प्रेमा (उपन्यास)

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Jemsbond
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Re: प्रेमा (उपन्यास)

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 15:28

यह आँखों देखी बात है कि बहुत करके झुठी और बे-सिर पैर की बातें आप ही आप फैल जाया करती है। तो भला जिस बात में सच्चाई नाममात्र भी मिली हो उसको फैलते कितनी देर लगती है। चारों ओर यही चर्चा थी कि अमृतराय उस विधवा ब्राह्मणी के घर बहुत आया जाया करता है। सारे शहर के लोग कसम खाने पर उद्यत थे कि इन दोनों में कुछ सॉँठ-गॉँठ जरुर है। कुछ दिनों से पंडाइन औरचौबाइन आदि ने भी पूर्णा के बनाव-चुनाव पर नाक-भौं चढ़ाना छोड़ दिया था। क्योंकि उनके विचार में अब वह ऐसे बन्धनों की भागी थी। जो लोग विद्वान थे और हिन्दुस्तान के दूसरे देशों के हाल जानते थे उनको इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं यह दोनों नियोग न करे लें। हज़ारों आदमी इस घात मे थे कि अगर कभी रात को अमृतराय पूर्णा की ओर जाते पकड़े जायँ तो फिर लौट कर घर न जाने पावें। अगर कोई अभी तक अमृतराय की नीयत की सफाई पर विश्वास रखता था तो वह प्रेमा थी। वह बेचारी विराहग्नि में जलते-जलते कॉँटा हो गई थी, मगर अभी तक उनकी मुहब्बत उसके दिल में वैसी ही बनी हुई थी। उसके दिल में कोई बैठा हुआ कह रहा था कि तेरा विवाह उनसे अवश्य होगौ। इसी आशा पर उसके जीवन का आधार था। वह उन लोगों में थी जो एक ही बार दिल का सौदा चुकाते है।

आज पूर्णा से वचन लेकर बाबू साहब बँगले पर पहुँचने भी न पाये थे कि यह ख़बर एक कान से दूसरे कान फैलने लगी और शाम होते-होते सारे शहर में यही बात गूँजने लगी। जो कोई सुनता उसे पहले तो विश्वास न आता। क्या इतने मान-मर्यादा के ईसाई हो गये हैं, बस उसकी शंका मिट जाती। वह उनको गालियॉँ देता, कोसता। रात तो किसी तरह कटी। सवेरा होते ही मुंशी बदरीप्रसाद के मकान पर सारे नगर के पंडित, विद्वान ध्नाढ़य और प्रतिष्ठित लोग एकत्र हुए और इसका विचार होने लगा कि यह शादी कैसे रोकी जाय।

पंडित भृगुदत्त-विधवा विवाह वर्जित हैं कोई हमसे शास्त्रर्थ कर ले। वेदपुराण में कहीं ऐसा अधिकार कोई दिखा दे तो हम आज पंडिताई करना छोड़ दें।

इस पर बहुत से आदमी चिल्लाये, हाँ, हाँ, जरुर शास्त्रार्थ हो।

शास्त्रर्थ का नाम सुनते ही इधर-उधर से सैकड़ों पंडित विद्यार्थी बग़लों में पोथियां दबाये, सिर घुटाये, अँगोछा कँधे पर रक्खे, मुँह में तमाकू भरे, इकट्टे हो गये और झक-झक होने लगी कि ज़रुर शास्त्रर्थ हो। पहले यह श्लोक पूछा जाय। उसका यह उत्तर दें तो फिर यह प्रश्न किया जावे। अगर उत्तर देने में वह लोग साहित्य या व्याकरण में ज़रा भी चूके तो जीत हमारे हाथ हो जाय। सैंकड़ों कठमुल्ले गँवार भी इसी मण्डली में मिलकर कोलाहल मचा रहे थे। मुँशी बदरीप्रसाद ने जब इनको शास्त्रर्थ करने पर उतारु देखा तो बोले-किस से करोगे शास्त्रार्थ? मान लो वह शास्त्रार्थ न करें तब?

सेठ धूनीमल-बिना शास्त्रार्थ किये विवाह कर लेगें (धोती सम्हाल कर) थाने में रपट कर दूँगा।

ठंकुर जोरावर सिंह-(मोछों पर ताव देकर) कोई ठट्ठा है ब्याह करना, सिर काट डालूँगा। लोहू की नदी बह जायगी।

राव साहब-बारता की बारात काट डाली जायगी।

इतने में सैकड़ों आदमी और आ डटे। और आग में ईधन लगाने लगे।

एक-ज़रुर से ज़रुर सिर गंजा कर दिया जाए।

दूसरा-घर में आग लगा देंगे। सब बारात जल-भुन जायगी।

तीसरा-पहले उस यात्री का गला घोंट देंगे।

इधर तो यह हरबोंग मचा हुआ था, उधर दीवानखाने में बहुत से वकील और मुखतार रमझल्ला मचा रहे थे। इस विवाह को न्याय विरुद्ध साबित करने के लिए बड़ा उद्योग किया जा रहा था। बड़ी तेज़ी से मोटी-मोटी पुस्तकों के वरक उलटे जा रहे थे। बरसों की पुरानी-धुरानी नज़ीरे पढ़ी जा रही थी कि कहीं से कोई दाँव-पकड़ निकल आवे। मगर कई घण्टे तक सर ख़पाने पर कुछ न हो सका। आखिर यह सम्मति हुई कि पहले ठाकुर ज़ोरावर सिंह अमृतराय का धमकावें। अगर इस पर भी वह न मानें तो जिस दिन बारात निकले सड़क पर मारपीट की जाय। इस प्रस्ताव के बाद न मानों तो विसर्जन हुई। बाबू अमृतराय बयाह की तैयारियों में लगे हुए थे कि ठाकुर ज़ोरावर सिंह का पत्र पहुँचा। उसमें लिखा था-

'बाबू अमृतराय को ठाकुर ज़ोरावर सिंह का सलाम-बंदगी बहुत-बहुत तरह से पहुँचे। आगे हमने सुना है कि आप किसी विधवा ब्राह्मणी से विवाह करने वाले है। हम आपसे कहे देते हैं कि भूल कर भी ऐसा न कीजिएगा। नहीं तो आप जाने और आपका काम।'

ज़ोरावर सिंह एक धनाढ़य और प्रतिष्ठित आदमी होने के उपरान्त उस शहर के लठैंतों और बॉँके आदमियों का सरदार था और कई बेर बड़े-बड़ों को नीचा दिखा चुका था। असकी धमकी ऐसी न थी कि अमृतराय पर उसका कुछ असर न पड़ता। चिट्ठी को देखते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया। सोचना लगे कि ऐसी कौन-सी चाल चलूँ कि इसको अपना आदमी बना लूँ कि इतने में दूसरी चिट्ठी पहुँची। यह गुमनाम थी और सका आशा भी पहली चिट्ठी से मिलता था। इसके बाद शाम होते-होते सैंकड़ो गुमनाम चिट्टियॉँ आयीं। कोई की कहता था कि अगर फिर ब्याह का नाम लिया तो घर में आग लगा देंगे। कोई सर काटने की धमकी देता था। कोई पेट में छुरी भोंकने के लिए तैयार था। ओर कोई मूँछ के बात उखाड़ने के लिए चुटकियॉँ गर्म कर रहा था। अमृतराय यह तो जानते कि शहरवाले विरोध अवश्य करेंगे मगर उनको इस तरह की राड़ का गुमान भी न था। इन धमकियों ने ज़रा देर के लिए उन्हें भय में डाल दिया। अपने से अधिक खटका उनको पूर्णा के बारे में था कि कहीं यही सब दुष्ट उसे न कोई हानि पहुँचावें। उसी दम कपड़े पहिन, पैरगाड़ी पर सवांर होकर चटपट मजिस्ट्रेट की सेवा में उपस्थित हुए और उनसे पूरा-पूरा वृत्तान्त कहा। बाबू साहब का अंग्रेंजों में बहुत मान था। इसलिए नहीं कि वह खुशामदी थे या अफसरों की पूजा किया करते थे किन्तु इसलिए कि वह अपनी मर्यादा रखना आप जानते थे। साहब ने उनका बड़ा आदर किया। उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनी। सामाजिक सुधार की आवश्कता को माना और पुलिस के सुपरिण्टेण्डेट को लिखा कि आप अमृतराय की रक्षा के वास्ते एक गारद रवाना कीजिए और ख़बर लेते रहिए कि मारपीट, खूनखराब न हो जाय। सॉँझ होते-होते तीस सिपाहियों का एक गारद बाबू साहब के मकान पर पहुँच गया, जिनमें से पॉँच बलवान आदमी पूर्णा के मकान की हिफ़ाजत करने के लिए भेज गये।

