Re: दुक्खम्-सुक्खम्
Posted: 25 Dec 2014 14:38
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जमुना में कितना पानी बह गया। न जाने कौन-कौन-सी नदियों का पानी पी-पीकर, घर से निकला कविमोहन अग्रवाल अब मूला-मूठा नदियों के किनारे, ताड़ीवाला रोड पर, पुणे में अपना घर बसाये हुए है। वृहत्तर घर उससे दूर हो गया है लेकिन उसकी एक इकाई वह अपने साथ ले आया है, मय चकला-बेलन और बाल-बच्चों के। फिर भी उसका काम करने का तरीका दफ्तर को पसन्द नहीं है। वह दफ्तर को अपनी सल्तनत समझता है। उसके लिए लोगों का महत्त्व वहीं तक है जहाँ तक वे दफ्तर के काम आते हैं।
इस एक दशक में प्रतिभा षोडशी हो गयी है और मनीषा किशोरी। दोनों अपनी तरह से बड़ी हुई हैं। न जाने कैसे प्रतिभा एकदम बहिर्मुखी है। मनीषा अन्तर्मुखी। पिता जिसे वे अब पापा कहती हैं अपने सारे दिशा-निर्देशन के बावजूद यह प्रक्रिया नहीं रोक पाये। यह भी नहीं पता कि कलाप्रेम के प्रथम ज्वार में जब पापा ने प्रतिभा का नाम रोहिणी भाटे की नृत्य कक्षाओं में लिखवाया तब यह शुरू हुआ अथवा तब जब नाजिर हुसैन से दोनों बहनों को शास्त्रीय गायन सिखाने के लिए बाक़ायदा गंडा बँधवाई की गयी। नाजिर हुसैन आकाशवाणी के आला कलाकार थे। वे आसानी से किसी को अपना शागिर्द क़ुबूल नहीं करते थे। लेकिन कविमोहन ने उन्हें अपनी वक्तृता और विनम्रता से इतना प्रभावित कर दिया जब कहा, ‘‘खाँ साब हमारा रोयाँ-रोयाँ आपकी शागिर्दी क़ुबूल करता है, इन बच्चियों को सा रे गा मा का हुनर सिखा दें तो आपके पाँव धो-धोकर हम पियें।’’
नाजिर हुसैन ने जब दोनों लड़कियों को देखा वे द्रवित हो गये। रेडियो का आला अफ़सर उनके सामने गिड़गिड़ा रहा था। उन्होंने कहा, ‘‘बरख़ुरदार हम एक चावल से हाँडी परखते हैं। हफ्ते भर में तुम्हें बता देंगे, हाँ या ना।’’
नानापेठ स्थित उनके आवास पर प्रतिभा और मनीषा रोज़ शाम पाँच से छ: जाने लगीं। प्रतिभा ने आरम्भिक स्वर आदेशानुसार उठाये किन्तु मनीषा को सा बोलते हुए ही ऐसी हँसी और खाँसी उठी कि खाँ साब की समूची क्लास हिल गयी। मनीषा की पीठ थपकी गयी, उसका सिर सहलाया गया पर खाँसी कुछ ऐसी रही कि लडक़ी के आँसू आ गये। एक रोज़, दो रोज़, यही हाल रहा। आखिरकार खाँ साब ने उसके पिता से कह दिया, ‘‘अग्रवाल साब, आपकी छोटी लडक़ी में मौसिकी का छींटा भी नहीं है। हाँ बड़ी को मैं सिखा दूँगा।’’
यही हाल रोहिणी भाटे के यहाँ हुआ। मनीषा ने खुद पहले ही दिन विद्रोह कर दिया, ‘‘यह क्या ज़मीन छू-छूकर गुरु को प्रणाम करना। हम क्या गुलाम हैं। हमें नहीं करनी ता-ता थैया।’’
उसके पापा ने किचकिचाकर कहा, ‘‘ऊत की ऊत बने रहना है तुझे।’’
अब तक इन्दु लिपस्टिक-पाउडर लगाकर आधुनिका बन चुकी थीं। आन्तरिक आधुनिकता की उन्हें न चेतना थी न परवाह। वह बोलीं, ‘‘इसे सारी उमर हमारी छाती पर मूँग दलनी है और क्या?’’
अपने कच्चे किशोर कलेजे पर मनीषा ये आघात झेल ले गयी। उसने इससे भी बड़े आघात स्कूल में झेले थे जिनकी कोई जानकारी घरवालों को नहीं थी।
एक दिन दस्तूर नौशेरवान पब्लिक स्कूल में मेडिकल निरीक्षण था। सब छात्राओं के बाल, नाखून, दाँत और गले की जाँच होनी थी और विभिन्न टीके लगने थे। सतारा के मिशन हॉस्पिटल की नर्सें और डॉक्टर हर लडक़ी को अपने सामने खड़ा कर पहले नाखूनों और दाँतों की नुमायश करवाते फिर जीभ निकलवाते और हाथ में दो पेन्सिलों के कोनों से लडक़ी के बालों को जगह-जगह छेदकर देखते कि कहीं जूँ तो नहीं है। जब मनीषा की बारी आयी, नाखून और दाँत तो उसने चुपचाप दिखा दिये लेकिन गले की जाँच पर उसने ज़ोर से कहा, ‘‘आ आऽऽऽ। डॉक्टर और नर्सों ने जल्दी से कहा, ‘‘ठीक है चिल्ला क्यों रही हो?’’
इस जाँच के बाद बारी आयी चेचक के टीके की। क्लास की लड़कियों ने जानबूझकर मनीषा को कतार में सबसे आगे खड़ा कर दिया। जब वह डॉक्टर और कम्पाउंडर के पास पहुँची, उन्होंने एक नज़र उसे देखकर हाथ के इशारे से हटाकर कहा, ‘‘जाओ तुम्हें टीके की ज़रूरत नहीं है।’’ सारी क्लास खिलखिलाकर हँसी। उस दिन मनीषा को समझ आया कि जिसे एक बार चेचक निकल जाती है, वह जीवन भर के लिए इस रोग से प्रतिरक्षित हो जाता है। लेकिन यह ज्ञान उसे एसिड की तरह मिला। हँसती हुई लड़कियों को देखकर उसका मन हुआ इन चुड़ैलों को वह अपनी पीठ पर लादकर मूलामूठा नदी में फेंक आये।
मनीषा जाकर क्लासरूम में बैठ गयी। लड़कियों की हँसी याद कर उसे रुलाई आने लगी। क्या यह हँसी की बात थी? प्रिंसिपल ने उन्हें हँसने पर डाँटा क्यों नहीं।
जब लड़कियाँ ‘उई’, ‘आई’ करती अपनी बाँह थामे क्लास में घुसीं, तब तक मनीषा एक अलग इनसान बन चुकी थी। उसने जलती आँखों से उन्हें देखा और मोर्चा बना लिया।
जिस नेता टाइप लडक़ी ने कुछ देर पहले मनीषा को लाइन में सबसे आगे खड़ा किया था, उसका नाम सूरज अहलूवालिया था। वह क्लास मॉनिटर थी। इस वक्त वह बड़े ध्यान से अपनी गोरी बाँह पर बना नश्तर का निशान देख रही थी।
मनीषा ने हाथ में डस्टर छिपाया हुआ था।
कसकर उसने मॉनिटर की बाँह को निशाना बनाया और दूर से मारा डस्टर। सूरज अहलूवालिया बची लेकिन फिर भी डस्टर उसके होंठ पर लगा और मुँह से ख़ून बहने लगा।
क्लास में दहशत छा गयी। मनीषा इस सबसे तटस्थ खड़ी रही। उसे अपनी इस हरकत पर कोई अफ़सोस नहीं था।
इस समय क्लास में कोई टीचर मौजूद नहीं थी। सूरज की जुड़वाँ बहन चाँद अहलूवालिया और दौलत पटेल मनीषा के पास पहुँचीं। उन्होंने लपककर उसे पकड़ा और कहा, ‘‘चलो प्रिंसिपल के पास।’’
मनीषा खम्भे की तरह अपनी जगह पर अड़ी, खड़ी रही। उसकी क्रुद्ध रौद्र मुद्रा देखकर दोनों लड़कियों की पकड़ शिथिल पड़ गयी। तभी छुट्टी का घंटा टनटना उठा।
अपना बस्ता उठाकर मनीषा ने ठोड़ी से इशारा किया, ‘‘वह जानती है मैंने क्यों मारा।’’
सब लड़कियाँ सकपका गयीं। मनीषा की खिल्ली उड़ाने में वे सब शामिल थीं। मनीषा आक्रामक उत्तेजना में सीढिय़ाँ उतर गयी।
इस तेवर के पीछे मनीषा की पिछले सात महीने की मेहनत थी जिसके चलते छमाही परीक्षा में उसके उच्चतम अंक आये थे। जिस दिन उसने नौशेरवान दस्तूर स्कूल में दाखिला लिया था, गणित के टीचर मिस्टर होडीवाला ने उसे क्लास में सबसे पीछे की सीट दिखाकर कहा था, ‘गो एंड ऑक्युपाय दैट सीट।’’ मिस्टर होडीवाला उनके क्लास टीचर थे।
मनीषा थी तो पन्द्रह की पर देखने में ग्यारह की लगती। अभी न लम्बाई बढ़ी थी न देह उभरी। दुबली इतनी कि कमर पर से स्कर्ट खिसक-खिसक पड़ता। आगे के छोटे बाल, चोटी से निकलकर सामने आ जाते तो चेहरे का नक्शा बदल जाता।
होडीवाला सर को सुन्दर, दिखनौट लड़कियाँ पसन्द थीं। गणित का सवाल दे चुकने के बाद वे एक-एक छात्र, छात्रा के डेस्क के पास जाकर, उसकी पीठ पर हाथ रखते और कहते, ‘‘यस मिसिबाबा, लैट मी सी वॉट यू आर डूइंग।’’ जितनी देर वे सवाल देखते, उनका हाथ छात्रा की पीठ पर घूमता रहता। रिसैस में लड़कियाँ आपस में यही चर्चा करतीं कि होडीवाला सर उसके पास कितनी देर तक रुके।
मनीषा देखने में एक हद तक सिर्री ही लगती। होडीवाला सर उसके पास कभी नहीं रुकते। उसके किये सवाल हरदम सही होते। वे अपने लाल पेन से एक सही का निशान लगाकर आगे बढ़ जाते, ‘‘यस मिसिबाबा लेट मी सी वॉट यू आर डूइंग।’’
छमाही परीक्षा में प्रत्येक विषय में मनीषा के सर्वोच्च अंक आये। मजबूरन क्लास टीचर को उसे सामने की सीट पर बैठाना पड़ा। जनरल साइंस, इतिहास, भूगोल और इंग्लिश व हिन्दी में उसकी हाजिर-जवाबी देखने योग्य थी। सब शिक्षकों का मानना था कि इतनी मेधावी छात्रा को सामने बैठना चाहिए। क्लास की बाकी लड़कियाँ इस बात से चिढ़ गयीं। उन्हें मनीषा पहले दिन से सिर्री लगी थी जो थोड़ी कूद-कूदकर जल्दी चलती थी, मुँह धोकर स्कूल चली आती थी और जिसे तर्क और होमवर्क में वे हरा नहीं पातीं।
लड़कियों ने उसे नीचा दिखाने के लिए अपने सवाल गढ़ डाले थे।
—तुम्हारा सरनेम अग्रवाल है, क्या तुम मारवाड़ी हो?
—ओ तो तुम यू.पी. की हो। हमारी कॉलोनी में दूध-दही का सारा धन्धा भैया लोग करते हैं, तुम भैया हो?
—तुम तो तबेले में रहती होगी।
इन पूर्वाग्रहों का खंडन करते-करते मनीषा को अब अग्रवाल सरनेम से ही चिढ़ होने लगी थी। वह घर में कहती, ‘‘पापा आपको कोई और सरनेम नहीं मिला था जो यह दकियानूस सरनेम, नाम के साथ चिपका लिया।’’
पापा कहते, ‘‘इसमें क्या बुराई है?’’
