Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़
Posted: 12 Nov 2016 12:57
जिन्नाती खूबसूरती!
बला की खूबसूरती!
नज़र ही न हटे!
उसने अपना हाथ,
मेरे कंधे पर रख दिया!
मैं मुस्कुरा पड़ा!
"ह'ईज़ा?" कहा मैंने,
और उसका हाथ हटा दिया कंधे से,
"माना मैं आदमजात हूँ! माना मैं कच्चा भी हूँ!" कहा मैंने,
उसने फिर से हाथ रखने के लिए उठाया,
मैंने बीच में ही पकड़ लिया!
उसने भींच दिया मेरा हाथ!
"लेकिन, मैं यहां बहुत पक्का हूँ!" कहा मैंने,
और छुड़ा लिया हाथ अपना!
और बाहर से, खनकती हुई हंसी गूंजी!
मैंने बाहर देखा,
फ़ैज़ान के साथ,
सुरभि जा रही थी!
अब तो वो,
जिन्नी सी लग रही थी!
वैसी ही चाल-ढाल,
वैसी ही पोशाक़,
और वैसी ही नक़ाब!
वे, एक दूसरे तम्बू में चले गए थे!
इतने में ही,
वो ह'ईज़ा,
उठी, और चली बाहर,
मैं उस तम्बू को देखे जा रहा था,
और तभी अशुफ़ा आई,
मुझे देखा,
मुस्कुराई,
और चली गयी उसी तम्बू में,
फिर ह'ईज़ा लौट आई!
"आप और हाज़िरा!" बोली वो,
शरारत से बोली थी,
होंठों पर,
बेहयाई का जामा पहन लिया था उसने तब!
"क्या कहना चाहती हैं आप?" पूछा मैंने,
"वो जायज़ है न?" बोली वो,
"हाँ! क्यों?" पूछा मैंने,
"वो आतिश, आप आदमजात!" बोली वो,
आँखों में, क़ज़ा खेल उठी!
"हाँ ह'ईज़ा! सच है ये!" कहा मैंने,
"तो, जायज़ है न?" पूछा उसने!
"मैंने निक़ाह नहीं किया उस से!" बोला मैं,
"बाकी सबकुछ?" बोली वो,
अब फंसा मैं!
क्या बोलूं?
मेरी तो दुखती रग पकड़ ली थी उसने!
"हाँ, बाकी सब!" कहा मैंने,
"जायज़ है न?" बोली वो,
बेहद ही कड़वा सवाल था उसका ये!
मुंह कसैला हो गया था मेरा तो!
और जवाब भी क्या देता मैं!
ये तो वही हालत थी, कि हाथ सने थे घी में,
और मुंह भी सना था और तुर्रा ये दूँ,
कि संभाल के रख रहा था मैं तो!
सवाल ही ऐसा था,
जवाब दूँ, तो दूँ क्या!
"है न जायज़?" दोहराया सवाल उसने फिर से!
"जवाब नहीं है इसका मेरे पास!" कहा मैंने,
"हमारे पास है!" बोली वो,
मैं आया सकते में!
इसके पास कैसे इसका जवाब?
फंसा तो हुआ ही था, थोड़ा और धंसका नीचे!
कुछ न बोला मैं तो!
"हम दें जवाब?" बोली वो,
"दो?" कहा मैंने,
"रजामंदी! आप दोनों की!" बोली वो,
हाँ! जवाब तो यही था!
दिमाग़ में कैसे नहीं आया?
बेहद तेज-तर्रार है ये तो!
मान गया मैं उस ह'ईज़ा को!
"कुछ और कहें?" बोली वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"सुरभि और फ़ैज़ान भी में, ऐसी कोई रजामंदी नहीं!" बोली वो,
क्या?
ये क्या सुना मैंने?
ऐसा कैसे मुमकिन है?
"मैं समझा नहीं?" बोला मैंने,
"न आज तलक, न कभी भी, उनमे 'ऐसी' कोई रजामंदी न हुई, न होगी! फ़ैज़ान भाई ऐसा कभी नहीं करेंगे! वो तो, सुरभि को रूहानी मुहब्बत करते हैं, जिस्मानी नहीं!" बोली वो!
