प्रेमा (उपन्यास) लेखक-मुंशी प्रेम चन्द

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Re: प्रेमा (उपन्यास) लेखक-मुंशी प्रेम चन्द

Unread post by sexy » 25 Jul 2015 11:35

समय हवा की तरह उड़ता चला जाता है। एक महीना गुजर गया। जाड़े का कूँच हुआ और गर्मी की लैनडोरी होली आ पहुँची। इस बीच में अमृतराय ने दो-तीन जलसे किये और यद्यपि सभासद दस से ज्यादा कभी न हुए मगर उन्होंने हियाव न छोड़ा। उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि चाहे कोई आवे या न आवे, मगर नियत समय पर जलसा जरुर किया करुगॉँ। इसके उपरान्त उन्होंने देहातों में जा-जाकर सरल-सरल भाषाओं में व्याख्यान देना शुरु किया और समाचार पत्रों में सामाजिक सुधार पर अच्छे-अच्छे लेख भी लिखे। इनकों तो इसके सिवाय कोई काम न था। उधर बेचारी प्रेमा का हाल बहुत बेहाल हो रहा था। जिस दिन उसे-उनकी आखिरी चिट्टी पहुँची थी उसी दिन से उसकी रोगियों की-सी दशा हो रही थी। हर घड़ी रोने से काम था। बेचारी पूर्ण सिरहाने बैठे समझाया करती। मगर प्रेमा को जरा भी चैन न आता। वह बहुधा पड़े-पड़े अमृतराय की तस्वीर को घण्टों चुपचाप देखा करती। कभी-कभी जब बहुत व्याकुल हो जाती तो उसके जी मे आता कि मौ भी उनकी तस्वीर की वही गत करुँ जो उन्होंने मेरी तस्वीर की की है। मगर फिर तुरन्त यह ख्याल पलट खा जाता। वह उस तसवी को आँखों से लेती, उसको चूमती और उसे छाती से चिपका लेती। रात में अकेले चारपाई पर पड़े-पड़े आप ही आप प्रेम और मुहब्ब्त की बातें किया करती। अमृराय के कुल प्रेम-पत्रों को उसने रंगीन कागज पर, मोटे अक्षरों, में नकल कर लिया था। जब जी बहुत बेचैन होता तो पूर्ण से उन्हें पढ़वाकर सुनती और रोती। भावज के पास तो वह पहले भी बहुत कम बैठती थी, मगर अब मॉँ से भी कुछ खिंची रहती। क्योंकि वह बेटी की दशा देख-देख कुढ़ती और अमृतराय को इसका करण समझकर कोसती। प्रेमा से यह कठोर वचन न सुने जाते। वह खुद अमृतराय का जिक्र बहुत कम करती। हाँ, अब पूर्णा या कोई और दूसरी सहेली उनकी बात चलाती तो उसको खूब कान लगाकर सुनाती। प्रेमा एक ही मास में गलकर कॉँटा हो गयी। हाय अब उसको अपने जीवन की कोई आशा न थी। घर के लोग उसकी दवा-दारू में रुपया ठीकरी की तरह फूक रहे थे मगर उसको कुछ फयदा न होता। कई बार लाला बदरीप्रसाद जी के जी में यह बात आई कि इसे अमृतराय ही से ब्याह दूँ। मगर फिर भाई-बहन के डर से हियाव न पड़ता। प्रेमा के साथ बेचारी पूर्णा भी रोगिणी बनी हुई थी।

आखिर होली का दिन आया। शहर में चारों ओर अबीर और गुलाल उड़ने लगा, चारों तरफ से कबीर और बिरादरीवालों के यहाँ से जनानी सवारियॉँ आना शुरु हुई और उसे उनकी खातिर से बनाव-सिगार करना, अच्छे-अच्छे कपड़ा पहनना, उनका आदर-सम्मान करना और उनके साथ होली खेलना पड़ा। वह हँसने, बोलने और मन को दूसरी बातों में लगाने के लिए बहुत कोशिश करती रही। मगर कुछ बस न चला। रोज अकेल में बैठकर रोया करती थी, जिससे कुछ तसकीन हो जाती। मगर आज शर्म के मारे रो भी न सकती थी। और दिन पूर्ण दस बजे से शाम तक बैठी अपनी बातों से उसका दिल बहलाया करती थी मगर थी मगर आज वह भी सवेरे ही एक झलक दिखाकर अपने घर पर त्योहार मना रही थी। हाय पूर्णा को देखते ही वह उससे मिलने के लिए ऐसी झपटी जैसे कोई चिड़िया बहुत दिनों के बाद अपने पिंजरे से निकल कर भागो। दोनो सखियॉँ गले मिल गयीं। पूर्णा ने कोई चीज मॉँगी—शायद कुमकुमे होंगे। प्रेमा ने सन्दूक मगाया। मगर इस सन्दूक को देखते ही उसकी आँखों में आँसू भर आये। क्योंकि यह अमृतराय ने पर साल होली के दिन उसके पास भेजा था। थोड़ी देर में पूर्णा अपने घर चली गयी मगर प्रेमा घंटो तक उस सन्दूक को देख-देख रोया की।

पूर्णा का मकान पड़ोसी ही में था। उसके पति पण्डित बसंतकुमार बहुत सीधे मगर शैकीन और प्रेमी आदमी थे। वे हर बात स्त्री की इच्छानुसार करते। उन्होंने उसे थोड़ा-बहुत पढ़या भी था। अभी ब्याह हुए दो वर्ष भी न होने पाये थे, प्रेम की उमंगे दोनों ही दिलों में उमड़ हुई थी, और ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे त्यों-त्यों उनकी मुहब्बत और भी गहरी होती जाती थी। पूर्णा हरदस पति की सेवा प्रसन्न रहती, जब वह दस बजे दिन को दफ्तर जाने लगते तो वह उनके साथ-साथ दरवाजे तक आती और जब तक पण्डित जी दिखायी देते वह दरवाजे पर खड़ी उनको देखा करती। शाम को जब उनके आने का समय हाता तो वह फिर दरवाजे पर आकर राह देखने लगती। और ज्योंही व आ जाते उनकी छाती से लिपट जाती। और अपनी भोली-भाली बातों से उनकी दिन भर की थकन धो देती। पंडित जी की तरख्वाह तीस रुपये से अधिक न थी। मगर पूर्णा ऐसी किफ़यात से काम चलाती कि हर महीने में उसके पास कुछ न कुछ बच रहता था। पंडित जी बेचारे, केवल इसलिए कि बीवी को अच्छे से अच्छेगहने और कपड़े पहनावें, घर पर भी काम किया करते। जब कभी वह पूर्णा को कोई नयी चीज बनवाकर देते वह फूली न समाती। मगर लालची न थी। खुद कभी किसी चीज के लिए मुँह न खोलती। सच तो यह है कि सच्चे प्रेम के आन्नद ने उसके दिल में पहनने-ओढ़ने की लालसा बाकी न रक्खी थी।

आखिर आज होली का दिन आ गया। आज के दिन का क्या पूछना जिसने साल भर चाथड़ों पर काटा वह भी आज कहीं न कहीं से उधार ढूँढ़कर लाता है और खुशी मनाता है। आज लोग लँगोटी में फाग खेलते है। आज के दिन रंज करना पाप है। पंडित जी की शादी के बाद यह दूसरी होली पड़ी थी। पहली होली में बेचारे खाली हाथ थे। बीवी की कुछ खातिर न कर सके थे। मगर अब की उन्होंने बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थी। कोई डढ़ सौ, रुपया ऊपर से कमाया था, उसमें बीवी के वास्ते एक सुन्दर कंगन बनवा था, कई उत्तम साड़ियाँ मोल लाये थे और दोस्तों को नेवता भी दे रक्खा था। इसके लिए भॉँति-भॉँति के मुरब्बे, आचार, मिठाइयॉँ मोल लाये थे। और गाने-बजाने के समान भी इकट्टे कर रक्खे थे। पूर्णा आज बनाव-चुनाव किये इधर-उधर छबि दिखाती फिरती थी। उसका मुखड़ा कुन्दा की तरह दमक रहा था उसे आज अपने से सुन्दर संसार में कोई दूसरी औरत न दिखायी देती थी। वह बार-बार पति की ओर प्यार की निगाहों से देखती। पण्डित जी भी उसके श्रृंगार और फबन पर आज ऐसी रीझे हुए थे कि बेर-बेर घर में आते और उसको गले लगाते। कोई दस बजे होंगे कि पण्डित जी घर में आये और मुस्करा कर पूर्णा से बोले—प्यारी, आज तो जी चाहता है तुमको आँखों में बैठे लें। पूर्णा ने धीरे से एक ठोका देकर और रसीली निगाहों से देखकर कहा—वह देखों मैं तो वहाँ पहले ही से बैठी हूँ। इस छबि ने पण्डित जी को लुभा लिया। वह झट बीवी को गले से लगाकर प्यार करने। इन्हीं बातों में दस बजे तो पूर्णा ने कहा—दिन बहुत आ गया है, जरा बैठ जाव तो उबटन मल दूँ। देर हो जायगी तो खाने में अबेर-सबेर होने से सर दर्द होने लेगेगा।

पण्डित जी ने कहा—नहीं-नहीं दो। मैं उबटन नहीं मलवाऊँगा। लाओ धोती दो, नहा आऊँ।

पूर्णा—वाह उबटन मलवावैंगे। आज की तो यह रीति ही है। आके बैठ जाव।

पण्डित—नहीं, प्यारी, इसी वक्त जी नहीं चाहता, गर्मी बहुत है।

पूर्णा ने लपककर पति का हाथ पकड़ लिया और चारपाई पर बैठकर उबटन मलने लगी।

पण्डित—मगर ज़रा जल्दी करना, आज मैं गंगा जी नही जाना चाहता हूँ।

पूर्णा-अब दोपहर को कहाँ जाओगे। महरी पानी लाएगी, यहीं पर नहा लो।

पण्डित—यही प्यारी, आज गंगा में बड़ी बहार रहेगी।

पूर्णा—अच्छा तो ज़रा जल्दी लौट आना। यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत तुम बहुत दूर तक तैर जाया करते हो।

