वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़
Posted: 16 Dec 2015 10:19
वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना
सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़![/size]
"मम्मी?" बोली सुरभि अपनी मम्मी से,
सर्दी के दिन थे, आज रविवार था, धूप का आनंद ले रहे थीं माँ बेटी!
"हाँ बोल?" बोली माँ,
"वो सामने, अशोक का पेड़ है न?" बोली वो,
माँ ने देखा,
"हाँ, वही है" बोली माँ!
"क्या फूल हैं न उसमे?" बोली वो,
"फूल? कहाँ है फूल?" बोली माँ,
गौर से देखते हुए उस पेड़ को!
"आपको वो लाल चटक फूल नहीं दिख रहे?" बोली सुरभि,
हैरत से!
"कहाँ हैं फूल?" माँ ने फिर से गौर से देखा,
अब ग्रिल तक गयीं वो, और गौर से देखा,
उन्हें तो बस चटक हरे पत्ते ही दिखे!
आई वापिस,
"तुझे फूल दिख रहे हैं उसने?" म ने पूछा,
"हाँ, देखो, कितने प्यारे हैं!" बोली मुस्कुरा कर सुरभि!
"या तो तू मज़ाक कर रही है, या फिर तेरी आँखों का अब इलाज ज़रूरी है!" बोली माँ, खीझ कर,
और आ बैठीं फिर से, फोल्डिंग-पलंग पर, माँ मेथी के पत्ते साफ़ क रही थीं,
और सुरभि, कानों में, एअर-फ़ोन लगा, मोबाइल-फ़ोन में गाने सुन रही थी,
जब माँ से बातें कीं, तो गले में लगा लिया था वो एअर-फ़ोन!
"कमाल है मम्मी! खैर छोडो!" बोली सुरभि,
और कान में, फिर से लगा लिया उसने अपन एअर-फ़ोन!
सुरभि, मेडिकल की छात्रा थी, तृतीय वर्ष की,
बहुत सुंदर और अच्छे बदन वाली है वो सुरभि!
उसके तन पर, कोई भी कपड़ा हो,
फब जाता है, ऐसा बदन है सुरभि का!
चेहरा ऐसा सुंदर,
कि उसकी सहेलियां ही उसे न जीने देतीं!
सुलझे हुए व्यक्तित्व वाली है सुरभि!
नए ज़माने की हवा से दूर है,
साड़ी पहनती है कभी कभी,
मैंने सबसे पहले साड़ी में ही देखा था उसको,
बाकी, सूट-सलवार, जीन्स आदि कुछ नहीं,
कट-स्लीव्स, क़तई नहीं!
केश, कमर से नीचे तक!
सुसंस्कृत! और समझदार!
श्याम सिंह का परिवार, नॉएडा में रहता है,
परिवार में, श्याम सिंह, सरकारी नौकरी करते हैं,
पत्नी गृहणी हैं,
एक बड़ी बेटी है ये सुरभि,
और एक छोटा बेटा है, कुणाल,
कुणाल, इंजीनियरिंग कर रहा है, और घर से बाहर रहता है,
महीने में, एक बार घर आता है , सीधा-सादा लड़का है वो!
श्याम सिंह जी के बड़े भाई भी सरकारी नौकरी में हैं,
उनका परिवार भी, उनके पास ही, रहता है,
उनके पिताजी बड़े भाई के पास रहते हैं,
श्याम सिंह जी के बड़े भाई के तीन लड़के हैं,
इसीलिए, अपने ताऊ-ताई और अपने सभी भाइयों की लाड़ली है ये सुरभि!
तो उस दिन सुरभि ने अशोक के फूल देखे थे,
पेड़ पर लगे हुए, बहुत कम ही देखते हैं ये फूल!
अशोक का वृक्ष चाहे वृद्ध हो, ठूंठ बन, गिर जाए,
फूल नहीं देता, जब तक कि कोई रजस्वला कन्या उसको स्पर्श न करे!
इस से पहले भी, कोई दस दिन पहले,
सुरभि जब स्नान करने गयी थी,
तो बाल्टी के पानी में, उसको अजीब से छोटे छोटे नीले रंग के कुछ फूल मिले थे!
