प्रेमा (उपन्यास)

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Jemsbond
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Re: प्रेमा (उपन्यास)

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 15:01

समय हवा की तरह उड़ता चला जाता है। एक महीना गुजर गया। जाड़े का कूँच हुआ और गर्मी की लैनडोरी होली आ पहुँची। इस बीच में अमृतराय ने दो-तीन जलसे किये और यद्यपि सभासद दस से ज्यादा कभी न हुए मगर उन्होंने हियाव न छोड़ा। उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि चाहे कोई आवे या न आवे, मगर नियत समय पर जलसा जरुर किया करुगॉँ। इसके उपरान्त उन्होंने देहातों में जा-जाकर सरल-सरल भाषाओं में व्याख्यान देना शुरु किया और समाचार पत्रों में सामाजिक सुधार पर अच्छे-अच्छे लेख भी लिखे। इनकों तो इसके सिवाय कोई काम न था। उधर बेचारी प्रेमा का हाल बहुत बेहाल हो रहा था। जिस दिन उसे-उनकी आखिरी चिट्टी पहुँची थी उसी दिन से उसकी रोगियों की-सी दशा हो रही थी। हर घड़ी रोने से काम था। बेचारी पूर्ण सिरहाने बैठे समझाया करती। मगर प्रेमा को जरा भी चैन न आता। वह बहुधा पड़े-पड़े अमृतराय की तस्वीर को घण्टों चुपचाप देखा करती। कभी-कभी जब बहुत व्याकुल हो जाती तो उसके जी मे आता कि मौ भी उनकी तस्वीर की वही गत करुँ जो उन्होंने मेरी तस्वीर की की है। मगर फिर तुरन्त यह ख्याल पलट खा जाता। वह उस तसवी को आँखों से लेती, उसको चूमती और उसे छाती से चिपका लेती। रात में अकेले चारपाई पर पड़े-पड़े आप ही आप प्रेम और मुहब्ब्त की बातें किया करती। अमृराय के कुल प्रेम-पत्रों को उसने रंगीन कागज पर, मोटे अक्षरों, में नकल कर लिया था। जब जी बहुत बेचैन होता तो पूर्ण से उन्हें पढ़वाकर सुनती और रोती। भावज के पास तो वह पहले भी बहुत कम बैठती थी, मगर अब मॉँ से भी कुछ खिंची रहती। क्योंकि वह बेटी की दशा देख-देख कुढ़ती और अमृतराय को इसका करण समझकर कोसती। प्रेमा से यह कठोर वचन न सुने जाते। वह खुद अमृतराय का जिक्र बहुत कम करती। हाँ, अब पूर्णा या कोई और दूसरी सहेली उनकी बात चलाती तो उसको खूब कान लगाकर सुनाती। प्रेमा एक ही मास में गलकर कॉँटा हो गयी। हाय अब उसको अपने जीवन की कोई आशा न थी। घर के लोग उसकी दवा-दारू में रुपया ठीकरी की तरह फूक रहे थे मगर उसको कुछ फयदा न होता। कई बार लाला बदरीप्रसाद जी के जी में यह बात आई कि इसे अमृतराय ही से ब्याह दूँ। मगर फिर भाई-बहन के डर से हियाव न पड़ता। प्रेमा के साथ बेचारी पूर्णा भी रोगिणी बनी हुई थी।

आखिर होली का दिन आया। शहर में चारों ओर अबीर और गुलाल उड़ने लगा, चारों तरफ से कबीर और बिरादरीवालों के यहाँ से जनानी सवारियॉँ आना शुरु हुई और उसे उनकी खातिर से बनाव-सिगार करना, अच्छे-अच्छे कपड़ा पहनना, उनका आदर-सम्मान करना और उनके साथ होली खेलना पड़ा। वह हँसने, बोलने और मन को दूसरी बातों में लगाने के लिए बहुत कोशिश करती रही। मगर कुछ बस न चला। रोज अकेल में बैठकर रोया करती थी, जिससे कुछ तसकीन हो जाती। मगर आज शर्म के मारे रो भी न सकती थी। और दिन पूर्ण दस बजे से शाम तक बैठी अपनी बातों से उसका दिल बहलाया करती थी मगर थी मगर आज वह भी सवेरे ही एक झलक दिखाकर अपने घर पर त्योहार मना रही थी। हाय पूर्णा को देखते ही वह उससे मिलने के लिए ऐसी झपटी जैसे कोई चिड़िया बहुत दिनों के बाद अपने पिंजरे से निकल कर भागो। दोनो सखियॉँ गले मिल गयीं। पूर्णा ने कोई चीज मॉँगी—शायद कुमकुमे होंगे। प्रेमा ने सन्दूक मगाया। मगर इस सन्दूक को देखते ही उसकी आँखों में आँसू भर आये। क्योंकि यह अमृतराय ने पर साल होली के दिन उसके पास भेजा था। थोड़ी देर में पूर्णा अपने घर चली गयी मगर प्रेमा घंटो तक उस सन्दूक को देख-देख रोया की।

पूर्णा का मकान पड़ोसी ही में था। उसके पति पण्डित बसंतकुमार बहुत सीधे मगर शैकीन और प्रेमी आदमी थे। वे हर बात स्त्री की इच्छानुसार करते। उन्होंने उसे थोड़ा-बहुत पढ़या भी था। अभी ब्याह हुए दो वर्ष भी न होने पाये थे, प्रेम की उमंगे दोनों ही दिलों में उमड़ हुई थी, और ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे त्यों-त्यों उनकी मुहब्बत और भी गहरी होती जाती थी। पूर्णा हरदस पति की सेवा प्रसन्न रहती, जब वह दस बजे दिन को दफ्तर जाने लगते तो वह उनके साथ-साथ दरवाजे तक आती और जब तक पण्डित जी दिखायी देते वह दरवाजे पर खड़ी उनको देखा करती। शाम को जब उनके आने का समय हाता तो वह फिर दरवाजे पर आकर राह देखने लगती। और ज्योंही व आ जाते उनकी छाती से लिपट जाती। और अपनी भोली-भाली बातों से उनकी दिन भर की थकन धो देती। पंडित जी की तरख्वाह तीस रुपये से अधिक न थी। मगर पूर्णा ऐसी किफ़यात से काम चलाती कि हर महीने में उसके पास कुछ न कुछ बच रहता था। पंडित जी बेचारे, केवल इसलिए कि बीवी को अच्छे से अच्छेगहने और कपड़े पहनावें, घर पर भी काम किया करते। जब कभी वह पूर्णा को कोई नयी चीज बनवाकर देते वह फूली न समाती। मगर लालची न थी। खुद कभी किसी चीज के लिए मुँह न खोलती। सच तो यह है कि सच्चे प्रेम के आन्नद ने उसके दिल में पहनने-ओढ़ने की लालसा बाकी न रक्खी थी।

आखिर आज होली का दिन आ गया। आज के दिन का क्या पूछना जिसने साल भर चाथड़ों पर काटा वह भी आज कहीं न कहीं से उधार ढूँढ़कर लाता है और खुशी मनाता है। आज लोग लँगोटी में फाग खेलते है। आज के दिन रंज करना पाप है। पंडित जी की शादी के बाद यह दूसरी होली पड़ी थी। पहली होली में बेचारे खाली हाथ थे। बीवी की कुछ खातिर न कर सके थे। मगर अब की उन्होंने बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थी। कोई डढ़ सौ, रुपया ऊपर से कमाया था, उसमें बीवी के वास्ते एक सुन्दर कंगन बनवा था, कई उत्तम साड़ियाँ मोल लाये थे और दोस्तों को नेवता भी दे रक्खा था। इसके लिए भॉँति-भॉँति के मुरब्बे, आचार, मिठाइयॉँ मोल लाये थे। और गाने-बजाने के समान भी इकट्टे कर रक्खे थे। पूर्णा आज बनाव-चुनाव किये इधर-उधर छबि दिखाती फिरती थी। उसका मुखड़ा कुन्दा की तरह दमक रहा था उसे आज अपने से सुन्दर संसार में कोई दूसरी औरत न दिखायी देती थी। वह बार-बार पति की ओर प्यार की निगाहों से देखती। पण्डित जी भी उसके श्रृंगार और फबन पर आज ऐसी रीझे हुए थे कि बेर-बेर घर में आते और उसको गले लगाते। कोई दस बजे होंगे कि पण्डित जी घर में आये और मुस्करा कर पूर्णा से बोले—प्यारी, आज तो जी चाहता है तुमको आँखों में बैठे लें। पूर्णा ने धीरे से एक ठोका देकर और रसीली निगाहों से देखकर कहा—वह देखों मैं तो वहाँ पहले ही से बैठी हूँ। इस छबि ने पण्डित जी को लुभा लिया। वह झट बीवी को गले से लगाकर प्यार करने। इन्हीं बातों में दस बजे तो पूर्णा ने कहा—दिन बहुत आ गया है, जरा बैठ जाव तो उबटन मल दूँ। देर हो जायगी तो खाने में अबेर-सबेर होने से सर दर्द होने लेगेगा।

पण्डित जी ने कहा—नहीं-नहीं दो। मैं उबटन नहीं मलवाऊँगा। लाओ धोती दो, नहा आऊँ।

पूर्णा—वाह उबटन मलवावैंगे। आज की तो यह रीति ही है। आके बैठ जाव।

पण्डित—नहीं, प्यारी, इसी वक्त जी नहीं चाहता, गर्मी बहुत है।

पूर्णा ने लपककर पति का हाथ पकड़ लिया और चारपाई पर बैठकर उबटन मलने लगी।

पण्डित—मगर ज़रा जल्दी करना, आज मैं गंगा जी नही जाना चाहता हूँ।

पूर्णा-अब दोपहर को कहाँ जाओगे। महरी पानी लाएगी, यहीं पर नहा लो।

पण्डित—यही प्यारी, आज गंगा में बड़ी बहार रहेगी।

पूर्णा—अच्छा तो ज़रा जल्दी लौट आना। यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत तुम बहुत दूर तक तैर जाया करते हो।