‘‘स्कूल में हमें सब छेड़ते हैं। लड़कियों के इतने बढिय़ा-बढिय़ा सरनेम हैं—कुलकर्णी, चिटनिस, अय्यर, नैयर, कृष्णास्वामी।’’
‘‘देखो सरनेम में कोई अपनी मर्जी नहीं लगा सकता। यह हमें परिवार से मिलता है। हम लोग बीसा अग्रवाल हैं यानी अग्रवालों में सबसे ऊँचे। हमारा गोत्र बंसल है।’’
माँ बोल उठतीं, ‘‘हम बंसल भी तो लिख सकते हैं।’’ उन्हें भी लेडीज़ क्लब में अग्रवाल सरनेम पर टीका-टिप्पणी सुनने को मिल जाती।
‘‘नहीं, हमारी पहचान अपने पूरे नाम से बनती है कविमोहन अग्रवाल। दफ्तर में सब मुझे के.एम. कहते हैं लेकिन पीठ पीछे। सामने तो सब अग्रवाल साब, अग्रवाल साब कहकर हाथ जोड़ते हैं।’’
‘‘पापा इसका मतलब मैं जिन्दगी भर मनीषा अग्रवाल ही कहलाऊँगी।’’
‘‘ऐसा नहीं है। लड़कियों का सरनेम शादी के बाद बदलता है। कौन जानता है तुम्हारा क्या सरनेम हो जाए। पर अभी तो तुम बहुत छोटी हो। अभी तुम्हें पढऩा-लिखना और नाम कमाना है। अरे तुम्हें तो मैं सरोजिनी नायडू बनाऊँगा, विजयलक्ष्मी पंडित बनाऊँगा।’’
‘‘रहने दो, इसे चोटी भी तो करनी नायँ आय, ये बनेगी सरोजिनी नायडू।’’ माँ, मनीषा को नकारते समय ब्रजभाषा में उतर जातीं।
मज़े की बात यह कि पड़ोस में वाकई एक लडक़ी मनीषा की सहेली थी जिसका नाम था सरोजिनी नायडू। शाम के वक्त वे और कई दूसरी लड़कियाँ साथ-साथ बन्द गार्डन तक घूमने निकलतीं, उससे लगे पार्क में प्रदर्शनी देखतीं और प्लास्टिक के छोटे-छोटे खिलौने खरीदतीं घर आतीं।
मनीषा को नहीं पता था कि सरोजिनी नायडू कोई विशिष्ट नाम है।
उसने सरोजिनी से पूछा।
सरोजिनी उससे एक क्लास नीचे गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ती थी। उसने कहा, ‘‘पता नहीं अन्ना कहते हैं यह बहुत फेमस पोयट है।’’
‘‘पोयट नहीं पोयटैस।’’ मनीषा ने कहा।
जैसे एक लगन लग गयी। सरोजिनी नायडू कौन है कि पापा उसे उस जैसा बनाना चाहते हैं। और वह विजयलक्ष्मी पंडित।
पापा की बातों से मनीषा के अन्दर रोज़ जिज्ञासाएँ जन्म लेतीं।
दोपहरों में जब वह स्कूल से लौटती, माँ रेडियो सुनते-सुनते ऊँघ चुकी होतीं, दीदी किसी नाटक की रिहर्सल में व्यस्त होती, पापा ऑफिस में होते, और मनीषा बुक रैक में लगी किताबें खखोरती। हर किताब जहाँ से निकालो, वापस वहीं लगाओ, यह उस घर का कानून था। बुकरैक में बहुत-सी जीवनियाँ और आत्मकथाओं के मोटे ग्रन्थों की कतार थी, महात्मा गाँधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू। मनीषा को जैसे उन्माद चढ़ जाता। वह किताब निकालती, पृष्ठ पलटती, कहीं-कहीं पढ़ती। कुछ समझ आता, ज्याजदा अनसमझा रह जाता लेकिन उसका नशा कम न होता। एक-दो घंटे किताबों के बीच बिताकर वह फिर बच्ची बन जाती, हर किसी से लड़ती-भिड़ती, ज़बान लड़ाती मनीषा जिसकी शिकायत माँ तक आती रहती, ‘‘आपकी छोटी लडक़ी ने यह किया, आपकी छोटी लडक़ी ने वह किया।’’ माँ सिर पीटकर झींकती, ‘‘क्या बताऊँ, जाने कहाँ से जन्मी थी यह औलाद!’’
घर में किताबों के रैक खखोरने पर ही मनीषा को पता चला था कि सरोजिनी नायडू और विजयलक्ष्मी पंडित कौन थीं। उसने अपनी सहेली सरोजिनी को बताया, ‘‘तुम्हारा नाम तो बहुत पहले से फेमस है। पता है सरोजिनी नायडू ने बहुत सारी कविताएँ लिखीं और उन्हें ‘नाइटिंगेल ऑफ़ इंडिया’ भारत कोकिला कहा जाता है। लगता है तुम भी कविता करने लगोगी।’’
सरोजिनी ने हँसकर कहा, ‘‘नाम भले ही मेरा हो पर कवि तो तुम्हीं बनोगी, तुम्हारे पापा का तो नाम ही कविमोहन है।’’
मनीषा को बड़ा गर्व हुआ, ‘‘मेरे पापा की पूछो मत। इतनी अच्छी कविता लिखते हैं, मुझे तो कई याद हैं, सुनाऊँ!’’
सरोजिनी के अन्दर जरा भी काव्य-प्रेम नहीं था। उसने हाथ जोड़ दिये, ‘‘बस-बस बोर मत करो, बन्ध रोड पर चलना है तो बताओ।’’
मनीषा ने कहा, ‘‘मुझे दीदी को लेने जाना है, उसे रिहर्सल से आने में देर हो जाती है।’’
‘‘तुम क्या उसकी सिपाही हो।’’
‘‘और क्या, देखी है मेरी कोहनी की नुकीली हड्डी। एक बार किसी को मार दूँ तो वहीं उसकी पसली चकनाचूर हो जाय।’’
वाकई मनीषा नृत्य भारती तक पैदल जाकर, अपनी दीदी प्रतिभा को साथ लेकर बबरशेर की तरह लौटती।
प्रतिभा थी बहुत सुन्दर, ऊपर से शोख़ और शरारती। पढ़ाई में भी वह यथा नाम तथा गुण थी। इसी वजह से लड़कियाँ उससे ईष्र्या रखतीं। और लडक़े अभिलाषा। उसकी एक नज़र के लिए वे नृत्य-भारती के फाटक पर घंटों भीड़ लगाये रहते। नाटकों में प्रमुख भूमिका निभाने से प्रतिभा के अन्दर अपने आप नायिका भाव पैदा हो गया था। छोटे-मोटे फैन पर तो वह नज़र भी न डालती।
‘हार की जीत’ नाटक में जब उसने नयनतारा की भूमिका अदा की, शहर की पेशेवर अभिनेत्रियों को बहुत अखरा। उनका ख़याल था कि नयनतारा की बहुआयामी भूमिका, जिसमें अभिनय, भाव-नृत्य और कंठ-संगीत, तीनों कलाएँ अनिवार्य हैं, यह सत्रह-अठारह साल की अल्हड़, अनुभवहीन लडक़ी क्या निभाएगी। उन्होंने सोलंकी सर को समझाया, ‘‘गुरुजी आपकी प्रतिष्ठा को कलंक लग जाएगा, कच्चे हाथों में पक्का चरित्र हास्यास्पद न हो जाय।’’ निर्देशक सोलंकी सर, प्रतिभा को वाडिया कॉलेज की स्टेज पर ‘बन्दर का पंजा’ नाटक में सत्तर साल की बूढ़ी स्त्री का अभिनय करते देख चुके थे। वे आश्वस्त थे। उन्होंने नयनतारा की भूमिका प्रतिभा को ही दी। सिर्फ पैंतालिस दिन के पूर्वाभ्यास से ‘हार की जीत’ तैयार हो गया। ‘बाल गन्धर्व रंगमन्दिर’ में इसके प्रीमियर शो में, दर्शकों से हॉल पूरा भर गया। मम्मी-पापा के साथ मनीषा भी शो देखने गयी। उसे एक तरह से समस्त स्क्रिप्ट याद थी क्योंकि दीदी को संवाद रटाने का काम वही करवाती रही थी। खास बात यह थी कि लोगों ने टिकट ख़रीदकर नाटक देखा। समूचा नाटक नयनतारा की भूमिका पर टिका था। प्रतिभा ने सचमुच बेहतरीन अदाकारी की। उसका सौन्दर्य, संवेदनशील अभिनय, कंठ का माधुर्य और चपल नृत्य देखकर दर्शक विभोर हो गये। कर्टेन-कॉल में सर्वाधिक तालियाँ उसके हिस्से आयीं। पापा बोले, ‘‘आज मुझे लग रहा है मेरा क़द कई फुट ऊँचा हो गया।’’ रेडियो से जुड़े कई कलाकार भी नाटक देखने आये हुए थे। उन्होंने कविमोहन से कहा, ‘‘आपके घर में ही इतनी बेजोड़ कलाकार है, आप इन्हें रेडियो पर क्यों नहीं लाते।’’
कविमोहन ने सगर्व समझाया, ‘‘बात यह है जो फिल्म और मंच पर असफल हो जाते हैं, वही कलाकार रेडियो में जाते हैं, दूसरे जब तक मैं यहाँ काम करता हूँ, अपने परिवार के लोगों को कैसे रेडियो में आने की अनुमति दे सकता हूँ?’’
कविमोहन के अडिय़ल, कडिय़ल स्वभाव से सब परिचित थे।
शो के बाद अख़बारवालों की भी भीड़ लग गयी। रंगकर्म में आयी नयी कलाकार से सभी बात करना चाहते थे। कवि और इन्दु मनीषा को समझाकर घर चले गये, ‘‘जब प्रतिभा ख़ाली हो जाय तो दोनों घर आ जाना। बहन थकी हो तो रिक्शा कर लेना। पैसे घर पर दे देंगे।’’
खाली हॉल में एक कुर्सी पर बैठी रही मनीषा।
सोलंकी सर रिपोर्टरों को बताते रहे कि उनकी नायिका कितनी प्रतिभावान है। प्रतिभा के चित्र खींचे जाते रहे। उसने सभी सवालों के बड़े स्मार्ट जवाब दिये।
मनीषा देख-देख खुश होती रही।
एक बात उसकी समझ नहीं आयी। सोलंकी सर बार-बार दीदी का कन्धा या बाँह छू रहे थे और दीदी ने उनका हाथ एक भी बार नहीं झटका जबकि घर में कोई भी अगर दीदी से ज्याकदा लिपटे-चिपटे तो दीदी तुरन्त धमका देती, ‘‘दूर बैठो, मुझे घिन लगती है।’’ एक बार मम्मी ने बिगडक़र पूछा था, ‘‘तुझे मेरे से घिन लगती है?’’ दीदी ने बात बदली थी, ‘‘मेरा मतलब है गर्मी लगती है।’’
यहाँ ‘हार की जीत’ का हीरो शिरीष मजुमदार एक तरफ़ उपेक्षित खड़ा था, उसकी तरफ़ कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था। नाटक में दस-बारह पात्र थे लेकिन चर्चा केवल प्रतिभा की थी।
घर आने पर प्रतिभा ने जल्दी से कपड़े बदले, मुँह धोया और बिस्तर पर गुड़ुप पड़ गयी। सारा घर उसकी सँभाल में लग गया। माँ ने उसके बिखरे कपड़े समेटे, पापा ने रेडियो पर से मनीषा के छोटे-छोटे इनाम उठाकर ताक पर रखे। नाटक के प्रीमियर पर मेयर द्वारा प्रतिभा को दी गयी चमचमाती शील्ड रेडियो के ऊपर रखी गयी। मनीषा दो बार दीदी के कमरे में आयी पर बात नहीं हो पायी। प्रतिभा आँखें बन्द कर लेटी हुई थी। पापा-मम्मी धीरे-से उसके कमरे में आये। उसे सगर्व दृष्टि से देखते रहे। मम्मी ने आहिस्ता से उसे चादर उढ़ा दी। पापा ने कमरे की बिजली बन्द करते हुए मम्मी से कहा, ‘‘बेबी बहुत थक जाती है, इसे रोज़ एक सेब खिलाया करो।’’
अगले दो दिन तक मनीषा, दीदी की प्रीमियर सफलता से जुड़े प्रसंगों में लगी रही। पापा ने हलवाई से दस किलो लड्डू बनवाकर पड़ोस में बँटवाये। हर घर में मनीषा ही देने गयी। चार नम्बर, पाँच नम्बर, सत्रह नम्बर, उन्नीस नम्बर, घंटी दबाई, दरवाज़ा खुला, ‘‘नमस्ते आंटी, हमारी दीदी का नाटक इस बार भी सुपरहिट हुआ है, उसी की ख़ुशी में मम्मी ने ये लड्डू भेजे हैं, नमस्ते।’’
प्रतिभा कहाँ ख़ाली बैठती है। रोज़ छह से आठ तक बीस शो ‘हार की जीत’ के हुए। बस सिलवर जुबली मनाने में ज़रा-सी कसर रह गयी। ठीक उसके बाद कथक समारोह की प्रैक्टिस शुरू हो गयी। यह उसकी गुरुजी रोहिणी भाटे का ही आयोजन था, अत: इसमें तो पूरी जान लगा देनी थी उसे। उसके ही साथ बैजू, सुनयना और द्राक्षा ने भी मेहनत की। हालत यह हो गयी कि ये शिष्याएँ नाचते-नाचते चक्कर खाकर गिर पड़ीं। पिंडलियों की खाल घुँघरुओं की रगड़ खाते-खाते छिल गयी। मगर लड़कियाँ घाव पर टेप लगाकर फिर उठ खड़ी हुईं। गुरुजी का शो ए-वन जाना चाहिए चाहे जान निकल जाए। यह मनीषा का ही बूता था कि वह कभी जूस लेकर कभी दूध लेकर नृत्य-भारती संस्थान तक दौड़ती रही कि दीदी भूखी न रहे, नाचते-नाचते उसके शरीर में तरलता की कमी न हो जाए।