उसने उनको निकाल लिया था बाहर,
और जब स्नान कर लिया, तो बदन के कोने कोने से, एक भीनी भीनी सुगंध बनी रही, अगले दिन तक, उसके सहपाठी भी चकित थे, कि पूरी कक्षा में ये सुगंध आ कहाँ से रही है! जिस से छू जाए, वही महक जाए! ऐसी सुगंध थी वो! और हैरत की बात ये, कि सुरभि को ये सुगंध नहीं आ रही थी! और जब वो लौटी कक्षा से, तो गुसलखाने में रखे हुए वो फूल, थे ही नहीं वहां! शायद माँ ने फेंक दिए हों! यही सोचा उसने, और बात आई गयी हो गयी!
दो दिन बाद की बात होगी,
अपनी कक्षा में थी उस दिन सुरभि,
संग में उसकी दो सहेलियाँ थीं, जिनसे वो खुलकर बात करती थी,
एक जिला सागर, मध्य प्रदेश से थी, कामना,
और एक ऊना, हिमाचल प्रदेश से, पारुल,
प्यास लगी कामना को,
तो चली पानी पीने,
संग उसके, वो पारुल भी चली,
बाहर, एक जगह, वाटर-कूलर लगा था, वहीँ से पानी पिया करते थे विद्यार्थी,
तो वाटर-कूलर काम नहीं कर रहा था, वापिस हुईं दोनों,
अब बाद में कैंटीन से पीना पड़ता उनको, कोई बात नहीं,
समय भी हो चला था, आ कर बैठ गयीं वे दोनों,
कुछ ही देर में, सुरभि गयी पानी पीने,
सुरभि ने वाटर-कूलर की टंकी के नीचे रखा गिलास,
तो पानी आ गया! पानी पी लिया उसने, गिलास फेंक दया,
डिस्पोजेबल गिलास रखे जाते थे वहां,
पानी पिया, और वापिस हुई,
कक्षा का समय समाप्त हुआ, तो अब चलीं कैंटीन,
कामना और पारुल ने पानी पिया सबसे पहले,
और ले आयीं उस सुरभि के लिए भी!
सुरभि ने मना किया,
"प्यासी ही रहेगी क्या?" बोली कामना,
"क्यों? पानी पी तो लिया मैंने?" बोली सुरभि,
"कहाँ पिया पानी?" पूछा कामना ने,
"वहीँ से, वाटर-कूलर से?" बोली वो,
"लेकिन वो तो खराब है?" बोली कामना,
"जा, जाकर देख, चल रहा है!" बोली सुरभि,
"पारुल? वो चल रहा था क्या?" पूछा कामना ने, पारुल से,
"नहीं!" बोली पारुल,
"लेकिन जब मैं गयी, तो चल रहा था?" बोली सुरभि!
"नहीं चल रहा!" आवाज़ आई एक लड़के की,
ये अरिदमन था, लखनऊ से था वो, साथ ही पढ़ता था उनके,
"क्या?" बोली सुरभि,
"हाँ, नहीं कल रहा, उसका स्विच भी ऑफ है!" बोला वो,
"ऐसा कैसे हो सकता है?" बोली सुरभि,
"आ! चल कर देख!" बोली पारुल,
अब तीनों चल पड़ीं उधर ही!
और जब वाटर-कूलर देखा,
तो स्विच ऑफ था उसका!
पानी, नाम को नहीं था उसमे!
"अब तूने क्या सपने में पिया पानी?" बोली कामना!
"मेरा यक़ीन कर! मैंने यहीं से पिया था पानी!" बोली वो,
और तब उसने डस्टबीन में झाँका,
एक ही गिलास पड़ा था! वो भी सुरभि का!
वो गिलास, उन दोनों ने भी देखा!
अब वे भी सन्न!
ऐसा कैसे हो सकता है?
वाटर-कूलर बंद!
स्विच ऑफ!
लेकिन डस्टबीन में पानी का गिलास!
क्या माना जाए इसे! कैसे आया पानी!
खैर,
ज़्यादा माथा-पच्ची नहीं की उन्होंने,
सीधा कैंटीन गयीं, और अपना खाना खाया,
लेकिन, सुरभि के मन में ये बात घूमती ही रही!