शहरवालों ने जब देखा कि बाबू साहब ऐसा प्रबन्ध कर रहे है तो और भी झल्लाये। मुंशी बदरीप्रसाद अपने सहायकों को लेकर मजिस्ट्रेट के पास पहुँचे और दुहाई मचाई कि अगर वह विवाह रोक न दिया गया तो शहर में बड़ा उपद्रव होगा और बलवा हो जाने का डर हैं। मगर साहब समझ गये कि यह लोग मिलजुल कर अमृतराय को हानि पहुँचाया चाहते हैं। मुंशी जी से कहा कि सर्कार किसी आदमी की शादी-विवाह में विघ्न डालना नियम के विरुद्ध है। जब तक कि उस काम से किसी दूसरे मनुष्य को कोई दुख न हो। यह टका-सा जवाब पाकर मुंशी जी बहुत लज्जित हुए। वहाँ से जल-भुनकर मकान पर आये और अपने सहायकों के साथ बैठकर फैसला किया कि ज्यों ही बारात निकले, उसी दम पचास आदमी उस पर टूट पड़ें। पुलिसवालों की भी खबर लें और अमृतराय की भी हड्डी-पसली तोड़कर धर दें।

बाबू अमृतराय के लिए यह समय बहुत नाजु क था। मगर वह देश का हितैषी तन-मन-धन से इस सुधार के काम में लगा हुआ था। विवाह का दिन आज से एक सप्ताह पीछे नियत किया गया। क्योंकि ज्यादा विलम्ब करना उचित न था और यह सात दिन बाबू साहब ने ऐसी हैरानी में काटे कि जिसक वर्णन नहीं किया जासकात। प्रतिदिन वह दो कांस्टेबिलों के साथ पिस्तौलों की जोड़ी लगयो दो बेर पूर्णा के मकान पर आते। वह बेचारी मारे डर के मरी जाती थी। वह अपने को बार-बार कोसती कि मैंने क्यों उनको आशा दिलाकर यह जोखिम मोल ली। अगर इन दुष्टों ने कहीं उन्हें कोई हानि पहुँचाई तो वह मेरी ही नादानी का फल होगा। यद्यपि उसकी रक्षा के लिए कई सिपाही नियत थे मगर रात-रात भर उसकी आँखों में नींद न आती। पत्ता भी खड़कता तो चौंककर उठ बैठती। जब बाबू साहब सबेरे आकर उसको ढारस देते तो जाकर उसके जान में जान आती।

अमृतराय ने चिट्टियॉँ तो इधर-उधर भेज ही दी थीं। विवाह के तीन-चार दिन पहले से मेहमान आने लगे। कोई मुम्बई से आता था, कोई मदरास से, कोई पंजाब से और कोई बंगाल से । बनारस में सामाजिक सुधार के विराधियों का बड़ा ज़ोर था और सारे भारतवर्ष के रिफ़र्मरों के जी में लगी हुई थी कि चाहे जो हो, बनारस में सुधार के चमत्कार फैलाने का ऐसा अपूर्व समय हाथ से न जाने देना चाहिए, वह इतनी दूर-दूर से इसलिए आते थे कि सब काशी की भूमि में रिफार्म की पताका अवश्य गाड़ दें। वह जानते थे कि अगर इस शहर में यह विवाह हो तो फिर इस सूबें के दूसरे शहरों के रिफार्मरों के लिए रास्ता खुल जायगा। अमृताराय मेहमानों की आवभगत में लगे हुए थे। और उनके उत्साही चेले साफ-सुथरे कपड़े पहने स्टेशन पर जा-जाकर मेहमानों को आदरपूर्वक लाते और उन्हें सजे हुए कमरों में ठहराते थे। विवाह के दिन तक यहाँ कोई डेढ़ सौ मेहमान जमा हो गये। अगर कोई मनुष्य सारे आर्यावर्त की सभ्यता, स्वतंत्रता, उदारता और देशभक्ति को एकत्रित देखना चाहता था तो इस समय बाबू अमृतराय के मकान पर देख सकता था। बनारस के पुरानी लकीर पीटने वाले लोग इन तैयारियों और ऐसे प्रतिष्ठित मेहमानों को देख-देख दॉँतों उँगली दबाते। मुंशी बदरीप्रसाद और उनके सहायकों ने कई बेर धूम-धाम से जनसे किये हरबेर यही बात तय हुई कि चाहे जो मारपीट ज़रुर की जाय। विवाह क पहले शाम को बाबू अमृतराय अपने साथियों को लेकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे और वहाँ उनको बरातियों के आदर-सम्मान का प्रबंध करने के लिए ठहरा दिया। इसके बाद पूर्णा के पास गये। इनको देखते ही उसकी आँखें में आँसू भर आये।

अमृत-(गले से लगाकर) प्यारी पूर्णा, डरो मत। ईश्वर चाहेगा तो बैरी हमारा बाल भी बॉंका न करा सकें। कल जो बरात यहाँ आयेगी वैसी आज तक इस शहर मे किसी के दरवाज़े पर न आयी होगी।

पूर्णा-मगर मैं क्या करुँ। मुझे मो मालूम होता है कि कल जरुर मारपीट होगी। चारों ओ से यह खबर सुन-सुन मेरा जी आधा हो रहा है। इस वक्त भी मुंशी जी के यहाँ लाग जमा हैं।

अमृत-प्यारी तुम इन बातों को ज़रा भी ध्यान में न लाओं। मुंशी जी के यहाँ तो ऐसे जलसे महीनों से हो रहे हैं और सदा हुआ करेंगे। इसका क्या डर। दिल को मजबूत रक्खो। बस, यह रात और बीच है। कल प्यारी पूर्णा मेरे घर पर होगी। आह वह मेरे लिए कैसे आन्नद का समय होगा।

पूर्णा यह सुनकर अपना डर भूल गयी। बाबू साहब को प्यारी की निगाहों से देखा और जब चलने लगे तो उनके गले से लिपट कर बोली-तुमको मेरी कसम, इन दुष्टों से बचे रहाना।

अमृतराय ने उसे छाती से लगा लिया और समझा-बुझाकर अपने मकान को रवाना हुए।

पहर रात गये, पूर्णा के मकान पर, कई पंडित रेश्मी बाना सजे, गले में फूलों का हार डाले आये विधिपूर्वक लक्ष्मी की पूजा करने लगे। पूर्णा सोलहों सिंगार किये बैठी हुई थी। चारों तरफ गैस की रोशनी से दिन के समान प्रकाश हो रहा था। कांस्टेबिल दरवाज़े पर टहल रहे थे। दरवाजे का मैदान साफ किया जा रहा था और शामियाना खड़ा किया जा रहा था। कुर्सियॉँ लगायी जा रही थीं, फर्श बिछाया गया, गमले सजसये गये। सारी रात इन्हीं तैयारियों में कटी और सबेरा होते ही बारात अमृतराय के घर से चली।

बारात क्या थी सभ्यता और स्वाधीनता की चलती-फिरती तस्वीर थी। न बाजे का धड़-धड़ पड़-पड़, न बिगुलों की धों धों पों पों, न पालकियों का झुर्मट, न सजे हुए घोड़ों की चिल्लापों, न मस्त हाथियों का रेलपेल, न सोंटे बल्लमवालों की कतारा, न फुलवाड़ी, न बगीचे, बल्कि भले मानुषों की एक मंडली थी जो धीरे-धीरे कदम बढ़ाती चली जा रही थी। दोनों तरफ जंगी पुलिस के आदमी वर्दियॉँ डॉँटे सोंटे लिये खड़े थे। सड़क के इधर-उधर झुंड के झुंड आदमी लम्बी-लम्बी लाठियॉँ लिये एकत्र और थे बारात की ओर देख-देख दॉँत पीसते थे। मगर पुलिस का वह रोब था कि किसी को चूँ करने का भी साहस नहीं होता था। बारातियों से पचास कदम की दूरी पर रिजर्व पुलिस के सवार हथियारों से लैंस, घोड़ों पर रान पटरी जामये, भाले चमकाते ओर घोड़ों को उछालते चले जाते थे। तिस पर भी सबको यह खटका लग हुआ था कि कहीं पुलिस के भय का यह तिलिस्म टूट न जाय। यद्यपि बारातियों के चेहरे से घबराहट लेशमात्र भी न पाई जाती थी तथापि दिल सबके धड़क रहे थे। ज़रा भी सटपट होती तो सबके कान खड़े हो जाते। एक बेर दुष्टों ने सचमुच धावा कर ही दिया। चारों ओर हलचल मचगी। मगर उसी दम पुलिस ने भी डबल मार्च किया और दम की दम मे कई फ़सादियों की मुशके कस लीं। फिर किसी को उपद्रव मचाने का साहस न हुआ। बारे किसी तरह घंटे भर में बारात पूर्णा के मकान पर पहुँची। यहाँ पहले से ही बारातियों के शुभागमन का सामान किया गया था। आँगन में फर्श लगा हुआ था। कुर्सियॉँ धरी हुई थीं ओर बीचोंबीच में कई पूज्य ब्रह्मण हवनकुण्ड के किनारे बैठकर आहुति दे रहे थे। हवन की सुगन्ध चारों ओर उड़ रही थी। उस पर मंत्रों के मीठे-मीठे मध्यम और मनोहर स्वर जब कान में आते तो दिल आप ही उछलने लगता। जब सब बारती बैठ गये तब उनके माथे पर केसर और चन्दन मला गया। उनके गलों में हार डाले गये और बाबू अमृतराय पर सब आदमीयों ने पुष्पों की वर्षा की। इसके पीछे घर मकान के भीतर गया और वहाँ विधिपूर्वक विवाह हुआ। न गीत गाये गये, न गाली-गलौज की नौबत आयी, न नेगचार का उधम मचा।

