भूतिया कहानी-भूत को दिल दे बैठी

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
rajaarkey
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भूतिया कहानी-भूत को दिल दे बैठी

Unread post by rajaarkey » 10 Nov 2014 15:16



भूतिया कहानी-भूत को दिल दे बैठी


रमकलिया, जी हाँ, यही तो नाम था उस लड़की का। सोलह वर्ष की रमकलिया अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थी। उसके माँ-बाप उसका बहुत ही ख्याल रखते थे और उसकी हर माँग पूरी करते थे। अरे यहाँ तक कि, हमारे गाँव-जवार के बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि गाँव क्या पूरे जवार में सबसे पहले साइकिल रमकलिया के घर पर ही खरीद कर आई थी। उस साइकिल को देखने के लिए गाँव-जवार टूट पड़ा था। रमकलिया उस समय उस साइकिल को लंगड़ी चलाते हुए गढ़ही, खेत-खलिहान सब घूम आती थी। रमकलिया बहुत ही नटखट थी और लड़कों जैसा मटरगस्टी करती रहती थी। वह लड़कों के साथ कबड्डी, चिक्का आदि खेलने में भी आगे रहती थी। एक बार कबड्डी खेलते समय गलगोदही करने को लेकर झगड़ा हो गया। अरे देखने वाले तो बताते हैं कि रमकलिया ने विपक्षी टीम के लड़कों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा था, पानी पिला-पिला कर मारा था। किसी के दाँत से खून निकल रहा था तो कोई चिल्लाते हुए अपने घर की ओर भाग रहा था। रमकलिया से उसके हमउम्र लड़के पंगा लेना उचित नहीं समझते थे। क्योंकि उसके हमउम्र लड़के उसे उजड्ड और झगड़ालू टाइप की लड़की मानते थे। कोई उसके मुँह लगना पसंद नहीं करता था, हाँ यह अलग बात थी कि सभी लड़के उससे डरते थे।
मई का महीना था, कड़ाके की गर्मी पड़ रही थी। रमकलिया खर-खर दुपहरिया में अपनी साइकिल उठाई और गाँव से बाहर अपने बगीचे की ओर चल दी। उसका बगीचा धोबरिया गढ़ई के किनारे था। इस बगीचे में आम और महुए के पेड़ों की अधिकता थी। यह बगीचा गाँव से लगभग 1 किमी की दूरी पर था। बगीचे में पहुँचकर पहले तो रमकलिया खूब साइकिल हनहनाई, पूरे बगीचे में दौड़ाई और पसीने से तर-बतर हो गई। उसने बगीचे के बीचोंबीच एक मोटे आम के पेड़ के नीचे साइकिल खड़ी करके अपने दुपट्टे से चेहरे का पसीना पोछने लगी। पसीना-ओसीना पोछने के बाद, पता नहीं रमकलिया को क्या सूझा कि वह उसी पेड़ के नीचे अपना दुपट्टा बिछाकर उस पर लेट गई।
बगीचे में लेटे-लेटे ही रमकलिया का मन-पंछी उड़ने लगा। वह सोचने लगी कि उसके बाबूजी उसके लिए एक वर की तलाश कर रहे हैं। वह थोड़ा सकुचाई, थोड़ा मुस्काई और फिर सोचने लगी, एक दिन एक राजकुमार आएगा और उसे बिआह कर ले जाएगा। पता नहीं वह कैसा होगा, कौन होगा, कहाँ का होगा? पता नहीं मैं उसके साथ खुश रह पाऊंगी कि नहीं। पर खैर जो ईश्वर की मर्जी होगी वही होगा। बाबूजी उसके लिए जैसा भी लड़का खोजेंगे वह उसी से शादी करके खुश रहेगी। उसे पक्का विश्वास था कि उसके बाबूजी उसकी शादी जरूर किसी धनवान घर में करेंगे। जहाँ उसकी सेवा के लिए जरूर कोई न कोई नौकरानी होगी।
