Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st
Posted: 30 Oct 2015 08:11
"गंगा! मुझे बात किया कर! मुझे बहुत अच्छा लगेगा! करेगी न?" बोला वो!
"हाँ!" वो बोली!
"बस एक ही शब्द सीखा है क्या गंगा, बोलना?" पूछा उसने!
हंस पड़ी! इस बार हंसी नहीं रुकी! हंस पड़ा वो भी!
"कितनी सुंदर लगती है ऐसे तू! हंसती रहा कर गंगा!" बोला वो!
"तुझे कुछ चाहिए गंगा?" पूछा उसने!
"नहीं" बोली गंगा!
"चल मैं लेता आऊंगा! अब जा! मैं भी जाता हूँ!" बोला वो!
और चढ़ा घोड़े पर! लगाई एड़, और दौड़ पड़ा! जाते हुए, देखती रही उसको गंगा!
चला गया वो! अब कुछ शेष न रहा! बस वो उड़ती धूल, नीचे बैठती रही!
"अब चल गंगा" बोली माला!
"हाँ, चल" बोली गंगा!
और चल दीं घर के लिए! अपनी पोटली, अपनी बगल में दबा, माला भी चल पड़ी!
"कल तो आएगा नहीं वो!" बोली माला!
"हाँ, पता है" वो बोली,
"अब कैसे लगेगा मन?" बोली माला!
"लग जायेगा!" बोली गंगा!
"ओहो! अच्छा?" बोली माला!
"हाँ! लग जायेगा!" बोली गंगा!
"देखते हैं!" छेड़ा फिर से माला ने!
पहुंच गयीं घर! घर में पिता जी थे, जाने वाले थे अपने व्यापार के काम से बाहर, संग उनके, वो उदयचंद भी था! उसने भी काम जोड़ना था अपना, इसीलिए संग था उनके!
"गंगा?" बुलाया पिता जी ने!
गयी दौड़ी दौड़ी!
"कुछ लाना है बिटिया?" पूछा पिता जी ने!
"नहीं" बोली वो!
"कुछ चाहिए हो तो बता?" बोले पिता जी!
"नहीं" वो बोली!
"चल ठीक है, मैं आ जाऊँगा आठ दिन में" बोले वो,
अक्सर जाते थे, ऐसे ही आठ-दस दिन में वापिस आते थे! कोई नयी बात नहीं थी! और फिर चले गए पिता जी, घर के बाहर एक ऊँट-गाड़ी खड़ी थी, कुछ सामान रखा उसमे, और चले गए!
अंदर अपने कमरे में थी गंगा! आई माला अंदर!
"गंगा?" बोली माला!
"हाँ, बोल?" गंगा बोली,
"अब कैसे जायेगी मेले?" बोली वो!
"मतलब?" बोली गंगा!
"पिता जी तो गए! अब कैसे जायेगी?" बोली वो!
अरे! हाँ! अब कैसे जायेगी गंगा मेले में!
"चल रहने दे! फिर कभी" बोली माला!
"हाँ" गंगा बोली, दुःख तो हुआ उसे!
"अगली बार जब जायेगी तो तेरा ब्याह हो चुका होगा उस से! फिर तो अपने आप ही ले जायेगा वो तुझे!" बोली माला!
गंगा मुस्कुरा पड़ी!
उस रात भी, नींद नहीं आई सही से! और वो तो खैर अब आनी भी नहीं थी! नींद और चैन, उड़न-छू हो जाया करते हैं! और गंगा भी कोई अछूती नहीं थी इस से! भोजन करती तो स्वाद नहीं आता! कुछ काम करती, तो शून्य में निहारने लगती! और छोड़ना पड़ता काम! बस बिस्तर, और वही यादें!
उस रोज, दोपहर के बाद, वे गयीं कुँए पर! पानी भरने से पहले, गंगा जा बैठी अंधे कुँए पर! वही ख़याल! आज आना तो था नहीं उसको! ये तो पता ही था! फिर भी, बार बार पीछे मुड़कर देख लिया करती थी वो, वो रास्ता! लेकिन कोई आये, तो दिखे न! किसी ने आना ही नहीं था! कम से कम उस दिन!
