वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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sexy_parul
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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by sexy_parul » 20 Dec 2015 12:49

अपने कुर्ते से ही हाथ पोंछ दिए थे फ़ैज़ान ने सुरभि के!
बहुत खुश लगा रहा था वो उस समय!
ऐसे करीने से हाथ पोंछे थे, कि एक क़तरा भी पानी न रहा!
हाथ पोंछते वक़्त, बस हाथों को ही देखे जा रहा था! मुस्कुराते हुए!
हाथ पोंछ दिए थे उसने! अपना कुरता भी ठीक कर लिया था!
"अशुफ़ा?" बोला वो,
"जी?" बोली वो,
"जाएँ, ले जाएँ, आराम करवाएं सुरभि को अब!" बोला वो,
"जी!" बोली अशुफ़ा!
और अब उठाया उन्होंने सुरभि को,
और ले चली अंदर!
फैजान, अपना सर, उस बड़ी सी कुर्सी की पुश्त से, लगा, बैठ गया!
आँखें बंद हो गयीं उसकी!
फिर सर आगे किया,
अपने गीले कुर्ते को देखा,
उसका किनारा उठाया,
गीला था वो अभी,
किया अपने मुंह के पास, और चूम लिया उसने!
वो सच में, बेइंतहा मुहब्बत करता था सुरभि से!
लेकिन उसने अभी ज़ाहिर न किया था!
वो ज़ाहिर करता भी नहीं!
वो सच्ची मुहब्बत में मुब्तिला था सुरभि के संग!
हवस रखता, तो अब तक तो तार-तार हो चुकी होती सुरभि!
वो तो सामने भी नहीं आ रहा था!
उसको अपने दिलबर के मुंह से कहने का इंतज़ार था!
इक़रार का इंतज़ार!
उसका पूरा ख़याल रखा करता था,
पल पल! एक एक पल! चाहे दिन हो, चाहे रात!
गुसलखाने में, फूल छोड़ आता था, और खुद हट जाता था!
वो सुरभि के बदन से नहीं, उसकी रूह से प्यार कर बैठा था!
उसने कहा भी तो था!
कि उसको सुरभि की शख़्सियत बेहद पसंद आई थी!
उधर सुरभि,
अपने ही मन में उठे, एक तूफ़ान की आवाज़ सुन रही थी!
तूफ़ान, आगे बढ़े जा रहा था!
कुछ ही दूरी बची होगी बस!
तूफ़ान आता, और उड़ा ले जाता उसे!
नहला देता अपनी बारिश से, कर देता सराबोर!
फिर क़दम न टिक पाते उसके!
उसको उड़ना ही पड़ता!
जिस वक़्त, वो सुरभि के हाथ पोंछ रहा था,
उसके हाथों की पकड़ से, अंदर तक, चिंहुक गयी थी सुरभि!
अपने एक हाथ से ही, दोनों हाथ पकड़े थे उसने सुरभि के,
और एक हाथ से ही, करीने से पोंछ रहा था!
जब वो पोंछता, कपड़ा रगड़ता, तो,
अंदर ही अंदर, एक सैलाब सा हिलोरें मारने लगता था!
आँखें तो बंद थी सुरभि की, उस पलंग पर,
लेकिन मन की आँखें, ढूंढ रही थीं किसी को!
कोई भी आहट होती, तो देखने लगती थी उधर ही!
वे दोनों, वहीँ बैठी थीं, उसी के संग!
हाथ थाम लेती थीं सुरभि का कभी कभी!
सुरभि इस क़द्र अपने तूफ़ान में टकराने के इंतज़ार कर रही थी,
कि उसको पता भी न चला कि, उसक होंठ सूख गए हैं!
साँसें गरम हो चली हैं!
दिल, बेतहाशा दौड़े जा रहा है!
सर से पाँव तक, एक अजीब सा ख़ुमार चढ़ चला था!
उसने करवट बदली,
जैसे ही करवट बदली,
नींद खुली!
आसपास देखा,
ये तो उसी का घर था!
उसी का कमरा!
उसी का पलंग!
वो उठ बैठी!
होंठ छुए, तो सूखे थे,
ज़ुबान भी सूखी, और हलक़ भी सूखा!
वो खड़ी हुई, और जैसे ही खड़ी हुई, खिड़की से हवा अंदर आई!
हाथों से टकराई!
हाथ लगे ठंडे!
याद आया उसे!
अपने हाथ देखे!
एकदम साफ थे!
अभी जैसे, नाखूनों और उनके मांस के बीच में, नमी बची थी!
घड़ी देखी उसने!
पांच बजे थे!
