Page 3 of 5

Re: प्रेमा (उपन्यास)

Posted: 25 Dec 2014 15:25
by Jemsbond
आज से कभी मन्दिर न जाऊँगी

बेचारी पूर्णा, पंडाइन, चौबाइन, मिसराइन आदि के चले जाने के बाद रोने लगी। वह सोचती थी कि हाय। अब मैं ऐसी मनहूस समझी जाती हूं कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगों को मेरी सूरत काटने दौड़ती हैं। अभी नहीं मालूम क्या-क्या भोगना बदा है। या नारायण। तू ही मुझ दुखिया का बेड़ा पार लगा। मुझ पर न जाने क्या कुमति सवार थी कि सिर में एक तेल डलवा लियौ। यह निगोड़े बाल न होते तो काहे को आज इतनी फ़जीहत होती। इन्हीं बातों की सुधि करते करते जब पंडाइन की यह बात याद आ गयी कि बाबू अमृतराय का रोज रोज आना ठीक नहीं तब उसने सिर पर हाथ मारकर कहा-वह जब आप ही आप आते है तो मै कैसे मना कर दूँ। मै। तो उनका दिया खाती हूँ। उनके सिवाय अब मेरी सुधि लेने वाला कौन है। उनसे कैसे कह दूँ कि तुम मत आओ। और फिर उनके आने में हरज ही क्या है। बेचारे सीधे सादे भले मनुष्य है। कुछ नंगे नहीं, शोहदे नहीं। फिर उनके आने में क्या हरज है। जब वह और बड़े आदमियों के घर जाते है। तब तो लोग उनको आँखो पर बिठाते है। मुझ भिखारिन के दरवाजे पर आवें तो मै कौन मुँह लेकर उनको भगा दूँ। नहीं नहीं, मुझसे ऐसा कभी न होगा। अब तो मुझ पर विपत्ति आ ही पड़ी है। जिसके जी में जो आवै कहै।

इन विचारों से छुटटी पाकर वह अपने नियमानुसार गंगा स्नान को चली। जब से पंडित जी का देहांत हुआ था तब से वह प्रतिदिन गंगा नहाने जाया करती थी। मगर मुँह अंधेरे जाती और सूर्य निकलते लौट आती। आज इन बिन बुलाये मेहमानों के आने से देर हो गई। थोड़ी दूर चली होगी कि रास्ते में सेठानी की बहू से भेट हो गई। इसका नाम रामकली था। यह बेचारी दो साल से रँडापा भोग रही थी। आयु १६ अथवा १७ साल से अधिक न होगी। वह अति सुंदरी नख-शिख से दुरूस्त थी। गात ऐसा कोमल था कि देखने वाले देखते ही रह जाते थे। जवानी की उमर मुखडे से झलक रही थी। अगर पूर्णा पके हुए आम के समान पीली हो रही थी, तो वह गुलाब के फूल की भाति खिली हुई थी। न बाल में तेल था, न आँखो में काजल, न मॉँग में संदूर, न दॉँतो पर मिससी। मगर आँखो मे वह चंचलता थी, चाल मे वह लचक और होठों पर वह मनभवानी लाली थी कि जिससे बनावटी श्रृंगार की जरूरत न रही थी। वह मटकती इधर-उधर ताकती, मुसकराती चली जा रही थी कि पूर्णा को देखते ही ठिठक गयी और बड़े मनोहर भाव से हंसकर बोली-आओ बहिन, आओ। तुम तो जानों बताशे पर पैर धर रही हो।

पूर्णा को यह छेड़-छाड़ की बात बुरी मालूम हुई। मगर उसने बड़ी नर्मी से जवाब दिया-क्या करूं बहिन। मुझसे तो और तेज नहीं चला जाता।

रामकली-सुनती हूं कल हमारी डाइन कई चुड़ैलो के साथ तुमको जलाने गयी थी। जानों मुझे सताने से अभी तक जी नहीं भरा। तुमसे क्या कहू बहिन, यह सब ऐसा दुख देती है कि जी चाहता है माहुर खा लूँ। अगर यही हाल रहा तो एक दिन अवश्य यही होना है। नहीं मालूम ईश्वर का क्या बिगाड़ा था कि स्वप्न में भी जीवन का सुख न प्राप्त हुआ। भला तुम तो अपने पति के साथ दो वर्ष तक रहीं भी। मैंने तो उसका मुँह भी नहीं देखा। जब तमाम औरतों को बनाव-सिंगार किये हँसी-खुशी चलते-फिरते देखती हूँ तो छाती पर सापँ लोटने लगता है। विधवा क्या हो गई घर भर की लौंडी बना दी गयी। जो काम कोई न करे वह मै करुं। उस पर रोज उठते जूते, बैठते लात। काजर मत लगाओ। किस्सी मत लगाओ। बाल मत गुँथाओ। रंगीन साड़ियॉँ मत पहनों। पान मत खाओ। एक दिन एक गुलाबी साड़ी पहन ली तो चुड़ैल मारने उठी थी। जी में तो आया कि सर के बाल नोच लूँ मगर विष का घूँट पी के रह गयी और वह तो वह, उसकी बेटियॉँ और दूसरी बहुऍं मुझसे कन्नी काटती फिरती है। भोर के समय कोई मेरा मुँह नहीं देखता। अभी पड़ोस मे एक ब्याह पड़ा था। सब की सब गहने से लद लद गाती बजाती गयी। एक मै ही अभागिनी घर मे पडी रोती रही। भला बहिन, अब कहाँ तक कोई छाती पर पत्थर रख ले। आखिर हम भी तो आदमी है। हमारी भी तो जवानी है। दूसरों का राग-रंग, हँसी, चुहल देख अपने मन मे भी भावना होती है। जब भूख लगे और खाना न मिले तो हार कर चोरी करनी पड़ती है।

यह कहकर रामकली ने पूर्णा का हाथ अपने हाथ में ले लिया और मुस्कराकर धीरे धीरे एक गीत गुनगुनाने लगी। बेचारी पूर्णा दिल में कुढ़ रही थी कि इसके साथ क्यों लगी। रास्ते में हजारों आदमी मिले। कोई इनकी ओर आँखे फाड़ फाड़ घूरता था, कोई इन पर बोलिया बोलता था। मगर पूर्णा सर को ऊपर न उठाती थी। हाँ, रामकली मुसकरा मुसकरा कर बड़ी चपलता से इधर उधर ताकती, आँखे मिलाती और छेड़ छाड़ का जवाब देती जाती थी। पूर्णा जब रास्ते में मर्दो को खडे देखती तो कतरा के निकल जाती मगर रामकली बरबस उनके बीच में से घुसकर निकलती थी। इसी तरह चलते चलते दोनो नदी के तट पर पहुँची। आठ बज गया था। हजारों मर्द स्त्रियॉँ, बच्चे नहा रहे थे। कोई पूजा कर रहा था। कोई सूर्य देवता को पानी दे रहा था। माली छोटी-छोटी डालियों में गुलाब, बेला, चमेली के फूल लिये नहानेवालों को दे रहे थे। चारों और जै गंगा। जै गंगा। का शब्द हो रहा था। नदी बाढ़ पर थी। उस मटमैले पानी में तैरते हुए फूल अति सुंदर मालूम होते थे। रामकली को देखते ही एक पंडे ने कही-'इधर सेठानी जी, इधर।' पंडा जी महाराज पीताम्बर पहने, तिलक मुद्रा लगाये, आसन मारे, चंदन रगड़ने में जुटे थे। रामकली ने उसके स्थान पर जाकर धोती और कमंउल रख दिया।

पंडा-(घूरकर) यह तुम्हारे साथ कौन है?

राम०-(आँखे मटकाकर) कोई होंगी तुमसे मतलब। तुम कौन होते हो पूछने वाले?