ओह फ़ैज़ान!
सलाम तेरी इस मुहब्बत को!
मुझे तो मुरीद बना लिया उसने अपना!
"हाँ आलिम साहब! न आज तक हुआ, और न होगा!" आया वो अंदर, ये कहते हुए!
पिस्ते-मेवे ले आया था संग में,
ह'ईज़ा उठ गयी थी, और बाहर चली गयी!
"लीजिये! खाइये!" बोला वो,
वो तश्तरी, आगे सरकाते हुए!
"फ़ैज़ान?" बोला मैं,
"जी फ़रमायें!" बोला वो,
"और अगर सुरभि ने कहा तो?" पूछा मैंने,
"तो हम मना कर देंगे!" बोला वो,
"झगड़ा किया तो?" पूछा मैंने,
"झगड़ा उठा लेंगे हम!" बोला वो,
"कभी बात न की तो?" पूछा मैंने,
"उनका दीदार ही काफ़ी है हमारे लिए!" बोला वो,
"और अगर! अगर! वो रोने लगी तो?" पूछा मैंने,
"हम नहीं रोने देंगे!" बोला वो,
"तो ये तो असरात हुए न?" कहा मैंने,
"नहीं! मुहब्बत!" बोला वो,
मेरे हर सवाल का जवाब था उसके पास!
सच कहता हूँ मित्रगण!
मैंने ऐसा जिन्न कभी नहीं देखा!
इतना सुलझा हुआ,
समझदार, गुस्सा तो नाम को नहीं,
अक़्लमंद, नेक और वफ़ादार!
उसने पिस्ते उठाये,
छीले,
और दिए मुझे, मैंने खाए वो!
"ये जगह कौन सी है?" पूछा मैंने,
"श्खरीज़! हमारा बचपन यहीं बीता था!" बोला वो,
"इसीलिए आप जुड़े हुए हो यहाँ से!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
और छीले हुए, और पिस्ते दे दिए उसने!
"और कौन कौन हैं घर में?" पूछा मैंने,
"जी, अम्मी हैं, अब्बू भी हैं, एक बड़े भाई हैं, सब गाँव में रहते हैं! और दो ये बहनें!" बोला वो,
मेरे घुटने से, एक छिलका उठाते हुए,
"एक बात पूछूँ फ़ैज़ान?" पूछा मैंने,
"आलिम साहब! ऐसा ज़ुल्म न करें आप! आप हमसे इजाज़त मांगें तो लानत है हमारी जात पर, आप हुक़्म करें!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
कितना सलीक़ेमन्द है फ़ैज़ान!
कुछ कहने का मौक़ा ही नहीं देता!
"जी, पूछें!" बोला वो,
"सच बताना?" कहा मैंने,
"हम झूठ नही बोलते आलिम साहब!" बोला वो,
"सुरभि को, पहली मर्तबा, कब देखा था आपने?" पूछा मैंने,
"आज से चार साल, पांच महीने और नौ दिन पहले!" बोला वो,
एक एक दिन गिनता आ रहा था वो तो!
मैं तो हैरान रह गया ये सुनकर!
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"एक दैर से आते वक़्त!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके हाथ में एक थाल ता, कुछ कटोरियाँ, और एक चिराग़ रौशन था, ज़ुल्फ़ें, खुली थीं, गीली, शायद ग़ुस्ल के बाद, सीधे वहीँ आ रही थीं!" बोला वो,
एक एक लम्हा याद था उसे!
उसने वो जगह भी बताई, उसका नाम भी!
ये जगह दिल्ली में है, एक बड़ा सा मंदिर है वहां!
उन दिनों नवरात्र चल रहे थे,
तभी देखा था उसने उसे, पहली मर्तबा!
उसने ये भी बताया कि,
सुरभि ने सफेद कपड़े पहने थे,
उसके साथ उसकी अम्मी जान और, कुछ लोग भी थे!
"आप कहाँ थे?" पूछा मैंने,
"हम, अपने एक वाक़िफ़ के साथ थे, हारुन नाम है उनका, वो वहीँ रहते हैं! हम उन्हें देख, नीचे आये, सामने रास्ता रोकने की हिम्मत न थी, एक तरफ खड़े रहे, और हमने उनके दीदार किये!" बोला वो,
खो गया था!