थोड़ी देर मे पण्डित जी उबटन मलवा चुके और एक रेश्मी धोती, साबुन, तौलिया और एक कमंडल हाथ मे लेकर नहाने चले। उनका कायदा था कि घाट से जरा अलग नहा करते यह तैराक भी बहुत अच्छे थे। कई बार शहर के अच्छे तैराको से बाजी मार चुके थे। यद्यपि आज घर से वादा करके चले थे कि न तैरेगे मगर हवा ऐसी धीमी-धीम चल रही थी और पानी ऐसा निर्मल था कि उसमे मद्धिम-मद्धिम हलकोरे ऐसे भले मालूम होते थे और दिल ऐसी उमंगों पर था कि जी तैरने पर ललचाया। तुरंत पानी में कूद पड़े और इधर-उधर कल्लोंले करने लगे। निदान उनको बीच धारे में कोई लाल चीजे बहती दिखाया दी। गौर से देखा तो कमल के फूल मालूम हुए। सूर्य की किरणों से चमकते हूए वह ऐसे सुन्दर मालम होते थे कि बसंतकुमार का जी उन पर मचल पड़ा। सोचा अगर ये मिल जायें तो प्यारी पूर्णा के कानों के लिए झुमके बनाऊँ। वे मोटे-ताजे आदमी थे। बीच धारे तक तैर जाना उनके लिए कोई बड़ी बात न थी। उनको पूरा विश्वास था कि मैं फूल ला सकता हूँ। जवानी दीवानी होती है। यह न सोचा था कि ज्यों-ज्यों मैं आगे बढूँगा त्यों-त्यों फूल भी बढ़ेंगे। उनकी तरफ चले और कोई पन्द्रह मिनट में बीच धारे में पहूँच गये। मगर वहाँ जाकर देखा तो फूल इतना ही दूर और आगे था। अब कुछ-कुछ थकान मालूम होने लगी थी। मगर बीच में कोई रेत ऐसा न था जिस पर बैठकर दम लेते। आगे बढ़ते ही गये। कभी हाथों से ज़ोर मारते, कभी पैरों से ज़ोर लगाते, फूलों तक पहूँचे। मगर उस वक्त तक हाथ-पॉँव दोनों बोझल हो गये थे। यहाँ तक कि फूलों को लेने के लिए जब हाथ लपकाना चाहा तो उठ न सका। आखिर उनको दॉँतों मे दबाया और लौटे। मगर जब वहाँ से उन्होंने किनारों की तरफ देखा तो ऐसा मालूम हुआ मानों हजार कोस की मंजिल है। बदन में जरा भी शक्ति बाकी न रही थी और पानी भी किनारे से धारें की तरफ बह रहा था। उनका हियाव छूट गया। हाथ उठाया तो वह न उठे। मानो वह अंग में थे ही नहीं। हाय उस वक्त बसंतकुमार के चेहरे पर जो निराशा और बेबसी छायी हुई थी, उसके खयाल करने ही से छाती फटती है। उनको मालूम हुआ कि मैं डूबा जा रहा हूँ। उस वक्त प्यारी पूर्णा की सुधि आयी कि वह मेरी बाट देख रही होगी। उसकी प्यारी-प्यारी मोहनी सूरत आँखें के सामने खड़ी हो गयी। एक बार और हाथ फेंका मगर कुछ बस न चला। आँखों से आँसू बहने लगे और देखते-देखते वह लहरों में लोप हा गये। गंगा माता ने सदा के लिए उनको अपनी गोद मे लिया। काल ने फूल के भेस मे आकर अपना काम किया।

उधर हाल का सुलिए। पंडित जी के चले आने के बाद पूर्णा ने थालियॉँ परसीं। एक बर्तन में गुलाल घोली, उसमें मिलाया। पंडित जी के लिए सन्दूक से नये कपड़े निकाले। उनकी आसतीनों में चुन्नटें डाली। टोपी सादी थी, उसमें सितारें टॉँके। आज माथे पर केसर का टीका लगाना शुभ समझा जाता है। उसने अपने कोमल हाथों से केसर और चन्दन रगड़ा, पान लगाये, मेवे सरौते से कतर-कतर कटोरा में रक्खे। रात ही को प्रेमा के बग़ीचे से सुन्दर कलियॉँ लेती आयी थी और उनको तर कपड़े में लपेट कर रख दिया था। इस समय वह खूब खिल गयी थीं। उनको तागे में गुँथकर सुन्दर हार बनाया और यह सब प्रबन्ध करके अपने प्यारे पति की राह देखने लगी। अब पंडित जी को नहाकर आ जाना चाहिए था। मगर नहीं, अभी कुछ देर नहीं हुई। आते ही होगें, यही सोचकर पूर्णा ने दस मिनट और उनका रास्ता देखा। अब कुछ-कुछ चिंता होने लगी। क्या करने लगे? धूप कड़ी हो रही है। लौटने पर नहाया-बेनहाया एक हो जाएगा। कदाचित यार दोस्तों से बातों करने लगे। नहीं-नहीं मैं उनकों खूब जानती हूँ। नदी नहाने जाते हैं तो तैरने की सुझती है। आज भी तैर रहे होंगे। यह सोचकर उसने आधा घंटे और राह देखी। मगर जब वह अब भी न आये तब तो वह बैचैन होने लगी। महरी से कहा—‘बिल्लों जरा लपक तो जावा, देखो क्या करने लगे। बिल्लों बहुत अच्छे स्वाभव की बुढ़िया थी। इसी घर की चाकरी करते-करते उसके बाल पक गये थे। यह इन दोनों प्राणियों को अपने लड़कों के समान समझती थी। वह तुरंत लपकी हुई गंगा जी की तरफ चली। वहाँ जाकर क्या देखती है कि किनारे पर दो-तीन मल्लाह जमा हैं। पंडित जी की धोती, तौलिया, साबुन कमंडल सब किनारे पर धरे हुए हैं। यह देखते ही उसके पैर मन-मन भर के हो गए। दिल धड़-धड़ करने लगा और कलेजा मुँह को आने लगा। या नारायण यह क्या ग़जब हो गया। बदहवास घबरायी हुई नज़दीक पहूँची तो एक मल्लाह ने कहा—काहे बिल्लों, तुम्हारे पंडित नहाय आवा रहेन।

बिल्लो क्या जवाब देती उसका गला रुँध गया, आँखों से आँसू बहने लगे, सर पीटने लगी। मल्लाहों ने समझाया कि अब रोये-पीटे का होत है। उनकी चीज वस्तु लेव और घर का जाव। बेचारे बड़े भले मनई रहेन। बिल्लो ने पंडित जी की चीजें ली और रोते-पीटती घर की तरफ चली। ज्यों-ज्यों वह मकान के निकट आती त्यों-त्यों उसके कदम पिछे को हटे आते थे। हाय नाराण पूर्णा को यह समाचार कैसे सुनाऊँगी वह बिचारी सोलहो सिंगार किये पति की राह देख रही है। यह खबर सुनकर उसकी क्या गत होगी। इस धक्के से उसकी तो छाती फट जायगी। इन्हीं विचारों में डूबी हुई बिल्लो ने रोते हुए घर में कदम रक्खा। तमाम चीजें जमीन पर पटक दी और छाती पर दोहत्थड़ मार हाय-हाय करने लगी। बेचारी पूर्णा इस वक्त आईना देख रही थी। वह इस समय ऐसी मगन थी और उसका दिल उमंगों और अरमानों से ऐसा भरा हुआ था कि पहले उसको बिल्लो के रोने-पीटने का कारण समझ में न आया। वह हकबका कर ताकने लगी कि यकायक सब मजारा उसकी समझ में आ गया। दिल पर एक बिजली कौंध गयी। कलेजा सन से हो गया। उसको मालूम हो गया कि मेरा सुहाग उठ गया। जिसने मेरी बॉँह पकड़ी थी उससे सदा के लिए बिछड़ गयी। उसके मुँह से केवल इतना निकला—‘हाय नारायण’ और वह पछाड़ खाकर धम से ज़मीन पर गिर पड़ी। बिल्लो ने उसको सँभाला और पंखा झलने लगी। थोड़ी देर में पास-पड़ोस की सैंकड़ों औरते जमा हो गयीं। बाहर भी बहुत आदमी एकत्र हो गये। राय हुई कि जाल डलवाया जाय। बाबू कमलाप्रसाद भी आये थे। उन्होंने पुलिस को खबर की। प्रेमा को ज्योंही इस आपत्ति की खबर मिली उसके पैर तले से मिट्टी निकल गयी। चटपट आढकर घबरायी हुई कोठे से उतरी और गिरती-पड़ती पूर्णा की घर की तरफ चली। मॉँ ने बहुत रोका मगर कौन सुनता है। जिस वक्त वह वहाँ पहुँची चारों ओर रोना-धोना हो रहा था। घर में ऐसा न था जिसकी आँखों से आँसू की धारा न बह रही हो। अभगिनी पूर्णा का विलाप सुन-सुनकर लोगों के कलेजे मुँह को आय जाते थे। हाय पूर्णा पर जो पहाड़ टूट पड़ा वह सातवे बैरी पर भी न टूटे। अभी एक घंटा पहले वह अपने को संसार की सबसे भाग्यवान औरतों में समसझती थी। मगर देखते ही देखते क्या का क्या हो गया। अब उसका-सा अभागा कौन होगा। बेचारी समझाने-बूझाने से ज़रा चुप हो जाती, मगर ज्योंही पति की किसी बात की सुधि आती त्यों ही फिर दिल उमड़ आता और नयनों से नीर की झड़ी लग जाती, चित्त व्याकुल हो जाता और रोम-रोम से पसीना बहने लगता। हाय क्या एक-दो बात याद करने की थी। उसने दो वर्ष तक अपने प्रेम का आन्नद लूटा था। उसकी एक-एक बात उसका हँसना, उसका प्यार की निगाहों से देखना उसको याद आता था। आज उसने चलते-चलते कहा था—प्यारी पूर्णा, जी चाहता हैं, तुझे आँखों में बिठा लूँ। अफसोस हे अब कौन प्यार करेगा। अब किसकी पुतलियों में बैठूँगी कौन कलेजे में बैठायेगा। उस रेशमी धोती और तोलिया पर दृष्टि पड़ी तो जोर से चीख उठी और दोनों हाथों से छाती पीटने लगी। निदान प्रेमा को देखा तो झपट कर उठी और उसके गले से लिपट कर ऐसी फूट-फूट कर रोयी कि भीतर तो भीतर बाहर मुशी बदरीप्रसाद, बाबू कमलाप्रसाद और दूसरे लोग आँखों से रुमाल दिये बेअख्तियार रो रहे थे। बेचारी प्रेमा के लिए महीने से खाना-पीना दुर्लभ हो रहा था। विराहनल में जलते-जलते वह ऐसी दूर्बल हो गयी थी कि उसके मुँह से रोने की आवाज तक न निकलती थी। हिचकियॉँ बँधी हुई थीं और आँखों से मोती के दाने टपक रहे थे। पहले व समझती थी कि सारे संसार में मैं ही एक अभागिन हूँ। मगर इस समय वह अपना दु:ख भूल गयी। और बड़ी मुश्किल से दिल को थाम कर बोली—प्यारी सखी यह क्या ग़ज़ब हो गया? प्यारी सखी इ़सके जवाब में अपना माथा ठोंका और आसमान की ओर देखा। मगर मुँह से कुछ न बोल सकी।

