इनमें दिन रात ऐसे ही झमेले हैं । इसलिये अभी भी समय है । दरअसल ये वो मार्ग है । जिस पर जाना तो आसान है । पर लौटने का कोई विकल्प ही नहीं है ।
हद हो गयी । जैसे उल्टा । जासूस किसी रहस्य को खोजने चला । और खुद रहस्य में फ़ँस गया । लेखक कहानी लिखने चला । और खुद कहानी हो गया । वह तो अपने मन में हीरोगीरी जैसा ख्याल करते हुये इसका एक एक तार जोङकर शान से इस उलझी गुत्थी को हल करने वाला था । और उसे लगता था । सब चकित से होकर उसको पूरा पूरा सहयोग करेंगे । पर यहाँ वह उल्टा जैसे भूल भुलैया में फ़ँस गया था । कहावत ही उलट गयी । खरबूजा छुरी पर गिरे । या छुरी खरबूजे पर । कटेगा खरबूजा ही । लेकिन यहाँ तो खरबूजा ही छुरी को काटने पर जैसे आमादा था ।
उसने मोबायल में समय देखा । रात के दस बजना चाहते थे । नीचे घर में शान्ति थी । पर हल्की हल्की टी वी चलने की आवाज आ रही थी । कुछ सोचता हुआ वह नीचे उतर आया ।
रात लगभग आधी होने वाली थी । पर वह अभी तक छत पर ही था । इस घर में उसका आज दूसरा दिन था । और वह कुछ कुछ तार मिलाने में कामयाब सा हुआ था । कल दिन में वह अधिकतर पदमा को वाच करता रहा था । लेकिन कोई खास कामयाबी हासिल न हुयी थी । सिवाय इसके । वह एक बेहद सुन्दर सलीकेदार कुशल गृहणी थी । बस उसमें एक बात वाकई अलग थी । उन्मुक्त सौन्दर्य युक्त उन्मुक्त यौवन । वह आम औरतों की तरह किसी जवान लङके पुरुष के सामने होने पर बार बार अपने सीने को ढांकने की बे फ़ालतू दिखावा कोशिश नहीं करती थी । या इसके उलट उसमें अनुराग दिखाते हुये बगलों को खुजाना । स्तनों को उभारना । जांघ नितम्बों को खुजाना । योनि के समीप खुजाना । जैसी क्रियायें भी नहीं करती थी । जो काम से अतृप्त औरत के खास लक्षण होते हैं । और ठीक इसके विपरीत किसी के प्रति कोई चाहत प्रदर्शन करते हुये अर्धनग्न स्तनों की झलक दिखा कर काम संकेत देना भी उसका आम लङकियों स्त्रियों जैसा स्वभाव नहीं था । वह जैसी स्थिति में होती थी । बस होती थी । वह न कभी कुछ अलग से दिखाती थी । न कुछ छिपाती थी । सहज सामान्य । जैसी है । है । लचकती मचकती हरी भरी फ़ूलों की डाली । अनछुआ सा नैसर्गिक सौन्दर्य ।
उसको इस तरह जानना । देखने में ये सामान्य अनावश्यक सी बात लगती है । पर किसी का स्वभाव चरित्र ज्ञात हो जाने पर उसे आगे जानना आसान हो जाता है । और वह यही तो जानने आया था ।
इसके साथ साथ आज दिन में उसकी एक पहेली और भी हल हुयी थी । जब वह गली के आगे चौराहे से सिगरेट खरीदने गया था । उसने एक सिगरेट सुलगायी थी । और मनोज के घर के ठीक सामने खङा था । जब उसकी निगाह गली के अन्तिम छोर तक गयी । अन्तिम छोर पर गली बन्द थी । यह देखते ही उसके दिमाग को एक झटका सा लगा । स्वतः ही उसकी निगाह मनोज के घर पर ऊपर से नीचे तक गयी । उस घर की बनाबट आम घरों की अपेक्षा किसी गोदाम जैसी थी । और वह हर तरफ़ से बन्द सा मालूम होता था ।
- बन्द गली । उसे भूतकाल से आते मनोज के शब्द सुनाई दिये - बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा ।
- हा हा हा । तभी उसके दिमाग में भूतकाल में जोगी बोला - बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हा हा हा । एकदम सही पता ।
- बन्द गली । बन्द घर तो हुआ । उसने सोचा - अब जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । लेकिन कहाँ है वो कमरा ? अंधेरा बन्द कमरा । जमीन के नीचे । इसका सीधा सा मतलब था । मनोज के घर में कोई तल घर होना चाहिये ।
अब ये एक और नयी मुसीबत थी । ये रहस्यमय पता सीधा उसी अण्डर ग्राउण्ड रूम की ओर इशारा कर रहा था । लेकिन वह नया आदमी सीधा सीधा किसी से उसके घर के तल घर के बारे में कैसे पूछता । उस पर साले ये सब आदमी कम कार्टून ज्यादा थे । और वह रहस्यमय औरत ? साली यही नहीं समझ में आता । औरत है कि कोई जिन्दा चुङैल भूतनी है । अप्सरा है । यक्षिणी है । या कोई देवी वेवी है ? क्या है ?
लगता है । ये रहस्यमय परिवार छत पर अक्सर बैठने का खास शौकीन था । छत पर एक बङा तखत कुछ कुर्सियाँ और लम्बी लम्बी दो बैंचे पङी हुयी थी । वह एक बैंच पर साइड के हत्थे से कोहनी टिकाये अधलेटा सा यही सब सोच रहा था । उसकी उँगलियों में जलती हुयी सिगरेट फ़ँसी हुयी थी । जिससे निकलकर धुँयें की लकीर ऊपर को जा रही थी । स्ट्रीट लाइट के पोल पर जलती मरकरी टयूब का हल्का प्रकाश छत पर फ़ैला हुआ था । उसकी कलाई घङी की दोनों सुईयाँ बारह नम्बर पर आकर ठहर गयी थी । छोटी सुई बङी से कसकर चिपकी हुयी थी । और बङी ने उसे ताकत से नीचे दबा कर भींच लिया था । सेकेंड की सुई छटपटाती सी बैचेन चक्कर लगा रही थी ।
एक अजीव सी बैचेन टेंशन महसूस करते हुये उसने सिगरेट को मुँह से लगाकर कश लेना ही चाहा था कि अचानक वह चौंक गया । पदमा ऊपर आ रही थी । जीने पर उसके पैरों की आहट तो नहीं थी । लेकिन उसके पैरों में बजती पायल की मधुर छन छन वह आराम से सुन रहा था ।
उसका दिल अजीव से भय से तेजी से धक धक करने लगा । क्या माजरा था ? और कुछ ही पलों में उसके छक्के ही छूट गये । वह अकेली ही ऊपर आयी थी । और बङी शालीनता सलीके से उसके सामने दूसरी बैंच पर बैठ गयी । बङी अजीव और खास औरत थी । क्या खाम खां ही मरवायेगी उसे । रात के बारह बजे यूँ उसके पास आने का दूसरा कोई परिणाम हो ही नहीं सकता था ।
- वास्तव में जवानी ऐसी ही होती है । वह मादक अंगङाई लेकर बोली - रातों को नींद न आये । करवटें बदलो । तकिया दबाओ । आप ही आप उलट पुलट कर बिस्तर सिकोङ डालो ।..तुम्हारे साथ भी ऐसा होता होगा..ना । है ना । अकेले में नग्न लेटना । नग्न घूमना । होता है ना ।
वह जवानी के लक्षण बता रही थी । और उसे अपनी जिन्दगानी ही खतरे में महसूस हो रही थी । ये औरत वास्तव में खतरनाक थी । उसका पति देवर कोई आ जाये । फ़िर क्या होगा ? कोई भी सोच सकता है ।
- लेकिन..। वह फ़िर से सामान्य स्वर में बोली - ऐसा सबके साथ हो । ऐसा भी नहीं । वो दोनों भाई किसी थके घोङे के समान घोङे बेच कर सो रहे हैं । प्रेमियों की निशा नशीली हो उठी है । रजनी खुल कर बाँहें फ़ैलाये खङी है । चाँदनी चाँद को निहार रही है । सब कुछ कैसा मदहोश करने वाला नशीला नशीला है..है ना ।
अब क्या समझता वह इसको । सौभाग्य या दुर्भाग्य ? शायद दोनों । प्रयोग परीक्षण के लिये जैसे समय जिस माहौल और जिस प्रयोग वस्तु की आवश्यकता थी । वह खुद उसके पास चलकर आयी थी । और उसका रुख भी पूर्ण सकारात्मक था । क्या था इस रहस्यमय औरत के मन में ? वह कैसे जान पाता ।