पंडा-जरा नाम सुन के कान खुश कर लें।

राम०-यह मेरी सखी हैं। इनका नाम पूर्णा है।

पंडा-(हँसकर) ओहो हो। कैसा अच्छा नाम है। है भी तो पूर्ण चंद्रमा के समान। धन्य भाग्य है कि ऐसे जजमान का दर्शन हुआ।

इतने में एक दूसरा पंडा लाल लाल आँखे निकाले, कंधे पर लठ रखे, नशे में चूर, झूमता-झामता आ पहुँचा और इन दोनो ललनाओं की ओर घूर कर बोला, 'अरे रामभरोसे, आज तेरे चंदन का रंग बहुत चोखा है।

रामभरोसे-तेरी आँखे काहे को फूटे है। प्रेम की बूटी डाली है जब जा के ऐसा चोखा रंग भया।

पंडा-तेरे भाग्य को धन्य हैं यह रक्त चंदन (रामकली की तरफ देखकर) तो तूने पहले ही रगड़ा रक्खा था। परंतु इस मलयागिर (पूर्णा की तरफ इशारा करके) के सामने तो उसकी शोभा ही जाती रही।

पूर्णा तो यह नोक-झोंक समझ-समझ कर झेंपी जाती थी। मगर रामकली कब चूकनेवाली थे। हाथ मटका कर बोली-ऐसे करमठँढ़ियों को थोड़े ही मलयागिर मिला करता है।

रामभरोसे-(पंडा से) अरे बौरे, तू इन बातों का मर्म क्या जाने। दोनो ही अपने-अपने गुण मे चोखे है। एक में सुगंध है तो दूसरे में रंग है।

पूर्णा मन में बहुत लज्जित थी कि इसके साथ कहाँ फँस गयी। अब तक वो नहा-धोके घर पहुँची होती। रामकली से बोली-बहिन, नहाना हो तो नहाओ, मुझको देर होती है। अगर तुमको देर हो तो मैं अकेले जाऊँ।

रामभरोसे-नहीं, जजमान। अभी तो बहुत सबेरा है। आनंदपूर्वक स्नान करो।

पूर्णा ने चादर उतार कर धर दी और साड़ी लेकर नहाने के लिए उतरना चाहती थी कि यकायक बाबू अमृतराय एक सादा कुर्ता पहने, सादी टोपी सर पर रक्खे , हाथ में नापने का फीता लिये चंद ठेकेदारों के साथ अति दिखायी दिये। उनको देखते ही पूर्णा ने एक लंगी घूघंट निकाल ली और चाहा कि सीढ़ियों पर लंबाई-चौड़ाइ नापना था क्योकि वह एक जनाना घाट बनवा रहे थे। वह पूर्णा के निकट ही खड़े हो गये। और कागज पेसिंल पर कुछ लिखने लगे। लिखते-लिखते जब उन्होंने कदम बढ़ाया तो पैर सीढ़ी के नीचे जा पड़ा। करीब था कि वह औधै मुँह गिरे और चोट-चपेट आ जाय कि पूर्णा ने झपट कर उनको सँभाला लिया। बाबू साहब ने चौंककर देखा तो दहिना हाथ एक सुंदरी के कोमल हाथों में है। जब तक पूर्णा अपना घूँघट बढ़ावे वह उसको पहचान गये और बोले-प्यारी, आज तुमने मेरी जान बचा ली।

पूर्णा ने इसका कुछ जवाब न दिया। इस समय न जाने क्यों उसका दिल जोर जोर से धड़क रहा था और आखो में आँसू भरा आता था। 'हाय। नारायण, जोकहीं वह आज गिर पड़ते तो क्या होता...यही उसका मन बेर बेर कहता। 'मैं भले संयोग से आ गयी थी। वह सिर नीचा किये गंगा की लहरों पर टकटकी लगाये यही बातें गुनती रही। जब तक बाबू साहब खड़े रहे, उसने उनकी ओर एक बेर भी न ताका। जब वह चले गए तो रामकली मुसकराती हुई आयी और बोली-बहिन, आज तुमने बाबू साहब को गिरते गिरते बचा लिया आज से तो वह और भी तुम्हारे पैरों पर सिर रकखेगे।

पूर्णा-(कड़ी निगाहों से देखकर) रामकली ऐसी बातें न करो। आदमी आदमी के काम आता है। अगर मैंने उनको सँभाल लिया तो इसमे क्या बात अनोखी हो गयी।

रामकली-ए लो। तुम तो जरा सी बात पर तिनिक गयीं।

पूर्णा-अपनी अपनी रूचि है। मुझको ऐसी बातें नहीं भाती।

रामकली-अच्छा अपराध क्षमा करो। अब सर्कर से दिल्लगी न करूँगी। चलो तुलसीदल ले लो।

पूर्णा-नहीं, अब मै यहाँ न ठहरूँगी। सूरज माथें पसर आ गया।

रामकली-जब तक इधर उधर जी बहले अच्छा है। घर पर तो जलते अंगारों के सिवाय और कुछ नहीं।

जब दोनो नहाकर निकली तो फिर पंडो ने छेड़नाप चाहा, मगर पूर्णा एकदम भी न रूकी। आखिर रामकली ने भी उसका साथ छोड़ना उचित न समझा। दोनो थोड़ी दूर चली होगी। कि रामकली ने कहा-क्यों बहिन, पूजा करने न चलोगी?

पूर्णा-नहीं सखी, मुझे बहुत देर हो जायगी।

राम०-आज तुमको चलना पड़ेगा। तनिक देखो तो कैसे विहार की जगह है। अगर दो चार दिन भी जाओ तो फिर बिना नित्य गये जी न माने।

पूर्णा-तुम जाव, मैं न जाऊँगी। जी नहीं चाहता।

राम०-चलों चलो, बहुत इतराओ मत। दम की दम में तो लौटे आते है।

रास्ते में एक तंबोली की दूकान पड़ी। काठ के पटरों पर सुफेद भीगे हुए कपड़े बिछे थे। उस पर भॉँति-भॉँति के पान मसालों की खूबसूरत डिबियॉँ, सुगंध की शीशियॉँ, दो-तीन हरे-हरे गुलदस्ते सजा कर धरे हुए थे। सामने ही दो बड़े-बड़े चौखटेदार आईने लगे हुए थे। पनवाड़ी एक सजीया जवान था। सर पर दोपल्ली टोपी चुनकर टेडी दे रक्खी थी। बदन में तंजेब का फँसा हुआ कुर्ता था। गले में सोने की तावीजे। आँखो में सुर्मा, माथे पर रोरी, ओठो पर पान की गहरी लीली। इन दोनोंस्त्रियों को देखते ही बोला-सेठानी जी, पान खाती जाव।

रामकली ने चठ सर से चादर खसका दी और फिर उसको एक अनुपम भाव से ओढकर हंसते हुए नयनो से बोली-'अभी प्रसाद नहीं पाया'।

पनवाड़ी-आवो। आवो। यह भी तो प्रसाद ही है। संतों के हाथ की चीज प्रसाद से बढ़कर होती है। यह आज तुम्हारे साथ कौन शक्ति है?

राम-यह हमारी सखी है।

तम्बोली-बहुत अच्छा जोड़ा है। धन्य् भाग्य जो दर्शन हुआ।

रामकली दुकान पर ठमक गयी और शीशे में देख देख अपने बाल सँवारने लगी। उधर पनवाड़ी ने चाँदी के वरक लपेटे हुए बीडे फुरती से बनाये और रामकली की तरफ हाथ बढ़ाया। जब वह लेने को झुकी तो उसने अपना हाथ खींच लिया और हँसकर बोला-तुम्हारी सखी लें तो दें।

राम०-मुँह बनवा आओ, मुँह। (पान लेकर) लो, सखी, पान खाव।

पूर्णा-मैं न खाऊँगी।

राम-तुम्हारी क्या कोई सास बैठी है जो कोसेगी। मेरी तो सास मना करती है। मगर मैं उस पर भी प्रतिदिन खाती हूँ।

पूर्णा-तुम्हारी आदत होगी मैं पान नहीं खाती।

राम-आज मेरी खातिर से खाव। तुम्हें कसम है।

रामकली ने बहुत हठ की मगर पूर्णा ने गिलौरियॉँ न लीं। पान खाना उसने सदा के लिए त्याग दिया था। इस समय तक धूप बहुत तेज़ हो गयी थी। रामकली से बोली-किधर है तुम्हारा मंदिर? वहाँ चलते-चलते तो सांझ हो जायगी।

राम-अगर ऐसे दिन कटा जाता तो फिर रोना काहे का था।

पूर्णा चुप हो गयी। उसको फिर बाबू अमृतराय के पैर फिसलने का ध्यान आ गया और फिर मन में यह प्रश्न किया कि कहीं आज वह गिर पड़ते तो क्या होता। इसी सोच मे थी कि निदान रामकली ने कहा-लो सखी, आ गया मंदिर।

पूर्णा ने चौंककर दाहिनी ओर जो देखा तो एक बहुत ऊँचा मंदिर दिखायी दिया। दरवाजे पर दो बड़े-बड़े पत्थर के शेर बने हुए थे। और सैकड़ो आदमी भीतर जाने के लिए धक्कम-धक्का कर रहे थे। रामकली पूर्णा को इस मंदिर में ले गयी। अंदर जाकर क्या देखती है कि पक्का चौड़ा आँगन है जिसके सामने से एक अँधेरी और सँकरी गली देवी जी के धाम को गयी है। दाहिनी ओर एक बारादरी है जो अति उत्तम रीति पर सजी हुई है। यहाँ एक युवा पुरूष पीला रेशमी कोट पहने, सर पर खूबसूरत गुलाबी रंग की पगड़ी बॉँधे, तकिया-मसनद लगाये बैठा है।पेचवान लगा हुआ है। उगालदान, पानदान और नाना प्रकार की सुंदर वस्तुओं से सारा कमरा भूषित हो रहा है। उस युवा पूरूष के सामने एक सुधर कामिनी सिंगार किये विराज रही है। उसके इधर-उधर सपरदाये बैठे हुए स्वर मिला रहे है। सैकड़ो आदमी बैठे और सैकड़ो खड़े है। पूर्णा ने यह रंग देखा तो चौंककर बोली-सखी, यह तो नाचघर सा मालूम होता है। तुम कहीं भूल तो नहीं गयीं?

