वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by admin » 16 Dec 2015 10:21

वो दाग, ठीक वहीँ था, सपने में जैसे लगा था, गरदन के नीचे,
उसने दर्पण में देखा, बड़ी हैरान हुई, फिर बिस्तर को देखा,
वहां कोई मिट्टी नहीं थी, अब उसने झाड़ा उसे, तो आसानी से झड़ गया!
उसके बाद चली स्नान करने वो,
और जब पहुंची, तो लाल रंग का एक छोटा सा फूल पड़ा था बाल्टी में,
ठीक वैसा ही, जैसे सपने में देखे थे, थोड़ा चकरा सी गयी वो,
आखिर, ये आते कहाँ से हैं ये?
खैर, पड़े रहने दिया वो फूल उसमे ही, पानी भरा,
और स्नानादि से फ़ारिग गो गयी वो,
वस्त्र पहने, केश संवारे, रूप उसका निखरता जा रहा था!
और बदन में, चुस्ती-फुर्ती के साथ साथ, कसाव भी दीखने लगा था!
आई बाहर, माँ से मिली, पिता जी से मिली, और चाय-नाश्ता भी आ गया,
चाय-नाश्ता किया उसने, उसके बाद अपना सामान उठाया,
और चल पड़ी अपनी कक्षा के लिए!
कक्षा में पहुंची,
और जा बैठी,
उसे आते ही, कक्ष फिर से महक पड़ा!
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू!
जैसे, उसके साथ ही चली आई हो वो सारी ख़ुश्बू बाहर से!
"आज फिर से परफ्यूम में नहा कर आई है क्या?" बोली कामना,
"तू फिर से?" बोली सुरभि!
"देख, तेरे आने से पहले, ये ख़ुश्बू नहीं थी, तू आई, तो पूरा कक्ष महक पड़ा है! अब बता!" बोली कामना,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
दोपहर में, कैंटीन में बैठीं थीं वो,
अपना भोजन कर रही थीं,
तभी सामने से, वही लड़का, यश गुजरा,
उसको घूरता हुआ, और फिर मुस्कुराता हुआ, जा बैठा,
देखने लगा उसी को, सुरभि ने कोई ध्यान नहीं दिया!
जब खाना खा लिया, हाथ वग़ैरह साफ़ कर लिए,
तो चले कक्षा में, आज कुछ काम भी जमा कराना था,
करा दिया जमा,
और फिर चार बजे, उसकी सहेलियों ने काम जमा करा ही दिया था पहले, तो वो निकलीं वहां से,
कक्षा में सबसे आखिर में निकल पायी थी सुरभि,
बाहर आई,
और जैसे ही आई,
वही खड़ा था, यश!
वो उस से बचते चली, तो आ गया सामने!
"मेरी बात तो सुन लो?" बोला वो,
"हटो सामने से?" बोली वो,
"नहीं हटूंगा!" बोल वो,
तो वो जगह बनाते हुए चली!
और जैसे ही चली, उस यश ने, उसका हाथ पकड़ना चाहा!
और जैसे ही चाहा!
उसको जैसे किसी ने मारी लात खींच कर सीने में!
दूर जा गिरा!
कराह निकल गयी!
और सुरभि, निकल गयी वहां से!
उतर आई सीढ़ियां,
तेज कदमों से, बाहर चली, चौराहा पार किया,
ली सवारी, और चल पड़ी!
उसने ये भी न सोचा, कि यश को लात किसने मारी?
लात मारी, या उठा कर फेंका?
आखिर किसने? न सोचा, देखा भी नहीं!
अच्छा ही हुआ, ऐसा ही होना चाहिए साथ में उसके, यही सोचा बस!
खैर, पहुँच गयी घर, धोये हाथ-मुंह!
थोड़ा बहुत खाया, कपड़े बदले, और जा लेटी बिस्तर पर,
कीं आँखें बंद, नींद का झोंका आया, और बह चली वो उसमे!