थोड़ी देर मे पण्डित जी उबटन मलवा चुके और एक रेश्मी धोती, साबुन, तौलिया और एक कमंडल हाथ मे लेकर नहाने चले। उनका कायदा था कि घाट से जरा अलग नहा करते यह तैराक भी बहुत अच्छे थे। कई बार शहर के अच्छे तैराको से बाजी मार चुके थे। यद्यपि आज घर से वादा करके चले थे कि न तैरेगे मगर हवा ऐसी धीमी-धीम चल रही थी और पानी ऐसा निर्मल था कि उसमे मद्धिम-मद्धिम हलकोरे ऐसे भले मालूम होते थे और दिल ऐसी उमंगों पर था कि जी तैरने पर ललचाया। तुरंत पानी में कूद पड़े और इधर-उधर कल्लोंले करने लगे। निदान उनको बीच धारे में कोई लाल चीजे बहती दिखाया दी। गौर से देखा तो कमल के फूल मालूम हुए। सूर्य की किरणों से चमकते हूए वह ऐसे सुन्दर मालम होते थे कि बसंतकुमार का जी उन पर मचल पड़ा। सोचा अगर ये मिल जायें तो प्यारी पूर्णा के कानों के लिए झुमके बनाऊँ। वे मोटे-ताजे आदमी थे। बीच धारे तक तैर जाना उनके लिए कोई बड़ी बात न थी। उनको पूरा विश्वास था कि मैं फूल ला सकता हूँ। जवानी दीवानी होती है। यह न सोचा था कि ज्यों-ज्यों मैं आगे बढूँगा त्यों-त्यों फूल भी बढ़ेंगे। उनकी तरफ चले और कोई पन्द्रह मिनट में बीच धारे में पहूँच गये। मगर वहाँ जाकर देखा तो फूल इतना ही दूर और आगे था। अब कुछ-कुछ थकान मालूम होने लगी थी। मगर बीच में कोई रेत ऐसा न था जिस पर बैठकर दम लेते। आगे बढ़ते ही गये। कभी हाथों से ज़ोर मारते, कभी पैरों से ज़ोर लगाते, फूलों तक पहूँचे। मगर उस वक्त तक हाथ-पॉँव दोनों बोझल हो गये थे। यहाँ तक कि फूलों को लेने के लिए जब हाथ लपकाना चाहा तो उठ न सका। आखिर उनको दॉँतों मे दबाया और लौटे। मगर जब वहाँ से उन्होंने किनारों की तरफ देखा तो ऐसा मालूम हुआ मानों हजार कोस की मंजिल है। बदन में जरा भी शक्ति बाकी न रही थी और पानी भी किनारे से धारें की तरफ बह रहा था। उनका हियाव छूट गया। हाथ उठाया तो वह न उठे। मानो वह अंग में थे ही नहीं। हाय उस वक्त बसंतकुमार के चेहरे पर जो निराशा और बेबसी छायी हुई थी, उसके खयाल करने ही से छाती फटती है। उनको मालूम हुआ कि मैं डूबा जा रहा हूँ। उस वक्त प्यारी पूर्णा की सुधि आयी कि वह मेरी बाट देख रही होगी। उसकी प्यारी-प्यारी मोहनी सूरत आँखें के सामने खड़ी हो गयी। एक बार और हाथ फेंका मगर कुछ बस न चला। आँखों से आँसू बहने लगे और देखते-देखते वह लहरों में लोप हा गये। गंगा माता ने सदा के लिए उनको अपनी गोद मे लिया। काल ने फूल के भेस मे आकर अपना काम किया।

उधर हाल का सुलिए। पंडित जी के चले आने के बाद पूर्णा ने थालियॉँ परसीं। एक बर्तन में गुलाल घोली, उसमें मिलाया। पंडित जी के लिए सन्दूक से नये कपड़े निकाले। उनकी आसतीनों में चुन्नटें डाली। टोपी सादी थी, उसमें सितारें टॉँके। आज माथे पर केसर का टीका लगाना शुभ समझा जाता है। उसने अपने कोमल हाथों से केसर और चन्दन रगड़ा, पान लगाये, मेवे सरौते से कतर-कतर कटोरा में रक्खे। रात ही को प्रेमा के बग़ीचे से सुन्दर कलियॉँ लेती आयी थी और उनको तर कपड़े में लपेट कर रख दिया था। इस समय वह खूब खिल गयी थीं। उनको तागे में गुँथकर सुन्दर हार बनाया और यह सब प्रबन्ध करके अपने प्यारे पति की राह देखने लगी। अब पंडित जी को नहाकर आ जाना चाहिए था। मगर नहीं, अभी कुछ देर नहीं हुई। आते ही होगें, यही सोचकर पूर्णा ने दस मिनट और उनका रास्ता देखा। अब कुछ-कुछ चिंता होने लगी। क्या करने लगे? धूप कड़ी हो रही है। लौटने पर नहाया-बेनहाया एक हो जाएगा। कदाचित यार दोस्तों से बातों करने लगे। नहीं-नहीं मैं उनकों खूब जानती हूँ। नदी नहाने जाते हैं तो तैरने की सुझती है। आज भी तैर रहे होंगे। यह सोचकर उसने आधा घंटे और राह देखी। मगर जब वह अब भी न आये तब तो वह बैचैन होने लगी। महरी से कहा—‘बिल्लों जरा लपक तो जावा, देखो क्या करने लगे। बिल्लों बहुत अच्छे स्वाभव की बुढ़िया थी। इसी घर की चाकरी करते-करते उसके बाल पक गये थे। यह इन दोनों प्राणियों को अपने लड़कों के समान समझती थी। वह तुरंत लपकी हुई गंगा जी की तरफ चली। वहाँ जाकर क्या देखती है कि किनारे पर दो-तीन मल्लाह जमा हैं। पंडित जी की धोती, तौलिया, साबुन कमंडल सब किनारे पर धरे हुए हैं। यह देखते ही उसके पैर मन-मन भर के हो गए। दिल धड़-धड़ करने लगा और कलेजा मुँह को आने लगा। या नारायण यह क्या ग़जब हो गया। बदहवास घबरायी हुई नज़दीक पहूँची तो एक मल्लाह ने कहा—काहे बिल्लों, तुम्हारे पंडित नहाय आवा रहेन।

बिल्लो क्या जवाब देती उसका गला रुँध गया, आँखों से आँसू बहने लगे, सर पीटने लगी। मल्लाहों ने समझाया कि अब रोये-पीटे का होत है। उनकी चीज वस्तु लेव और घर का जाव। बेचारे बड़े भले मनई रहेन। बिल्लो ने पंडित जी की चीजें ली और रोते-पीटती घर की तरफ चली। ज्यों-ज्यों वह मकान के निकट आती त्यों-त्यों उसके कदम पिछे को हटे आते थे। हाय नाराण पूर्णा को यह समाचार कैसे सुनाऊँगी वह बिचारी सोलहो सिंगार किये पति की राह देख रही है। यह खबर सुनकर उसकी क्या गत होगी। इस धक्के से उसकी तो छाती फट जायगी। इन्हीं विचारों में डूबी हुई बिल्लो ने रोते हुए घर में कदम रक्खा। तमाम चीजें जमीन पर पटक दी और छाती पर दोहत्थड़ मार हाय-हाय करने लगी। बेचारी पूर्णा इस वक्त आईना देख रही थी। वह इस समय ऐसी मगन थी और उसका दिल उमंगों और अरमानों से ऐसा भरा हुआ था कि पहले उसको बिल्लो के रोने-पीटने का कारण समझ में न आया। वह हकबका कर ताकने लगी कि यकायक सब मजारा उसकी समझ में आ गया। दिल पर एक बिजली कौंध गयी। कलेजा सन से हो गया। उसको मालूम हो गया कि मेरा सुहाग उठ गया। जिसने मेरी बॉँह पकड़ी थी उससे सदा के लिए बिछड़ गयी। उसके मुँह से केवल इतना निकला—‘हाय नारायण’ और वह पछाड़ खाकर धम से ज़मीन पर गिर पड़ी। बिल्लो ने उसको सँभाला और पंखा झलने लगी। थोड़ी देर में पास-पड़ोस की सैंकड़ों औरते जमा हो गयीं। बाहर भी बहुत आदमी एकत्र हो गये। राय हुई कि जाल डलवाया जाय। बाबू कमलाप्रसाद भी आये थे। उन्होंने पुलिस को खबर की। प्रेमा को ज्योंही इस आपत्ति की खबर मिली उसके पैर तले से मिट्टी निकल गयी। चटपट आढकर घबरायी हुई कोठे से उतरी और गिरती-पड़ती पूर्णा की घर की तरफ चली। मॉँ ने बहुत रोका मगर कौन सुनता है। जिस वक्त वह वहाँ पहुँची चारों ओर रोना-धोना हो रहा था। घर में ऐसा न था जिसकी आँखों से आँसू की धारा न बह रही हो। अभगिनी पूर्णा का विलाप सुन-सुनकर लोगों के कलेजे मुँह को आय जाते थे। हाय पूर्णा पर जो पहाड़ टूट पड़ा वह सातवे बैरी पर भी न टूटे। अभी एक घंटा पहले वह अपने को संसार की सबसे भाग्यवान औरतों में समसझती थी। मगर देखते ही देखते क्या का क्या हो गया। अब उसका-सा अभागा कौन होगा। बेचारी समझाने-बूझाने से ज़रा चुप हो जाती, मगर ज्योंही पति की किसी बात की सुधि आती त्यों ही फिर दिल उमड़ आता और नयनों से नीर की झड़ी लग जाती, चित्त व्याकुल हो जाता और रोम-रोम से पसीना बहने लगता। हाय क्या एक-दो बात याद करने की थी। उसने दो वर्ष तक अपने प्रेम का आन्नद लूटा था। उसकी एक-एक बात उसका हँसना, उसका प्यार की निगाहों से देखना उसको याद आता था। आज उसने चलते-चलते कहा था—प्यारी पूर्णा, जी चाहता हैं, तुझे आँखों में बिठा लूँ। अफसोस हे अब कौन प्यार करेगा। अब किसकी पुतलियों में बैठूँगी कौन कलेजे में बैठायेगा। उस रेशमी धोती और तोलिया पर दृष्टि पड़ी तो जोर से चीख उठी और दोनों हाथों से छाती पीटने लगी। निदान प्रेमा को देखा तो झपट कर उठी और उसके गले से लिपट कर ऐसी फूट-फूट कर रोयी कि भीतर तो भीतर बाहर मुशी बदरीप्रसाद, बाबू कमलाप्रसाद और दूसरे लोग आँखों से रुमाल दिये बेअख्तियार रो रहे थे। बेचारी प्रेमा के लिए महीने से खाना-पीना दुर्लभ हो रहा था। विराहनल में जलते-जलते वह ऐसी दूर्बल हो गयी थी कि उसके मुँह से रोने की आवाज तक न निकलती थी। हिचकियॉँ बँधी हुई थीं और आँखों से मोती के दाने टपक रहे थे। पहले व समझती थी कि सारे संसार में मैं ही एक अभागिन हूँ। मगर इस समय वह अपना दु:ख भूल गयी। और बड़ी मुश्किल से दिल को थाम कर बोली—प्यारी सखी यह क्या ग़ज़ब हो गया? प्यारी सखी इ़सके जवाब में अपना माथा ठोंका और आसमान की ओर देखा। मगर मुँह से कुछ न बोल सकी।