प्रतिभा थी लगन की पक्की। प्रैक्टिस के समय उसे नृत्य के सिवा और कुछ नहीं दीखता। बहन को देखते ही घुडक़ती, ‘‘यहाँ क्या करने आयी है! देखती नहीं प्रैक्टिस चल रही है।’’
मनीषा डरते-डरते कहती, ‘‘मम्मी ने दूध भेजा है, पी लो तो और अच्छी प्रैक्टिस होगी।’’
प्रतिभा थर्मस में से आधा दूध या जूस खुद पीती, आधा निसार खान नाम के अपने तबलावादक को पिला देती। कहती, ‘‘ये मुझसे ज्याखदा थक जाते हैं, इन्हीं की ताल पर तो मैं नाचती हूँ।’’
वापसी में दोनों बहनें साथ होतीं।
कवि-परिवार की आचार-संहिता थी, बच्चों को पैदल चलना चाहिए। हाँ, किसी के पैर में मोच आ जाए या पेट में बर्दाश्त-बाहर दर्द हो जाए, तब रिक्शा लिया जा सकता है।
इसी उसूल के तहत दोनों बहनें शाम को पैदल घर चली जा रही थीं कि एक लम्बी कार उनके पास आकर रुक गयी।
एक निहायत रूपवान व्यक्ति कार में से उतरा और बड़ी शालीनता से प्रतिभा से मुख़ातिब हुआ। उसने कहा, ‘‘मिस अग्रवाल मैं आपको घर पहुँचा दूँ यह मेरी ख़ुशकिस्मती होगी।’’
प्रतिभा ने उड़ती नज़र से उसे देखा, ‘‘देखिए, मैं आपको जानती नहीं, आप कौन हैं, ऐसे मैं कैसे जा सकती हूँ आपके साथ।’’
प्रिंस सांगली को यह बात इतनी बुरी लगी कि वह चुपचाप वहाँ से हट गया। वह उस दिन के बाद से कॉलेज नहीं गया। उसने न सिर्फ वाडिया कॉलेज बल्कि पुणे भी छोड़ दिया।
प्रतिभा को कोई कष्ट नहीं हुआ। उसने कहा, ‘‘जिसे मैं जानती भी नहीं, उसकी कार में कैसे बैठ जाती। लिफ्ट देने में लिफ्ट लेनेवाले की मर्जी भी बराबर की हक़दार होती है।’’
पापा अपनी बेटी के मौलिक विचारों के कायल हुए, ‘‘शाबाश बेबी बेटे, तूने मेरी छाती चौड़ी कर दी, मैं देख सकता हूँ तुझे कभी कोई पराजित नहीं कर पाएगा।’’
माँ ने गर्वोक्ति की, ‘‘मेरी बेटी गलत रास्ते चल ही नहीं सकती। देख लो, तुम दस साल बाहर रहे, मैंने एक मिनट भी अपना मन मैला नहीं किया, सावन-भादों सब जोगन की तरह बिता दिये।’’
प्रतिभा ने माता-पिता की शेखी की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया। उसकी चेतना में अगली नृत्य-नाटिका और नाटक के संवाद गूँज रहे थे। साथ ही उसे अपने तबला कलाकार निसार का वादा सुनाई दे रहा था, ‘‘एक बार बम्बई चलकर देखो आप, मैं आपको मॉडलिंग की दुनिया की मलिका बनाकर दिखाऊँगा।’’
फिर आ गया वाडिया कॉलेज का वार्षिकोत्सव। हर तरफ़ चहल-पहल और तैयारियाँ। यह एक दिन का नहीं बल्कि चार दिनों तक चलने वाला आयोजन था जिसमें खेल-कूद, डिबेट, नृत्य और गायन प्रतियोगिताएँ और सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे एकांकी, नाटक आदि होते। विद्यार्थियों में खूब जोश रहता। देर शाम तक रिहर्सल चलते।
बैजू, सुनयना, द्राक्षा और प्रतिभा की इन दिनों बड़ी पूछ थी। सबसे ज्याादा प्रतिभा की, क्योंकि बाकी लड़कियाँ नृत्य और गायन में तो निपुण थीं, अभिनय के क्षेत्र में कोरी थीं। प्रतिभा की खासियत यह थी कि वह ट्रैजिक और कॉमिक दोनों भूमिकाएँ निभा सकती थी। लिहाज़ा उसे एक ही शाम दो ड्रामों में अभिनय करना था। उससे पहले दिन एकल नृत्य का आइटम तो था ही।
कविमोहन ने कहा, ‘‘इतने आइटम की तैयारी करेगी तो तेरा बहुत वक्त ख़राब होगा, थक अलग जाएगी।’’
‘‘पापा आपको पढ़ाई की फिक्र हो रही है न। मैं परीक्षा में फस्र्ट आकर दिखाऊँगी, दैट्स अ प्रॉमिस। सोशल गैदरिंग में सब लडक़े-लड़कियाँ लगे हुए हैं, मैं पीछे नहीं हट सकती।’’
जे. एम. सिन्ज़ के नाटक ‘ऑल माय सन्ज़’ में प्रतिभा ने माँ का किरदार निभाया, कुछ इस अन्दाज़ में कि उसकी मार्मिकता ने हर दर्शक को हिला दिया। अन्तिम दृश्य में माँ का संवाद था, ‘‘चले गये—सबके सब चले गये। छह-छह बेटे पैदा किये, छहों चले गये। अब जाकर मैं सोऊँगी, चैन से सोऊँगी। जिस दिनसे ब्याही आयी, एक दिन भी नहीं सोयी। कभी किसी के लिए, कभी किसी के लिए जीवन प्रार्थना में बीता। आज इसकी पूजा, कल उसका उपवास। अब सब चले गये। लाख तूफ़ान आएँ, अब मेरा क्या बिगाड़ लेंगे। सागर से मुझे क्या लेना और क्या देना। भले ही घर में अब भोजन के नाम पर सिर्फ एक सूखी मछली हो, मुझे क्या चिन्ता, किसकी फिक्र! मैं पैर फैलाकर सोऊँगी, भर नींद सोऊँगी।’’
प्रतिभा की आवाज़ का उतार-चढ़ाव, संवाद के बीच की उसाँस और चुप्पी, कंठ की थर्राहट और भरभरायापन, इस सबके ऊपर उसकी थकी-हारी चाल सब मिलकर एक मछुआरिन माँ का व्यक्तित्व ऐसा बयान कर रही थीं कि कोई कह नहीं सकता था कि यह भूमिका कुल अठारह साल की लडक़ी द्वारा अभिनीत हुई है।
ठीक इसके बाद प्रतिभा को एक हास्य नाटिका में मुख्य भूमिका करनी थी। ‘शादी या ढकोसला’ की नायिका के रोल में उसे पुरुष-पात्रों की ख़बर लेनी थी। पिछले नाटक का एकदम विलोम था यह आइटम लेकिन प्रतिभा ने इसमें भी अच्छा अभिनय किया।
अब आया वार्षिकोत्सव का आखिरी चरण—पुरस्कार वितरण समारोह। जैसी अपेक्षा थी, प्रतिभा को सर्वाधिक इनाम मिले। डिबेट, गायन और अभिनय में उसे प्रथम पुरस्कार मिला। कॉलेज की सर्वप्रिय छात्रा का मैडल भी उसे प्रदान किया गया। नृत्य-प्रतियोगिता में वह द्वितीय आयी। उसमें वैजयन्ती उर्फ वैजू को प्रथम पुरस्कार मिला। टेबिल-टेनिस शील्ड भी प्रतिभा की वजह से जीती गयी, उसका विशेष पुरस्कार मिला उसे। प्रतिभा ने मुख्य अतिथि के हाथ से अपने ही अन्दाज़ में पुरस्कार ग्रहण किये। बार-बार अपनी जगह से मंच तक जाना उसे कबूल नहीं। वह वहीं खड़ी रही विंग्ज़ में, एक भक्त छात्र को अपने इनाम पकड़ाती। वहीं से निकलकर वह मुख्य अतिथि से पुरस्कार लेती और फिर वहीं खड़ी हो जाती। लेने की अदा ऐसी जैसे वह पुरस्कार ले नहीं, दे रही हो।
मनीषा भी बैठी थी ताली बजाने वालों में। जितनी बार प्रतिभा का नाम बुलाया जाता, मनीषा को लगता वह लम्बी होती जा रही है। इच्छा तो उसकी हो रही थी कि सीट पर खड़ी होकर ताली बजाये।
जलसे के बाद दोनों बहनें घर लौट चलीं। कॉलेज से घर ज्या दा दूर नहीं था। कुछ इनाम प्रतिभा ने पकड़ रखे थे, कुछ मनीषा ने। मनीषा को लग रहा था जैसे ये सब उसी ने जीते हैं। आखिर वही तो याद करवाती थी दीदी को उसकी डिबेट की स्पीच और ड्रामों के डायलॉग। चाहे काण्ट और हीगेल की सैद्धान्तिकी हो, चाहे ध्रुवस्वामिनी के संवाद, प्रतिभा का कंठस्थ करने का तरीका यह था कि वह बिस्तर पर आँख मूँदकर लेट जाती और मनीषा से कहती, ‘‘हाँ मुन्नी, पढक़र सुना।’’
मनीषा को इस काम में बड़ा मज़ा आता। स्कूल की अपनी पाठ्य-पुस्तकें चाट जाने के बाद कॉलेज स्तर की पुस्तकें या साहित्यिक नाटक पढक़र सुनाने में नये अनुभव का निरालापन था। कभी-कभी वह बीच में चुप हो जाती यह जाँचने के लिए कि दीदी वाकई सुन रही है या सो गयी। प्रतिभा तुरन्त आँखें खोल देती, ‘‘मुन्नी तू चुप कैसे हो गयी। अभी तो पूरा एक दृश्य पड़ा है।’’
यह आदत प्रतिभा में पापा से आयी थी। कविमोहन को भी सुने हुए शब्द तुरन्त याद हो जाते। इसीलिए वह अपने आपको वॉकिंग रेडियो कहता। आजकल उसने घर में एक नया शब्द स्थापित किया था, वॉकी-टॉकी। शाम की सैर को वह कहता, ‘‘इन्दु वॉकी-टॉकी पर चलना है तो चलो।’’
रास्ते में कभी कोई, कभी कोई प्रतिभा को मुबारकबाद दे रहा था। तभी चार लडक़ों के एक ग्रुप ने आकर उसे बधाई दी। फिर उनमें से एक ठिगने मोटे लडक़े ने कहा, ‘‘मिस अग्रवाल, हम लोगों में एक शर्त लगी है। राज कक्कड़ का कहना है यह लडक़ी जो आपके साथ है, आपकी बहन है। मेरा कहना है ऐसा हो ही नहीं सकता। बकवास करना राज की पुरानी आदत है। वह आपकी क़ामयाबी से जल रहा है इसीलिए ऐसी घटिया बात कर रहा है। मुझे पता है यह ज़रा भी सच नहीं है। पर हम सब आपसे सुनना चाहते हैं। हम लोगों में आइसक्रीम की शर्त लगी है।’’
प्रतिभा ने निहायत लापरवाही से कहा, ‘‘इसमें कौन-सी शर्त की बात है। मेरी बहन है यह, मनीषा।’’
लडक़ों के मुँह खुले के खुले रह गये। उन्होंने टकटकी लगाकर मनीषा को देखा जैसे चिडिय़ाघर में बच्चे ज़ेब्रा देख रहे हों।
राज कक्कड़ ने सूरमा अन्दाज़ में बाँहें चढ़ा लीं, ‘‘देखा न, मेरी ख़बर गलत नहीं होती। है न धमाका-छाप।’’
ठिगने, मोटे लडक़े ने हताश स्वर में कहा,‘‘यह आपकी सगी बहन है मिस अग्रवाल?’’
‘‘हाँ बाबा, सगी।’’ प्रतिभा ने हँसते-हँसते कहा।
‘‘एक ही माँ की?’’
‘‘हाँ, और एक ही पिता की।’’ प्रतिभा ने अपनी तरफ़ से स्मार्ट मज़ाक़ कर मारा जिस पर सब हो-हो कर हँस पड़े।
मनीषा की सूरत रोनी हो आयी। कितने बेहूदा लडक़े हैं। कैसे भद्दे मज़ाक़ करते हैं। यह क्या शर्त लगाने की बात है। इतनी बार वह दीदी के साथ कॉलेज आ चुकी है, बहन नहीं तो क्या वह चपरासिन है।
घर पहुँचकर मनीषा ने किसी से कुछ नहीं कहा पर रुलाई एक अन्धड़ की तरह मन में घुमड़ रही थी। किसी को उसकी तरफ़ देखने की फुर्सत नहीं थी। कोई प्रतिभा की पीठ ठोक रहा था, कोई उसका मुँह चूम रहा था। पापा ने सगर्व, दीदी से कहा, ‘‘यू आर माय ब्रेनी डॉटर, शाबाश!’’