फिर से सपना आया उसको!
इस बार,
वो एक समंदर किनारे खड़ी थी!
दूर दूर तक,
साफ़ पानी था उसका!
रेत ऐसी साफ़, कि मोती लगे!
पानी ऐसा साफ़,
कि कांच लगे!
नारियल के पेड़ लगे थे वहां!
बहुत सुंन्दर दृश्य था वो!
दूर समंदर में,
पानी के बड़े बड़े जहाज जैसे खड़े थे!
वो चली आगे,
शंख पड़े थे वहां,
सफेद, पीले और रंग-बिरंगे!
लाल रंग के केंकड़े, उसे देख,
झट से अंदर रेत में घुस जाते थे!
उसे बहुत अच्छा लगा उधर खड़े होना!
हवा चल ही रही थी,
उसकी नज़र, पानी में पड़ी,
लाल-सुनहरी मछलियाँ,
पकड़ा-धकड़ी में लगी थीं! कभी कभी तो, एक आद,
ऊपर भी कलाबाजी खा लिया करती थी!
वो और आगे चली,
किनारे के साथ साथ,
यहां वनस्पति बहुत ज़्यादा थी,
चारों तरफ, हरियाली ही हरियाली!
बैठ गयी एक जगह,
रेत पर ही,
एक नारियल के पेड़ों के झुण्ड के नीचे!
देखती रही समंदर!
बहुत प्यारा लग रहा था उसको वो!
समंदर की लहरें आतीं,
किनारे से टकरातीं,
और फिर से लौट जातीं!
बहुत सुकून दे रहा था ये नज़ारा!
और फिर, सागर का वो शोर!
कितना मधुर लग रहा था सबकुछ!
जे चाहता था, कि यहीं काट दी जाए,
पूरी की पूरी ज़िंदगी!
अलग!
सबसे अलग!
इस सारी दुनिया से अलग!
कोई चिक-चिक नहीं,
कोई झिक-झिक नहीं!
वो लेट गयी,
वो रेत, कैसे, कितना सुकून दे रहा था!
उन घरों के गद्दों से कहीं ज़्यादा आरामदेह!
ठंडा लग रहा था!
उसने अपनी ऊँगली से, उस रेत पर, नाम लिखा अपना!
अचानक से, एक सफेद फूल टपका उसके ऊपर,
उसके गाल पर,
उसने उठाया,
चम्पा जैसा फूल था!
लेकिन पूरा गुलाबी था!
बीच में से, नीला था!
और ख़ुश्बू ऐसी, कि मदमस्त कर दे!
उसने आँखें बंद कर ली,!
नारियल के पेड़ों के पत्ते जब हिलते,
तो सूरज की किरणें, छनती हुई,
उसकी बंद आँखों पर पड़तीं!
आँखों की बंद पलकों में, लाल-संतरी रंग घुल जाता!
उसने करवट ली एक तरफ,
तेज हवा चली!
उसके बल, उड़कर, उसके चेहरे पर आ गए,
उसने धीरे से, उँगलियों से हटाया उनको!
वो खड़ी हुई,
तेज हवा चली,
और उसके बदन के कपड़े,
जैसे चिपक गए उसके शरीर से!
जैसे उसको आगे बढ़ने को कह रहे हों!
वो आगे चली!
एक जगह रुक गयी!
कई झाड़ियाँ लगी थीं वहाँ,
पीले फूलों से लदी हुई थीं!
दूर समंदर में से एक आवाज़ आई,
जैसे किसी बड़े पानी के जहाज ने,
हॉर्न दिया हो, पूरे तीन बार!
वो मुस्कुरा पड़ी!
और जब झाड़ियाँ देखीं,
तो वे फूल उसके क़दमबोशी कर रहे थे!
वो उठी,
और उठाये वो फूल,
और रख दिए, वहीँ,
हाथ में पीला रंग चढ़ गया था उसके!