भीतर तो शादी हो रही थी, बाहर हज़ारों आदमी लाठियॉँ और सोंटे लिए गुल मचा रहे थे। पुलिसवाले उनको रोके हुए मकान के चौगिर्द खड़े थे। इसी बची में पुलिस का कप्तान भ आ पहुँचा।उसने आते ही हुक्म दिया कि भीड़ हटा दी जाय। और उसी दम पुलिसवालों ने सोंटों से मारमार कर इस भीड़ को हटाना शुरु किया। जंगी पुलिस ने डराने के लिए बन्दूकों की दो-चार बाढ़े हवा में सर कर दी। अब क्या था, चारो ओर भगदड़ मच गयी। लोग एक पर एक गिरने लगे। मगर ठीक उसी समय ठाकुर जोरावर सिंह बाँकी पगिया बॉँधें, रजपूती बाना सजे, दोहरी पिस्तौल लगाये दिखायी, दिया। उसकी मूँछें खड़ी थी। आँखों से अंगारे उड़ रहे थे। उसको देखते ही वह लोब जो छितिर-बिति हो रहे थे फिर इकट्ठा होने लगो। जैसे सरदार को देखकर भागती हुई सेना दम पकड़ ले। देखते ही देखते हज़ार आदमी से अधिक एकत्र हो गये। और तलवार के धनी ठाकुर ने एक बार कड़क कर कहा-'जै दुर्गा जी की वहीं सारे दिलों में मानों बिजली कौंध गयी, जोश भड़क उठा। तेवरियों पर बल पड़ गये और सब के सब नद की तरह उमड़ते हुए आगे को बढ़े। जंगी पुलिसवाले भी संगीने चढ़ाये, साफ़ बॉँधे, डटे खड़े थे। चारों ओर भयानक सन्नाटा छाया हुआ था। धड़का लगा हुआ था कि अब कोई दम में लोहू की नदी बहा चाहती है। कप्तान ने जब इस बाढ़ को अपने ऊपर आते देखा तो अपने सिपाहियों को ललकारा और बड़े जीवट से मैदान में आकर सवारों को उभारने लगा कि यकायक पिस्तौल की आवाज़ आयी और कप्तान की टोपी ज़मीन पर गिर पड़ी मगर घाव ओछा लगा। कप्तान ने देख लिया था। कि यह पिस्तौल जोरावर सिंह ने सर की है। उसने भी चट अपनी बन्दूक सँभाली ओर निशाने का लगाना था कि धॉँय से आवाज़ हुई ओर जोरावर सिंह चारों खाने चित्त जमीन पर आ रहा। उसके गिरते ही सबके हियाव छूट गये। वे भेड़ों की भॉँति भगाने लगे। जिसकी जिधर सींग समाई चल निकला। कोई आधा घण्टे में वहाँ चिड़िया का पूत भी न दिखायी दिया।

बाहर तो यह उपद्रव मचा था, भीतर दुलहा-दुलहिन मारे डर के सूखे जाते थे। बाबू अमृतराय जी दम-दम की खबर मँगाते और थर-थर कॉँपती हुई पूर्णा को ढारस देते। वह बेचारी रो रही थी कि मुझ अभागिनी के लिए माथा पिटौवल हो रही है कि इतने में बन्दूक छूटी। या नारायण अब की किसकी जान गई। अमृतराय घबराकर उठे कि ज़रा बाहर जाकर देखें। मगर पूर्णा से हाथ न छुड़ा सके। इतने मेंएक आदमी ने फिर आकर कहा-बाबू साहब ठाकूर ढेर हो गये। कप्तान ने गोली मार दी।

आधा घण्टे में मैदान साफ़ हो गया और अब यहाँ से बरात की बिदाई की ठहरी। पूर्णा और बिल्लो एक सेजगाड़ी में बिठाई गई और जिस सज-धज से बरात आयी थी असी तरह वापस हुई। अब की किसी को सर उठाने का साहस नहीं हुआ। इसमें सन्देह नहीं कि इधर-उधर झुंड आदमी जमा थे और इस मंडली को क्रोध की निगाहों से देख रहे थे। कभी-कभी मनचला जवान एकाध पत्थर भी चला देता था। कभी तालियॉँ बजायी जाती थीं। मुँह चिढ़ाया जाता था। मगर इन शरारतो से ऐसे दिल के पोढ़े आदमियों की गम्भीरता में क्या विध्न पड़ सकता था। कोई आधा घण्टे में बरात ठिकाने पर पहुँची। दुल्हिन उतारी गयी ओर बरातियां की जान में जान अयी। अमृतराय की खुशी का क्या पूछना। वह दौड़-दौड़ सबसे हाथ मिलाते फिरते थे। बॉँछें खिली जाती थीं। ज्योंही दुल्हिन उस कमरे में पहुँची जो स्वयं आप ही दुल्हिन की तरह सजा हुआ था तो अमृतराय ने आकर कहा-प्यारी, लोहम कुशल से पहुँच गये। ऐं, तुम तो रो रही हो...यह कहते हुए उन्होंने रुमाल से उसके आँसू पोछे और उसे गलेसे लगाया।

प्रेम रस की माती पूर्णा ने अमृतराय का हाथ पकड़ लिया और बोली-आप तो आज ऐसे प्रसन्नचित्त हैं, मानो कोई राज मिल गया है।

अमृत-(लिपटाकर) कोई झूठ है जिसे ऐसी रानी मिले उसे राज की क्या परवाह

आज का दिन आनन्द में कटा। दूसरे दिन बरातियों ने बिदा होने की आज्ञा मॉँगी। मगर अमृतराय की यह सलाह हुई कि लाला धनुषधारीलाल कम से कम एक बार सबको अपने व्याख्यान से कृतज्ञ करें यह सलाह सबो पसंद आयी। अमृतराय ने अपने बगीचे में एक बड़ा शामियान खड़ा करवाया और बड़े उत्सव से सभा हुई। वह धुआँधर व्याख्यान हुए कि सामाजिक सुधार का गौरव सबके दिलों में बैठे गया। फिर तो दो जलसे और भी हुए और दूने धूमधाम के साथ। सारा शहर टूटा पड़ता था। सैंकड़ों आदमियों का जनेऊ टूट गया। इस उत्सव के बाद दो विधवा विवाह और हुए। दोनों दूल्हे अमृतराय के उत्साही सहायकों में थे और दुल्हिनों में से एक पूर्णा के साथ गंगा नहानेवाली रामकली थी। चौथे दिन सब नेवतहरी बिदा हुए। पूर्णा बहुत कन्नी काटती फिरी, मगर बरातियों के आग्रह से मज़बूर होकर उनसे मुलाकात करनी ही पड़ी। और लाला धनुषधारीलाल ने तो तीन दिन उसे बराबर स्त्री-धर्म की शिक्षा दी।

शादी के चौथे दिन बाद पूर्णा बैठी हुई थी कि एक औरत ने आकर उसके एक बंद लिफ़ाफा दिया। पढ़ा तो प्रेमा का प्रेम-पत्र था। उसने उसे मुबारकबादी दी थी और बाबू अमृतराय की वह तसवीर जो बरसों से उसके गले का हार हो रही थी, पूर्णा के लिए भेज दी थी। उस ख़त की आखिरी सतरें यह थीं---

'सखी, तुम बड़ी भाग्यवती हो। ईश्वर सदा तुम्हारा सोहाग कायम रखें। तुम्हारे पति की तसवीर तुम्हारे पास भेजती हूँ। इसे मेरी यादगार समझाना। तुम जानती हो कि मैं इसको जान से ज्यादा प्यारी समझती रही। मगर अब मैं इस योग्य नही कि इसे अपने पास रख सकूँ। अब यह तुमको मुबारक हो। प्यारी, मुझे भूलना मत । अपने प्यारे पति को मेरी ओर से धन्यवाद देना।

तुम्हारी अभागिनी सखी- प्रेमा'

अफसोस आज के पन्द्रवे दिन बेचारी प्रेमा बाबू दाननाथ के गले बॉँधी दी गयी। बड़े धूमधम से बरात निकली। हज़ारों रुपया लुटा दिया गया। कई दिन तक सारा शहर मुंशी बदरीप्रसाद के दरवाज़े पर नाच देखता रहा। लाखों का वार-न्यारा हो गया। ब्याह के तीसरे ही दिन मुंशी जी परलोक को सिधारे। ईश्वर उनको स्वर्गवास दे।

Jemsbond
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Re: प्रेमा (उपन्यास)

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 15:28

मेहमानों के बिदा हो जाने के बाउ यह आशा की जाती थी कि विरोधी लोग अब सिर न उठायेंगे। विशेष इसलिए कि ठाकुर जोरावार सिंह और मुंशी बदरीप्रसाद के मर जाने से उनका बल बहुत कम हो गया था। मगर यह आशा पूरी न हुई। एक सप्ताह भी न गुज़रने पाया था कि और अभी सुचित से बैठने भी न पाये थे कि फिर यही दॉँतकिलकिल शुरु हो गयी।

अमृतराय कमरे में बैठे हुए एक पत्र पढ़ रहे थे कि महराज चुपके से आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। अमृतराय ने सर उठाकर उसको देखा तो मुसकराकर बोले-कैसे चले महाराज?