- काऽऽम..सेक्सऽऽ । वह ऐसे धीमे मगर झंकृत कम्पित स्वर में बोली कि उसे दक्षिण की दिवंगत सेक्स सिम्बल अभिनेत्री सिल्क स्मिता के बोलने की स्टायल याद हो आयी - सिर्फ़ सेक्स । हाँ नितिन..बस तुम गौर से देखो । तो इस सृष्टि में काम.. सेक्स ही नजर आयेगा । हर स्त्री पुरुष के मन दिलोदिमाग में बस हर क्षण काम तरंगे ही दौङती रहती हैं । वो देखो । उसने दूर क्षितिज की ओर नाजुक उंगली से इशारा किया - ये जमीन आसमान से मिलने को सदैव आतुर रहती है । हमेशा अतृप्त । क्योंकि ये कभी उससे पूर्णतयाः मिल नहीं पाती । इसका पूर्ण सम्भोग कभी हो ही नहीं पाता । जबकि यहाँ से ऐसा लग रहा है कि ये दोनों हमेशा काम रत हैं । लेकिन इसकी निकटतम सच्चाई यही है कि इन दोनों में उतनी ही दूरी है । जितनी दूरी इनमें है । यहाँ से एक दूसरे में समाये आलिंगन वद्ध नजर आते । पर ज्यों ज्यों पास जाओ । इनका फ़ासला पता लगता है । लेकिन वहाँ से आगे फ़िर देखने पर यही लगता है कि वह आगे पूर्ण सम्भोग रत है । किसी मृग मरीचिका जैसा । दिखता कुछ और । सच्चाई कुछ और । है ना ।
अचानक उसने अपने सीने के पास मैक्सी को इस तरह हिलाया । जैसे कोई कीङा उसके अन्दर घुस गया हो । और फ़िर दोनों स्तनों को थामकर हिलाते हुये मानों मैक्सी को एडजस्ट किया । और फ़िर बेहद शालीनता से ऐसे बैठ गयी । जैसे एक बेहद संस्कारी और सुशीला औरत हो । और वह वेवश था । इसको देखने सुनने के सिवाय शायद कुछ नहीं कर सकता था ।
लेकिन यहीं बस नहीं । वह किसी एक्सपर्ट काम शिक्षिका की भांति मधुरता से प्रेम पूर्ण स्वर में बोली - ऐसे ही नदियों को देखो । वे समुद्र से मिलने को निरंतर दौङ रही है । उनकी ये प्यासी दौङ कभी खत्म होती है क्या ? हमेशा अतृप्त । प्रथ्वी को देखो । ये कितने ही बीजों का निरंतर गर्भाधान कराती है । ये कभी तृप्त हुयी क्या ? चकोर कभी चाँद से तृप्त हुआ क्या ? ये बेले लतायें हमेशा ही वृक्षों से लिपटी रहती हैं । कभी तृप्त हुयी क्या ? ये भंवरे हमेशा कलियों का रस लेते हैं । क्यों नहीं कभी तृप्त हो जाते । पशु कुत्ते अपनी मादा को सूंघते हुये उसके पीछे घूमते हैं । सांड गायों के पीछे घूमते हैं । बन्दर काम के इतने भूखे हैं । कभी भी । कहीं भी । सबके सामने ही सेक्स कर लेते हैं । वे कभी तृप्त हो जाते हैं क्या ?
- माय गाड ! प्लीज । पदमा जी प्लीज । एनफ़ । वह घबराकर बोला - आप रुक जाईये प्लीज । हम किसी और सबजेक्ट पर बात नहीं कर सकते क्या ?
- इसीलिये तो मैं कहती हूँ । वह मधुर घण्टियों के समान धीमे स्वर में हँसती हुयी बोली - कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है ? न कहानी तुमसे पढते बन रही है । और न ही छोङते ।
चलो बदलती हूँ सबजेक्ट । फ़िर वह जलती मरकरी टयूब को देखती हुयी बोली - तनहाईयों से घिर गयी हूँ मैं । वो जो कभी हसरत बन कर जागी थी मेरे दिल में । आज मेरे पैरों की जंजीर बन गयी है । दुनियाँ से बिलकुल अलग हो गयी हूँ मैं । जब प्रथम भेंट हुयी उनसे तो । मेरे तन मन में प्यारी सी अनुभूति हुयी । उनकी आँखों में देखने की हिम्मत नहीं थी मुझ में । फ़िर भी उन्हें जी भर के देखना चाहती थी । वो मन्द मन्द मुस्कराते हुये बातें करते । और लगातार देखते रहे मुझे । पर मैं संकोच वश उन्हें कोई जबाब न दे पाती । उस पल मुझे लगा ऐसे कि वो मुझे बहुत पसन्द करते हैं । उस दिन के बाद उनसे रोज होने लगी बातें । इन बातों को सुनकर उनके प्रति लगाव बहुत गहरा हो गया है । लेकिन वक्त ने सब कुछ उलट कर रख दिया है । अब घिर गयी हूँ मैं एक अजीब सी उदासी से । शायद वो भी घिर गये हों तन्हाईयों से । और भर गयी हो रोम रोम में उनके उदासी । फ़िर भी मन में ये आस है कि । कभी दुख के बादल छटेंगे और होगा खुशहाल सवेरा ।
कभी दुख के बादल छटेंगे और होगा खुशहाल सवेरा । खुशहाल सवेरा ? अचानक उसकी मृगनयनी आँखों में आँसुओं के मोती से झिलमिला उठे - मुझे कविता वगैरह लिखना नहीं आता । बस ये राजीव जी के प्रति मेरे दिली भाव भर थे । जो स्वतः मेरे ह्रदय से निकले थे । लेकिन अब मैं तुमसे एक सरल सा प्रश्न पूछती हूँ । ये सब जानने के बाद बताओ कि - क्या मैं वाकई राजीव जी से बहुत प्यार करती थी या हूँ ?
- निसंदेह । वह बिना कुछ सोचे झटके से बोला - बहुत प्यार । गहरा प्यार । अमर प्यार ।
- गलत । टोटल गलत । वह भावहीन स्वर में बोली - मुझे लगता है । तुम बिलकुल ही मूर्ख हो । सच तो ये है कि मैं राजीव जी को कोई प्यार ही नहीं करती । दरअसल में तो मैं प्यार का मतलब तक नहीं जानती । प्यार किस चिङिया का नाम होता है ? ये भी मुझे दूर दूर तक नहीं पता । क्योंकि..क्योंकि..व� �� सुबकने लगी ।
नितिन के दिमाग में जैसे विस्फ़ोट हुआ । उसका समस्त वजूद हिलकर रह गया ।
- इसीलिये मैं फ़िर कहती हूँ । वह संभल कर दोबारा बोली - तुम मेरा यकीन करो । कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है ? इसीलिये न कहानी तुमसे पढते बन रही है । और न ही छोङते ।
कामवासना
Re: कामवासना
किसी सुन्दरी के नीले आंचल पर टंके चमकते झिलमिलाते तारों से भरा आसमान भी जैसे यकायक उदास हो चला था । रात में सफ़र करने वाले बगुला पक्षियों की कतार आकाश में उङती हुयी दूर किसी अनजान यात्रा पर जा रही थी । उन दोनों के बीच एक अजीव सी खामोशी छा गयी थी । चुप चुप सी वह जैसे शून्य 0 में देख रही थी ।
क्या है ये औरत ? आखिर उसने सोचा - कोई माया । कोई अनसुलझा बङा रहस्य ? कोई तिलिस्म ।
पर अभी वह अपने ही इस विचार को बल देता कि तभी उसके कानों में भूतकाल भयंकर अट्टाहास करता हुआ बोला - ये कहानी है । सौन्दर्य के तिरस्कार की । चाहत के अपमान की । प्यार के निरादर की । जजबातों पर कुठाराघात की । वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य मायाजाल है । और ये कहानी बस यही तो है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । मैं अभी यही तो साबित कर रही थी । तेरे द्वारा । पर तू फ़ेल हो गया । और तूने मुझे भी फ़ेल करवा दिया । राजीव फ़िर जीत गया । क्योंकि .. वह भयानक स्वर में बोली - क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में । क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में । क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में ।
वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है ।.. मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य मायाजाल है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । पर तू फ़ेल हो गया । तू फ़ेल हो गया । क्योंकि .. क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में ।.. मैं राजीव जी को प्यार करती थी ।.. गलत । टोटल गलत । मुझे लगता है । तुम बिलकुल मूर्ख हो । ..तुम बिलकुल मूर्ख हो ।.. गलत । टोटल गलत । सच तो ये है कि मैं राजीव जी को कोई प्यार ही नहीं करती । ..तुम बिलकुल मूर्ख हो । .. मैं राजीव जी को प्यार करती थी ।.. सच तो ये है कि मैं राजीव जी को कोई प्यार ही नहीं करती ।.. दरअसल में तो मैं प्यार का मतलब तक नहीं जानती । ।.. दरअसल में तो मैं प्यार का मतलब तक नहीं जानती । प्यार किस चिङिया का नाम होता है ? प्यार किस चिङिया का नाम होता है ? ये भी मुझे दूर दूर तक नहीं पता । क्योंकि..क्योंकि.. ?
