वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by sexy » 16 Dec 2015 21:44

सुरभि को लगने लगा था कि जैसे वो भी इन्ही में से एक है! कितने अदब वाले लोग हैं ये!
तमाम ज़िंदगी यही कट जाए, तो उस से बड़ी कोई नैमत नहीं उसके लिए!
तेज हवा चली, और मुहाने का पर्दा हिला, अंदर तक आ गया,
ह'ईज़ा उठी, और पर्दे को कस के बाँध दिया, उसकी डोरियों को,
उन लट्ठों से बाँध, लपेट दिया!
"ह'ईज़ा?" बोली अशुफ़ा,
"हाँ?" जवाब दिया ह'ईज़ा ने!
"वो खिच्चा ला, दे सुरभि को!" बोली अशुफा,
"अभी लायी!" बोली वो, और चली बाहर,
"अशुफ़ा?" कहा सुरभि ने,
"हाँ, सुरभि?" बोली वो,
"मुझे भी यहीं रख लो!" बोली वो,
हंस पड़ी अशुफ़ा! सुरभि के गालों पर, दोनों हाथ रख दिए!
और चूम लिया उसका माथा!
"हम लोग, अलग हैं सुरभि! कर लगी बसर?" बोली अशुफ़ा!
"क्यों नहीं!" बोली जोश से,
"रात बीत जाने दो, सहर के बाद सोचना!" बोली वो,
रात! कितनी हसीन रात है ये!
रेगिस्तान! दूर-दराज में!
कुछ ही सूखे से पेड़ों के नीचे!
बाहर, अलाव जलते हुए!
हम्दा खाया जा रहा था सभी के द्वारा!
ये तम्बू!
लेकिन रात?
रात कहाँ है?
ये तो दिन है?
बाहर झाँका उसने, पर्दा हटा कर,
धूप खिली थी! चमक पड़ी रेगिस्तान की,
और नींद खुल गयी उसकी चमक से!
हाँफते हुए उठी सुरभि!
घड़ी देखी!
ढाई बजा था रात का!
लेकिन वो चमक?
ह'ईज़ा?
अशुफ़ा?
खड़ी हुई,
माथे पर, पसीने की बूँदें छलछला गयी थीं!
पोंछा माथा अपना,
जग से, गिलास में पानी डाला,
और पीने से पहले, वो गिलास देखा,
अपने आप ही, मुस्कान बिखर गयी होंठों पर!
'रात बीत जाने दो, सहर के बाद सोचना!' आये ये अलफ़ाज़ याद उसे!
मन ही मन, अशुफ़ा याद आई उसे!
कितनी प्यारी है वो! बड़ी बहन सा प्यार करती है!
काश, ये सपना न होता! काश..........
झट से पानी पिया, पानी का स्वाद, अजीब सा लगा उसे!
रखा गिलास, आखिरी घूँट अभी मुंह में ही था,
उसको, कई घूँटों में पिया, कि आ जाए वही स्वाद, किसी एक छोटे घूँट में!
न आया, पी लिया पानी!
जा लेटी, करवट ली, उसका गद्दा, जैसे पत्थर का सा बन गया था!
याद आ रहा था, वो फर वाला मोटा गद्दा!
आँखें बंद कीं उसने,
और कोशिश की नींद की!
आई नींद!
और फिर से, वहीँ, बे'दु'ईं क़बीले में जा पहुंची!
हाथ पकड़ रखा था अशुफा ने उसका,
उसके नाखूनों को सहला रही थी अशुफ़ा!
कोई गीत गुनगुनाते हुए!
"क्या गुनगुना रही हो?" पूछा सुरभि ने,
"एक लोक-गीत है(श'उआ'ज़ी कहा जाता है इसे)" बोली अशुफ़ा,
"क्या मायने हैं इसके?" पूछा सुरभि ने,
"मायने! एक क़बीला है, दूर-दराज में रहता है! नमक लाते हैं मर्द उनके, और औरतें, परिवार चलाती हैं, मर्द, महीने में, एक आद बार ही घर आते हैं, तो शाम को, ब्याहता औरतें, उनके आने का इंतज़ार करती हैं! वो अपने साथ, बर्तन, गहने, नए कपड़े, कंघियां और खाने का सामान लाते हैं! तो वो, चाँद से कहती हैं, कि तुम तो देख रहे हो उन्हें! ज़रा उनको मेरा भी संदेसा पहुंचा देना, कि रेगिस्तान में, कोई दिल उसके लिए धड़क रहा है! उसका इंतज़ार कर रहा है कोई! वे भी चाँद को देखते हैं, और यही गीत गाते हैं! ये यही है, यही है इसके मायने!" बोली अशुफ़ा!