पानी पिया, याद आया वो पानी, इस पानी में वो स्वाद नहीं था!
वो, जा बैठी कुर्सी पर,
आँखें बंद कर लीं अपनी!
न जाने क्यों, उचाट सा था मन!
कुर्सी पर, कमर लगा, पहुँच गयी ख्यालों में,
उसी जगह!
याद आया एक चेहरा!
वो नीली आँखें,
वो हाथों की पकड़!
वो इल्तज़ा भरी गुज़ारिश!
अपने आप ही, होंठों पर, मुस्कान तैर गयी!
अब दिमाग का घोड़ा दौड़ा!
बेलग़ाम! दौड़ता चला गया!
कहाँ जा रहा था, पता नहीं!
बैठे बैठे घंटा बीत गया!
अलार्म बजा,
खुली आँखें! छह बज चुके थे!
उठी, अपनी किताबें रखन अलमारी में,
और चली गुसलखाने!
बाल्टी में झाँका!
आज कोई फूल नहीं!
वो झुकी, अच्छे से देखा,
न! कोई फूल नहीं आज!
आसपास देखा, वहां भी कोई फूल नहीं!
कोई बात नहीं!
उसने स्नान किया, वस्त्र पहने अपने, हुई तैयार,
और चली बाहर, मम्मी-पापा के पास, कुणाल भी बैठा था वहीँ,
चाय-नाश्ता लग गया था, चाय-नाश्ता किया,
और फिर खाना भी रख लिया,
और चल दी बाहर, आई बाहर, ली सवारी,
और चल पड़ी कक्षा में लिए!
जा बैठी अपनी सहेलियों में!
"कमाल है?" बोली कामना,
"क्या हुआ?" पूछा सुरभि ने,
"आज नहीं नहायी परफ्यूम में?" पूछा कामना ने,
"तुझे और कोई काम नहीं है?" बोली सुरभि!
"आज कमरा नहीं महका न! इसीलिए!" बोली वो,
सच में, आज नहीं महका था कमरा!
दोपहर में, वे चलीं कैंटीन!
किया भोजन, बातें करते करते!
तभी बाहर झाँका सुरभि ने,
बाहर, फूल गिर रहे थे हरसिंगार के,
लेकिंन आज, कोई फूल न आया था अंदर!
खिड़की की चौखट पर ही एक आद गिर जाता!
फिर से कक्षा और कोई साढ़े तीन बजे, चली वापिस,
पकड़ी सवारी, और पहुंची घर,
आज गर्मी काफी थी, उसने फ्रिज में से, शीतल-पेय निकाला,
और तभी उसको वो आब्शी-शरबत याद आ गया!
होंठों पर मुस्कान तैर गयी तभी के तभी!
आ गयी अपने कमरे में,
रखा गिलास मेज़ पर,
खिड़की खोल ली,
बैठी कुर्सी पर,
और उठाया गिलास,
धीरे धीरे, पीने लगी वो पेय!
फिर से, ख्याल आये उसे!
वो नीली आँखों वाला फ़ैज़ान!
अब उसने,
उसको पूरा निहारा,
वहीँ बैठे बैठे,
हलकी सुनहरी दाढ़ी!
चौड़ा, गोरा चेहरा!
सुनहरे बाल!
और जब हाथ पोंछे थे उसने,
तो उसके हाथों के और उँगलियों के वो सुनहरे बाल!
उसका चौड़ा माथा!
उसके चौड़े कंधे!
वो नीला, चमकदार कुरता!
और नीली ही, वो चुस्त पाजामी!
उसका वो शाही अंदाज़ बैठने का!
घुटने के ऊपर, घुटना रखा था उसने!
वो सुनहरी, जूतियां!
जिसमे, नीला, पीला और काला रंग था!
और वो मीठी सी आवाज़!
और इल्तज़ा भरी गुज़ारिशें!
वो पिस्ते छीलना और उसको देना!
वो बर्फी देना, और कहना कि खाने के लिए है!
सब याद आ गया! और होंठों पर, एक चौड़ी सी मुस्कान भी!
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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by sexy_parul » 20 Dec 2015 12:49

उसने कपड़े बदले फिर, और जा लेटी बिस्तर में,
सर स्थिर रखा, छत को देखा उसने, देखती रही,
उलटे हाथ से, अपने बालों की एक लट को, अलबेटे देती रही!
किसी का ख्याल दिमाग पर छाने लगा था!
किसी की आवाज़ अभी तक कानों में गूँज रही थी!
अपने हाथ देखे, किसी की पकड़, अभी तक याद थी!
हाथों को गौर से देखा उसने, एक हाथ से दूसरे को छुआ!