यकायक उसे तेज चक्कर से आने लगे । उसका सिर तेजी से घूम रहा था । ये परस्पर विरोधाभासी वाक्य उसके दिमाग में गूँजते हुये रह रह कर बार बार भयानक राक्षसी अट्टाहास कर रहे थे ।
बार बार उसके दिमाग में विस्फ़ोट हो रहे थे । उसके दिमाग में सैकङों नंग धङंग प्रेत प्रेतनियाँ समूह के समूह प्रकट हो गये थे । एक भयंकर प्रेतक कोलाहल से उसका दिमाग फ़टा जा रहा था ।
और फ़िर अगले कुछ ही क्षणों में उसे अपनी जिन्दगी की भयानक भूल का पहली बार अहसास हुआ । वह भूल जो उसने इस घर में रह कर की थी । - हा हा हा । तभी उसके दिमाग में भूतकाल का जोगी अट्टाहास करता हुआ बोला - बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हा हा हा । एकदम सही पता । वह किसी भयंकर मायाजाल में फ़ँस चुका था ।
अचानक उसकी सुन्दर आँखों में भूखी खूँखार बिल्ली जैसी भयानक चमक पैदा हुयी । उसके रेशमी बाल उलझे और रूखे हो उठे । उसका मोहिनी चेहरा किसी घिनौनी चुङैल के समान बदसूरत हो उठा । वह हूँऽऽ..हूँऽऽ करती हुयी मुँह से फ़ुफ़कारने लगी । उसका सीना तेजी से ऊपर नीचे हो रहा था ।
- इसीलियेऽ तोऽऽ मैं कहतीऽऽ हूँ । वह दाँत पीस कर किटकिटाते हुये रुक रुक कर बोली - कमाल की.. कहानी लिखी है । इस कहानी के.. लेखक ने ।.. कहानीऽऽ जो उसने शुरू कीऽऽ । उसे कैसे.. कोई और कैसे खत्म कर सकता है ? कहानीऽ जो न तुझसे पढते बन रही है । और न छोङते ।
फ़िर यकायक उसके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया । उसे पदमा के शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे । उसका दिमाग फ़टने सा लगा । फ़िर वह लहरा कर बैंच से नीचे गिरा । और अचेत हो गया । उसकी चेतना गहन अंधकार में खोती चली गयी । एक प्रगाढ बेहोशी उस पर छाती चली गयी ।
- आओ मेरे साथ । तभी वह बेहद प्यार से उसका हाथ पकङ कर बोली - चलो । मैं तुम्हें वहाँ ले चलती हूँ । जहाँ जाने के लिये तुम बैचेन हो । बेकरार हो । जिसकी खोज में तुम आये हो ।
मंत्रमुग्ध सा वह उसके साथ ही चलने लगा । पदमा ने उसके गले में हाथ डाल दिया । और बिलकुल उससे सटी
हुयी ही चल रही थी । उसके उन्नत कसे उरोज और मादक बदन उसके शरीर का स्पर्श कर रहे थे । उसके बृह्मचर्य शरीर में काम तरंगों का तेज करेंट सा दौङ रहा था । शीत ज्वर जैसी भयानक ठंडक महसूस करते हुये उसका समूचा बदन थरथर कांप रहा था । वह नशे में धुत किसी शराबी के समान डगमगाते हुये उसके सहारे से चला जा रहा था ।
- ये वस्त्रों का चलन । वह काली अलंकारिक डिजायन वाली पारदर्शी मैक्सी नीचे खिसकाती हुयी बोली - अव्वल दर्जे के मूर्खों ने चलाया है । सोचो । सोचो । यदि सभी...सभी लोग.. स्त्री पुरुष बच्चे बिना वस्त्र होते । तो ये संसार कैसा सुन्दर प्रतीत होता । सभी एक से । कोई भेदभाव नहीं । सभी खुले खुले । कोई छिपाव नहीं । हर स्त्री पुरुष का शरीर ही खुद सबसे बेहतरीन वस्त्र है । ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना । फ़िर इसको वस्त्र से आवरित करना उसका अपमान नहीं क्या ? इसीलिये तो मनुष्य दुख में हैं । वह सदा ही दुखी रहता है । उसने तरह तरह की इच्छाओं के रंग बिरंगे सुन्दर असुन्दर हल्के भारी हजारों लाखों वस्त्रों का बोझा सा लाद रखा है । धन का वस्त्र । शक्ति का वस्त्र । यश का वस्त्र । प्रतिष्ठा का वस्त्र । लोभ का । लालच का । मोह का । मान का । अपमान का । स्वर्ग का । नरक का । जन्म का । मरण का । वस्त्र ही वस्त्र । ये मेरा वस्त्र । ये तेरा वस्त्र ।
- ह हाँ.. हाँ हाँ पदमा जी । वह प्रभावित होकर बोला - तुम ठीक कहती हो । पदमा तुम ठीक कहती हो । हर आदमी बनाबटी झूठ में जीता है । सिर्फ़ तुम सच हो । तुम सच का पूर्ण सौन्दर्य हो ।
- तो फ़िर । उसने मादकता से होंठ काटा । और झंकृत कम्पित बहुत ही धीमे स्वर में मधुर घुंघरू से छनकाती हुयी बोली - उतार क्यों नहीं देते ये झूठे वस्त्र । झूठ को उतार फ़ेंको । और सच को प्रकट होने दो । सच जो हमेशा नंगा होता है । बिना चस्त्र । बिना आवरण । ज्यों का त्यों ।
किसी आज्ञाकारी बालक की भांति वह सम्मोहित सा वस्त्र उतारने लगा । एक । एक । एक करके ।
किसी प्याज को छीलने की भांति । ज्यों ज्यों नितिन के वस्त्र उतर रहे थे । उसकी चमकती लाल बिल्लौरी आँखों में चमक तेज हो रही थी । उसके शरीर में रोमांच सा भर उठा था । उसकी सुडौल छातियाँ तन उठी थी । उसके अन्दर एक ज्वाला सी जल उठी थी । फ़िर वह एक एक शब्द को काटती भींचती हुयी सी बोली - हाँ नितिन..किसी प्याज को छीलने की भांति.. देखो । पहले उसका अनुपयोगी छिलका उतर जाता है । फ़िर एक मोटी परत । फ़िर एक बहुत झीनी परत । फ़िर पहले से कम मोटी । फ़िर एक झीनी । फ़िर स्थूल परत । फ़िर सूक्ष्म परत । परत दर परत । और अन्त में कुछ नहीं । हाँ कुछ भी तो नहीं । शून्य 0 । सिर्फ़ शून्य 0 ।
और तब बचते हैं । सिर्फ़ एक स्त्री । और सिर्फ़ एक पुरुष । एक दूसरे को प्यासे अतृप्त देखते हुये । सदियों से । युगों से । आदि सृष्टि से । कामातुर । प्रेमातुर । एक दूसरे में समाने को तत्पर । चेतन और प्रकृति । तुम । वह उसके कटि भाग पर प्यासी निगाह डालती हुयी बोली - तुम चेतन रूप 1 हो । और मैं प्रकृति रूपा शून्य 0 । शून्य 0 । उसने मादकता से बहुत धीमे मधुर स्वर में उँगली से नीचे इशारा करते हुये कहा - तुम देख रहे हो ना - शून्य 0 । 1 और शून्य 0 । बस ये दो ही तो हैं । इसके सिवा और कुछ भी तो नहीं है । 2 3 4 5 6 7 8 9 इनका अपना कोई अस्तित्व नहीं । ये तो उसी 1 का योग होना मात्र ही है । 1 जो तुम हो । 0 जो मैं हूँ । बोलो..नितिन । बोलो । मैं गलत कह रही हूँ ?