ये उनका पराग था!
वो आगे चली,
आगे, पानी आया हुआ था,
वो रुकी,
गीली रेत पर,
लहरों से बने झाग, बुलबुले बना रहे थे!
वो बनते, सतरंगा प्रकाश छोड़ते,
और फ़ना हो जाते!
वो मुस्कुरा पड़ी! सारी रात, वहीँ, उसी किनारे पर, घूमती रही वो!
अलार्म बजा,
और उसकी आँख खुली, छह बज चुके थे!

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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by admin » 16 Dec 2015 10:21

उसने अलार्म बंद कर दिया था, उठी अपने बिस्तर से, और चली गुसलखाने की तरफ,
जैसे ही दर्पण पर किया, वापिस हुई,
दर्पण में देखा, अपने बाल सही किये उसने,
और जैसे ही सही किये, अपने हाथों की उंगलियां देखीं उसने!
दर्पण में, और फिर, अपने हाथ की उंगलियां देखीं!
पीला रंग चढ़ा था उन पर! अब वो जा बैठी बिस्तर पर,
हाथ देखे फिर से, पीला रंग चढ़ा था अभी भी,
पंछ कर देखा, न पुंछा! उठी, चली गुसलखाने, और धोये हाथ,
पीला रंग धुल गया! लेकिन अब उसके दिमाग में, कुछ चलने लगा था!
ऐसा कैसे सम्भव है?
वो वाटर-कूलर?
वो अंगूर का छिलका और वो स्वाद?
वो खरगोश से लगा, कपड़े में दाग?
और अब ये, पीला रंग?
ये सब है क्या?
संयोग एक के बाद एक ऐसे तो कभी नहीं होते?
तो ये सब है क्या?
स्नान करने के लिए बाल्टी में पानी डालना चाहा,
तो फिर से, वही दो नीले फूल!
गुसलखाने में एक रौशनदान था,
लेकिन उसमे जाली लगी थी, और था भी ऊपर,
उसमे से ये फूल नहीं आ सकते थे,
आते भी, तो सीधा बाल्टी में ही न गिरते!
और वो महक, जो पूरे कक्ष में, कक्षा की, फ़ैल जाती थी,
वो सब क्या है?
और वो, यश की गाड़ी में, एन-वक़्त पर आग लगना,
और जब वो हाथ पकड़ना चाहता था, तो उसको किसने रोका?
किसने पिटाई की उसकी? अब दिमाग उलझ गया था उसका!
खैर, कपड़े पहने, केश संवारे और उठाया सामान अपना,
गयी, मम्मी-पापा के पास,
तो पिता जी किसी से बातें कर रहे थे,
बातचीत से पता चलता था कि, वे परेशान है किसी बात से,
चाय-नाश्ता आ गया था, वे चाय-नाश्ता करने लगे,
"पापा?" बोली सुरभि,
"हाँ बेटा?" बोले पिता जी,
"आज सुबह सुबह किस पर गरम हो रहे हो?" बोले वो,
"अरे वो अमृत लाल है, अब काम नहीं हुआ तो पैसे वापिस कर? न पैसे ही दे रहा है, और काम अब होने का नहीं, पैसे के लिए, रोज आज-कल, आज-कल कर रहा है!" बोले पिता जी,
"वो ज़मीन वाला?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ, वही!" बोले वो,
"कितने पैसे दिए थे?" पूछा उसने,
"पांच लाख" बोले वो, गरदन हिलाते हुए,
"तो टेंशन न लो, आ जाएंगे पैसे!" बोली सुरभि,
हाथ पोंछे, उठी, हाथ-मुंह धोने गयी,
आई वापिस, हाथ पोंछे, कामवाली, खाना ले आई थी उसका, दिया उसे,
उसने रखा, और उठाया अपना सामान,
अपने मम्मी-पापा से बात की और चली बाहर!
