वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by admin » 24 Dec 2015 21:22

वो चली तेज! क़दम तेज हो चले थे उसके!
फ़ैज़ान, नज़र में ही बना हुआ था उसके!
लेकिन, जितना भी वो आगे बढ़ती, लगता उसे कि,
उतना ही पीछे खिसक गयी है वो!
वो दौड़ पड़ी!
तेज, बहुत तेज!
लेकिन नहीं!
वो दूरी कम न हुई!
फ़ैज़ान, पूरब की ओर मुंह कर,
हाथ बांधे, जैसे घूरे जा रहा था कहीं!
वो फिर से भागी!
कभी ज़मीन को देखती,
और कभी फ़ैज़ान को!
हांफने लगी थी वो!
लेकिन रुकी नहीं! भागती रही!
भागती रही! और थक गयी!
रुकना पड़ा! क्या करती!
दिल, दिल तो पहले से ही रफ़्तार पकड़े था,
अब तो जैसे बेलग़ाम हो गया!
अपनी धड़कन,
कानों में सुनाई पड़े उसे!
हलक़ सूख चला,
थूक निगलना भारी पड़ने लगा!
मुंह से, हांफने की आवाज़ें आने लगीं!
नथुने, फड़कने लगे थे!
अब घबराई वो! घबरा गयी थी!
कि फ़ैज़ान तक, वो क्यों नहीं पहुँच रही?
और फ़ैज़ान?
जैसे पत्थर की मूर्ती बन गया था!
माशा भर भी, नहीं हिल रहा था!
क्या करती?
फिर से भागी!
तेज, और तेज!
हाँफते हुए!
दौड़ते हुए!
बदन का संतुलन गड़बड़ाया!
और धम्म से गिरी घास पर!
कमाल था!
तब भी न देखा फ़ैज़ान ने?
वो उठी, कोशिश की,
टांगें, कांपने लगी थीं!
अब बसकी न था दौड़ पाना, नहीं तो फिर गिर जाती!
आँखों में, नमी सी आई!
सांसें, बेकाबू तो थीं ही पहले,
अब साथ छोड़ने लगीं!
और तब!
"फ़ैज़ान!!" चिल्ला के बोली वो,
बैठे बैठे ही!
"फ़ैज़ान?" फिर से चिल्लाई!
लेकिन फ़ैज़ान?
न सुने!
न देखे!
कोई असर ही न पड़े!
जो आवाज़, पहले ज़ोर से लगाई थी,
उसमे ज़ोर था!
और धीरे धीरे वो ज़ोर, अब, कमज़ोर पड़ने लगा था!
और एक वक़्त ऐसा भी आया,
कि मुंह से, 'फ़ैज़ान' निकला ही नहीं!
बस दिल ही दिल में, उसका नाम ले, चीखती रही!
आंसू, निकल आये उसके!
झिलमिला गया सारा नज़रा वहां का!
सिसकियाँ फूट पड़ीं!
अलफ़ाज़, 'फ़ैज़ान' टूट-टूट कर निकलने लगा मुंह से!
रोती जाये, और दिल ही दिल में,
चीखती जाए उसका नाम!
"फ़ैज़ान? हमें मुहब्बत है आपसे! आप देखें हमें! हम पुकार रहे हैं आपको! हमसे नहीं रहा जाता अब! हमें देखो! देखो हमें! हम, यहां रो रहे हैं! आपने क़ौल लिया था हमें न रुलाने का! देखो हमें, इतना तो हम, कभी न रोये! फ़ैज़ान, देखो हमें! देखो! फ़ैज़ान! देखो हमने!" बोली दिल में,
और रुलाई फूटी!
और फ़ैज़ान, जस का तस, वहीँ खड़ा रहा!
रोते रोते, सर नीचे जा लगा!
और तभी, किसी के पाँव दिखे उसे,
उसने सर उठाया अपना,
ह'ईज़ा और अशुफ़ा थीं वो,
झुकी एक साथ, आंसू पोंछे उसके,
गल से लगाया उसे,
खुद में नहीं थी आज सुरभि!
उनसे लग, रो पड़ी, रहा सहा भी न शेष बचा आँखों का पानी!
"वो, फ़ैज़ान, नहीं सुन रहे हमें, नहीं देख रहे!" बोली वो सिसकियाँ लेते लेते!