महराज-हजूर, जान बकसी होय तो कहूँ।

अमृत-शौक से कहो।

महराज-ऐसा न हो कि आप रिसहे हो जायँ।

अमृत-बात तो कहो।

महराज-हजूर, डर लगती है।

अमृत-क्या तनख्वाह बढ़वाना चाहते हो?

महराज-नाहीं सरकार

अमृत-फिर क्या चाहते हो?

महराज-हजूर,हमारा इस्तीफा ले लिया जाय।

अमृत-क्या नौकरी छोड़ोगे?

महराज-हाँ सरकार। अब हमसे काम नहीं होता।

अमृत-क्यों, अभी तो मजबूत हो। जी चाहे तो कुछ दिन आराम कर लो। मगर नौकरी क्यों छोड़ों

महराज-नाहीं सरकार, अब हम घर को जाइब।

अमृत-अगर तुमको यहाँ कोई तकलीफ़ हा तो ठीक-ठीक कह दो। अगर तनख्वाह कहीं और इसके ज्यादा मिलने की आशा हो तो वैसा कहो।

महराज-हजूर, तनख्यावह जो आप देते हैं कोई क्या माई का लाल देगा।

अमृतराय-फिर समझ में नहीं आता कि क्यों नौकरी छोड़ना चहाते हो?

महराज-अब सरकार, मैं आपसे क्या कहूँ। यहाँ तो यह बातें हो रही थीं उधर चम्मन व रम्मन कहार और भगेलू व दुक्खी बारी आपस में बातें कर रहे थे।

भगेलू-चलो, चलो जल्दी। नहीं तो कचहरी की बेला आ जैहै।

चम्मन-आगे-आगे तुम चलो।

भगेलू-हमसे आगूँ न चला जैहै।

चम्मन-तब कौन आगूँ चलै?

भगेलू-हम केका बताई।

रम्मन-कोई न चलै आगूँ तो हम चलित है।

दुक्खी-तैं आगे एक बात कहित है। नह कोई आगूँ चले न कोई पीछूँ।

चम्मन---फिर कैसे चला जाय।

भगेलू-सब साथ-साथ चलैं।

चम्मन-तुम्हार क़पार

भगेलू-साथ चले माँ कौन हरज है?

मम्मन-तब सरकार से बतियाये कौन?

भगेलू-दुक्खी का खूब बितियाब आवत है।

दुक्खी-अरे राम रे मैं उनके ताई न जैहूँ। उनका देख के मोका मुतास हो आवत है।

भगेलू---अच्छा, कोऊ न चलै तो हम आगूँ चलित हैं

सब के सब चले। जब बरामदे में पहुँचे तो भगेलू रुक गया।

मम्मन-ठाढ़े काहे हो गयो? चले चलौ।

भगेलू---अब हम न जाबै। हमारा तो छाती धड़त है।

अमृतराय ने जो बरामदे में इनको सॉँय-साँय बातें करते सुना तो कमरे से बाहर निकल आये और हँस कर पूछा-कैसे चले, भगेलू?

भगेलू का हियाव छूट गया। सिर नीचा करके बोला-हजूर, यह सब कहार आपसे कुछ कहने आये है।

अमृतराय-क्या कहते है? यह सब तो बोलते ही नहीं

भगेलू-(कहारों से) तुमको जौन कुछ कहना होय सरकार से कहो।

कहार भगेलू के इस तरह निकल जाने पर दिल में बहुत झल्लये। चम्मन ने जरा तीखे होकर कहा-तुम काहे नाहीं कहत हौ? तुम्हार मुँह में जीभ नहीं है?

अमृतराय-हम समझ गये। शायद तुम लोग इनाम माँगने आये हो। कहारों से अब सिवाय हाँ कहने के और कुछ न बन पड़ा। अमृतराय ने उसी दम पॉँच रुपया भगेलू के हाथ पर रख दिया। जब यह सब फिर अपनी काठरी में आये तो यों बातें करने लगे-

चम्मन-भगेलुआ बड़ा बोदा है।

रम्मन-अस रीस लागत रहा कि खाय भरे का देई।

दुक्खी-वहाँ जाय के ठकुरासोहाती करै लागा।

भगेलू-हमासे तो उनके सामने कुछ कहै न गवा।

दुक्खी---तब काहे को यहाँसे आगे-आगे गया रह्यो।

इतने में सुखई कहार लकडी टेकता खॉसता हुआ आ पहुँचा। और इनको जमा देखकर बोला-का भवा? सरकार का कहेन?

दुक्खी-सरकार के सामने जाय कै सब गूँगे हो गये। कोई के मुँह से बात न लिकली।

भगेलू-सुखई दादा तुम नियाव करो, जब सरकार हँसकर इनाम दे लागे तब कैसे कहा जात कि हम नौकरी छोड़न आये हैं।

सुखई-हम तो तुमसे पहले कह दीन कि यहाँ नौकरी छोड़ी के सब जने पछतैहो। अस भलामानुष कहूँ न मिले।

भगेलू-दादा, तुम बात लाख रुपया की कहत हो।

चम्मन-एमॉँ कौन झूठ हैं। अस मनई काहाँ मिले।

रम्मन आज दस बरस रहत भये मुदा आधी बात कबहूँ नाहीं कहेन।

भगेलू-रीस तो उनके देह में छू नहीं गै। जब बात करत है हँसकर।

मम्मन-भैया, हमसे कोऊ कहत कि तुम बीस कलदार लेव और हमारे यहाँ चल के काम करो तो हम सराकर का छोड़ के कहूँ न जाइत। मुद्रा बिरादरी की बात ठहरी। हुक्का-पानी बन्द होई गवा तो फिर केह के द्वारे जैब।

रम्मन-यही डर तो जान मारे डालते है।

चम्मन-चौधरी कह गये हैं किआज इनकेर काम न छोड़ देहों तो टाट बाहर कर दीन जैही।

सुखई-हम एक बेर कह दीन कि पछतौहो। जस मन मे आवे करो।

कहार भगेलू के इस तरह निकल जाने पर दिल में बहुत झल्लये। चम्मन ने जरा तीखे होकर कहा-तुम काहे नाहीं कहत हौ? तुम्हार मुँह में जीभ नहीं है?

अमृतराय-हम समझ गये। शायद तुम लोग इनाम माँगने आये हो।

कहारों से अब सिवाय हाँ कहने के और कुछ न बन पड़ा। अमृतराय ने उसी दम पॉँच रुपया भगेलू के हाथ पर रख दिया। जब यह सब फिर अपनी काठरी में आये तो यों बातें करने लगे-

चम्मन-भगेलुआ बड़ा बोदा है।

रम्मन-अस रीस लागत रहा कि खाय भरे का देई।

दुक्खी-वहाँ जाय के ठकुरासोहाती करै लागा।

भगेलू-हमासे तो उनके सामने कुछ कहै न गवा।

दुक्खी---तब काहे को यहाँसे आगे-आगे गया रह्यो।

इतने में सुखई कहार लकडी टेकता खॉसता हुआ आ पहुँचा। और इनको जमा देखकर बोला-का भवा? सरकार का कहेन?

दुक्खी-सरकार के सामने जाय कै सब गूँगे हो गये। कोई के मुँह से बात न लिकली।

भगेलू-सुखई दादा तुम नियाव करो, जब सरकार हँसकर इनाम दे लागे तब कैसे कहा जात कि हम नौकरी छोड़न आये हैं।

सुखई-हम तो तुमसे पहले कह दीन कि यहाँ नौकरी छोड़ी के सब जने पछतैहो। अस भलामानुष कहूँ न मिले।

भगेलू-दादा, तुम बात लाख रुपया की कहत हो।

चम्मन-एमॉँ कौन झूठ हैं। अस मनई काहाँ मिले।

रम्मन आज दस बरस रहत भये मुदा आधी बात कबहूँ नाहीं कहेन।

भगेलू-रीस तो उनके देह में छू नहीं गै। जब बात करत है हँसकर।

मम्मन-भैया, हमसे कोऊ कहत कि तुम बीस कलदार लेव और हमारे यहाँ चल के काम करो तो हम सराकर का छोड़ के कहूँ न जाइत। मुद्रा बिरादरी की बात ठहरी। हुक्का-पानी बन्द होई गवा तो फिर केह के द्वारे जैब।

रम्मन-यही डर तो जान मारे डालते है।

चम्मन-चौधरी कह गये हैं किआज इनकेर काम न छोड़ देहों तो टाट बाहर कर दीन जैही।

सुखई-हम एक बेर कह दीन कि पछतौहो। जस मन मे आवे करो।

आठ बजे रात को जब बाबू अमृतराय सैर रिके आये तो कोई टमटम थानेवाला न था। चारों ओर घूम-घूम कर पुकारा। मगर किसी आहट न पायी। महाराज, कहार, साईस सभी चल दिये। यहाँ तक कि जो साईस उनके साथ था वह भी न जाने कहाँ लोप हो गया। समझ गये कि दुष्टों ने छल किया। घोड़े को आप ही खोलने लगे कि सुखई कहार आता दिखाई दिया। उससे पूछा-यह सब के सब कहाँ चले गये?