"ओह! बहुत प्यार है! तो कोई आपका बाहर है अभी?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ!" बोली वो,
"कौन?" पूछा सुरभि ने,
"मेरे खाविंद हुमैद और मेरे भाई!" बोली वो,
"क्या नाम है भाई का आपके?" पूछा सुरभि ने!
"फ़ैज़ान!" बोली अशुफ़ा!
फ़ैज़ान!
क्यों लगा ऐसा ये नाम सुनकर कि,
वो अपना सा ही है?
क्यों चेहरे के भाव बदल गए एक साथ?
क्यों लगा कि, ये गीत उसे भी गाना चाहिए?
क्यों लगा कि उसे भी इंतज़ार है?
माथे में शिकन पड़ीं!
होंठ सूख गए थे उसके!
खुली नींद!
पसीने में नहायी थी सुरभि!
नींद उड़ गयी थी आँखों से!
उठी वो,
अपने होंठ छुए,
सूख गए थे होंठ!
पानी पिया उसने,
और खिड़की के बाहर नज़र गयी!
चाँद!
चमक रहे थे!
जैसे देख रहे हों उसे!
वो चली खिड़की के पास!
खोल दिया उसे!
चाँद को देखा!
आज से पहले, ऐसे न देखे थे चाँद!
आज तो रूप बदल गया था!
मन किया, संदेसा भेज दूँ! अभी! इसी लम्हे!
खुली रहने दी खिड़की!
और होंठों पर,
एक मुस्कान चली आई!
अपने आप ही,
वो गीत निकलने लगा मुंह से!
वही, जो गुनगुना रही थी अशुफ़ा!
जा लेटी फिर से!
चाँद को देखते हुए ही!
चाँद, तो जैसे इंतज़ार कर रहे थे!
कि कब सुरभि संदेसा भेजे,
और वो जाकर खबर करें!
फिर से मुस्कान आई सुरभि के होंठों पर!
आँखें बंद कीं अपनी,
और चली गयी नींद के आग़ोश में!
अपने आपको,
उसी तम्बू में पाया!
खिच्चा ले आई थी ह'ईज़ा,
दिया गया सुरभि को,
उसने पिया, वही स्वाद, खोये जैसा!
"कब तक आएंगे वो?" पूछा सुरभि ने,
"कल-परसों में आने वाले हैं!" बोली वो,
कल या परसों!
बहुत दूर है कल!
और परसों तो शायद, साल सा बीतेगा!
ऐसे ख्याल आये दिल में!
खिच्च पी लिया गया था!
"आओ सुरभि!" बोली खड़ी होते हुए अशुफ़ा!
वो खड़ी हुई,
ह'ईज़ा भी,
और अशुफा, ले चली उसको,
जहां ले गयी, वो बड़ी ही सुंदर जगह थी!
एकदम साफ़!
जब एक क़बीला, ऐसे किसी नख़लिस्तान पर ठहरता है,
तो सारी साफ़-सफाई करके आगे बढ़ता है,
गंदगी का नामोनिशान नहीं रहता!
दूर से लाये हुए, खजूर के पौधे,
फूलों के पौधे, रूप दिए जाते हैं!
एक तम्बू, हमेशा तैयार रहता है,
उसमे खाना, दिशा-ज्ञान,
निकटतम शहर से दूरी,
कपड़े, कंबल आदी का इंतज़ाम किया जाता है,
ताकि कोई भूला-भटका वहां पहुंचे,
तो ये ज़ालिम रेगिस्तान,
उसकी जान न ले ले!
इस से, उन क़बीलों के नाम पर दाग नहीं लगे!
इसीलिए ऐसा किया जाता है,
जब भी कोई नया क़बीला वहाँ आता है,
तो ज़रूरत की सभी चीज़ें रख दिया करता है!
ये है, वहां का रिवाज़!
"कितनी सुंदर जगह है!" बोली सुरभि!