रात जब मनीषा अपने बिस्तर पर लेटी, इतनी देर की रुकी हुई रुलाई अवश फूट पड़ी। उसे समझ नहीं आ रहा था वह क्यों रो रही है पर आँसू थे कि बहे जा रहे थे। लगातार रोने से नींद भी उड़ गयी।
मनीषा दबे पाँव उठकर गुसलखाने में गयी।
वहाँ लगे शीशे में उसने अपना चेहरा देखा।
नहीं, इतना बुरा तो नहीं कि बरदाश्त न हो। बाल उसके दीदी से लम्बे और मुलायम हैं। त्वचा भी उसकी चमक रही है। फिर उन लडक़ों ने क्यों कहा कि वह दीदी की कोई नहीं। और फिर अगर लडक़ों ने बदतमीज़ी की भी, तो क्या दीदी उन्हें डपट नहीं सकती थी। क्या उसका हाथ अपने हाथ में लेकर, गर्व से नहीं कह सकती थी, ‘‘देखो यह है मेरी बहन, मेरी अपनी छोटी बहन, तुम्हें दिखाई नहीं देता?’’
मनीषा क्या करे कि अपनी दीदी की बहन लगे। क्या गले में पट्टा लटका ले या आटे के बोरे में मुँह घुसा दे या छील डाले अपनी चमड़ी छिलके की तरह।
मनीषा को इसी तिलमिलाहट में याद आयी उस लाल लहँगे की जिसके कारण उसे माँ से मार पड़ी थी।
दीदी को टाउनहॉल में एकल नृत्य प्रतियोगिता में भाग लेना था। उसके लिए लाल लहँगा, ब्लाउज़ और चूनर बनवाई गयी। प्रतियोगिता वाले दिन प्रतिभा बाज़ार गयी—लाल चुटीला और झूमर खरीदने। पीछे से दर्जी ने आकर पोशाक दी। नयी लाल पोशाक मनीषा को इतनी भायी, उससे रहा न गया। उसने चाव ही चाव में अपनी फ्रॉक उतारकर लहँगा-ओढऩी पहन ली। बाक़ायदा सिर ढँककर वह माथे पर टिकुली लगा ही रही थी कि दीदी वापस।
मनीषा को काटो तो ख़ून नहीं। हे भगवान, दीदी ने देख लिया। अब क्या होगा!
‘‘दीदी का पारा गरम हो गया, ‘‘तूने मेरी पोशाक क्यों ख़राब की, बता, बता!’’ दीदी ने उसे झँझोड़ डाला।
‘‘दीदी खराब नहीं की, लो मैं उतार देती हूँ।’’
दीदी रोने बैठ गयी, ‘‘ऊँ ऊँ ऊँ, अब मैं यह नहीं पहूनँगी। यह पोशाक गन्दी हो गयी।’’
मम्मी ने प्रतिभा से कुछ नहीं कहा, बस मुन्नी की धुनाई कर दी, साथ में अपनी भड़ास शब्दों में निकाली, ‘‘जन्मी थी औलाद। तू पैदा होते ही मर क्यों नहीं गयी। सब मथुरावालों की देहाती आदतें आयी हैं इसमें, किसी के भी लत्ते लटका लेना, किसी की भी चप्पल पहन लेना। तेरी हिम्मत कैसे हुई बड़ी बहन के कपड़ों को हाथ लगाने की! बेवकूफ़।’’
मनीषा हफ्तों सोचती रह गयी, क्या पोशाक इतनी जल्द, इतनी गन्दी हो गयी कि दीदी का डांस बिगड़ गया, उसे पुरस्कार नहीं मिला और घर लौटते हुए उसकी एक पायल भी खो गयी।
तब से मनीषा ने तय किया दीदी का कोई कपड़ा नहीं छूना है, रूमाल भी नहीं। दीदी को दुखी नहीं करना है।
मनीषा को अजीब यह लगता कि सिर्फ उसे और पापा को मथुरावाले कहा जाता। मम्मी कभी दीदी को और अपने को मथुरावाली नहीं कहतीं। वे मथुरा को स्थानवाचक संज्ञा की बजाय गुणवाचक विशेषण बना देतीं। कभी पापा चाय में अतिरिक्त चीनी की माँग कर बैठते तो मम्मी उनकी चाय में आधा चम्मच चीनी और डालकर मिलाते हुए कहतीं, ‘‘रहे तुम मथुरावाले ही। कितनी भी चीनी मैं डाल दूँ तुम्हें चाय फ़ीकी ही लगे।’’
किसी दिन मनीषा बालों में तेल नहीं लगाती और उसके बाल बिखरे-बिखरे लगते। मम्मी कहतीं, ‘‘क्या भग्गो भूतनी जैसी शकल बना रखी है। मेज़ पर तेल की शीशी भरी रखी है पर नहीं इसे तो मथुरावाली देहातिनों की तरह रहना है।’’
‘‘तुम नहीं हो मथुरावाली?’’ पापा छेड़ते।
‘‘ना बाबा, मैं ठहरी फ्रंटियर पंजाब की, मैंने तो शादी के बाद पहली बार तुम्हारी मथुरा देखी।’’
‘‘तुम्हें मथुरा याद नहीं आती?’’
‘‘ज़रा भी नहीं। मेरे लिए तो मथुरा जेल थी जेल। बड़ी चक्की चलायी, बड़े पापड़ बेले। और रहती तो मर जाती?’’
‘‘कैसे मर जातीं?’’
‘‘जमनाजी में छलाँग मार देती। पता है एक बार तो दुखी आकर गयी भी थी। पर उस दिन पानी बड़ा गँदला था और वहाँ नंगे मोटे पंडे लोग नहा रहे थे। मैंने सोचा अगर मैं मर गयी तो ये ही पंडे मुझे पानी में से निकालेंगे। मुझे बड़ी घिन लगी और मैं वापस आ गयी।’’
‘‘तब तो भगवान पंडों को और मोटा करे। पंडे और भी नंगे रहा करें ताकि औरतें मरने न जायँ।’’
‘‘तुम्हें हँसी की बात लग रही है, मेरी जान पर बनी थी।’’
‘‘हुआ क्या था?’’
‘‘बस अब याद न दिलाया करो। कोई एक बात हो तो बताऊँ। कभी कोई टर्राय, कभी कोई टर्राय। करने वाली एक और हुकुम चलानेवाले चार-चार।’’
अब कवि की विनोदप्रियता जवाब दे जाती। वह कहता, ‘‘इन्दु तुम्हारे साथ मुश्किल यह है कि तुम रिश्तों की इज्ज़त करना नहीं जानतीं। मेरी माँ एक पैर से लाचार, ऊपर से डायबिटीज़ की मरीज़। क्या हो गया अगर वहाँ काम कर दिया।’’
‘‘टाँग की कमी वे ज़ुबान से पूरी कर लेवें। मीठे की तो इतनी चींटा, बिल्कुल तुम्हारी तरह।’’
‘‘अच्छा चुप हो जाओ, मुझे गुस्सा आ रहा है।’’
बेचैनी में कवि सिगरेट फूँकने की रफ्तार और तादाद यकायक बढ़ा देता। वह रातों में जाग-जागकर सिगरेट पीता। वह सोचता, वह अपने घर, अपने शहर से बड़ी दूर निकल आया है। ताज्जुब की बात यह कि इतनी दूर बैठकर उसे न पिता पर क्रोध आता न माँ पर। दूरी ने पिता से अधिक माँ की एक देव-प्रतिमा उसकी कल्पना में स्थापित कर दी थी। इन्दु के कटु-वचन इस तन्मयता में व्याघात पहुँचाते।
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में इन्दु ने अपने बाल कटवाना, ताश खेलना, मेकअप करना और पड़ोसियों से गप्प-गोष्ठी करना तो सहज ही अपना लिया पर अपने जीवन-साथी का मनोविज्ञान समझना ज़रूरी नहीं समझा। जब दफ्तर से आकर कवि उसे बताना चाहता कि कैसे उसने समस्त मराठी कार्यक्रमों के बीच हिन्दी का एक घंटे का प्रसारण मन्त्रालय से मंज़ूर करवाया, इन्दु को उसकी सफलता का कोई स्पन्दन ही नहीं होता। वर्षों पति से अलग रहकर उसका स्वतन्त्र मानसिक संसार बन चुका था। जितना आनन्द उसे अपनी पड़ोसिनों में आता, उतना पति के सान्निध्य में न आता। कवि के दफ्तर चले जाने के बाद वह पहले एक-डेढ़ घंटे खुरपी लेकर अपनी क्यारियों में व्यस्त हो जाती। घर के पिछवाड़े कच्ची ज़मीन थी जहाँ इन्दु ने पाँच लम्बी क्यारियाँ तैयार की थीं। सेम, मेथी, धनिया, पुदीना, टमाटर और करेले सबके पौधे उसने लगा रखे थे। अहाते की पिछली दीवार पर लौकी और तोरई की बेलें चढ़ी थीं। इन्दु को पौधों के बीच वक्त गुज़ारना अच्छा लगता। उन क्यारियों में इतनी तरकारी पैदा हो जाती कि घर में केवल आलू, अरबी, अदरक जैसी सब्जियाँ बाज़ार से लानी पड़तीं। अपनी उगाई तरकारियाँ इन्दु अड़ोस-पड़ोस में बाँटतीं। घर की उगी तरकारियाँ इतनी कच्ची और कोमल होतीं कि मिनटों में पक जातीं।
स्नान के बाद, अच्छी तरह से तैयार होकर इन्दु का मेल-मिलाप का कार्यक्रम शुरू होता। बगलवाले बँगले की मिसेज़ कुमार, सात नम्बर, उन्नीस नम्बर की महिलाएँ या तो किसी एक के घर में बैठकर बातें करतीं अथवा सब नीचे अहाते में इकट्ठी हो जातीं। काफ़ी देर खड़े-खड़े गप्प-गोष्ठी चलती। मनीषा को यह देखकर बड़ा कौतुक होता कि सभी महिलाओं की साडिय़ों की पसन्द लगभग एक-सी थी। उनका मेकअप भी एक समान लगता। उनकी बातें भी एक-सी उबाऊ और एकरस थीं। पति की अफ़सरी जताने के लिए एक ऐसे कहती, ‘‘हमारे साहब तो नाश्ते में टोस्ट खाते हैं, पराँठे से उन्हें बड़ी चिढ़ है।’’ दूसरी कहती, ‘‘हमारे साहब तो हमारे बिना टूर पर भी नहीं जाते।’’ इन्दु भी पीछे नहीं रहती, वह कहती, ‘‘हमारे साहब की कविताओं की सारी दुनिया में धूम है। रेडियो पर जो तुम सब सुनती हो, उन्हीं की मर्जी से बजाया जाता है।’’
दोपहर में मनीषा बदस्तूर स्कूल से लौटती तो पाती माँ की आँख लग गयी है। उसका मन होता माँ उठकर उसे थाली परोसकर दें लेकिन इन्दु रोज़ शाम चार बजे उठती जब प्रतिभा का कॉलेज से आने का वक्त होता। तब उसकी सक्रियता देखने लायक होती। एक तरफ़ बेबी के लिए थाली परोसी जाती, दूसरी तरफ़ चाय चढ़ाई जाती। कटोरदान से मठरी और मर्तबान से अचार निकाला जाता। वे तीनों मिलकर चाय पीते।
थोड़ी देर सुस्ता लेने के बाद प्रतिभा हाथ-मुँह धोकर सफेद साड़ी, सफेद ब्लाउज़ पहन नृत्य-भारती के लिए तैयार हो जाती। कभी इन्दु कहती, ‘‘बहुत थकी है, आज न जा।’’
प्रतिभा कहती, ‘‘नहीं मम्मी, मुझे तो आचार्यजी से भी बड़ी कलाकार बनना है, तुम देखती जाओ।’’
कभी-कभी इन्दु मनीषा पर किचकिचाती, ‘‘अपनी बहन को देख, कित्ती मेहनत करती है। पढ़ाई क्या, डिबेट क्या, डांस क्या, सबमें आगे। तेरी इच्छा नहीं होती कुछ करने की?’’
मनीषा मुँह लटका लेती, ‘‘फस्र्ट तो मैं भी आती हूँ।’’
‘‘इससे क्या, कोई हुनर भी तो हो। लडक़ी की जात को सौ कलाएँ सीखनी होती हैं।’’
मनीषा मुँहफट हो जाती, ‘‘आपने कितनी सीखीं मम्मी?’’
इन्दु मुँह बनाती, ‘‘मुझे कभी आज़ादी ही नहीं मिली, न या घर न वा घर। अपने भाग सराहो, तुम पर कोई रोक-टोक नहीं। पढऩे और खेलने के सिवा कोई काम नहीं तुम्हें।’’
मनीषा कहती, ‘‘दीदी की तरह ताता थैया तो मैं कभी न करूँ। और वह पक्का गाना, बाप रे बाप!’’