- नहीं.कभी नहीं । वह उसको बेहद प्यासी निगाहों से देखता हुआ बोला - तुम सच ही कहती हो । तुम्हारी प्रत्येक बात नंगा सच है । तुम सच की सुन्दर मूरत हो ।
- आऽऽह..। वह तङपती हुयी सी दोनों स्तनों को थाम कर बोली - मैं प्यासी हूँ ।..और और शायद तुम भी । लेकिन नहीं । नहीं आदम । मेरे सदा प्रियतम । तुम ये वर्जित काम फ़ल मत खाना । क्योंकि..क्योंकि ये पाप है । वासना है । कामवासना है । ये पतन का द्वार है । आरम्भ है । स्त्री नरक का द्वार है ।..गाड ने..हमें मना किया है ना । हाँ आदम । भगवान ने मुझे भी कहा - हव्वा ! तू ये फ़ल मत खाना । कभी मत खाना ।
पर क्यों..क्यों ? वह एक अनजानी आग में जलता हुआ सा वासना युक्त थरथराते स्वर में बोला - क्यों है ये सुन्दर मिलन पाप ? ये पाप है पदमा । तो फ़िर इस पाप को करने की इतनी तीवृ इच्छा क्यों ? ये पाप पुण्य से अच्छा क्यों लगता है ? ये पाप.. पाप नहीं । पुण्य है । दो युगों से तरसती प्यासी रूहों का मधुर मिलन.. कभी पाप नहीं हो सकता । भगवान झूठ बोलता है । वह हमें बहकाना चाहता है । वह नहीं चाहता । आदम हव्वा का मधुर मिलन । मधुर मिलन ।
- आऽऽह ! वह चेहरे को मसलने लगी - मैं प्यासी हूँ ।
- मुझे परवाह नहीं । नितिन उसके सुन्दर प्यासे अंगों को प्यास से देखता हुआ बोला - मुझे चिन्ता नहीं । पाप की । पुण्य की । दण्ड की । पुरस्कार की । स्वर्ग की । नरक की ।..और..और किसी भगवान की भी ।
- तो..तो फ़िर भूल जाओ । वह बाँहें फ़ैलाकर बोली - कि मैं कौन हूँ । तुम कौन हो । जो होता है । होने दो । वह स्वयं होगा । उसको रोकना मत । और .और उसको करना भी मत । ये सुर संगीत खुद बनता है । फ़िर खुद बजता है । इसके गीत राग खुद पैदा होते हैं । मधुर स्वरों से सजे आनन्द गीत । क्योंकि..क्योंकि वही तो सच है । .. प्यास .. प्यास .. तृप्त .. अतृप्त .. तृप्त..अतृप्त ।
ये शब्द किसी स्वयं होती प्रति ध्वनि के समान उस जगह गूँज रहे थे । वह शून्य 0 हो चला था । अब उसे बस शून्य 0 नजर आ रहा था । शून्य 0 । गोल गोल शून्य 0 । खाली विशाल शून्य 0 । वह इसी शून्य 0 में खो जाना चाहता था । डूब जाना चाहता था । शून्य 0 । सिर्फ़ शून्य 0 ।
वह पूर्ण रूप से होशोहवास खो चुका था । फ़िर वह उस पर भूखे शेर की भांति झपटा । वह भयभीत हिरनी सी भागी । वह बकरी की भांति मंऽऽमंअं एंऽऽ चिल्लाई । वह बकरे सा मोटे स्वर में मुंऽ अंऽ आंऽ आँऽऽ मिमियाया । वह घोङी की भांति उछली । वह घोङे की भांति उठा । वह सहमी चिङिया सी उङी । वह बाज की भांति लपका । वह डरी गाय सी रम्भाई । वह बेकाबू पागल सांड सा दौङा । आखिर वह हार गयी । भय से थरथर कांपने लगी । लेकिन उसने पूर्ण क्रूरता से उसे दबोच लिया ।
- आऽह..नहीं..। उसने विनती की - मर जाऊँगी मैं । छोङ दो मुझे । दया करो आदम । कुछ तो दया करो ।
शून्य 0 । गोल गोल शून्य 0 । खाली विशाल शून्य 0 । वह इसी शून्य 0 में खो जाना चाहता था । डूब जाना चाहता था । शून्य 0 । सिर्फ़ शून्य 0 ।
- आऽऽई..ऊऽऽमाँ..ऐसे बेसबर न हो ।...मैं नाजुक हूँ । कांच की हूँ । कली हूँ ।..उईऽऽ..नहींऽऽ आदम..ये क्या कर रहे होऽ तुम ।..धीरे धीरेऽऽ..बहुत..धीरे..� �ेङो इन सुर तारों को..आऽऽऽऊ आऽह..बहुत दर्द..हो रहा है । नहीं आदम..रहने दो ना ।..मै हव्वा हूँ । तुम्हारी प्यारी हव्वा । सुन्दर हव्वा । फ़िर क्यों निर्दय होते है..आऽऽई.. री माँ ..मर गई.उफ़...बस अब रहने दो ना..। ओऽऽ माँ..नहीं ।..सच्ची आदम ..मर जाऊँगी मैं ..। आऽऽऽ ऽऽईऽऽ ऽईऽ ऽऽऽ ..
क्या है ये औरत ? आखिर उसने सोचा - कोई माया । कोई अनसुलझा बङा रहस्य ? कोई तिलिस्म ।
पर अभी वह अपने ही इस विचार को बल देता कि तभी उसके कानों में भूतकाल भयंकर अट्टाहास करता हुआ बोला - ये कहानी है । सौन्दर्य के तिरस्कार की । चाहत के अपमान की । प्यार के निरादर की । जजबातों पर कुठाराघात की । वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य मायाजाल है । और ये कहानी बस यही तो है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । मैं अभी यही तो साबित कर रही थी । तेरे द्वारा । पर तू फ़ेल हो गया । और तूने मुझे भी फ़ेल करवा दिया । राजीव फ़िर जीत गया । क्योंकि .. वह भयानक स्वर में बोली - क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में । क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में । क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में ।
वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है ।.. मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य मायाजाल है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । पर तू फ़ेल हो गया । तू फ़ेल हो गया । क्योंकि .. क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में ।.. मैं राजीव जी को प्यार करती थी ।.. गलत । टोटल गलत । मुझे लगता है । तुम बिलकुल मूर्ख हो । ..तुम बिलकुल मूर्ख हो ।.. गलत । टोटल गलत । सच तो ये है कि मैं राजीव जी को कोई प्यार ही नहीं करती । ..तुम बिलकुल मूर्ख हो । .. मैं राजीव जी को प्यार करती थी ।.. सच तो ये है कि मैं राजीव जी को कोई प्यार ही नहीं करती ।.. दरअसल में तो मैं प्यार का मतलब तक नहीं जानती । ।.. दरअसल में तो मैं प्यार का मतलब तक नहीं जानती । प्यार किस चिङिया का नाम होता है ? प्यार किस चिङिया का नाम होता है ? ये भी मुझे दूर दूर तक नहीं पता । क्योंकि..क्योंकि.. ?