एक शिक़ायत भरा लहजा!
एक इल्तज़ा से भरा लहजा!
"सुरभि?" बोली ह'ईज़ा!
देखा ह'ईज़ा को उसने, बेखुदी में,
"जाओ! जाओ अपने फ़ैज़ान के पास! जाओ!" बोली ह'ईज़ा!
अपना फ़ैज़ान!
दौड़ पड़ी वो!
और तब, दूरी कम होने लगी!
फ़ैज़ान घूमा!
सुरभि को देखा आते हुए,
लपक कर आगे बढ़ा,
बाजू खुल गए उसके,
और तब! तब अपनी मज़बूत बाजुओं में, जकड़ लिया सुरभि को!
सुरभि फिर से रोये!
फ़ैज़ान के बदन से, बेल की तरह चिपके!
फ़ैज़ान के कंधे से भी नीची थी वो,
फ़ैज़ान, उसको बांधे खड़ा था!
आँखें बंद किया!
चार बरस पहले का कच्चा फल, आज पका था!
ह'ईज़ा और अशुफ़ा, चली गयीं थीं!
"अब न रोओ सुरभि, हमारी जान जाती है...." बोला वो,
न माने सुरभि!
उसकी जान लेने पर आमादा हो!
वो बार बार समझाये, बुझाए!
न माने, रोये वो!
चिपके, कस दे उसे!
और नज़ारा बदला!
ये एक खूबसूरत पहाड़ी थी!
झरने बह रहे थे!
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू फैली थी!
तितलियाँ उड़ रही थीं!
और तब,
तब हट सुरभि उसके सीने से!
मुस्कुराया फ़ैज़ान!
"सुरभि!" बोला वो,
आँखों में झाँका, गहराई तक!
"हमारी सुरभि!" बोला वो,
और न रोक पाया अपने आपको!
लगा लिया गले उसे!
और जब हटाया,
तो फिर से देखा उसे!
"हम एहसानमंद हुए आपके सुरभि!" बोला वो,
सुरभि सुने सब!
कहे कुछ नहीं!
"आपकी मुहब्बत के हम, एहसानमंद हो गए आज!" बोला वो,
और सुरभि का हाथ पकड़ा,
हाथ चूम लिया सुरभि का!
सुरभि के बदन में अंगार फूट पड़े!
आँखें बंद हुईं,
खुलीं तब,
जब फ़ैज़ान ने,
उसका माथा चूमा!
"सुरभि!" बोला वो,
सुरभि ने देखा उसे!
"हमने इंतज़ार किया आपका!" बोला वो,
सुरभि ज़रा सा मुस्कुराई!
इतना ही बहुत था फ़ैज़ान के लिए!
"आइये सुरभि!" बोला वो,
और उसको साथ ले,
जैसे ही पलटा,
सामने, एक खूबसूरत इमारत थी!
बेहतरीन और चमकीले नीले रंग से,
त'आमीर हुई थी!
धूप पड़ थी उस पर,
और आसपास,
सारा और सबकुछ, नीले रंग से झिलमिला रहा था!
"आइये!" बोला वो,
और ले चला उसको संग अपने,
उसी चाल से, जिस चाल से सुरभि चल रही थी!

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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by admin » 24 Dec 2015 21:23

वो ले चला सुरभि का हाथ पकड़े अंदर!
पीछे पीछे, ह'ईज़ा और अशुफ़ा भी चली आई थीं!
वे एक कक्ष में में आये,
सुरभि ने उस कक्ष को देखा!
ऐसा कक्ष तो उसने, कभी देखा ही नहीं था,
देखना छोड़िये, सुना भी नहीं था!
ऐसा आलीशान था वो कक्ष!
काले रंग का एक मोटा सा कालीन बिछा था उसमे!
उसमे पीले रंग के धागों से, फूल, सुराही और बेल-बूटे बने थे!
दो पलंग पड़े थे वहाँ,
सुनहरी पलंग थे, सुनहरी बड़ी बड़ी चादरें पड़ी थीं उन पर,
दीवारों पर, सोने का जैसे मुलम्मा चढ़ा था!
उस मुलम्मे पर, पच्चीकारी की गयी थी!
चित्र से उकेरे गए थे बाग़, नदी और पहाड़ों के!