सुखई-(खॉँसकर) सब छोड़ गये। अब काम न करैगे।

अमृतराय-तुम्हें कुछ मालूम है इन सभों ने क्यों छोड़ दिया?

सुखई-मालूम काहे नाहीं, उनके बिरादरीवाले कहते हैं इनके यहाँ काम मत करो। अमृतराय राय की समझ में पूरी बात आ गयी कि विराधियों ने अपना कोई और बस न चलते देखकर अब यह ढंग रचा है। अन्दर गये तो क्या देखते हैं कि पूर्णा बैठी खाना पका रही है। और बिल्लो इधर-उधर दौड़ रही है। नौकरों पर दॉँत पीसकर रह गये। पूर्णासे बोले---आज तुमको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा।

पूर्णा-(हँसकर) इसे आप कष्ट कहते है। यह तो मेरा सौभाग्य है।

पत्नी के अधरों पर मन्द मुसकान और आँखों में प्रेम देखकर बाबू साहब के चढ़े हुए तेवर बदल गये। भड़कता हुआ क्रोध ठंडा पड़ गया और जैसे नाग सूँबी बाजे का शब्द सुनकर थिरकने लगता है और मतवाला हो जाता उसी भॉँति उस घड़ी अमृतराय का चित्त भी किलोलें करने लगा। आव देखा न ताव। कोट पतलून, जूते पहने हुए रसोई में बेधड़क घुस गये। पूर्णा हाँ,हाँ करती रही। मगर कौन सुनता है। और उसे गले से लगाकर बोले-मै तुमको यह न करने दूगॉँ।

पूर्णा भी प्रति के नशे में बसुध होकर बोली-मैं न मानूँगी।

अमृत०-अगर हाथों में छाले पड़े तो मैं जुरमाना ले लूँगा।

पूर्णा-मैं उन छालों को फूल समझूँगी, जुरामान क्यों देने लगी।

अमृत०-और जो सिर में धमक-अमक हुई तो तुम जानना।

पूर्णा-वाह ऐसे सस्ते न छूटोगे। चन्दन रगड़ना पड़ेगा।

अमृत-चन्दन की रगड़ाई क्या मिलेगी।

पूर्णा-वाह (हंसकर) भरपेट भोजन करा दूँगी।

अमृत-कुछ और न मिलेगा?

पूर्णा-ठंडा पानी भी पी लेना।

अमृत-(रिसियाकर) कुछ और मिलना चाहिए।

पूर्णा-बस,अब कुछ न मिलेगा।

यहाँ अभी यही बातें हो रही थीं कि बाबू प्राणनाथ और बाबू जीवननाथ आये। यह दोनों काश्मीरी थे और कालिज में शिक्षा पाते थे। अमृतराय क पक्षपातियों में ऐसा उत्साही और कोई न था जैसे यह दोनों युवक थे। बाबू साहब का अब तक जो अर्थ सिद्ध हुआ था, वह इन्हीं परोपकारियों के परिश्रम का फल था। और वे दोनों केवल ज़बानी बकवास लगानेवाली नहीं थे। वरन बाबू साहब की तरह वह दोनों भी सुधार का कुछ-कुछ कर्तव्य कर चुके थे। यही दोनों वीर थे जिन्होंने सहस्रों रुकावटों और आधाओं को हटाकर विधवाओं से ब्याह किया था। पूर्णा की सखी रामकली न अपनी मरजी से प्राणनाथ के साथ विवाह करना स्वीकार किया था। और लक्ष्मी के मॉँ-बॉँप जो आगरे के बड़े प्रतिष्ठत रईस थे, जीवननाथ से उसका विवाह करने के लिए बनारस आये थे। ये दोनों अलग-अलग मकान में रहते थे।

बाबू अमृतराय उनके आने की खबर पाते ही बाहर निकल आये और मुसकराकर पूछा-क्यों, क्या खबर है?

जीवननाथ-यह आपके यहाँ सन्नाटा कैसा?

अमृत०-कुछ न पूछो, भाई।

जीवन०-आखिर वे दरजन-भर नौकरी कहाँ समा गये?

अमृत०-सब जहन्नुम चले गये। ज़ालिमों ने उन पर बिरादरी का दबाव डालकर यहाँ से निकलवा दिया।

प्राणनाथ ने ठट्ठा लगाकर काह---लीजिए यहाँ भी वह ढंग है।

अमृतराय-क्या तुम लोगों के यहाँ भी यही हाल है।

प्राणनाथ---जनाब, इससे भी बदतर। कहारी सब छोड़ भागो। जिस कुएसे पानी आता था वहाँ कई बदमाश लठ लिए बैठे है कि कोई पानी भरने आये तो उसकी गर्दन झाड़ें।

जीवननाथ-अजी, वह तो कहो कुशल होयी कि पहले से पुलिस का प्रबन्ध कर लिया नहीं तो इस वक्त शायद अस्पताल में होते।

अमृतराय-आखिर अब क्या किया जाए। नौकरों बिना कैसे काम चलेगा?

प्राणनाथ-मेरी तो राय है कि आप ही ठाकुर बनिए और आप ही चाकर।

ज़ीवनाथ-तुम तो मोटे-ताजे हो। कुएं से दस-बीस कलसे पानी खींच ला सकते हो।

प्राणनाथ-और कौन कहे कि आप बर्तन-भॉँडे नहीं मॉँज सकते।

अमृत-अजी अब ऐसे कंगाल भी नहीं हो गये हैं। दो नौकर अभी हैं, जब तक इनसे थोड़ा-बहुत काम लेंगे। आज इलाके पर लिख भेजता हूँ वहाँ दो-चार नौकर आ जायँगे।

जीवन-यह तो आपने अपना इन्तिज़ाम किया। हमारा काम कैसे चले।

अमृत.-बस आज ही यहाँ उठ आओ, चटपट।

जीवन.-यह तो ठीक नहीं। और फिर यहाँ इतनी जगह कहाँ है?

अमृत.-वह दिल से राज़ी हैं। कई बेर कह चुकी हैं कि अकेले जी घबराता है। यह ख़बर सुनकर फूली न समायेंगी।

जीवन-अच्छा अपने यहाँ तो टोह लूँ।

प्राण-आप भी आदमी हैं या घनचक्कर। यहाँ टोह लूँ वहाँ टोह लूँ। भलमानसी चाहो तो बग्घी जोतकर ले चलों। दोनों प्राणियों को यहाँ लाकर बैठा दो। नहीं तो जाव टोह लिया करो।

अमृत-और क्या, ठीक तो कहते हैं। रात ज्यादा जायगी तो फिर कुछ बनाये न बनेगी।

जीवन-अच्छा जैसी आपकी मरज़ी।

दोनों युवक अस्तबल में गये। घोड़ा खोला और गाड़ी जोतकर ले गये। इधर अमृतराय ने आकर पूर्णा से यह समाचार कहा। वह सुनते ही प्रसन्न हो गई और इन मेहमानों के लिए खाना बनाने लगी। बाबू साहब ने सुखई की मदद से दो कमरे साफ़ कराये। उनमें मेज, कुर्सियाँ और दूसरी जरुरत की चीज़ें रखवा दीं। कोई नौ बजे होंगे कि सवारियॉँ आ पहुँचीं। पूर्णा उनसे बड़े प्यार से गले मिली और थोड़ी ही देर में तीनों सखियॉँ बुलबुल की तरह चहकने लगीं। रामकली पहले ज़रा झेंपी। मगर पूर्णा की दो-चार बातों न उसका हियाव भी खोल दिया।

थोड़ी देर में भोजन तैयार हा गया। ओर तीनों आदमी रसोई पर गये। इधर चार-पॉँच बरस से अमृतराय दाल-भात खाना भूल गये थे। कश्मीरी बावरची तरह तरह क सालना, अनेक प्रकार के मांस खिलाया करता था और यद्यपि जल्दी में पूर्णा सिवाय सादे खानों के और कुछ न बना सकी थी, मगर सबने इसकी बड़ी प्रशंसा की। जीवननाथ और प्राणनाथ दोनों काशमीरी ही थे, मगर वह भी कहते थे कि रोटी-दाल ऐसी स्वादिष्ट हमने कभी नहीं खाई।

रात तो इस तरह कटी। दूसर दिन पूर्णा ने बिल्लो से कहा कि ज़रा बाज़ार से सौदा लाओ तो आज मेहानों को अच्छी-अच्छी चीज़े खिलाऊँ। बिल्लो ने आकर सुखई से हुक्म लगाया। और सुखई एक टोकरा लेकर बाज़ार चले। वह आज कोई तीस बरस से एक ही बनिये से सौदा करते थे। बनिया एक ही चालाक था। बुढ़ऊ को खूब दस्तूरी देता मगर सौदा रुपये में बारह आने से कभी अधिक न देता। इसी तरह इस घूरे साहु ने सब रईसों को फॉँसा रक्खा था। सुखई ने उसकी दूकान पर पहुँचते है टाकरा पटक दिया और तिपाई पर बैठकर बोला-लाव घूरे, कुछ सौदा सुलुफ तो दो मगर देरी न लगे।

और हर बेर तो घूरे हँसकर सुखई को तमाखू पिलाता और तुरन्त उसके हुक्म की तामील करने लगता। मगर आज उसने उसको और बड़ी रुखाई से देखकर कहा-आगे जाव। हमारे यहाँ सौदा नहीं है।

सुखई-ज़रा आदमी देख के बात करो। हमें पहचानते नहीं क्या?