यकायक उसे तेज चक्कर से आने लगे । उसका सिर तेजी से घूम रहा था । ये परस्पर विरोधाभासी वाक्य उसके दिमाग में गूँजते हुये रह रह कर बार बार भयानक राक्षसी अट्टाहास कर रहे थे ।
बार बार उसके दिमाग में विस्फ़ोट हो रहे थे । उसके दिमाग में सैकङों नंग धङंग प्रेत प्रेतनियाँ समूह के समूह प्रकट हो गये थे । एक भयंकर प्रेतक कोलाहल से उसका दिमाग फ़टा जा रहा था ।
और फ़िर अगले कुछ ही क्षणों में उसे अपनी जिन्दगी की भयानक भूल का पहली बार अहसास हुआ । वह भूल जो उसने इस घर में रह कर की थी । - हा हा हा । तभी उसके दिमाग में भूतकाल का जोगी अट्टाहास करता हुआ बोला - बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हा हा हा । एकदम सही पता । वह किसी भयंकर मायाजाल में फ़ँस चुका था ।
अचानक उसकी सुन्दर आँखों में भूखी खूँखार बिल्ली जैसी भयानक चमक पैदा हुयी । उसके रेशमी बाल उलझे और रूखे हो उठे । उसका मोहिनी चेहरा किसी घिनौनी चुङैल के समान बदसूरत हो उठा । वह हूँऽऽ..हूँऽऽ करती हुयी मुँह से फ़ुफ़कारने लगी । उसका सीना तेजी से ऊपर नीचे हो रहा था ।
- इसीलियेऽ तोऽऽ मैं कहतीऽऽ हूँ । वह दाँत पीस कर किटकिटाते हुये रुक रुक कर बोली - कमाल की.. कहानी लिखी है । इस कहानी के.. लेखक ने ।.. कहानीऽऽ जो उसने शुरू कीऽऽ । उसे कैसे.. कोई और कैसे खत्म कर सकता है ? कहानीऽ जो न तुझसे पढते बन रही है । और न छोङते ।
फ़िर यकायक उसके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया । उसे पदमा के शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे । उसका दिमाग फ़टने सा लगा । फ़िर वह लहरा कर बैंच से नीचे गिरा । और अचेत हो गया । उसकी चेतना गहन अंधकार में खोती चली गयी । एक प्रगाढ बेहोशी उस पर छाती चली गयी ।
- आओ मेरे साथ । तभी वह बेहद प्यार से उसका हाथ पकङ कर बोली - चलो । मैं तुम्हें वहाँ ले चलती हूँ । जहाँ जाने के लिये तुम बैचेन हो । बेकरार हो । जिसकी खोज में तुम आये हो ।
मंत्रमुग्ध सा वह उसके साथ ही चलने लगा । पदमा ने उसके गले में हाथ डाल दिया । और बिलकुल उससे सटी
हुयी ही चल रही थी । उसके उन्नत कसे उरोज और मादक बदन उसके शरीर का स्पर्श कर रहे थे । उसके बृह्मचर्य शरीर में काम तरंगों का तेज करेंट सा दौङ रहा था । शीत ज्वर जैसी भयानक ठंडक महसूस करते हुये उसका समूचा बदन थरथर कांप रहा था । वह नशे में धुत किसी शराबी के समान डगमगाते हुये उसके सहारे से चला जा रहा था ।
- ये वस्त्रों का चलन । वह काली अलंकारिक डिजायन वाली पारदर्शी मैक्सी नीचे खिसकाती हुयी बोली - अव्वल दर्जे के मूर्खों ने चलाया है । सोचो । सोचो । यदि सभी...सभी लोग.. स्त्री पुरुष बच्चे बिना वस्त्र होते । तो ये संसार कैसा सुन्दर प्रतीत होता । सभी एक से । कोई भेदभाव नहीं । सभी खुले खुले । कोई छिपाव नहीं । हर स्त्री पुरुष का शरीर ही खुद सबसे बेहतरीन वस्त्र है । ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना । फ़िर इसको वस्त्र से आवरित करना उसका अपमान नहीं क्या ? इसीलिये तो मनुष्य दुख में हैं । वह सदा ही दुखी रहता है । उसने तरह तरह की इच्छाओं के रंग बिरंगे सुन्दर असुन्दर हल्के भारी हजारों लाखों वस्त्रों का बोझा सा लाद रखा है । धन का वस्त्र । शक्ति का वस्त्र । यश का वस्त्र । प्रतिष्ठा का वस्त्र । लोभ का । लालच का । मोह का । मान का । अपमान का । स्वर्ग का । नरक का । जन्म का । मरण का । वस्त्र ही वस्त्र । ये मेरा वस्त्र । ये तेरा वस्त्र ।
- ह हाँ.. हाँ हाँ पदमा जी । वह प्रभावित होकर बोला - तुम ठीक कहती हो । पदमा तुम ठीक कहती हो । हर आदमी बनाबटी झूठ में जीता है । सिर्फ़ तुम सच हो । तुम सच का पूर्ण सौन्दर्य हो ।
- तो फ़िर । उसने मादकता से होंठ काटा । और झंकृत कम्पित बहुत ही धीमे स्वर में मधुर घुंघरू से छनकाती हुयी बोली - उतार क्यों नहीं देते ये झूठे वस्त्र । झूठ को उतार फ़ेंको । और सच को प्रकट होने दो । सच जो हमेशा नंगा होता है । बिना चस्त्र । बिना आवरण । ज्यों का त्यों ।
किसी आज्ञाकारी बालक की भांति वह सम्मोहित सा वस्त्र उतारने लगा । एक । एक । एक करके ।
किसी प्याज को छीलने की भांति । ज्यों ज्यों नितिन के वस्त्र उतर रहे थे । उसकी चमकती लाल बिल्लौरी आँखों में चमक तेज हो रही थी । उसके शरीर में रोमांच सा भर उठा था । उसकी सुडौल छातियाँ तन उठी थी । उसके अन्दर एक ज्वाला सी जल उठी थी । फ़िर वह एक एक शब्द को काटती भींचती हुयी सी बोली - हाँ नितिन..किसी प्याज को छीलने की भांति.. देखो । पहले उसका अनुपयोगी छिलका उतर जाता है । फ़िर एक मोटी परत । फ़िर एक बहुत झीनी परत । फ़िर पहले से कम मोटी । फ़िर एक झीनी । फ़िर स्थूल परत । फ़िर सूक्ष्म परत । परत दर परत । और अन्त में कुछ नहीं । हाँ कुछ भी तो नहीं । शून्य 0 । सिर्फ़ शून्य 0 ।
और तब बचते हैं । सिर्फ़ एक स्त्री । और सिर्फ़ एक पुरुष । एक दूसरे को प्यासे अतृप्त देखते हुये । सदियों से । युगों से । आदि सृष्टि से । कामातुर । प्रेमातुर । एक दूसरे में समाने को तत्पर । चेतन और प्रकृति । तुम । वह उसके कटि भाग पर प्यासी निगाह डालती हुयी बोली - तुम चेतन रूप 1 हो । और मैं प्रकृति रूपा शून्य 0 । शून्य 0 । उसने मादकता से बहुत धीमे मधुर स्वर में उँगली से नीचे इशारा करते हुये कहा - तुम देख रहे हो ना - शून्य 0 । 1 और शून्य 0 । बस ये दो ही तो हैं । इसके सिवा और कुछ भी तो नहीं है । 2 3 4 5 6 7 8 9 इनका अपना कोई अस्तित्व नहीं । ये तो उसी 1 का योग होना मात्र ही है । 1 जो तुम हो । 0 जो मैं हूँ । बोलो..नितिन । बोलो । मैं गलत कह रही हूँ ?
