेचैनी हुई, बाँह में तेज़ दर्द हुआ और वे बेहोश हो गये। डॉ. आहूजा को बुलाकर दिखाया तो उन्होंने इन्हें हॉस्पिटल लाने की सलाह दी। गम्भीर हार्ट अटैक था। इस वक्त दवाओं के असर से बेसुध हैं।
मौजूदा हालात में पिताजी की देखभाल के अलावा और किसी विषय पर बातचीत का सवाल ही नहीं था। कॉलेज के कुछ और लोग भी उन्हें देखने आये लेकिन कवि पर उनके पास बैठने की बाक़ायदा ड्यूटी लगी थी। कुहू के चाचा का परिवार कलकत्ते से दो दिनों के लिए आकर बीमार का हाल देख गया। सेवासुश्रूषा का असली वज़न घर के लोगों पर ही था और कवि भी घर का हिस्सा समझा जाने लगा।
एक शाम वह भट्टाचार्यजी के पास बैठा किताब पढ़ रहा था। तभी स्टॉफ नर्स ने आकर उनका रक्तचाप जाँचा। वह कवि से मुस्कराकर बोली, ‘‘आपके फ़ादर हैं ये?’’
‘‘नहीं, फ़ादर जैसे हैं।’’
‘‘फ़ादर इन लॉ?’’
‘‘नहीं, माय फ्रेंड्स फ़ादर।’’
नर्स के जाने के बहुत देर बाद जब कवि भट्टाचार्यजी को फलों का रस पिला रहा था, उन्होंने अचानक कहा, ‘‘कोबी, हमंऔ लगता हम अब लडक़ी का बिये कर दें।’’
कवि एकबारगी समझा नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। उसे प्राइमर से यह तो पता था कि बोई का मतलब किताब होता है। बिये का मतलब वह नहीं जानता था।
भट्टाचार्यजी कहने लगे, ‘‘रिटायर होकर हम सोचता था, सब काम धीरे-धीरे करेगा। अब तबियत बोलता, तड़पड़ काम करने का जैसे हज़ारे रन बनाता। ताड़ाताड़ी।’’
‘‘सब हो जाएगा, पहले आप स्वस्थ होकर घर तो पहुँचें।’’
कवि ने उनको शान्त किया। उसे आभास हुआ कि उनका मतलब कुहू की शादी से है। यह वह मौका नहीं था जब कवि इस सत्य का उद्घाटन करता कि वह विवाहित है, दो बच्चों का पिता। एक इनसान की जान पर बनी थी और अगले चार घंटे, उनकी सुश्रूषा का भार कवि पर था।
जब कुहू रात के लिए थर्मस में दूध लेकर हॉस्पिटल आयी तब भी कवि यह न पूछ सका कि सुनो कुहू, बिये का मतलब क्या होता है?
अपने कमरे के एकान्त में, बिस्तर पर, थके-हारे, लेटे हुए कवि को बड़े तीखेपन से लग रहा था भारतीय समाज पुरुषों के प्रति कम क्रूर नहीं रहा है। क्यों नहीं समाज ने कुछ ऐसे प्रतीक चिह्न स्थापित किये जिनको धारण करने से पुरुषों का विवाहित होना ज़ाहिर हो सके। स्त्रियों को कम-से-कम यह छूट है कि वे मंगलसूत्र, सिन्दूर, आलता और बिन्दी के सहारे अपने विवाहित होने का सबूत पेश कर सकती है। पुरुष के सर्वांग पर कहीं नहीं लिखा होता कि वह विवाहित है अथवा अविवाहित। पुरुष शिथिल, थुलथुल, अधेड़ दिखने लगे तब तो लोग समझ लें कि हाँ यह बाल-बच्चेदार आदमी है, अन्यथा अगर वह कवि की तरह लम्बा, दुबला, लडक़े जैसे युवा और आकर्षक व्यक्तित्व का हो तो यह समस्या हर सम्पर्क में उपस्थित हो सकती है। पश्चिम में मर्द के बायें हाथ की अनामिका में अँगूठी का होना उसका शादीशुदा होना बताता है पर भारतीय समाज में मर्द की उँगली में अँगूठी कोई स्पष्ट घोषणा-पत्र नहीं है। शादी पर कविमोहन को ससुराल से अँगूठी दी गयी थी जिस पर ú खुदा हुआ था। कवि ने उसे एक भी बार पहनकर नहीं देखा। उसे हमेशा लगता था अँगूठी पहननेवाले हाथ व्यापारियों के हाथ होते हैं। कलम-पेन्सिल पकडऩेवाले हाथों में अँगूठी शोभा नहीं बाधा लगती है। उसकी अँगूठी घर की तिजोरी में कहीं पड़ी होगी। कवि को बच्चनजी की पंक्तियाँ याद आने लगीं—
‘हम कब अपनी बात छिपाते।
हम अपना जीवन अंकित कर
फेंक चुके हैं राज-मार्ग पर
जिसके जी में आये पढ़ ले, थमकर पल भर आते-जाते
हम कब अपनी बात छिपाते।’
यही ठीक रहेगा, कवि ने सोचा। वह कुहू को पत्र लिखकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर देगा।
कवि का मन कुछ हल्का हो आया। शब्द की दुनिया पर उसे सबसे ज्या्दा भरोसा था।
करवट-करवट सोकर देखा लेकिन उसको नींद न आयी। कवि कागज़-कलम लेकर बैठ गया।