इस दुखियारी अबला का दु:ख बहुत ही करुणायोग्य था। उसकी जिन्दगी का बेड़ा लगानेवाला कोई न था दु:ख बहुत ही करुणयोग्या था उसकी जिन्दगी का बेड़ा पार लगानेवाला कोई न था। उसके मैके में सिर्फ एक बूढ़े बाप से नाता था और वह बेचारा भी आजकल का मेहमान हो रहा था। ससुराल में जिससे अपनापा था वह परलोक सिधारा, न सास न ससुर न अपने न पराये। काई चुल्लू भर पानी देने वाला दिखाई न देता था। घर में इतनी जथा-जुगती भी न थी कि साल-दो साल के गुजारे भर को गुजारे भर हो जाती। बेचारी पंडित जी को अभी-नौकरी ही करते कितने दिन हुए थे कि रुपया जमा कर लेते। जो कमाया वह खाया। पूर्णा को वह अभी वह बातें नहीं सुझी थी। अभी उसको सोचने का अवकाश ही न मीला था। हाँ, बाहर मरदाने में लोग आपस में इस विषय पर बातचीत कर रहे थे।

दो-ढ़ाई घण्टे तक उस मकान में स्त्रियों का ठट्टा लगा रहा। मगर शाम होते-होते सब अपने घरों को सिधारी। त्योहार का दिन था। ज्यादा कैसे ठहरती। प्रेमा कुछ देर से मूर्छा पर मूर्छा आने लगी थी। लोग उसे पालकी पर उठाकर वहाँ से ले गये और दिया में बत्ती पड़ते-पड़ते उस घर में सिवाय पूर्णा और बिल्ली के और कोई न था। हाय यही वक्त था कि पंडित जी दफ्तर से आया करते। पूर्णा उस वक्त द्वारे पर खड़ी उनकी राह देखा करती और ज्योंही वह ड्योढ़ी में कदम रखते वह लपक कर उनके हाथों से छतरी ले लेती और उनके हाथ-मुँह धोने और जलपान की सामग्री इकट्टी करती। जब तक वह मिष्टान्न इत्यादि खाते वह पान के बीड़े लगा रखती। वह प्रेम रस का भूख, दिन भर का थका-मॉँदा, स्त्री की दन खातिरदारियों से गदगद हो जाता। कहाँ वह प्रीति बढ़ानेवाले व्यवहार और कहाँ आज का सन्नटा? सारा घर भॉँय-भॉँय कर रहा था। दीवारें काटने को दौड़ती थीं। ऐसा मालूम होता कि इसके बसनेवालो उजड़ गये। बेचारी पूर्णा आँगन में बैठी हुई। उसके कलेजे में अब रोने का दम नहीं है और न आँखों से आँसू बहते हैं। हाँ, कोई दिल में बैठा खून चूस रहा है। वह शोक से मतवाली हो गयी है। नहीं मालूम इस वक्त वह क्या सोच रही है। शायद अपने सिधारनेवाले पिया से प्रेम की बातें कर रही है या उससे कर जोड़ के बिनती कर रही है कि मुझे भी अपने पास बुला लो। हमको उस शोकातुरा का हाल लिखते ग्लानि होती है। हाय, वह उस समय पहचानी नहीं जाती। उसका चेहरा पीला पड़ गया है। होठों पर पपड़ी छायी हुई हैं, आँखें सूरज आयी हैं, सिर के बाल खुलकर माथे पर बिखर गये है, रेशमी साड़ी फटकार तार-तार हो गयी है, बदन पर गहने का नाम भी नहीं है चूड़िया टूटकर चकनाचूर हो गयी है, लम्बी-लम्बी सॉँसें आ रही हैं। व चिन्ता उदासी और शोक का प्रत्यक्ष स्वरुप मालूम होती है। इस वक्त कोई ऐसा नहीं है जो उसको तसल्ली दे। यह सब कुछ हो गया मगर पूर्णा की आस अभी तक कुछ-कुछ बँधी हुई है। उसके कान दरवाजे की तरफ लगे हुए हुए है कि कहीं कोई उनके जीवित निकल आने की खबर लाता हो। सच है वियोगियों की आस टूट जाने पर भी बँधी रहती है।

शाम होते-होते इस शोकदायक घटना की ख़बर सारे शहर में गूँज उठी। जो सुनता सिर धुनता। बाबू अमृतराय हवा खाकर वापस आ रहे थे कि रासते में पुलिस के आदमियों को एक लाश के साथ जाते देखा। बहुत-से आदमियों की भीड़ लगी हुई थी। पहले तो वह समझे कि कोई खून का मुकदमा होगा। मगर जब दरियाफ्त किया तो सब हाल मालूम हो गया। पण्डित जी की अचानक मृत्यु पर उनको बहुत रोज हुआ। वह बसंतकुमार को भली भॉँति जानते थे। उन्हीं की सिफारिश से पंडित जी दफ्तर में वह जग मिली थी। बाबू साहब लाश के साथ-साथ थाने पर पहुँचे। डाक्टर पहले से ही आया हुआ था। जब उसकी जॉँच के निमित्त लाश खोली गयी तो जितने लोग खड़े थे सबके रोंगेटे खड़े हो गये और कई आदमियों की आँखों से आँसू निकल आये। लाश फूल गयी थी। मगर मुखड़ा ज्यों का त्यों था और कमल के सुन्दर फूल होंठों के बीच दॉँतों तले दबे हुए थे। हाय, यह वही फूल थे जिन्होंने काल बनकर उसको डसा था। जब लाश की जॉँच हो चुकी तब अमृतराय ने डाक्टर साहब से लाश के जलाने की आज्ञा मॉँगी जो उनको सहज ही में मिल गयी। इसके बाद वह अपने मकान पर आये। कपड़े बदले और बाईसिकिल पर सवार होकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे। देखा तो चौतरफासन्नाटा छाया हुआ है। हर तरफ से सियापा बरस रहा है। यही समय पंडित जी के दफ्तर से आने का था। पूर्णा रोज इसी वक्त उनके जूते की आवजे सुनने की आदी हो रही थी। इस वक्त ज्योंही उसने पैरों की चाप सुनी वह बिजली की तरह दरवाजे की तरफ दौड़ी। मगर ज्योंही दरवाजे पर आयी और अपने पति की जगी पर बाबू अमृतराय को खड़े पाया तो ठिठक गयी। शर्म से सर झुका लिया और निराश होकर उलटे पॉँव वापास हुई। मुसीबत के समय पर किसी दु:ख पूछनेवालो की सूरत आँखों के लिए बहाना हो जाती है। बाबू अमृतराय एक महीने में दो-तीन बार अवश्य आया करते थे और पंडित जी पर बहुत विश्वास रखते थे। इस वक्त उनके आने से पूर्णा के दिल पर एक ताज़ा सदमा पहुँचा। दिल फिर उमड़ आया और ऐसा फूट-फूट कर रोयी कि बाबू अमृतराय, जो मोम की तरह नर्म दिल रखते थे, बड़ी देर तक चुपचाप खड़े बिसुरा किये। जब ज़रा जी ठिकाने हुआ तो उन्होंने महीर को बुलाकर बहुत कुछ दिलासा दिया और देहलीज़ में खड़े होकर पूर्णा को भी समझया और उसको हर तरहा की मदद देने का वादा करके, चिराग जलते-जलते अपने घर की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा अपनी महताबी पर हवा खाने निकली थी। सकी आँखें पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी हुई थीं। निदान उसने किसी को बाइसिकिल पर सवार उधार से निकलते दखा। गौर से देखा तो पहिचान गई और चौंककर बोली—‘अरे, यह तो अमृतराय है।

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Re: प्रेमा (उपन्यास) लेखक-मुंशी प्रेम चन्द

Unread post by sexy » 25 Jul 2015 11:35

अँय ! यह गजरा क्या हो गया?