जब वो बंद था, तो पानी आया कैसे?
क्या कुछ पलों के लिए चल पड़ा था?
या बचा हुआ पानी था?
जब उत्तर नहीं मिलता मानव-मस्तिष्क को,
तो उसको भूलना ही बेहतर समझता है वो!
तो वो भी भूल गयी! आया होगा, कैसे आया होगा, पता नहीं!
तीन दिन बाद की बात है,
अपने घर में ही थी सुरभि,
रात का समय था, अपनी पढ़ाई कर रही थी वो,
इसी सिलसिले में, उसे एक किताब की तलाश थी,
पूरा कमरा छान मारा उसने अपना,
फर्श, अर्श सब देख डाले,
नहीं मिले वो किताब! और का भी ज़रूरी!
कल जमा भी करना था कक्षा में,
कहीं किसी सहेली को तो नहीं दे दी?
फ़ोन उठाया, तो फ़ोन किया उसने,
पूछा, जवाब वही, कि नहीं है किताब उसकी उनके पास!
अब फिर से ढूँढा! न मिले!
अपने दूसरे कमरों में भी तलाश करे,
वहाँ भी न मिले!
छत पर गयी, वहाँ ढूँढा, वहाँ भी नहीं!
अब गयी तो गयी कहाँ?
चिंता लग गयी बेचारी को! क्या करे अब!
आई अपने कमरे में,
और जैसे ही नज़र पड़ी अपनी उन खुली किताबों पर,
तो वही किताब, दायें रखी थी उधर!
उसने दौड़ कर, झट से उठायी!
शायद निगाह न पड़ी हो उसकी!
उसने पलटे पृष्ठ,
और पलंग पर बैठ, कमरा लगा दीवार से,
पढ़ने लगी,
कुछ पंक्तियों को छांटा, और फिर,
एक सफ़े पर उतार लिया उसने!
देर रात तक, पढ़ती रही वो, और करीब डेढ़ बजे,
अपन काम फ़ारिग कर, किताबें करीने से रख,
चादर ओढ़, बत्ती बुझा, सो गयी सुरभि!
सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़![/size]
"मम्मी?" बोली सुरभि अपनी मम्मी से,
सर्दी के दिन थे, आज रविवार था, धूप का आनंद ले रहे थीं माँ बेटी!
"हाँ बोल?" बोली माँ,
"वो सामने, अशोक का पेड़ है न?" बोली वो,
माँ ने देखा,
"हाँ, वही है" बोली माँ!
"क्या फूल हैं न उसमे?" बोली वो,
"फूल? कहाँ है फूल?" बोली माँ,
गौर से देखते हुए उस पेड़ को!
"आपको वो लाल चटक फूल नहीं दिख रहे?" बोली सुरभि,
हैरत से!
"कहाँ हैं फूल?" माँ ने फिर से गौर से देखा,
अब ग्रिल तक गयीं वो, और गौर से देखा,
उन्हें तो बस चटक हरे पत्ते ही दिखे!
आई वापिस,
"तुझे फूल दिख रहे हैं उसने?" म ने पूछा,
"हाँ, देखो, कितने प्यारे हैं!" बोली मुस्कुरा कर सुरभि!
"या तो तू मज़ाक कर रही है, या फिर तेरी आँखों का अब इलाज ज़रूरी है!" बोली माँ, खीझ कर,
और आ बैठीं फिर से, फोल्डिंग-पलंग पर, माँ मेथी के पत्ते साफ़ क रही थीं,
और सुरभि, कानों में, एअर-फ़ोन लगा, मोबाइल-फ़ोन में गाने सुन रही थी,
जब माँ से बातें कीं, तो गले में लगा लिया था वो एअर-फ़ोन!
"कमाल है मम्मी! खैर छोडो!" बोली सुरभि,
और कान में, फिर से लगा लिया उसने अपन एअर-फ़ोन!
सुरभि, मेडिकल की छात्रा थी, तृतीय वर्ष की,
बहुत सुंदर और अच्छे बदन वाली है वो सुरभि!
उसके तन पर, कोई भी कपड़ा हो,
फब जाता है, ऐसा बदन है सुरभि का!