इस दुखियारी अबला का दु:ख बहुत ही करुणायोग्य था। उसकी जिन्दगी का बेड़ा लगानेवाला कोई न था दु:ख बहुत ही करुणयोग्या था उसकी जिन्दगी का बेड़ा पार लगानेवाला कोई न था। उसके मैके में सिर्फ एक बूढ़े बाप से नाता था और वह बेचारा भी आजकल का मेहमान हो रहा था। ससुराल में जिससे अपनापा था वह परलोक सिधारा, न सास न ससुर न अपने न पराये। काई चुल्लू भर पानी देने वाला दिखाई न देता था। घर में इतनी जथा-जुगती भी न थी कि साल-दो साल के गुजारे भर को गुजारे भर हो जाती। बेचारी पंडित जी को अभी-नौकरी ही करते कितने दिन हुए थे कि रुपया जमा कर लेते। जो कमाया वह खाया। पूर्णा को वह अभी वह बातें नहीं सुझी थी। अभी उसको सोचने का अवकाश ही न मीला था। हाँ, बाहर मरदाने में लोग आपस में इस विषय पर बातचीत कर रहे थे।

दो-ढ़ाई घण्टे तक उस मकान में स्त्रियों का ठट्टा लगा रहा। मगर शाम होते-होते सब अपने घरों को सिधारी। त्योहार का दिन था। ज्यादा कैसे ठहरती। प्रेमा कुछ देर से मूर्छा पर मूर्छा आने लगी थी। लोग उसे पालकी पर उठाकर वहाँ से ले गये और दिया में बत्ती पड़ते-पड़ते उस घर में सिवाय पूर्णा और बिल्ली के और कोई न था। हाय यही वक्त था कि पंडित जी दफ्तर से आया करते। पूर्णा उस वक्त द्वारे पर खड़ी उनकी राह देखा करती और ज्योंही वह ड्योढ़ी में कदम रखते वह लपक कर उनके हाथों से छतरी ले लेती और उनके हाथ-मुँह धोने और जलपान की सामग्री इकट्टी करती। जब तक वह मिष्टान्न इत्यादि खाते वह पान के बीड़े लगा रखती। वह प्रेम रस का भूख, दिन भर का थका-मॉँदा, स्त्री की दन खातिरदारियों से गदगद हो जाता। कहाँ वह प्रीति बढ़ानेवाले व्यवहार और कहाँ आज का सन्नटा? सारा घर भॉँय-भॉँय कर रहा था। दीवारें काटने को दौड़ती थीं। ऐसा मालूम होता कि इसके बसनेवालो उजड़ गये। बेचारी पूर्णा आँगन में बैठी हुई। उसके कलेजे में अब रोने का दम नहीं है और न आँखों से आँसू बहते हैं। हाँ, कोई दिल में बैठा खून चूस रहा है। वह शोक से मतवाली हो गयी है। नहीं मालूम इस वक्त वह क्या सोच रही है। शायद अपने सिधारनेवाले पिया से प्रेम की बातें कर रही है या उससे कर जोड़ के बिनती कर रही है कि मुझे भी अपने पास बुला लो। हमको उस शोकातुरा का हाल लिखते ग्लानि होती है। हाय, वह उस समय पहचानी नहीं जाती। उसका चेहरा पीला पड़ गया है। होठों पर पपड़ी छायी हुई हैं, आँखें सूरज आयी हैं, सिर के बाल खुलकर माथे पर बिखर गये है, रेशमी साड़ी फटकार तार-तार हो गयी है, बदन पर गहने का नाम भी नहीं है चूड़िया टूटकर चकनाचूर हो गयी है, लम्बी-लम्बी सॉँसें आ रही हैं। व चिन्ता उदासी और शोक का प्रत्यक्ष स्वरुप मालूम होती है। इस वक्त कोई ऐसा नहीं है जो उसको तसल्ली दे। यह सब कुछ हो गया मगर पूर्णा की आस अभी तक कुछ-कुछ बँधी हुई है। उसके कान दरवाजे की तरफ लगे हुए हुए है कि कहीं कोई उनके जीवित निकल आने की खबर लाता हो। सच है वियोगियों की आस टूट जाने पर भी बँधी रहती है।

शाम होते-होते इस शोकदायक घटना की ख़बर सारे शहर में गूँज उठी। जो सुनता सिर धुनता। बाबू अमृतराय हवा खाकर वापस आ रहे थे कि रासते में पुलिस के आदमियों को एक लाश के साथ जाते देखा। बहुत-से आदमियों की भीड़ लगी हुई थी। पहले तो वह समझे कि कोई खून का मुकदमा होगा। मगर जब दरियाफ्त किया तो सब हाल मालूम हो गया। पण्डित जी की अचानक मृत्यु पर उनको बहुत रोज हुआ। वह बसंतकुमार को भली भॉँति जानते थे। उन्हीं की सिफारिश से पंडित जी दफ्तर में वह जग मिली थी। बाबू साहब लाश के साथ-साथ थाने पर पहुँचे। डाक्टर पहले से ही आया हुआ था। जब उसकी जॉँच के निमित्त लाश खोली गयी तो जितने लोग खड़े थे सबके रोंगेटे खड़े हो गये और कई आदमियों की आँखों से आँसू निकल आये। लाश फूल गयी थी। मगर मुखड़ा ज्यों का त्यों था और कमल के सुन्दर फूल होंठों के बीच दॉँतों तले दबे हुए थे। हाय, यह वही फूल थे जिन्होंने काल बनकर उसको डसा था। जब लाश की जॉँच हो चुकी तब अमृतराय ने डाक्टर साहब से लाश के जलाने की आज्ञा मॉँगी जो उनको सहज ही में मिल गयी। इसके बाद वह अपने मकान पर आये। कपड़े बदले और बाईसिकिल पर सवार होकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे। देखा तो चौतरफासन्नाटा छाया हुआ है। हर तरफ से सियापा बरस रहा है। यही समय पंडित जी के दफ्तर से आने का था। पूर्णा रोज इसी वक्त उनके जूते की आवजे सुनने की आदी हो रही थी। इस वक्त ज्योंही उसने पैरों की चाप सुनी वह बिजली की तरह दरवाजे की तरफ दौड़ी। मगर ज्योंही दरवाजे पर आयी और अपने पति की जगी पर बाबू अमृतराय को खड़े पाया तो ठिठक गयी। शर्म से सर झुका लिया और निराश होकर उलटे पॉँव वापास हुई। मुसीबत के समय पर किसी दु:ख पूछनेवालो की सूरत आँखों के लिए बहाना हो जाती है। बाबू अमृतराय एक महीने में दो-तीन बार अवश्य आया करते थे और पंडित जी पर बहुत विश्वास रखते थे। इस वक्त उनके आने से पूर्णा के दिल पर एक ताज़ा सदमा पहुँचा। दिल फिर उमड़ आया और ऐसा फूट-फूट कर रोयी कि बाबू अमृतराय, जो मोम की तरह नर्म दिल रखते थे, बड़ी देर तक चुपचाप खड़े बिसुरा किये। जब ज़रा जी ठिकाने हुआ तो उन्होंने महीर को बुलाकर बहुत कुछ दिलासा दिया और देहलीज़ में खड़े होकर पूर्णा को भी समझया और उसको हर तरहा की मदद देने का वादा करके, चिराग जलते-जलते अपने घर की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा अपनी महताबी पर हवा खाने निकली थी। सकी आँखें पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी हुई थीं। निदान उसने किसी को बाइसिकिल पर सवार उधार से निकलते दखा। गौर से देखा तो पहिचान गई और चौंककर बोली—‘अरे, यह तो अमृतराय है।

Jemsbond
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Re: प्रेमा (उपन्यास)

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 15:24

अँय ! यह गजरा क्या हो गया?

पंडित बंसतकुमार का दुनिया से उठ जाना केवल पूर्णा ही के लिए जानलेवा न था, प्रेमा की हालत भी उसी की-सी थी। पहले वह अपने भाग्य पर रोया करती थी। अब विधाता ने उसकी प्यारी सखी पूर्णा पर विपत्ति डालकर उसे और भी शोकातुर बना दिया था। अब उसका दुख हटानेवाला, उसका गम गलत करनेवाला काई न था। वह आजकल रात-दिन मुँह लपेटे चारपाई पर पड़ी रहती। न वह किसी से हँसती न बोलती। कई-कई दिन बिना दाना-पानी के बीत जाते। बनाव-सिगार उसको जरा भी न भाता। सर के बल दो-दो हफ्ते न गूँथे जाते। सुर्मादानी अलग पड़ी रोया करती। कँघी अलग हाय-हाय करती। गहने बिल्कुल उतार फेंके थे। सुबह से शाम तक अपने कमरे में पड़ी रहती। कभी ज़मीन पर करवटें बदलती, कभी इधर-उधर बौखलायी हुई घूमती, बहुधा बाबू अमृतराय की तस्वीर को देखा करती। और जब उनके प्रेमपत्र याद आते तो रोती। उसे अनुभव होता था कि अब मैं थोड़े दिनों की मेहमान हूँ।

पहले दो महीने तक तो पूर्णा का ब्रह्मणों के खिलाने-पिलाने और पति के मृतक-संस्कार से सॉँस लेने का अवकाश न मिला कि प्रेमा के घर जाती। इसके बाद भी दो-तीन महीने तक वह घर से बाहर न निकली। उसका जी ऐसा बुझ गया था कि कोई काम अच्छा न लगता। हाँ, प्रेमा माँ के मना करने पर भी दो-तीन बार उसके घर गयी थी। मगर वहाँ जाकर आप रोती और पूर्णा को भी रुलाती। इसलिए अब उधर जाना छोड़ दिया था। किन्तु एक बात वह नित्य करती। वह सन्ध्या समय महताबी पर जाकर जरुर बैठती। इसलिए नहीं कि उसको समय सुहाना मालूम होता या हवा खाने को जी चाहता था, नहीं प्रत्युत केवल इसलिए कि वह कभी- कभी बाबू अमृतराय को उधर से आते-जाते देखती। हाय लिज वक्त वह उनको देखते उसका कलेजा बॉँसों उछालने लगता। जी चाहता कि कूद पडूँ और उनके कदमों पर अपनी जान निछावर कर दूँ। जब तक वह दिखायी देते अकटकी बॉँधे उनको देखा करती। जब वह आँखों से आझला हो जाते तब उसके कलेजे में एक हूक उठती, आपे की कुछ सुधि न रहती। इसी तरह कई महीने बीत गये।

एक दिन वह सदा की भॉँति अपने कमरे में लेटी हुई बदल रही थी कि पूर्णा आयी। इस समय उसको देखकर ऐसा ज्ञात होता था कि वह किसी प्रबल रोग से उठी है। चेहरा पीला पड़ गया था, जैसे कोई फूल मुरझा गया हो। उसके कपोल जो कभी गुलाब की तरह खिले हुए थे अब कुम्हला गये थे। वे मृगी की-सी आँखें जिनमें किसी समय समय जवानी का मतवालापन और प्रेमी का रस भरा हुआ था अन्दर घुसी हुई थी, सिर के बाल कंधों पर इधर-उधर बिखरे हुए थे, गहने-पाते का नाम न था। केवल एक नैन सुख की साड़ी बदन पर पड़ी हुई थी। उसको देखते ही प्रेमा दौड़कर उसके गले से चिपट गयी और लाकर अपनी चारपाई पर बिठा दिया।

कई मिनट तक दोनों सखियॉँ एक-दूसरे के मुँह को ताकती रहीं। दोनो के दिल में ख्यालों का दरिया उमड़ा हुआ था। मगर जबान किसी की न खुलती थी। आखिर पूर्णा ने कहा-आजकल जी अच्छा नहीं है क्या? गलकर कॉँटा गयी हो

प्रेमा ने मुसकराने की चेष्टा करके कहा-नहीं सखी, मैं बहुत अच्छी तरह हूँ। तुम तो कुशल से रही?