राम-(मुस्कराकर) चुप। ऐसा भी कोई कहता है। यही तो देवी जी का मदिर है। वह बरादरी में महंत जी बैठे है। देखती हो कैसा रँगीला जवान है। आज शुक्रवार है, हर शुक्र को यहाँ रामजनी का नाच होता है।

इस बीच मे एक ऊँचा आदमी आता दिखायी दिया। कोई छ: फुट का कद था। गोरा-चिटठा, बालों में कंधी कह हुई, मुँह पान से भरे, माथे पर विभूति रमाये, गले में बड़े-बड़े दानों की रूद्राक्ष की माला पहने कंधे पर एक रेशमी दोपटटा रक्खे, बड़ी-बड़ी और लाल आँखों से इधर उधर ताकता इन दोनों स्त्रियों के समीप आकर खड़ा हो गया। रामकली ने उसकी तरफ कटाक्ष से देखकर कहा-क्यों बाबा इन्द्रवत कुछ परशाद वरशाद नहीं बनाया?

इन्द्र-तुम्हारी खातिर सब हाजिर है। पहले चलकर नाच तो देखो। यह कंचनी काश्मीर से बुलायी गयी है। महंत जी बेढब रीझे हैं, एक हजार रूपया इनाम दे चुके हैं।

रामकली ने यह सुनते ही पूर्णा का हाथ पकड़ा और बारादरी की ओर चली। बेचारी पूर्णा जाना न चाहती थी। मगर वहाँ सबके सामने इनकार करते भी बन न पड़ता था। जाकर एक किनारे खड़ी हो गयी। सैकड़ों औरतें जमा थीं। एक से एक सुन्दर गहने लदी हुई । सैकड़ो मर्द थे, एक से एक गबरू ,उत्तम कपड़े पहले हुए। सब के सब एक ही में मिले जुले खड़े थे। आपस में बीलियॉँ बोली जाती थीं, आँखे मिलायी जाती थी, औरतें मर्दो में। यह मेलजोल पूर्णा को न भाया। उसका हियाव न हुआ कि भीड़ में घुसे। वह एक कोने में बाहर ही दबक गयी। मगर रामकली अन्दर घुसी और वहाँ कोई आध घण्टे तक उसने खूब गुलछर्रे उड़ाये। जब वह निकली तो पसीने में डूबी हुई थी।तमाम कपड़े मसल गये थे।

पूर्णा ने उसे देखते ही कहा-क्यों बहिन, पूजा कर चुकीं? अब भी घर चलोगी या नहीं?

राम-(मुस्कराकर) अरे, तुम बाहर खडी रह गयीं क्या?

जरा अन्दर चलके देखो क्या बहार है? ईश्वर जाने कंचनी गाती क्या है दिल मसोस लेती है।

पूर्णा-दर्शन भी किया या इतनी देर केवल गाना ही सुनती रहीं?

राम-दर्शन करने आती है मेरी बला। यहाँ तो दिल बहलाने से काम है। दस आदमी देखें दस आदमियों से हँसी दिल्लगी की, चलों मन आन हो गया। आज इन्द्रदत्त ने ऐसा उत्तम प्रसाद बनाया है कि तुमसे क्या बखान करूँ।

पूर्णा -क्या है ,चरणामृत?

राम-(हॅसकर) हाँ, चरणामृत में बूटी मिला दी गयी है।

पूर्णा-बूटी कैसी?

राम-इतना भी नहीं जानती हो, बूटी भंग को कहते हैं।

पूर्णा-ऐहै तुमने भंग पी ली।

राम-यही तो प्रसाद है देवी जी का। इसके पीने में क्या हर्ज है। सभी पीते है। कहो तो तुमको भी पिलाऊँ।

पूर्णा-नहीं बहिन, मुझे क्षमा करो।

इधर यही बातें हो रही थी कि दस-पंद्रह आदमी बारादरी से आकर इनके आसपास खड़े हो गये।

एक-(पूर्णा की तरफ घूरकर) अरे यारो, यह तो कोई नया स्वरूप है।

दूसरा-जरा बच के चलो, बचकर।

इतने में किसी ने पूर्णा के कंधे से धीरे से एक ठोका दिया। अब वह बेचारी बड़े फेर में पड़ी। जिधर देखती है आदमी ही आदमी दिखायी देती है। कोई इधर से हंसता है कोइ उधर से आवाजें कसता है। रामकली हँस रही है। कभी चादर को खिसकाती है। कभी दोपटटे को सँभालती है। एक आदमी ने उससे पूछा-सेठानी जी, यह कौन है?

रामकली-यह मेरी सखी है, जरा दर्शन कराने को लायी थी।

पूर्णा-नहीं बहिन, मुझे क्षमा करो।

इधर यही बातें हो रही थी कि दस-पंद्रह आदमी बारादरी से आकर इनके आसपास खड़े हो गये।

एक-(पूर्णा की तरफ घूरकर) अरे यारो, यह तो कोई नया स्वरूप है।

दूसरा-जरा बच के चलो, बचकर।

इतने में किसी ने पूर्णा के कंधे से धीरे से एक ठोका दिया। अब वह बेचारी बड़े फेर में पड़ी। जिधर देखती है आदमी ही आदमी दिखायी देती है। कोई इधर से हंसता है कोइ उधर से आवाजें कसता है। रामकली हँस रही है। कभी चादर को खिसकाती है। कभी दोपटटे को सँभालती है। एक आदमी ने उससे पूछा-सेठानी जी, यह कौन है?

रामकली-यह मेरी सखी है, जरा दर्शन कराने को लायी थी।

दूसरा-इन्हें अवश्य लाया करों। ओ हो। कैसा खुलता हुआ रंग है।

बारे किसी तरह इन आदमियों से छुटकारा हुआ। पूर्णा घर की ओर भागी और कान पकड़े कि आज से कभी मंदिर न जाउँगी।

Re: प्रेमा (उपन्यास)

Posted: 25 Dec 2014 15:26
by Jemsbond
कुछ और बातचीत

पूर्णा ने कान पकड़े कि अब मंदिर कभी न जाऊगी। ऐसे मंदिरों पर दई का कोप भी नहीं पड़ता। उस दिन से वह सारे घर ही पर बैठी रहती। समय काटना पहाड़ हो जाता। न किसी के यहाँ आना न जाना। न किसी से भेट न मुलाकात। न कोई काम न धंधा। दिन कैसे कटे। पढ़ी-लिखी तो अवश्य थी, मगर पढे क्या। दो-चार किस्से-कहानी की पुरानी किताबें पंडित जी की संदूक में पड़ी हुई थी, मगर उनकी तरफ देखने को अब जी नहीं चाहता था। कोई ऐसा न था जो बाजार से लाती मगर वह किताबों का मोल कया जाने। दो-एक बार जी में आया कि कोई पुस्तक प्रेमा के घर में मँगवाये। मगर फिर कुछ समझकर चुप हो रही। बेल-बूटे बनाना उसको आते ही न थें। कि उससे जी बहलाये, हाँ सीना आता था। मगर सीये किसके कपड़े। नित्य इस तरह बेकाम बैठे रहने से वह हरदम कुछ उदास सी रहा करती। हाँ, कभी-कभी पंडाइन और चौबाइन अपने चेले-चापड़ों के साथ आकर कुछ सिखावन की बातें सुना जाती थीं। मगर जब कभी वह कहतीं कि बाबू अमृतराय का आना ठीक नहीं तो पूर्णा साफ-साफ कह देती कि मैं उनको आने से नहीं रोक सकती और न कोई ऐसा बर्ताव कर सकती हूँ जिससे वह समझें कि मेरा आना इसको बुरा लगता है। सच तो यह है कि पूर्णा के हदय में अब अमृतराय के लिए प्रेम का अंकुर जमने लगा था। यद्यपि वह अभी तक यही समझती थी कि अमृतराय यहाँ दया की राह से आया करते है। मगर नहीं मालूम क्यों वह उनके आने का एक-एक दिन गिना करती। और जब इतवार आता तो सबेरे ही से उनके शुभगमन की तैयारियॉँ होने लगती। बिल्लो बड़े प्रेम से सारा मकान साफ करती। कुर्सियां और तस्वीरों पर से सात दिन की जमी हुई धूल-मिटटी दूर करती। पूर्णा खुद भी अच्छे और साफ कपड़े पहनती। अब उसके दिल मे आप ही आप बनाव-सिंगार करने की इच्छा होती थी। मगर दिल को रोकती। जब बाबू अमृतराय आ जाते तो उसका मलिन मुख कुंदन की तरह दमकने लगता। उसकी प्यारी सूरत और भी अधिक प्यारी मालूम होने लगती। जब तक बाबू साहब रहते उसे अपना घर भरा मालूम होता। वह इसी कोशिश मे रहती कि ऐसी क्या बात करू जिसमें वह प्रसन्न होकर घर को जावें। बाबू साहब ऐसे हँसमुख थे कि रोते को भी एक बार हँसा देते। यहाँ वह खूब बुलबुल की तरह चहकते। कोई ऐसी बात न कहते जिससे पूर्णा दुखित हो। जब उनके चलने का समय आता तो वह कुछ उदास हो जाती। बाबू साहब इसे ताड़ जाते और पूर्णा की खातिर से कुछ देर और बैठते। इसी तरह कभी-कभी घंटों बीत जाते। जब दिया में बत्ती पड़ने की बेला आती तो बाबू साहब चले जाते। पूर्णा कुछ देर तक इधर-उधर बौखलाई हुई धूमती। जो जो बाते हुई होती, उनको मन में दोहराती। यह समय उस आनंददायक स्वप्न-सा जान पड़ता था जो आँख के खुलते ही बिलाय जाता है।