- नहीं.कभी नहीं । वह उसको बेहद प्यासी निगाहों से देखता हुआ बोला - तुम सच ही कहती हो । तुम्हारी प्रत्येक बात नंगा सच है । तुम सच की सुन्दर मूरत हो ।
- आऽऽह..। वह तङपती हुयी सी दोनों स्तनों को थाम कर बोली - मैं प्यासी हूँ ।..और और शायद तुम भी । लेकिन नहीं । नहीं आदम । मेरे सदा प्रियतम । तुम ये वर्जित काम फ़ल मत खाना । क्योंकि..क्योंकि ये पाप है । वासना है । कामवासना है । ये पतन का द्वार है । आरम्भ है । स्त्री नरक का द्वार है ।..गाड ने..हमें मना किया है ना । हाँ आदम । भगवान ने मुझे भी कहा - हव्वा ! तू ये फ़ल मत खाना । कभी मत खाना ।
पर क्यों..क्यों ? वह एक अनजानी आग में जलता हुआ सा वासना युक्त थरथराते स्वर में बोला - क्यों है ये सुन्दर मिलन पाप ? ये पाप है पदमा । तो फ़िर इस पाप को करने की इतनी तीवृ इच्छा क्यों ? ये पाप पुण्य से अच्छा क्यों लगता है ? ये पाप.. पाप नहीं । पुण्य है । दो युगों से तरसती प्यासी रूहों का मधुर मिलन.. कभी पाप नहीं हो सकता । भगवान झूठ बोलता है । वह हमें बहकाना चाहता है । वह नहीं चाहता । आदम हव्वा का मधुर मिलन । मधुर मिलन ।
- आऽऽह ! वह चेहरे को मसलने लगी - मैं प्यासी हूँ ।
- मुझे परवाह नहीं । नितिन उसके सुन्दर प्यासे अंगों को प्यास से देखता हुआ बोला - मुझे चिन्ता नहीं । पाप की । पुण्य की । दण्ड की । पुरस्कार की । स्वर्ग की । नरक की ।..और..और किसी भगवान की भी ।
- तो..तो फ़िर भूल जाओ । वह बाँहें फ़ैलाकर बोली - कि मैं कौन हूँ । तुम कौन हो । जो होता है । होने दो । वह स्वयं होगा । उसको रोकना मत । और .और उसको करना भी मत । ये सुर संगीत खुद बनता है । फ़िर खुद बजता है । इसके गीत राग खुद पैदा होते हैं । मधुर स्वरों से सजे आनन्द गीत । क्योंकि..क्योंकि वही तो सच है । .. प्यास .. प्यास .. तृप्त .. अतृप्त .. तृप्त..अतृप्त ।
ये शब्द किसी स्वयं होती प्रति ध्वनि के समान उस जगह गूँज रहे थे । वह शून्य 0 हो चला था । अब उसे बस शून्य 0 नजर आ रहा था । शून्य 0 । गोल गोल शून्य 0 । खाली विशाल शून्य 0 । वह इसी शून्य 0 में खो जाना चाहता था । डूब जाना चाहता था । शून्य 0 । सिर्फ़ शून्य 0 ।
वह पूर्ण रूप से होशोहवास खो चुका था । फ़िर वह उस पर भूखे शेर की भांति झपटा । वह भयभीत हिरनी सी भागी । वह बकरी की भांति मंऽऽमंअं एंऽऽ चिल्लाई । वह बकरे सा मोटे स्वर में मुंऽ अंऽ आंऽ आँऽऽ मिमियाया । वह घोङी की भांति उछली । वह घोङे की भांति उठा । वह सहमी चिङिया सी उङी । वह बाज की भांति लपका । वह डरी गाय सी रम्भाई । वह बेकाबू पागल सांड सा दौङा । आखिर वह हार गयी । भय से थरथर कांपने लगी । लेकिन उसने पूर्ण क्रूरता से उसे दबोच लिया ।
- आऽह..नहीं..। उसने विनती की - मर जाऊँगी मैं । छोङ दो मुझे । दया करो आदम । कुछ तो दया करो ।
शून्य 0 । गोल गोल शून्य 0 । खाली विशाल शून्य 0 । वह इसी शून्य 0 में खो जाना चाहता था । डूब जाना चाहता था । शून्य 0 । सिर्फ़ शून्य 0 ।
- आऽऽई..ऊऽऽमाँ..ऐसे बेसबर न हो ।...मैं नाजुक हूँ । कांच की हूँ । कली हूँ ।..उईऽऽ..नहींऽऽ आदम..ये क्या कर रहे होऽ तुम ।..धीरे धीरेऽऽ..बहुत..धीरे..� �ेङो इन सुर तारों को..आऽऽऽऊ आऽह..बहुत दर्द..हो रहा है । नहीं आदम..रहने दो ना ।..मै हव्वा हूँ । तुम्हारी प्यारी हव्वा । सुन्दर हव्वा । फ़िर क्यों निर्दय होते है..आऽऽई.. री माँ ..मर गई.उफ़...बस अब रहने दो ना..। ओऽऽ माँ..नहीं ।..सच्ची आदम ..मर जाऊँगी मैं ..। आऽऽऽ ऽऽईऽऽ ऽईऽ ऽऽऽ ..
Re: कामवासना
अचानक ही हङबङा कर उसने आँखें खोल दी । धूप की तेज तपिश से उसे गर्मी सी लग रही थी । वह पसीने में नहाया हुआ था । और बैचेन हो रहा था । उसने घङी में समय देखा । सुबह के दस बजने वाले थे । और वह उसी तरह उस आदमकद बैंच पर लेटा हुआ था । और अब होश में आया था । इसका साफ़ मतलब था । वह रात भर यहीं पङा रहा था । लेकिन क्यों ?
रात में क्या हुआ था ? उसने अपनी स्मृति को एकत्र करते हुये फ़िर से पीछे की यात्रा की । रात बारह बजे । जब वह नीचे जाने का विचार कर रहा था । अचानक पदमा छत पर आ गयी थी । वह उससे बात करती रही थी । तभी अचानक उसे चक्कर आ गया था । और वह नीचे गिर पङा था । इसके बाद उसे कुछ याद नहीं । फ़िर तबसे वह अभी उठा था । अभी ? रात के बारह बजे से अभी । दस बजे । तब इस बीच में क्या हुआ था ? उसने अपनी याद पर जोर डाला । फ़िर बहुत कोशिश करने पर धीरे धीरे उसे वह सब याद आने लगा ।
पदमा उसे सहारा देती हुयी छत से नीचे उतार ले गयी थी । उसने स्पष्ट अपने को उसी घर के जीने से उतरते हुये देखा था । लेकिन उसके बाद यकायक उसकी आँखों के आगे अंधेरा सा हो गया । उसे महसूस हो रहा था । वह जैसे किसी अंधेरी सुरंग में उतरता जा रहा है । काला स्याह । घोर घनघोर अंधेरा । उसे सहारा देती हुयी पदमा उसके साथ सीढियाँ उतरती जा रही थी । कोई अज्ञात सीढियाँ । फ़िर सीढियाँ भी खत्म हो गयीं । और वे समतल जमीन पर आ गये । तब यकायक वहाँ हल्का सा प्रकाश हो गया । उसने देखा । मादकता से मुस्कराती हुयी पदमा स्विच के पास खङी थी । उसने ही वह बल्ब जलाया था । जिसका मटमैला प्रकाश कमरे में फ़ैल गया था ।
कमरा । उसके दिमाग में अचानक विस्फ़ोट हुआ - जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हाँ वही तो था वह । एक बङे हाल जैसा भूमिगत कक्ष । लगभग खाली सा साफ़ कमरा । जिसमें बाकायदा दो अलग अलग बेड थे । कुछ अजीव सी धुंधली तस्वीरें दीवालों पर ।
- प्यारे आदम । सम्भोग के बाद निढाल सी पङी वह अधमुँदी आखों से बोली - कैसा था यह वर्जित फ़ल ? अच्छा ना ।
पर अब वह जाने क्यों ठगा सा महसूस कर रहा था । जैसे कुछ सही सा नहीं हुआ था । उसे वह सुन्दर औरत । सौन्दर्य की देवी । जाने क्यों ठगिनी सी नजर आ रही थी । ठगिनी । जिसने उसका सब कुछ लूट लिया था । उसका वह बेमिसाल सौन्दर्य । अब उसे फ़ीका लग रहा था । उसके सब अंग । रंग हीन लग रहे थे । रस टपकाता यौवन । अब एकदम नीरस लग रहा था ।
ऐसा ही होता है । वह कोहनी के सहारे टिकती हुयी पूर्ववत ही अपने विशेष अन्दाज में धीरे से बोली - मैं तुम्हारे दिल की आवाज सुन सकती हूँ । तुम सब मर्द । एक जैसे ही होते हो । स्वार्थी भंवरे । सिर्फ़ रस चूसने से मतलब रखने वाले । तब मैं सौन्दर्य की देवी नजर आ रही थी । और तुम मेरे पुजारी थे । क्योंकि तुम मेरा रसास्वादन करना चाहते थे । अब तुम रस चूस चुके । तब मैं फ़ीकी लगने लगी । तुम खुद को ठगा महसूस कर रहे हो । मुझे बताओ आदम । तुम लुटे । या मैं लुटी ? मैंने तो अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया । मैंने तुम्हारा पुरुष प्रहार सहा । प्रेम क्रूरता सही । मैं दया दया करती रही । की तुमने कोई दया ? फ़िर तुम ऐसा क्यों सोचते हो । जो हुआ । सो अच्छा नहीं हुआ । और उसकी दोषी मैं हूँ । सिर्फ़ मैं ।
हर पुरुष जीवन की यही कहानी है । पहले तुम स्त्री के लिये लालायित होते हो । उसे भोगते हो । चूसते हो । फ़िर उसे लात मार देना चाहते हो । क्योंकि भोगी हुयी स्त्री तुम्हारे लिये रसहीन सी हो जाती है । बे स्वाद । मुर्दा । निर्जीव ।
कमाल की औरत थी । उसने सोचा । शायद दूर से खींचने की शक्ति थी इसके पास । धूप और तेज हो उठी थी । वह टहलता हुआ सा उठा । और नीचे आंगन में झांकने लगा । पर अभी वहाँ कोई नहीं था । हल्की सी खट पट कहीं अन्दर से आ रही थी । हाँ । दूर से ही खींच लेने वाली मायावी औरत ही थी ये । तभी तो ये शमशान से यहाँ तक खींच लायी थी । खींचा ही तो था इसने । वरना कहाँ थी ये वहाँ ?