ली सवारी, और चल पड़ी अपनी कक्षा के लिए,
जब वहाँ पहुंची, तो थोड़ी देर में ही खबर लग गयी उसे कि,
वो लड़का यश, अस्पताल में भर्ती है! पसलियां टूट गयी हैं उसकी,
कल यहीं से उस एम्बुलेंस में ले जाया गया था,
कारण का पता नहीं चला है अभी तक!
ये सुन, कान गरम हो गए सुरभि के!
उसने देखा था कि कैसे घसिटता हुआ गया था वो कल,
कराह निकल पड़ी थी उसकी!
दोपहर में, वो कैंटीन में बैठी थीं, भोजन किया जा रहा था,
बाहर हवा चल रही थी, तभी खिड़की के रास्ते,
हरसिंगार का एक फूल, उड़ता हुआ आया, और सीधा,
सुरभि के सीधे हाथ पर, ऊपर आ बैठा!
उसने उठाया फूल, सूंघा, वही ख़ुश्बू! वही, जो उसको,
उस कक्ष में घुसने से पहले आई थी!
उसने उस फूल को, आराम से उठाया, और रख लिया अपने बैग में!
उस दिन आधे घंटे पहले ही कक्षा समाप्त हो गयी,
तब चली वो अपने घर के लिए,
पर किया चौराहा, और ले ली सवारी! बैठी और चल दी,
बीच रास्ते में, एक जगह, उसको एक सड़क किनारे,
कुछ फूल पड़े मिले, गुलाब के, वैसे ही, बड़े बड़े!
सपना याद आ गया उसे, खो गयी सपने में!
याद आ गए वो बड़े बड़े गुलाब के फूल!
सपने में खोयी हुई सुरभि, आ गयी घर!
सामान रखा, हाथ-मुंह धोये, चाय पी, कुछ खाया थोड़ा सा,
और फिर चली आराम करने,
जा लेटी, एक किताब थी, वही पढ़ने लगी,
थोड़ी देर में ही, ऑंखें हुईं भारी, किताब रखी एक तरफ,
चादर ली, घुटनों पर ओढ़ी, और कर ली आँखें बंद!
आई नींद,
और जब नींद आई,
तो आया सपना!
इस बार,
वो एक रेगिस्तान में थी!
सर्द हवा चल रही थी!
उसे सर्दी लगने लगी थी,
आसपास देखा,
तो थोड़ा दूर, अलाव जलता हुआ दीखा उसे!
वो चल पड़ी उधर के लिए,
हवा ऐसी सर्द थी,
कि कंपकंपी छूट जाए!
वो तेज क़दमों से बढ़ चली उधर!
वो पहुंची वहां,
कुछ महिलायें, और कुछ पुरुष बैठे थे वहां,
उन्होंने, तम्बू लगाये हुए थे अपने,
कुल आठ या दस होंगे!
खानाबदोश लगते थे वो,
उसको देख,
एक महिला उठी,
और अपन गरम कपड़ा, जो एक कंबल सा था, दे दिया उसे,
और बिठा लिया अपने साथ,
महिलायें, कोई गीत गुनगुना रही थीं!
उस महिला ने, उसको खाने को कुछ दिया,
ये खजूर के मुलायम टुकड़े थे!
बहुत मीठे, और नरम!
कंबल ओढ़ने से, सुरभि की सर्दी कम हो गयी थी!
वो खजूर के टुकड़े खाए जा रही थी,
पुरुष उसे देखते, तो हंस देते, मुस्कुरा देते!
फिर उस महिला ने, एक सुरभि की उम्र की ही लड़की से कुछ बात की,
वो लड़की उठी, और आई सुरभि के पास,
मुस्कुराई, और हाथ किया आगे,
सुरभि ने हाथ बढ़ा, पकड़ लिया उसका हाथ!