इसी तरह कई मास और बीत गये और आखिर जो बात अमृतराय के मन में थी वह पूरी हो गयी। अर्थात पूर्णा को अब मालूम होने लगा कि मेरे दिल में उनकी मुहब्बम समाती जाती है। और उनका दिल भी मेरी मुहब्बत से खाली नहीं। अब पूर्णा पहले से ज्यादा उदास रहने लगी। हाय। ओ बौरे मन। क्या एक बार प्रीति लगाने से तेरा जी नहीं भरा जो तू फिर यह रोग पाल रहा है। तुझे कुछ मालूम है कि इस रोग की औषधि क्या है? जब तू यह जानता है तो फिर क्यो, किस आशा पर यह स्नेह बढ़ा रहा है और बाबू साहब। तुमको क्या कहना मंजूर है? तुम क्या करने पर आये हो? तुम्हारे जी में क्या है? क्या तुम नहीं जानते कि यह अग्नि धधकेगी तो फिर बुझाये न बुझेगी? मुझसे ऐसा कौन-सा गुण है? कहाँ की बड़ी सुंदरी हूँ जो तुम प्रेमा, प्यारी प्रेमा, तो त्यागे देते हो? वह बेर बेर मुझको बुलाती है। तुम्हीं बताओ, कौन मुँह लेकर उसके पास जाऊँ और तुम तो आग लगाकर दूर से तमाशा देखोगे। इसे बुझायेगा कौन?बेचारी पूर्णा इन्हीं विचारों में डूबी रहती। बहुत चाहती कि अम़तराय का ख्याल न आने पावे, मगर कुछ बस न चलता।

अपने दिल का परिचय उसको एक दिन यों मिला कि बाबू अमृतराय नियत समय पर नहीं आये। थोड़ी देर तक तो वह उनकी राह देखती रही मगर जब वह अब भी न आये तब तो उसका दिल कुछ मसोसने लगा। बड़ी व्याकुलता से दौड़ी हुई दीवाजे पर आयी और आध घंटे तक कान लगाये खड़ी रही, फिर भीतर आयी और मन मारकर बैठ गयी। चित्त की कुछ वही अवस्था होने लगी जो पंडित जी के दौरे पर जाने के वक्त हुआ करती। शंका हुई कि कहीं बीमार तो नहीं हो गये। महरी से कहा-बिल्लो, जरा देखो तो बाबू साहब का जी कैसा? नहीं मालूम क्यों मेरा दिल बैठा जाता है। बिल्लो लपकी हुई बाबू साहब के बँगले पर पहुँची तो ज्ञात हुआ कि वह आज दो तीन नौकरों को साथ लेकर बाजार गये हुए है। अभी तक नहीं आये। पुराना बूढ़ा कहार आधी टॉँगों तक धोती बॉँधे सर हिलाता हुआ आया और कहने लगा-'बेटा बड़ा खराब जमाना आवा है। हजार का सउदा होय तो, दुइ हजार का सउदा होय तो हमही लै आवत रहेन। आज खुद आप गये है। भला इतने बड़े आदमी का उस चाहत रहा। बाकी फिर सब अंग्रेजी जमाना आया है। अँग्रेजी पढ़-पढ़ के जउन न हो जाय तउन अचरज नहीं। बिल्लो बूढे कहर केसर हिलाने पर हँसती हुई घर को लौटी। इधर जब से वह आयी थी पूर्णा की विचित्र दशा हो रही थी। विकल हो होकर कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती। किसी तरह चैन ही न आता। जान पड़ता कि बिल्लो के आने में देर हो रही है। कि इतने में जूते ही आवाज सुनायी दी। वह दौड़ कर द्वार पर आयी और बाबू साहब को टहलते हुए पाया तो मानो उसको कोई धन मिल गया। झटपट भीतर से किवाढ खोल दिया। कुर्सी रख दी और चौखट पर सर नीचा करके खड़ी हो गयी।

अमृतराय-बिल्लो कहीं गयी है क्या?

पूर्णा-(लजाते हुए) हाँ, आप ही के यहाँ तो गयी है।

अमृत०-मेरे यहाँ कब गयी? क्यो कुछ जरूरत थी?

पूर्णा-आपके आने में विलंब हुआ तो मैने शायद जी न अच्छा हो। उसको देखने के लिए भेजा।

अमृत०-(प्यार से देखकर) बीमारी चाहे कैसी ही हो, वहमुझे यहाँ आने से नहीं रोक सकती। जरा बाजार चला गया था। वहाँ देर हो गयी।

यह कहकर उन्होंने एक दफे जोर से पुकारा, 'सुखई, अंदर आओ' और दो आदमी कमरे में दाखिल हुए। एक के हाथ मे ऐक संदूक था और दूसरे के हाथ में तह किये हुए कपड़े। सब सामान चौकी पर रख दिया गया। बाबू साहब बोले-पूणा, मुझे पूरी आशा है कि तुम दो चार मामूली चीजें लेकर मुझे कृतार्थ करोगी।(हंसकर) यह देर मे आने का जुर्माना है।

पूर्णा अचम्भे में आ गई। यह क्या। यह तो फिर वही स्नेह बढ़ाने वाली बातें है। और इनको खरीदने के लिए आप ही बाजार गये थे। अमृतराय। तुम्हारे दिल में जो है वह मै जानती हूं। मेरे दिल में जो है वह तुम भी जानते हो। मगर इसका नतीजा? इसमें संदेह नहीं कि इन चीजों की पूर्णा को बहुत जरूरत थी। पंडित जी की मोल ली हुई सारिया अब तक लंगे तंगे चली थी। मगर अब पहनने को कोई कपड़े न थे। उसने सोचा था कि अब की जब बाबू साहब के यहा से मासिक तनख्वाह मिलेगी तो मामूली सारियॉँ मगा लूँगी। उसे यह क्या मालूम था कि बीच में बनारसी और रेशमी सारियों का ढेर लग जायगा। पहिले तो वह स्त्रियों की स्वाभाविक अत्यभिलाषा से इन चीजों को देखने लगी मगर फिर यह चेत कर कि मेरा इस तरह चीजो पर गिरना उचित नहीं है वह अलग हट गयी और बोली-बाबू साहब। इस अनुग्रह के लिए मै आपको धन्यवाद देती हूँ, मगर यह भारी-भारी जोड़े मेरे किस काम के। मेरे लिए मोटी-झोरी सारियॉँ चाहिए। मैं इन्हे पहनूगी तो कोई क्या कहेगा।

अमृतराय-तुमने ले लिया। मेरी मेहनत ठिकाने लगी, और मै कुछ नहीं जानता।

इतने में बिल्लो पहुँची और कमरे में बाबू साहब को देखते ही निहाल हो गयी। जब चौकी पर दृष्टि पड़ी और इन चीजों को देखा तो बोली-क्या इनके लिए आप बाजार गये थे। बूढा कहर रो रहा था कि मेरी दस्तूरी मारी गयी।