घूरे-आगे जाव। बहुत टें-टें न करो।

सुखई-कुछ मॉँग-वॉँग तो नहीं खा गये क्या? अरे हम सुखई हैं।

घूरे-अजी तुम लाट हो तो क्या? चलो अपना रास्ता देखो।

सुखई-क्या तुम जानते हो हमें दूसरी दुकान पर दस्तूरी न मिलेगी? अभी तुम्हरे सामने दो आने रूपया लेकर दिखा देता हूँ।

घूरे-तूम सीधे से जाओगे कि नहीं? दुकान से हटकर बात करो। बेचारा सुखई साहु की सइ रुखाई पर आर्श्चय करता हुआ दूसरी दुकान पर गया। वहाँ भी यही जवाब मिला। तीसरी दूकान पर पहुँचा। यहाँ भी वही धुतकार मिली। फिर तो उसने सारा-बाज़ार छान डाला। मगर कहीं सौदा न मिला। किसी ने उसे दुकान पर खड़ा तक होने न दिया। आखिर झक मारकर-सा मुँह लिये लौट आया और सब समाचार कह। मगर नमक-मसाले बिना कैसे काम चले। बिल्लो ने वहा, अब् की मैं जाती हूँ। देखूँ कैसे कोई सौदा नहीं देता। मगर वह हाते ज्यों ही बाहर निकली कि एक आदमी उसे इधर-उधर टहलता दिखायी दिया। बिल्लो को देखते ही वह उसके साथ हो लिया और जिस जिस दुकान पर बिल्लो गई वह भी परछाई की तरह साथ लगा रहा। आखिर बिल्लो भी बहुत दौड़-धूप कर हाथ झुलाते लौट आयी। बेचरी पूर्णा ने हार कर सादे पकवान बनाकर धर दिये।

बाबू अमृतराय ने जब देखा कि द्रोही लोग इसी तरह पीछे पड़े तो उसी दम लाला धनुषधारीलाल को तार दिया कि आप हमारे याहाँ पॉँच होशियार खिदमतगार भेज दीजिए। लाला साहब पहले ही समझे हुए थे कि बनारस में दुष्ट लोग जितना ऊधम मचायें थोड़ा हैं। तार पाते ही उन्होंने अपने अपने होटल के पॉँच नौकरों को बनारस रवाना किया। जिनमें एक काश्मीरी महराज भी थी। दूसरे दिन यह सब आ पहुँचे। सब के सब पंजाबी थे, जो न तो बिरादरी के गुलाम थे और न जिनको टाट बाहर किये जाने का खटका था। विरोधियों ने उसके भी कान भरने चाहे। मगर कुछ दॉँव चला। सौदा भी लखनऊ से इतना मॉँगा लिया जो कई महीनों को काफ़ी था।

जब लोगों ने देखा इन शरारतों से अमृतराय को कुछ हानि पहुँची तो और ही चाल चले। उनके मुवक्किलों को बहकाना शुरु किया कि वह तो ईसाई हो गये हैं। साहबों के संग बैठकर खाते हैं। उनको किसी जानवर के मांस से विचार नहीं है। एक विधवा ब्रह्माणी से विवाह कर लिया है। उनका मुँह देखना, उनसे बातचीत करना भी शास्त्र के विरुद्ध है। मुवक्किलों को बहकाना शुरु कि याह कि वह तो ईसाई हो गये है। विधवा ब्रह्मणी से विवाह कर लिया है। उनका मुँह देखना, उनसे बातचीत करना भी शास्त्र के विरुद्ध है। मुवक्किलों में बहुधा करके देहातों के राजपूत ठाकुर और भुंइहार थे जो यहाता अविद्या की कालकोठरी में पड़े हुए थे या नये ज़माने क चमत्कार ने उन्हें चौंधिया दिया था। उन्होंने जब यह सब ऊटपटाँग बातें सुनी तब वे बहुत बिगड़े, बहुत झल्लाये और उसी दम कसम खाई की अब चाहे जो हो इस अधर्मी को कभी मुकदमा न देंगे। राम राम इसको वेदशास्त्र का तनिक विचार नहीं भया कि चट एक रॉँड़ को घर में बैठाल लिया। छी छी अपना लोक-परलोक दोनों बिगाड़ दिया। ऐसा ही था तो हिन्दू के घर में काहे को जन्म लिया था। किसी चोर-चंडाल के घर जनमे होते। बाप-दादे का नाम मिटा दिया। ऐसी ही बातें कोई दो सप्ताह तक उने मुवक्किलों में फैली। जिसका परिणाम यह हुआ कि बाबू अमृतराय का रंग फीका पड़ने लगा। जहाँ मारे मुकदमों के सॉँस लेने का अवकाश न मिलता था। वहाँ अब दिन-भर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की नौबत आ गयी। यहाँ तक कि तीसरा सप्ताह कोरा बीत गया और उनको एक भी अच्छा मुकदमा न मिला।

जज साहब एक बंगाली बाबू थे। अमृतराय के परिश्रम और तीव्रता, उत्साह और चपलता ने जज साहब की आँखों में उन्होंने बड़ी प्रशंसा दे रक्खी थी। वह अमृतराय की बढ़ती हुई वकालत को देख-देख समझ गये थे कि थोड़ी ही दिनों मे यह सब वकीलों का सभापति हा जाएगा। मगर जब तीन हफ्ते से उनकी सूरत न दिखायी दी तब उनको आश्चर्य हुआ। सरिश्तेदार से पूछा कि आजकल बाबू अमृतराय कहाँ हैं। सरिश्तेदार साहब जाति के मुसलमान और बड़े सच्चे, साफ आदमी थे। उन्होंने सारा ब्योरा जो सुना था कह सुनाया। जज साहब सुनते ही समझ गये कि बेचारे अमृतराय सामाजिक कामों में अग्रण्य बनने का फल भोग रहे हैं। दूसरे दिन उन्होंने खुद अमृतराय को इजलास पर बुलवाया और देहाती ज़मींदारी के सामने उनसे बहुत देर तक इधर-उधर की बातें की। अमृतराय भी हँस-हँस उनकी बातों का जवाब दिया किये। इस बीच में कई वकीलों और बैरिस्टर जज साहब को दिखाने कि लिए कागज पत्र - लाये मगर साहब ने किसी के ओर ध्यान नहीं दिया। जब वह चले तो साहब ने कुसी उठकर हाथ मिलाया और जरा जोर से बोलो - बहुत अच्छा, बाबू साहब जैसा आप बोलता है, इस मुकदमे मे वैसा ही होगा।

आज जब कचहरी बरखास्त हुई तो उन जमीदारों में जिनके मुकदमे आज पेश थे, यों गलेचौर होने लगी।

ठाकुर साहब- ( पगडी.बॉंधे, मूछें खडी.किये, मोटासा लद्व हाथ में लिये) आज जज साहब अमृतराय से खुब- खुब बतियात रहे।

मिश्र जी- (सिर घुटाये,टीका लगाये, मुह में तम्बाकु दाबाये और कन्घे पर अगोछा रक्खे) खूब ब बतियावत रहा मानो कोउ अपने मित्र से बतियावै।

ठाकुर- अमृतराय कस हँस- हँस मुडी हिलावत रहा।

मिश्र जी- बडे. आदमियन का सबजगह आदर होत है।

ठाकुर- जब लो दोनो बतियात रहे तब तलुक कउ वकील आये बाकी साहेब कोउ की ओर तनिक नाहीं ताकिन।

मिश्र जी- हम कहे देइत है तुमार मुकदमा उनहीं के राय से चले। सुनत रहयो कि नाहीं जब अमृतराय चले लागे तो जज साहब कहेन कि इस मुकदमे में वैसा ही होगा

ठाकुर- सुना काहे नहीं, बाकी फिर काव करी।

मिश्र जी- इतना तो हम कहित है कि अस वकिल पिरथी भर में नाहीं ना।

ठाकुर- कसबहस करत हैं मानो जिहवा पर सरस्वती बैठी होय। उनकर बराबरी करैया आज कोई नाहीं है।