पूर्णा की आँखों में आँसू डबडबा आये। बोली-मेरा कुशल-आनन्द क्या पूछती हो, सखी आनन्द तो मेरे लिए सपना हो गया। पॉँच महीने से अधिक हो गये मगर अब तक मेरी आँखें नहीं झपकीं। जान पड़ता है कि नींद आँसू होकर बह गयी।

प्रेमा- ईश्वर जानता है सखी, मेरा भी तो यही हाल है। हमारी-तुम्हारी एक ही गत है। अगर तुम ब्याही विधवा हो तो मैं कुँवारी विधवा हूँ। सच कहती हूँ सखी, मैने ठान लिया है कि अब परमार्थ के कामों में ही जीवन व्यतीत करुँगा।

पूर्णा- कैसी बातें करती हो, प्यारी मेरा और तुम्हारा क्या जोड़ा? जितना सुख भोगना मेरे भाग में बदा था भोग चुकी। मगर तुम अपने को क्यों घुलाये डालती हो? सच मानो, सखी, बाबू अमृतराय की दशा भी तुम्हारी ही-सी है। वे आजकल बहुत मलिन दिखायी देते है। जब कभी इधर की बात चलती हूँ तो जाने का नाम ही नहीं लेते। मैंने एक दिन देखा, वह तुम्हारा काढ़ा हुआ रुमाला लिये हुए थे।

यह बातें सुनकर प्रेमा का चेहरा खिल गया। मारे हर्ष के आँखें जगमगाने लगी। पूर्णा का हाथ अपने हाथों में लेकर और उसकी आँखों से आँखें मिलाकर बोली-सखी, इधर की और क्या-क्या बातें आयी थीं?

पूर्णा- (मुस्कराकर) अब क्या सब आज ही सुन लोगी। अभी तो कल ही मैंने पूछा कि आप ब्याह कब करेंगे, तो बोले-'जब तुम चाहो।' मैं बहुत लजा गई।

प्रेमा- सखी, तुम बड़ी ढीठ हो। क्या तुमको उनके सामने निकलते-पैठते लाज नहीं आती?

पूर्णा- लाज क्यों आती मगर बिना सामने आये काम तो नहीं चलता और सखी, उनसे क्या परदा करूँ उन्होंने मुझ पर जो-जो अनुग्रह किये हैं उनसे मैं कभी उऋण नहीं हो सकती। पहिले ही दिन, जब कि मुझ पर वह विपत्ति पड़ी रात को मेरे यहाँ चोरी हो गयी। जो कुछ असबाबा था पापियों ने मूस लिया। उस समय मेरे पास एक कौड़ी भी न थी। मैं बड़े फेर में पड़ी हुई थी कि अब क्या करुँ। जिधर आँख उठाती, अँधेरा दिखायी देता। उसके तीसरे दिन बाबू अमृतराय आये। ईश्वर करे वह युग-युग जिये: उन्होंने बिल्लो की तनख़ाह बॉँध दी और मेरे साथ भी बहुत सलूक किया। अगर वह उस वक्त आड़े न आते तो गहने-पाते अब तक कभी के बिक गये होते। सोचती हूँ कि वह इतने बड़े आदमी हाकर मुझ भिखारिनी के दरवाजे पर आते है तो उनसे क्या परदा करुँ। और दूनिया ऐसी है कि इतना भी नहीं देख सकती। वह जो पड़ोसा में पंडाइन रहती है, कई बार आई और बोली कि सर के बाल मुड़ा लो। विधवाओं का बाल न रखना चाहिए। मगर मैंने अब तक उनका कहना नहीं माना। इस पर सारे मुहल्ले में मेरे बारे में तरह-तरह की बातें की जाती हैं। कोई कुछ कहता हैं, कोई कुछ। जितने मुँह उतनी बातें। बिल्लो आकर सब वृत्तान्त मुझसे कहती है।सब सुना लेती हूँ और रो-धोकर चुप हो रहती हूँ। मेरे भाग्य में दुख भोगना, लोगों की जली-कटी सुनना न लिखा होता तो यह विपत्ति ही काहे को पड़ती। मगर चाहे कुछ हो मैं इन बालों को मुँड़वाकर मुण्डी नहीं बनना चाहती। ईश्वर ने सब कुछ तो हर लिया, अब क्या इन बालों से भी हाथ धोऊँ।

यह कहकर पूर्णा ने कंधो पर बिखरे हुए लम्बे-लम्बे बालों पर ऐसी दृष्टि से देखा मानो वे कोई धन हैं। प्रेमा ने भी उन्हें हाथ से सँभाला कर कहा-नहीं सखी खबरदार, बालों को मुँड़वाओगी तो हमसे-तुमसे न बनगी। पंडाइन को बकने दो। वह पगला गई है। यह देखो नीचे की तरफ जो ऐठन पड़ गयी हैं, कैसी सुन्दर मालूम होती है यही कहकर प्रेमा उठी। बक्स में सुगन्धित तेल निकाला और जब तक पूर्णा हाय-हाय करे कि उसके सर की चादर खिसका कर तेल डाल दिया और उसका सर जाँघ पर रखकर धीरे-धीरे मलने लगी। बेचारी पूर्णा इन प्यार की बातों को न सह सकी। आँखों में आँसू भरकर बोली-प्यारी प्रेमा यह क्या गजब करती हो। अभी क्या काम उपहास हो रहा है? जब बाल सँवारे निकलूँगी तो क्या गत होगी। अब तुमसे दिल की बात क्या छिपाऊँ। सखी, ईश्वर जानता हैं, मुझे यह बाल खुद बोझ मालूम होते हैं। जब इस सूरत का देखनेवाला ही संसार से उठ गया तो यह बाल किस काम के। मगर मैं इनके पीछे पड़ोसियों के ताने सहती हूँ तो केवल इसलिए कि सर मुड़ाकर मुझसे बाबू अमृतराय के सामने न निकला जाएगा। यह कह कर पूर्णा जमीन की तरफ ताकने लगी। मानो वह लजा गयी है। प्रेमा भी कुछ सोचने लगी। अपनसखी के सर में तेल मला, कंघी की बाल गूँथे और तब धीरे से आईना लाकर उसके सामने रख दिया। पूर्णा ने इधर पॉँच महीने से आईने का मुँह नहीं देखा था। वह सझती थी कि मेरी सूरत बिलकूल उतर गयी होगी मगर अब जो देखा तो सिवया इसके कि मुँह पीला पड़ गया था और कोई भेद न मालूम हुआ। मध्यम स्वर में बोली-प्रेमा, ईश्वर के लिए अब बस करो, भाग से यह सिंगार बदा नहीं हैं। पड़ोसिन देखेंगी तो न जाने क्या अपराध लगा दें।

प्रेम उसकी सूरत को टकटकी लगाकर देख रही थी। यकायक मुस्कराकर बोली-सखी, तुम जानती हो मैंने तुम्हारा सिंगार क्यों किया?

पूर्णा- मैं क्या जानूँ। तुम्हारा जी चाहत होगा।

प्रेमा- इसलिए कि तुम उनके सामने इसी तरह जाओ।

पूर्णा- तुम बड़ी खोटी हो। भला मैं उनके सामने इस तरह कैसे जाऊँगी। वह देखकर दिल में क्या में क्या कहेंगे। देखनेवाले यों ही बेसिर-पैर की बातें उड़ाया करते है, तब तो और भी नह मालूम क्या कहेंगे।

थोड़ी देर तक ऐसे ही हंसी-दिल्ली की बातो-बातो में प्रेमा ने कहा-सखी, अब तो अकेले नहीं रहा जाता। क्या हर्ज है तुम भी यहीं उठ आओ। हम तुम दोनों साथ-साथ रहें।

पूर्णा- सखी, मेरे लिए इससे अधिक हर्ष की कौन-सी बात होगी कि तुम्हारे साथ रहूँ। मगर अब तो पैर फूक-फूक कर धरना होती है। लोग तुम्हारे घर ही में राजी न होंगे। और अगर यह मान भी गये तो बिना बाबू अमृतराय की मर्जी के कैसे आ सकती हूँ। संसार के लोग भी कैसे अंधे है। ऐसे दयालू पुरुष कहते हैं कि ईसाई हो गया हैं कहनेवालों के मुँह से न मालूम कैसे ऐसी झूठी बात निकालती है। मुझसे वह कहते थे कि मैं शीघ्र ही एक ऐसा स्थान बनवानेवाला हूँ जहाँ अनाथ जहाँ अनाथ विधवाऍं आकर रहेंगी। वहाँ उनके पालन-पोषण और वस्त्र का प्रबन्ध किया जाएगा और उनके पढ़ना-लिखाना और पूजा-पाठ करना सिखाया जायगा। जिस आदमी के विचार ऐसे शुद्ध हों उसको वह लोग ईसाई और अधर्मी बनाते है, जो भूलकर भी भिखमंगे को भीख नहीं देते। ऐसा अंधेर है।

प्रेमा- बहिन, संसार का यही है। हाय अगर वह मुझे अपनी लौंडी बना लेते तो भी मेरा जीवन सफल हो जाता। ऐसे उदारचित्त दाता चेरी बनना भी कोई बड़ाई की बात है।

पूर्णा- तुम उनकी चेरी काहे को बनेगी। काहे को बनेगी। वह तो आप तुम्हारे सेवक बनने के लिए तैयार बैठे है। तुम्हारे लाला जी ही नहीं मानते। विश्वास मानो यदि तुमसे उनका ब्याह न हुआ तो कवारे ही रहेंगे।

प्रेमा- यहाँ यही ठान ली है कि चेरी बनूँगी तो उन्हीं की।

कुछ देरे तक तो यही बातें हुआ की। जब सूर्य अस्त होने लगा तो प्रेमा ने कहा-चलो सखी, तुमको बगीचे की सैर करा लावें। जब से तुम्हारा आना-जाना छूटा तब से मैं उधर भूलकर भी नहीं गयी।