"गंगा?" माला चिल्लाई!
तन्द्रा टूटी गंगा की! पलकें पीटीं!
"आ जा?" बोली माला!
पानी भर गया था शायद! चल पड़ी गंगा!
"ले, अब चल" बोली माला!
धीमे कदमों से, चलते हुए, उठाया घड़ा, और फिर से देखा रास्ते को! सूना पड़ा था रास्ता!
"नहीं आएगा वो आज!" बोली माला!
घड़ा उठाया माला ने, और आई गंगा के पास!
"चल अब!" बोली माला!
और अब, चल पड़ी गंगा! घर की तरफ!
पीछे मुड़के देखा!
"अरे! नहीं आएगा वो!" बोली माला!
चल पड़ी फिर आगे! और पहुँच गयीं घर! सारा दिन बोझिल कटा! एक एक पल एक एक घटी समान! एक एक घटी, एक एक अहोरात्र समान!
रात में चैन नहीं!
दिन बोझिल कटे!
क्या करे गंगा!
और फिर आया अगला दिन!
हुई दोपहर!
और चल पड़ी गंगा घड़ा उठाये उस माला के साथ!
"आज बात करना उस से!" बोली माला!
"हाँ, ठीक है" बोली गंगा!
"तुझे तरस नहीं आता उस पर?" बोली माला!
"तरस? कैसा तरस?" पूछा गंगा ने!
"कितनी दूर से आता है तुझे देखने! तुझसे बात करने! और तू? पत्थर सी खड़ी रहती है!" बोली माला!
मुस्कुरा गयी गंगा!
और आ गए दोनों वहीँ! कुँए पर!
नज़रें बिछायीं! और हाथ आगे कर, आँखों के ऊपर, गड़ा दीं आँखें!
कुछ ही देर बाद, कोई आ रहा था! घोड़ा तेज तेज दौड़ाये!
आ गया पास! उतरा! और आया गंगा के पास!
"पानी!" बोला वो!
अब घड़ा किया आगे उसने! और पिलाया पानी! पानी पिया उसने, अपना चेहरा धोया! और फिर पोंछा!
"कैसे है गंगा तू?" पूछा उसने!
"ठीक" बोली गंगा!
नज़रें चुराते हुए!
"और घर में?" पूछा उसने!
"सब ठीक" बोली वो!
"और माला? तू?" पूछा उसने!
"मैं भी ठीक!" बोली माला!
अब माला आ गयी थी पास उनके!
"ये मेले न जा सकेगी!" बोली माला!
"क्यों?" पूछा उसने!
"पिता जी नहीं हैं घर पर" बोली वो!
"अच्छा, क्या करते हैं?" पूछा उसने,
"व्यापारी हैं" बोली माला!
"अच्छा, फिर तो गए होंगे कहीं?" पूछा उसने!
"हाँ" माला बोली!
"कोई बात नहीं! मैं ले आऊंगा इसके लिए कुछ!" बोला वो!
"हाँ, ये तो नहीं जायेगी! बेचारी!" हंस पड़ी माला!
"बेचारी न कह माला इसको! मैं हूँ न इसका!" वो बोला!
माला और हंसी!
"बता न गंगा? हूँ या नहीं?" पूछा उसने!
अब गंगा के प्राण सूखें! क्या बोले!
"बोल गंगा?" बोला वो!
सामने आया! अपना हाथ आगे बढ़ाया! फिर रोका! फिर बढ़ाया! और फिर पीछे खींच लिया!
"तू बोलती नहीं है गंगा!" बोला वो!
गंगा! क्या बोले!
"हूँ या नहीं?" पूछा उसने!
"हाँ!" बोली गंगा! लरजती हुई आवाज़ में!
"ले माला! बोल दिया इसने!" बोला वो!
"गंगा, हाथ दे ज़रा आगे?" बोला वो!
घबरा गयी!