पंडित बंसतकुमार का दुनिया से उठ जाना केवल पूर्णा ही के लिए जानलेवा न था, प्रेमा की हालत भी उसी की-सी थी। पहले वह अपने भाग्य पर रोया करती थी। अब विधाता ने उसकी प्यारी सखी पूर्णा पर विपत्ति डालकर उसे और भी शोकातुर बना दिया था। अब उसका दुख हटानेवाला, उसका गम गलत करनेवाला काई न था। वह आजकल रात-दिन मुँह लपेटे चारपाई पर पड़ी रहती। न वह किसी से हँसती न बोलती। कई-कई दिन बिना दाना-पानी के बीत जाते। बनाव-सिगार उसको जरा भी न भाता। सर के बल दो-दो हफ्ते न गूँथे जाते। सुर्मादानी अलग पड़ी रोया करती। कँघी अलग हाय-हाय करती। गहने बिल्कुल उतार फेंके थे। सुबह से शाम तक अपने कमरे में पड़ी रहती। कभी ज़मीन पर करवटें बदलती, कभी इधर-उधर बौखलायी हुई घूमती, बहुधा बाबू अमृतराय की तस्वीर को देखा करती। और जब उनके प्रेमपत्र याद आते तो रोती। उसे अनुभव होता था कि अब मैं थोड़े दिनों की मेहमान हूँ।

पहले दो महीने तक तो पूर्णा का ब्रह्मणों के खिलाने-पिलाने और पति के मृतक-संस्कार से सॉँस लेने का अवकाश न मिला कि प्रेमा के घर जाती। इसके बाद भी दो-तीन महीने तक वह घर से बाहर न निकली। उसका जी ऐसा बुझ गया था कि कोई काम अच्छा न लगता। हाँ, प्रेमा माँ के मना करने पर भी दो-तीन बार उसके घर गयी थी। मगर वहाँ जाकर आप रोती और पूर्णा को भी रुलाती। इसलिए अब उधर जाना छोड़ दिया था। किन्तु एक बात वह नित्य करती। वह सन्ध्या समय महताबी पर जाकर जरुर बैठती। इसलिए नहीं कि उसको समय सुहाना मालूम होता या हवा खाने को जी चाहता था, नहीं प्रत्युत केवल इसलिए कि वह कभी- कभी बाबू अमृतराय को उधर से आते-जाते देखती। हाय लिज वक्त वह उनको देखते उसका कलेजा बॉँसों उछालने लगता। जी चाहता कि कूद पडूँ और उनके कदमों पर अपनी जान निछावर कर दूँ। जब तक वह दिखायी देते अकटकी बॉँधे उनको देखा करती। जब वह आँखों से आझला हो जाते तब उसके कलेजे में एक हूक उठती, आपे की कुछ सुधि न रहती। इसी तरह कई महीने बीत गये।

एक दिन वह सदा की भॉँति अपने कमरे में लेटी हुई बदल रही थी कि पूर्णा आयी। इस समय उसको देखकर ऐसा ज्ञात होता था कि वह किसी प्रबल रोग से उठी है। चेहरा पीला पड़ गया था, जैसे कोई फूल मुरझा गया हो। उसके कपोल जो कभी गुलाब की तरह खिले हुए थे अब कुम्हला गये थे। वे मृगी की-सी आँखें जिनमें किसी समय समय जवानी का मतवालापन और प्रेमी का रस भरा हुआ था अन्दर घुसी हुई थी, सिर के बाल कंधों पर इधर-उधर बिखरे हुए थे, गहने-पाते का नाम न था। केवल एक नैन सुख की साड़ी बदन पर पड़ी हुई थी। उसको देखते ही प्रेमा दौड़कर उसके गले से चिपट गयी और लाकर अपनी चारपाई पर बिठा दिया।

कई मिनट तक दोनों सखियॉँ एक-दूसरे के मुँह को ताकती रहीं। दोनो के दिल में ख्यालों का दरिया उमड़ा हुआ था। मगर जबान किसी की न खुलती थी। आखिर पूर्णा ने कहा-आजकल जी अच्छा नहीं है क्या? गलकर कॉँटा गयी हो

प्रेमा ने मुसकराने की चेष्टा करके कहा-नहीं सखी, मैं बहुत अच्छी तरह हूँ। तुम तो कुशल से रही?

पूर्णा की आँखों में आँसू डबडबा आये। बोली-मेरा कुशल-आनन्द क्या पूछती हो, सखी आनन्द तो मेरे लिए सपना हो गया। पॉँच महीने से अधिक हो गये मगर अब तक मेरी आँखें नहीं झपकीं। जान पड़ता है कि नींद आँसू होकर बह गयी।

प्रेमा- ईश्वर जानता है सखी, मेरा भी तो यही हाल है। हमारी-तुम्हारी एक ही गत है। अगर तुम ब्याही विधवा हो तो मैं कुँवारी विधवा हूँ। सच कहती हूँ सखी, मैने ठान लिया है कि अब परमार्थ के कामों में ही जीवन व्यतीत करुँगा।

पूर्णा- कैसी बातें करती हो, प्यारी मेरा और तुम्हारा क्या जोड़ा? जितना सुख भोगना मेरे भाग में बदा था भोग चुकी। मगर तुम अपने को क्यों घुलाये डालती हो? सच मानो, सखी, बाबू अमृतराय की दशा भी तुम्हारी ही-सी है। वे आजकल बहुत मलिन दिखायी देते है। जब कभी इधर की बात चलती हूँ तो जाने का नाम ही नहीं लेते। मैंने एक दिन देखा, वह तुम्हारा काढ़ा हुआ रुमाला लिये हुए थे।

यह बातें सुनकर प्रेमा का चेहरा खिल गया। मारे हर्ष के आँखें जगमगाने लगी। पूर्णा का हाथ अपने हाथों में लेकर और उसकी आँखों से आँखें मिलाकर बोली-सखी, इधर की और क्या-क्या बातें आयी थीं?

पूर्णा- (मुस्कराकर) अब क्या सब आज ही सुन लोगी। अभी तो कल ही मैंने पूछा कि आप ब्याह कब करेंगे, तो बोले-'जब तुम चाहो।' मैं बहुत लजा गई।

प्रेमा- सखी, तुम बड़ी ढीठ हो। क्या तुमको उनके सामने निकलते-पैठते लाज नहीं आती?

पूर्णा- लाज क्यों आती मगर बिना सामने आये काम तो नहीं चलता और सखी, उनसे क्या परदा करूँ उन्होंने मुझ पर जो-जो अनुग्रह किये हैं उनसे मैं कभी उऋण नहीं हो सकती। पहिले ही दिन, जब कि मुझ पर वह विपत्ति पड़ी रात को मेरे यहाँ चोरी हो गयी। जो कुछ असबाबा था पापियों ने मूस लिया। उस समय मेरे पास एक कौड़ी भी न थी। मैं बड़े फेर में पड़ी हुई थी कि अब क्या करुँ। जिधर आँख उठाती, अँधेरा दिखायी देता। उसके तीसरे दिन बाबू अमृतराय आये। ईश्वर करे वह युग-युग जिये: उन्होंने बिल्लो की तनख़ाह बॉँध दी और मेरे साथ भी बहुत सलूक किया। अगर वह उस वक्त आड़े न आते तो गहने-पाते अब तक कभी के बिक गये होते। सोचती हूँ कि वह इतने बड़े आदमी हाकर मुझ भिखारिनी के दरवाजे पर आते है तो उनसे क्या परदा करुँ। और दूनिया ऐसी है कि इतना भी नहीं देख सकती। वह जो पड़ोसा में पंडाइन रहती है, कई बार आई और बोली कि सर के बाल मुड़ा लो। विधवाओं का बाल न रखना चाहिए। मगर मैंने अब तक उनका कहना नहीं माना। इस पर सारे मुहल्ले में मेरे बारे में तरह-तरह की बातें की जाती हैं। कोई कुछ कहता हैं, कोई कुछ। जितने मुँह उतनी बातें। बिल्लो आकर सब वृत्तान्त मुझसे कहती है।सब सुना लेती हूँ और रो-धोकर चुप हो रहती हूँ। मेरे भाग्य में दुख भोगना, लोगों की जली-कटी सुनना न लिखा होता तो यह विपत्ति ही काहे को पड़ती। मगर चाहे कुछ हो मैं इन बालों को मुँड़वाकर मुण्डी नहीं बनना चाहती। ईश्वर ने सब कुछ तो हर लिया, अब क्या इन बालों से भी हाथ धोऊँ।

यह कहकर पूर्णा ने कंधो पर बिखरे हुए लम्बे-लम्बे बालों पर ऐसी दृष्टि से देखा मानो वे कोई धन हैं। प्रेमा ने भी उन्हें हाथ से सँभाला कर कहा-नहीं सखी खबरदार, बालों को मुँड़वाओगी तो हमसे-तुमसे न बनगी। पंडाइन को बकने दो। वह पगला गई है। यह देखो नीचे की तरफ जो ऐठन पड़ गयी हैं, कैसी सुन्दर मालूम होती है यही कहकर प्रेमा उठी। बक्स में सुगन्धित तेल निकाला और जब तक पूर्णा हाय-हाय करे कि उसके सर की चादर खिसका कर तेल डाल दिया और उसका सर जाँघ पर रखकर धीरे-धीरे मलने लगी। बेचारी पूर्णा इन प्यार की बातों को न सह सकी। आँखों में आँसू भरकर बोली-प्यारी प्रेमा यह क्या गजब करती हो। अभी क्या काम उपहास हो रहा है? जब बाल सँवारे निकलूँगी तो क्या गत होगी। अब तुमसे दिल की बात क्या छिपाऊँ। सखी, ईश्वर जानता हैं, मुझे यह बाल खुद बोझ मालूम होते हैं। जब इस सूरत का देखनेवाला ही संसार से उठ गया तो यह बाल किस काम के। मगर मैं इनके पीछे पड़ोसियों के ताने सहती हूँ तो केवल इसलिए कि सर मुड़ाकर मुझसे बाबू अमृतराय के सामने न निकला जाएगा। यह कह कर पूर्णा जमीन की तरफ ताकने लगी। मानो वह लजा गयी है। प्रेमा भी कुछ सोचने लगी। अपनसखी के सर में तेल मला, कंघी की बाल गूँथे और तब धीरे से आईना लाकर उसके सामने रख दिया। पूर्णा ने इधर पॉँच महीने से आईने का मुँह नहीं देखा था। वह सझती थी कि मेरी सूरत बिलकूल उतर गयी होगी मगर अब जो देखा तो सिवया इसके कि मुँह पीला पड़ गया था और कोई भेद न मालूम हुआ। मध्यम स्वर में बोली-प्रेमा, ईश्वर के लिए अब बस करो, भाग से यह सिंगार बदा नहीं हैं। पड़ोसिन देखेंगी तो न जाने क्या अपराध लगा दें।

प्रेम उसकी सूरत को टकटकी लगाकर देख रही थी। यकायक मुस्कराकर बोली-सखी, तुम जानती हो मैंने तुम्हारा सिंगार क्यों किया?

