Page 1 of 13

वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Posted: 16 Dec 2015 10:19
by admin
वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना
सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़!
[/size]

"मम्मी?" बोली सुरभि अपनी मम्मी से,
सर्दी के दिन थे, आज रविवार था, धूप का आनंद ले रहे थीं माँ बेटी!
"हाँ बोल?" बोली माँ,
"वो सामने, अशोक का पेड़ है न?" बोली वो,
माँ ने देखा,
"हाँ, वही है" बोली माँ!
"क्या फूल हैं न उसमे?" बोली वो,
"फूल? कहाँ है फूल?" बोली माँ,
गौर से देखते हुए उस पेड़ को!
"आपको वो लाल चटक फूल नहीं दिख रहे?" बोली सुरभि,
हैरत से!
"कहाँ हैं फूल?" माँ ने फिर से गौर से देखा,
अब ग्रिल तक गयीं वो, और गौर से देखा,
उन्हें तो बस चटक हरे पत्ते ही दिखे!
आई वापिस,
"तुझे फूल दिख रहे हैं उसने?" म ने पूछा,
"हाँ, देखो, कितने प्यारे हैं!" बोली मुस्कुरा कर सुरभि!
"या तो तू मज़ाक कर रही है, या फिर तेरी आँखों का अब इलाज ज़रूरी है!" बोली माँ, खीझ कर,
और आ बैठीं फिर से, फोल्डिंग-पलंग पर, माँ मेथी के पत्ते साफ़ क रही थीं,
और सुरभि, कानों में, एअर-फ़ोन लगा, मोबाइल-फ़ोन में गाने सुन रही थी,
जब माँ से बातें कीं, तो गले में लगा लिया था वो एअर-फ़ोन!
"कमाल है मम्मी! खैर छोडो!" बोली सुरभि,
और कान में, फिर से लगा लिया उसने अपन एअर-फ़ोन!
सुरभि, मेडिकल की छात्रा थी, तृतीय वर्ष की,
बहुत सुंदर और अच्छे बदन वाली है वो सुरभि!
उसके तन पर, कोई भी कपड़ा हो,
फब जाता है, ऐसा बदन है सुरभि का!
चेहरा ऐसा सुंदर,
कि उसकी सहेलियां ही उसे न जीने देतीं!
सुलझे हुए व्यक्तित्व वाली है सुरभि!
नए ज़माने की हवा से दूर है,
साड़ी पहनती है कभी कभी,
मैंने सबसे पहले साड़ी में ही देखा था उसको,
बाकी, सूट-सलवार, जीन्स आदि कुछ नहीं,
कट-स्लीव्स, क़तई नहीं!
केश, कमर से नीचे तक!
सुसंस्कृत! और समझदार!
श्याम सिंह का परिवार, नॉएडा में रहता है,
परिवार में, श्याम सिंह, सरकारी नौकरी करते हैं,
पत्नी गृहणी हैं,
एक बड़ी बेटी है ये सुरभि,
और एक छोटा बेटा है, कुणाल,
कुणाल, इंजीनियरिंग कर रहा है, और घर से बाहर रहता है,
महीने में, एक बार घर आता है , सीधा-सादा लड़का है वो!
श्याम सिंह जी के बड़े भाई भी सरकारी नौकरी में हैं,
उनका परिवार भी, उनके पास ही, रहता है,
उनके पिताजी बड़े भाई के पास रहते हैं,
श्याम सिंह जी के बड़े भाई के तीन लड़के हैं,
इसीलिए, अपने ताऊ-ताई और अपने सभी भाइयों की लाड़ली है ये सुरभि!
तो उस दिन सुरभि ने अशोक के फूल देखे थे,
पेड़ पर लगे हुए, बहुत कम ही देखते हैं ये फूल!
अशोक का वृक्ष चाहे वृद्ध हो, ठूंठ बन, गिर जाए,
फूल नहीं देता, जब तक कि कोई रजस्वला कन्या उसको स्पर्श न करे!
इस से पहले भी, कोई दस दिन पहले,
सुरभि जब स्नान करने गयी थी,
तो बाल्टी के पानी में, उसको अजीब से छोटे छोटे नीले रंग के कुछ फूल मिले थे!