"आपको पसंद आई?" पूछा अशुफ़ा ने!
"बेहद!" बोली वो,
"हाँ, सुंदर जगह है!" बोली अशुफ़ा!
"नहाओगी?" पूछा ह'ईज़ा ने!
"हाँ!" बोली वो,
ले गयी एक सुरक्षित जगह!
वहां केवल औरतें ही जा सकती हैं,
मर्दों को मनाही होती है!
सभी पालन करते हैं इसका,
उसको स्नान करवाया गया!
खुशबूदार इत्र लगाया गया!
उसकी ऐसी खिदमत की,
कि सुरभि को दुनिया में सबसे भाग्यशाली होने का,
गुमान भर आया ज़हन में!
आ गयीं वापिस तम्बू में,
खाना लगाया गया,
सुरभि को खिलाया गया,
जब सुरभि ने खा लिया,
तो बाद में दोनों ने खाया,
हलीम-बिरयानी थी!
बेहद लज़ीज़ थी!
सुरभि को, बहुत पसंद आई वो!
पानी पिलाया गया उसको,
इस पानी का स्वद, ठीक वैसा ही था,
जैसा उसने उस सुराही से पिया था!
इस पानी में,
कुछ अलग ही स्वाद था!
कुछ अलग ही आनंद देता था!
जिस से, प्यास तो बुझती ही थी,
जिस्म में, ताक़त आ जाया करती थी!
और उसके थोड़ी देर बाद, शरबत पिलाया गया!
ऐसा शरबत उसने, कहीं भी, कभी भी, न पिया था!

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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by sexy » 16 Dec 2015 21:46

जब सुरभि शरबत पी रही थी, तो अशुफ़ा उसको ग़ौर से देखे जा रही थी!
"ह'ईज़ा?" बोली अशुफ़ा,
"हाँ?" दिया जवाब उसने,
"ज़रा मुहाने पर खड़ी हो तो?" बोली अशुफ़ा,
ह'ईज़ा उठी, और हुई खड़ी, तम्बू के मुहाने पर,
तब अशुफ़ा ने, सुरभि को, बे'दु'ईं क़बीले की पारम्परिक पोशाक़ पहनाई,
लाल रंग का एक लम्बा सा कुरता,
लाल रंग की घुमावदार सलवार,
कमर में फीत कसे, सुनहरे रंग के,
छाती पर, एक छोटी सी, अचकन,
उसके भी फीत कसे, कमर के पीछे,
और सर पर बुर्क़े की तरह का कपड़ा,
और मुंह पर, नाक और होंठ ढके हुए, एक नीले रंग की, झीनी सी नक़ाब!
वल्लाह! आफ़रीन!
क़यामत सी बरपा हो गयी!
आसमान की कड़कती बिजली,
उस तम्बू में क़ैद हो गयी!
वो नक़ाब, किसका दिल न चीर दे!
किसकी निगाह को न चस्पा कर ले!
अशुफ़ा ने फौरन ही उसको एक गोल-दर्पण दिखाया!
जैसे ही अक्स पड़ा दर्पण में, कहीं चटक ही न जाता!
अपने आपको ही न पहचान पायी!
बस, उस झीनी नक़ाब में से, उसके सुर्ख गुलाबी होंठ, फ़ैल गए थे, एक झीनी मुस्कान के साथ!
अशुफ़ा ने दर्पण लिया वापिस,
और थाम लिया चेहरा सुरभि का, अपने दोनों हाथों में,
आँखों को, एक एक करके देखा!
और चूम लिया माथा उसका!
लगा लिया गले से, भींच लिया सुरभि को!
"ह'ईज़ा?" पुकारा अशुफ़ा ने!
आई अंदर ह'ईज़ा!
मुंह खुला रह गया उसका!
ऊपर से नीचे तक देखा!
आई पास उसके,
आँखों से आँखें मिलायीं!
मुस्कुराई, और लगा लिया गले!
"आओ, आओ! बाहर आओ!" बोली वो,
और तब, अशुफ़ा, ह'ईज़ा, ले चलीं उसे बाहर!
जो देखता, थम जाता!
जो देखती, रुक जाती!