पूर्णा- मैं क्या जानूँ। तुम्हारा जी चाहत होगा।

प्रेमा- इसलिए कि तुम उनके सामने इसी तरह जाओ।

पूर्णा- तुम बड़ी खोटी हो। भला मैं उनके सामने इस तरह कैसे जाऊँगी। वह देखकर दिल में क्या में क्या कहेंगे। देखनेवाले यों ही बेसिर-पैर की बातें उड़ाया करते है, तब तो और भी नह मालूम क्या कहेंगे।

थोड़ी देर तक ऐसे ही हंसी-दिल्ली की बातो-बातो में प्रेमा ने कहा-सखी, अब तो अकेले नहीं रहा जाता। क्या हर्ज है तुम भी यहीं उठ आओ। हम तुम दोनों साथ-साथ रहें।

पूर्णा- सखी, मेरे लिए इससे अधिक हर्ष की कौन-सी बात होगी कि तुम्हारे साथ रहूँ। मगर अब तो पैर फूक-फूक कर धरना होती है। लोग तुम्हारे घर ही में राजी न होंगे। और अगर यह मान भी गये तो बिना बाबू अमृतराय की मर्जी के कैसे आ सकती हूँ। संसार के लोग भी कैसे अंधे है। ऐसे दयालू पुरुष कहते हैं कि ईसाई हो गया हैं कहनेवालों के मुँह से न मालूम कैसे ऐसी झूठी बात निकालती है। मुझसे वह कहते थे कि मैं शीघ्र ही एक ऐसा स्थान बनवानेवाला हूँ जहाँ अनाथ जहाँ अनाथ विधवाऍं आकर रहेंगी। वहाँ उनके पालन-पोषण और वस्त्र का प्रबन्ध किया जाएगा और उनके पढ़ना-लिखाना और पूजा-पाठ करना सिखाया जायगा। जिस आदमी के विचार ऐसे शुद्ध हों उसको वह लोग ईसाई और अधर्मी बनाते है, जो भूलकर भी भिखमंगे को भीख नहीं देते। ऐसा अंधेर है।

प्रेमा- बहिन, संसार का यही है। हाय अगर वह मुझे अपनी लौंडी बना लेते तो भी मेरा जीवन सफल हो जाता। ऐसे उदारचित्त दाता चेरी बनना भी कोई बड़ाई की बात है।

पूर्णा- तुम उनकी चेरी काहे को बनेगी। काहे को बनेगी। वह तो आप तुम्हारे सेवक बनने के लिए तैयार बैठे है। तुम्हारे लाला जी ही नहीं मानते। विश्वास मानो यदि तुमसे उनका ब्याह न हुआ तो कवारे ही रहेंगे।

प्रेमा- यहाँ यही ठान ली है कि चेरी बनूँगी तो उन्हीं की।

कुछ देरे तक तो यही बातें हुआ की। जब सूर्य अस्त होने लगा तो प्रेमा ने कहा-चलो सखी, तुमको बगीचे की सैर करा लावें। जब से तुम्हारा आना-जाना छूटा तब से मैं उधर भूलकर भी नहीं गयी।

पूर्णा- मेरे बाल खोल दो तो चलूँ। तुम्हारी भावज देखेगी तो ताना मारेगी।

प्रेमा- उनके ताने का क्या डर, वह तो हवा, से उलझा करती हैं। दोनों सखियां उठी औरहाथ दिये कोठे से उतार कर फुलवारी में आयी। यह एक छोटी-सी बगिया थी जिसमें भॉँति-भॉंति के फूल खिल रहे थे। प्रेमा को फूलों से बहुत प्रम था। उसी ने अपनी दिलबलावा के लिए बगीचा था। एक माली इसी की देख-भाल के लिए नौकर था। बाग़ के बीचो-बीच एक गोल चबूतरा बना हुआ था। दोनों सखियॉँ इस चबूतेरे पर बैठ गयी। इनको देखते ही माली बहुत-सी कलियॉँ एक साफ तरह कपड़े में लपेट कर लाया। प्रेमा ने उनको पूर्णा को देना चाहा। मगर उसने बहुत उदास होकर कहा-बहिन, मुझे क्षमा करो,इनकी बू बास तुमको मुबारक हो। सोहाग के साथ मैंने फूल भी त्याग दिये। हाय जिस दिन वह कालरुपी नदी में नहाने गये हैं उस दिन ऐसे ही कलियों का हार बनाया था। (रोकर) वह हार धरा का धरा का गया। तब से मैंने फूलों को हाथ नहीं लगाया। यह कहते-कहते वह यकयक चौंक पड़ी और बोली-सखी अब मैं जाउँगी। आज इतवार का दिन है। बाबू साहब आते होंगे।

प्रेमा ने रोनी हँसकर कहा-'नही' सखी, अभी उनके आने में आध घण्टे की देर है। मुझे इस समय का ऐसा ठीक परिचय मिल गया है कि अगर कोठरी में बन्द कर दो तो भी शायद गलती न करुँ। सखी कहते लाज आती है। मैं घण्टों बैठकर झरोखे से उनकी राह देखा करती हूँ। चंचल चित्त को बहुत समझती हूँ। पर मानता ही नहीं।

पूर्णा ने उसको ढारस दिया और अपनी सखी से गले मिल, शर्माती हुई घूंघट से चेहरे को छिपाये अपने घर की तरफ़ चली और प्रेमी किसी के दर्शन की अभिलाषा कर महताबी पर जाकर टहलने लगी।

पूर्णा के मकान पर पहुँचे ठीक आधी घड़ी हुई थी कि बाबू अमृतराय बाइसिकिल पर फर-फर करते आ पहुँचे। आज उन्होंने अंग्रेजी बाने की जगह बंगाली बाना धारण किया था, जो उन पर खूब सजता था। उनको देखकर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह राजकुमार नहीं हैं बाजारो में जब निकलाते तो सब की आँखे उन्हीं की तरफ उठती थीं। रीति के विरुद्ध आज उनकी दाहिनी कलाई पर एक बहुत ही सुगन्धित मनोहर बेल का हार लिपटा हुआ था, जिससे सुगन्ध उड़ रही थी और इस सुगन्ध से लेवेण्डर की खुशबू मिलकर मानों सोने में सोहागा हो गया था। संदली रेशमी के बेलदार कुरते पर धानी रंग की रेशमी चादर हवा के मन्द-मन्द झोंकों से लहरा-लहरा कर एक अनोखी छवि दिखाती थी। उनकी आहट पाते ही बिल्लो घर में से निकल आई और उनको ले जाकर कमरे में बैठा दिया।

अमृतराय- क्यों बिल्लो, सग कुशल है?

बिल्लो- हाँ, सरकार सब कुशल है।

अमृतराय- कोई तकलीफ़ तो नहीं है?

बिल्लो- नहीं, सरकार कोई तकलीफ़ नहीं है।

इतने में बैठके का भीतरवाला दरवाजा खुला और पूर्णा निकली। अमृतराय ने उसकी तरफ़ देखा तो अचम्भे में आ गये और उनकी निगाह आप ही आप उसके चेहरे पर जम गई। पूर्णा मारे लज्जा के गड़ी जाती थी कि आज क्यों यह मेरी ओर ऐसे ताक रहे हैं। वह भूल गयी थी कि आज मैंने बालों में तेल डाला है, कंघी की है और माथे पर लाल बिन्दी भी लगायी है। अमृतराय ने उसको इस बनाव-चुनाव के साथ कभी नहीं देखा था और न वह समझे थे कि वह ऐसी रुपवती होगी।

कुछ देर तक तो पूर्णा सर नीचा किये खड़ी रही। यकायक उसको अपने गुँथे केश की सुधि आ गयी और उसने झट लजाकर सर और भी निहुरा लिया, घूँघट को बढ़ाकर चेहरा छिपा लिया। और यह खयाल करके कि शायद बाबू साहब इस बनाव सिंगार से नाराज हों वह बहुत ही भोलेपन के साथ बोली-मैं क्या करु, मैं तो प्रेमा के घर गयी थी। उन्होंने हठ करके सर में मे तेल डालकर बाल गूँथ दिये। मैं कल सब बाल कटवा डालूँगी। यह कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू भर आये।

उसके बनाव सिंगार ने अमृतराय पर पहले ही जादू चलाया था। अब इस भोलेपन ने और लुभा लिया। जवाब दिया-नहीं-नहीं, तुम्हें कसम है, ऐसा हरगिज न करना। मैं बहुत खुश हूँ कि तुम्हारी सखी ने तुम्हारे ऊपर यह कृपा की। अगर वह यहाँ इस समय होती तो इसके निहोरे में मैं उनको धन्यवाद देता।