बड़ी बड़ी कुर्सियां पड़ी थीं वहां, सोने की हों जैसे,
लाल रंग की गद्दियाँ पड़ी थीं उन पर!
मेज़ रखी थीं, हर कोने में एक एक,
कुल चार थीं वो, उस कक्ष से दो रास्ते और जाते थे आगे,
छत पर, झाड़-फानूस टंगे थे!
उनमे भी सोना लगा था, रत्न जड़े गए थे!
बड़े बड़े सुनहरी पर्दे लगे थे! उन पर, काले रंग की लकीरें थीं!
एक पलंग के पास लाया फ़ैज़ान सुरभि को,
वो पलंग ऊँचा था, सुरभि बैठ न सकती थी उस पर!
"आइये सुरभि!" बोला वो,
और उसको, उठाकर, बिठा दिया उसने!
और खुद, साथ वाली बड़ी कुर्सी पर बैठ गया!
"ह'ईज़ा, खाने का इंतज़ाम कीजिये!" बोला वो,
"जी!" दोनों ही बोलीं,
और दोनों ही चलीं!
जब चली गयीं, तो फ़ैज़ान ने अपने कुर्ते की जेब से,
कुछ निकाला, बढ़ाया आगे हाथ अपना,
"सुरभि? हाथ दीजिये?" बोला वो,
सुरभि ने, आगे हाथ कर दिया अपना,
उसने अपना हाथ रखा उसके हाथ में,
और रख दिया कुछ,
देखा सुरभि ने, ये एक सोने की ज़ंजीर थी!
बीच में, एक बड़ा सा हीरा जड़ा था, गुलाबी रंग का!
"पहन लीजिये! आपके लिए ही रखा था हमने संभाल कर!" बोला मुस्कुराते हुए!
अपने हाथ में ही रखे रही उसे!
न पहना!
"पहन लीजिये? हम देखना चाहते हैं!" बोला वो,
इल्तज़ा थी उसे सवाल में,
और एक, ख़्वाहिश भी!
दबी हुई, उस सवाल में!
नहीं पहना सुरभि ने!
उठा फ़ैज़ान,
लिया हाथ से उसके,
और खुद,
अपने हाथों से पहना दिया!
जैसे ही पहनाया, वो देखता रह गया उसे!
और सुरभि!
सुरभि उस पल,
हया के चिलमन में जा छिपी!
"सुरभि! बेहद सुंदर हो आप! बेहद सुंदर!" बोला वो,
सुरभि, कुछ न बोली!
बस अपनी ऊँगली से,
उस हीरे को छुए!
"सुरभि, हमें फ़रेब पसंद नहीं! हम फ़रेब नहीं करते, आपसे कुछ न छिपाएंगे, आपने अपनी मुहब्बत से नवाजा है हमें, हम आपके एहसानमंद हैं, छिपाना मुमकिन ही नहीं! हम बताते हैं आपको सब, फिर आपकी मर्ज़ी सुरभि, जैसा चाहो, जो चाहो, आपकी मर्ज़ी! हम आपसे कभी ऊँची ज़ुबान में भी बात नहीं कर सकते, आपके साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं है सुरभि! हम बताते हैं!" बोला वो,
हुआ खड़ा,
आया पलंग तक,
देखा सुरभि को,
आँखों में, एक डर सा,
साफ़ झलक रहा था उसकी!
"हम यहां बैठ जाएँ? आपकी इजाज़त हो तो?" बोला वो,
इस सवाल से, मुस्कुरा पड़ी सुरभि!
उसने हमी तो भर ही ली थी मुस्कुरा कर,
लेकिन वो फ़ैज़ान, ये न समझ सका!
आँखों में डर लिए,
सहमा सा वो फ़ैज़ान,
खड़ा ही रहा,
कुछ देर हुई, तो पीछे जैसे ही लौटा,
सुरभि ने, कुरता पकड़ लिया,
"बैठिये!" बोली सुरभि!
एक दूरी बना कर, एक हाथ भर की,
वो बैठ गया उस पलंग पर,
वो समझ नहीं सका था पहले,
शायद सुरभि ने इजाज़त नहीं दी,
तो लौटने वाला था कुर्सी पर ही!