अमृतराय-(दबी जबान से) वह सब कहार मेरे नौकर हैं। मेरे लिए बाजार से चीजें लाते है। तुम्हारे सर्कार का मै चाकर हूँ।

बिल्लो यह सुनकर मुसकराती हुई भीतर चली गई। पूर्णा के कान में भी भनक पड़ गयी थी। बोली-उलटी बात न कहिए। मैं तो खुद आपकी चेरियो कीचेरी हूँ। इसके बाद इधर-उधर की कुछ बातें हुई। माघ-पूस के दिन थे, सरदी खूब पड़ रही थी। बाबू साहब देर तक न बैठ सके और आठ बजते बजते वह अपने घर को सिधारे। उनके चले जाने के बाद पूर्णा ने जो संदूक खोला तो दंग रह गयी। स्त्रियो के सिंगार की सब सामग्रियॉँ मौजूद थीं और जो चीज थी सुंदर और उत्तम थी। आइना, कंघी, सुगंधित तेलों की शीशियॉँ, भॉँति'भाति के इत्र, हाथों के कंगन, गले का चंद्रहार, जड़ाऊ, एक रूपहला पानदान, लिखने पढने के सामान से भरी एक संदूकची, किस्से-कहानी की कितबों, इनके अतिरिक्त और भी बहुत-सी चीजें बड़ी उत्तम रीति से सजाकर धरी हुइ थी। कपड़ो का बेठन खोला तो अच्छी से अच्छी सारिया दिखायी दी। शर्बती, धानी, गुलाबी, उन पर रेशम के बेल बूट बने हुए। चादरे भारी सुनहरे काम की। बिल्लो इन चीजो को देख-देख फूली न समाती थी। बोली-बहू। यह सब चीजें तुम पहनोगी तो रानी हो जाओगी-रानी।

पूर्णा-(गिरी हुई आवाज में) कुछ भंग खा गयी हो क्या बिल्लों। मै यह चीजें पहनूँगी तो जीती बचूँगी। चौबाइन और सेठानी ताने दे देकर जान ले लेगी।

बिल्लो-ताने क्या देंगी, कोई दिल्ल्गी है। इसमें उनके बाप का क्या इजारा। कोई उनसे मांगने जाता है।

पूर्णा ने महरी को आश्चर्य की आँखो से देखा। यही बिल्लो है जो अभी दो घंटे पहले चौआइन और पडाइन से सम्मति करती थी और मुझे बेर-बेर पहनने-ओढ़ने से बर्जा करती थी। यकायक यह क्या कायापलट हो गयी। बोली-कुछ संसार के कहने की भी तो लाज है।

बिल्लो-मै यह थोड़ा ही कहती हूँ कि हरदम यह चीजें पहना करों। जब बाबू साहब आवें थोड़ी देर के लिए पहन लिया।,

पूर्णा(लजाकर)-यह सिंगार करके मुझसे उनके सामने क्योंकर निकला जायगा। तुम्हें याद है एक बेर प्रेमा ने मेरे बाल गूँध दिये थे। तुमसे क्या कहूँ। उस दिन वह मेरी तरफ ऐसा ताकते थे जैसे कोई किसी पर जादू करे। नहीं मालूम क्या बात है कि उसी दिन से वह जब कभी मेरी ओर देखते है तो मेरी छाती-धड़ धड करने लगती है। मुझसे जान-बूझकर फिर ऐसी भूल न होगी।

बिल्लो-बहू, उनकी मरजी ऐसी ही है तो क्या करोगी, इन्हीं चीजों के लिए कल वह बाजार गये थे। सैकड़ो नौकर-चाकर है मगर इन्हें आप जाकर जाये। तुम इनको न पहनोगी तो वह अपने दिल में क्या कहेंगे।

पूर्णा-(आँखो में आँसू भरकर) बिल्लो। बाबू अमृतराय नहीं मालूम क्या करने वाले है। मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ। वह मुझसे दिन-दिन अधिक प्रेम बढ़ाते जाते है और मैं अपने दिल को क्या कहूँ, तुमसे कहते लज्जा आती है। वह अब मेरे कहने में नहीं रहा। मोहल्ले वाले अलग बदनाम कर रहे है। न जाने ईश्वर को क्या करना मंजूर है।

बिल्लो ने इसका कुछ जवाब न दिया। पूर्णा ने भी उस दिन खाना न बनाया। सॉंझ ही से जाकर चारपाई पर लेट रही। दूसरे दिन सुबह को उठकर उसने वह किताबें पढ़ना शुरू की, जो बाबू सहाब जाये थे। ज्यों-ज्यों वह पढ़ती उसको ऐसा मालूम होता कि कोई मेरी ही दुख की कहानी कह रहा है। इनके पढ़ने में जो जी लगा तो इतवार का दिन आया। दिन निकलते ही बिल्लो ने हँसकर कहा-आज बाबू साहब के आने का दिन है।

पूर्णा-(अनजान बनकर) फिर?

बिल्लो-आज तुमको जरूर गहने पहनने पड़ेगे।

पूर्णा-(दबी आवाज से) आज तो मेरे सर में पीड़ा हो रही है।

बिल्लो-नौज, तुम्हारे बैरी का सर दर्द करे। इस बहाने से पीछा न छूटेगा।

पूर्णा-और जो किसी ने मुझे ताना दिया तो तु जानना।

बिल्लो-ताना कौन रॉँड देगी।

सबेरे ही से बिल्लो ने पूर्णा का बनाव-सिंगार करना शुरू किया। महीनों से सर न मला गया था। आज सुगंधित मसाले से मला गया, तेल डाला गया, कंघी की गयी, बाल गूँथे गये और जब तीसरे पहर को पूर्णा ने गुलाबी कुर्ती पहनकर उस रेशमी काम की शर्बती सारी पहनी, गले मे हार और हाथों में कंगन सजाये तो सुंदरता की मूर्ति मालूम होने लगी। आज तक कभी उसने ऐसे रत्न जड़ित गहने और बहुमूल्य कपड़े न पहने थे। और न कभी ऐसी सुघर मालूम हुई थी। वह अपने मुखारविंद को आप देख देख कुछ प्रसन्न भी होती थी, कुछ लजाती भी थी और कुछ शोच भी करती थी। जब सॉँझ हुई तो पूर्णा कुछ उदास हो गयी। जिस पर भी उसकी आँखे दरवाजे पर लगी हुई थीं और वह चौंक कर ताकती थी कि कहीं अमृतराय तो नहीं आ गये। पॉँच बजते बजते और दिनों से सबेरे बाबू अमृतराय आये। कमरे में बैठे, बिल्लो से कुशलानंद पूछा और ललचायी हुई आँखो से अंदर के दरवाजे की तरफ ताकने लगे। मगर वहाँ पूर्णा न थीं, कोई दस मिनट तक तो उन्होंने चुपचाप उसकी राह देखी, मगर जब अब भी न दिखायी दी तो बिल्लो से पूछा-क्यो महरी, आज तुम्हारी सर्कार कहाँ है?

बिल्लो-(मुस्कराकर) घर ही में तो है।

अमृत०-तो आयी क्यों नहीं। क्या आज कुछ नाराज है क्या?

बिल्लो-(हूंसकर) उनका मन जाने।

अमृत०-जरा जाकर लिवा जाओ। अगर नाराज हों तो चलकर मनाऊँ।

यह सुनकर बिल्लो हँसती हुई अंदर गई और पूर्णा से बोली-बहू, उठोगी या वह आप ही मनाने आते है।

पूर्णा-बिल्लो, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, जाकर कह दो, बीमार है।

बिल्लो-बीमारी का बहाना करोगी तो वह डाक्टर को लेने चले जायॅगे।

पूर्णा-अच्छा, कह दो, सो रही है।

बिल्लो-तो क्या वह जगाने न आऍंगे?

पूर्णा-अच्छा बिल्लो, तुम ही केई बहाना कर दो जिससे मुझे जाना न पड़े।

बिल्लो-मैं जाकर कहे देती हूँ कि वह आपको बुलाती है।

पूर्णा को कोई बहाना न मिला। वह उठी और शर्म से सर झुकाये, घूँघट निकाले, बदन को चुराती, लजाती, बल खाती, एक गिलौरीदान लिये दरवाजे परआकर खड़ी हो गइ अमृतराय ने देखा तो अचम्भे में आ गये। आँखे चौधिया गयीं। एक मिनट तक तो वह इस तरह ताकते रहे जैसे कोई लड़के खिलौने को देखे। इसके बाद मुस्कराकर बोले-ईश्वर, तू धन्य है।

पूर्णा-(लजाती हुई) आप कुशल से थे?