मिश्र जी- मुदा इसाई होइ गया। रॉंड.से ब्याह किहेसि।

ठाकुर- एतनै तो बीच परा है। अगर उनका वकील किहे होईत तो बाजी बद के जीत जाईत।

इसी तरह दोनो में बातें हुई और दिया में बती पडतें- पडतें दोनो अमृतराय के पास गये और उनसे मुकदमें की कुल रुयदाद बयान कि। बाबू साहब ने पहले ही समझ लिया था कि इस मुकदमें में कुछ जान नहीं है। तिस पर उन्होंने मूकदमा ले लिया और दुसरे दिन एसी योग्यता से बहस की कि दूसरी ओर के वकिल- मुखतियार खडे.मुह ताकते रह गये। आख्रिर जीत का सेहरा भी उन्हीं के सिर रहा। जज साहब उनकी बकतृया पर एसे प्रसन्न हुए कि उन्होंने हँसकर घन्यबाद दिया और हाथ मिलया। बस अब क्या था । एक तो अमृतराय यों ही प्रसिद्व थे, उस पर जज साहब का यह वताव और भी सोने पर सुहागा हो गया । वह बँगले पर पहुँच कर चैन से बैठने भी न पाये थे, कि मुवक्किलो के दल के दल आने लगे और दस बजे रात तक यही ताता लगा रहा। दूसरे दिन से उनकी वकालत पहले से भी अधिक चमक उठी ।

द्रोहियों जब देखा कि हमारी चाल भी उलटी पडी. तो और भी दॉत पीसने लगे। अब मुंशी बदरीप्रसाद तो थे हि नहीं कि उन्हें सीधी चालें बताते। और न ठाकुर थे कि कुछ बाहुबल का चमत्कार दिखाते । बाबू कमलाप्रसाद अपने पिता के सामने ही से इन बातो से अलग हो गये थे। इसलिये दोहियों को अपना और कुछ बस न देख कर पंडित भगुदत का द्वार खटखटाया उनसें कर जोड कर कहा कि महाराज! कृपा-सिन्धु! अब भारत वर्ष में महा उत्पात और घोर पाप हो रहा है। अब आप ही चाहो तो उसका उद्वार हो सकता है । सिवाय आप के इस नौका को पार लगाने वाला इस संसार में कोई नहीं है। महाराज ! अगर इस समय पूरा बल न लगाया तो फिर इस नगर के वासी कहीं मुह दिखाने के योग्य नहीं रहेंगे। कृपा के परनाले और धर्म के पोखरा ने जब अपने जजमानों को ऐसी दीनता से स्तुति करते देखा तो दॉत निकालकर बोले आप लोग जौन है तैन घबरायें मत। आप देखा करें कि भृगुदत क्या करते है।

सेठ धूनीमल- महाराज! कुछ ऐसा यतन कीजिये कि इस दुष्ट का सत्यानाश् हो जाय ! कोई नाम लेवा न बचे।

कई आदमी- हॉ महाराज! इस घडी तो यही चाहिये।

भृगुदत- यही चाहिये तो यही लेना। सर्वथा नाश न कर दू तो ब्राहमण नहीं। आज के सातवें दिन उसका नाश हो जायेगा।

सेठ जी- द्वव्य जो लगे बेखटके कोठी से मॅगा लेना ।

भृगुदत- इसके कहने की कोइ आवश्यकता नहीं। केवल पॉच सौ ब्राहमण का प्रतिदिन भोजन होगा।

बाबू दीनानाथ-तो कहिये तो कोई हलवाई लगा दिया जाए। राघो हलवाई पेड़े और लडू बहुत अच्छे बनाता है।

भृगुदत- जो पूजा मैं कराउगा उसमें पेड़ा खाना वर्जित है। अधिक इमरती का सेवन हो उतना ही कार्य सिद्व हो जाता है।

इस पर पंड़ित जी के एक चेले ने कहा- गरू जी! आज तो आप ने न्याय का पाठ देते समय कहा था कि पेड़े के साथ दही मिला दिया जाए तो उसमें कोइ दोष नहीं रहता।

भृगुदत- (हॅसकर) हॉ- हॉ अब स्मरण हुआ। मनु जी ने इस शलोक में इस बात का प्रमाण दिया है।

दीनानाथ-(मुसकराकर) महाराज! चेला तो बड़ा तिब्र है।

सेठ जी- यह अपने गरूजी से बाजी ले जायेगा।

भृगुदत- अब कि इसने एक यज्ञ में दो सेर पूरियॉ खायी। उस दिन से मैने इसका नाम अंतिम परीक्षा में लिख दिया।

चेला- मैं अपने मन से थोड़ा ही उठा । अगर जजमान हाथ जोड़कर उठा न देते तो अभी सेर भर और खा के उठता।

दीनानाथ-क्यो न हो पटे ! जैसे गुरू वैसे चेला!

सेठ जी- महाराज, अब हमको आज्ञा दीजिए। आज हलवाई आ जाएगा। मुनीम जी भी उसके साथ लगे रहेगें। जो सौ दो सौ का काम लगे मुनीम जी से फरमा देना। मगर बात तब है कि आप भी इस बिषय में जान लड़ा दे।

पंड़ित जी ने सिर का कद्दू हिलाकर कहा- इसमें आप कोई खटका न समझिये। एक सप्ताह में अगर दुष्ट का न नाश हो जाए तो भृगुदत नहीं। अब आपको पूजन की बिधि भी बता ही दू। सुनिए तांत्रिक बिद्या में एक मंत्र एसा भी है जिसके जगाने से बैरी की आयु क्षीण होती है। अगर दस आदमी प्रतिदिवस उसका पाठ करे तो आयु में दोपहर की हानि होगी। अगर सौ आदमी पाठ करे तो दस दिन की हानि होगी।

यदि पाच सौ पाठ नित्य हों तो हर दिन पाच वष आयु घटती हैं।

सेठ जी- महाराज, आप ने इस घड़ी एसी बात कही कि हमारा चोला मस्त हो गया, मस्त हो गया ,

दीनानाथ- कृपासिन्घु, आप घन्य हो ! आप घन्य हो !

बहुत से आदमी- एक बार बोलो- पंड़ित भृगुदत जय !

बहुत से आदमी- एक बार बोलो- दुष्ठों की छै ! छै ! !

इस तरह कोलाहल मचाते हुए लोग अपने- अपने घरो को लौटे। उसी दिन राघो हलवाई पंड़ित जी के मकान पर जा डटा। पूजा-पाठ होने लगे । पाच सौ भुक्खड़ एकत्र हो गये और दोनों जून माल उडानें लगे। धीरे- धीरे पाच सौ से एक हजार नम्बर पहुचा पूजा-पाठ कौन करता है। सबेरे से भोजन का प्रबन्ध करते - करते दोपहर हो जाता था। और दोपहर से भंग- बूटी छानते रात हो जाती थी। हॉ पंडित भृगुदत दास का नाम पुरे शहर में उजागर हो रहा था। चारो ओर उनकी बड़ाई गाई जा रही थ। सात दिन यही अधाधुंध मचा रहा। यह सब कुछ हुआ । मगर बाबू अमृतराय का बाल बाँका न हो सका। कही चमार के सरापे डागर मिलते है। एसे आँख् के अंधे और गँठ के पुरे न फँसे तो भृगुदत जैसे गुगो को चखौतिया कौन करायें। सेठ जी के आदमी तिल- तिल पर अमृतराय के मकान पर दौड़ते थे कि देखें कुछ जंत्र -मत्र का फल हुआ कि नहीं। मगर सात दिन के बीतने पर कुछ फल हुआ तो यही कि अमृतराय की वकालत सदा से बढकर चमकी हुई थी ।

Jemsbond
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Re: प्रेमा (उपन्यास)

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 15:29

प्रेमा का ब्याह हुए दो महीने से अधिक बीत चुके हैं मगर अभी तक उसकी अवस्था वही है जो कुँवारापन में थी। वह हरदम उदास और मलिन रहती हैं। उसका मुख पीला पड़ गया। आँखें बैठे हुई, सर के बाल बिखरे, उसके दिल में अभी तक बाबू अमृतराय की मुहब्बत बनी हुई हैं। उनकी मूर्ति हरदम उसकी ऑंखों के सामने नाचा करती है। वह बहुत चाहती है कि उनकी सूरत ह्दय से निकाल दे मगर उसका कुछ बस नहीं चलता। यद्यपि बाबू दाननाथ उससे सच्चा प्रेम रखते हैं और बड़े सुन्दर हँसमुख, मिलनसार मनुष्य हैं। मगर प्रेमा का दिल उनसे नहीं मिलता। वह उनसे प्रेम-भाव दिखाने में कोई बात उठा नहीं रखती। जब वह मौजूद होते हैं तो वह हँसती भी हैं। बातचीत भी करती है। प्रेम भी जताती है। मगर जब वह चले जाते हैं तब उसके मुख पर फिर उदासी छा जाती है। उसकी सूरत फिर वियोगिन की-सी हो जाती है। अपने मैके में उसे रोने की कोई रोक-टोक न थी। जब चाहती और जब तक चाहती, रोया करती थी। मगर यहाँ रा भी नहीं सकती। या रोती भी तो छिपकर। उसकी बूढ़ी सास उसे पान की तरह फेरा करती है। केवल इसलिए नहीं कि वह उसका पास और दबाव मानती है बल्कि इसलिए कि वह अपने साथ बहुत-सा दहेज लायी है। उसने सारी गृहस्थी पतोहू के ऊपर छोड़ रक्खी है और हरदम ईश्वर से विनय किया करती है कि पोता खेलाने के दिन जल्द आयें।