पूर्णा पढ़ी-लिखी औरत थी। इस इशारे को समझ गयी और झेपेर गर्दन नीचे कर ली। बाबू अमृतराय दिल में डर रहे थे कि कहीं इस छेड़ पर यह देवी रुष्ट न हो जाए। नहीं तो फिर मनाना कठिन हो जाएगा। मगर जब उसे मुसकराकर गर्दन नीची करते देखा तो और भी ढिठाई करने का साहस हुआ। बोले-मैं तो समझता था प्रेमा मुझे भूल होगी। मगर मालूम होता है कि अभी तक मुझ पर कुछ-कुछ स्नेह बाक़ी है।

अब की पूर्णा ने गर्दन उठायी और अमृतराय के चेहरे पर आँखें जमाकर बोली, जैसे कोई वकील किसी दुखीयारे के लिए न्याधीश से अपील करता हो-बाबू साहब, आपका केवल इतना समझना कि प्रेमा आपको भूल गयी होगी, उन पर बड़ा भारी आपेक्ष है। प्रेमा का प्रेम आपके निमित्त सच्चा है। आज उनकी दशा देखकर मैं अपनी विपत्ति भूल गयी। वह गल कर आधी हो गयी हैं। महीनों से खाना-पीना नामात्र है। सारे दिन आनी कोठरी में पड़े-पड़े रोय करती हैं। घरवाले लाख-लाख समझाते हैं मगर नहीं मानतीं। आज तो उन्होंने आपका नाम लेकर कहा-सखी अगर चेरी बनूँगी तो उन्हीं की।

यह समाचार सुनकर अमृतराय कुछ उदास हो गये। यह अग्नि जो कलेजे में सुलग रही थी और जिसको उन्होंने सामाजिक सुधार के राख तले दबा रक्खा था इस समय क्षण भर के लिए धधक उठी, जी बेचैन होने लगा, दिल उकसाने लगा कि मुंशी बदरीप्रसाद का घर दूर नहीं है। दम भर के लिए चलो। अभी सब काम हुआ जाता है। मगर फिर देशहित के उत्साह ने दिल को रोका। बोले-पूर्णा, तुम जानती हो कि मुझे प्रेमा से कितनी मुहब्बत थी। चार वर्ष तक मैं दिल में उनकी पूजा करता रहा। मगर मुंशी बदरप्रसाद ने मेरी दिनों की बँधी हुई आस केवल इस बात पर तोड़ दी कि मैं सामाजिक सुधार का पक्षपाती हो गया। आखिर मैंने भी रो-रोकर उस आग को बुझाया और अब तो दिल एक दूसरी ही देवी की उपासना करने लगा है। अगर यह आशा भी यों ही टूट गयी तो सत्य मानो, बिना ब्याह ही रहूँगा।

पूर्णा का अब तक यह ख़याल था कि बाबू अमृतराय प्रेमा से ब्याह करेंगे। मगर अब तो उसको मालूम हुआ कि उनका ब्याह कहीं और लग रहा है तब उसको कुछ आश्चर्य हुआ। दिल से बातें करने लगी। प्यारी प्रेमा, क्या तेरी प्रीति का ऐसा दुखदायी परिणाम होगा। तेरो माँ-बाप, भाई-बंद तेरी जान के ग्राह हो रहे हैं। यह बेचारा तो अभी तक तुझ पर जान देता हैं। चाहे वह अपने मुँह से कुछ भी न कहे, मगर मेरा दिल गवाही देता है कि तेरी मुहब्बत उसके रोम-रोम में व्याप रही है। मगर जब तेरे मिलने की कोई आशा ही न हो तो बेचारी क्या करे मजबूर होकर कहीं और ब्याह करेगा। इसमें सका क्या दोष है। मन में इस तरह विचार कर बोली-बाबू साहब, आपको अधिकार है जहाँ चाहो संबंध करो। मगर मैं मो यही कहूँगी कि अगर इस शहर में आपके जोड़ की कोई है तो वही प्रमा है।

अमृत०- यह क्यों नहीं कहतीं कि यहाँ उनके योग्य कोई वर नहीं, इसीलिए तो मुंशी बदरीप्रसाद ने मुझे छुटकार किया।

पूर्णा- यह आप कैसी बात कहते है। प्रेमा और आपका जोड़ ईश्वर ने अपने हाथ से बनाया है।

अमृत०- जब उनके योग्य मैं था। अब नहीं हूँ। पूर्णा-अच्छा आजकल किसके यहाँ बातचीत हो रही है?

अमृत०- (मुस्कराकर) नाम अभी नहीं बताऊँगा। बातचीत तो हो रही है। मगर अभी कोई पक्की उम्मेदे नहीं हैं।

पूर्णा- वाह ऐसा भी कहीं हो सकता है? यहाँ ऐसा कौन रईस है जो आपसे नाता करने में अपनी बड़ाई न समझता हो।

अमृत०- नहीं कुछ बात ही ऐसी आ पड़ी है।

पूर्णा- अगर मुझसे कोई काम हो सके तो मैं करने को तैयार हूँ। जो काम मेरे योग्य हो बता दीजिए।

अमृत- (मुस्कराकर)तुम्हारी मरजी बिना तो वह काम कभी पूरा हो ही नही सकता। तुम चाहो तो बहुत जल्द मेरा घर बस सकता है।

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Re: प्रेमा (उपन्यास) लेखक-मुंशी प्रेम चन्द

Unread post by sexy » 25 Jul 2015 11:38

आज से कभी मन्दिर न जाऊँगी

बेचारी पूर्णा, पंडाइन, चौबाइन, मिसराइन आदि के चले जाने के बाद रोने लगी। वह सोचती थी कि हाय। अब मैं ऐसी मनहूस समझी जाती हूं कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगों को मेरी सूरत काटने दौड़ती हैं। अभी नहीं मालूम क्या-क्या भोगना बदा है। या नारायण। तू ही मुझ दुखिया का बेड़ा पार लगा। मुझ पर न जाने क्या कुमति सवार थी कि सिर में एक तेल डलवा लियौ। यह निगोड़े बाल न होते तो काहे को आज इतनी फ़जीहत होती। इन्हीं बातों की सुधि करते करते जब पंडाइन की यह बात याद आ गयी कि बाबू अमृतराय का रोज रोज आना ठीक नहीं तब उसने सिर पर हाथ मारकर कहा-वह जब आप ही आप आते है तो मै कैसे मना कर दूँ। मै। तो उनका दिया खाती हूँ। उनके सिवाय अब मेरी सुधि लेने वाला कौन है। उनसे कैसे कह दूँ कि तुम मत आओ। और फिर उनके आने में हरज ही क्या है। बेचारे सीधे सादे भले मनुष्य है। कुछ नंगे नहीं, शोहदे नहीं। फिर उनके आने में क्या हरज है। जब वह और बड़े आदमियों के घर जाते है। तब तो लोग उनको आँखो पर बिठाते है। मुझ भिखारिन के दरवाजे पर आवें तो मै कौन मुँह लेकर उनको भगा दूँ। नहीं नहीं, मुझसे ऐसा कभी न होगा। अब तो मुझ पर विपत्ति आ ही पड़ी है। जिसके जी में जो आवै कहै।

इन विचारों से छुटटी पाकर वह अपने नियमानुसार गंगा स्नान को चली। जब से पंडित जी का देहांत हुआ था तब से वह प्रतिदिन गंगा नहाने जाया करती थी। मगर मुँह अंधेरे जाती और सूर्य निकलते लौट आती। आज इन बिन बुलाये मेहमानों के आने से देर हो गई। थोड़ी दूर चली होगी कि रास्ते में सेठानी की बहू से भेट हो गई। इसका नाम रामकली था। यह बेचारी दो साल से रँडापा भोग रही थी। आयु १६ अथवा १७ साल से अधिक न होगी। वह अति सुंदरी नख-शिख से दुरूस्त थी। गात ऐसा कोमल था कि देखने वाले देखते ही रह जाते थे। जवानी की उमर मुखडे से झलक रही थी। अगर पूर्णा पके हुए आम के समान पीली हो रही थी, तो वह गुलाब के फूल की भाति खिली हुई थी। न बाल में तेल था, न आँखो में काजल, न मॉँग में संदूर, न दॉँतो पर मिससी। मगर आँखो मे वह चंचलता थी, चाल मे वह लचक और होठों पर वह मनभवानी लाली थी कि जिससे बनावटी श्रृंगार की जरूरत न रही थी। वह मटकती इधर-उधर ताकती, मुसकराती चली जा रही थी कि पूर्णा को देखते ही ठिठक गयी और बड़े मनोहर भाव से हंसकर बोली-आओ बहिन, आओ। तुम तो जानों बताशे पर पैर धर रही हो।

पूर्णा को यह छेड़-छाड़ की बात बुरी मालूम हुई। मगर उसने बड़ी नर्मी से जवाब दिया-क्या करूं बहिन। मुझसे तो और तेज नहीं चला जाता।