पूर्णा- मेरे बाल खोल दो तो चलूँ। तुम्हारी भावज देखेगी तो ताना मारेगी।

प्रेमा- उनके ताने का क्या डर, वह तो हवा, से उलझा करती हैं। दोनों सखियां उठी औरहाथ दिये कोठे से उतार कर फुलवारी में आयी। यह एक छोटी-सी बगिया थी जिसमें भॉँति-भॉंति के फूल खिल रहे थे। प्रेमा को फूलों से बहुत प्रम था। उसी ने अपनी दिलबलावा के लिए बगीचा था। एक माली इसी की देख-भाल के लिए नौकर था। बाग़ के बीचो-बीच एक गोल चबूतरा बना हुआ था। दोनों सखियॉँ इस चबूतेरे पर बैठ गयी। इनको देखते ही माली बहुत-सी कलियॉँ एक साफ तरह कपड़े में लपेट कर लाया। प्रेमा ने उनको पूर्णा को देना चाहा। मगर उसने बहुत उदास होकर कहा-बहिन, मुझे क्षमा करो,इनकी बू बास तुमको मुबारक हो। सोहाग के साथ मैंने फूल भी त्याग दिये। हाय जिस दिन वह कालरुपी नदी में नहाने गये हैं उस दिन ऐसे ही कलियों का हार बनाया था। (रोकर) वह हार धरा का धरा का गया। तब से मैंने फूलों को हाथ नहीं लगाया। यह कहते-कहते वह यकयक चौंक पड़ी और बोली-सखी अब मैं जाउँगी। आज इतवार का दिन है। बाबू साहब आते होंगे।

प्रेमा ने रोनी हँसकर कहा-'नही' सखी, अभी उनके आने में आध घण्टे की देर है। मुझे इस समय का ऐसा ठीक परिचय मिल गया है कि अगर कोठरी में बन्द कर दो तो भी शायद गलती न करुँ। सखी कहते लाज आती है। मैं घण्टों बैठकर झरोखे से उनकी राह देखा करती हूँ। चंचल चित्त को बहुत समझती हूँ। पर मानता ही नहीं।

पूर्णा ने उसको ढारस दिया और अपनी सखी से गले मिल, शर्माती हुई घूंघट से चेहरे को छिपाये अपने घर की तरफ़ चली और प्रेमी किसी के दर्शन की अभिलाषा कर महताबी पर जाकर टहलने लगी।

पूर्णा के मकान पर पहुँचे ठीक आधी घड़ी हुई थी कि बाबू अमृतराय बाइसिकिल पर फर-फर करते आ पहुँचे। आज उन्होंने अंग्रेजी बाने की जगह बंगाली बाना धारण किया था, जो उन पर खूब सजता था। उनको देखकर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह राजकुमार नहीं हैं बाजारो में जब निकलाते तो सब की आँखे उन्हीं की तरफ उठती थीं। रीति के विरुद्ध आज उनकी दाहिनी कलाई पर एक बहुत ही सुगन्धित मनोहर बेल का हार लिपटा हुआ था, जिससे सुगन्ध उड़ रही थी और इस सुगन्ध से लेवेण्डर की खुशबू मिलकर मानों सोने में सोहागा हो गया था। संदली रेशमी के बेलदार कुरते पर धानी रंग की रेशमी चादर हवा के मन्द-मन्द झोंकों से लहरा-लहरा कर एक अनोखी छवि दिखाती थी। उनकी आहट पाते ही बिल्लो घर में से निकल आई और उनको ले जाकर कमरे में बैठा दिया।

अमृतराय- क्यों बिल्लो, सग कुशल है?

बिल्लो- हाँ, सरकार सब कुशल है।

अमृतराय- कोई तकलीफ़ तो नहीं है?

बिल्लो- नहीं, सरकार कोई तकलीफ़ नहीं है।

इतने में बैठके का भीतरवाला दरवाजा खुला और पूर्णा निकली। अमृतराय ने उसकी तरफ़ देखा तो अचम्भे में आ गये और उनकी निगाह आप ही आप उसके चेहरे पर जम गई। पूर्णा मारे लज्जा के गड़ी जाती थी कि आज क्यों यह मेरी ओर ऐसे ताक रहे हैं। वह भूल गयी थी कि आज मैंने बालों में तेल डाला है, कंघी की है और माथे पर लाल बिन्दी भी लगायी है। अमृतराय ने उसको इस बनाव-चुनाव के साथ कभी नहीं देखा था और न वह समझे थे कि वह ऐसी रुपवती होगी।

कुछ देर तक तो पूर्णा सर नीचा किये खड़ी रही। यकायक उसको अपने गुँथे केश की सुधि आ गयी और उसने झट लजाकर सर और भी निहुरा लिया, घूँघट को बढ़ाकर चेहरा छिपा लिया। और यह खयाल करके कि शायद बाबू साहब इस बनाव सिंगार से नाराज हों वह बहुत ही भोलेपन के साथ बोली-मैं क्या करु, मैं तो प्रेमा के घर गयी थी। उन्होंने हठ करके सर में मे तेल डालकर बाल गूँथ दिये। मैं कल सब बाल कटवा डालूँगी। यह कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू भर आये।

उसके बनाव सिंगार ने अमृतराय पर पहले ही जादू चलाया था। अब इस भोलेपन ने और लुभा लिया। जवाब दिया-नहीं-नहीं, तुम्हें कसम है, ऐसा हरगिज न करना। मैं बहुत खुश हूँ कि तुम्हारी सखी ने तुम्हारे ऊपर यह कृपा की। अगर वह यहाँ इस समय होती तो इसके निहोरे में मैं उनको धन्यवाद देता।

पूर्णा पढ़ी-लिखी औरत थी। इस इशारे को समझ गयी और झेपेर गर्दन नीचे कर ली। बाबू अमृतराय दिल में डर रहे थे कि कहीं इस छेड़ पर यह देवी रुष्ट न हो जाए। नहीं तो फिर मनाना कठिन हो जाएगा। मगर जब उसे मुसकराकर गर्दन नीची करते देखा तो और भी ढिठाई करने का साहस हुआ। बोले-मैं तो समझता था प्रेमा मुझे भूल होगी। मगर मालूम होता है कि अभी तक मुझ पर कुछ-कुछ स्नेह बाक़ी है।

अब की पूर्णा ने गर्दन उठायी और अमृतराय के चेहरे पर आँखें जमाकर बोली, जैसे कोई वकील किसी दुखीयारे के लिए न्याधीश से अपील करता हो-बाबू साहब, आपका केवल इतना समझना कि प्रेमा आपको भूल गयी होगी, उन पर बड़ा भारी आपेक्ष है। प्रेमा का प्रेम आपके निमित्त सच्चा है। आज उनकी दशा देखकर मैं अपनी विपत्ति भूल गयी। वह गल कर आधी हो गयी हैं। महीनों से खाना-पीना नामात्र है। सारे दिन आनी कोठरी में पड़े-पड़े रोय करती हैं। घरवाले लाख-लाख समझाते हैं मगर नहीं मानतीं। आज तो उन्होंने आपका नाम लेकर कहा-सखी अगर चेरी बनूँगी तो उन्हीं की।

यह समाचार सुनकर अमृतराय कुछ उदास हो गये। यह अग्नि जो कलेजे में सुलग रही थी और जिसको उन्होंने सामाजिक सुधार के राख तले दबा रक्खा था इस समय क्षण भर के लिए धधक उठी, जी बेचैन होने लगा, दिल उकसाने लगा कि मुंशी बदरीप्रसाद का घर दूर नहीं है। दम भर के लिए चलो। अभी सब काम हुआ जाता है। मगर फिर देशहित के उत्साह ने दिल को रोका। बोले-पूर्णा, तुम जानती हो कि मुझे प्रेमा से कितनी मुहब्बत थी। चार वर्ष तक मैं दिल में उनकी पूजा करता रहा। मगर मुंशी बदरप्रसाद ने मेरी दिनों की बँधी हुई आस केवल इस बात पर तोड़ दी कि मैं सामाजिक सुधार का पक्षपाती हो गया। आखिर मैंने भी रो-रोकर उस आग को बुझाया और अब तो दिल एक दूसरी ही देवी की उपासना करने लगा है। अगर यह आशा भी यों ही टूट गयी तो सत्य मानो, बिना ब्याह ही रहूँगा।

पूर्णा का अब तक यह ख़याल था कि बाबू अमृतराय प्रेमा से ब्याह करेंगे। मगर अब तो उसको मालूम हुआ कि उनका ब्याह कहीं और लग रहा है तब उसको कुछ आश्चर्य हुआ। दिल से बातें करने लगी। प्यारी प्रेमा, क्या तेरी प्रीति का ऐसा दुखदायी परिणाम होगा। तेरो माँ-बाप, भाई-बंद तेरी जान के ग्राह हो रहे हैं। यह बेचारा तो अभी तक तुझ पर जान देता हैं। चाहे वह अपने मुँह से कुछ भी न कहे, मगर मेरा दिल गवाही देता है कि तेरी मुहब्बत उसके रोम-रोम में व्याप रही है। मगर जब तेरे मिलने की कोई आशा ही न हो तो बेचारी क्या करे मजबूर होकर कहीं और ब्याह करेगा। इसमें सका क्या दोष है। मन में इस तरह विचार कर बोली-बाबू साहब, आपको अधिकार है जहाँ चाहो संबंध करो। मगर मैं मो यही कहूँगी कि अगर इस शहर में आपके जोड़ की कोई है तो वही प्रमा है।

अमृत०- यह क्यों नहीं कहतीं कि यहाँ उनके योग्य कोई वर नहीं, इसीलिए तो मुंशी बदरीप्रसाद ने मुझे छुटकार किया।

पूर्णा- यह आप कैसी बात कहते है। प्रेमा और आपका जोड़ ईश्वर ने अपने हाथ से बनाया है।

अमृत०- जब उनके योग्य मैं था। अब नहीं हूँ। पूर्णा-अच्छा आजकल किसके यहाँ बातचीत हो रही है?