उसने उनको निकाल लिया था बाहर,
और जब स्नान कर लिया, तो बदन के कोने कोने से, एक भीनी भीनी सुगंध बनी रही, अगले दिन तक, उसके सहपाठी भी चकित थे, कि पूरी कक्षा में ये सुगंध आ कहाँ से रही है! जिस से छू जाए, वही महक जाए! ऐसी सुगंध थी वो! और हैरत की बात ये, कि सुरभि को ये सुगंध नहीं आ रही थी! और जब वो लौटी कक्षा से, तो गुसलखाने में रखे हुए वो फूल, थे ही नहीं वहां! शायद माँ ने फेंक दिए हों! यही सोचा उसने, और बात आई गयी हो गयी!
दो दिन बाद की बात होगी,
अपनी कक्षा में थी उस दिन सुरभि,
संग में उसकी दो सहेलियाँ थीं, जिनसे वो खुलकर बात करती थी,
एक जिला सागर, मध्य प्रदेश से थी, कामना,
और एक ऊना, हिमाचल प्रदेश से, पारुल,
प्यास लगी कामना को,
तो चली पानी पीने,
संग उसके, वो पारुल भी चली,
बाहर, एक जगह, वाटर-कूलर लगा था, वहीँ से पानी पिया करते थे विद्यार्थी,
तो वाटर-कूलर काम नहीं कर रहा था, वापिस हुईं दोनों,
अब बाद में कैंटीन से पीना पड़ता उनको, कोई बात नहीं,
समय भी हो चला था, आ कर बैठ गयीं वे दोनों,
कुछ ही देर में, सुरभि गयी पानी पीने,
सुरभि ने वाटर-कूलर की टंकी के नीचे रखा गिलास,
तो पानी आ गया! पानी पी लिया उसने, गिलास फेंक दया,
डिस्पोजेबल गिलास रखे जाते थे वहां,
पानी पिया, और वापिस हुई,
कक्षा का समय समाप्त हुआ, तो अब चलीं कैंटीन,
कामना और पारुल ने पानी पिया सबसे पहले,
और ले आयीं उस सुरभि के लिए भी!
सुरभि ने मना किया,
"प्यासी ही रहेगी क्या?" बोली कामना,
"क्यों? पानी पी तो लिया मैंने?" बोली सुरभि,
"कहाँ पिया पानी?" पूछा कामना ने,
"वहीँ से, वाटर-कूलर से?" बोली वो,
"लेकिन वो तो खराब है?" बोली कामना,
"जा, जाकर देख, चल रहा है!" बोली सुरभि,
"पारुल? वो चल रहा था क्या?" पूछा कामना ने, पारुल से,
"नहीं!" बोली पारुल,
"लेकिन जब मैं गयी, तो चल रहा था?" बोली सुरभि!
"नहीं चल रहा!" आवाज़ आई एक लड़के की,
ये अरिदमन था, लखनऊ से था वो, साथ ही पढ़ता था उनके,
"क्या?" बोली सुरभि,
"हाँ, नहीं कल रहा, उसका स्विच भी ऑफ है!" बोला वो,
"ऐसा कैसे हो सकता है?" बोली सुरभि,
"आ! चल कर देख!" बोली पारुल,
अब तीनों चल पड़ीं उधर ही!
और जब वाटर-कूलर देखा,
तो स्विच ऑफ था उसका!
पानी, नाम को नहीं था उसमे!
"अब तूने क्या सपने में पिया पानी?" बोली कामना!
"मेरा यक़ीन कर! मैंने यहीं से पिया था पानी!" बोली वो,
और तब उसने डस्टबीन में झाँका,
एक ही गिलास पड़ा था! वो भी सुरभि का!
वो गिलास, उन दोनों ने भी देखा!
अब वे भी सन्न!
ऐसा कैसे हो सकता है?
वाटर-कूलर बंद!
स्विच ऑफ!
लेकिन डस्टबीन में पानी का गिलास!
क्या माना जाए इसे! कैसे आया पानी!
खैर,
ज़्यादा माथा-पच्ची नहीं की उन्होंने,
सीधा कैंटीन गयीं, और अपना खाना खाया,
लेकिन, सुरभि के मन में ये बात घूमती ही रही!