अभी रमकलिया इन्ही सब विचारों में खोई थी कि उसे ऐसा आभास हुआ कि उसके सिर के तरफ कोई बैठकर उसके बालों में अंगुली पिरो रहा है। रमकलिया के साथ ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। ये तो आए दिन की बात थी। बकरी-गाय आदि चराने वाले लड़कियाँ या लड़के चुपके से उसके पीछे बैठकर उसके बालों में अंगुली पिरोते या सहलाते रहते थे। और रमकलिया भी खुश होकर उन्हें थोड़ा-बहुत अपना साइकिल चलाने को देती थी। पर पता नहीं क्यों, आज रमकलिया को यह आभास हो रहा था कि अंगुली कुछ इस तरह से पिरोई जा रही है कि कुछ अलग सा ही एक अनजान आनंद का एहसास हो रहा है। ऐसा लग रहा है कि कोई बहुत ही प्रेम से बालों को सहलाते हुए अपनी अंगुलियां उसमें पिरो रहा है। आज रमकलिया को एक अलग ही आनंद मिल रहा था, जिसमें उसके यौवन की खुमारी भी छिपी लग रही थी। उसके शरीर में एक हल्की सी गुदगुदी हो रही थी और उसे अंगड़ाई लेने की भी इच्छा हो रही थी। पर वह बिना शरीर हिलाए चुपचाप लेटी रही। उसे लगा कि अगर उठकर बैठ गई तो यह स्वर्गिक आनंद पता नहीं दुबारा मिलेगा कि नहीं। उसने बिना पीछे मुड़े ही धीरे से कहा कि 10 मिनट और ऐसे ही उंगुलियाँ घुमाओ तो मैं 1 घंटे तक तुम्हें साइकिल चलाने के लिए दूँगी पर पीछे से कुछ भी आवाज नहीं आई, फिर भी रमकलिया मदमस्त लेटी रही। उसे हलकी-हलकी नींद आने लगी।
शाम हो गई थी और रमकलिया अभी भी बगीचे में लेटी थी। तभी उसे उसके बाबूजी की तेज आवाज सुनाई दी, “रामकली, बेटी रामकली, अरे कब से यहाँ आई है। मैं और तुम्हारी माँ कब से तुम्हें खोज रहे हैं। इस सुनसान बगीचे में जहाँ कोई भी नहीं है, तूँ निडर होकर सो रही है।” रमकलिया ने करवट ली और अपने बाबूजी को देखकर मुस्काई। उसके बाबूजी उसे घर चलने के लिए कहकर घर की ओर चल दिए। रमकलिया उठी, साइकिल उठाई और लगड़ी मारते हुए गाँव की ओर चल दी।
उस रात पता नहीं क्या हुआ कि रमकलिया ठीक से सो न सकी। पूरी रात करवट बदलती रही। जब भी सोने की कोशिश करती, उसे बगीचे में घटी आज दोपहर की घटना याद आ जाती। वह बार-बार अपने दिमाग पर जोर डाल कर यह जानना चाहती थी कि आखिर कौन था वह??? वह अब पछता रही थी, उसे लग रहा था कि पीछे मुड़कर उसे उससे बात करनी चाहिए थी। लेकिन वह करे भी तो क्या करे, उस अनजान व्यक्ति के कोमल, प्यार भरे स्पर्शों से उसे अचानक कब नींद आ गई थी पता ही नहीं चला था। अरे अगर उसके बाबूजी बगीचे में पहुँच कर उसे जगाते नहीं तो पता नहीं कब तक सोती रहती?
सुबह जल्दी जगकर रमकलिया फिर अपनी साइकिल उठाई और उस बगीचे में चली गई। सुबह की ताजी हवा पूरे बगीचे में हिचकोले ले रही थी पर पता नहीं क्यों सरसराती हवा में, पत्तियों, टहनियों से बात करती हवा में रमकलिया को एक भीनी-भीनी मदमस्त कर देने वाली सुगंध का आभास हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि आज पवन देव उसके बालों से खेल रहे हैं। वह लगभग 1 घंटे तक बगीचे में रही और फिर घर वापस आ गई। घर आने के बाद रमकलिया पता नहीं किन यादों में खोई रही।