तभी कुरता थाम लिया था सुरभि ने,
इस बात से, फ़ैज़ान और गहरा उतर गया सुरभि के दिल में!
और तब,
तब फ़ैज़ान ने उसे, डरते, सहमते, लरजते,
सब बता दिया अपने बारे में,
अशुफ़ा के बारे में, ह'ईज़ा के बारे में,
सुरभि, सच में, कुछ न समझी!
उसे ऐतबार न हुआ!
"हम आपके लिए जैसे आज हैं, वैसे ही रहेंगे सुरभि!" बोला वो,
कांपती हुई आवाज़ में!
सुरभि उसे, ग़ौर से देखे,
और फ़ैज़ान डरे!
"हम खुद कभी नहीं आएंगे आपके पास, चाहे हम तड़प उठें, जब तक आप नहीं बुलाएंगे, हम नहीं आएंगे आपके पास, ये क़ौल भी देते हाँ आपको!" बोला वो,
सहम रहा था, डर रहा था!
कि न जाने, कब मना कर दे सुरभि!
"जब आप हुक़्म करेंगे कि हम अपनी शक़्ल न दिखाएँ कभी, तो हम कभी नहीं आएंगे, ये क़ौल भी दिया आपको!" बोला वो,
चुपचाप सुन रही थी सुरभि!
जो भी वो कहे जा रहा था, वो सब!
"और एक क़ौल हम आपसे भी लेना चाहते हैं, सुरभि!" बोला वो,
सुरभि ने आँखों से ही पूछा उस से कि क्या?
लेकिन, वो नहीं समझा!
मुस्कुराई वो, बस!
"क्या?" बोली वो,
"आप, कभी हमें हमेशा के लिए रुख़सत किये बग़ैर, किसी और का हाथ..." रख दिया हाथ सुरभि ने उसके मुंह पर! और हंस पड़ी अबकी बार तो!
वो हंसी, और सब्र पड़ा उसे,
अब मुस्कुराया वो!
हुआ खुश बहुत!
और तभी वे दोनों, ले आयीं सामान खाने का!
अशुफ़ा ने, जब सुरभि के गले में पड़ा, वो हीरा देखा,
और मुस्कुरा पड़ी! सुरभि का हाथ पकड़ा, और अपने गालों पर,
दोनों तरफ छुआ दिया!
और चूम लिया उसका हाथ!
ऐसा ही फिर ह'ईज़ा ने किया!
मित्रगण!
अब यहां से होता है असली मामला शुरू!
अशुफ़ा और ह'ईज़ा ने, बेहद ख़िदमत की उसकी!
हाथ पोंछे फिर, फ़ैज़ान ने उसके!
खिला दिया खाना उसे!
और तब, आराम करवाने के लिए,
वे दोनों ले गयीं संग अपने,
उधर, जब आँख लगी सुरभि की,
तो इधर खुल गयी!
चौंक के उठी ज़रूर!
लेकिन अब, मुहब्बत पल रही थी दिल में उसके,
वो उठी,
दर्पण तक गयी!
उस रूप, बदल चुका था!
बदन से जैसे, जलाल टपकने लगा था!
आँखें सुरमयी हो गयी थीं!
एक एक अंग, अपने चरम पर जा पहुंचा था!
और पड़ी नज़र उसकी,
उस हीरे पर!
उसने उतारा उसे,
उसको हाथ में पकड़,
बैठ गयी!
और चूम लिया!
आँखें बंद हुईं उसकी!
फ़ैज़ान के क़ौल याद आये,
उसका वापिस लौटना,
अपनी कुर्सी पर,
और इंतज़ार करना, उसका, 'क्या?' कहने का,
सब याद आ गया उसे!
आँखों में फ़ैज़ान का अक्स,
दिल में मुहब्बत,
बदन में रवानगी, ख़ुमारी दौड़ गयी!
सुरभि, अब महबूबा थी, एक जिन्न, फ़ैज़ान की!

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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by admin » 24 Dec 2015 21:23

तो मित्रगण! अब उनका इश्क़, फलने-फूलने लगा! अब सुरभि का व्यवहार, बदल गया था, वो अब सबसे कट के रहने लगी थी! हाँ, पढ़ाई में वो अव्वल ही थी, समझा जा सकता है कि कैसे! घर में, अब बात ही न करती किसी से, कभी करती भी, तो हां-हूँ में ही करती! भाई से कोई बात नहीं, कुणाल से, और अपने त'ऐरे भाइयों से भी बात न होती उसकी!