जमुना में कितना पानी बह गया। न जाने कौन-कौन-सी नदियों का पानी पी-पीकर, घर से निकला कविमोहन अग्रवाल अब मूला-मूठा नदियों के किनारे, ताड़ीवाला रोड पर, पुणे में अपना घर बसाये हुए है। वृहत्तर घर उससे दूर हो गया है लेकिन उसकी एक इकाई वह अपने साथ ले आया है, मय चकला-बेलन और बाल-बच्चों के। फिर भी उसका काम करने का तरीका दफ्तर को पसन्द नहीं है। वह दफ्तर को अपनी सल्तनत समझता है। उसके लिए लोगों का महत्त्व वहीं तक है जहाँ तक वे दफ्तर के काम आते हैं।
इस एक दशक में प्रतिभा षोडशी हो गयी है और मनीषा किशोरी। दोनों अपनी तरह से बड़ी हुई हैं। न जाने कैसे प्रतिभा एकदम बहिर्मुखी है। मनीषा अन्तर्मुखी। पिता जिसे वे अब पापा कहती हैं अपने सारे दिशा-निर्देशन के बावजूद यह प्रक्रिया नहीं रोक पाये। यह भी नहीं पता कि कलाप्रेम के प्रथम ज्वार में जब पापा ने प्रतिभा का नाम रोहिणी भाटे की नृत्य कक्षाओं में लिखवाया तब यह शुरू हुआ अथवा तब जब नाजिर हुसैन से दोनों बहनों को शास्त्रीय गायन सिखाने के लिए बाक़ायदा गंडा बँधवाई की गयी। नाजिर हुसैन आकाशवाणी के आला कलाकार थे। वे आसानी से किसी को अपना शागिर्द क़ुबूल नहीं करते थे। लेकिन कविमोहन ने उन्हें अपनी वक्तृता और विनम्रता से इतना प्रभावित कर दिया जब कहा, ‘‘खाँ साब हमारा रोयाँ-रोयाँ आपकी शागिर्दी क़ुबूल करता है, इन बच्चियों को सा रे गा मा का हुनर सिखा दें तो आपके पाँव धो-धोकर हम पियें।’’
नाजिर हुसैन ने जब दोनों लड़कियों को देखा वे द्रवित हो गये। रेडियो का आला अफ़सर उनके सामने गिड़गिड़ा रहा था। उन्होंने कहा, ‘‘बरख़ुरदार हम एक चावल से हाँडी परखते हैं। हफ्ते भर में तुम्हें बता देंगे, हाँ या ना।’’
नानापेठ स्थित उनके आवास पर प्रतिभा और मनीषा रोज़ शाम पाँच से छ: जाने लगीं। प्रतिभा ने आरम्भिक स्वर आदेशानुसार उठाये किन्तु मनीषा को सा बोलते हुए ही ऐसी हँसी और खाँसी उठी कि खाँ साब की समूची क्लास हिल गयी। मनीषा की पीठ थपकी गयी, उसका सिर सहलाया गया पर खाँसी कुछ ऐसी रही कि लडक़ी के आँसू आ गये। एक रोज़, दो रोज़, यही हाल रहा। आखिरकार खाँ साब ने उसके पिता से कह दिया, ‘‘अग्रवाल साब, आपकी छोटी लडक़ी में मौसिकी का छींटा भी नहीं है। हाँ बड़ी को मैं सिखा दूँगा।’’
यही हाल रोहिणी भाटे के यहाँ हुआ। मनीषा ने खुद पहले ही दिन विद्रोह कर दिया, ‘‘यह क्या ज़मीन छू-छूकर गुरु को प्रणाम करना। हम क्या गुलाम हैं। हमें नहीं करनी ता-ता थैया।’’
उसके पापा ने किचकिचाकर कहा, ‘‘ऊत की ऊत बने रहना है तुझे।’’
अब तक इन्दु लिपस्टिक-पाउडर लगाकर आधुनिका बन चुकी थीं। आन्तरिक आधुनिकता की उन्हें न चेतना थी न परवाह। वह बोलीं, ‘‘इसे सारी उमर हमारी छाती पर मूँग दलनी है और क्या?’’
अपने कच्चे किशोर कलेजे पर मनीषा ये आघात झेल ले गयी। उसने इससे भी बड़े आघात स्कूल में झेले थे जिनकी कोई जानकारी घरवालों को नहीं थी।
एक दिन दस्तूर नौशेरवान पब्लिक स्कूल में मेडिकल निरीक्षण था। सब छात्राओं के बाल, नाखून, दाँत और गले की जाँच होनी थी और विभिन्न टीके लगने थे। सतारा के मिशन हॉस्पिटल की नर्सें और डॉक्टर हर लडक़ी को अपने सामने खड़ा कर पहले नाखूनों और दाँतों की नुमायश करवाते फिर जीभ निकलवाते और हाथ में दो पेन्सिलों के कोनों से लडक़ी के बालों को जगह-जगह छेदकर देखते कि कहीं जूँ तो नहीं है। जब मनीषा की बारी आयी, नाखून और दाँत तो उसने चुपचाप दिखा दिये लेकिन गले की जाँच पर उसने ज़ोर से कहा, ‘‘आ आऽऽऽ। डॉक्टर और नर्सों ने जल्दी से कहा, ‘‘ठीक है चिल्ला क्यों रही हो?’’
इस जाँच के बाद बारी आयी चेचक के टीके की। क्लास की लड़कियों ने जानबूझकर मनीषा को कतार में सबसे आगे खड़ा कर दिया। जब वह डॉक्टर और कम्पाउंडर के पास पहुँची, उन्होंने एक नज़र उसे देखकर हाथ के इशारे से हटाकर कहा, ‘‘जाओ तुम्हें टीके की ज़रूरत नहीं है।’’ सारी क्लास खिलखिलाकर हँसी। उस दिन मनीषा को समझ आया कि जिसे एक बार चेचक निकल जाती है, वह जीवन भर के लिए इस रोग से प्रतिरक्षित हो जाता है। लेकिन यह ज्ञान उसे एसिड की तरह मिला। हँसती हुई लड़कियों को देखकर उसका मन हुआ इन चुड़ैलों को वह अपनी पीठ पर लादकर मूलामूठा नदी में फेंक आये।
मनीषा जाकर क्लासरूम में बैठ गयी। लड़कियों की हँसी याद कर उसे रुलाई आने लगी। क्या यह हँसी की बात थी? प्रिंसिपल ने उन्हें हँसने पर डाँटा क्यों नहीं।
जब लड़कियाँ ‘उई’, ‘आई’ करती अपनी बाँह थामे क्लास में घुसीं, तब तक मनीषा एक अलग इनसान बन चुकी थी। उसने जलती आँखों से उन्हें देखा और मोर्चा बना लिया।
जिस नेता टाइप लडक़ी ने कुछ देर पहले मनीषा को लाइन में सबसे आगे खड़ा किया था, उसका नाम सूरज अहलूवालिया था। वह क्लास मॉनिटर थी। इस वक्त वह बड़े ध्यान से अपनी गोरी बाँह पर बना नश्तर का निशान देख रही थी।
मनीषा ने हाथ में डस्टर छिपाया हुआ था।
कसकर उसने मॉनिटर की बाँह को निशाना बनाया और दूर से मारा डस्टर। सूरज अहलूवालिया बची लेकिन फिर भी डस्टर उसके होंठ पर लगा और मुँह से ख़ून बहने लगा।
क्लास में दहशत छा गयी। मनीषा इस सबसे तटस्थ खड़ी रही। उसे अपनी इस हरकत पर कोई अफ़सोस नहीं था।
इस समय क्लास में कोई टीचर मौजूद नहीं थी। सूरज की जुड़वाँ बहन चाँद अहलूवालिया और दौलत पटेल मनीषा के पास पहुँचीं। उन्होंने लपककर उसे पकड़ा और कहा, ‘‘चलो प्रिंसिपल के पास।’’
मनीषा खम्भे की तरह अपनी जगह पर अड़ी, खड़ी रही। उसकी क्रुद्ध रौद्र मुद्रा देखकर दोनों लड़कियों की पकड़ शिथिल पड़ गयी। तभी छुट्टी का घंटा टनटना उठा।
अपना बस्ता उठाकर मनीषा ने ठोड़ी से इशारा किया, ‘‘वह जानती है मैंने क्यों मारा।’’
सब लड़कियाँ सकपका गयीं। मनीषा की खिल्ली उड़ाने में वे सब शामिल थीं। मनीषा आक्रामक उत्तेजना में सीढिय़ाँ उतर गयी।
इस तेवर के पीछे मनीषा की पिछले सात महीने की मेहनत थी जिसके चलते छमाही परीक्षा में उसके उच्चतम अंक आये थे। जिस दिन उसने नौशेरवान दस्तूर स्कूल में दाखिला लिया था, गणित के टीचर मिस्टर होडीवाला ने उसे क्लास में सबसे पीछे की सीट दिखाकर कहा था, ‘गो एंड ऑक्युपाय दैट सीट।’’ मिस्टर होडीवाला उनके क्लास टीचर थे।
मनीषा थी तो पन्द्रह की पर देखने में ग्यारह की लगती। अभी न लम्बाई बढ़ी थी न देह उभरी। दुबली इतनी कि कमर पर से स्कर्ट खिसक-खिसक पड़ता। आगे के छोटे बाल, चोटी से निकलकर सामने आ जाते तो चेहरे का नक्शा बदल जाता।
होडीवाला सर को सुन्दर, दिखनौट लड़कियाँ पसन्द थीं। गणित का सवाल दे चुकने के बाद वे एक-एक छात्र, छात्रा के डेस्क के पास जाकर, उसकी पीठ पर हाथ रखते और कहते, ‘‘यस मिसिबाबा, लैट मी सी वॉट यू आर डूइंग।’’ जितनी देर वे सवाल देखते, उनका हाथ छात्रा की पीठ पर घूमता रहता। रिसैस में लड़कियाँ आपस में यही चर्चा करतीं कि होडीवाला सर उसके पास कितनी देर तक रुके।
मनीषा देखने में एक हद तक सिर्री ही लगती। होडीवाला सर उसके पास कभी नहीं रुकते। उसके किये सवाल हरदम सही होते। वे अपने लाल पेन से एक सही का निशान लगाकर आगे बढ़ जाते, ‘‘यस मिसिबाबा लेट मी सी वॉट यू आर डूइंग।’’
छमाही परीक्षा में प्रत्येक विषय में मनीषा के सर्वोच्च अंक आये। मजबूरन क्लास टीचर को उसे सामने की सीट पर बैठाना पड़ा। जनरल साइंस, इतिहास, भूगोल और इंग्लिश व हिन्दी में उसकी हाजिर-जवाबी देखने योग्य थी। सब शिक्षकों का मानना था कि इतनी मेधावी छात्रा को सामने बैठना चाहिए। क्लास की बाकी लड़कियाँ इस बात से चिढ़ गयीं। उन्हें मनीषा पहले दिन से सिर्री लगी थी जो थोड़ी कूद-कूदकर जल्दी चलती थी, मुँह धोकर स्कूल चली आती थी और जिसे तर्क और होमवर्क में वे हरा नहीं पातीं।
लड़कियों ने उसे नीचा दिखाने के लिए अपने सवाल गढ़ डाले थे।
—तुम्हारा सरनेम अग्रवाल है, क्या तुम मारवाड़ी हो?
—ओ तो तुम यू.पी. की हो। हमारी कॉलोनी में दूध-दही का सारा धन्धा भैया लोग करते हैं, तुम भैया हो?
—तुम तो तबेले में रहती होगी।
इन पूर्वाग्रहों का खंडन करते-करते मनीषा को अब अग्रवाल सरनेम से ही चिढ़ होने लगी थी। वह घर में कहती, ‘‘पापा आपको कोई और सरनेम नहीं मिला था जो यह दकियानूस सरनेम, नाम के साथ चिपका लिया।’’
पापा कहते, ‘‘इसमें क्या बुराई है?’’