उसने लिखना शुरू किया—मेरी दोस्त कुहू। फिर कुछ सोचकर उसने मेरी शब्द काट दिया। —मेरी दोस्त कुहू। उसे क्या हक है कुहू को मेरी कहने का। आगे उसने लिखा—‘तुम सोचोगी जब मैं रोज़ इतने घंटे तुम्हारे पास, तुम्हारे साथ होता हूँ, चिट्ठी लिखने की आखिर क्या ज़रूरत पड़ गयी। आज अस्पताल में पिताजी को यकायक तुम्हारी फिक्र होने लगी। उन्होंने कहा वे चाहते हैं तुम्हारी बिये कर दें। बांग्ला सहज ज्ञान पोथी में बिये शब्द का अर्थ तो नहीं दिया पर मैं समझ रहा हूँ कि उनका तात्पर्य तुम्हारे विवाह से है।
इसके लिए पहल तो तुम्हें करनी होगी। जैसी सहज, सजग और प्रखर तुम हो अपने अनुरूप साथी ढूँढऩे का काम सबसे सही तरीके से तुम ही कर सकती हो। अपने आसपास साथियों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो मुझे कोई भी तुम्हारे योग्य नहीं लगता, मैं भी नहीं। काश तुम मुझे पाँच साल पहले मिली होतीं। तब मैं अपना नया उज्ज्वल प्रथमोल्लास तुम्हें अर्पित करता। अब तो मेरी दशा कुछ-कुछ एलियट की कविता की शुरुआत जैसी है—
‘लेट अस गो देन यू एंड आय
वैन द ईवनिंग इज़ स्प्रेड अगेंस्ट द स्काय
लाइक ए पेशेंट ईथराइज़्ड अपॉन द टेबिल।’
मेरी पत्नी इन्दु सुन्दर और अच्छी है लेकिन मेरे विचारलोक में प्रविष्ट नहीं है। उसे अधिक शिक्षित करने का मुझे समय और अवसर भी नहीं मिला। तुममें मैंने अपनी सोलमेट की झलक देखी जिसका स्विचबोर्ड हमेशा सक्रिय और संवेदनयुक्त रहता है।
इस पत्र को लिखते हुए मैं एक साथ चिन्तातुर और चिन्तामुक्त, दोनों हो रहा हूँ। तुम समझ सकती हो।
तुम्हारा
कविमोहन
पत्र पूरा कर कवि उसे एक बार पढ़ गया। अब उसने सम्बोधन में से दोस्त शब्द भी काट दिया—मेरी दोस्त कुहू—सिर्फ कुहू बच रहा। अन्त में भी एक शब्द काटना पड़ा—तुम्हारा। उसने दूसरी बार पत्र पढ़ा। कटे हुए शब्द लाशों की तरह पृष्ठ पर पड़े थे। कवि चाहता तो चिट्ठी दुबारा नये कागज़ पर लिख सकता था। पर उसकी आदत थी वह कोई भी चीज़ बस एक बार लिखता। कविता से लेकर लेख तक उसका यही अभ्यास था। हाँ, कागज़ पर उतरने से पहले पंक्तियाँ उसके मन-मस्तिष्क में उमड़ती रहतीं।
पत्र को मोडक़र उसने लिफ़ाफे में डाला। लिफ़ाफे के ऊपर कुहू का नाम लिखते हुए हाथ कुछ काँप गया। दूसरा लिफ़ाफ़ा लम्बा था, रचनाएँ भेजनेवाला। उसमें निजी ख़त डालना अच्छा नहीं लगता। कवि ने मेज़ पर चिट्ठी रख छोड़ी। उसके ऊपर पेन रख दिया। सोचा सुबह दूसरा लिफ़ाफ़ा लाकर नाम नये सिरे से लिख देगा।
आमतौर से कवि देर में सोकर उठता था और हड़बड़ी में तैयार होकर कॉलेज चल देता। आज सुबह-सुबह हल्की फडफ़ड़ाहट से उसकी नींद खुल गयी। उसने पाया खिडक़ी से आ रही हवा से कलम के नीचे दबा कागज़ रह-रहकर फडफ़ड़ा रहा है जैसे कह रहा हो, मुझे सँभाल लो, मैं किसी भी पल उड़ जाऊँगा।
कवि ने बाँह बढ़ाकर चिट्ठी उठा ली। चिट्ठी पर नज़र डाली। थोड़ा असन्तोष हुआ। उसे लगा चिट्ठी अधूरी है। उसने पुनश्च लिखकर उसमें जोड़ा, ‘आज मुझे तुम्हारे प्रिय कवि शैले की पंक्तियाँ याद आ रही हैं—
‘We look before and after
And pine for what is not.
Our sincerest laughter
is with some pain fraught
Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.’
जब तक चिट्ठी कमरे में रखी रही कविमोहन को चुनौती देती रही। उसे लग रहा था यह चिट्ठी उसे अँगूठा दिखा रही है, ‘तुम मुझे डाक में डालोगे ही नहीं। तुम्हें बंगाली मार्केट का पता भूल जाएगा। तुम्हारे पास न लिफ़ाफ़ा है, न डाकटिकट। तुम इस शहर में अपनी एकमात्र दोस्त को अपनी बेवकूफ़ी से खो दोगे। तुम्हारा नाम कविमोहन नहीं मूर्खमोहन है।’
कवि से न नाश्ता खाया गया न खाना। वह कॉलेज भी नहीं गया। उसने अख़बार भी नहीं पढ़ा। उसके दिमाग में आँधी चलती रही। किस मुँह से वह कॉलेज जाता रहेगा। कुहू उसे क्यों क्षमा करेगी! और उसका परिवार!
आखिरकार सत्य का बोझ और अधिक सहना कवि के लिए असह्य हो गया और शाम पाँच बजे वह चिट्ठी डाकपेटी में छोड़ आया।