जो पानी भर रहा होता,
वो भूल जाता पानी भरना,
और फीत कस रहा होता,
रुक जाता! जो औरत, आ रही होती, रुक जाती,
उसको ग़ौर से देखती,
उसको नज़र-ए-बद से बचाने के लिए,
उसके सर पर, हाथ वारे जाते!
एक और लड़की आई उधर, भागते भागते!
रुकी उनके पास!
देखा उसने सुरभि को! झाँका आँखों में उसकी!
मुस्कुराई, और लगा लिया गले से!
"ये सुरभि हैं! हमारी ख़ास!" बोली ह'ईज़ा, सुरभि की बाजू थामते हुए! इतरा कर!
"सुरभि! ये फ़'ईमा हैं!" बोली ह'ईज़ा!
फ़'ईमा, बेहद सुंदर लड़की थी!
हरी आँखें, भूरे बाल और कसा हुआ बदन!
लेकिन सुरभि, आज सभी पर भारी पड़ रही थी!
"आइये हमारे साथ सुरभि!" बोली फ़'ईमा!
और हाथ पकड़ उसका, ले चली अपने साथ,
अपने तम्बू में लायी! बिठाया,
दूध पिलाया उसको, और खाने की भी पूछी!
तभी बाहर शोर सा हुआ!
दूर, क्षितिज पर, कुछ ऊँट नज़र आने लगे थे!
उनके साथ चलते हुए कुछ लोग भी!
"आ गए वे लोग!" बोली अशुफ़ा!
जैसे ही देखा सुरभि ने,
उसका दिल, ज़ोर से धक्!
क्यों?
किसलिए?
उसका तो कोई न था इस क़ाफ़िले में?
फिर दिल ज़ोर से धक्?
किस वजह से?
क्या बात हुई?
आँखें बंद हो चलीं!
"हुमैद आ रहे हैं! फ़ैज़ान भाई आ रहे हैं!" बोली अशुफ़ा!
और जब आँख खुली,
तो नींद टूट गयी थी!
सपना ख़त्म हो गया था!
लेकिन हाँ!
उन फीतों का कसाव, अभी भी उसकी कमर पर था!
वो कुछ सोचती, कि अलार्म बज उठा!
आज बड़ा ही बुरा सा लगा वो अलार्म!
आज पहली बार चिढ सी हुई उसे!
बंद कर दिया उसने उसे!
खड़ी हुई, खिड़की से बाहर झाँका,
संदेसा देने वाले चाँद अब न थे उधर!
वो उठी, खिड़की में से बाहर झाँका, न थे वो अब!
खिड़की बंद कर दी उसने,
और चली गुसलखाने तब,
'हुमैद और फ़ैज़ान आ रहे हैं!' शब्द गूंजे कानों में, उस अशुफ़ा के!
स्नान करने चली, तो दो नीले से फूल, बाल्टी में पड़े थे!
आज नहीं उठाये वो फूल,
भरा पानी, और स्नान किया,
बदन, महक उठा उसका!
कई बार कमर को छुआ उसने अपनी,
जैसे वो फीतें अभी भी कसी हों कमर पर!
वस्त्र पहने, केश संवारे, सामान उठाया,
और चली मम्मी-पापा के पास,
बातें हुईं उसकी, बैठ गयी, चाय-नाश्ता आ गया था,
वो किया, और खाना रख लिया अपने लिए!
निकल पड़ी घर से वो फिर, पकड़ी सवारी और जा पहुंची,
खुश-खबरी ये मिली कि,
उसने जो काम जमा किया था, वो सबसे अव्वल रहा!
सैंतीस छात्र-छात्राओं में से, अव्वल आना, अपने आप में, सफलता थी!
सभी ने मुबारकबाद दी! उसके प्रोफेसर ने ही, विशेष तौर पर!
खुश हो गयी थी सुरभि!
दोपहर में, कैंटीन में बैठीं थीं तीनों ही,
भोजन बस किया ही था,
कि खिड़की से, एक हरसिंगार का फूल,
घूमता हुआ, चला आया अंदर, गिरा हाथ पर उसके!
"अरे वाह! देख, फूल भी खिंचे चले आ रहे हैं तेरे लिए!" बोली कामना,
फूल उठा लिया था उसने, सुरभि ने,
सूंघा, तो वही ख़ुश्बू!
अपना बैग खोला उसने,
और जैसे ही खोला, वो दंग रह गयी!