उन्हीं चंद लम्हों में,
खो गया था!
दीदार-ए-महबूब ऐसा ही होता है!
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"उसके बाद, रोज दीदार करते हम उनका!" बोला वो,
"एक दिन भी, बिना नागा नहीं गया!" बोला वो,
मेरा तो दिल ही धक् कर बैठा!
चार साल!
रोज दीदार!
लेकिन,
एक मर्तबा भी कोशिश नहीं की!
चाहता तो इंसान बन, मिल लेता!
लेकिन नहीं!
उसने कहा था कि,
वो फ़रेब नहीं करता!
मित्रगण!
मैंने जो भी इस घटना का इतिहास लिखा,
ये सब मुझे, फ़ैज़ान ने ही बताया!
कई मित्रों ने लिखा कि,
ये घटना सूक्ष्म पलों को भी लिए हुए है,
कारण यही है!
ये फ़ैज़ान के बताये हुए लम्हे हैं!
जिन्हें, यहाँ उकेरना का मैंने प्रयास किया!
मात्र प्रयास!
फ़ैज़ान को,
एक एक लम्हा ऐसे याद है,
जैसे अभी किसी,
बस,
भी ही गुजरे लम्हे की बात हो!
"फ़ैज़ान?" बोला मैं,
"जी!" बोला वो,
"गुसलखाने में रखे फूल?" पूछा मैंने,
"अशुफ़ा!" बोला वो,
"और वो, बैग में रखा बड़ा गुलाब का फूल?" पूछा मैंने,
"अशुफ़ा!" बोला वो,
"वो हरसिंगार के फूल?" पूछा मैंने,
"ह'ईज़ा!" बोला वो,
"वो पानी?(वाटर-कूलर)" पूछा मैंने,
"ह'ईज़ा!" बोला वो,
"वो गाड़ी में धुआं?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
"उस लड़के की पिटाई?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
"और वो जो, घर में आये लोग, पिट के गए?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
सब बता दिया उसने!
एक एक लम्हा!
सारे वजूहात!
सारे, क़िरदार!
मैंने सर हिलाया अपना!
"और आप कब गए?" पूछा मैंने,
"चाँद का संदेसा!!" बोला मुस्कुरा कर,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"छत पर, वो महक!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उस गाड़ी को उठा के रखा!" बोला वो,
वो पेड़ जो गिरा था!
"सुरभि के पिता जी के पैसे!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"और दीदार कहाँ करते थे?" पूछा मैंने,
"रास्ते में!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"जितना देखा करते थे, उतनी तड़प उठती!" बोला वो,
सच ही कहा उसने!
"हम दीदार कर, लौट आते!" बोला वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
वो उठा,
और कोने की तरफ गया,
गिलास साफ़ किया,
पानी डाला,
और ले आया मेरे लिए,
"लीजिये!" बोला वो,
मैंने पानी लिया,
पिया, और गिलास वापिस किया!
उसने गिलास, वहीँ जाकर,
रख दिया!
फिर आ बैठा संग मेरे!
मुस्कुरा रहा था वो!
बाहर देख रहा था!
उसकी नीली आँखें, झिलमिला रही थीं!
तपती रेत से उठती रौशनी,
उसके रंग को और निखार रही थीं!
आँखों से जैसे, नीली रौशनी झलक रही थी!
धूप जो लौटती थी रेत से टकरा कर, तो उसमे रौशनी खुद-ब-खुद पैदा हो जाती थी!
वही रौशनी, उसकी आँखों से टकरा रही थी, आँखों से जैसे,
नीले रंग की रौशनी जैसे निकल रही थी!
फिर उसने मुझे देखा,
मुस्कुराया, आँखों में, चमक बनी हुई थी!
"आलिम साहब!" बोला वो,
"बोलिए!" कहा मैंने,
"मैं सब जानता हूँ! आपके पशोपेश का सबब!" बोला वो,
अब मैं मुस्कुराया!