अमृत०-(तिर्छी निगाहों से देखकर) अब तक तो कुशल से था, मगर अब खैरियत नहीं नजर आती।

पूर्णा समझ गयी, अमृतराय की रंगीली बातों का आनंद लेते लेते वह बोलने मे निपुण हो गयी थी। बोली-अपने किये का क्या इलाज?

अमृत०-क्या किसी को अपनी जान से बैर है।

पूर्णा ने लजाकर मुँह फेर लिया। बाबू साहब हँसने लगे और पूर्णा की तरफ प्यार की निगाहों से देखा। उसकी रसिक बातें उनको बहुत भाइ, कुछ काल तक और ऐसी ही रस भरी बाते होती रहीं। पूर्णा को इस बात की सुधि भी न थी कि मेरा इस तरह बोलना चालना मेरे लिए उचित नहीं है। उसको इस वक्त न पंडाइन का डर था, न पडोसियों का भय। बातों ही बातों में उसने मुसकराकर अमृतराय से पूछा-आपको आजकल प्रेमा का कुछ समाचार मिला है?

अमृत०-नहीं पूर्णा, मुझे इधर उनकी कुछ खबर नहीं मिली। हाँ, इतना जानता हूँ कि बाबू दाननाथ से ब्याह की बातचीत हो रही है।

पूर्णा-बाबू दाननाथ तो आपके मित्र है?

अमृत०-मित्र भी है और प्रेमा के योगय भी है।

पूर्णा-यह तो मै न मानूगी। उनका जोड़ है तो आप ही से है। हॉ, आपका ब्याह भीतो कहीं ठहरा था?

अमृत०-हाँ, कुछ बातचीत हो रही थी।

पूर्णा-कब तक होने की आशा है?

अमृत०-देखे अब कब भाग्य जागता है। मैं तो बहुत जल्दी मचा रहा हूं।

पूर्णा-तो क्या उधर ही से खिंचाव है। आश्चर्य की बात है।

अमृत०-नहीं पूर्णा, मै जरा भाग्यहीन हूँ। अभी तक सिवाय बातचीत होने के और कोई बात तय नहीं हुई।

पूर्णा-(मुसकराकर) मुझे अवश्य नवता दीजिएगा।

अमृत०-तुम्हारे ही हाथों में तो सब कु है। अगर तुम चाहो तो मेरे सर सेहरा बहुत जल्द बँध जाए।

पूर्णा भौचक होकर अमृतराय की ओर देखने लगी। उनका आशय अब की बार भी वह न समझी। बोली-मेरी तरफ से आप निश्चित रहिए। मुझसे जहाँ तक हो सकेगा उठा न रखूँगी।

अमृत०-इन बातों को याद रखना, पूर्णा, ऐसा न हो भूल जाओ तो मेरे सब अरमान मिटटी में मिल जाऍं।

यह कहकर बाबू अमृतराय उठे और चलते समय पूर्णा की ओर देखा। उसकी आँखे डबडबायी हुई थी, मानो विनय कर रही थी कि जरा देर और बैठिए। मगर अमृतराय को कोइ जरूरी काम था धीरे से उठ खड़े हुए और बोले-जी तो नही चाहता कि यहाँ से जाऊँ। मगर आज कुछ काम ही ऐसा आ पड़ा। यह कहा और चल दिये। पूर्णा खड़ी रोती रह गई।

Re: प्रेमा (उपन्यास)

Posted: 25 Dec 2014 15:27
by Jemsbond
तुम सचमुच जादूगर हो

नौ बजे रात का समय था। पूर्णा अँधेरे कमरे में चारपाई पर लेटी हुई करवटें बदल रही है और सोच रही है आखिर वह मुझेस क्या चाहते है? मै तो उनसे कह चुकी कि जहाँ तक मुझसे हो सकेगा आपका कार्य सिद्व करने में कोई बात उठा न रखूँगी। फिर वह मुझसे कितना प्रेम बढ़ाते है। क्यों मेरे सर पर पाप की गठरी लादते है मै उनकी इस मोहनी सूरत को देखकर बेबस हुई जाती हूँ।

मैं कैसे दिल को समझाऊ? वह तो प्रेम रस पीकर मतवाला हो रहा है। ऐसा कौन होगा जो उनकी जादूभरी बातें सुनकर रीझ न जाय? हाय कैसा कोमल स्वभाव है। आँखे कैसी रस से भरी है। मानो हदय में चुभी जाती है।

आज वह और दिनों से अधिक प्रसन्न थे। कैसा रह रहकर मेरी और ताकते थे। आज उन्होने मुझे दो-तीन बार 'प्यारी पूर्णा' कहा। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करनेवाले है? नारायण। वह मुझसे क्या चाहते है। इस मोहब्बत का अंत क्या होगा।

यही सोचते-सोचते जब उसका ध्यान परिणाम की ओर गया तो मारे शर्म के पसीना आ गया। आप ही आप बोल उठी।

न......न। मुझसे ऐसा न होगा। अगर यह व्यवहार उनका बढ़ता गया तो मेरे लिए सिवाय जान दे देने के और कोई उपाय नहीं है। मैं जरूर जहर खा लूँगी। नही-नहीं, मै भी कैसी पागल हो गयी हूँ। क्या वह कोई ऐसे वैसे आदमी है। ऐसा सज्जन पुरूष तो संसार में न होगा। मगर फिर यह प्रेम मुझसे क्यों लगाते है। क्या मेरी परीक्षा लेना चाहती है। बाबू साहब। ईश्चर के लिए ऐसा न करना। मै तुम्हारी परीक्षा में पूरी न उतरूँगी।

पूर्णा इसी उधेड़-बुन मे पड़ी थी कि नींद आ गयी। सबेरा हुआ। अभी नहाने जाने की तैयारी कर रही थी कि बाबू अमुतराय के आदमी ने आकर बिल्लो को जोर से पुकारा और उसे एक बंद लिफाफा और एक छोटी सी संदूकची देकर अपनी राह लगा। बिल्लो ने तुरंत आकर पूर्णा को यह चीजें दिखायी।

पूर्णा ने कॉँपते हुए हाथों से खत लिया। खोला तो यह लिखा था-

'प्राणप्यारी से अधिक प्यारी पूर्णा।

जिस दिन से मैंने तुमको पहले पहल देखा था, उसी दिन से तुम्हारे रसीले नैनों के तीर का घायल हो रहा हूँ और अब घाव ऐसा दुखदायी हो गया है कि सहा नहीं जाता। मैंने इस प्रेम की आग को बहुत दबाया। मगर अब वह जलन असहय हो गयी है। पूर्णा। विश्वास मानो, मै तुमको सच्चे दिल से प्यार करता हूं। तुम मेरे हदय कमल के कोष की मालिक हो। उठते बैठते तुम्हारा मुसकराता हुआ चित्र आखों के सामने फिरा करता है। क्या तुम मुझ पर दया न करोगी? मुझ पर तरस न खाओगी? प्यारी पूर्णा। मेरी विनय मान जाओ। मुझको अपना दास, अपना सेवक बना लो। मै तुमसे कोई अनुचित बात नहीं चाहता। नारायण। कदापि नहीं, मै तुमसे शास्त्रीय रीति पर विवाह करना चाहता हूँ। ऐसा विवाह तुमको अनोखा मालूम होगा। तुम समझोगी, यह धोखे की बात है। मगर सत्य मानो, अब इस देश में ऐसे विवाह कहीं कहीं होने लगे है। मै तुम्हारे विरह में मर जाना पसंद करूँगा, मगर तुमको धोखा न दूंगा।

'पूर्णा। नही मत करो। मेरी पिछली बातों को याद करो। अभी कल ही जब मैंने कहा कि 'तुम चाहो तो मेरे सर बहुत जल्द सेहरा बँध सकता है।' तब तुमने कहा था कि 'मै भर शक्ति कोई बात उठा न रखूँगी। अब अपना वादा पूरा करो। देखो मुकर मत जाना।

'इस पत्र के साथ मैं एक जहाऊ कंगन भेजता हू। शाम को मैं तुम्हारे दर्शन को आऊँगा। अगर यह कंगन तुम्हारी कलाई पर दिखाइ दिया तो समझ जाऊँगा कि मेरी विनय मान ली गयी। अगर नहीं तो फिर तुम्हें मुँह न दिखाऊँगा।