एक बड़ा सा सुल्तानी गुलाब उसके बैग में रखा था!
उसने आहिस्ता से बाहर निकाला उसे,
"कितना बड़ा फूल!" बोली कामना!
"मैंने तो आज ही देखा है ऐसा बड़ा फूल!" बोली पारुल!
सोच में डूबी थी वो!
ऐसा, कैसे हुआ? कैसे आया बैग में?
सुबह तो था नहीं? न रात को रखा?
तो आया कहाँ से?
"असली है क्या ये?" आई आवाज़ एक,
ये अरिदमन था!
"हाँ!" बोली कामना,
उठ आया वो,
लिया हाथों में फूल,
"कमाल है! यहां का तो नहीं है!" बोला वो,
"फिर कहाँ का है?" पूछा कामना ने,
"मैंने तुर्की में देखे थे ऐसे बड़े गुलाब!" बोला वो,
"यहां भी तो होंगे?" बोली कामना,
"पता नहीं!" कहा उसने,
दिया वापिस फूल,
"ताज़ा भी है!" बोली कामना,
"हाँ, और रंग कैसा बढ़िया है!" बोली वो,
"सुर्ख लाल है!" बोली कामना,
और वो सुरभि!
खो गयी थी विचारों में!
कैसे आया ये फूल?
"ले, रख ले!" बोली कामना,
पकड़ा सुरभि ने वो फूल,
और रखा बैग में फिर से!
तीन बजे हुई वापिस उसकी,
सारे रास्ते वो यही सोचती रही!
ख्यालों में डूबी रही!
बैग खोला उसने,
तो वो गुलाब नहीं था उसमे,
एक ख़याल, और जमा हो गया पहले वालों में!
उसने बैग टटोल मार सारा,
नहीं मिला वो फूल!
जा पहुंची घर अपने, हाथ-मुंह धोये,
चाय पी, और कुछ खाया भी,
उसके बाद, कपड़े बदल लिए, और पढ़ने के लिए ले ली किताब!
लेकिन नींद कैसे आये!
वो फूल?
कहाँ से आया?
और कहाँ गया?
ये संयोग है क्या?
कहीं निकाल तो नहीं लिया कामना ने?
हो भी सकता है!
अक्सर ऐसा कर देती है वो!
और बाद में, बता भी देती है!
रख दी किताब उसने!
अब लेट गयी थी,
छत को देखे जाए!
फिर, खिड़की को देखा,
संदेसा भेजने वाले चाँद,
नहीं आये थे अभी उधर!
वो खड़ी हुई,
और खोल दी खिड़की,
देखे जाए बाहर,
जैसे इंतज़ार हो उस संदेसा भेजने वाले का!
लेट गयी थी,
आँखें कीं बंद!
और थोड़ी ही देर में,
वही शोर सुनाई दिया,
वो ऊँट, आ रहे थे, सामान लदा था उनमे,
कुछ लोग भी आ रहे थे अब नज़र,
मुंह पर, बुक्कल मारे, अपने सर ढके हुए!

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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by sexy » 16 Dec 2015 21:46

अशुफ़ा बाहर चल पड़ी थी, और वो फ़'ईमा भी!
सुरभि, ह'ईज़ा के साथ अंदर ही थी, अंदर से ही,
झाँक रहे थे वो बाहर, उस क़ाफ़िले को आता देख!
कुल पच्चीस मर्द थे उस क़ाफिके में,
सामान लदा हुआ था ऊंटों के ऊपर!
"वो रहे हुमैद!" बोली ह'ईज़ा!
एक लम्बा-चौड़ा इंसान था वो हुमैद!
अब बुक्कल हटा दी थी उसने, बाकी सभी ने भी!
आ रहे थे ऊंटों को ठेलते हुए!
औरतें, भाग छूटी थीं उनके पास!
आज डेढ़ महीने बाद आये थे ये सब लोग!
और अपने अपने मर्द को पहचान, जा पहुंचीं वे औरतें!
सभी जा पहुंचे थे! वृद्ध भी, और दूसरे जो यहां रह गए थे!
"लेकिन फ़ैज़ान भाई नहीं आये?" बोली ह'ईज़ा?
एक झटके से देखा उसने ह'ईज़ा को!