रामकली-सुनती हूं कल हमारी डाइन कई चुड़ैलो के साथ तुमको जलाने गयी थी। जानों मुझे सताने से अभी तक जी नहीं भरा। तुमसे क्या कहू बहिन, यह सब ऐसा दुख देती है कि जी चाहता है माहुर खा लूँ। अगर यही हाल रहा तो एक दिन अवश्य यही होना है। नहीं मालूम ईश्वर का क्या बिगाड़ा था कि स्वप्न में भी जीवन का सुख न प्राप्त हुआ। भला तुम तो अपने पति के साथ दो वर्ष तक रहीं भी। मैंने तो उसका मुँह भी नहीं देखा। जब तमाम औरतों को बनाव-सिंगार किये हँसी-खुशी चलते-फिरते देखती हूँ तो छाती पर सापँ लोटने लगता है। विधवा क्या हो गई घर भर की लौंडी बना दी गयी। जो काम कोई न करे वह मै करुं। उस पर रोज उठते जूते, बैठते लात। काजर मत लगाओ। किस्सी मत लगाओ। बाल मत गुँथाओ। रंगीन साड़ियॉँ मत पहनों। पान मत खाओ। एक दिन एक गुलाबी साड़ी पहन ली तो चुड़ैल मारने उठी थी। जी में तो आया कि सर के बाल नोच लूँ मगर विष का घूँट पी के रह गयी और वह तो वह, उसकी बेटियॉँ और दूसरी बहुऍं मुझसे कन्नी काटती फिरती है। भोर के समय कोई मेरा मुँह नहीं देखता। अभी पड़ोस मे एक ब्याह पड़ा था। सब की सब गहने से लद लद गाती बजाती गयी। एक मै ही अभागिनी घर मे पडी रोती रही। भला बहिन, अब कहाँ तक कोई छाती पर पत्थर रख ले। आखिर हम भी तो आदमी है। हमारी भी तो जवानी है। दूसरों का राग-रंग, हँसी, चुहल देख अपने मन मे भी भावना होती है। जब भूख लगे और खाना न मिले तो हार कर चोरी करनी पड़ती है।

यह कहकर रामकली ने पूर्णा का हाथ अपने हाथ में ले लिया और मुस्कराकर धीरे धीरे एक गीत गुनगुनाने लगी। बेचारी पूर्णा दिल में कुढ़ रही थी कि इसके साथ क्यों लगी। रास्ते में हजारों आदमी मिले। कोई इनकी ओर आँखे फाड़ फाड़ घूरता था, कोई इन पर बोलिया बोलता था। मगर पूर्णा सर को ऊपर न उठाती थी। हाँ, रामकली मुसकरा मुसकरा कर बड़ी चपलता से इधर उधर ताकती, आँखे मिलाती और छेड़ छाड़ का जवाब देती जाती थी। पूर्णा जब रास्ते में मर्दो को खडे देखती तो कतरा के निकल जाती मगर रामकली बरबस उनके बीच में से घुसकर निकलती थी। इसी तरह चलते चलते दोनो नदी के तट पर पहुँची। आठ बज गया था। हजारों मर्द स्त्रियॉँ, बच्चे नहा रहे थे। कोई पूजा कर रहा था। कोई सूर्य देवता को पानी दे रहा था। माली छोटी-छोटी डालियों में गुलाब, बेला, चमेली के फूल लिये नहानेवालों को दे रहे थे। चारों और जै गंगा। जै गंगा। का शब्द हो रहा था। नदी बाढ़ पर थी। उस मटमैले पानी में तैरते हुए फूल अति सुंदर मालूम होते थे। रामकली को देखते ही एक पंडे ने कही-'इधर सेठानी जी, इधर।' पंडा जी महाराज पीताम्बर पहने, तिलक मुद्रा लगाये, आसन मारे, चंदन रगड़ने में जुटे थे। रामकली ने उसके स्थान पर जाकर धोती और कमंउल रख दिया।

पंडा-(घूरकर) यह तुम्हारे साथ कौन है?

राम०-(आँखे मटकाकर) कोई होंगी तुमसे मतलब। तुम कौन होते हो पूछने वाले?

पंडा-जरा नाम सुन के कान खुश कर लें।

राम०-यह मेरी सखी हैं। इनका नाम पूर्णा है।

पंडा-(हँसकर) ओहो हो। कैसा अच्छा नाम है। है भी तो पूर्ण चंद्रमा के समान। धन्य भाग्य है कि ऐसे जजमान का दर्शन हुआ।

इतने में एक दूसरा पंडा लाल लाल आँखे निकाले, कंधे पर लठ रखे, नशे में चूर, झूमता-झामता आ पहुँचा और इन दोनो ललनाओं की ओर घूर कर बोला, 'अरे रामभरोसे, आज तेरे चंदन का रंग बहुत चोखा है।

रामभरोसे-तेरी आँखे काहे को फूटे है। प्रेम की बूटी डाली है जब जा के ऐसा चोखा रंग भया।

पंडा-तेरे भाग्य को धन्य हैं यह रक्त चंदन (रामकली की तरफ देखकर) तो तूने पहले ही रगड़ा रक्खा था। परंतु इस मलयागिर (पूर्णा की तरफ इशारा करके) के सामने तो उसकी शोभा ही जाती रही।

पूर्णा तो यह नोक-झोंक समझ-समझ कर झेंपी जाती थी। मगर रामकली कब चूकनेवाली थे। हाथ मटका कर बोली-ऐसे करमठँढ़ियों को थोड़े ही मलयागिर मिला करता है।

रामभरोसे-(पंडा से) अरे बौरे, तू इन बातों का मर्म क्या जाने। दोनो ही अपने-अपने गुण मे चोखे है। एक में सुगंध है तो दूसरे में रंग है।

पूर्णा मन में बहुत लज्जित थी कि इसके साथ कहाँ फँस गयी। अब तक वो नहा-धोके घर पहुँची होती। रामकली से बोली-बहिन, नहाना हो तो नहाओ, मुझको देर होती है। अगर तुमको देर हो तो मैं अकेले जाऊँ।

रामभरोसे-नहीं, जजमान। अभी तो बहुत सबेरा है। आनंदपूर्वक स्नान करो।

पूर्णा ने चादर उतार कर धर दी और साड़ी लेकर नहाने के लिए उतरना चाहती थी कि यकायक बाबू अमृतराय एक सादा कुर्ता पहने, सादी टोपी सर पर रक्खे , हाथ में नापने का फीता लिये चंद ठेकेदारों के साथ अति दिखायी दिये। उनको देखते ही पूर्णा ने एक लंगी घूघंट निकाल ली और चाहा कि सीढ़ियों पर लंबाई-चौड़ाइ नापना था क्योकि वह एक जनाना घाट बनवा रहे थे। वह पूर्णा के निकट ही खड़े हो गये। और कागज पेसिंल पर कुछ लिखने लगे। लिखते-लिखते जब उन्होंने कदम बढ़ाया तो पैर सीढ़ी के नीचे जा पड़ा। करीब था कि वह औधै मुँह गिरे और चोट-चपेट आ जाय कि पूर्णा ने झपट कर उनको सँभाला लिया। बाबू साहब ने चौंककर देखा तो दहिना हाथ एक सुंदरी के कोमल हाथों में है। जब तक पूर्णा अपना घूँघट बढ़ावे वह उसको पहचान गये और बोले-प्यारी, आज तुमने मेरी जान बचा ली।

पूर्णा ने इसका कुछ जवाब न दिया। इस समय न जाने क्यों उसका दिल जोर जोर से धड़क रहा था और आखो में आँसू भरा आता था। 'हाय। नारायण, जोकहीं वह आज गिर पड़ते तो क्या होता...यही उसका मन बेर बेर कहता। 'मैं भले संयोग से आ गयी थी। वह सिर नीचा किये गंगा की लहरों पर टकटकी लगाये यही बातें गुनती रही। जब तक बाबू साहब खड़े रहे, उसने उनकी ओर एक बेर भी न ताका। जब वह चले गए तो रामकली मुसकराती हुई आयी और बोली-बहिन, आज तुमने बाबू साहब को गिरते गिरते बचा लिया आज से तो वह और भी तुम्हारे पैरों पर सिर रकखेगे।

पूर्णा-(कड़ी निगाहों से देखकर) रामकली ऐसी बातें न करो। आदमी आदमी के काम आता है। अगर मैंने उनको सँभाल लिया तो इसमे क्या बात अनोखी हो गयी।

रामकली-ए लो। तुम तो जरा सी बात पर तिनिक गयीं।

पूर्णा-अपनी अपनी रूचि है। मुझको ऐसी बातें नहीं भाती।

रामकली-अच्छा अपराध क्षमा करो। अब सर्कर से दिल्लगी न करूँगी। चलो तुलसीदल ले लो।

पूर्णा-नहीं, अब मै यहाँ न ठहरूँगी। सूरज माथें पसर आ गया।

रामकली-जब तक इधर उधर जी बहले अच्छा है। घर पर तो जलते अंगारों के सिवाय और कुछ नहीं।

जब दोनो नहाकर निकली तो फिर पंडो ने छेड़नाप चाहा, मगर पूर्णा एकदम भी न रूकी। आखिर रामकली ने भी उसका साथ छोड़ना उचित न समझा। दोनो थोड़ी दूर चली होगी। कि रामकली ने कहा-क्यों बहिन, पूजा करने न चलोगी?

पूर्णा-नहीं सखी, मुझे बहुत देर हो जायगी।

राम०-आज तुमको चलना पड़ेगा। तनिक देखो तो कैसे विहार की जगह है। अगर दो चार दिन भी जाओ तो फिर बिना नित्य गये जी न माने।

पूर्णा-तुम जाव, मैं न जाऊँगी। जी नहीं चाहता।

राम०-चलों चलो, बहुत इतराओ मत। दम की दम में तो लौटे आते है।

रास्ते में एक तंबोली की दूकान पड़ी। काठ के पटरों पर सुफेद भीगे हुए कपड़े बिछे थे। उस पर भॉँति-भॉँति के पान मसालों की खूबसूरत डिबियॉँ, सुगंध की शीशियॉँ, दो-तीन हरे-हरे गुलदस्ते सजा कर धरे हुए थे। सामने ही दो बड़े-बड़े चौखटेदार आईने लगे हुए थे। पनवाड़ी एक सजीया जवान था। सर पर दोपल्ली टोपी चुनकर टेडी दे रक्खी थी। बदन में तंजेब का फँसा हुआ कुर्ता था। गले में सोने की तावीजे। आँखो में सुर्मा, माथे पर रोरी, ओठो पर पान की गहरी लीली। इन दोनोंस्त्रियों को देखते ही बोला-सेठानी जी, पान खाती जाव।

रामकली ने चठ सर से चादर खसका दी और फिर उसको एक अनुपम भाव से ओढकर हंसते हुए नयनो से बोली-'अभी प्रसाद नहीं पाया'।

पनवाड़ी-आवो। आवो। यह भी तो प्रसाद ही है। संतों के हाथ की चीज प्रसाद से बढ़कर होती है। यह आज तुम्हारे साथ कौन शक्ति है?