वो उठ गयी, और वो लड़की, उसको ले चली एक तरफ,
जहां ले गयी, वो उसी का तम्बू था,
अंदर एक बड़ा सा बिस्तर बिछा था!
कंबल पड़े थे बड़े बड़े, फर लगा था उन पर,
उसको बिठाया गया उस बिस्तर पर,
और उस लड़की ने, पानी दिया, एक सुराही से निकाल कर,
सुरभि ने पानी पिया, और जैसे ही पिया, उसी पानी की याद आ गयी!
ठीक वैसा ही पानी था वो, जैसा उसने उस पहाड़ी पर बने, कक्ष में पिया था!
गिलास दे दिया वापिस, गिलास भी ठीक वैसा ही था!
वो लड़की आई उसके पास, तम्बू के मुहाने पर, पर्दा डाल दिया गया था,
अंदर अब लालटेन जल रही थी, अब सर्द माहौल से बचाव हुआ था,
"क्या नाम है तुम्हारा?" पूछा सुरभि ने,
"ह'ईज़ा!" मुस्कुरा के बोली,
हरे रंग की आँखें थीं उस लड़की की! जैसे, लौ जल रही हों!
"और आपका नाम?" पूछा उस लड़की से,
"सुरभि!" बोली वो,
नाम दोहराया उस लड़की ने उसका!
"आपको भूख लगी होगी, हम लाते हैं आपके लिए खाना!" बोली वो लड़की,
और चली गयी बाहर!
सुरभि, उस आरामदायक बिस्तर पर लेट गयी!
और कुछ ही देर में,
वो लड़की उसके लिए खाना ले आई,
उठी सुरभि,
दिया खाना उसको,
सुरभि ने पकड़ा,
एक कटोरे में, सब्जी थी,
खबूस-रोटियां थीं,
खाना शुरू किया सुरभि ने!
लाजवाब खाना था वो!
कभी नहीं खाया था उसने ऐसा खाना!
वो लड़की, पानी ले आई उसके लिए,
और रख दिया पानी,
बैठ गयी साथ ही!
सुरभि ने खाना खा लिया,
पेट भर गया था उसका, फिर पानी पिया,
और बातें शुरू हुईं उन दोनों के बीच,
"ये कौन सी जगह है ह'ईज़ा?" पूछा उसने,
"ये गाँव है, खरकश!" बोली वो,
"और ये है कहाँ? कौन सा देश है?" पूछा सुरभि ने,
"ये सु'आ'हारा है! आप इसे सहारा नाम से जानते हैं!" बोली वो,
"सहारा! रेगिस्तान?" बोली वो,
"हाँ! लेकिन यहां, एक नख़लिस्तान भी है, रु'आ'फ़ीज़ा! पास में ही!" बोली वो,
"अच्छा!" बोली वो,
मुस्कुरा पड़ीं दोनों!
"तुम बहुत सुंदर हो ह'ईज़ा!" बोली सुरभि!
"आप से ज़्यादा नहीं! सुरभि!" बोली वो लड़की!
मुस्कुरा पड़ीं दोनों!
बाहर, हवा चल रही थी, शोर हो रहा था रेत का, जो उड़कर, फिर से बैठ जाया करती थी नीचे!

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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by sexy » 16 Dec 2015 21:44

हवा ऐसी तेजी थी, कि उस तम्बू की कनातें भी, अंदर की और दब जाया करती थीं, आवाज़ ऐसी कि जैसे तूफ़ान चल रहा हो! ये सहारा था! दिन में चिलचिलाती हुई गर्मी और रात में सर्द हवा! अपनी असल ज़िंदगी में, कभी रेगिस्तान न देखा था लेकिन आज देख रही थी! आज वो तु'आरेग लोगों के गाँव में थी! ये सच में, पक्के हाड़ वाले रेगिस्तानी लोग हैं! खानाबदोश, लेकिन ईमानदार! ये नमक के तिजारती हैं! आज भी इनका लाया नमक, दुनिया में सबसे अधिक पौष्टिक और खनिज-लवण वाला होता है! एक समय था, जब इनका नमक, पूरे यूरोप और भारतीय उपमहाद्वीप, चीन आदि में लाया जाता था! बरसों से, इनका यही काम है! अंदर तम्बू में, सर्दी तो नहीं थी, लेकिन सुरभि ने ऐसा माहौल कभी न देखा था, उसके रोएँ खड़े थे, ह'ईज़ा देख रही थी, उसने सुरबी का हाथ पकड़ा, और जब रोएँ देखे, तो मुस्कुराई!