जब वो बंद था, तो पानी आया कैसे?
क्या कुछ पलों के लिए चल पड़ा था?
या बचा हुआ पानी था?
जब उत्तर नहीं मिलता मानव-मस्तिष्क को,
तो उसको भूलना ही बेहतर समझता है वो!
तो वो भी भूल गयी! आया होगा, कैसे आया होगा, पता नहीं!
तीन दिन बाद की बात है,
अपने घर में ही थी सुरभि,
रात का समय था, अपनी पढ़ाई कर रही थी वो,
इसी सिलसिले में, उसे एक किताब की तलाश थी,
पूरा कमरा छान मारा उसने अपना,
फर्श, अर्श सब देख डाले,
नहीं मिले वो किताब! और का भी ज़रूरी!
कल जमा भी करना था कक्षा में,
कहीं किसी सहेली को तो नहीं दे दी?
फ़ोन उठाया, तो फ़ोन किया उसने,
पूछा, जवाब वही, कि नहीं है किताब उसकी उनके पास!
अब फिर से ढूँढा! न मिले!
अपने दूसरे कमरों में भी तलाश करे,
वहाँ भी न मिले!
छत पर गयी, वहाँ ढूँढा, वहाँ भी नहीं!
अब गयी तो गयी कहाँ?
चिंता लग गयी बेचारी को! क्या करे अब!
आई अपने कमरे में,
और जैसे ही नज़र पड़ी अपनी उन खुली किताबों पर,
तो वही किताब, दायें रखी थी उधर!
उसने दौड़ कर, झट से उठायी!
शायद निगाह न पड़ी हो उसकी!
उसने पलटे पृष्ठ,
और पलंग पर बैठ, कमरा लगा दीवार से,
पढ़ने लगी,
कुछ पंक्तियों को छांटा, और फिर,
एक सफ़े पर उतार लिया उसने!
देर रात तक, पढ़ती रही वो, और करीब डेढ़ बजे,
अपन काम फ़ारिग कर, किताबें करीने से रख,
चादर ओढ़, बत्ती बुझा, सो गयी सुरभि!

Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Posted: 16 Dec 2015 10:20
by admin
सुबह जब नींद खुली, तो पूरा कमरा गुलाब की ख़ुश्बू से महका हुआ था!
उसके नथुने भर उठे!
स्नान करने गयी, तो बाल्टी में, फिर से नीले रंग के छोटे छोटे फूल दिखे!
उसने उठाये वो, कुल चार थे, रख दिए एक जगह,
स्नानादि से निवृत हुई, तो वो फूल ले चली बाहर,
वस्त्र पहने, और दर्पण देखा, आज तो रूप ही निखर गया था उसका!
उसका गोरा रंग, आज गुलाबी आभा ले रहा था!
चली बाहर, माँ से मिली, पिता जी से मिली, अखबार पढ़ रहे थे पिताजी,
उनसे बातें कीं, वो फूल पिता जी को दिखाए, आ गए होंगे कहीं से, या गिर गए होंगे, बाहर भी तो ऐसे ही फूल लगे हैं शायद, या फिर माली के संग आ गए होंगे, बात टल गयी फिर से, और फिर चाय-नाश्ता भी आ गया!
तीनों ने मिलकर, चाय नाश्ता किया, वो भीनी भीनी महक, अब आने लगी थी!
अब इस से, माँ को क्या और पिता जी को क्या!
उसके बाद सुरभि तैयार हुई, माँ ने दोपहर का खाना तैयार कर दिया था,
आज कामवाली नहीं आई ही, उसकी तबीयत ठीक न थी,
तो आज माँ ने ही रसोई संभाल रखी थी!
खैर, अपना बैग संभाल, चल पड़ी अपनी कक्षा के लिए!
वहां पहुंची, तो सारा कक्ष जैसे डूब गया उस भीनी भीनी सुगंध में!
ऐसा कोई न था, जिसको वो महक न आ रही हो!
"क्या परफ्यूम में नहा कर आ यी है आज?" बोली कामना,
"नहीं तो?" बोली वो,
"सारा कमरा महक उठा है!" बोली कामना!