उसी दिन फिर से खड़खड़ दुपहरिया में रमकलिया का जी नहीं माना और वह साइकिल उठाकर बगीचे की ओर चली गई। बगीचे में 3-4 राउंड साइकिल दौड़ाने के बाद फिर रमकलिया एक आम के पेड़ के नीचे सुस्ताने लगी। उसे कुछ सूझा, वह हल्की सी मुस्काई और अपने दुपट्टे को अपने सर के नीचे लगाकर सोने का नाटक करने लगी। अभी रमकलिया को लेटे 2-4 मिनट भी नहीं हुए थे कि उसे ऐसा लगा कि कोई उसके बालों में अंगुली पिरो रहा है। वह कुछ बोली नहीं पर धीरे-धीरे अपना हाथ अपने सर पर ले गई। वह उस अंगुलियों को पकड़ना चाहती थी जो उसके बालों में घुसकर बालों से खेलते हुए उसे एक सुखद आनंद की अनुभूति करा रही थीं। पर उसने ज्यों अपने हाथ अपने सर पर ले गई, वहाँ उसे कुछ नहीं मिला पर ऐसा लग रहा था कि अभी भी कुछ अंगुलियाँ उसके बालों से खेल रही हैं। रमकलिया को बहुत ही अचंभा हुआ और वह तुरंत उठकर बैठ गई। पीछे सर घुमाकर देखी तो गजब हो गया। पीछे कोई नहीं था। उसे लगा कि शायद जो था वह इस पेड़ के पीछे छिप गया हो। पर फिर उसके मन में एक बात आई कि जब वह अपना हाथ सर पर ले गई थी तो वहाँ कुछ नहीं मिला था फिर भी बालों में अंगुलियों के सुखद स्पर्श कैसे लग रहे थे। खैर वह उठ कर खड़ी हो गई और पेड़ के पीछे चली गई पर वहाँ भी कोई नहीं। अब वह बगीचे में आस-पास दौड़ लगाई पर से कोई नहीं दिखा। फिर वह अपने साइकिल के पास आई और तेजी से चलाते हुए गाँव की ओर भागी। उसे डर तो नहीं लग रहा था पर कहीं-न-कहीं एक रोमांचित अवस्था जरूर बन गई थी, जिससे उसके रोंगटे खड़े हो गए थे।
आज की रात फिर रमकलिया सो न सकी। आज कल उसे अपने आप में बहुत सारे परिवर्तन नजर आ रहे थे। उसे ऐसा लगने लगा था कि वह अब विवाह योग्य हो गई है। वह बार-बार शीशे में अपना चेहरा भी देखती। अब उसमें थोड़ा शर्माने के गुण भी आ गए थे। बिना बात के ही कुछ याद करके उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान फैल जाती। पता नहीं क्यों उसे लगने लगा था कि उसके बालों से खेलने वाला कोई उसके गाँव का नहीं, अपितु कोई दूसरा सुंदर युवा है, जो प्यार से वशीभूत होकर उसके पास खींचा चला आता है और चुपके से उसके बालों से खेलने लगता है। फिर उसके दिमाग में कौंधा कि जो भी है, है वह बहुत शर्मीला और साथ ही फुर्तीला भी। क्योंकि पता नहीं कहाँ छूमंतर हो गया कि दिखा ही नहीं। रमकलिया के दिमाग में बहुत सारी बातें दौड़ रही थीं पर सब सुखद एहसास से भरी, रोमांचित करने वाली ही थीं।
अब तो जब तक रमकलिया अपने बगीचे में जाकर 1-2 घंटे लेट नहीं लेटी तब तक उसका जी ही नहीं भरता। रमकलिया का अब प्रतिदिन बगीचे में जाना और एक अलौकिक प्रेम की ओर कदम बढ़ाना शुरू हुआ। एक ऐसा अनजाना, नासमझ प्रेम जो रमकलिया के हृदय में हिचकोले ले रहा था। वह पूरी तरह से अनजान थी इस प्रेम से, फिर भी हो गई थी इस प्रेम की दिवानी। पहली बार प्रेम के इस अनजाने एहसास ने उसके हृदय को गुदगुदाया था, एक स्वर्गिक आनंद को उसके हृदय में उपजाया था।
एक दिन सूर्य डूबने को थे। चरवाहे अपने गाय-भैंस, बकरियों को हांकते हुए गाँव की ओर चल दिए थे। अंधेरा छाने लगा था। ऐसे समय में रमकलिया को पता नहीं क्या सूझा कि वह अपनी साइकिल उठाई और बगीचे की ओर चली गई। आज उसने बगीचे में पहुँच कर साइकिल को एक जगह खड़ा कर खुद ही पास में खड़ी हो गई। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। उसे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि कोई तो है जो अभी उसे उस बगीचे में बुलाया और वह भी अपने आप को रोक न सकी और खिंचते हुए इस बगीचे की ओर चली आई। 