तुम्हारी सेवा का अभिलाषी अमृतराय।

पूर्णा ने बड़े गौर से इस खत को पढ़ा और शोच के अथाह समुद्र में गोते खाने लगी। अब यह गुल खिला। महापुरूष ने वहाँ बैठकर यह पाखंड रचा। इस धूर्मपन को देखो कि मुझसे बेर बेर कहते थे कि तुम्हारे ही ऊपर मेरा विवाह ठीक करने का बोझ है, मै बौरी क्या जानूँ कि इनके मन में क्या बात समायी है। मुझसे विवाह का नाम लेते उनको लाज नहीं होती। अगर सुहागिन बनना भाग में बादा होता तो विधवा काहे िो होती। मै अब इनको क्या जवाब दूँ। अगर किसी दूसरे आदमी ने यह गाली लिखी होती तो उसका कभी मुहँ न देखती। मैं क्या सखी प्रेमा से अच्छी हूँ? क्या उनसे सुंदर हूँ?क्या उनसे गुणवती हूँ? फिर यह क्या समझकर ऐसी बाते लिखते है? विवाह करेगे। मै समझ गयी जैसा विवाह होगा। क्या मुझे इतनी भी समझ नहीं? यह सब उनकी धूर्तपन है। वह मुझे अपने घर रक्खा चाहते हैं। मगर ऐसा मुझसे कदापि न होगा। मै तो इतना ही चाहती हूँ कि कभी-कभी उनकी मोहनी मूरत का दर्शन पाया करूँ। कभी-कभी उनकी रसीली बतियॉँ सुना करूँ और उनका कुशल आनंद, सुख समाचार पाया करूँ। बस। उनकी पत्नी बनने के योग्य मै नहीं हूँ। क्या हुआ अगर हदय में उनकी सूरत जम गयी है। मै इसी घर में उनका ध्यान करते करते जान दे दूँगी। पर मोह के बस के आकर मुझसे ऐसा भारी पाप न किया जाएगा। मगर इसमें उन बेचारे का दोष नहीं है। वह भी अपने दिल से हारे हुए है। नहीं मालूम क्यों मुझ अभागिनी में उनका प्रेम लग गया। इस शहर में ऐसा कौन रईस है जो उनको लड़की देने में अपनी बड़ाई न समझे। मगर ईश्वर को न जाने क्या मंजूर था कि उनकी प्रीति मुझसे लगा दी। हाय। आज की सॉँझ को वह आएगे। मेरी कलाई पर कंगन न देखेगे तो दिल मे क्या कहेंगे? कहीं आना-जाना त्याग दें तो मै बिन मारे मर जाऊँ। अगर उनका चित्त जरा भी मेरी ओर से मोटा हुआ, तो अवश्य जहर खा लूगीँ। अगर उनके मन में जरा भी माख आया, जरा भी निगाह बदली, तो मेरा जीना कठिन है।

बिल्लो पूर्णा के मुखड़े का चढ़ाव-उतार बड़े गौर से देख रही थी। जब वह खत पढ़ चुकी तो उसने पूछा-क्या लिखा है बहू?

पूर्णा-(मलिन स्वर में) क्या बताऊँ क्या लिखा है?

बिल्लो-क्यो कुशल तो है?

पूर्णा-हाँ, सब कुशल ही है। बाबू साहब ने आज नया स्वॉँग रचा।

बिल्लो-(अचंभे से) वह क्या?

पूर्णा-लिखते है कि मुझसे......

उससे और कुछ न कहा गया। बिल्लो समझ गयी। मगर वहीं तक पहुची जहाँ तक उसकी बुद्वि ने मदद की। वह अमृतराय की बढ़ती हुई मुहब्बत को देख-देखकर दिल में समझे बैठी हुई थी कि वह एक न एक दिन पूर्णा को अपने घर अवश्य डालेगे। पूर्णा उनको प्यार करती है, उन पर जान देती है। वह पहले बहुत हिचकिचायगी मगर अंत मे मान ही जायगी। उसने सैकडो रईसों को देखा था कि नाइनों कहारियो, महराजिनों को घर डाल लिया था। अब की भी ऐसा ही होगा। उसे इसमें कोई बात अनोखी नहीं मालूम होती थी कि बाबू साहब का प्रेम सच्च है मगर बेचारे सिवाय इसके और कर ही क्या सकते है कि पूर्णा को घर डाल लें। देखा चाहिए कि बहू मानती है या नहीं। अगर मान गयीं तो जब तक जियेगे, सुख भोगेगी। मै भी उनकी सेवा में एक टुकड़ा रोटी पाया करूँगी और जो कहीं इनकार किया तो किसी का निबाह न होगा। बाबू साहब ही का सहारा ठहरा। जब वही मुँह मोड़ लेंगे तो फिर कौन किसको पूछता है।

इस तरह ऊँच-नीच सोचकर उसने पूर्णा से पूछा-तुम क्या जवाब दो दोगी?

पूर्णा-जवाब ऐसी बातों का भी भल कहीं जवाब होता है। भला विधवाओं का कहीं ब्याह हुआ है और वही भी ब्रह्ममण का क्षत्रिय से। इस तरह की चन्द कहानियां मैंने उन किताबो में पढ़ी जो वह मुझे दे गये है। मगर ऐसी बात कहीं सैतुक नहीं देखने आयी।

बिल्लो समझी थी कि बाबू साहब उसको घर डरानेवाले है। जब ब्याह का नाम सुना तो चकरा कर बोली-क्या ब्याह करने को कहते है?

पूर्णा-हाँ।

बिल्लों-तुमसे?

पूर्णा-यही तो आर्श्च है।

बिल्लो-अचराज सा अचरज हैं भला ऐसी कहीं भया है। बालक पक गये मगर ऐसा ब्याह नहीं देखा।

पूर्णा-बिल्लो, यह सब बहाना है। उनका मतलब मैं समझ गयी।

बिल्लो-वह तो खुली बात है।

पूर्णा-ऐसा मुझसे न होगा। मैं जान दे दूँगी पर ऐसा न करुँगी।

बिल्लो-बहू उनका इसमें कुछ दोष नहीं है। वह बेचारे भी अपने दिल से हारे हुए हैं। क्या करें।

पूर्णा-हाँ बिल्लों, उनको नहीं मालूम क्यों मुझसे कुछ मुहब्बत हो गयी है और मेरे दिल का हाल तो तुमसे छिपा नहीं। अगर वह मेरी जान मॉँगते तो मैं अभी दे देती। ईश्वर जानता है, उनके ज़रा से इशारे पर मैं अपने को निछावर कर सकती हूँ।

मगर जो बात व चाहते है मुझसे न होगी। उसके सोचती हूँ तो मेरा कलेजा काँपने लगता है।

बिल्लो-हाँ, बात तो ऐसा ही है मुदा...

पूर्णा-मगर क्या, भलेमानुसो में ऐसा कभी होता ही नहीं। हाँ, नीच जातियों में सगाई, डोला सब कुछ आता है।

बिल्लो-बहू यह तो सच है। मगर तुम इनकार करोगी तो उनका दिल टूट जायेगा।

पूर्णा-यही डर मारे डालता है। मगर इनकार न करुँ तो क्या करुँ। यह तो मैं भी जानती हूँ कि वह झूठ-सच ब्याह कर लेंगे। ब्याह क्या कर लेंगे। ब्याह क्या करेंगे, ब्याह का नाम करेंगे। मगर सोचो तो दूनिया क्या कहेगी। लोग अभी से बदनाम कर रहे है, तो न जाने और क्या-क्या आक्षेप लगायेंगे। मैं सखी प्रेमा को मुँह दिखाने योग्स नहीं रहूँगी। बस यही एक उपाय है कि जान दे दूँ, न रह बॉँस न बजें बॉँसुरी। उनको दो-चार दिन तक रंज रहेगा, आखिर भूल जाऐंगे। मेरी तो इज्ज़त बच जायगी।

बिल्लो-(बात पलट कर) इस सन्दूकचे मे' क्या है?

पूर्णा-खोल कर देखो।

बिल्लो ने जो उसे खोला तो एक क़ीमती कंगन हरी मखमल में लपेटकर धरा था और सन्दूक में संदल की सुगंध आ रही थी। बिल्लो ने उसको निकाल लिया और चाहा की पूर्णा के हथ खींच लिया और आँखों में आँसू भर कर बोली-मत बिल्लो, इसे मत पहनाओ। सन्दूक में बंद करके रख दो।

बिल्लों-ज़रा पहनो तो देखो कैसा अच्छा मालूम होता है।

पूर्णा-कैसे पहनूँ। यह तो इस बात का सूचक हो जाएगा कि उनकी बात मंजूर है।

बिल्लो-क्या यह भी इस चीठी में लिखा है?

पूर्णा-हाँ, लिखा है कि मैं आज शाम को आऊँगा और अगर कलाई पर कंगन देखूँगा तो समझ जाऊँगा कि मेरी बात मंजूर है।

बिल्लो-क्या आज ही शाम को आऍंगे?