"आप आलिम हैं, वही करेंगे, तो इंसानी क़ायदा-ओ-क़ानून कहता है! और करना भी चाहिए, जो अपने फ़र्ज़ से डिग जाता है, वो न तो इंसान है, न कोई ग़ैबी, हमारी तरह!" बोला वो!
ये फ़ैज़ान!
ओह! सच में!
कितनी गहरी बात करता है!
कितनी गहरी सोच है!
कितनी सटीक और ज़हनी बात कही उसने!
जो अपने फ़र्ज़ से डिग जाता है,
वो न इंसान है और न कोई ग़ैबी!
"आलिम साहब!" बोला वो फिर से,
"हाँ?" कहा मैंने,
"आपको एक वाक़या सुनाएँ हम? इजाज़त दें!" बोला वो,
"सुनाएँ! और इजाज़त न मांगें बार बार!" बोला मैं,
"नहीं आलिम साहब! अपने इख़लाक़ कभी नहीं छोड़ने चाहियें! मु'आफ़ी चाहेंगे!" बोला वो,
मैं फिर से मुस्कुराया!
"सुनाएँ!" कहा मैंने,
"हमारे रिश्तेदार हैं, आसिफ़, उन्हें क़ैद किया गया!" बोला वो,
"क़ैद? किसने?" पूछा मैंने,
"एक आलिम ने!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
उसने मुझे जगह बताई,
ये हरियाणा में है जगह,
वो इलाक़ा ऐसा ही है, घर घर आलिम हैं!
ज़िरका बड़ी फ़हद भी वहीँ है!
"फिर?" पूछा मैंने,
"हमारी बात हुई उस से, आलिम से!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसने एक शर्त रखी!" बोला वो,
"कैसी शर्त?" पूछा मैंने,
"कि साल भर, हम उसकी नौकरी करेंगे!" बोला वो,
"ओह.....फिर?" पूछा मैंने,
"हम चाहते तो, कब का मुंह बंद कर देते, लेकिन हमने इल्म की क़द्र रखी! आसिफ़ को छोड़ दिया गया, और साल भर तक, हमने नौकरी की!" बोला वो,
मुझे उस आलिम पर, बेहद गुस्सा आया!
बला की खूबसूरती!
नज़र ही न हटे!
उसने अपना हाथ,
मेरे कंधे पर रख दिया!
मैं मुस्कुरा पड़ा!
"ह'ईज़ा?" कहा मैंने,
और उसका हाथ हटा दिया कंधे से,
"माना मैं आदमजात हूँ! माना मैं कच्चा भी हूँ!" कहा मैंने,
उसने फिर से हाथ रखने के लिए उठाया,
मैंने बीच में ही पकड़ लिया!
उसने भींच दिया मेरा हाथ!
"लेकिन, मैं यहां बहुत पक्का हूँ!" कहा मैंने,
और छुड़ा लिया हाथ अपना!
और बाहर से, खनकती हुई हंसी गूंजी!
मैंने बाहर देखा,
फ़ैज़ान के साथ,
सुरभि जा रही थी!
अब तो वो,
जिन्नी सी लग रही थी!
वैसी ही चाल-ढाल,
वैसी ही पोशाक़,
और वैसी ही नक़ाब!
वे, एक दूसरे तम्बू में चले गए थे!
इतने में ही,
वो ह'ईज़ा,
उठी, और चली बाहर,
मैं उस तम्बू को देखे जा रहा था,
और तभी अशुफ़ा आई,
मुझे देखा,
मुस्कुराई,
और चली गयी उसी तम्बू में,
फिर ह'ईज़ा लौट आई!
"आप और हाज़िरा!" बोली वो,
शरारत से बोली थी,
होंठों पर,
बेहयाई का जामा पहन लिया था उसने तब!
"क्या कहना चाहती हैं आप?" पूछा मैंने,
"वो जायज़ है न?" बोली वो,
"हाँ! क्यों?" पूछा मैंने,
"वो आतिश, आप आदमजात!" बोली वो,
आँखों में, क़ज़ा खेल उठी!
"हाँ ह'ईज़ा! सच है ये!" कहा मैंने,
"तो, जायज़ है न?" पूछा उसने!