"आपको सर्दी लग रही है?" बोली ह'ईज़ा,
"नहीं तो?" बोली वो,
"ठहरिये, अभी रात बाकी है, हम आपके लिए, खिच्चा लाते हैं!" बोली वो, और उठकर चली,
खिच्चा, ऊंटनी का दूध होता है, औटा कर, गाढ़ा बना लिया जाता है, ये सर्दी का तोड़ है! आधा कप पिया जाए, तो पसीने छुड़ा देता है!
ह'ईज़ा, ले आई खिच्चा, और दे दिया सुरभि को,
सुरभि ने लिया, उसमे पिस्ते पड़े थे, स्वाद खोये जैसा था उसका!
पी लिया उसने, और तब, कोई दस मिनट में ही,
बदन से गर्मी फूटने लगी!
ये था खिच्चा का कमाल!
क़ुदरत ने, सबकुछ जैसे सोच कर ही रखा होता है,
ऊँट, रेगिस्तान की नब्बे फी सदी समस्याओं को दूर करता है!
आवागमन, दूध, मक्खन, घी और खाल आदि इसी से प्राप्त किये जाते हैं!
हवा फिर से चली!
और कनातें फिर से अंदर झुकीं!
अब लेट गयी थी सुरभि, और ह'ईज़ा उसके साथ बैठ, देखे जा रही थी सुरभि को!
"आप सो जाइए!" बोली ह'ईज़ा,
मुस्कुरा पड़ी सुरभि!
"तुम नहीं सोओगी?" पूछा उसने,
"आप सोइये पहले, आप मेहमान हैं हमारे!" बोली ह'ईज़ा, मुस्कुराते हुए!
तभी अंदर वो महिला आई,
देखा सुरभि को, मुस्कुराई,
"अब सर्दी तो नहीं बिटिया?" पूछा उसने,
"नहीं, अब ठीक हूँ!" बोली वो,
"सो जाओ बिटिया! रात बाकी है अभी!" बोली वो,
उस महिला ने, एक कंबल उठाया, और मुस्कुराते हुए चली गयी बाहर!
"ये तुम्हारी माँ हैं ह'ईज़ा?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ!" बोली वो,
"बहुत अच्छी हैं!" बोली सुरभि!
"हाँ, माँ अच्छी ही होती हैं!" बोली ह'ईज़ा!
हवे चली ज़ोर से!
तम्बू का मुहाना जैसे काँप उठा!
ह'ईज़ा उठी, और मज़बूती से कस दिया उस खाल के पर्दे को!
और वापिस आ बैठी!
वो रेगिस्तानी रात!
वो सर्दी भरी रात! वो खजूर के टुकड़े, हम्दा कहा जाता है उन्हें!
वो तम्बू! वो कंबल! और वो ह'ईज़ा! सब जैसे सच था!
सुरभि की आँख लग गयी थी!
तेज हवा चली!
मुहाने से अंदर आई,
मुंह से टकराई ठंडी हवा सुरभि के!
और आँख खुली!
उठ गयी थी सुरभि!
घड़ी पर नज़र पड़ी उसकी, सात बजे थे!
लेकिन, बदन, अब भी ठंडा था उसका!
उसने माथा छू कर देखा,
सर्द था माथा!