बेचारी प्रेमा की अवस्था बहुत ही शोचनीय और करुणा के योग्य है। वह हँसती है तो उसकी हँसी में रोना मिला होता है। वह बातचीत करती है तो ऐसा जान पड़ता है कि अपने दुख की कहानी कह रही है। बनाव-सिंगार से उसकी तनिक भी रुचि नहीं है। अगर कभी सास के कहने-सुनने से कुछ सजावट करती भी है तो उस पर नहीं खुलता। ऐसा मालूम होता है कि इसकी कोमल गात में जो मोहिन थी वह रुठ कर कहीं और चली गयी। वह बहुधा अपने ही कमरे में बैठी रहती है। हाँ, कभी-कभी गाकर दिल बहलाती है। मगर उसका गाना इसलिए नहीं होता कि उससे चित्त को आनन्द प्राप्त हो। बल्कि वह मधुर स्वरों में विलाप और विषाद के राग गाया करती है।

बाबू दाननाथ इतना तो शादी करने के पहले ही जानते थे कि प्रेमा अमृतराय पर जान देती है। मगर उन्होंने समझा था कि उसकी प्रीति साधारण होगी। जब मैं उसको ब्याह कर लाऊँगा, उससे स्नहे, बढ़ाऊँगा, उस पर अपने के निछावर करुँगा तो उसके दिल से पिछली बातें मिट जायँगी और फिर हमारी बड़े आनन्द से कटेगी। इसलिए उन्होंने एक महीने के लगभग प्रेमा के उदास और मलिन रहने की कुछ परवाह न की। मगर उनको क्या मालूम था कि स्नहे का वह पौधा जो प्रेम-रस से सींच-सींच कर परवान चढ़ाया गया है महीने-दो महीने में कदापि नहीं मुरझा सकता। उन्होंने दूसरे महीने भर भी इस बात पर ध्यान न दिया। मगर जब अब भी प्रेमा के मुख से उदासी की घटा फटते न दिखायी दी तब उनको दुख होने लगा। प्रेम और ईर्ष्या का चोली-दामन का साथ है। दाननाथ सच्चा प्रेम देखते थे। मगर सच्चे प्रेम के बदले में सच्चा प्रेम चाहते भी थे। एक दिन वह मालूम से सबेर मकान पर आये और प्रेमा के कमरे में गये तो देखा कि वह सर झुकाये हुए बैठी है। इनको देखते ही उसने सर उठाया और चोट ऑंचल से ऑंसू पोंछ उठ खड़ी हुई और बोली-मुझे आज न मालूम क्यों लाला जी की याद आ गयी थी। मैं बड़ी से रो रही हूँ।

दाननाथ ने उसको देखते ही समझ लिया था कि अमृतराय के वियोग में ऑंसू बाहये जा रहे हैं। इस पर प्रेमा ने जो यों हवा बतलायी तो उनके बदन में आग लग गयी। तीखी चितवनों से देखकर बोले-तुम्हारी आँखें हैं और तुम्हारे ऑंसू, जितना रोया जाय रो लो। मगर मेरी ऑंखों में धूल मत झोंको।

प्रेमा इस कठोर वचन को सुनकर चौंक पड़ी और बिना कुछ उत्तर दिये पति की ओर डबडबाई हुई ऑंखों से ताकने लगी। दाननाथ ने फिर कहा-

क्या ताकती हो, प्रेमा? मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूँ, जैसा तुम समझती हो। मैंने भी आदमी देखे हैं और मैं भी आदमी पहचानता हूँ। मैं तुम्हारी एक-एक बात की गौर से देखता हूँ मगर जितना ही देखता हूँ उतना ही चित्त को दुख होता है। क्योंकि तुम्हारा बर्ताव मेरे साथ फीका है। यद्यपि तुमको यह सुनना अच्छा न मालूम होगा मगर हार कर कहना पड़ता है कि तुमको मुझसे लेश-मात्र भी प्रेम नहीं है। मैने अब तक इस विषय में ज़बान खोलने का साहस नहीं किया था और ईश्वर जानता है कि तुमसे किस क़दर मुहब्बत करता हूँ। मगर मुहब्बत सब कुछ सह सकती है, रुखाई नहीं सह सकती और वह भी कैसी रुखाई जो किसी दूसरे पुरुष के वियोग में उत्पन्न हुई हो। ऐसा कौन बेहाय, निर्लज्ज आदमी होगा जो यह देखे कि उसकी पत्नी किसी दूसरे के लिए वियोगिन बनी हुई है और उसका लहू उबलने न लगे और उसके ह्दय में क्रोध कि ज्वाला धधक न उठे। क्या तुम नहीं जानती हो कि धर्मशास्त्र के अनुसार स्त्री अपने पति के सिवाय किसी दुसरे मनुष्य की ओर कुदृष्टि से देखने से भी पाप की भीगी हो जाती है और उसका पतिव्रत भंग हो जाता है।

प्रेमा तुम एक बहुत ऊँचे घराने की बेटी हो और जिस घराने की तुम बहू हो वह भी इस शहरमें किसी से हेठा नहीं। क्या तुम्हारे लिए यह शर्म की बात नहीं है कि तुम एक बाज़ारों की घूमनेवाली रॉँड़ ब्राह्मणीं के तुल्य भी न समझी जाओ और वह कौन है जिसने तुम्हारा ऐसा निरादर किया? वही अमृतराय, जिसके लिए तुम ओठों पहर मोती पिरोया करती हो। अगर उस दुष्ट के ह्दय में तुम्हारा कुछ भी प्रेम होता तो वह तुम्हारे पिता के बार-बार कहने पर भी तुमको इस तरह धता न बताता। कैसे खेद की बात हैं। इन्हीं ऑंखों ने उसे तुम्हारी तस्वीर को पैरो से रौंदते हुए देखा है। क्या तुमको मेरी बातों का विश्वास नहीं आता? क्या अमृतराय के कर्तव्य से नहीं विदित होता है की उनको तुम्हारी रत्ती-भर भी परवाह नहीं हैं क्या उन्होंने डंके की चोट पर नहीं साबित कर दिया कि वह तुमको तुच्छा समझते है? माना कि कोई दिन ऐसा था कि वह विवाह करने की अभिलाषा रखते थे। पर अब तो वह बात नहीं रही। अब वह अमृतराय है जिसकी बदचलनी की सारे शहर में धूम मची हुई। मगर शोक और अति शोक की बात है कि तुम उसके लिए ऑंसू बहा-बहाकर अपने मेरे खानदान के माथे कालिख का टीका लगाती हो।

दाननाथ मारे क्रोध के काँप रहे थे। चेहरा तमतमाया हुआ था। ऑंखों से चिनगारी निकल रही थी। बेचारी प्रेमा सिर नीचा किये हुए खड़ी रो रही थी। पति की एक-एक बात उसके कलेजे के पार हुई जाती थी। आखिर न रहा गया। दाननाथ के पैरों पर गिर पड़ी और उन्हें गर्म-गर्म ऑंसू की बूँदों से भिगो दिया। दाननाथ ने पैर खसका लिया। प्रेमा को चारपाई पर बैठा दिया ओर बोले-प्रेमा, रोओ मत। तुम्हारे रोने से मेरे दिल पर चोट लगती है। मैं तुमको रुलाना नहीं चाहता। परन्तु उन बातों को कहें बिना रह भी नहीं सकता। अगर यह दिल में रह गई तो नतीजा बुरा पैदा करेगी। कान खोलकर सुनो। मैं तुमको प्राण से अधिक प्यार करता हूँ। तुमको आराम पहुँचाने के लिए हाज़िर हूँ। मगर तुमको सिवाय अपने किसी दूसरे का ख्याल करते नहीं देख सकता। अब तक न जाने कैसे-कैसे मैंने दिल को समझाया। मगर अब वह मेरे बस का नहीं। अब वह यह जलन नहीं सह सकता। मैं तुमको चेताये देता हूँ कि यह रोना-धोना छोड़ा। यदि इस चेताने पर भी तुम मेरी बात न मानो तो फिर मुझे दोष मत देना। बस इतना कहे देता हूँ। कि स्त्री के दो पति कदापि जीते नहीं रह सकते।

यह कहते हुए बाबू दाननाथ क्रोध में भरे बाहर चले आये। बेचारी प्रेमा को ऐसा मालूम हुआ कि मानो किसी ने कलेजे में छुरी मार दी। उसको आज तक किसी ने भूलकर भी कड़ी बात नहीं सुनायी थी। उसकी भावज कभी-कभी ताने दिया करती थी मगर वह ऐसा न होते थे। वह घंटों रोती रही। इसके बाद उसने पति की सारी बातों पर विचार करना शुरु किया और उसके कानों में यह शब्द गूँजने लगे-एक स्त्री के दो पति कदापि जीते नहीं रह सकते।

इनका क्या मतलब है?

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