2-4 मिनट खड़ा रहने के बाद रमकलिया थोड़ा तन गई, अपने सुकोमल हृदय को कठोर बनाकर बुदबुदाई, “अगर यह कोई इंसान न होकर, भूत निकला तो! खैर जो भी हो, मुझे पता नहीं क्यों, इस रहस्यमयी जीव से मुझे प्रेम हो गया है। भूत हो या कोई दैवी आत्मा, अब तो मैं इससे मिलकर ही रहूँगी। इंसान, इंसान को अपना बनाता है, मैं अब इस दैवी आत्मा को अपना हमसफर बनाऊंगी। देखती हूँ, इस अनजाने, अनसमझे प्यार का परिणाम क्या होता है? अगर वह इंसान नहीं तो कौन है और किस दुनिया का रहने वाला है, कैसी है उसकी दुनिया?” यह सब सोचती हुई, रमकलिया अपने साइकिल का हैंडल पकड़ी और उसे डुगराते हुए बगीचे से बाहर आने लगी। अब बगीचे में पूरा अंधेरा पसर गया था और साथ ही सन्नाटा भी। हाँ रह-रह कर कभी-कभी गाँव की ओर से कोई आवाज उठ आती थी।

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Re: भूतिया कहानी-भूत को दिल दे बैठी

Unread post by rajaarkey » 10 Nov 2014 15:17

पिछली कहानी में आपने जाना था रमकलिया को। एक षोडशी, एक ऐसी किशोरी जो बिंदास स्वभाव की थी, निडरता की महारानी थी। यहाँ पिछली कहानी के अंतिम पैराग्राफ को देना उचित प्रतीत हो रहा है- {एक दिन सूर्य डूबने को थे। चरवाहे अपने गाय-भैंस, बकरियों को हांकते हुए गाँव की ओर चल दिए थे। अंधेरा छाने लगा था। ऐसे समय में रमकलिया को पता नहीं क्या सूझा कि वह अपनी साइकिल उठाई और बगीचे की ओर चली गई। आज उसने बगीचे में पहुँच कर साइकिल को एक जगह खड़ा कर खुद ही पास में खड़ी हो गई। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। उसे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि कोई तो है जो अभी उसे उस बगीचे में बुलाया और वह भी अपने आप को रोक न सकी और खिंचते हुए इस बगीचे की ओर चली आई। 2-4 मिनट खड़ा रहने के बाद रमकलिया थोड़ा तन गई, अपने सुकोमल हृदय को कठोर बनाकर बुदबुदाई, “अगर यह कोई इंसान न होकर, भूत निकला तो! खैर जो भी हो, मुझे पता नहीं क्यों, इस रहस्यमयी जीव से मुझे प्रेम हो गया है। भूत हो या कोई दैवी आत्मा, अब तो मैं इससे मिलकर ही रहूँगी। इंसान, इंसान को अपना बनाता है, मैं अब इस दैवी आत्मा को अपना हमसफर बनाऊंगी। देखती हूँ, इस अनजाने, अनसमझे प्यार का परिणाम क्या होता है? अगर वह इंसान नहीं तो कौन है और किस दुनिया का रहने वाला है, कैसी है उसकी दुनिया?” यह सब सोचती हुई, रमकलिया अपने साइकिल का हैंडल पकड़ी और उसे डुगराते हुए बगीचे से बाहर आने लगी। अब बगीचे में पूरा अंधेरा पसर गया था और साथ ही सन्नाटा भी। हाँ रह-रह कर कभी-कभी गाँव की ओर से कोई आवाज उठ आती थी।}

...........रात को रमकलिया अपने कमरे में बिस्तरे पर करवटें बदल रही थी। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। एक अजीब सिहरन, गुदगुदी का एहसास हो रहा था उसको। उसे कभी हँसना तो कभी रोना आ रहा था। तभी अचानक उस कमरे के जंगले से एक बहुत ही तेज, डरावनी सरसराती हवा अचानक कमरे में प्रवेश की। बिना बहती हवा के अचानक कमरे में पैठी इस डरावनी हवा से रमकलिया थोड़ी सहम गई और फटाक से उठकर बैठ गई। उसकी साँसें काफी तेज हो गई थीं। वह धीरे-धीरे लंबी साँस लेकर अपने बढ़ते दिल की धड़कन को भी काबू में करने का प्रयास किया तभी उसे ऐसा लगा कि कोई उसके कान में हौले-हौले, भारी आवाज में गुनगुना रहा हो, “बढ़ती दिल की धड़कन कुछ तो कह रही है, मैं तेरा दिवाना, जलता परवाना