चेहरा ऐसा सुंदर,
कि उसकी सहेलियां ही उसे न जीने देतीं!
सुलझे हुए व्यक्तित्व वाली है सुरभि!
नए ज़माने की हवा से दूर है,
साड़ी पहनती है कभी कभी,
मैंने सबसे पहले साड़ी में ही देखा था उसको,
बाकी, सूट-सलवार, जीन्स आदि कुछ नहीं,
कट-स्लीव्स, क़तई नहीं!
केश, कमर से नीचे तक!
सुसंस्कृत! और समझदार!
श्याम सिंह का परिवार, नॉएडा में रहता है,
परिवार में, श्याम सिंह, सरकारी नौकरी करते हैं,
पत्नी गृहणी हैं,
एक बड़ी बेटी है ये सुरभि,
और एक छोटा बेटा है, कुणाल,
कुणाल, इंजीनियरिंग कर रहा है, और घर से बाहर रहता है,
महीने में, एक बार घर आता है , सीधा-सादा लड़का है वो!
श्याम सिंह जी के बड़े भाई भी सरकारी नौकरी में हैं,
उनका परिवार भी, उनके पास ही, रहता है,
उनके पिताजी बड़े भाई के पास रहते हैं,
श्याम सिंह जी के बड़े भाई के तीन लड़के हैं,
इसीलिए, अपने ताऊ-ताई और अपने सभी भाइयों की लाड़ली है ये सुरभि!
तो उस दिन सुरभि ने अशोक के फूल देखे थे,
पेड़ पर लगे हुए, बहुत कम ही देखते हैं ये फूल!
अशोक का वृक्ष चाहे वृद्ध हो, ठूंठ बन, गिर जाए,
फूल नहीं देता, जब तक कि कोई रजस्वला कन्या उसको स्पर्श न करे!
इस से पहले भी, कोई दस दिन पहले,
सुरभि जब स्नान करने गयी थी,
तो बाल्टी के पानी में, उसको अजीब से छोटे छोटे नीले रंग के कुछ फूल मिले थे!
उसने उनको निकाल लिया था बाहर,
और जब स्नान कर लिया, तो बदन के कोने कोने से, एक भीनी भीनी सुगंध बनी रही, अगले दिन तक, उसके सहपाठी भी चकित थे, कि पूरी कक्षा में ये सुगंध आ कहाँ से रही है! जिस से छू जाए, वही महक जाए! ऐसी सुगंध थी वो! और हैरत की बात ये, कि सुरभि को ये सुगंध नहीं आ रही थी! और जब वो लौटी कक्षा से, तो गुसलखाने में रखे हुए वो फूल, थे ही नहीं वहां! शायद माँ ने फेंक दिए हों! यही सोचा उसने, और बात आई गयी हो गयी!
दो दिन बाद की बात होगी,
अपनी कक्षा में थी उस दिन सुरभि,
संग में उसकी दो सहेलियाँ थीं, जिनसे वो खुलकर बात करती थी,
एक जिला सागर, मध्य प्रदेश से थी, कामना,
और एक ऊना, हिमाचल प्रदेश से, पारुल,
प्यास लगी कामना को,
तो चली पानी पीने,
संग उसके, वो पारुल भी चली,
बाहर, एक जगह, वाटर-कूलर लगा था, वहीँ से पानी पिया करते थे विद्यार्थी,
तो वाटर-कूलर काम नहीं कर रहा था, वापिस हुईं दोनों,
अब बाद में कैंटीन से पीना पड़ता उनको, कोई बात नहीं,
समय भी हो चला था, आ कर बैठ गयीं वे दोनों,
कुछ ही देर में, सुरभि गयी पानी पीने,
सुरभि ने वाटर-कूलर की टंकी के नीचे रखा गिलास,
तो पानी आ गया! पानी पी लिया उसने, गिलास फेंक दया,
डिस्पोजेबल गिलास रखे जाते थे वहां,
पानी पिया, और वापिस हुई,
कक्षा का समय समाप्त हुआ, तो अब चलीं कैंटीन,
कामना और पारुल ने पानी पिया सबसे पहले,
और ले आयीं उस सुरभि के लिए भी!