"मैंने निक़ाह नहीं किया उस से!" बोला मैं,
"बाकी सबकुछ?" बोली वो,
अब फंसा मैं!
क्या बोलूं?
मेरी तो दुखती रग पकड़ ली थी उसने!
"हाँ, बाकी सब!" कहा मैंने,
"जायज़ है न?" बोली वो,
बेहद ही कड़वा सवाल था उसका ये!
मुंह कसैला हो गया था मेरा तो!
और जवाब भी क्या देता मैं!
ये तो वही हालत थी, कि हाथ सने थे घी में,
और मुंह भी सना था और तुर्रा ये दूँ,
कि संभाल के रख रहा था मैं तो!
सवाल ही ऐसा था,
जवाब दूँ, तो दूँ क्या!
"है न जायज़?" दोहराया सवाल उसने फिर से!
"जवाब नहीं है इसका मेरे पास!" कहा मैंने,
"हमारे पास है!" बोली वो,
मैं आया सकते में!
इसके पास कैसे इसका जवाब?
फंसा तो हुआ ही था, थोड़ा और धंसका नीचे!
कुछ न बोला मैं तो!
"हम दें जवाब?" बोली वो,
"दो?" कहा मैंने,
"रजामंदी! आप दोनों की!" बोली वो,
हाँ! जवाब तो यही था!
दिमाग़ में कैसे नहीं आया?
बेहद तेज-तर्रार है ये तो!
मान गया मैं उस ह'ईज़ा को!
"कुछ और कहें?" बोली वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"सुरभि और फ़ैज़ान भी में, ऐसी कोई रजामंदी नहीं!" बोली वो,
क्या?
ये क्या सुना मैंने?
ऐसा कैसे मुमकिन है?
"मैं समझा नहीं?" बोला मैंने,
"न आज तलक, न कभी भी, उनमे 'ऐसी' कोई रजामंदी न हुई, न होगी! फ़ैज़ान भाई ऐसा कभी नहीं करेंगे! वो तो, सुरभि को रूहानी मुहब्बत करते हैं, जिस्मानी नहीं!" बोली वो!
ओह फ़ैज़ान!
सलाम तेरी इस मुहब्बत को!
मुझे तो मुरीद बना लिया उसने अपना!
"हाँ आलिम साहब! न आज तक हुआ, और न होगा!" आया वो अंदर, ये कहते हुए!
पिस्ते-मेवे ले आया था संग में,
ह'ईज़ा उठ गयी थी, और बाहर चली गयी!
"लीजिये! खाइये!" बोला वो,
वो तश्तरी, आगे सरकाते हुए!
"फ़ैज़ान?" बोला मैं,
"जी फ़रमायें!" बोला वो,
"और अगर सुरभि ने कहा तो?" पूछा मैंने,
"तो हम मना कर देंगे!" बोला वो,
"झगड़ा किया तो?" पूछा मैंने,
"झगड़ा उठा लेंगे हम!" बोला वो,
"कभी बात न की तो?" पूछा मैंने,
"उनका दीदार ही काफ़ी है हमारे लिए!" बोला वो,
"और अगर! अगर! वो रोने लगी तो?" पूछा मैंने,
"हम नहीं रोने देंगे!" बोला वो,
"तो ये तो असरात हुए न?" कहा मैंने,
"नहीं! मुहब्बत!" बोला वो,
मेरे हर सवाल का जवाब था उसके पास!
सच कहता हूँ मित्रगण!
मैंने ऐसा जिन्न कभी नहीं देखा!
इतना सुलझा हुआ,
समझदार, गुस्सा तो नाम को नहीं,
अक़्लमंद, नेक और वफ़ादार!
उसने पिस्ते उठाये,
छीले,
और दिए मुझे, मैंने खाए वो!
"ये जगह कौन सी है?" पूछा मैंने,
"श्खरीज़! हमारा बचपन यहीं बीता था!" बोला वो,
"इसीलिए आप जुड़े हुए हो यहाँ से!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
और छीले हुए, और पिस्ते दे दिए उसने!