हूँ, तूँ क्यों नहीं समझ रही है?” इसी के साथ उसे लगा कि वह सरसराती हवा उसके बिस्तरे के बगल में हल्के से मूर्त रूप में स्थिर हो गई है पर कुछ भी स्पष्ट नहीं है। अचानक उसे लगा कि वही (बगीचे में वाले) सुकोमल हाथ फिर से उसके बालों के साथ खेलने लगे हैं, उसे एक चरम आनंद की अनुभूति करा रहे हैं। वह चाहकर भी कुछ न कह सकी और धीरे-धीरे फिर से लेट गई। अरे यह क्या उसके लेटते ही ऐसा लगा कि उसके कमरे में रखी एक काठ-कुर्सी सरकते हुए उसके सिरहाने की ओर आ रही है। वह करवट बदली और उस काठ-कुर्सी की ओर नजर घुमाई तब तक वह काठ-कुर्सी उसके सिरहाने आकर लग गई। फिर बिना कुछ कहे एक मदमस्त, अल्हड़, प्रेमांगना की तरह अँगराई लेते हुए, साँसों को तेजी के साथ छोड़ते हुए वह फिर से चुपचाप बिस्तरे पर लेट गई। उसके लेटते ही वह सुकोमल हाथ फिर से उसके बालों से खेलने लगे। वह एक कल्पित दुनिया की सैर पर निकल गई।
यह कल्पित दुनिया अलौकिक थी। इस दुनिया की इकलौटी राजकुमारी रमकलिया ही थी जिसे एक अपने सेवक से प्रेम हो गया था। वह इस कल्पित दुनिया में आनंदित होकर विचरण कर रही थी। अचानक रमकलिया को इस कल्पित दुनिया से बाहर आना पड़ा क्योंकि से लगा कि कोई उसका सिर पकड़ कर जोर-जोर से हिला रहा है यानि जगाने की कोशिश कर रहा हो। रमकलिया को लगा कि कहीं यह भी स्वप्न तो नहीं पर वह तो जगी हुई ही थी। वह उठकर बैठ गई। फिर उस कमरे में शुरू हुई एक ऐसी कहानी जो रमकलिया को उसके पिछले जन्म में लेकर चली गई।
रमकलिया बिस्तरे पर सावधान की मुद्रा में बैठी हुई थी। काठ-कुर्सी पर मूर्त रूप में पर पूरी तरह से अस्पष्ट हवा का रूप विराजमान था और वहाँ से एक मर्दानी भारी आवाज सुनाई दे रही थी। वह आवाज कह रही थी, “रमकलिया तूँ मेरी है सिर्फ मेरी। मैं पिछले दो-तीन जन्मों से तुझे प्रेम करता आ रहा हूँ। मैंने हर जन्म में तुझे अपनाने के लिए कुछ-न-कुछ गलत कदम उठाया है। पर इस जन्म में मैं तूझे सच्चाई से पाना चाहूँगा।” वह आवाज आगे बोली, “याद है, पिछले जन्म में भी मैं तुझे अथाह प्रेम करता था। पर तूँ मेरे प्रेम को नहीं समझ सकी और मैं भी बावला, पागल तूझे पेड़ से धक्का दे दिया था। (यहाँ मैं आप लोगों को रमेसरा की कहानी की याद दिलाना चाहूँगा।जो गाँव की गोरी थी और उसे एक भेड़ीहार का लड़का अपना बनाना चाहता था, पर रमेसरा के पिता द्वारा मना करने पर उस भेड़ीहार-पुत्र ने आत्महत्या कर ली थी और प्रेत हो गया था। बाद में वही प्रेत रमेसरा को ओल्हा-पाती खेलते समय धक्का दे दिया था और वही रमेसरा अब रमकलिया के रूप में फिर से पैदा हुई थी। आभार।) मैं वही हूँ पर अब बदल गया हूँ। भले मैं आत्मा हूँ, एक प्रेत हूँ पर अब मैं अपनी प्रियतमा का कोई अहित नहीं करूँगा और अब उसे नफरत से नहीं प्रेम से जीतूँगा।”
उस हवा रूपी आवाज की बातें सुनकर रमकलिया एक पागल प्रेमी की तरह उठकर उस कुर्सी पर विराजमान मूर्त पर अस्पष्ट हवा से लिपट गई। वह सिसक-सिसक कर कहने लगी, तूँ जो भी हो पर है मेरा प्रियतम। मैं अब तेरे बिना जी नहीं सकती। तूँ अब देर न कर। अभी मेरी माँग में सिंदुर भर और मुझे अपना बना। मुझे सदा-सदा के लिए अपने साथ ले चल। इतना कहने के बाद रमकलिया को पता नहीं अचानक क्या हुआ कि वह बिस्तरे पर गिर गई।