"लेकिन मुझे तो नहीं आ रही?" बोली वो,
"और आज क्या लगाया है चेहरे पर? दूध से नहायी है क्या?" बोली कामना,
"क्यों? कुछ नहीं लगाया?" बोली सुरभि!
"तो चमक कैसे रही है आज इतनी?" बोली कामना, हंस कर!
"चल! हमेशा ही मज़ाक!" बोली वो,
बाद में, जब कक्षा खत्म हुई, तो कैंटीन चलीं तीनों!
वहां एक लड़का भी था, यश, एक बिगड़ैल रईसज़ादा!
हमेशा से ही, रास्ता रोका करता था सुरभि का,
हालांकि सुरभि ने दो-टूक उत्तर दे भी दिया था उसको,
लेकिन बाज नहीं आया था, पिछले महीने वो गया हुआ था कहीं बाहर,
अब आया था, और आते ही, नज़रें लड़ाने की कोशिश किया करता था सुरभि से!
कोई चार बजे, जब सुरभि चली घर के लिए,
तो बाहर, एक चौराहा पार करते हुए, पारुल और कामना तो चली गयीं थी अपने पी.जी. में,
वे वहीँ, पास में ही रहा करती थीं, और सुरभि को आना था वापिस घर अपने, नॉएडा,
वो सड़क के बाएं चल रही थी, कि गाड़ी का हॉर्न बजा!
सुरभि ने पीछे देखा, ये यश था!
गाड़ी बराबर की उसने उसके, सुरभि चलती ही रही,
"आ जा सुरभि, वहीँ तक छोड़ दूंगा!" बोला वो,
सुरभि कुछ न बोली! चलती रही!
और वो भी चलता रहा, धीरे धीरे!
"गलत मत समझो! आ जाओ, बैठो!" बोला अब अदब से!
न सुना सुरभि ने, अपनी राह चली,
"अरे पीछे बैठ जाओ? हम ड्राइवर ही सही आपके!" बोली वो,
सुरभि ने गुस्से से देखा उसे!
और जैसे ही देखा,
गाड़ी के बोनट से, निकला धुँआ!
गाढ़ा, सफेद रंग का! यश उतरा, और जैसे ही बोनट उठाया,
वैसे ही आग लगी गयी, वायरिंग में आग लगी थी!
सुरभि ने ध्यान न दिया! और अपनी राह, चलती चली गयी!
न देखा पीछे मुड़कर! पकड़ी सवारी, और हुई सवार!
पहुंची घर, हाथ-मुंह धोये, कपड़े बदले, और लेट गयी!
लेटी, तो आँख लगी!
और जब आँख लगी,
तो कुछ दिखाई दिया उसे,
सपना था वो! लेकिन सपना ऐसा, कि सोते सोते भी होंठों पर, मुस्कुराहट आ गयी!
सपने में देखा,
एक उपवन है!
बहुत बड़ा!
बड़े बड़े पेड़ हैं उधर!
चीड़ के पेड़, ऐसे लगें जैसे पेड़ों के तनों पर,
झोंपड़ियां रख दी गयी हों!
पास में ही एक झरना बह रहा था!
नीला जल था उसका,
सूरज के किरणें, जब टकरातीं,
तो इन्द्रधनुष सा बन जाता था!
नीचे, जहां झरना गिरता था,
वहां ऐसा साफ़ पानी था कि,
नीचे का तल, साफ़ दीखता था!
वहां सफेद सफेद पक्षी भी थे,
और उनका मधुर शोर भी था!
पास में ही, वैसे ही ठीक उन फूलों जैसे ही, नीले फूल वो,
की झाड़ियाँ लगी थीं! फूल खिले थे सभी में,
गुच्छे बने थे फूलों के!
बर्रे आदि, सब रसास्वादन कर रह थे उनका!
महक फैली थी वहाँ!
घास, तोतई रंग की थी, मखमली, मुलायम!
उसने सफेद कपडे पहने थे!
शफ़्फ़ाफ़ सफेद रंग था, धूप जैसे और निखार देती थी उन्हें!
वो जगह, स्वर्ग का सा कोना लगती थी!
दूर पहाड़ियों पर,
बर्फ जमी थी, सफेद रुई के समान चमक रही थी वो!