अमृत०- (मुस्कराकर) नाम अभी नहीं बताऊँगा। बातचीत तो हो रही है। मगर अभी कोई पक्की उम्मेदे नहीं हैं।

पूर्णा- वाह ऐसा भी कहीं हो सकता है? यहाँ ऐसा कौन रईस है जो आपसे नाता करने में अपनी बड़ाई न समझता हो।

अमृत०- नहीं कुछ बात ही ऐसी आ पड़ी है।

पूर्णा- अगर मुझसे कोई काम हो सके तो मैं करने को तैयार हूँ। जो काम मेरे योग्य हो बता दीजिए।

अमृत- (मुस्कराकर)तुम्हारी मरजी बिना तो वह काम कभी पूरा हो ही नही सकता। तुम चाहो तो बहुत जल्द मेरा घर बस सकता है।

Jemsbond
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Re: प्रेमा (उपन्यास)

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 15:25



पूर्णा बहुत प्रसन्न हुई कि मैं भी अब इनके कुछ काम आ सकूँगी। उसकी समझ में इस वाक्य के अर्थ नहीं आये कि 'तुम्हारी मर्जी बिना तो वह काम पूरा हो ही नहीं सकता। उसने समझा कि शायद मुझसे यही कहेंगे कि जा के लड़की को देख आवे। छ: महीने के अन्दर ही अन्दर वह इसका अभिप्राय भली भॉँति समझ गयी समझ गयी।

बाबू अमृतराय कुछ देर तक यहाँ और बैठे। उनकी आँखें आज इधर-उधार से घूम कर आतीं और पूर्णा के चेहरे पर गड़ जाती। वह कनख्यि से उनकी ओर ताकती तो उन्हें अपनी तरफ़ ताकते पाती। आखिर वह उठे और चलते समय बोले-पूर्णा, यह गजरा आज तुम्हारे वास्ते लाया हूँ। देखो इसमें से कैसे सुगन्ध उड़ रही है।

पूर्णा भौयचक हो गयी। यह आज अनोखी बात कैसी एक मिनट तक तो वह इस सोच विचार में थी कि लूँ या न लूँ या न लूँ। उन गजरों का ध्यान आया जो उसने अपने पति के लिए होली के दिन बनये थे। फिर की कलियों का खयाल आया। उसने इरादा किया मैं न लूँगी। जबान ने कहा-मैं इसे लेकर क्या करूँगी, मगर हाथ आप ही आप बढ़ गया। बाबू साहब ने खुश होकर गजरा उसके हाथ में पिन्हाया, उसको खूब नजर भरकर देखा। फिर बाहर निकल आये और पैरगाड़ी पर सवार हो रवाना हो गये। पूर्णा कई मिनट तक सन्नाटे में खड़ी रही। वह सोचती थी कि मैंने तो गजरा लेने से इनकार किया था। फिर यह मेरे हाथ में कैसे आ गया। जी चाह कि फेंक दे। मगर फिर यह ख्याल पलट गया और उसने गज़रे को हाथ में पहिन लिया। हाय उस समय भी भोली-भाली पूर्णा के समझ में न आया कि इस जुमले का क्या मतलब है कि तुम चाहो तो बहुत जल्द मेरा घर बस सकता है।

उधर प्रेमा महताबी पर टहल रही थी। उसने बाबू साहब को आते देखा था।उनकी सज-धज उसकी आँखों में खुब गयी थी। उसने उन्हें कभी इस बनाव के साथ नहीं देखा था। वह सोच रही थी कि आज इनके हाथ में गजरा क्यों है । उसकी आँखें पूर्णा के घर की तरफ़ लगी हुई थीं। उसका जी झुँझलाता था कि वह आज इतनी देर क्यों लगा रहे है? एकाएक पैरगाड़ी दिखाई दी। उसने फिर बाबू साहब को देखा। चेहरा खिला हुआ था। कलाइयों पर नज़र पड़ी गयी, हँय वह गजरा क्या हो गया?

पूर्णा ने गजरा पहिन तो लिया। मगेर रात भर उसकी आँखों में नींद नहीं आयी। उसकी समझ में यह बात न आती थी। कि अमृतराय ने उसे गज़रा क्यों दिया। उसे ऐसा मालूम होता था कि पंडित बसंतकुमार उसकी तरफ बहुत क्रोध से देख रहे है। उसने चाहा कि गजरा उतार कर फेंक दूँ मगर नहीं मालूम क्यों उसके हाथ कॉंपने लगे। सारी रात उसने आँखों में काटी। प्रभात हुआ। अभी सूर्य भगवान ने,भी कृपा न की थी कि पंडाइन और चौबाइन और बाबू कमलाप्रसाद की बृद्ध महराजिन और पड़ोस की सेठानी जी कई दूसरी औरतों के साथ पूर्णा के मकान में आ उपस्थित हुई। उसने बड़े आदर से सबको बिठाया, सबके पैर छुएं उसके बाद यह पंचायत होने लगी।

पंडाइन (जो बुढ़ापे की बजह से सूखकर छोहारे की तरह हो गयी थी)-क्यों दुलहिन, पंडित जी को गंगालाभ हुए कितने दिन बीते?

पूर्णा- (डरते-डरते) पॉच महीने से कुछ अधिक हुआ होगा।

पंडाइन- और अभी से तुम सबके घर आने-जाने लगीं। क्या नाम कि कल तुम सरकार के घर चली गयी थीं। उनक क्वारी कन्या के पास दिन भर बैठी रहीं। भला सोचो ओ तुमने कोई अच्छा काम किया। क्या नाम कि तुम्हारा और उनका अब क्या साथ। जब वह तुम्हारी सखी थीं, तब थीं। अब तो तुम विधवा हो गयीं। तुमको कम से कम साल भर तक घर से बाहर पॉव न निकालना चाहिए। तुम्हारे लिए साल भर तक हॅसना-बोलना मना हैं हम यह नहीं कहते कि तुम दर्शन को न जाव या स्नान को न जाव। स्नान-पूजा तो तुम्हारा धर्म ही है। हॉ, किसी सोहागिन या किसी क्वारी कन्या पर तुमको अपनी छाया नही डालनी चाहिए।

पंडाइन चुप हुई तो महाराजिन टुइयॉ की तरह चहकने लगीं-क्या बतलाऊँ, बड़ी सरकार और दुलाहिन दोनों लहू का धूंट पीकर रह गई। ईश्वर जाने बड़ी सरकार तो बिलख-बिलख रो रही थीं कि एक तो बेचारी लड़की के यों हर जान के लाले पड़े है। दूसरी अब रॉँड बेवा के साथ उठना-बैठना है। नहीं मालूम नारायण क्या करनेवाले है। छोटी सर्कार मारे क्रोध के कॉप रही थी। ऑखों से ज्वाला निकल रही थी। बारे मैनें उनको समझाया कि आज जाने दीजिए वह बेचारी तो अभी बच्चा है। खोटे-खरे का मर्म क्या जाने। सरकार का बेटा जिये, जब बहुत समझाया तब जाके मानीं। नहीं तो कहती थीं मैं अभी जाकर खड़े-खड़े निकाल देती हूँ। सो बेटा, अब तुम सोहागिनो के साथ बैठने योग्य नहीं रहीं। अरे ईश्वर ने तो तुम पर विपत्ति डाल दी। जब अपना प्राणप्रिय ही न रहा तो अब कैसा हँसना-बोलना। अब तो तुम्हारा धर्म यही है कि चुपचाप अपने घर मे पड़ी रहो। जो कुछ रुखा-सूखा मिले खावो पियो। और सर्कार का बेटा जिये, जाँह तक हो सके, धर्म के काम करो।

महाराजिन के चुप होते ही चौबाइन गरजने लगीं। यह एक मोटी भदेसिल और अधेड़ औरत थी-भला इनसे पूछा कि अभी तुम्हारे दुलहे को उठे पॉँच महीने भी न बीते, अभी से तुम कंधी-चोटी करने लगीं। क्या कि तुम अब विधवा हो गई। तुमको अब सिंगार-पेटार से क्या सरोकार ठहरा। क्या नाम कि मैंने हजारों औरतों को देखा है जो पति के मरने के बाद गहना-पाता नहीं पहनती। हँसना-बोलना तक छोड़ देती है। यह न कि आज तो सुहाग उठा और कल सिंगार-पटार होने लगा। मैं लल्लो-पत्तों की बात नहीं जानती। कहूँगी सच। चाहे किसी को तीता लगे या मीठा। बाबू अमृतराय का रोज-रोज आना ठीक नहीं है। है कि नही, सेठानी जी?

सेठानी जी बहुत मोटी थीं और भारी-भारी गहनों से लदी थी। मांस के लोथडे हडिडरयों से अलग होकर नीचे लटक रहे थे। इसकी भी एक बहू रॉँड़ हो गयी थी जिसका जीवन इसने व्यर्थ कर रखा था। इसका स्वभाव था कि बात करते समय हाथों को मटकाया करती थी। महाराजिन की बात सुनकर-'जो सच बात होगी सब कोई कहेगा। इसमें किसी का क्या डर। भला किसी ने कभी रॉँड़ बेवा को भी माथे पर बिंदी देते देखा है। जब सोहाग उठ गया तो फिर सिंदूर कैसा। मेरी भी तो एक बहू विधवा है। मगर आज तक कभी मैंने उसको लाल साड़ी नहीं पहिनने दी। न जाने इन छोकरियों का जी कैसा है कि विधवा हो जाने पर भी सिंगार पर जी ललचाया करता है। अरे इनको चाहिए कि बाबा अब रॉँड हो गई। हमको निगोड़े सिंगार से क्या लेना।

महाराजिन- सरकार का बेटा जिये तुम बहुत ठीक कहती हो सेठानी जी। कल छोटी सरकार ने जो इनको माँग में सेंदूर लगाये देखा तो खड़ी ठक रह गयी। दाँतों तले उंगली दबायी कि अभी तीन दिन की विधवा और यह सिंगार। सो बेटा, अब तुमको समझ-बूझकर काम करना चाहिए। तुम अब बच्चा नहीं हो।

सेठानी- और क्या, चाहे बच्चा हो या बूढ़ी। जब बेराह चलेगी तो सब ही कहेंगे। चुप क्यों हो पंडाइन, इनके लिए अब कोई राह-बाट निकाल दो।

डाइन- जब यह अपने मन की होगयीं तो कोई क्या राह-बाट निकाले। इनको चाहिए कि ये अपने लंबेलंबे केश कटवा डाले। क्या नाम कि दूसरों के घर आना-जाना छोड़ दे। कंधी-चोटी कभी न करें पान न खाये। रंगीन साड़ी न पहनें और जैसे संसार की विधवायें रहती है वैसे रहें।

चौबाइन- और बाबू अमृतराय से कह दें कि यहाँ न आया करें। इस पर एक औरत ने जो गहने कपड़े से बहुत मालदार न जान पड़ती थी, कहा-चौबाइन यह सब तो तुम कह गयी मगर जो कहीं बाबू अमृतराय चिढ़ गये तो क्या तुम इस बेचारी का रोटी-कपड़ा चला दोगी? कोई विधवा हो गयी तो क्या अब अपना मुँह सी लें।

महराजिन- (हाथ चमकाकर) यह कौन बोला? ठसों। क्या ममता फड़कने लगी?

सेठानी- (हाथ मटकाकर) तुझे किसने बुलाया जो आ के बीच में बोल उठी। रॉँड़ तो हो गयी हो, काहे नहीं जा के बाजर में बैठती हो।

चौबाइन- जाने भी दो सेठानी जी, इस बौरी के मुँह क्या लगती हो।

सेठानी- (कड़ककर) इस मुई को यहाँ किसने बुलाया। यह तो चाहती है जैसी मैं बेहयास हूँ वैसा हीसंसार हो जाय।

महराजिन- हम तो सीख दे रही थीं तो इसे क्यों बुरा लगा? यह कौन होती है बीच में बोलनेवाली?