वो रेगिस्तानी सर्दी, जैसे अभी भी बदन में फुरफुरी के रूप में,
पैबस्त हो गयी थी सुरभि के! रोएँ अभी भी खड़े थे उसके!
उसके ज़हन में, एक शब्द गूँज रहा था,
तु'आरेग! वो उठी, और अपना कंप्यूटर चालू किया,
और ढूँढा ये शब्द!
मिल गया, ये एक रेगिस्तानी क़बीला था!
आज भी, सहारा के वासी हैं ये!
सब याद आ गया उसे!
वो हम्दा, वो खिच्चा!
वो सर्दी! वो कनात और वो महिला!
और वो, प्यारी सी, हरी आँखों वाली लड़की, ह'ईज़ा!
हैरान थी वो! और आई होंठों पर मुस्कान!
वो लड़की, ह'ईज़ा, उसके ख्यालों में बस गयी!
खड़ी ही, चली गुसलखाने, अभी भी जैसे,
उसी रेगिस्तान में थी वो!
रोएँ अभी तक खड़े थे उसके!
दोनों बाजू, अपने अंदर दबाये खड़ी थी!
मुंह में, अभी तक, खिच्चे का स्वाद बरक़रार था!
मुंह धोया, और चली बाहर,
माँ और पिता जी के पास!
पिताजी प्रसन्न थे उसके!
"आ बेटी! तेरा कहना था कि पैसे मिल जाएंगे! तो दे गया वो पैसे आज!" बोले वो,
मुस्कुरा गयी वो!
"छह महीने से, आज-कल कह रहा था! आज दे गया!" बोले वो,
"अच्छा हुआ पापा!" बोली वो,
समय हुआ खाने का,
और खाना खाया सभी ने,
कुणाल का फ़ोन आया था,
वो कल आ रहा था घर!
घर में उसके आने की ख़ुशी थी,
सुरभि भी, भाई का ही इंतज़ार कर रही थी!
रात हुई,
पढ़ने बैठी,
जैसे ही खोली किताब,
वो हरसिंगार का ताज़ा फूल,
उसी पृष्ठ पर था, रखा हुआ!
अभी तक, ख़ुश्बू थी उसमे!
मुस्कुरा पड़ी सुरभि!
उठाया उसने उस फूल को,
और रख दिया मेज़ पर, एक तरफ!
देर रत तक पढ़ी सुरभि, कुछ लिखा भी उसने,
और कोई डेढ़ बजे, उसने सोने की तैयारी की!
बत्ती बंद की, पानी पिया, नाईट-लैंप जलाया, चादर ओढ़ी,
और लेट गयी, जैसे ही लेटी,
वो उसी रेगिस्तान में जा पहुंची,
उस लड़की ह'ईज़ा के पास! कितनी प्यारी लड़की है वो ह'ईज़ा!
मुस्कान आई होंठों पर,
और फिर आई नींद!
जब नींद आई, तो फिर से सपना आया!
ये वही नख़लिस्तान था!
रु'आ'फ़ीज़ा!
ह'ईज़ा ने हाथ पकड़ा हुआ था सुरभि का!
"आओ, वो देखो!" बोली ह'ईज़ा!
सामने, एक तालाब सा था, बड़ा सा,
आसपास, सफेद सी रेत थी, एक और क़बीला आया हुआ था वहां,
लाल, मैरून कपड़े पहने थे उन स्त्री-पुरुषों ने!
सभी स्त्री-पुरुष, मज़बूत देह वाले, और गोरे रंग के थे!
उनकी लड़कियां, बेहद सुंदर थीं, ऐसे ही उनके नौजवान!
ह'ईज़ा को देख, सर झुकाते थे सभी!
"ये कौन लोग हैं ह'ईज़ा?" पूछा सुरभि ने,
"ये बे-दु'ईं क़बीला है!" बोली वो!