जैसे, बादल नीचे उतर कर, उनकी चोटियों पर, विश्राम कर रहे हों!
तभी, एक तितली आकर बैठी उसके घुटने पर,
उस तितली का रंग, जामुनी, हरा और पीला था!
ऐसी तितली, कभी न देखी थी उसने!
वो तितली उडी,
और एक पीले रंग के फूल पर बैठ गयी!
सुरभि खड़ी हुई,
और चली आगे,
आगे गयी तो देखा,
फलदार वृक्ष लगे हैं,
आलूबुखारे अपना चटक रंग बिखेर रहे थे!
खुरमैनी लगी थीं!
हवा के संग, अपनी डाल सहित,
हिलती जा रही थीं!
बड़े बड़े कंधारी अनार लगे थे!
अनार के पेड़, लदे थे उनसे!
बड़े बड़े घंटी की आकार के, लाल-पीले फूल लगे थे उन पर!
थोड़ा और आगे चली वो!
सामने, खिन्नी के पेड़ देखे!
पीली-पीली खिन्नियाँ लगी थीं उन पर!
हाव चलती,
तो खिन्नियों की मनमोहक ख़ुश्बू,
नथुनों में समा जाती!
बड़े बड़े सुल्तानी गुलाब लगे थे!
हवा के संग, जैसे हिल, उसी को सलाम बजा रहे थे!
नरगिस के फूलों के पौधों की,
दूर तलक, कतार चली गयी थी!
उसके होंठों पर, मुस्कान तैर गयी!
वो मुस्कान, सोती हुई सुरभि के होंठों पर भी थी!
वो और आगे चली!
एक जगह,
बड़ा सा संग-ए-मरमर का पत्थर पड़ा था,
उसने टेक ली उस से, और खड़ी हो गयी!
हज़ारी गेंदों के फॉलो की महक उठी!
उसने पीछे देखा,
हर जगह लगे हुए थे वो!
हर जगह, पूरी ज़मीन ही पीली हुई पड़ी थी उनसे!
उसने फिर से टेक ले ली,
आँखें बंद हो गयीं उसकी!
और तभी,
उसके गाल से कुछ टकराया,
उसने आँखें खोली अपनी!
और छुआ गाल,
एक पत्ता था, छोटा था!
चटक हरे रंग का!
बीच में, एक रेखा थी उस पत्ते के,
सफेद रंग की! ये लफ़ीश का पत्ता था!
पूरा पेड़ ऐसा लगता है कि जैसे,
जन्नत से उखाड़ कर यहां लगाया गया हो!
कश्मीर में, मुग़लों के बागों में,
ये पेड़ लगवाये गए थे वहां! वे बहुत प्रकृति-प्रेमी थे!
हिन्दुस्तान में, अनार, अनानास, तरबूज, खरबूजा,
आड़ू, लीची, अमरुद आदि फल, वे ही लाये थे,
इनका श्रेय, उन्हीं को जाता है,
कश्मीर का सेब, वही लाये थे हिन्दुस्तान में,
बाबर, ऐसे हज़ारों पौधे और पेड़ों के बीज लाया था!
तो लफ़ीश का पत्ता था वो!
वो चली आगे,
एक जगह,
अंगूर की बेलें लगी थीं!
मोटे मोटे,
काले और हरे अंगूर!
उसने, एक काला अंगूर तोड़ा,
और खाया उसे, ऐसा मीठा,
के आँखें बंद हो गयीं उसकी!
इतने में ही आँख खुली उसकी!
उसने कितना प्यार सपना देखा था!
उठी, कपड़े सही किये,
तो दांत में कुछ फंसा सा लगा,
उसने निकाला, तो ये काले अंगूर का छोटा सा छिलका था!
मुंह में, अभी भी स्वाद बाकी था, उस मीठे अंगूर का!

Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ

Posted: 16 Dec 2015 10:20
by admin
उसने पानी पिया, तरज़ीह न दी इस ख्याल को, और लग गयी अपने दूसरे कामों में, भाई का फ़ोन आया था,
तो भाई से भी बातें हुई उसकी, कुणाल ठीक था, पढ़ाई भी ठीक चल रही थी!