राम-यह हमारी सखी है।

तम्बोली-बहुत अच्छा जोड़ा है। धन्य् भाग्य जो दर्शन हुआ।

रामकली दुकान पर ठमक गयी और शीशे में देख देख अपने बाल सँवारने लगी। उधर पनवाड़ी ने चाँदी के वरक लपेटे हुए बीडे फुरती से बनाये और रामकली की तरफ हाथ बढ़ाया। जब वह लेने को झुकी तो उसने अपना हाथ खींच लिया और हँसकर बोला-तुम्हारी सखी लें तो दें।

राम०-मुँह बनवा आओ, मुँह। (पान लेकर) लो, सखी, पान खाव।

पूर्णा-मैं न खाऊँगी।

राम-तुम्हारी क्या कोई सास बैठी है जो कोसेगी। मेरी तो सास मना करती है। मगर मैं उस पर भी प्रतिदिन खाती हूँ।

पूर्णा-तुम्हारी आदत होगी मैं पान नहीं खाती।

राम-आज मेरी खातिर से खाव। तुम्हें कसम है।

रामकली ने बहुत हठ की मगर पूर्णा ने गिलौरियॉँ न लीं। पान खाना उसने सदा के लिए त्याग दिया था। इस समय तक धूप बहुत तेज़ हो गयी थी। रामकली से बोली-किधर है तुम्हारा मंदिर? वहाँ चलते-चलते तो सांझ हो जायगी।

राम-अगर ऐसे दिन कटा जाता तो फिर रोना काहे का था।

पूर्णा चुप हो गयी। उसको फिर बाबू अमृतराय के पैर फिसलने का ध्यान आ गया और फिर मन में यह प्रश्न किया कि कहीं आज वह गिर पड़ते तो क्या होता। इसी सोच मे थी कि निदान रामकली ने कहा-लो सखी, आ गया मंदिर।

पूर्णा ने चौंककर दाहिनी ओर जो देखा तो एक बहुत ऊँचा मंदिर दिखायी दिया। दरवाजे पर दो बड़े-बड़े पत्थर के शेर बने हुए थे। और सैकड़ो आदमी भीतर जाने के लिए धक्कम-धक्का कर रहे थे। रामकली पूर्णा को इस मंदिर में ले गयी। अंदर जाकर क्या देखती है कि पक्का चौड़ा आँगन है जिसके सामने से एक अँधेरी और सँकरी गली देवी जी के धाम को गयी है। दाहिनी ओर एक बारादरी है जो अति उत्तम रीति पर सजी हुई है। यहाँ एक युवा पुरूष पीला रेशमी कोट पहने, सर पर खूबसूरत गुलाबी रंग की पगड़ी बॉँधे, तकिया-मसनद लगाये बैठा है।पेचवान लगा हुआ है। उगालदान, पानदान और नाना प्रकार की सुंदर वस्तुओं से सारा कमरा भूषित हो रहा है। उस युवा पूरूष के सामने एक सुधर कामिनी सिंगार किये विराज रही है। उसके इधर-उधर सपरदाये बैठे हुए स्वर मिला रहे है। सैकड़ो आदमी बैठे और सैकड़ो खड़े है। पूर्णा ने यह रंग देखा तो चौंककर बोली-सखी, यह तो नाचघर सा मालूम होता है। तुम कहीं भूल तो नहीं गयीं?

राम-(मुस्कराकर) चुप। ऐसा भी कोई कहता है। यही तो देवी जी का मदिर है। वह बरादरी में महंत जी बैठे है। देखती हो कैसा रँगीला जवान है। आज शुक्रवार है, हर शुक्र को यहाँ रामजनी का नाच होता है।

इस बीच मे एक ऊँचा आदमी आता दिखायी दिया। कोई छ: फुट का कद था। गोरा-चिटठा, बालों में कंधी कह हुई, मुँह पान से भरे, माथे पर विभूति रमाये, गले में बड़े-बड़े दानों की रूद्राक्ष की माला पहने कंधे पर एक रेशमी दोपटटा रक्खे, बड़ी-बड़ी और लाल आँखों से इधर उधर ताकता इन दोनों स्त्रियों के समीप आकर खड़ा हो गया। रामकली ने उसकी तरफ कटाक्ष से देखकर कहा-क्यों बाबा इन्द्रवत कुछ परशाद वरशाद नहीं बनाया?

इन्द्र-तुम्हारी खातिर सब हाजिर है। पहले चलकर नाच तो देखो। यह कंचनी काश्मीर से बुलायी गयी है। महंत जी बेढब रीझे हैं, एक हजार रूपया इनाम दे चुके हैं।

रामकली ने यह सुनते ही पूर्णा का हाथ पकड़ा और बारादरी की ओर चली। बेचारी पूर्णा जाना न चाहती थी। मगर वहाँ सबके सामने इनकार करते भी बन न पड़ता था। जाकर एक किनारे खड़ी हो गयी। सैकड़ों औरतें जमा थीं। एक से एक सुन्दर गहने लदी हुई । सैकड़ो मर्द थे, एक से एक गबरू ,उत्तम कपड़े पहले हुए। सब के सब एक ही में मिले जुले खड़े थे। आपस में बीलियॉँ बोली जाती थीं, आँखे मिलायी जाती थी, औरतें मर्दो में। यह मेलजोल पूर्णा को न भाया। उसका हियाव न हुआ कि भीड़ में घुसे। वह एक कोने में बाहर ही दबक गयी। मगर रामकली अन्दर घुसी और वहाँ कोई आध घण्टे तक उसने खूब गुलछर्रे उड़ाये। जब वह निकली तो पसीने में डूबी हुई थी।तमाम कपड़े मसल गये थे।

पूर्णा ने उसे देखते ही कहा-क्यों बहिन, पूजा कर चुकीं? अब भी घर चलोगी या नहीं?

राम-(मुस्कराकर) अरे, तुम बाहर खडी रह गयीं क्या?

जरा अन्दर चलके देखो क्या बहार है? ईश्वर जाने कंचनी गाती क्या है दिल मसोस लेती है।

पूर्णा-दर्शन भी किया या इतनी देर केवल गाना ही सुनती रहीं?

राम-दर्शन करने आती है मेरी बला। यहाँ तो दिल बहलाने से काम है। दस आदमी देखें दस आदमियों से हँसी दिल्लगी की, चलों मन आन हो गया। आज इन्द्रदत्त ने ऐसा उत्तम प्रसाद बनाया है कि तुमसे क्या बखान करूँ।

पूर्णा -क्या है ,चरणामृत?

राम-(हॅसकर) हाँ, चरणामृत में बूटी मिला दी गयी है।

पूर्णा-बूटी कैसी?

राम-इतना भी नहीं जानती हो, बूटी भंग को कहते हैं।

पूर्णा-ऐहै तुमने भंग पी ली।

राम-यही तो प्रसाद है देवी जी का। इसके पीने में क्या हर्ज है। सभी पीते है। कहो तो तुमको भी पिलाऊँ।

पूर्णा-नहीं बहिन, मुझे क्षमा करो।

इधर यही बातें हो रही थी कि दस-पंद्रह आदमी बारादरी से आकर इनके आसपास खड़े हो गये।

एक-(पूर्णा की तरफ घूरकर) अरे यारो, यह तो कोई नया स्वरूप है।

दूसरा-जरा बच के चलो, बचकर।

इतने में किसी ने पूर्णा के कंधे से धीरे से एक ठोका दिया। अब वह बेचारी बड़े फेर में पड़ी। जिधर देखती है आदमी ही आदमी दिखायी देती है। कोई इधर से हंसता है कोइ उधर से आवाजें कसता है। रामकली हँस रही है। कभी चादर को खिसकाती है। कभी दोपटटे को सँभालती है। एक आदमी ने उससे पूछा-सेठानी जी, यह कौन है?

रामकली-यह मेरी सखी है, जरा दर्शन कराने को लायी थी।

पूर्णा-नहीं बहिन, मुझे क्षमा करो।

इधर यही बातें हो रही थी कि दस-पंद्रह आदमी बारादरी से आकर इनके आसपास खड़े हो गये।

एक-(पूर्णा की तरफ घूरकर) अरे यारो, यह तो कोई नया स्वरूप है।

दूसरा-जरा बच के चलो, बचकर।

इतने में किसी ने पूर्णा के कंधे से धीरे से एक ठोका दिया। अब वह बेचारी बड़े फेर में पड़ी। जिधर देखती है आदमी ही आदमी दिखायी देती है। कोई इधर से हंसता है कोइ उधर से आवाजें कसता है। रामकली हँस रही है। कभी चादर को खिसकाती है। कभी दोपटटे को सँभालती है। एक आदमी ने उससे पूछा-सेठानी जी, यह कौन है?

रामकली-यह मेरी सखी है, जरा दर्शन कराने को लायी थी।

दूसरा-इन्हें अवश्य लाया करों। ओ हो। कैसा खुलता हुआ रंग है।

बारे किसी तरह इन आदमियों से छुटकारा हुआ। पूर्णा घर की ओर भागी और कान पकड़े कि आज से कभी मंदिर न जाउँगी।

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