आँखें बंद कर लीं उसने,
लेटी रही आँखें बंद किये,
आज नहीं आई नींद!
कभी इस करवट, तो कभी उस करवट!
कभी पीठ के बल तो कभी पेट के बल!
नहीं आई नींद!
उठ गयी,
पानी पिया,
और बैठ गयी!
फिर से किसी के ख़याल आये,
फिर से एक बार, होंठों पर मुस्कान आई!
लेट गयी फिर से,
आँखें कीं बंद!
नहीं आई नींद!
अब तो खीझ उठी मन में!
पेट के बल लेटी!
सर धँसाया तकिया में,
और घुटनों से, अपनी टांगें ऊपर कर लीं!
अपने दोनों हाथों से,
तकिये को मोड़, अपने कान भी ढक लिए!
लेकिन नहीं आई नींद!
आज तो नींद छका रही थी उसको!
रोज तो आ जाया करती थी?
आज क्यों नहीं?
खीझ उठी!
हुई सीधी!
खोली आँखें, उठा ले एक किताब!
खोला एक पृष्ठ,
और पढ़ने लगी,
लेकिन मन न लगे उसका!
जल्दी जल्दी पृष्ठ पलटे उसके,
फिर किताब खोल, छाती पर रख ली!
अपने सीधे हाथ की, तर्जनी ऊँगली मोड़,
उसके बीच के पोर को,
अपने दांतों में दबा लिया!
बहुत देर, ऐसे ही रही!
ऊँगली निकाली, किताब बंद कर, रख दी एक तरफ,
चादर ली, खोली, घुटनों तक ओढ़ी,
और लेट गयी आँखें बंद कर,
लेकिन आज तो नींद जैसे कहीं और नींद ले रही थी!
डेढ़ घंटा बीत गया था उसे!
मछली की भांति, बिस्तर पर फुदक रही थी सुरभि!
कभी तकिया कहीं रखे,
और कभी कहीं!
कभी सिरहाने,
तो कभी पैंताने!
लेकिन हाय! नींद नहीं आये!
कैसी बैरन हुई आज तो निंदिया!
उठ गयी! खीझते हुए!
चादर को अंट-शंट लपेट, फेंक मारा पैंताने की तरफ!
नींद की खीझ, चादर पर जा निकली!
पहनी चप्पलें,
और पाँव पटकते हुए, चली बाहर,
फ्रिज तक आई, खोला,
पानी निकाला, पिया, बोतल रखी, रखी ज़रा तेज,
तेज रखी, तो ऊपर रखा नीम्बू ढुलक गया नीचे!
गेंद की तरह, ये जा और वो जा!
उसको ढूँढा, कहीं न दिखा!
"भाड़ में जा!" बोली खीझ कर!
अब नींद की खीझ, शिकार नंबर दो, नीम्बू पर निकली!
पाँव पटकते हुए,
चली अपने कमरे में,
दरवाज़ा बंद किया ज़रा तेजी से,
लगाई चिटकनी!
और जैसे ही बिस्तर पर जाने लगी,
दर्पण में अपना अक्स दिखा,
आई दर्पण के पास,
खुद को देखा,
अपने कपड़े ठीक किये,
अपने बाल ठीक किये,
हेयर-बैंड खोला, मुंह में, दांत से पकड़ा,
बाल फटकारे, बांधे, और हेयर-बैंड से, बाँध लिए,
फिर से देखा अपने आप को!
और चली बिस्तर पर,
चादर उठायी,
खोली चादर,
और लेट गयी,
घुटनों तक, चादर कर ली!
आँखें कीं बंद!
नींद न आये!
मुट्ठी भिंच गयीं दोनों ही!
दांत भी भींच लिए थे!
आँखें, ज़िर से मींचीं उसने!
फिर खोली!
आज न आये नींद!
करवट बदल ली!
दीवार की तरफ मुंह कर लिया,
दीवार को देखे!
देखे, तो वो नक्काशी वाली दीवार याद आयी!
अपनी दीवार को छुआ!
तसव्वुर ये कि,
जैसे उसी नक्काशी वाली दीवार को छू रही हों!
हाथ फेरे!
पूरा हाथ खोल,
छाप छोड़े दीवार पर!
हाथ किया पीछे,
फिर से करवट बदली!
किताब रखी थी,
और उसका बैग,
बैग खींचा आगे होते हुए,
बैठ गयी, बैग खोला,
एक छोटी से जेब से बैग की,
वो फूल निकालने की सोची,
पूरा बैग खंगाल लिया!
फूल न निकले वो हरसिंगार के!
अपनी किताब देखी,
नहीं थे उसमे!