"अरे दे न?" बोला वो!
घबराये! पत्थर सी बन गयी थी!!
"हाँ!" वो बोली!
"बस एक ही शब्द सीखा है क्या गंगा, बोलना?" पूछा उसने!
हंस पड़ी! इस बार हंसी नहीं रुकी! हंस पड़ा वो भी!
"कितनी सुंदर लगती है ऐसे तू! हंसती रहा कर गंगा!" बोला वो!
"तुझे कुछ चाहिए गंगा?" पूछा उसने!
"नहीं" बोली गंगा!
"चल मैं लेता आऊंगा! अब जा! मैं भी जाता हूँ!" बोला वो!
और चढ़ा घोड़े पर! लगाई एड़, और दौड़ पड़ा! जाते हुए, देखती रही उसको गंगा!
चला गया वो! अब कुछ शेष न रहा! बस वो उड़ती धूल, नीचे बैठती रही!
"अब चल गंगा" बोली माला!
"हाँ, चल" बोली गंगा!
और चल दीं घर के लिए! अपनी पोटली, अपनी बगल में दबा, माला भी चल पड़ी!
"कल तो आएगा नहीं वो!" बोली माला!
"हाँ, पता है" वो बोली,
"अब कैसे लगेगा मन?" बोली माला!
"लग जायेगा!" बोली गंगा!
"ओहो! अच्छा?" बोली माला!
"हाँ! लग जायेगा!" बोली गंगा!
"देखते हैं!" छेड़ा फिर से माला ने!
पहुंच गयीं घर! घर में पिता जी थे, जाने वाले थे अपने व्यापार के काम से बाहर, संग उनके, वो उदयचंद भी था! उसने भी काम जोड़ना था अपना, इसीलिए संग था उनके!
"गंगा?" बुलाया पिता जी ने!
गयी दौड़ी दौड़ी!
"कुछ लाना है बिटिया?" पूछा पिता जी ने!
"नहीं" बोली वो!
"कुछ चाहिए हो तो बता?" बोले पिता जी!
"नहीं" वो बोली!
"चल ठीक है, मैं आ जाऊँगा आठ दिन में" बोले वो,
अक्सर जाते थे, ऐसे ही आठ-दस दिन में वापिस आते थे! कोई नयी बात नहीं थी! और फिर चले गए पिता जी, घर के बाहर एक ऊँट-गाड़ी खड़ी थी, कुछ सामान रखा उसमे, और चले गए!
अंदर अपने कमरे में थी गंगा! आई माला अंदर!
"गंगा?" बोली माला!
"हाँ, बोल?" गंगा बोली,
"अब कैसे जायेगी मेले?" बोली वो!
"मतलब?" बोली गंगा!
"पिता जी तो गए! अब कैसे जायेगी?" बोली वो!
अरे! हाँ! अब कैसे जायेगी गंगा मेले में!
"चल रहने दे! फिर कभी" बोली माला!
"हाँ" गंगा बोली, दुःख तो हुआ उसे!
"अगली बार जब जायेगी तो तेरा ब्याह हो चुका होगा उस से! फिर तो अपने आप ही ले जायेगा वो तुझे!" बोली माला!
गंगा मुस्कुरा पड़ी!
उस रात भी, नींद नहीं आई सही से! और वो तो खैर अब आनी भी नहीं थी! नींद और चैन, उड़न-छू हो जाया करते हैं! और गंगा भी कोई अछूती नहीं थी इस से! भोजन करती तो स्वाद नहीं आता! कुछ काम करती, तो शून्य में निहारने लगती! और छोड़ना पड़ता काम! बस बिस्तर, और वही यादें!
उस रोज, दोपहर के बाद, वे गयीं कुँए पर! पानी भरने से पहले, गंगा जा बैठी अंधे कुँए पर! वही ख़याल! आज आना तो था नहीं उसको! ये तो पता ही था! फिर भी, बार बार पीछे मुड़कर देख लिया करती थी वो, वो रास्ता! लेकिन कोई आये, तो दिखे न! किसी ने आना ही नहीं था! कम से कम उस दिन!