वह इसको हल करने आया था । उसने हल को ही सवाल बना दिया । उसने झटके से सिर को तीन चार बार हिलाया । और आगे के बारे में सोचा । उसे इस मायावी औरत के चक्कर में नहीं पङना चाहिये । और फ़ौरन यहाँ से चला जाना चाहिये । लेकिन क्यों ? क्यों ?
यदि वह एक औरत से हार जाता है । उसकी माया से डर जाता है । फ़िर उसका तंत्र मंत्र रुझान तो व्यर्थ है ही । उसका सामान्य मनुष्य होना भी धिक्कार है । दूसरे वह कुछ विचलित होता था । थोङा डगमाता भी था ।
तभी वह उसके अन्दर बोलने लगती - क्या कमाल की कहानी लिखी । इस कहानी के लेखक ने । कहानी जो उसने शुरू की । उसे कोई और कैसे खत्म कर सकता है । इसीलिये..इसीलिये ये कहानी न तुमसे पढते बन रही है । न छोङते । ये बच्चों का खेल नहीं नितिन ।
- बोलो । वह फ़िर बोली - मुझे जबाब दो । क्या गलती है औरत की । क्या प्यासी सिर्फ़ औरत है ? पुरुष नहीं ।
पर वह कुछ न बोल सका । इस औरत के शब्दों में वह जादू था । जिसके लिये कोई शब्द ही न थे । फ़िर क्या बोलता वह । ऐसा लग रहा था । कुछ गलत भी न थी वह ।
- रहने दो । वह जैसे उसे मुक्त करती हुयी बोली - शायद कुछ प्रश्नों के उत्तर ही नहीं होते । अगर उत्तर होते । तो औरत पुरुष के बराबर न होती । फ़िर उसकी दासी क्यों होती ? चलो । मैं तुम्हें कुछ अलग दिखाती हूँ ।
वह एकदम हैरान सा रह गया । अब ये क्या दिखाने वाली है ? वह उसी मादकता मिश्रित शालीनता से उठी । और उसके पास आ गयी । उसने अपनी लम्बी पतली गोरी बाँहें उसके गले में डाल दी । और बेतहाशा उसके होठ चूमने लगी । जैसे नागिन बदन से लिपटी हो । और जैसे विषकन्या होठों से चिपकी हो । नशे से उसका सिर तेजी से घूमने लगा । दिमाग के अन्दर गोल पहिया सा तेजी से चक्कर काटने लगा । फ़िर वह दोनों चिपकी हुयी अवस्था में ही ऊपर उठने लगे । उनके पैर जमीन से उखङ चुके थे । और वह किसी मामूले तिनके के समान तूफ़ान में उसके साथ ही उढता हुआ दूर जंगल में जा गिरा ।
वाकई उसने फ़िर सच कहा था - चलो । मैं तुम्हें कुछ अलग दिखाती हूँ ।
यह एक अजीव जंगल था । बहुत ही ऊँचे ऊँचे विशाल घने पेङों की भरमार थी उसमें । चमकते सूर्य की रोशनी का कहीं नामोनिशान नहीं था । धुंधला मटमैला पीला मन्द प्रकाश ही फ़ैला था वहाँ । उस जंगल में भीङ की भीङ असंख्य पूर्ण नग्न स्त्री पुरुष मौन विचरण कर रहे थे । सिर्फ़ 30 आयु के लगभग स्त्री पुरुष । न वहाँ कोई बच्चा था । न कोई बूढा था । न कोई सुन्दर था । न कोई बदसूरत था । न वहाँ कोई रोगी था । न वहाँ कोई स्वस्थ भी था । जो भी था । सामान्य था । और सब तरह से आवरण हीन । खुला खुला ।
वह हैरत से उन्हें देखता रहा । वे आपस में बिलकुल न बोल रहे थे । और धीमे धीमे कदमों से इधर उधर चल रहे थे । कुछ जोङे आपस में एक दूसरे को चूम रहे थे । कुछ सम्भोग रत थे । कुछ निढाल से पङे थे । कुछ हताश से खङे थे । वे मुर्दा आँखों से बिना उद्देश्य सामने देखते थे । उनमें से कोई भी उनकी तरफ़ आकर्षित नहीं हुआ । वे दोनों एक ऊँची पहाढी पर बैठे थे । और उसी स्थान अनुसार पूर्णतः नग्न थे ।
- ये एक विशेष मण्डल है । वह जैसे मौन की भाषा में उसके दिमाग में बोली - जिसे अंग्रेजी में zone कहते हैं । ये न प्रथ्वी है । न कोई और ग्रह नक्षत्र । न ही कोई अन्य प्रथ्वी । और न ही अन्य सृष्टि । यहाँ जो यन्त्र तुम देख रहे हो । मेरी बात पर गौर करो - यन्त्र । ये शरीर नजर आ रहे हैं । पर वास्तव में ये यन्त्र है । खास बात ये है कि ये एक कवर्ड एरिया है । यहाँ अंतरिक्षीय शब्द से उत्पन्न वायव्रेशन प्रथ्वी की तरह सीधा नहीं आता । बल्कि रूपान्तरण होकर बिलकुल क्षीण बहुत मामूली सा आता है ।
रात में क्या हुआ था ? उसने अपनी स्मृति को एकत्र करते हुये फ़िर से पीछे की यात्रा की । रात बारह बजे । जब वह नीचे जाने का विचार कर रहा था । अचानक पदमा छत पर आ गयी थी । वह उससे बात करती रही थी । तभी अचानक उसे चक्कर आ गया था । और वह नीचे गिर पङा था । इसके बाद उसे कुछ याद नहीं । फ़िर तबसे वह अभी उठा था । अभी ? रात के बारह बजे से अभी । दस बजे । तब इस बीच में क्या हुआ था ? उसने अपनी याद पर जोर डाला । फ़िर बहुत कोशिश करने पर धीरे धीरे उसे वह सब याद आने लगा ।
पदमा उसे सहारा देती हुयी छत से नीचे उतार ले गयी थी । उसने स्पष्ट अपने को उसी घर के जीने से उतरते हुये देखा था । लेकिन उसके बाद यकायक उसकी आँखों के आगे अंधेरा सा हो गया । उसे महसूस हो रहा था । वह जैसे किसी अंधेरी सुरंग में उतरता जा रहा है । काला स्याह । घोर घनघोर अंधेरा । उसे सहारा देती हुयी पदमा उसके साथ सीढियाँ उतरती जा रही थी । कोई अज्ञात सीढियाँ । फ़िर सीढियाँ भी खत्म हो गयीं । और वे समतल जमीन पर आ गये । तब यकायक वहाँ हल्का सा प्रकाश हो गया । उसने देखा । मादकता से मुस्कराती हुयी पदमा स्विच के पास खङी थी । उसने ही वह बल्ब जलाया था । जिसका मटमैला प्रकाश कमरे में फ़ैल गया था ।
कमरा । उसके दिमाग में अचानक विस्फ़ोट हुआ - जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हाँ वही तो था वह । एक बङे हाल जैसा भूमिगत कक्ष । लगभग खाली सा साफ़ कमरा । जिसमें बाकायदा दो अलग अलग बेड थे । कुछ अजीव सी धुंधली तस्वीरें दीवालों पर ।
- प्यारे आदम । सम्भोग के बाद निढाल सी पङी वह अधमुँदी आखों से बोली - कैसा था यह वर्जित फ़ल ? अच्छा ना ।