रात को खाना खाया उसने,
कपड़े बदले, और पढ़ाई करने बैठ गयी, पढ़ी देर रात तक,
रात गहराई, तो उसने फिर बत्ती बंद की,
नाईट-लैंप जलाया, और चादर ओढ़, सोने की कोशिश करने लगी,
जल्दी ही नींद आ गयी उसे!
नींद आई, तो फिर से एक सपना आया!
वो इस बार,
एक ऊंंची पहाड़ी पर थी,
दूर दूर तक, नीचे हरे-भरे पेड़ लगे थे!
दृश्य बहुत सुंदर था वो! वो मुस्कुरा पड़ी!
वो एक पत्थर पर जा बैठी,
ऊपर चोटी पर, बर्फ जमी थी,
बादल बातें कर रहे थे उस से उस समय!
उसकी नज़र, सामने बैठे दो खरगोशों पर गयी!
वे फुदक-फुदक कर, घास चर रहे थे,
सफेद रंग के थे, जैसे सफेद रंग के गोले हों!
वो कभी-कभी देख लेते थे सुरभि को!
और तभी एक आया उसके पास, आगे के पाँव उठा,
उसके घुटने पर पाँव टिका लिए उसने,
सुरभि ने, उसके सर पर हाथ फेरा!
उसके कानों पर, इतने में ही दूसरा भी आ गया वहां!
उसके सर पर भी हाथ फेरा उसने,
अब तो दोनों ही, जैसे दोस्त बन गए सुरभि के!
फुदक फुदक कर बार बार, सर पर हाथ फिरवाने चले आएं!
फिर वो उठी, और चली आगे,
थोड़ी दूर पर ही, एक छोटी सी झाड़ी पड़ी,
उस पर, गोल-गोल, पीले पीले बेर से लगे थे!
सुरभि ने तोड़ा एक, और खाया!
ऐसा मीठा, कि दो-चार और तोड़ लिए उसने!
उनमे गुठली तो थी, लेकिन ज़रा सी!
और मीठे ऐसे, कि जैसे शहद!
वो और आगे चली, जब चली, तो सामने एक खुला सा मैदान था, छोटा सा,
वहां, एक कक्ष बना था, जैसे पहाड़ी मकान हुआ करते हैं!
उसकी छत सुनहरी, और दीवारें लाल थीं!
सीढ़ियां बनी थीं उसमे जाने के लिए!
और उसके आसपास, रंग-बिरंगे फूल लगे थे!
क्या तितलिया, और क्या भंवरे! क्या बर्रे! उड़ रहे थे आसपास!
वो चल पड़ी, उस कक्ष के लिए,
सीढ़ियां चढ़ी,
और आई अंदर!
अंदर का नज़ारा देखा, तो जैसे महल!
छत का रंग सुनहरा था! बेल-बूटे बने थे, जगह जगह, नक्काशी ही, हुई थी!
छत के चारों कोनो में,
सफेद और नीले रंग के पत्थरों से बने, फूल लटक रहे थे!
चार फानूस लटके थे उसमे!
कांच के थे, सुरभि एक के नीचे खड़ी हुई,
और उस फानूस में, उसकी आकृति सैंकड़ों में बदल गयी!
वो मुस्कुरा पड़ी!
दीवारों पर, नक्काशीदार पत्थर जड़े थे!
दीवारों पर, फ़ारसी नक्काशी और पीले, सफेद और नीले रंग के चमकते हुए रत्न से जड़े थे!
वो चली दीवार के पास,
छुआ उसको,
एक भी दरार नहीं थी, जैसे पूरी दीवार पर, चित्र लगा हो!
ऐसा महीन काम किया गया था!
उसकी नज़र, बायीं तरफ पड़ी, वहाँ एक चौखट थी,
दरवाज़ा नहीं था उसमे,
वो चल पड़ी उस तरफ,
चौखट में घुसी,
जैसे ही घुसी, तो दंग रह गयी!
प्याजी रंग के बड़े बड़े पर्दे लटके थे उधर!
दीवारों पर, नक्काशीदार, जालियां लगी थीं पत्थरों की!
और एक, बड़ा सा पलंग रखा था वहां!
उसके पाये, सोने से बने थे!
फर्श, सफेद था, पानी जैसा सफेद!