उसकी आँखों को, ह'ईज़ा बाहर झाँक रही थी!
और अचानक से ही, नज़रें मिलीं सुरभि से उसकी!
"वो शायद, वहीँ रह गए!" बोली ह'ईज़ा! बाहर देखते हुए!
आ गए था हुमैद और सभी लोग!
अपने अपने तम्बुओं में चले गए थे, कुछ लोग,
ऊंटों से सामान उतार रहे थे,
जिनसे उतार लिया गया था, वो अब पानी पीने लगे थे!
कुछ ही देर में, अशुफ़ा आई अंदर!
खुश थी, हम्दा और कुछ मेवे लायी थी वो!
दिए सुरभि को, सुरभि ने पकड़ लिए हाथों में!
"आओ सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
सुरभि का हाथ पकड़, ले चली अपने तम्बू में, ह'ईज़ा भी साथ चली उनके!
पहुंचे वहां, तो सुरभि को देख, हुमैद खड़े हो गए!
मुस्कुराये, और बैठने का इशारा किया!
अशुफ़ा ने बिठा दिया सुरभि को, वहीँ, बिस्तर पर!
"अशुफ़ा?" बोले वो,
"जी?" पलटी अशुफ़ा!
"खाना खिलाया सुरभि को?" पूछा उन्होंने,
"हाँ! खिला दिया!" बोली वो,
"हम्दा दो और?" बोले वो,
"दिया है! खाओ सुरभि!" बोली सुरभि से बात करती हुई,
खाने लगी वो हम्दा और वो सूखे मेवे!
"फ़ैज़ान भाई वहीँ रह गए?" पूछा ह'ईज़ा ने!
"हाँ, कह रहे थे कि काम है अभी बाकी!" बोले वो,
"कब तक लौटेंगे?" पूछा अशुफ़ा ने,
"हफ्ते भर में आए जाएंगे!" बोले वो,
दूध दिया गया हुमैद को,
"सुरभि को भी दो न?" बोले वो,
"हाँ, अभी!" बोली वो,
तब तलक, अपना वो गिलास, हुमैद ने, सुरभि को थमा दिया था!
अशुफ़ा ने एक गिलास दूध दे दिया फिर हुमैद को!
"ह'ईज़ा?" बोली वो, गिलास देते हुए ह'ईज़ा को,
"नहीं, मैं पीकर आई थी" बोली वो,
"तो और पी लो बेटी?" बोले वो,
"आप पीजिये!" बोली वो,
सुरभि ने, दूध पी लिया था, हम्दा और मेवे भी खा लिए थे,
बाहर रेतीली हवा चल रही थी!
लेकिन ये नख़लिस्तान था,
यहां तराई होती है, पानी पर रेत जम जाता है,
और नीचे बैठ जाता है,
हवा नमी को सोख, ठंडी हो, बहने लगती है!
बाहर आहट हुई,
शायद ऊँट बिदक गया था कोई!
उसने अपनी टांगें पटकी थीं पानी में!
आवाज़ हुई थी तेज!
और उधर,
नींद खुली सुरभि की,
बाहर देखा, चाँद आ गए थे!
झाँक रहे थे अंदर ही!
वो उठी, जैसे ही उठी, तो डकार आई,
डकार में, दूध की महक आई उसे!
पेट भरा था उसका, उसको ऐसा ही लगा!
वो उठी,
खिड़की खोल दी,
निहारा चाँद को!
आया रेगिस्तान याद उसे!
वो अशुफ़ा! वो ह'ईज़ा! वो फ़'ईमा और वो हुमैद!
वो नखलिस्तान! और वो क़ाफ़िला! वो ऊँट!
जैसे अभी पल भर की बात हो!
चली वहाँ से, हाथ-मुंह धोये,
और फिर चली अपनी माँ के पास,
भोजन किया, आज रात उसके भाई को भी आना था!
पिता जी ही जाते उसको लेने!
वो आ गयी अपने कमरे में वापिस,
निहारा चाँद को,
चाँद ने उसको!
उठी वो!
चली खड़की के पास,
लगाई कोहनियां उसकी चौखट पर,
रखा अपने हाथ में अपना चेहरा!
और देखा चाँद को!