"और कौन कौन हैं घर में?" पूछा मैंने,
"जी, अम्मी हैं, अब्बू भी हैं, एक बड़े भाई हैं, सब गाँव में रहते हैं! और दो ये बहनें!" बोला वो,
मेरे घुटने से, एक छिलका उठाते हुए,
"एक बात पूछूँ फ़ैज़ान?" पूछा मैंने,
"आलिम साहब! ऐसा ज़ुल्म न करें आप! आप हमसे इजाज़त मांगें तो लानत है हमारी जात पर, आप हुक़्म करें!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
कितना सलीक़ेमन्द है फ़ैज़ान!
कुछ कहने का मौक़ा ही नहीं देता!
"जी, पूछें!" बोला वो,
"सच बताना?" कहा मैंने,
"हम झूठ नही बोलते आलिम साहब!" बोला वो,
"सुरभि को, पहली मर्तबा, कब देखा था आपने?" पूछा मैंने,
"आज से चार साल, पांच महीने और नौ दिन पहले!" बोला वो,
एक एक दिन गिनता आ रहा था वो तो!
मैं तो हैरान रह गया ये सुनकर!
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"एक दैर से आते वक़्त!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके हाथ में एक थाल ता, कुछ कटोरियाँ, और एक चिराग़ रौशन था, ज़ुल्फ़ें, खुली थीं, गीली, शायद ग़ुस्ल के बाद, सीधे वहीँ आ रही थीं!" बोला वो,
एक एक लम्हा याद था उसे!
उसने वो जगह भी बताई, उसका नाम भी!
ये जगह दिल्ली में है, एक बड़ा सा मंदिर है वहां!
उन दिनों नवरात्र चल रहे थे,
तभी देखा था उसने उसे, पहली मर्तबा!
उसने ये भी बताया कि,
सुरभि ने सफेद कपड़े पहने थे,
उसके साथ उसकी अम्मी जान और, कुछ लोग भी थे!
"आप कहाँ थे?" पूछा मैंने,
"हम, अपने एक वाक़िफ़ के साथ थे, हारुन नाम है उनका, वो वहीँ रहते हैं! हम उन्हें देख, नीचे आये, सामने रास्ता रोकने की हिम्मत न थी, एक तरफ खड़े रहे, और हमने उनके दीदार किये!" बोला वो,
खो गया था!
उन्हीं चंद लम्हों में,
खो गया था!
दीदार-ए-महबूब ऐसा ही होता है!
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"उसके बाद, रोज दीदार करते हम उनका!" बोला वो,
"एक दिन भी, बिना नागा नहीं गया!" बोला वो,
मेरा तो दिल ही धक् कर बैठा!
चार साल!
रोज दीदार!
लेकिन,
एक मर्तबा भी कोशिश नहीं की!
चाहता तो इंसान बन, मिल लेता!
लेकिन नहीं!
उसने कहा था कि,
वो फ़रेब नहीं करता!
मित्रगण!
मैंने जो भी इस घटना का इतिहास लिखा,
ये सब मुझे, फ़ैज़ान ने ही बताया!
कई मित्रों ने लिखा कि,
ये घटना सूक्ष्म पलों को भी लिए हुए है,
कारण यही है!
ये फ़ैज़ान के बताये हुए लम्हे हैं!
जिन्हें, यहाँ उकेरना का मैंने प्रयास किया!
मात्र प्रयास!
फ़ैज़ान को,
एक एक लम्हा ऐसे याद है,
जैसे अभी किसी,
बस,
भी ही गुजरे लम्हे की बात हो!
"फ़ैज़ान?" बोला मैं,
"जी!" बोला वो,
"गुसलखाने में रखे फूल?" पूछा मैंने,
"अशुफ़ा!" बोला वो,
"और वो, बैग में रखा बड़ा गुलाब का फूल?" पूछा मैंने,
"अशुफ़ा!" बोला वो,
"वो हरसिंगार के फूल?" पूछा मैंने,
"ह'ईज़ा!" बोला वो,
"वो पानी?(वाटर-कूलर)" पूछा मैंने,
"ह'ईज़ा!" बोला वो,
"वो गाड़ी में धुआं?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
"उस लड़के की पिटाई?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
"और वो जो, घर में आये लोग, पिट के गए?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
सब बता दिया उसने!