अपना पूरा अक्स नज़र आता था उसमे!
पलंग पर, मखमली लाल, चादर पड़ी थी!
मोटे मोटे गद्दों पर!
और चार मसनद रखे थे उस पर!
मसनदों पर, काला मखमली कपड़ा चढ़ा था!
वो चली आगे, घूमी, अपनी कमर, पलंग की ओर के,
और झूल गयी पीछे!
कम से कम दस बार, वो रुकने से पहले, उस पलंग पर, झूलती रही!
उसकी मुस्कुराहट इस बार हंसी में तब्दील हो गयी थी!
ऊपर, छत पर, दर्पण लगा था,
ठीक पलंग के ऊपर!
पलंग जितना ही बड़ा था वो दर्पण!
वो उसमे, अपने आपको देखती रही!
देखती, और लरज जाती!
हवा चली, ठंडी हवा कमरे में आई, एक दीवार के पर्दे हिले!
खुश्बूदार हवा थी! हवा में सुगंध बस गयी थी जैसे!
उसे प्यास लगी,
उठी, कमरे में देखा उसने,
तो एक कोने में, एक पत्थर से बना छोटा सा चबूतरा था!
उस पर, नीले रंग के पत्थरों से, सुराही की सी आकृति बनी थी!
उस आकृति में, सुराही से, झरना बह रहा था! फूट रहा था,
फव्वारे के तरह! और चारों तरफ पानी बिखर रहा था!
वो चली उधर,
उधर, सो सुराही रखी थीं!
और दो ही गिलास, गिलास भी, शाही और सुराही भी शाही!
सोने से बने थे वे बर्तन!
उसने एक सुराही का ढक्क्न खोला,
सूंघ, तो केसर और खसखस के तेज ख़ुश्बू आई!
ढक्क्न रखा उस पर,
दूसरी सुराही से ढक्क्न उठाया,
सूंघा, कोई ख़ुश्बू नहीं! यही जल था!
गिलास में भरा, और पिया!
वो जल था या अमृत!
ऐसा मीठा! ऐसा स्वाद पानी का! जैसे सारी थकान मिट गयी हो!
वो लौटी अब बाहर,
उस दूसरे कक्ष में आई,
और अब चली बाहर!
बाहर आई, तो गुलाब बिछे थे हर जगह!
उसके रास्ते में, सीढ़ियों में!
वो चल पड़ी आगे!
आई बाहर,
और उस कक्ष के साथ चली!
जब चली, तो हवा भी चली!
सर्द सी हवा थी वो!
वो एक वृक्ष के नीचे चलने को हुई!
और जैसे ही वाहन पहुंची,
एक झूला टंगा था वहाँ!
झूला, बहुत पसंद था सुरभि को वैसे ही! झूलना!
वो बैठ गयी उस पर,
और वो झूला,
अपने आप ही झूल चला!
जब झूला झूल लिया,
तो चली आगे,
आगे एक झरना गिर रहा था!
और पास में ही,
आलूबुखारे के पेड़ थी,
आलूबुखारे,
ज़मीन से बस कुछ ही इंच नीचे थे!
वो चली उधर,
और एक आलूबुखारा,
तोड़ लिया, खाया उसे, ऐसी मिठास,
कि उसने एक और तोड़ लिया!
दो खाते ही,
डकार आ गयी थी उसे!
पेट भर गया था!
भरता भी क्यों नहीं!
आलूबुखारा, संतरे से बड़ा जो था!
वो अब चली वापिस,
जब चली,
तो फिर से गुलाब बिछे थे!
हर जगह!
वो मुस्कुरा पड़ी!
चलती रही!
आगे, वो कक्ष पार किये,
और आगे चली,
वो दोनों ही खरगोश बैठे थे,
उधर ही देखते हुए,
बाट जोह रहे थे जैसे उसकी!
उठा लिया एक को!
उसका एक पाँव गीला था,
दाग लग गया, कपड़े में उसके!
रात भर, वो उसी जगह पर घूमती रही,
और हुई सुबह!
अलार्म बजा!
वो उठी,
तो नज़र, अपने कपड़े पर लगे, दाग पर जा पड़ी! मिट्टी का वही दाग!