चौबाइन- बहिन, उस कुटनी से नाहक बोलती हो। उसको तो अब कुटनापा करना है।

इस भांति कटूक्तियों द्वारा सीख देकर यह सब स्त्रियाँ यहा से पधारी। महराजिन भी मुंशी बदरीप्रदान के यहाँ खाना पकाने गयीं। इनसे और छोटी सर्कार से बहुत बनती थी। वह इन पर बहुत विश्वास रखती थी। महराजिन ने जाते ही सारी कथा खूब नमक-मिर्च लगाकर बयान की और छोटी सरकार ने भी इस बात को गॉँठ बॉँध लिया और प्रेमा को जलाने और सुलगाने के लिए उसे उत्तम समझकर उसके कमरे की तरफ चली।

यों तो प्रेमा प्रतिदिन सारी रात जगा करती थी। मगर कभी-कभी घंटे आध घंटे के लिए नींद आ जाती थी। नींद क्या आ जाती थी, एक ऊंघ सी आ जाती थी, मगर जब से उसने बाबू अमृतराय को बंगालियों के भेस में देखा था और पूणा के घर से लौटते वक्त उसको उनकी कलाई परगजरा न नजर आया था तब से उसके पेट में खलबली पड़ी हुई थी कि कब पूर्णा आवे और कब सारा हाल मालूम हो। रात को बेचैनी के मारे उठ-उठ घड़ी पर आँखे दौड़ाती कि कब भोर हो। इस वक्त जो भावज के पैरां की चाल सुनी तो यह समझकर कि पूर्णा आ रही है, लपकी हुई दरवाजे तक आयी। मगर ज्योंही भावज को देखा ठिठक गई और बोली-कैसे चलीं, भाभी?

भाभी तो यह चाहती ही थीं कि छेड़-छाड़ के लिए कोई मौका मिले। यह प्रश्न सुनते ही तिनक का बोली-क्या बताऊ कैसे चली? अब से जब तुम्हारे पास आया करूँगी तो इस सवाल का जवाब सोचकर आया करूँगी। तुम्हारी तरह सबका लोहू थोड़े ही सफेद हो गया है कि चाहे किसी की जान निकल, जाय, घी का घड़ा ढलक जाए, मगर अपने कमरे से पॉँव बाहर न निकाले।

प्रेमा ने वह सवाल यों ही पूछ लिया था। उसके जब यह अर्थ लगाये गये तो उसको बहुत बुरा मालूम हुआ। बोली-भाभी, तुम्हारे तो नाक पर गुस्सा रहता है। तुम जरा-सी बात का बतगंढ बना देती हो। भला मैंने कौन सी बात बुरा मानने की कही थी?

भाभी- कुछ नहीं, तुम तो जो कुछ कहती हो मानो मुँह से फूल झाड़ती हो। तुम्हारे मुँह में मिसरी घोली हुई न। और सबके तो नाक पर गुससा रहता है, सबसे लड़ा ही करते है।

प्रेमा- (झल्लाकर) भावज, इस समय मेरा तो चित्त बिगड़ा हुआ है। ईश्वर के लिए मुझसे मत उलझो। मै तो यों ही अपनी जान को रो रही हूं। उस पर से तुम और भी नमक छिड़कने आयीं।

भाभी- (मटककर) हां रानी, मेरा तो चित्त बिड़ा हुआ है, सर फिरा हुआ है। जरा सीधी-सादी हूँ न। मुझको देखकर भागा करो। मै। कटही कुतिया हूं, सबको काटती चलती हूं। मैं भी यारों को चुपके-चुपके चिटठी-पत्री लिखा करती, तसवीरें बदला करती तो मैं भी सीता कहलाती और मुझ पर भी घर भर जान देने लगता। मगर मान न मान मैं तेरा मेहमान। तुम लाख जतन करों, लाख चिटिठयॉँ लिखो मगर वह सोने की चिड़िया हाथ आनेवाली नहीं। यह जली-कटी सुनकर प्रेमा से जब्त न हो सका। बेचारी सीधे स्वभाव की औरत थी। उसका वर्षो से विरह की बग्नि में जलते-जलते कलेजा और भी पक गया था। वह रोने लगी।

भावज ने जब उसको रोते देखा तो मारे हर्ष के आँखे जगमगा गयीं। हत्तेरे की। कैसा रूला दिया। बोली-बिलखने क्या लगीं, क्या अम्मा को सुनाकर देशनिकाला करा दोगी? कुछ झूठ थोड़ी ही कहती हूँ। वही अमृतराय जिनके पास आप चुपके-चुपके प्रेम-पत्र भेजा करती थी अब दिन-दहाड़े उस रॉँड़ पूर्णा के घर आता है और घंटो वहीं बैठा रहता है। सुनती हूँ फूल के गजरे ला लाकर पहनाता है। शायद दो एक गहने भी दिये है।

प्रेमा इससे ज्यादा न सुन सकी। गिड़गि कर बोली-भाभी, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं मुझ पर दया करो। मुझे जो चाहो कह लो। (रोकर) बड़ी हो, जी चाहे मार लो। मगर किसी का नाम लेकर और उस पर छ़ठे रखाकर मेरे कदल को मत जलाओ। आखिर किसी के सर पर झूठ-मूठ अपराध क्यों लगाती हो।

प्रेमा ने तो यह बात बड़ी दीनता से कही। मगर छोटी सरकार 'छुद्दे रखकर' पर बिगड़ गयीं। चमक कर बोलीं-हाँ, हाँ रानी, मैं दूसरों पर छुद्दे रखकर तुमको जलाने आती हूंन। मैं तो झूठ का व्यवहार करती हूँ। मुझे तुम्हारे सामने झूठ बोनले से मिठाई मिलती होगी। आज मुहल्ले भर में घर घर यही चर्चा हो रही है। तुम तो पढ़ी लिखी हो, भला तुम्हीं सोचो एक तीस वर्ष के संडे मर्दवे का पूर्णा से क्या काम? माना कि वह उसका रोटी-कपड़ा चलाते है मगर यह तो दुनिया है। जब एक पर आ पड़ती है तो दूसरा उसके आड़ आता है। भले मनुष्यों का यह ढंग नहीं है कि दूसरें को बहकाया करें, और उस छोकरी को क्या को ई बहकायेगा वह तो आप मर्दो पर डोरे डाला करती है। मैंने तो जिस दिन उसकी सूरत देखी रथी उसी दिन ताड़ गयी थी कि यह एक ही विष की गांठ हैं। अभी तीन दिन भी दूल्हे को मरे हुए नहीं बीते कि सबको झमकड़ा दिखाने लगी। दूल्हा क्या मरा मानो एक बला दूर हुई। कल जब वह यहाँ आई थी तो मै बाल बुंधा रही थी। नहीं तो डेउढ़ी के भीतर तो पैर धरने ही नहीं देती। चुड़ैल कहीं की, यहाँ आकर तुम्हारी सहेली बनती है। इसी से अमृतराय को अपना यौवन दिखाकर अपना लिया। कल कैसा लचक-लचक कर ठुमुक-ठुमुक् चलती थी। देख-देख कर आँखे फूटती थीं। खबरदार, जो अब कभी, तुमने उस चुडैल को अपने यहाँ बिठाया। मै उसकी सूरत नहीं देखना चाहती। जबान वह बला है कि झूठ बात का भी विश्वास दिला देती है। छोटी सरकार ने जो कुछ कहा वह तो सब सच था। भला उसका असर क्यों न होता। अगर उसने गजरा लिये हुए जाते न देखा होता तो भावज की बातों को अवश्य बनावट समझती। फिर भी वह ऐसी ओछी नहीं थी कि उसी वक्त अमृतराय और पूर्णा को कोसने लगती और यह समझ लेती कि उन दोनों में कुछ सॉँठ-गॉँठ है। हाँ, वह अपनी चारपाइ पर जाकर लेट गयी और मुँह लपेट कर कुछ सोचने लगी।

प्रेमा को तो पंलंग पर लेटकर भावज की बातों को तौलने दीजिए और हम मर्दाने में चले। यह एक बहुत सजा हुआ लंबा चौड़ा दीवानखाना है। जमीन पर मिर्जापुर खुबसूरत कालीनें बिछी हुई है। भॉँति-भॉँति की गद्देदार कुर्सियॉँ लगी हुई है। दीवारें उत्तम चित्रों से भूक्षित है। पंखा झला जा रहा है। मुंशी बदरीप्रसाद एक आरामकुर्सी पर बैठे ऐनक लगाये एक अखबार पढ़ रहे है। उनके दायें-बायें की कुर्सियों पर कोई और महाशय रईस बैठे हुए है। वह सामने की तरफ मुंशी गुलजारीलाल हैं और उनके बगल में बाबू दाननाथ है। दाहिनी तरफ बाबू कमलाप्रसाद मुंशी झंम्मनलाल से कुछ कानाफूसी कर रहे है। बायीं और दो तीन और आदमी है जिनको हम नहीं पहचानते। कई मिनट तक मुँशी बदरीप्रसाद अखबार पढ़ते रहे। आखिर सर उठाया और सभा की तरफ देखकर बड़ी गंभीरता से बोले-बाबू अमुतराय के लेख अब बड़े ही निंदनीय होते जाते है।

गुलजारीलाल- क्या आज फिर कुछ जहर उगला?

बदरीप्रसाद- कुछ न पूछिए, आज तो उन्होंने खुली-खुली गालियॉँ दी है। हमसे तो अब यह बर्दाश्त नहीं होता।

गुलजारी- आखिर कोइ कहाँ तक बर्दाश्त करे। मैने तो इस अखबार का पढ़ना तक छोड दिया।

झम्मनलाल- गोया अपने अपनी समझ में बड़ा भारी काम किया। अजी आपकाधर्म यह है कि उन लेखों को काटिए, उनका उत्तर दीजिए। मै आजकल एक कवित्त रच रहा हूँ, उसमे मैंने इनकों ऐसा बनाया है कि यह भी क्या याद करेंगे।

कमलाप्रसाद- बाबू अमृतराय ऐसे अधजीवे आदमी नहीं है कि आपके कवित, चौपाई से डर जाऍं। वह जिस काम में लिपटते है सारे जी से लिपटते है।

झम्मन०- हम भी सारे जी से उनके पीछे पड़ जाऍंगे। फिर देखे वह कैसे शहर मे मुँह दिखाते है। कहो तो चुटकी बजाते उनको सारे शहर में बदनाम कर दूँ।

कमला०- (जोर देकर) यह कौन-सी बहादुरी है। अगर आप लोग उनसे विरोध मोल लिया चाहते है। तो सोच-समझ कर लीजिए। उनके लेखों को पढिए, उनको मन में विचारिए, उनका जवाब लिखिए, उनकी तरह देहातो मे जा-जाकर व्याख्यान दीजिए तब जा के काम चलेगा। कई दिन हुए मै अपने इलाके पर से आ रहा था कि एक गॉँव में मैने दस-बारह हजार आदमियों की भीड़ देखी। मैंने समझा पैठ है। मगर जब एक आदमी से पूछा तो मालूम हुआ। कि बाबू अमृतराय का व्याख्यान था। और यह काम अकेले वही नहीं करते, कालिज के कई होनहार लड़के उनके सहायक हो गये है और यह तो आप लोग सभी जानते हैं कि इधर कई महीने से उनकी वकालत अंधाधुंध बढ़ रही है।

गुलजारीलाल- आप तो सलाह इस तरह देते है गोया आप खुद कुछ न करेंगे।

कमलाप्रसाद- न, मैं इस काम में। आपका शरीक नहीं हो सकता। मुझे अमृतराय के सब सिद्वांतो से मेल है, सिवाय विधवा-विवाह के।

बदरीप्रसाद- (डपटकर) बच्च, कभी तुमको समझ न आयेगी। ऐसी बातें मुहँ से मत निकाला करों।

झमनलाल- (कमलाप्रसाद से) क्या आप विलायत जाने के लिए तैयार है?