ऐसा ही होता है, जब इंसान, इन जिन्नाती मंज़रात, खान-पीन और उनके संग रहने लगता है, तो ये इंसानी दुनिया, उसके लिए बेमायनी हो जाती है! सुरभि के साथ भी कुछ ऐसा ही था! सुरभि जब भी बुलाती, उन तीनों को, तो आ जाते! फ़ैज़ान तो उसे, पता नहीं कहाँ कहाँ घुमाता! सुरभि भी, उनके संग ही खुश रहती क्या सुबह और क्या शाम! अब हुई माता-पिता को चिंता! क्या किया जाए? हुई सलाह-मशविरा! रिश्तेदारी में भी बात जा पहुंची, कोई मानसिक-रोग कहे, और कोई, ऊपरी-चक्कर!
अब जब, इंसान परेशान होता है तो वो, इमारत और झोंपड़ी,
दोनों में ही जाता है, उसका इलाज ढूंढने!
वही हुआ जी! वे उसको मानसिक-चिकित्स्क के पास ले जाते,
तो सुरभि उसको ही ये एहसास करवा देती कि उसकी पढ़ाई कम है!
कई चिकित्सक दांतों तले उंगलियां दबा गए!
अब क्या करें?
झाड़-फूंक करवाएं?
ये भी आजमाएं?
तो साहब, एक भगत के बारे में पता चला,
ये, मथुरा से थोड़ा पहले ही रहता था,
उस से बात की,
उसने कई बातें बतायीं,
कि पक्का है कि उसके ऊपर कोई प्रेत है!
साया है उसका, और वो, हटा देगा उसको!
पकड़ के ले आएगा, बाँध के ले जाएगा, चाकरी करवाएगा!
उसके तो पाँव पकड़ लिए सुरभि के पिता जी ने!
और एक दिन निर्धारित हो गया,
सामान के लिए, रकम भी ले ली,
तो इस तरह,
उस निश्चित दिन,
अपने एक चेले के साथ आ पहुंचा घर,
घर की झाड़-फूंक की उसने,
घर में, काले चुटीले बाँध दिए!
"कहाँ है लड़की?" पूछा उसने,
"अपने कमरे में है" बोले पिता जी,
"दिखाओ?" बोला वो,
और ले चले उसे संग अपने,
दरवाज़ा खुलवाया,
अंदर, कुर्सी पर बैठी थी सुरभि!
"ए लड़की?" बोला वो,
सुरभि हुई खड़ी!
आया गुस्सा! लेकिन पिता जी थे,
इसीलिए चुप रही वो!
"इधर आ?" बोला वो,
वो नहीं आई!
"नहीं आती? मैं आता हूँ!" बोला वो,
और जैसे ही चला उसके पास!
वो उठा हवा में!
और जा लगा छत से!
चीख निकल गयी उसकी तो!
झोला गिर पड़ा नीचे!
और जब वो गिरा, तो फिर से घसीटा गया!
और फेंक दिया बाहर, दीवार पर मारकर!
सर फूट गया था उसका!
चेला तो, बाहर भाग गया था!
वो भी उठा, और लंगड़ाते हुए, बाहर भागा!
उस भगत की तो भगताई छूट गयी होगी उस दिन से!
लेकिन जो पिता जी ने देखा था,
उस से भय खा गए थे वो!
अब तो, सुरभि से बात करते भी डरें सब!
तलाश हुई किसी बढ़िया आदमी की!
एक आदमी के बारे में पता चला,
वो ग़ाज़ियाबाद में रहता था, भीड़ लगी थी वहाँ,
वो भी पहुंचे, माता जी और पिता जी,
आया उनका भी नंबर,
बताई समस्या उसे,
उसने तभी देख लड़ाई,
अब लड़ाई तो ज़रूर!
लेकिन उसकी देख, वापिस न लौटी!
उसका प्रेत, पकड़ लिया गया था, और पता नहीं कहाँ फेंक दिया गया था!
वो तो हड़बड़ा गया!
घबरा गया! साफ़ मना कर दिया!
हाथ कर दिए खड़े उसने!