उसको झाड़ा!
न निकले!
उठ गयी!
दूसरी किताबें देख लीं!
न निकले!
मायूस सी हो,
जा बैठी बिस्तर पर!
फिर खड़ी हो गयी!
कुर्सी खींची,
और खिड़की के पास ले गयी,
खिड़की खोली,
और बैठ गयी!
अब शाम की चहलपहल होने लगी थी,
आज नींद नहीं आई थी!
बड़ा बुरा सा वक़्त गुजरा था!
पता नहीं क्यों नहीं आई थी!
कोई चिंता भी नहीं थी!
तो क्यों नहीं आई?
बाहर देखे,
पेड़ खे,
और वही पेड़ याद आये!
वही बेल-बूटे!
वही बेर और फल!
वो ह'ईज़ा!
वो अशुफ़ा!
और वो, फ़ैज़ान!
फ़ैज़ान को निहार रही थी,
बाहर देखते हुए!
सुरभि बेचारी कहाँ फंसी!
अपने मन के जाल में,
जा फंसी थी!
नींद आई नहीं थी आज,
ये खीझ!
फूल न मिले थे,
वो खीझ!
उठी,
खिड़की से टेक लगाई!
बाहर झाँका,
सब्जी वाले, फेरी लगाने वाले, आ-जा रहे थे!
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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Unread post by sexy_parul » 20 Dec 2015 12:51

तो इस तरह से, वक़्त आगे बढ़ा! बजे सात, कोई नींद नहीं!
बजे आठ, कोई नींद नहीं! अब तो बस, खाना खाकर, सोना ही था!
उठी सुरभि, टी.वी. का रिमोट लिया, चालू किया,
और बदलने लगी चैनल, जो वो देखा करती थी, वहीँ रुकी,
कुछ देर देखा, और फिर बदल दिया, आज समझ ही नहीं आ रहा वो,
और चैनल बदले, कहीं नहीं रुकी, और कर दिया बंद! आज कुछ नहीं आ रहा था टी.वी. में!
उठी वो, और अपने एक बैग से निकाल लिया लैपटॉप,
लगा दिया उसमे डोंगल, इंटरनेट के लिए, अपना काम किया करती थी उसमे वो,
किया चालू, हुआ चालू, और खोला अपना काम, कुछ मिनट ही किया,
फिर बंद कर दिया! आज वो भी नहीं हो रहा था!
और तब, उसने इंटरनेट शुरू किया,
सबसे पहले तो बे'दु'ईं क़बीले के बारे में विस्तार से पढ़ा!
इसमें लग गया था मन! कमर सीधी कर, पढ़ने लग गयी!
आधा घंटा पढ़ा, फिर तु'आरेग क़बीले के बारे में पढ़ा, तस्वीरें देखीं!
ठीक वैसी ही, जैसी उसने देखी थीं सपने में!
मुस्कुराहट आ गयी होंठों पर!
और फिर पढ़ा, हरातीन क़बीले के बारे में,
इनकी पोशाक़ ठीक वैसी ही थी, जैसी उसने सपने में देखी थी!
पूरा पढ़ लिया, तीन-चार तस्वीरें भी सुरक्षित रख लें!
डेढ़ घंटा उसने ये सब पढ़ने में लगाया!
और फिर किया बंद वो, रख दिया बैग में,
कुर्सी से कमर लगा, बैठ गयी! हाथ फैला कर!
कोई दस मिनट के बाद, वो उठी,
और चली मम्मी के पास, बैठ गयी,
मम्मी ने कुछ बातें कीं उस से, उसने हाँ-हूँ में जवाब ही दिया बस!
पिता जी आज देर से आने वाले थे, इत्तिला कर दी थी उन्होंने,
कुणाल अपने भाइयों के संग था, घर पर उनके,
अब खाना आया, तो दो ही रोटियां खायी गयीं उस से उस दिन!
पानी पिया और चल दी वापिस अपने कमरे में,
जा लेटी, अपने मोबाइल में, ईयर-फ़ोन लगा, गाने सुनने का मन था!
गाने शुरू हुए, लेकिन, उसके दिल में तो वो रेगिस्तानी गीत चल रहा था!
सुन गाना रही थी, और गुनगुना वो गीत रही थी!
कैसी अजीब सी बात थी!
आखिर, बंद किया उसने गाना, और रख दिया ईयर-फ़ोन और मोबाइल, एक तरफ!
आज पढ़ने का भी मन नहीं कर रहा था!
सो, किताबें उठा, अलमारी में रख दीं!
कभी उठे, कभी बैठे,
कभी लेट जाए,
कभी खिड़की से टेक लगा,
खड़ी हो जाए!