‘‘स्कूल में हमें सब छेड़ते हैं। लड़कियों के इतने बढिय़ा-बढिय़ा सरनेम हैं—कुलकर्णी, चिटनिस, अय्यर, नैयर, कृष्णास्वामी।’’
‘‘देखो सरनेम में कोई अपनी मर्जी नहीं लगा सकता। यह हमें परिवार से मिलता है। हम लोग बीसा अग्रवाल हैं यानी अग्रवालों में सबसे ऊँचे। हमारा गोत्र बंसल है।’’
माँ बोल उठतीं, ‘‘हम बंसल भी तो लिख सकते हैं।’’ उन्हें भी लेडीज़ क्लब में अग्रवाल सरनेम पर टीका-टिप्पणी सुनने को मिल जाती।
‘‘नहीं, हमारी पहचान अपने पूरे नाम से बनती है कविमोहन अग्रवाल। दफ्तर में सब मुझे के.एम. कहते हैं लेकिन पीठ पीछे। सामने तो सब अग्रवाल साब, अग्रवाल साब कहकर हाथ जोड़ते हैं।’’
‘‘पापा इसका मतलब मैं जिन्दगी भर मनीषा अग्रवाल ही कहलाऊँगी।’’
‘‘ऐसा नहीं है। लड़कियों का सरनेम शादी के बाद बदलता है। कौन जानता है तुम्हारा क्या सरनेम हो जाए। पर अभी तो तुम बहुत छोटी हो। अभी तुम्हें पढऩा-लिखना और नाम कमाना है। अरे तुम्हें तो मैं सरोजिनी नायडू बनाऊँगा, विजयलक्ष्मी पंडित बनाऊँगा।’’
‘‘रहने दो, इसे चोटी भी तो करनी नायँ आय, ये बनेगी सरोजिनी नायडू।’’ माँ, मनीषा को नकारते समय ब्रजभाषा में उतर जातीं।
मज़े की बात यह कि पड़ोस में वाकई एक लडक़ी मनीषा की सहेली थी जिसका नाम था सरोजिनी नायडू। शाम के वक्त वे और कई दूसरी लड़कियाँ साथ-साथ बन्द गार्डन तक घूमने निकलतीं, उससे लगे पार्क में प्रदर्शनी देखतीं और प्लास्टिक के छोटे-छोटे खिलौने खरीदतीं घर आतीं।
मनीषा को नहीं पता था कि सरोजिनी नायडू कोई विशिष्ट नाम है।
उसने सरोजिनी से पूछा।
सरोजिनी उससे एक क्लास नीचे गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ती थी। उसने कहा, ‘‘पता नहीं अन्ना कहते हैं यह बहुत फेमस पोयट है।’’
‘‘पोयट नहीं पोयटैस।’’ मनीषा ने कहा।
जैसे एक लगन लग गयी। सरोजिनी नायडू कौन है कि पापा उसे उस जैसा बनाना चाहते हैं। और वह विजयलक्ष्मी पंडित।
पापा की बातों से मनीषा के अन्दर रोज़ जिज्ञासाएँ जन्म लेतीं।
दोपहरों में जब वह स्कूल से लौटती, माँ रेडियो सुनते-सुनते ऊँघ चुकी होतीं, दीदी किसी नाटक की रिहर्सल में व्यस्त होती, पापा ऑफिस में होते, और मनीषा बुक रैक में लगी किताबें खखोरती। हर किताब जहाँ से निकालो, वापस वहीं लगाओ, यह उस घर का कानून था। बुकरैक में बहुत-सी जीवनियाँ और आत्मकथाओं के मोटे ग्रन्थों की कतार थी, महात्मा गाँधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू। मनीषा को जैसे उन्माद चढ़ जाता। वह किताब निकालती, पृष्ठ पलटती, कहीं-कहीं पढ़ती। कुछ समझ आता, ज्याजदा अनसमझा रह जाता लेकिन उसका नशा कम न होता। एक-दो घंटे किताबों के बीच बिताकर वह फिर बच्ची बन जाती, हर किसी से लड़ती-भिड़ती, ज़बान लड़ाती मनीषा जिसकी शिकायत माँ तक आती रहती, ‘‘आपकी छोटी लडक़ी ने यह किया, आपकी छोटी लडक़ी ने वह किया।’’ माँ सिर पीटकर झींकती, ‘‘क्या बताऊँ, जाने कहाँ से जन्मी थी यह औलाद!’’
घर में किताबों के रैक खखोरने पर ही मनीषा को पता चला था कि सरोजिनी नायडू और विजयलक्ष्मी पंडित कौन थीं। उसने अपनी सहेली सरोजिनी को बताया, ‘‘तुम्हारा नाम तो बहुत पहले से फेमस है। पता है सरोजिनी नायडू ने बहुत सारी कविताएँ लिखीं और उन्हें ‘नाइटिंगेल ऑफ़ इंडिया’ भारत कोकिला कहा जाता है। लगता है तुम भी कविता करने लगोगी।’’
सरोजिनी ने हँसकर कहा, ‘‘नाम भले ही मेरा हो पर कवि तो तुम्हीं बनोगी, तुम्हारे पापा का तो नाम ही कविमोहन है।’’
मनीषा को बड़ा गर्व हुआ, ‘‘मेरे पापा की पूछो मत। इतनी अच्छी कविता लिखते हैं, मुझे तो कई याद हैं, सुनाऊँ!’’
सरोजिनी के अन्दर जरा भी काव्य-प्रेम नहीं था। उसने हाथ जोड़ दिये, ‘‘बस-बस बोर मत करो, बन्ध रोड पर चलना है तो बताओ।’’
मनीषा ने कहा, ‘‘मुझे दीदी को लेने जाना है, उसे रिहर्सल से आने में देर हो जाती है।’’
‘‘तुम क्या उसकी सिपाही हो।’’
‘‘और क्या, देखी है मेरी कोहनी की नुकीली हड्डी। एक बार किसी को मार दूँ तो वहीं उसकी पसली चकनाचूर हो जाय।’’
वाकई मनीषा नृत्य भारती तक पैदल जाकर, अपनी दीदी प्रतिभा को साथ लेकर बबरशेर की तरह लौटती।
प्रतिभा थी बहुत सुन्दर, ऊपर से शोख़ और शरारती। पढ़ाई में भी वह यथा नाम तथा गुण थी। इसी वजह से लड़कियाँ उससे ईष्र्या रखतीं। और लडक़े अभिलाषा। उसकी एक नज़र के लिए वे नृत्य-भारती के फाटक पर घंटों भीड़ लगाये रहते। नाटकों में प्रमुख भूमिका निभाने से प्रतिभा के अन्दर अपने आप नायिका भाव पैदा हो गया था। छोटे-मोटे फैन पर तो वह नज़र भी न डालती।
‘हार की जीत’ नाटक में जब उसने नयनतारा की भूमिका अदा की, शहर की पेशेवर अभिनेत्रियों को बहुत अखरा। उनका ख़याल था कि नयनतारा की बहुआयामी भूमिका, जिसमें अभिनय, भाव-नृत्य और कंठ-संगीत, तीनों कलाएँ अनिवार्य हैं, यह सत्रह-अठारह साल की अल्हड़, अनुभवहीन लडक़ी क्या निभाएगी। उन्होंने सोलंकी सर को समझाया, ‘‘गुरुजी आपकी प्रतिष्ठा को कलंक लग जाएगा, कच्चे हाथों में पक्का चरित्र हास्यास्पद न हो जाय।’’ निर्देशक सोलंकी सर, प्रतिभा को वाडिया कॉलेज की स्टेज पर ‘बन्दर का पंजा’ नाटक में सत्तर साल की बूढ़ी स्त्री का अभिनय करते देख चुके थे। वे आश्वस्त थे। उन्होंने नयनतारा की भूमिका प्रतिभा को ही दी। सिर्फ पैंतालिस दिन के पूर्वाभ्यास से ‘हार की जीत’ तैयार हो गया। ‘बाल गन्धर्व रंगमन्दिर’ में इसके प्रीमियर शो में, दर्शकों से हॉल पूरा भर गया। मम्मी-पापा के साथ मनीषा भी शो देखने गयी। उसे एक तरह से समस्त स्क्रिप्ट याद थी क्योंकि दीदी को संवाद रटाने का काम वही करवाती रही थी। खास बात यह थी कि लोगों ने टिकट ख़रीदकर नाटक देखा। समूचा नाटक नयनतारा की भूमिका पर टिका था। प्रतिभा ने सचमुच बेहतरीन अदाकारी की। उसका सौन्दर्य, संवेदनशील अभिनय, कंठ का माधुर्य और चपल नृत्य देखकर दर्शक विभोर हो गये। कर्टेन-कॉल में सर्वाधिक तालियाँ उसके हिस्से आयीं। पापा बोले, ‘‘आज मुझे लग रहा है मेरा क़द कई फुट ऊँचा हो गया।’’ रेडियो से जुड़े कई कलाकार भी नाटक देखने आये हुए थे। उन्होंने कविमोहन से कहा, ‘‘आपके घर में ही इतनी बेजोड़ कलाकार है, आप इन्हें रेडियो पर क्यों नहीं लाते।’’
कविमोहन ने सगर्व समझाया, ‘‘बात यह है जो फिल्म और मंच पर असफल हो जाते हैं, वही कलाकार रेडियो में जाते हैं, दूसरे जब तक मैं यहाँ काम करता हूँ, अपने परिवार के लोगों को कैसे रेडियो में आने की अनुमति दे सकता हूँ?’’
कविमोहन के अडिय़ल, कडिय़ल स्वभाव से सब परिचित थे।
शो के बाद अख़बारवालों की भी भीड़ लग गयी। रंगकर्म में आयी नयी कलाकार से सभी बात करना चाहते थे। कवि और इन्दु मनीषा को समझाकर घर चले गये, ‘‘जब प्रतिभा ख़ाली हो जाय तो दोनों घर आ जाना। बहन थकी हो तो रिक्शा कर लेना। पैसे घर पर दे देंगे।’’
खाली हॉल में एक कुर्सी पर बैठी रही मनीषा।
सोलंकी सर रिपोर्टरों को बताते रहे कि उनकी नायिका कितनी प्रतिभावान है। प्रतिभा के चित्र खींचे जाते रहे। उसने सभी सवालों के बड़े स्मार्ट जवाब दिये।
मनीषा देख-देख खुश होती रही।
एक बात उसकी समझ नहीं आयी। सोलंकी सर बार-बार दीदी का कन्धा या बाँह छू रहे थे और दीदी ने उनका हाथ एक भी बार नहीं झटका जबकि घर में कोई भी अगर दीदी से ज्याकदा लिपटे-चिपटे तो दीदी तुरन्त धमका देती, ‘‘दूर बैठो, मुझे घिन लगती है।’’ एक बार मम्मी ने बिगडक़र पूछा था, ‘‘तुझे मेरे से घिन लगती है?’’ दीदी ने बात बदली थी, ‘‘मेरा मतलब है गर्मी लगती है।’’
यहाँ ‘हार की जीत’ का हीरो शिरीष मजुमदार एक तरफ़ उपेक्षित खड़ा था, उसकी तरफ़ कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था। नाटक में दस-बारह पात्र थे लेकिन चर्चा केवल प्रतिभा की थी।
घर आने पर प्रतिभा ने जल्दी से कपड़े बदले, मुँह धोया और बिस्तर पर गुड़ुप पड़ गयी। सारा घर उसकी सँभाल में लग गया। माँ ने उसके बिखरे कपड़े समेटे, पापा ने रेडियो पर से मनीषा के छोटे-छोटे इनाम उठाकर ताक पर रखे। नाटक के प्रीमियर पर मेयर द्वारा प्रतिभा को दी गयी चमचमाती शील्ड रेडियो के ऊपर रखी गयी। मनीषा दो बार दीदी के कमरे में आयी पर बात नहीं हो पायी। प्रतिभा आँखें बन्द कर लेटी हुई थी। पापा-मम्मी धीरे-से उसके कमरे में आये। उसे सगर्व दृष्टि से देखते रहे। मम्मी ने आहिस्ता से उसे चादर उढ़ा दी। पापा ने कमरे की बिजली बन्द करते हुए मम्मी से कहा, ‘‘बेबी बहुत थक जाती है, इसे रोज़ एक सेब खिलाया करो।’’
अगले दो दिन तक मनीषा, दीदी की प्रीमियर सफलता से जुड़े प्रसंगों में लगी रही। पापा ने हलवाई से दस किलो लड्डू बनवाकर पड़ोस में बँटवाये। हर घर में मनीषा ही देने गयी। चार नम्बर, पाँच नम्बर, सत्रह नम्बर, उन्नीस नम्बर, घंटी दबाई, दरवाज़ा खुला, ‘‘नमस्ते आंटी, हमारी दीदी का नाटक इस बार भी सुपरहिट हुआ है, उसी की ख़ुशी में मम्मी ने ये लड्डू भेजे हैं, नमस्ते।’’
प्रतिभा कहाँ ख़ाली बैठती है। रोज़ छह से आठ तक बीस शो ‘हार की जीत’ के हुए। बस सिलवर जुबली मनाने में ज़रा-सी कसर रह गयी। ठीक उसके बाद कथक समारोह की प्रैक्टिस शुरू हो गयी। यह उसकी गुरुजी रोहिणी भाटे का ही आयोजन था, अत: इसमें तो पूरी जान लगा देनी थी उसे। उसके ही साथ बैजू, सुनयना और द्राक्षा ने भी मेहनत की। हालत यह हो गयी कि ये शिष्याएँ नाचते-नाचते चक्कर खाकर गिर पड़ीं। पिंडलियों की खाल घुँघरुओं की रगड़ खाते-खाते छिल गयी। मगर लड़कियाँ घाव पर टेप लगाकर फिर उठ खड़ी हुईं। गुरुजी का शो ए-वन जाना चाहिए चाहे जान निकल जाए। यह मनीषा का ही बूता था कि वह कभी जूस लेकर कभी दूध लेकर नृत्य-भारती संस्थान तक दौड़ती रही कि दीदी भूखी न रहे, नाचते-नाचते उसके शरीर में तरलता की कमी न हो जाए।