सुबह-सुबह रमकलिया के माता-पिता रमकलिया के कमरे का दरवाजा पीटे जा रहे हैं पर वह उठने का नाम नहीं ले रही है। रमकलिया के माता-पिता बहुत ही परेशान हैं क्योंकि रमकलिया के कमरे से कोई सुगबुगाहट नहीं आ रही है। आस-पास के कुछ लोग भी एकत्र हो गए हैं। सब चिल्ला-चिल्लाकर रमकलिया को जगाना चाहते हैं। अंततः रमकलिया के माता-पिता ने कमरे का दरवाजा तोड़ने का फैसला किया क्योंकि वे अब किसी अनहोनी की आसा में पीले पड़ते जा रहे थे। लकड़ी के दरवाजे पर कसकर एक लात पड़ते ही अंदर से लगी उसकी किल्ली निकल गई और भड़ाक से करके दरवाजा खुल गया।

दरवाजा खुलते ही रमकलिया के माता-पिता रमकलिया के बिस्तर की ओर भागे। साथ में आस-पास के कई लोग भी थे। रमकलिया के कमरे का हुलिया पूरी तरह से बदला हुआ था। कमरे में एक अजीब भीनी-भीनी खुशबू पसरी हुई थी और साथ ही रमकलिया के बिस्तरे पर तरह-तरह के फूल बिछे हुए थे। पास पड़ी कुर्सी पर सिंधोरे का एक डिब्बा पड़ा हुआ था और ऐसा लग रहा था कि बिस्तरे पर रमकलिया नहीं, कोई नवविवाहिता लाल साड़ी पहनकर औंधे मुँह लेटी हुई है।
रमकलिया की माँ ने देर न की और बिस्तरे पर सोई उस महिला को झँकझोरने लगी, अरे यह क्या उस सोई तरुणी ने करवट बदला और आँखें मलते हुए उठकर बैठ गई। सभी लोग अचंभित तो थे ही पर रमकलिया का यह रूप देखकर उन्हें साँप भी सूँध गया था। दरअसल वह रमकलिया ही थी पर वह एक नवविवाहिता की तरह सँजरी-सँवरी हुई थी। उसके हाथों में लाल-लाल चुड़ियाँ थीं तो पैर में महावर लगा हुआ था। पता नहीं कहाँ से उसके पैर में नए छागल भी आ गए थे। सर पर सोने का मँगटिक्का शोभा पा रहा था और उस मँगटिक्के के नीचे सिंदूर की हल्की आभा बिखरी हुई थी।
सभी लोग हैरान-परेशान। अरे रात को ही तो रमकलिया अपने कमरे में आई थी। रात को उसके कमरे में कोई सुगबुगाहट भी नहीं हुई। दरवाजा भी नहीं खुला तो इतना सारा सामान कहाँ से आ गया था उसके कमरे में। उसे एक नवदुल्लहन की तरह कौन सजा गया था। क्योंकि उसको जिस तरह से सजाया गया था उससे ऐला लग रहा था कि कोई 8-10 महिलाओं ने 2-4 घंटे मेहनत करके उसे सजाया है। रमकलिया के माता-पिता परेशान थे कि उनके घर में इतना कुछ हो गया और उनके कान पर जूँ तक नहीं।
रमकलिया बिस्तरे से उठी। उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। वह अपने कमरे में स्तब्ध खड़ें लोगों विशेषकर अपने पिता और माता की ओर देखने लगी। वह धीरे-धीरे चलकर अपने माता के पास गई और उनके गले लग गई। उसने कहा कि माँ, मैं अब विवाहिता हूँ। इसके बाद भी उसकी माँ कुछ बोल न सकी। सभी लोग आश्चर्य में डूबे। धीरे-धीरे यह बात गाँव क्या पूरे जवार और जिले में पैल गई। लोग रमकलिया के गाँव की तरफ आते और सच्चाई जानने की कोशिश करते पर गाँव के लोगों की सुनी बातों पर अविश्वास से सिर हिलाते चले जाते।
जी हाँ। उस रात उस प्रेत ने रमकलिया से विवाह करके उसे सदा के लिए अपना बना लिया था। इस कहानी में एक कड़ी और जुड़ती हुई प्रतीत हो रही है। अगर आप पाठकों का आदेश होगा तो मैं इसमें एक कड़ी और जोड़ना चाहूँगा। खैर तबतक के लिए राम-राम, नमस्कार। पर हाँ यह बताना न भूलें हमारी कल्पित कहानियाँ आपको कैसी लगती हैं।

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