पूर्णा-हाँ।

यह कहकर पूर्णा ने सिर नीचा कर लिया। नहाने कौन जाता है। खाने पीने की किसको सुध है। दोपहर तक चुपचाप बैठी सोचा की। मगर दिल ने कोई बात निर्णय न की हाँ, -ज्यों-ज्यों सॉँझ का समय निकट आया था त्यों-त्यों उसका दिल धड़कता जाता था कि उनके सामने कैसे जाऊँगी। वह मेरी कलाई पर कंगन न देखगें तो क्या कहेंगे? कहीं रुठ कर चले न जायँ? वह कहीं रिसा गये तो उनको कैसे मनाऊँगी?मगर तबिय ता क़ायदा है कि जब कोई बात उसको अति लौलीन करनेवाली होती है तो थोड़ी देर के बाद वह उसे भागने लगती है। पूर्णा से अब सोचा भी न जाता था। माथे पर हाथ घरे मौन साधे चिन्ता की चित्र बनी दीवार की ओर ताक रही थी। बिल्लो भी मान मारे बैठी हुई थी। तीन बजे होंगे कि यकायक बाबू अमृतराय की मानूस आवाज़ दरवाजे पर बिल्लो पुकराते सुनायी दी। बिल्लो चट बाहर दौड़ी और पूर्णा जल्दी से अपनी कोठरी में घुस गयी कि दवाज़ा भेड़ लिया। उसका दिल भर आया और वह किवाड़ से चिमट कर फूट-फूट रोने लगी। उधर बाबू साहब बहुत बेचैन थे। बिल्लो ज्योंही बाहर निकली कि उन्होंने उसकी तरफ़ आस-भरी आँखों से देखा। मगर जब उसके चेहरे पर खुशी का कोई चिह्न न दिखायी दिया तो वह उदास हो गये और दबी आवाज़ में बोली-महरी, तुम्हारी उदासी देखकर मेरा दिल बैठा जाता है।

बिल्लो ने इसका उत्तर कुछ न दिया।

अमृतराय का माथा ठनका कि जरुर कुछ गड़बड़ हो गयी। शायद बिगड़ गयी। डरते-डरते बिल्लो से पूछा-आज हमार आदमी आया था?

बिल्लो हा आया था।

अमृत-कुछ दे गया?

बिल्लो-दे क्यों नहीं गया।

अमृत तो क्या हुआ? उसको पहना?

बिल्लो-हाँ, पहना अरे आँख भर के देखा तो हूई नहीं। तब से बैठी रो रही है। न खाने उठी, न गंगा जी गयी।

अमृत-कुछ कहा भी। क्या बहुत खफ़ा है?

बिल्लो-कहतीं क्या? तभी से आँसू का तार नहीं टूटा।

अमृतराय समझ गये कि मेरी चाल बुरी पड़ी। अभी मुझे कुछ दिन और धीरज रखना चाहिए था। वह जरुर बिगड़ गयीं। अब क्या करुँ? क्या अपना-सा मुँह ले के लौट जाऊँ? या एक दफा फिर मुलाकात कर लूँ तब लौट जाऊँ कैसे लौटूँ। लौटा जायगा? हाय अब न लौटा जायगा। पूर्णा तू देखने में बहुत सीधी और भोली है, परन्तु तेरा हृदय बहुत कठोर है। तूने मेरी बातों का विश्वास नहीं माना तू समझती है मैं तुझसे कपट कर रहा हूँ। ईश्वर के लिए अपने मन से यह शंका निकाल डाल। मैं धीरे-धीरे तेरे मोह में कैसा जकड़ गया हूँ कि अब तेरे बिना जीना कठिन है। प्यारी जब मैंने तुझसे पहल बातचीत की थी तो मुझे इसकी कोई आशा न थी कि तुम्हारी मीठी बातों और तुम्हारी मन्द मुस्कान का ज़ादू मुझ पर ऐसा चल जायगा मगर वह जादू चल गया। और अब सिवाय तुम्हारे उसे और कौन अतार सकता है। नहीं, मैं इस दरवाज़े से कदापि नहीं हिलूँगा। तुम नाराज़ होगी। झल्लाओगी। मगर कभी न कभी मुझ पर तरस आ ही जायगा। बस अब यही करना उचित है । मगर देखी प्यारी, ऐसा न करना कि मुझसे बात करना छोड़ दो। नहीं तो मेरा कहीं ठिकाना नहीं। क्या तुम हमसे सचमुच नाराज़ हो। हाय क्या तुम पहरों से इसलिए रो रही हो कि मेरी बातों ने तुमको दुख दिया।

यह बातें सोचते-सोचते बाबू साहब की आँखों में आँसू भर आये और उन्होंने गदगद स्वर में बिल्लो से कहा-महरी, हो सके तो ज़रा उनसे मेरी मुलाक़ात करा दो। कह दो एक दम के लिए मिल जायें। मुझ पर इतनी कृपा करो।

महरी ने जो उनकी आँखें लाल देखीं तो दौड़ हुई घर में आयी पूर्णा के कमरे में किवाड़ खटखटाकर बोली---बहू, क्या ग़ज़ब करती हो, बाहर निकलो, बेचारे खड़े रो रहे हैं।

पूर्णा ने इरादा कर लिया था कि मैं उनके सामने कदापि न जाऊँगी। वह महरी से बातचीत करके आप ही चले जायँगे। मगर जब सुना कि रो रहे है तो प्रतिज्ञा टूट गयी। बोली-तुमन जा के क्या कह दिया?

महरी-मैंन तो कुछ भी नहीं कहा।

पूर्णा से अब न रहा गया। चट किवाड़ खोल दिये। और कॉँपती हुई आवाज़ से बोली-सच बतलाओ बिल्लो, क्या बहुत रो रहे है?

महरी-नारायण जाने, दोनों आँखें लाल टेसू हो गयी हैं। बेचारे बैठे तक नहीं। उनको रोते देखकर मेरा भी दिल भर आया।

इतने में बाबू अमृतराय ने पुकार कर कहा-बिल्लो, मैं जाता हूँ। अपनी सर्कार से कह दो अपराध क्षमा करें।

पूर्णा ने आवाज़ सुनी। वह एक ऐसे आदमी की आवाज़ थी जो निराशा के समुद्र में डूबता हो। पूर्णा को ऐसा मालूम हुआ जैसे उसके हृदय को किसी ने छेद दिया। आँखों से आँसू की झड़ी लग गयी। बिल्लों ने कहा-बहू, हाथ जोड़ती हूँ, चली चलो जिसमें उनकी भी खातिरी हो जाए।

यह कहकर उसने आप से उठती हुई पूर्णा का हाथ पकड़ कर उठाया और वह घूँघट निकाल कर, आँसू पोंछती हुई, मर्दाने कमरे की तरफ चली। बिल्लो ने देखा कि उसके हाथों में कंगन नहीं है। चट सन्दूकची उठा लायी और पूर्णा का हाथ पकड़ कर चाहती थी कि कंगन पिन्हा दे। मगर पूर्णा ने हाथ झटक कर छुड़ा लिया और दम की दम में बैठक के भीतर दरवाज़े पर आके खड़ी रो रही थी। उसकी दोनों आँखें लाल थी और ताजे आँसुओ की रेखाऍं गालों पर बनी हुई थी। पूर्णा ने घूँघट उठाकर प्रेम-रस से भरी हुई आँखों से उनकी ओर ताका। दोनों की आँखें चार हुई। अमृतराय बेबस होकर बढ़े। सिसकती हुई पूर्णा का हाथ पकड़ लिया और बड़ी दीनता से बोले-पूर्णा, ईश्वर के लिए मुझ पर दया करो।

उनके मुँह से और कुछ न निकला। करुणा से गला बँध गया और वह सर नीचा किये हुए जवाब के इन्तिजार में खड़ा हो गये। बेचारी पूर्णा का धैर्य उसके हाथ से छूट गया। उसने रोते-रोते अपना सर अमृतराय के कंधे पर रख दिया। कुछ कहना चाहा मगर मुँह से आवाज़ न निकली। अमृतराय ताड़ गये कि अब देवी प्रसन्न हो गयी। उन्होंने आँखों के इशारे से बिल्लो से कंगन मँगवाया। पूर्णा को धीरेस कुर्सी पर बिठा दिया। वह जरा भी न झिझकी। उसके हाथों में कंगन पिन्हाये, पूर्णा ने ज़रा भी हाथ न खींचा। तब अमृतराय न साहसा करके उसके हाथों को चूम लिया और उनकी आँखें प्रेम से मग्न होकर जगमगाने लगीं। रोती हुई पूर्णा ने मोहब्बत-भरी निगाहों से उनकी ओर देखा और बोली-प्यार अमृतराय तुम सचमुच जादूगर हो।