प्रतिभा थी लगन की पक्की। प्रैक्टिस के समय उसे नृत्य के सिवा और कुछ नहीं दीखता। बहन को देखते ही घुडक़ती, ‘‘यहाँ क्या करने आयी है! देखती नहीं प्रैक्टिस चल रही है।’’
मनीषा डरते-डरते कहती, ‘‘मम्मी ने दूध भेजा है, पी लो तो और अच्छी प्रैक्टिस होगी।’’
प्रतिभा थर्मस में से आधा दूध या जूस खुद पीती, आधा निसार खान नाम के अपने तबलावादक को पिला देती। कहती, ‘‘ये मुझसे ज्याखदा थक जाते हैं, इन्हीं की ताल पर तो मैं नाचती हूँ।’’
वापसी में दोनों बहनें साथ होतीं।
कवि-परिवार की आचार-संहिता थी, बच्चों को पैदल चलना चाहिए। हाँ, किसी के पैर में मोच आ जाए या पेट में बर्दाश्त-बाहर दर्द हो जाए, तब रिक्शा लिया जा सकता है।
इसी उसूल के तहत दोनों बहनें शाम को पैदल घर चली जा रही थीं कि एक लम्बी कार उनके पास आकर रुक गयी।
एक निहायत रूपवान व्यक्ति कार में से उतरा और बड़ी शालीनता से प्रतिभा से मुख़ातिब हुआ। उसने कहा, ‘‘मिस अग्रवाल मैं आपको घर पहुँचा दूँ यह मेरी ख़ुशकिस्मती होगी।’’
प्रतिभा ने उड़ती नज़र से उसे देखा, ‘‘देखिए, मैं आपको जानती नहीं, आप कौन हैं, ऐसे मैं कैसे जा सकती हूँ आपके साथ।’’
प्रिंस सांगली को यह बात इतनी बुरी लगी कि वह चुपचाप वहाँ से हट गया। वह उस दिन के बाद से कॉलेज नहीं गया। उसने न सिर्फ वाडिया कॉलेज बल्कि पुणे भी छोड़ दिया।
प्रतिभा को कोई कष्ट नहीं हुआ। उसने कहा, ‘‘जिसे मैं जानती भी नहीं, उसकी कार में कैसे बैठ जाती। लिफ्ट देने में लिफ्ट लेनेवाले की मर्जी भी बराबर की हक़दार होती है।’’
पापा अपनी बेटी के मौलिक विचारों के कायल हुए, ‘‘शाबाश बेबी बेटे, तूने मेरी छाती चौड़ी कर दी, मैं देख सकता हूँ तुझे कभी कोई पराजित नहीं कर पाएगा।’’
माँ ने गर्वोक्ति की, ‘‘मेरी बेटी गलत रास्ते चल ही नहीं सकती। देख लो, तुम दस साल बाहर रहे, मैंने एक मिनट भी अपना मन मैला नहीं किया, सावन-भादों सब जोगन की तरह बिता दिये।’’
प्रतिभा ने माता-पिता की शेखी की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया। उसकी चेतना में अगली नृत्य-नाटिका और नाटक के संवाद गूँज रहे थे। साथ ही उसे अपने तबला कलाकार निसार का वादा सुनाई दे रहा था, ‘‘एक बार बम्बई चलकर देखो आप, मैं आपको मॉडलिंग की दुनिया की मलिका बनाकर दिखाऊँगा।’’
फिर आ गया वाडिया कॉलेज का वार्षिकोत्सव। हर तरफ़ चहल-पहल और तैयारियाँ। यह एक दिन का नहीं बल्कि चार दिनों तक चलने वाला आयोजन था जिसमें खेल-कूद, डिबेट, नृत्य और गायन प्रतियोगिताएँ और सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे एकांकी, नाटक आदि होते। विद्यार्थियों में खूब जोश रहता। देर शाम तक रिहर्सल चलते।
बैजू, सुनयना, द्राक्षा और प्रतिभा की इन दिनों बड़ी पूछ थी। सबसे ज्याादा प्रतिभा की, क्योंकि बाकी लड़कियाँ नृत्य और गायन में तो निपुण थीं, अभिनय के क्षेत्र में कोरी थीं। प्रतिभा की खासियत यह थी कि वह ट्रैजिक और कॉमिक दोनों भूमिकाएँ निभा सकती थी। लिहाज़ा उसे एक ही शाम दो ड्रामों में अभिनय करना था। उससे पहले दिन एकल नृत्य का आइटम तो था ही।
कविमोहन ने कहा, ‘‘इतने आइटम की तैयारी करेगी तो तेरा बहुत वक्त ख़राब होगा, थक अलग जाएगी।’’
‘‘पापा आपको पढ़ाई की फिक्र हो रही है न। मैं परीक्षा में फस्र्ट आकर दिखाऊँगी, दैट्स अ प्रॉमिस। सोशल गैदरिंग में सब लडक़े-लड़कियाँ लगे हुए हैं, मैं पीछे नहीं हट सकती।’’
जे. एम. सिन्ज़ के नाटक ‘ऑल माय सन्ज़’ में प्रतिभा ने माँ का किरदार निभाया, कुछ इस अन्दाज़ में कि उसकी मार्मिकता ने हर दर्शक को हिला दिया। अन्तिम दृश्य में माँ का संवाद था, ‘‘चले गये—सबके सब चले गये। छह-छह बेटे पैदा किये, छहों चले गये। अब जाकर मैं सोऊँगी, चैन से सोऊँगी। जिस दिनसे ब्याही आयी, एक दिन भी नहीं सोयी। कभी किसी के लिए, कभी किसी के लिए जीवन प्रार्थना में बीता। आज इसकी पूजा, कल उसका उपवास। अब सब चले गये। लाख तूफ़ान आएँ, अब मेरा क्या बिगाड़ लेंगे। सागर से मुझे क्या लेना और क्या देना। भले ही घर में अब भोजन के नाम पर सिर्फ एक सूखी मछली हो, मुझे क्या चिन्ता, किसकी फिक्र! मैं पैर फैलाकर सोऊँगी, भर नींद सोऊँगी।’’
प्रतिभा की आवाज़ का उतार-चढ़ाव, संवाद के बीच की उसाँस और चुप्पी, कंठ की थर्राहट और भरभरायापन, इस सबके ऊपर उसकी थकी-हारी चाल सब मिलकर एक मछुआरिन माँ का व्यक्तित्व ऐसा बयान कर रही थीं कि कोई कह नहीं सकता था कि यह भूमिका कुल अठारह साल की लडक़ी द्वारा अभिनीत हुई है।
ठीक इसके बाद प्रतिभा को एक हास्य नाटिका में मुख्य भूमिका करनी थी। ‘शादी या ढकोसला’ की नायिका के रोल में उसे पुरुष-पात्रों की ख़बर लेनी थी। पिछले नाटक का एकदम विलोम था यह आइटम लेकिन प्रतिभा ने इसमें भी अच्छा अभिनय किया।
अब आया वार्षिकोत्सव का आखिरी चरण—पुरस्कार वितरण समारोह। जैसी अपेक्षा थी, प्रतिभा को सर्वाधिक इनाम मिले। डिबेट, गायन और अभिनय में उसे प्रथम पुरस्कार मिला। कॉलेज की सर्वप्रिय छात्रा का मैडल भी उसे प्रदान किया गया। नृत्य-प्रतियोगिता में वह द्वितीय आयी। उसमें वैजयन्ती उर्फ वैजू को प्रथम पुरस्कार मिला। टेबिल-टेनिस शील्ड भी प्रतिभा की वजह से जीती गयी, उसका विशेष पुरस्कार मिला उसे। प्रतिभा ने मुख्य अतिथि के हाथ से अपने ही अन्दाज़ में पुरस्कार ग्रहण किये। बार-बार अपनी जगह से मंच तक जाना उसे कबूल नहीं। वह वहीं खड़ी रही विंग्ज़ में, एक भक्त छात्र को अपने इनाम पकड़ाती। वहीं से निकलकर वह मुख्य अतिथि से पुरस्कार लेती और फिर वहीं खड़ी हो जाती। लेने की अदा ऐसी जैसे वह पुरस्कार ले नहीं, दे रही हो।
मनीषा भी बैठी थी ताली बजाने वालों में। जितनी बार प्रतिभा का नाम बुलाया जाता, मनीषा को लगता वह लम्बी होती जा रही है। इच्छा तो उसकी हो रही थी कि सीट पर खड़ी होकर ताली बजाये।
जलसे के बाद दोनों बहनें घर लौट चलीं। कॉलेज से घर ज्या दा दूर नहीं था। कुछ इनाम प्रतिभा ने पकड़ रखे थे, कुछ मनीषा ने। मनीषा को लग रहा था जैसे ये सब उसी ने जीते हैं। आखिर वही तो याद करवाती थी दीदी को उसकी डिबेट की स्पीच और ड्रामों के डायलॉग। चाहे काण्ट और हीगेल की सैद्धान्तिकी हो, चाहे ध्रुवस्वामिनी के संवाद, प्रतिभा का कंठस्थ करने का तरीका यह था कि वह बिस्तर पर आँख मूँदकर लेट जाती और मनीषा से कहती, ‘‘हाँ मुन्नी, पढक़र सुना।’’
मनीषा को इस काम में बड़ा मज़ा आता। स्कूल की अपनी पाठ्य-पुस्तकें चाट जाने के बाद कॉलेज स्तर की पुस्तकें या साहित्यिक नाटक पढक़र सुनाने में नये अनुभव का निरालापन था। कभी-कभी वह बीच में चुप हो जाती यह जाँचने के लिए कि दीदी वाकई सुन रही है या सो गयी। प्रतिभा तुरन्त आँखें खोल देती, ‘‘मुन्नी तू चुप कैसे हो गयी। अभी तो पूरा एक दृश्य पड़ा है।’’
यह आदत प्रतिभा में पापा से आयी थी। कविमोहन को भी सुने हुए शब्द तुरन्त याद हो जाते। इसीलिए वह अपने आपको वॉकिंग रेडियो कहता। आजकल उसने घर में एक नया शब्द स्थापित किया था, वॉकी-टॉकी। शाम की सैर को वह कहता, ‘‘इन्दु वॉकी-टॉकी पर चलना है तो चलो।’’
रास्ते में कभी कोई, कभी कोई प्रतिभा को मुबारकबाद दे रहा था। तभी चार लडक़ों के एक ग्रुप ने आकर उसे बधाई दी। फिर उनमें से एक ठिगने मोटे लडक़े ने कहा, ‘‘मिस अग्रवाल, हम लोगों में एक शर्त लगी है। राज कक्कड़ का कहना है यह लडक़ी जो आपके साथ है, आपकी बहन है। मेरा कहना है ऐसा हो ही नहीं सकता। बकवास करना राज की पुरानी आदत है। वह आपकी क़ामयाबी से जल रहा है इसीलिए ऐसी घटिया बात कर रहा है। मुझे पता है यह ज़रा भी सच नहीं है। पर हम सब आपसे सुनना चाहते हैं। हम लोगों में आइसक्रीम की शर्त लगी है।’’
प्रतिभा ने निहायत लापरवाही से कहा, ‘‘इसमें कौन-सी शर्त की बात है। मेरी बहन है यह, मनीषा।’’
लडक़ों के मुँह खुले के खुले रह गये। उन्होंने टकटकी लगाकर मनीषा को देखा जैसे चिडिय़ाघर में बच्चे ज़ेब्रा देख रहे हों।
राज कक्कड़ ने सूरमा अन्दाज़ में बाँहें चढ़ा लीं, ‘‘देखा न, मेरी ख़बर गलत नहीं होती। है न धमाका-छाप।’’
ठिगने, मोटे लडक़े ने हताश स्वर में कहा,‘‘यह आपकी सगी बहन है मिस अग्रवाल?’’
‘‘हाँ बाबा, सगी।’’ प्रतिभा ने हँसते-हँसते कहा।
‘‘एक ही माँ की?’’
‘‘हाँ, और एक ही पिता की।’’ प्रतिभा ने अपनी तरफ़ से स्मार्ट मज़ाक़ कर मारा जिस पर सब हो-हो कर हँस पड़े।
मनीषा की सूरत रोनी हो आयी। कितने बेहूदा लडक़े हैं। कैसे भद्दे मज़ाक़ करते हैं। यह क्या शर्त लगाने की बात है। इतनी बार वह दीदी के साथ कॉलेज आ चुकी है, बहन नहीं तो क्या वह चपरासिन है।
घर पहुँचकर मनीषा ने किसी से कुछ नहीं कहा पर रुलाई एक अन्धड़ की तरह मन में घुमड़ रही थी। किसी को उसकी तरफ़ देखने की फुर्सत नहीं थी। कोई प्रतिभा की पीठ ठोक रहा था, कोई उसका मुँह चूम रहा था। पापा ने सगर्व, दीदी से कहा, ‘‘यू आर माय ब्रेनी डॉटर, शाबाश!’’