सुरभि ने मना किया,
"प्यासी ही रहेगी क्या?" बोली कामना,
"क्यों? पानी पी तो लिया मैंने?" बोली सुरभि,
"कहाँ पिया पानी?" पूछा कामना ने,
"वहीँ से, वाटर-कूलर से?" बोली वो,
"लेकिन वो तो खराब है?" बोली कामना,
"जा, जाकर देख, चल रहा है!" बोली सुरभि,
"पारुल? वो चल रहा था क्या?" पूछा कामना ने, पारुल से,
"नहीं!" बोली पारुल,
"लेकिन जब मैं गयी, तो चल रहा था?" बोली सुरभि!
"नहीं चल रहा!" आवाज़ आई एक लड़के की,
ये अरिदमन था, लखनऊ से था वो, साथ ही पढ़ता था उनके,
"क्या?" बोली सुरभि,
"हाँ, नहीं कल रहा, उसका स्विच भी ऑफ है!" बोला वो,
"ऐसा कैसे हो सकता है?" बोली सुरभि,
"आ! चल कर देख!" बोली पारुल,
अब तीनों चल पड़ीं उधर ही!
और जब वाटर-कूलर देखा,
तो स्विच ऑफ था उसका!
पानी, नाम को नहीं था उसमे!
"अब तूने क्या सपने में पिया पानी?" बोली कामना!
"मेरा यक़ीन कर! मैंने यहीं से पिया था पानी!" बोली वो,
और तब उसने डस्टबीन में झाँका,
एक ही गिलास पड़ा था! वो भी सुरभि का!
वो गिलास, उन दोनों ने भी देखा!
अब वे भी सन्न!
ऐसा कैसे हो सकता है?
वाटर-कूलर बंद!
स्विच ऑफ!
लेकिन डस्टबीन में पानी का गिलास!
क्या माना जाए इसे! कैसे आया पानी!
खैर,
ज़्यादा माथा-पच्ची नहीं की उन्होंने,
सीधा कैंटीन गयीं, और अपना खाना खाया,
लेकिन, सुरभि के मन में ये बात घूमती ही रही!
जब वो बंद था, तो पानी आया कैसे?
क्या कुछ पलों के लिए चल पड़ा था?
या बचा हुआ पानी था?
जब उत्तर नहीं मिलता मानव-मस्तिष्क को,
तो उसको भूलना ही बेहतर समझता है वो!
तो वो भी भूल गयी! आया होगा, कैसे आया होगा, पता नहीं!
तीन दिन बाद की बात है,
अपने घर में ही थी सुरभि,
रात का समय था, अपनी पढ़ाई कर रही थी वो,
इसी सिलसिले में, उसे एक किताब की तलाश थी,
पूरा कमरा छान मारा उसने अपना,
फर्श, अर्श सब देख डाले,
नहीं मिले वो किताब! और का भी ज़रूरी!
कल जमा भी करना था कक्षा में,
कहीं किसी सहेली को तो नहीं दे दी?
फ़ोन उठाया, तो फ़ोन किया उसने,
पूछा, जवाब वही, कि नहीं है किताब उसकी उनके पास!
अब फिर से ढूँढा! न मिले!
अपने दूसरे कमरों में भी तलाश करे,
वहाँ भी न मिले!
छत पर गयी, वहाँ ढूँढा, वहाँ भी नहीं!
अब गयी तो गयी कहाँ?
चिंता लग गयी बेचारी को! क्या करे अब!
आई अपने कमरे में,
और जैसे ही नज़र पड़ी अपनी उन खुली किताबों पर,
तो वही किताब, दायें रखी थी उधर!
उसने दौड़ कर, झट से उठायी!
शायद निगाह न पड़ी हो उसकी!
उसने पलटे पृष्ठ,
और पलंग पर बैठ, कमरा लगा दीवार से,
पढ़ने लगी,
कुछ पंक्तियों को छांटा, और फिर,
एक सफ़े पर उतार लिया उसने!
देर रात तक, पढ़ती रही वो, और करीब डेढ़ बजे,
अपन काम फ़ारिग कर, किताबें करीने से रख,
चादर ओढ़, बत्ती बुझा, सो गयी सुरभि!