"गंगा?" माला चिल्लाई!
तन्द्रा टूटी गंगा की! पलकें पीटीं!
"आ जा?" बोली माला!
पानी भर गया था शायद! चल पड़ी गंगा!
"ले, अब चल" बोली माला!
धीमे कदमों से, चलते हुए, उठाया घड़ा, और फिर से देखा रास्ते को! सूना पड़ा था रास्ता!
"नहीं आएगा वो आज!" बोली माला!
घड़ा उठाया माला ने, और आई गंगा के पास!
"चल अब!" बोली माला!
और अब, चल पड़ी गंगा! घर की तरफ!
पीछे मुड़के देखा!
"अरे! नहीं आएगा वो!" बोली माला!
चल पड़ी फिर आगे! और पहुँच गयीं घर! सारा दिन बोझिल कटा! एक एक पल एक एक घटी समान! एक एक घटी, एक एक अहोरात्र समान!
रात में चैन नहीं!
दिन बोझिल कटे!
क्या करे गंगा!
और फिर आया अगला दिन!
हुई दोपहर!
और चल पड़ी गंगा घड़ा उठाये उस माला के साथ!
"आज बात करना उस से!" बोली माला!
"हाँ, ठीक है" बोली गंगा!
"तुझे तरस नहीं आता उस पर?" बोली माला!
"तरस? कैसा तरस?" पूछा गंगा ने!
"कितनी दूर से आता है तुझे देखने! तुझसे बात करने! और तू? पत्थर सी खड़ी रहती है!" बोली माला!
मुस्कुरा गयी गंगा!
और आ गए दोनों वहीँ! कुँए पर!
नज़रें बिछायीं! और हाथ आगे कर, आँखों के ऊपर, गड़ा दीं आँखें!
कुछ ही देर बाद, कोई आ रहा था! घोड़ा तेज तेज दौड़ाये!
आ गया पास! उतरा! और आया गंगा के पास!
"पानी!" बोला वो!
अब घड़ा किया आगे उसने! और पिलाया पानी! पानी पिया उसने, अपना चेहरा धोया! और फिर पोंछा!
"कैसे है गंगा तू?" पूछा उसने!
"ठीक" बोली गंगा!
नज़रें चुराते हुए!
"और घर में?" पूछा उसने!
"सब ठीक" बोली वो!
"और माला? तू?" पूछा उसने!
"मैं भी ठीक!" बोली माला!
अब माला आ गयी थी पास उनके!
"ये मेले न जा सकेगी!" बोली माला!
"क्यों?" पूछा उसने!
"पिता जी नहीं हैं घर पर" बोली वो!
"अच्छा, क्या करते हैं?" पूछा उसने,
"व्यापारी हैं" बोली माला!
"अच्छा, फिर तो गए होंगे कहीं?" पूछा उसने!
"हाँ" माला बोली!
"कोई बात नहीं! मैं ले आऊंगा इसके लिए कुछ!" बोला वो!
"हाँ, ये तो नहीं जायेगी! बेचारी!" हंस पड़ी माला!
"बेचारी न कह माला इसको! मैं हूँ न इसका!" वो बोला!
माला और हंसी!
"बता न गंगा? हूँ या नहीं?" पूछा उसने!
अब गंगा के प्राण सूखें! क्या बोले!
"बोल गंगा?" बोला वो!
सामने आया! अपना हाथ आगे बढ़ाया! फिर रोका! फिर बढ़ाया! और फिर पीछे खींच लिया!
"तू बोलती नहीं है गंगा!" बोला वो!
गंगा! क्या बोले!
"हूँ या नहीं?" पूछा उसने!
"हाँ!" बोली गंगा! लरजती हुई आवाज़ में!
"ले माला! बोल दिया इसने!" बोला वो!
"गंगा, हाथ दे ज़रा आगे?" बोला वो!
घबरा गयी!
"अरे दे न?" बोला वो!
घबराये! पत्थर सी बन गयी थी!!