एक एक लम्हा!
सारे वजूहात!
सारे, क़िरदार!
मैंने सर हिलाया अपना!
"और आप कब गए?" पूछा मैंने,
"चाँद का संदेसा!!" बोला मुस्कुरा कर,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"छत पर, वो महक!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उस गाड़ी को उठा के रखा!" बोला वो,
वो पेड़ जो गिरा था!
"सुरभि के पिता जी के पैसे!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"और दीदार कहाँ करते थे?" पूछा मैंने,
"रास्ते में!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"जितना देखा करते थे, उतनी तड़प उठती!" बोला वो,
सच ही कहा उसने!
"हम दीदार कर, लौट आते!" बोला वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
वो उठा,
और कोने की तरफ गया,
गिलास साफ़ किया,
पानी डाला,
और ले आया मेरे लिए,
"लीजिये!" बोला वो,
मैंने पानी लिया,
पिया, और गिलास वापिस किया!
उसने गिलास, वहीँ जाकर,
रख दिया!
फिर आ बैठा संग मेरे!
मुस्कुरा रहा था वो!
बाहर देख रहा था!
उसकी नीली आँखें, झिलमिला रही थीं!
तपती रेत से उठती रौशनी,
उसके रंग को और निखार रही थीं!
आँखों से जैसे, नीली रौशनी झलक रही थी!
धूप जो लौटती थी रेत से टकरा कर, तो उसमे रौशनी खुद-ब-खुद पैदा हो जाती थी!
वही रौशनी, उसकी आँखों से टकरा रही थी, आँखों से जैसे,
नीले रंग की रौशनी जैसे निकल रही थी!
फिर उसने मुझे देखा,
मुस्कुराया, आँखों में, चमक बनी हुई थी!
"आलिम साहब!" बोला वो,
"बोलिए!" कहा मैंने,
"मैं सब जानता हूँ! आपके पशोपेश का सबब!" बोला वो,
अब मैं मुस्कुराया!
"आप आलिम हैं, वही करेंगे, तो इंसानी क़ायदा-ओ-क़ानून कहता है! और करना भी चाहिए, जो अपने फ़र्ज़ से डिग जाता है, वो न तो इंसान है, न कोई ग़ैबी, हमारी तरह!" बोला वो!
ये फ़ैज़ान!
ओह! सच में!
कितनी गहरी बात करता है!
कितनी गहरी सोच है!
कितनी सटीक और ज़हनी बात कही उसने!
जो अपने फ़र्ज़ से डिग जाता है,
वो न इंसान है और न कोई ग़ैबी!
"आलिम साहब!" बोला वो फिर से,
"हाँ?" कहा मैंने,
"आपको एक वाक़या सुनाएँ हम? इजाज़त दें!" बोला वो,
"सुनाएँ! और इजाज़त न मांगें बार बार!" बोला मैं,
"नहीं आलिम साहब! अपने इख़लाक़ कभी नहीं छोड़ने चाहियें! मु'आफ़ी चाहेंगे!" बोला वो,
मैं फिर से मुस्कुराया!
"सुनाएँ!" कहा मैंने,
"हमारे रिश्तेदार हैं, आसिफ़, उन्हें क़ैद किया गया!" बोला वो,
"क़ैद? किसने?" पूछा मैंने,
"एक आलिम ने!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
उसने मुझे जगह बताई,
ये हरियाणा में है जगह,
वो इलाक़ा ऐसा ही है, घर घर आलिम हैं!
ज़िरका बड़ी फ़हद भी वहीँ है!
"फिर?" पूछा मैंने,
"हमारी बात हुई उस से, आलिम से!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसने एक शर्त रखी!" बोला वो,
"कैसी शर्त?" पूछा मैंने,
"कि साल भर, हम उसकी नौकरी करेंगे!" बोला वो,
"ओह.....फिर?" पूछा मैंने,
"हम चाहते तो, कब का मुंह बंद कर देते, लेकिन हमने इल्म की क़द्र रखी! आसिफ़ को छोड़ दिया गया, और साल भर तक, हमने नौकरी की!" बोला वो,
मुझे उस आलिम पर, बेहद गुस्सा आया!