रात जब मनीषा अपने बिस्तर पर लेटी, इतनी देर की रुकी हुई रुलाई अवश फूट पड़ी। उसे समझ नहीं आ रहा था वह क्यों रो रही है पर आँसू थे कि बहे जा रहे थे। लगातार रोने से नींद भी उड़ गयी।
मनीषा दबे पाँव उठकर गुसलखाने में गयी।
वहाँ लगे शीशे में उसने अपना चेहरा देखा।
नहीं, इतना बुरा तो नहीं कि बरदाश्त न हो। बाल उसके दीदी से लम्बे और मुलायम हैं। त्वचा भी उसकी चमक रही है। फिर उन लडक़ों ने क्यों कहा कि वह दीदी की कोई नहीं। और फिर अगर लडक़ों ने बदतमीज़ी की भी, तो क्या दीदी उन्हें डपट नहीं सकती थी। क्या उसका हाथ अपने हाथ में लेकर, गर्व से नहीं कह सकती थी, ‘‘देखो यह है मेरी बहन, मेरी अपनी छोटी बहन, तुम्हें दिखाई नहीं देता?’’
मनीषा क्या करे कि अपनी दीदी की बहन लगे। क्या गले में पट्टा लटका ले या आटे के बोरे में मुँह घुसा दे या छील डाले अपनी चमड़ी छिलके की तरह।
मनीषा को इसी तिलमिलाहट में याद आयी उस लाल लहँगे की जिसके कारण उसे माँ से मार पड़ी थी।
दीदी को टाउनहॉल में एकल नृत्य प्रतियोगिता में भाग लेना था। उसके लिए लाल लहँगा, ब्लाउज़ और चूनर बनवाई गयी। प्रतियोगिता वाले दिन प्रतिभा बाज़ार गयी—लाल चुटीला और झूमर खरीदने। पीछे से दर्जी ने आकर पोशाक दी। नयी लाल पोशाक मनीषा को इतनी भायी, उससे रहा न गया। उसने चाव ही चाव में अपनी फ्रॉक उतारकर लहँगा-ओढऩी पहन ली। बाक़ायदा सिर ढँककर वह माथे पर टिकुली लगा ही रही थी कि दीदी वापस।
मनीषा को काटो तो ख़ून नहीं। हे भगवान, दीदी ने देख लिया। अब क्या होगा!
‘‘दीदी का पारा गरम हो गया, ‘‘तूने मेरी पोशाक क्यों ख़राब की, बता, बता!’’ दीदी ने उसे झँझोड़ डाला।
‘‘दीदी खराब नहीं की, लो मैं उतार देती हूँ।’’
दीदी रोने बैठ गयी, ‘‘ऊँ ऊँ ऊँ, अब मैं यह नहीं पहूनँगी। यह पोशाक गन्दी हो गयी।’’
मम्मी ने प्रतिभा से कुछ नहीं कहा, बस मुन्नी की धुनाई कर दी, साथ में अपनी भड़ास शब्दों में निकाली, ‘‘जन्मी थी औलाद। तू पैदा होते ही मर क्यों नहीं गयी। सब मथुरावालों की देहाती आदतें आयी हैं इसमें, किसी के भी लत्ते लटका लेना, किसी की भी चप्पल पहन लेना। तेरी हिम्मत कैसे हुई बड़ी बहन के कपड़ों को हाथ लगाने की! बेवकूफ़।’’
मनीषा हफ्तों सोचती रह गयी, क्या पोशाक इतनी जल्द, इतनी गन्दी हो गयी कि दीदी का डांस बिगड़ गया, उसे पुरस्कार नहीं मिला और घर लौटते हुए उसकी एक पायल भी खो गयी।
तब से मनीषा ने तय किया दीदी का कोई कपड़ा नहीं छूना है, रूमाल भी नहीं। दीदी को दुखी नहीं करना है।
मनीषा को अजीब यह लगता कि सिर्फ उसे और पापा को मथुरावाले कहा जाता। मम्मी कभी दीदी को और अपने को मथुरावाली नहीं कहतीं। वे मथुरा को स्थानवाचक संज्ञा की बजाय गुणवाचक विशेषण बना देतीं। कभी पापा चाय में अतिरिक्त चीनी की माँग कर बैठते तो मम्मी उनकी चाय में आधा चम्मच चीनी और डालकर मिलाते हुए कहतीं, ‘‘रहे तुम मथुरावाले ही। कितनी भी चीनी मैं डाल दूँ तुम्हें चाय फ़ीकी ही लगे।’’
किसी दिन मनीषा बालों में तेल नहीं लगाती और उसके बाल बिखरे-बिखरे लगते। मम्मी कहतीं, ‘‘क्या भग्गो भूतनी जैसी शकल बना रखी है। मेज़ पर तेल की शीशी भरी रखी है पर नहीं इसे तो मथुरावाली देहातिनों की तरह रहना है।’’
‘‘तुम नहीं हो मथुरावाली?’’ पापा छेड़ते।
‘‘ना बाबा, मैं ठहरी फ्रंटियर पंजाब की, मैंने तो शादी के बाद पहली बार तुम्हारी मथुरा देखी।’’
‘‘तुम्हें मथुरा याद नहीं आती?’’
‘‘ज़रा भी नहीं। मेरे लिए तो मथुरा जेल थी जेल। बड़ी चक्की चलायी, बड़े पापड़ बेले। और रहती तो मर जाती?’’
‘‘कैसे मर जातीं?’’
‘‘जमनाजी में छलाँग मार देती। पता है एक बार तो दुखी आकर गयी भी थी। पर उस दिन पानी बड़ा गँदला था और वहाँ नंगे मोटे पंडे लोग नहा रहे थे। मैंने सोचा अगर मैं मर गयी तो ये ही पंडे मुझे पानी में से निकालेंगे। मुझे बड़ी घिन लगी और मैं वापस आ गयी।’’
‘‘तब तो भगवान पंडों को और मोटा करे। पंडे और भी नंगे रहा करें ताकि औरतें मरने न जायँ।’’
‘‘तुम्हें हँसी की बात लग रही है, मेरी जान पर बनी थी।’’
‘‘हुआ क्या था?’’
‘‘बस अब याद न दिलाया करो। कोई एक बात हो तो बताऊँ। कभी कोई टर्राय, कभी कोई टर्राय। करने वाली एक और हुकुम चलानेवाले चार-चार।’’
अब कवि की विनोदप्रियता जवाब दे जाती। वह कहता, ‘‘इन्दु तुम्हारे साथ मुश्किल यह है कि तुम रिश्तों की इज्ज़त करना नहीं जानतीं। मेरी माँ एक पैर से लाचार, ऊपर से डायबिटीज़ की मरीज़। क्या हो गया अगर वहाँ काम कर दिया।’’
‘‘टाँग की कमी वे ज़ुबान से पूरी कर लेवें। मीठे की तो इतनी चींटा, बिल्कुल तुम्हारी तरह।’’
‘‘अच्छा चुप हो जाओ, मुझे गुस्सा आ रहा है।’’
बेचैनी में कवि सिगरेट फूँकने की रफ्तार और तादाद यकायक बढ़ा देता। वह रातों में जाग-जागकर सिगरेट पीता। वह सोचता, वह अपने घर, अपने शहर से बड़ी दूर निकल आया है। ताज्जुब की बात यह कि इतनी दूर बैठकर उसे न पिता पर क्रोध आता न माँ पर। दूरी ने पिता से अधिक माँ की एक देव-प्रतिमा उसकी कल्पना में स्थापित कर दी थी। इन्दु के कटु-वचन इस तन्मयता में व्याघात पहुँचाते।
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में इन्दु ने अपने बाल कटवाना, ताश खेलना, मेकअप करना और पड़ोसियों से गप्प-गोष्ठी करना तो सहज ही अपना लिया पर अपने जीवन-साथी का मनोविज्ञान समझना ज़रूरी नहीं समझा। जब दफ्तर से आकर कवि उसे बताना चाहता कि कैसे उसने समस्त मराठी कार्यक्रमों के बीच हिन्दी का एक घंटे का प्रसारण मन्त्रालय से मंज़ूर करवाया, इन्दु को उसकी सफलता का कोई स्पन्दन ही नहीं होता। वर्षों पति से अलग रहकर उसका स्वतन्त्र मानसिक संसार बन चुका था। जितना आनन्द उसे अपनी पड़ोसिनों में आता, उतना पति के सान्निध्य में न आता। कवि के दफ्तर चले जाने के बाद वह पहले एक-डेढ़ घंटे खुरपी लेकर अपनी क्यारियों में व्यस्त हो जाती। घर के पिछवाड़े कच्ची ज़मीन थी जहाँ इन्दु ने पाँच लम्बी क्यारियाँ तैयार की थीं। सेम, मेथी, धनिया, पुदीना, टमाटर और करेले सबके पौधे उसने लगा रखे थे। अहाते की पिछली दीवार पर लौकी और तोरई की बेलें चढ़ी थीं। इन्दु को पौधों के बीच वक्त गुज़ारना अच्छा लगता। उन क्यारियों में इतनी तरकारी पैदा हो जाती कि घर में केवल आलू, अरबी, अदरक जैसी सब्जियाँ बाज़ार से लानी पड़तीं। अपनी उगाई तरकारियाँ इन्दु अड़ोस-पड़ोस में बाँटतीं। घर की उगी तरकारियाँ इतनी कच्ची और कोमल होतीं कि मिनटों में पक जातीं।
स्नान के बाद, अच्छी तरह से तैयार होकर इन्दु का मेल-मिलाप का कार्यक्रम शुरू होता। बगलवाले बँगले की मिसेज़ कुमार, सात नम्बर, उन्नीस नम्बर की महिलाएँ या तो किसी एक के घर में बैठकर बातें करतीं अथवा सब नीचे अहाते में इकट्ठी हो जातीं। काफ़ी देर खड़े-खड़े गप्प-गोष्ठी चलती। मनीषा को यह देखकर बड़ा कौतुक होता कि सभी महिलाओं की साडिय़ों की पसन्द लगभग एक-सी थी। उनका मेकअप भी एक समान लगता। उनकी बातें भी एक-सी उबाऊ और एकरस थीं। पति की अफ़सरी जताने के लिए एक ऐसे कहती, ‘‘हमारे साहब तो नाश्ते में टोस्ट खाते हैं, पराँठे से उन्हें बड़ी चिढ़ है।’’ दूसरी कहती, ‘‘हमारे साहब तो हमारे बिना टूर पर भी नहीं जाते।’’ इन्दु भी पीछे नहीं रहती, वह कहती, ‘‘हमारे साहब की कविताओं की सारी दुनिया में धूम है। रेडियो पर जो तुम सब सुनती हो, उन्हीं की मर्जी से बजाया जाता है।’’
दोपहर में मनीषा बदस्तूर स्कूल से लौटती तो पाती माँ की आँख लग गयी है। उसका मन होता माँ उठकर उसे थाली परोसकर दें लेकिन इन्दु रोज़ शाम चार बजे उठती जब प्रतिभा का कॉलेज से आने का वक्त होता। तब उसकी सक्रियता देखने लायक होती। एक तरफ़ बेबी के लिए थाली परोसी जाती, दूसरी तरफ़ चाय चढ़ाई जाती। कटोरदान से मठरी और मर्तबान से अचार निकाला जाता। वे तीनों मिलकर चाय पीते।
थोड़ी देर सुस्ता लेने के बाद प्रतिभा हाथ-मुँह धोकर सफेद साड़ी, सफेद ब्लाउज़ पहन नृत्य-भारती के लिए तैयार हो जाती। कभी इन्दु कहती, ‘‘बहुत थकी है, आज न जा।’’
प्रतिभा कहती, ‘‘नहीं मम्मी, मुझे तो आचार्यजी से भी बड़ी कलाकार बनना है, तुम देखती जाओ।’’
कभी-कभी इन्दु मनीषा पर किचकिचाती, ‘‘अपनी बहन को देख, कित्ती मेहनत करती है। पढ़ाई क्या, डिबेट क्या, डांस क्या, सबमें आगे। तेरी इच्छा नहीं होती कुछ करने की?’’
मनीषा मुँह लटका लेती, ‘‘फस्र्ट तो मैं भी आती हूँ।’’
‘‘इससे क्या, कोई हुनर भी तो हो। लडक़ी की जात को सौ कलाएँ सीखनी होती हैं।’’
मनीषा मुँहफट हो जाती, ‘‘आपने कितनी सीखीं मम्मी?’’
इन्दु मुँह बनाती, ‘‘मुझे कभी आज़ादी ही नहीं मिली, न या घर न वा घर। अपने भाग सराहो, तुम पर कोई रोक-टोक नहीं। पढऩे और खेलने के सिवा कोई काम नहीं तुम्हें।’’
मनीषा कहती, ‘‘दीदी की तरह ताता थैया तो मैं कभी न करूँ। और वह पक्का गाना, बाप रे बाप!’’