"कितने सुंदर लोग हैं ये!" बोली सुरभि!
"हाँ! लेकिन आप जैसा कोई नहीं!" बोली वो,
मुस्कुरा पड़ी सुरभि!
एक जगह, एक महिला ने बुलाया ह'ईज़ा को,
ह'ईज़ा, ले चली सुरभि को संग अपने,
उस महिला ने, सर पर हाथ फेरा सुरभि के,
गले से लगाया, और माथे को चूमा!
और, आँखों में उसकी, सुरमा भी लगा दिया,
सुरमा लगते ही,
सुरभि की आँखें, जैसे उस रेगिस्तान की चमक की आदी हो गयीं!
अब ज़ोर न पड़ रहा था आँखों पर!
मित्रगण, ये सुरमा, इसीलिए लगाया जाता है,
ये जहां आँखों को ठंडक पहुंचाता है, वहीँ तेज से तेज चमक का भी आदी बनाता है आँखों को,
यूँ कहें कि, ये आपके लिए सन-ग्लास का काम करता है!
सुरभि की बड़ी बड़ी आँखें, और सुंदर हो गयीं!
उस महिला ने, सुरभि के माथे पर, दायीं तरफ, एक चन्द्रमा सा भी बना दिया!
ये नज़रबट्टू था! नज़र-ए-बद से बचाने वाला!
सुरभि का मन किया कि,
अपनी ज़िंदगी, यहीं बिता दी जाए!
कितने भले और प्यारे लोग हैं ये!
कितना ममत्व है इन महिलाओं में!
उनके ऊँट, पानी पी रहे थे,
जिस तरह से, वे अपनी आगे के टांगों को मोड़ते थे,
उसको देख, सुरभि बिन मुस्कुराये न रह सकी!
तभी एक पुरुष आया,
आयु में, पिता समान था सुरभि के,
माथे पर हाथ फेरा!
सर पर हाथ फेरा!
और गले से लगाया उसने!
"ह'ईज़ा, अशुफ़ा के पास ले जाओ बिटिया को!" बोला वो,
"जी! ले जाते हैं!" बोली ह'ईज़ा,
और ले चली उसको वो एक तरफ,
एक तम्बू था वो, खाल का बना हुआ,
बाहर, रात में जले अलाव की लकड़ियाँ पड़ी थीं,
उन पर, पानी डालकर, बुझा दिया गया था,
पास में, बकरियां भी बंधी थीं,
उनकी मैं-मैं बड़ी प्यार लगी सुरभि को!
जैसे सारी बकरियां उसे ही देख रही थीं!
वो अंदर गए तम्बू के,
तो अंदर, एक बेहद ही खूबसूरत लड़की खड़ी थी,
यही थी अशुफ़ा!
उस क़बीले सरदार की बेटी!
आँखें, उसकी भी सुरमयी और हरी थीं!
सुरभि को देख, दौड़ी चली आई वो!
और लगा लिया गले से!
सुरभि भी, ऐसे मिली उसको कि जैसे,
न जाने कब से वाक़फ़ियत हो उन दोनों में!
अशुफ़ा ने, पानी पिलाया उसको!
गिलास, फिर उस जैसा!
और बिठाया, गद्दे पर!
खाने को, हम्दा दिया गया!
वही, मीठे खजूर!
सुरभि जैसे, अपने आपको,
वहीँ का हुआ मानने लगी थी!
अशुफ़ा, ह'ईज़ा से, सुरभि की सुंदरता के बारे में कहे जा रही थी,
और सुरभि,
सब सुने जाए,
यक़ीन करे उन पर,
और यही सोचे, कि, काश,
ये सपना न हो!
हक़ीक़त हो!
ऐसी हक़ीक़त, जिसकी वो अब तलबग़ार हो चली थी!
तु'आरेग और बे-दु'ईं लोग, सच में अपने लगने लगे थे उसे!

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