कमलाप्रसाद- मैं इसमे कोई हानि नहीं समझता।

गुलाजरीलाल- (हंसकर) यह नये बिगडे हैं। इनको अभी अस्पताल की हवा खिलाइए।

बदरीप्रसाद- (झल्लाकर) बच्चा, तुम मेरे सामने से हट जाओ। मुझे रोज होता है।

कमलाप्रसाद को भी गुस्सा आ गया। वह उठकर जाने लगे कि दो-तीन आदमियों ने मनाया और फिर कुर्सी पर लाकर बिठा दिया। इसी बीच में मिस्टर शर्मा की सवारी आयी। आप वही उत्साही पुरूष हैं जिन्होंने अमृतराय को पक्की सहायता का वादा किया था। इनको देखते ही लोगो ने बड़े आदर से कुर्सी पर बिठा दिया। मिटर शर्मा उस शहर में म्यूनिसिपैलिटी के सेक्रेटरी थे।

गुलाजारीलाल- कहिए पंडित जी क्या खबर है?

मिस्टर शर्मा- (मूँछो पर हाथ फेरकर) वह ताजा खबर लाया हूँ कि आप लोग सुनकर फड़क जायँगे। बाबू अमृतराय ने दरिया के किनारे वाली हरी भरी जमीन के लिए दरखास्त है। सुनता हूँ वहाँ एक अनाथालय बनवायेगे।

बदरीप्रसाद- ऐसा कदापि नहीं हो सकता। कमलाप्रसाद। तुम आज उसी जमीन के लिए हमारी तरफ से कमेटी में दरखास्त पेश कर दो। हम वहाँ ठाकुरद्वारा और धर्मशाला बनावायेंगे।

मिस्टर शर्मा- आज अमृतराय साहब के बँगले पर गये थे। वहाँ बहुत देर तक बातचीत होती रही। साहब ने मेरे सामने मुसकराकर कहा-अमृतराय, मैं देखूँगा कि जमीन तुमको मिले।

गुलजारीलाल ने सर हिलाकर कहा-अमृतराय बड़े चाल के आदमी है। मालूम होता है, साहब को पहले ही से उन्होंने अपने ढंग पर लगा लिया है।

मिस्टर शर्मा- जनाब, आपको मालूम नहीं अंग्रेजों से उनका कितना मेलजोल है। हमको अंग्रेज मेम्बरों से कोई आशा नहीं रखना चाहिए। वह सब के सब अमृतराय का पक्ष करेंगे।

बदरीप्रसाद- (जोर देकर) जहाँ तक मेरा बस चलेगा मै यह जमीन अमृतराय को न लेने दूँगा। क्या डर है, अगर और ईसाई मेम्बर उनके तरफदार है। यह लोग पॉँच से अधिक नहीं। बाकी बाईस मेबर अपने हैं। क्या हमको उनकी वोट भी न मिलेगी? यह भी न होगा तो मै उस जमीन को दाम देकर लेने पर तैयार हूँ।

झम्मनलाल- जनाब, मुझको पक्का विश्वास है कि हमको आधे से जियादा वोट अवश्य मिल जायँगे।

× × ×

एक बहुत ही उत्तम रीति से सजा हुआ कमरा है। उसमें मिस्टर वालटर साहब बाबू अमृतराय के साथ बैठे हुए कुछ बातें कर रहे है। वालटर साहब यहाँ के कमिश्नर है और साधारण अंग्रेजों के अतिरिक्त प्रजा के बड़े हितैषी और बड़े उत्साही प्रजापालक है। आपका स्वभाव ऐसा निर्मल है कि छोटा-बड़ा कोई हो, सबसे हँसकर क्षेम-कुशल पूछते और बात करते है। वह प्रजा की अवस्था को उन्नत दशा में ले जाने का उद्योग किया करते है और यह उनका नियम है कि किसी हिन्दुस्तानी से अंग्रेजी में नहीं बोलेगे। अभी पिछली साल जब प्लेग का डंका चारों ओर घेनघोर बज रहा था, वालटर साहब, गरीब किसानों के घर जाकर उनका हाल-चाल देखते थे और अपने पास से उनको कंबल बॉँटते फिरते थे। और अकाल के दिनों मेंतो वह सदा प्रजा की ओर से सरकार के दरबार में वादानुवाद करने के लिए तत्पर रहते है। साहब अमृतराय की सच्ची देशभक्ति की बड़ी बड़ाई किया करते है और बहुधा प्रजा की रक्षा करने में दोनों आदमी एक-दूसरे की सहायता किया करते है।

वालटर- (मुसकराकर) बाबू साहब। आप बड़ा चालाक है आप चाहता है कि मुंशी बदरी प्रसाद से थैली-भर, रूपया ले। मगर आपका बात वह नहीं मानने सकता।

अमृतराय- मैंने तो आपसे कह दिया कि मै अनाथालय अवश्य बनवाउँगा और इस काम में बीस हजार से कम न लगेगा। अगर आप मेरी सहायता करेंगे तो आशा है कि यह काम भी सफल हो जाए और मै भी बना रहूँ। और अगर आप कतरा गये तो ईश्वर की कृपा से मेरे पास अभी इतनी जायदाद है कि अकेले दो अनाथालय बनवा सकता हूँ। मगर हाँ, तब मैं और कामों में कुछ भी उत्साह न दिखा सकूँगा।

वालटर- (हंसकर) बाबू साहब। आप तो जरा से बात में नाराज हो गया। हम तो बोलता है कि हम तुम्हारा मदद दो हजार से कर सकता है। मगर बदरीप्रसाद से हम कुछ नहीं कहने सकता। उसने अभी अकाल में सरकार को पॉँच हजार दिया है।

अमृतराय- तो यह दो हजार में लेकर क्या करूँगा? मुझे तो आपसे पंद्रह हजार की पूरी आशा थी। मुंशी बदरीप्रसाद के लिए पॉँच हजार क्या बड़ी बात है? तब से इसका दुगना तो वह एक मंदिर बनवाने में लगा चुके है। और केवल इस आशा पर कि उनको सी आई.ई की पदवी मिल जाएगी, वह इसका दस गुना आज दे सकते है।

वालटर- (अमृतराय से हाथ मिलाकर) वेल, अमृतराय। तुम बड़ा चालाक है। तुम बड़ा चालाक है तुम मुंशी बदरीप्रसाद को लूटना माँगता है।

यह कहकर साहब उठ खड़े हुए। अमृतराय भी उठे। बाहर फिटन खड़ी थी दोनों उस पर बैठ गये। साईस ने घोड़े को चाबुक लगाया और देखते देखते मुंशी बदरीप्रसाद के मकान पर जा पहूंचे। ठीक उसी वक्त जब वहाँ अमृतराय से रार बढ़ाने की बातें सोची जा रही थीं।

प्यारे पाठकगण। हम यह वर्णन करके कि इन दोनों आदमियों के पहुँचते ही वहाँ कैसी खलबली पड़ गयी, मुंशी बदरीप्रसाद ने इनका कैसा आदर किया, गुलजारीलाल, दाननाथ और मिस्टर शर्मा कैसी आँखे चुराने लगे, या साहब ने कैसे काट-छांट की बाते की और मुंशी जी को सी.आई.ई की पदवी की किन शब्दों में आशा दिलाइ आपका समय नहीं गँवाया चाहते। खुलासा यह कि अमॄतराय को यहाँ से सत्तरह हजार रूपया मिला। मुंशी बदरीप्रसाद ने अकेले बारह हजार दिया जो उनकी उम्मीद से बहुत ज्यादा था। वह जब यहाँ से चले तो ऐसा मालूम होता था कि मानों कोई गढ़ी जीते चले आ रहे है। वह जमीन भी जिसके लिए उन्होने कमेटी मे दरखस्त की थी मिल गयी और आज ही इंजीनियर ने उसको नाप कर अनाथालय का नकशा बनाना आरंभ कर दिया।

साहब और अमृतराय के चले जाने पर यहाँ यो बाते होने लगी।

झम्मनलाल- यार, हमको तो इस लौंडे ने आज पांच सौ के रूप में डाल दिया।

गुलजारी लाल-जनाब, आप पॉँच सौ को रो रही है यहाँ तो एक हजार पर पानी फिर गया। मुंशी जी तो सी.आई.ई की पदवी पावेगें।यहाँ तो कोई रायबहादुरी को भी नहीं पूछता।

कमलाप्रसाद- बडे शोक की बात है कि आप लोग ऐसे शुभ कार्य मे सहायता देकर पछताते है। अमृतराय को देखिए कि उन्होंने अपना एक गॉँव बेचकर दस हजार रूपया भी दिया और उस पर दौड़-धूप अलग कर रहे है।

मुंशी बदरीप्रसाद-अमृतराय बड़ा उत्साही आदमी है। मैने आज इसको जाना। बच्चा कमलाप्रसाद। तुम आज शाम को उनके यहाँ जाकर हमारी ओर से धन्यवाद दे देना।

झम्मनलाल- (मुंह फेरकर) आप क्यों न प्रसन्न होंगे, आपको तो पदवी मिलेगी न?

कमलाप्रसाद- (हंसकर) अगर आपका वह कवित्त तैयार हो तो जरा सुनाइए।

दाननाथ जो अब तक चुपचाप बैठे हुए थे बोले-अब आप उनकी निंदा करने की जगह उनकी प्रंशसा कीजिए।

मिस्टर शर्मा- अच्छा, जो हुआ सो हुआ, अब सभा विसर्जन कीजिए, आज यह मालूम हो गया कि अमृतराय अकेले हम सब पर भारी है।

कमलाप्रसाद- आपने नहीं सुन, सत्य की सदा जय होती है।

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