"चाँद! मेरा संदेसा देना, ह'ईज़ा को! अशुफ़ा को! कहना, कोई है इधर, जो याद कर रहा है उन्हें! उनके क़बीले को! और हाँ, उनका भी संदेसा लेते आना!" बोला मन ही मन में!
लिखा, याद की क़लम से, सपने के सफ़े पर,
और भेज दिया संदेसा चाँद को, अपनी आँखों के रास्ते से!
मुस्कुरा गयी!
चाँद को देख, मुस्कुरा गयी सुरभि!
वैज्ञानिक-दृष्टिकोण वाली मेडिकल की छात्रा,
कैसे सपनों की हल्की सी, कच्ची डोर से खिंची जा रही थी!
और तो और, संदेसा भी भेज दिया था उसने!
मुस्कुराते हुए,
हटी पीछे,
जा लेटी बिस्तर पर!
चाँद को निहारे जाए!
कभी मुस्कुराये,
कभी शरमा जाए!
उस रात,
पढ़ाई में मन न लगा,
लेटी ही रही,
बदलती रही करवटें!
कभी बाएं!
कभी दायें!
कभी पीठ के बल,
और कभी पेट के बल!
कभी घुटने मोड़े,
कभी सीधे रखे!
चाँद को देखे जाए!
हवा चले, तो याद आये,
उस रेगिस्तानी हवा की!
जब भी याद आये,
तो रोएँ खड़े हो जाएँ उसके!
सर्दी का सा एहसास हो!
दोनों हाथ, गूंथ ले आपस में!
फिर उठी,
और जा पहुंची खिड़की पर!
देखे चाँद को!
आज चाँद और उसके बीच,
बहुत बातें हो रही थीं!
और सहसा ही,
उसने मुंह से, वो गीत निकलने लगा!
शब्द नहीं पता थे!
बस मायने ही पता थे!
और शब्दों का क्या!
मायने अहम हुआ करते हैं!
साढ़े ग्यारह हो गए थे!
वो उठी, और जा लेटी बिस्तर पर!
लेटी, तो नींद आई,
नींद आई,
तो सपना आया!
ये एक बाग़ था! हरा भरा बाग़!
फलदार पेड़ थे वहाँ!
फूल ही फूल लगे थे!
ताज़ा नरम घास थी, तोतई रंग की,
सफेद मोर थे वहां!
नीले परिंदे थे!
लाल और पीले परिंदे,
पेड़ों की शाख पर बैठ, चहचहा रहे थे!
सामने एक जगह बनी हुई थी,
शायद कोई इमारत थी,
वो चली उस तरफ!
"सुरभि!" आई एक आवाज़! लड़की की,
उसने पीछे देखा,
ये ह'ईज़ा थी!
भाग ली वो ह'ईज़ा की तरफ!
लग गयी गले उसके!
"आओ!" बोली ह'ईज़ा!
और ले चली उसको, उस इमारत की तरफ!
पहुंचे वहाँ!
गुलाब बिखरे हुए थे वहां!
फर्श सा सजा था उनसे!
ठीक वैसे ही, बड़े बड़े, सुर्ख लाल गुलाब!
"आओ!" बोली वो,
और ले चली उसका हाथ पकड़ कर अंदर!
अंदर तो महल था!
सुनहरी पर्दे लटके थे, बड़े बड़े!
आलीशान फर्नीचर पड़ा था!
सोने के पाये थे सभी में,
रंग-बिरंगे कांच के, झाड़-फानूस लटके थे वहां!
छत पर नक्काशी हुई, हुई थी!
लाल रंग की छत थी!
और उसमे, सोने के तारों से, नक्काशी की गयी थी!
"बैठो!" बोली ह'ईज़ा!
बैठ गयी सुरभि!
और तब, एक और जानी-पहचानी आवाज़ आई!
"सुरभि!" एक औरत की आवाज़!
ये अशुफ़ा थी!
खड़ी हुई वो!
और अशुफ़ा ने माथा चूमा उसका!
पास में ही रखी सुराही से, गिलास में डाला शरबत,
और दिया उसको!
वो शरबत ख़ास ही हुआ करता है!
ऐसा इस जहां में मिलना, नामुमकिन ही है!
"संदेसा भेजा था न?" बोली मुस्कुराते हुए, अशुफ़ा!
हैरान रह गयी सुरभि!
"मिल गया!" बोली अशुफ़ा!

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