पर अब वह जाने क्यों ठगा सा महसूस कर रहा था । जैसे कुछ सही सा नहीं हुआ था । उसे वह सुन्दर औरत । सौन्दर्य की देवी । जाने क्यों ठगिनी सी नजर आ रही थी । ठगिनी । जिसने उसका सब कुछ लूट लिया था । उसका वह बेमिसाल सौन्दर्य । अब उसे फ़ीका लग रहा था । उसके सब अंग । रंग हीन लग रहे थे । रस टपकाता यौवन । अब एकदम नीरस लग रहा था ।
ऐसा ही होता है । वह कोहनी के सहारे टिकती हुयी पूर्ववत ही अपने विशेष अन्दाज में धीरे से बोली - मैं तुम्हारे दिल की आवाज सुन सकती हूँ । तुम सब मर्द । एक जैसे ही होते हो । स्वार्थी भंवरे । सिर्फ़ रस चूसने से मतलब रखने वाले । तब मैं सौन्दर्य की देवी नजर आ रही थी । और तुम मेरे पुजारी थे । क्योंकि तुम मेरा रसास्वादन करना चाहते थे । अब तुम रस चूस चुके । तब मैं फ़ीकी लगने लगी । तुम खुद को ठगा महसूस कर रहे हो । मुझे बताओ आदम । तुम लुटे । या मैं लुटी ? मैंने तो अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया । मैंने तुम्हारा पुरुष प्रहार सहा । प्रेम क्रूरता सही । मैं दया दया करती रही । की तुमने कोई दया ? फ़िर तुम ऐसा क्यों सोचते हो । जो हुआ । सो अच्छा नहीं हुआ । और उसकी दोषी मैं हूँ । सिर्फ़ मैं ।
हर पुरुष जीवन की यही कहानी है । पहले तुम स्त्री के लिये लालायित होते हो । उसे भोगते हो । चूसते हो । फ़िर उसे लात मार देना चाहते हो । क्योंकि भोगी हुयी स्त्री तुम्हारे लिये रसहीन सी हो जाती है । बे स्वाद । मुर्दा । निर्जीव ।
कमाल की औरत थी । उसने सोचा । शायद दूर से खींचने की शक्ति थी इसके पास । धूप और तेज हो उठी थी । वह टहलता हुआ सा उठा । और नीचे आंगन में झांकने लगा । पर अभी वहाँ कोई नहीं था । हल्की सी खट पट कहीं अन्दर से आ रही थी । हाँ । दूर से ही खींच लेने वाली मायावी औरत ही थी ये । तभी तो ये शमशान से यहाँ तक खींच लायी थी । खींचा ही तो था इसने । वरना कहाँ थी ये वहाँ ?
वह इसको हल करने आया था । उसने हल को ही सवाल बना दिया । उसने झटके से सिर को तीन चार बार हिलाया । और आगे के बारे में सोचा । उसे इस मायावी औरत के चक्कर में नहीं पङना चाहिये । और फ़ौरन यहाँ से चला जाना चाहिये । लेकिन क्यों ? क्यों ?
यदि वह एक औरत से हार जाता है । उसकी माया से डर जाता है । फ़िर उसका तंत्र मंत्र रुझान तो व्यर्थ है ही । उसका सामान्य मनुष्य होना भी धिक्कार है । दूसरे वह कुछ विचलित होता था । थोङा डगमाता भी था ।
तभी वह उसके अन्दर बोलने लगती - क्या कमाल की कहानी लिखी । इस कहानी के लेखक ने । कहानी जो उसने शुरू की । उसे कोई और कैसे खत्म कर सकता है । इसीलिये..इसीलिये ये कहानी न तुमसे पढते बन रही है । न छोङते । ये बच्चों का खेल नहीं नितिन ।
- बोलो । वह फ़िर बोली - मुझे जबाब दो । क्या गलती है औरत की । क्या प्यासी सिर्फ़ औरत है ? पुरुष नहीं ।
पर वह कुछ न बोल सका । इस औरत के शब्दों में वह जादू था । जिसके लिये कोई शब्द ही न थे । फ़िर क्या बोलता वह । ऐसा लग रहा था । कुछ गलत भी न थी वह ।
- रहने दो । वह जैसे उसे मुक्त करती हुयी बोली - शायद कुछ प्रश्नों के उत्तर ही नहीं होते । अगर उत्तर होते । तो औरत पुरुष के बराबर न होती । फ़िर उसकी दासी क्यों होती ? चलो । मैं तुम्हें कुछ अलग दिखाती हूँ ।
वह एकदम हैरान सा रह गया । अब ये क्या दिखाने वाली है ? वह उसी मादकता मिश्रित शालीनता से उठी । और उसके पास आ गयी । उसने अपनी लम्बी पतली गोरी बाँहें उसके गले में डाल दी । और बेतहाशा उसके होठ चूमने लगी । जैसे नागिन बदन से लिपटी हो । और जैसे विषकन्या होठों से चिपकी हो । नशे से उसका सिर तेजी से घूमने लगा । दिमाग के अन्दर गोल पहिया सा तेजी से चक्कर काटने लगा । फ़िर वह दोनों चिपकी हुयी अवस्था में ही ऊपर उठने लगे । उनके पैर जमीन से उखङ चुके थे । और वह किसी मामूले तिनके के समान तूफ़ान में उसके साथ ही उढता हुआ दूर जंगल में जा गिरा ।
वाकई उसने फ़िर सच कहा था - चलो । मैं तुम्हें कुछ अलग दिखाती हूँ ।
यह एक अजीव जंगल था । बहुत ही ऊँचे ऊँचे विशाल घने पेङों की भरमार थी उसमें । चमकते सूर्य की रोशनी का कहीं नामोनिशान नहीं था । धुंधला मटमैला पीला मन्द प्रकाश ही फ़ैला था वहाँ । उस जंगल में भीङ की भीङ असंख्य पूर्ण नग्न स्त्री पुरुष मौन विचरण कर रहे थे । सिर्फ़ 30 आयु के लगभग स्त्री पुरुष । न वहाँ कोई बच्चा था । न कोई बूढा था । न कोई सुन्दर था । न कोई बदसूरत था । न वहाँ कोई रोगी था । न वहाँ कोई स्वस्थ भी था । जो भी था । सामान्य था । और सब तरह से आवरण हीन । खुला खुला ।
वह हैरत से उन्हें देखता रहा । वे आपस में बिलकुल न बोल रहे थे । और धीमे धीमे कदमों से इधर उधर चल रहे थे । कुछ जोङे आपस में एक दूसरे को चूम रहे थे । कुछ सम्भोग रत थे । कुछ निढाल से पङे थे । कुछ हताश से खङे थे । वे मुर्दा आँखों से बिना उद्देश्य सामने देखते थे । उनमें से कोई भी उनकी तरफ़ आकर्षित नहीं हुआ । वे दोनों एक ऊँची पहाढी पर बैठे थे । और उसी स्थान अनुसार पूर्णतः नग्न थे ।
- ये एक विशेष मण्डल है । वह जैसे मौन की भाषा में उसके दिमाग में बोली - जिसे अंग्रेजी में zone कहते हैं । ये न प्रथ्वी है । न कोई और ग्रह नक्षत्र । न ही कोई अन्य प्रथ्वी । और न ही अन्य सृष्टि । यहाँ जो यन्त्र तुम देख रहे हो । मेरी बात पर गौर करो - यन्त्र । ये शरीर नजर आ रहे हैं । पर वास्तव में ये यन्त्र है । खास बात ये है कि ये एक कवर्ड एरिया है । यहाँ अंतरिक्षीय शब्द से उत्पन्न वायव्रेशन प्रथ्वी की तरह सीधा नहीं आता । बल्कि रूपान्तरण होकर बिलकुल क्षीण बहुत मामूली सा आता है ।