कभी बाहर झांके, और कभी आकाश में देखे!
आज तो चाँद भी नहीं आये थे!
तारे ही थे बस!
कई बार देखा उसने!
नहीं थे!
न जाने क्या सूझा,
चप्पल पहनीं, और पाँव पटक, चली बाहर,
छत पर जाने के लिए,
सीढ़ियां चढ़ने लगी खटाखट!
ऊपर का दरवाज़ा खोला,
और पूरा आकाश देख लिया!
ढूंढ मारा चाँद को!
लेकिन आज चाँद नहीं आये थे!
हुआ एक अलग सा एहसास!
अकेलेपन का एहसास!
आज चाँद नहीं ये?
कहाँ रह गए?
कहीं अमावस तो नहीं आज?
देखना पड़ेगा!
उतरी सीढ़ियां दरवाज़ा बंद कर,
मम्मी के कमरे में, एक हिंदी कैलेंडर था!
उसको देखा, आज की अंग्रेजी तारीख देखी!
हाँ, आज अमावस ही थी!
आज नहीं आने वाले थे चाँद!
ओहो!
दिल में, हल्की सी जलती मोमबत्ती, बुझ गयी!
चली अपने कमरे में,
खिड़की बंद कर दी,
देह से जैसे जान निकल गयी थी!
हाथ भी नहीं उठाये जा रहे थे!
आज अकेली रह गयी थी!
नहीं तो संदेसा भेज देती वो!
अब कैसे कटेंगे ये चौबीस घंटे?
चाँद आते थे, तो मन की बात कह लेती थी!
आज तो वो भी छुट्टी पर चले गए थे!
इसी पशोपेश में साढ़े ग्यारह हो गए!
नींद न आई!
बैठी रही,
न पढ़ने का मन,
न कुछ सुनने का!
आज अजीब सा था मन!
साढ़े बारह बज गए,
नींद का एक झोंका भी नहीं!
एक बजा, और फिर डेढ़, कोई झोंका नहीं!
दो बजे, और उसको, आई एक जम्हाई!
बिस्तर पर जा लेटी!
चादर ली, और ओढ़ ली,
आँखें कीं बंद!
और इस तरह आखिर, नींद की पालकी में जा लेटी सुरभि!
सो गयी थी सुरभि!
आँख खुली!
अलार्म बजा था!
झट से उठी!
ये क्या?
सुबह हो गयी?
अलार्म उठाया,
देखा, जांचा, समय देखा,
छह बजे थे!
वो सपना?
आज नहीं आया?
क्यों?
अपने आप से सवाल शुरू!
खड़ी हुई,
खिड़की के पास गयी,
बाहर झाँका,
सुबह हो चुकी थी!
धम्म से बैठ गयी बिस्तर पर!
सोच-विचार शुरू!
क्यों नहीं आया सपना?
क्या वजह हुई?
चेहरा बुझ गया उसका!
ख़ैर,
उठी,
चली गुसलखाने,
बाल्टी में झाँका,
कोई फूल नहीं!
बाल्टी उठायी,
पीछे, नीचे देखा,
कुछ भी नहीं!
आसपास देखा, कुछ भी नहीं!
चलो जी, स्नान किया,
वस्त्र पहने, सामान लगाया,
मम्मी-पापा के पास चली,
बातें हुईं उनसे!
चाय-नाश्ता किया, आज कम खाया गया उस से!
हालांकि मम्मी ने टोका,
लेकिन मना कर दिया उसने!
खाना रखा बैग में,
और चल दी बाहर, ली सवारी,
और जा पहुंची अपनी कक्षा के लिए,
जा बैठी संग अपनी सखाओं के,
कामना देखे उसे, बार बार,
"क्या बात है?" पूछा उसने सुरभि से,
"क्या हुआ?" बोली सुरभि,
"बीमार है क्या?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" बोली सुरभि,
"आज रंगत कैसी है?" बोली कामना,
"नींद नहीं आई रात को ठीक से!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"पता नहीं" बोली वो,
की पढ़ाई,
दोपहर को, कैंटीन में चलीं तीनों,
किया भोजन तीनों ने,
चौखट पर खिड़की की,
फूल गिर रहे थे घूम घूम के,
एक उठाया सुरभि ने,
सूंघा, तो कोई महक नहीं!
रख दिया वहीँ!
और पढ़ाई के बाद, वापिस घर के लिए निकली,
पार किया चौराहा,
ली सवारी,
और चल पड़ी घर के लिए,
अपने आप में उलझी हुई! खोयी हुई!
एक जगह...............!!
क्रमशः
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