मायूस हो, वे दोनों वहाँ से वापिस हुए,
और वक़्त गुजरा,
सुरभि से अब कोई बात न करे, वो अब सुनती ही नहीं थी किसी की!
सभी परेशान थे उसको लेकर,
आदमी की तलाश ज़ारी थी,
और मिल गया एक आदमी, उसने पैसे लिए मोटे,
और चल पड़ा उनके साथ, उनके घर,
उसकी सेवा की गयी, खिलाया-पिलाया गया!
और तब, उसने लड़की को देखने के लिए कहा,
ले गए उसको,
कमरा खुलवा दिया,
उस आदमी ने, कुछ सामान जो लाया था वो,
रखा उधर, जैसे ही रखा, आग लग गयी उसमे!
बड़ी मुश्किल से बुझाई!
उस आदमी ने, अब लड़ाए मंत्र!
और जैसे ही सुरभि का माथा छूने चला,
वैसे ही एक लात पड़ी या घूँसा पड़ा उसके मुंह पर!
जबड़ा टूट गया उसका!
दांत निकल पड़े बाहर!
न चिल्लाते बने,
न बोलते बने,
ले जाया गया उसको अस्पताल!
उसका जबड़ा चार जगह से टूटा था, शुक्र था, कि दिमाग तक चोट नहीं पहुंची थी,
नहीं तो मर ही जाता!
उसमे मंत्र, सब धरे रह गए!
अब क्या किया जाए?
घर में शादी आने वाली थी नीरज की,
अब करें तो करें क्या?
रात को उसके कमरे से आवाज़ें आतीं,
रौशनी दीखती दरवाज़े से,
रौशनदान से,
जब दरवाज़ा खुलवाते, तो कुछ नहीं!
और बीता समय!
ब्याह भी हो गया नीरज का,
सुरभि न गयी, भाइयों ने बहुत इंतज़ार किया, नहीं गयी!
इस तरह,
दो और आये ऐसे आदमी,
सभी फूट-फाट के चले गए!
अब घर का माहौल बिगड़ने लगा,
वे अब न बुलाते किसी भी परिजन को,
मानसिक दुःख होता सभी को,
और सुरभि,
अपने आप में मस्त!
कभी खाया, कभी नहीं!
अपनी मर्ज़ी से बात करती,
अपनी मर्ज़ी से बात न करती!
सुबह से शाम तक,
शाम से सुबह तक,
अपने कमरे में बंद रहती!
वो सहरा घूमती,
पहाड़ों पर घूमती,
हाटों में जाती,
जहां कहती, वहां ले जाया जाता!
जो खाना होता, झट से हाज़िर!
लेकिन एक बात,
समय काफी हो चला था,
सुरभि,
अप्सरा समान सुंदर दीखती थी,
रूप-यौवन, सर चढ़ के बोलता था!
लेकिन अपने आप में मस्त!
इसी तरह, तलाश चलती रही,
और तब, नीरज के ससुर साहब ने,
इसी विषय में, शर्मा जी से बात की,
उन्होंने मुझे बताया,
मैंने मिलने के लिए हाँ कह दी,
उनसे मुलाक़ात हुई,
सुरभि के माता-पिता जी आये थे,
मैंने सारी बात सुनी,
वे रोने लगे थे दोनों ही, बहुत दुखी थे,
देखा नहीं जाता जब कोई माँ-बाप ऐसे रोते हैं तो,
मैंने, जल्दी ही चलने को कह दिया उनको!
सारी बात सुन ली थी, कुछ सवाल जवाब भी किये,
एक एक बात पर ग़ौर किया,
देख न लड़ाई,
हो सकता था, किसी ने कुछ किया-करवाया हो,
लेकिन उसके लिए,
सबसे पहले, मुझे सुरभि से मिलना था!
उस से मिले बग़ैर कोई भी क़दम उठाना सही नहीं था!
वो इतवार का दिन था,
और सुबह के ग्यारह बजे थे, हमे लेने,
सुरभि के पिता जी आ गए थे,
हम बैठे गाड़ी में, और चल पड़े सुरभि के घर!
हम जा पहुंचे सुरभि के घर,
जैसे ही मैंने क़दम रखा घर में,
मुझे, इबार(जिन्नाती ख़ुश्बू) की महक आई,
मैं रुका और.........................!!
क्रमशः

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