लिव-इन रिलेशनशिप

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
Jemsbond
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लिव-इन रिलेशनशिप

Unread post by Jemsbond » 20 Dec 2014 08:33

लिव-इन रिलेशनशिप



मि. के एम शुक्ला यानी पंडित किसन मुरारी सुकुल बचपन से ही अपने पूजापाठ के कारण गाँव में पंडिज्जी कहे जाने लगे थे। जनेऊ धारण करना, लंबी चोटी रखना और उसमें गाँठ देना उनकी प्रकृति में शामिल हो गया था। पढ़ने में कुछ ज्यादा तेज न थे फिर भी हाईस्कूल क्रॉस कर गए और अच्छी कदकाठी के चलते पुलिस में आरक्षक के पद पर भरती हो गए। वहाँ ट्रेनिंग में उनके बाल जरूर छोटे हो गए, उसी अनुपात में चोटी भी, किंतु उसकी गाँठ बरकरार रही। जनेऊ न छूटा। वाइन बाइन तो नहीं, अलबत्ता, कभी कभार सफेद आलू जरूर खाने लगे। इस तरह धीरे धीरे पूरे पुलिसिया ज्वान हो गए पंडिज्जी!

कान्यकुब्जों में तब जरा लड़कों का सूचकांक लो था। चार-छह भाइयों में किसी एकाध की ही भाँवर पड़ती, सो बेचारे किशन मुरारी की भी कड़ी उम्र में ही बड़े जोड़तोड़ से शादी हो पाई। पुलिस के मुलाजिम होने के नाते उन्हें इसकी दरकार भी कम थी, गोया! ड्यूटी के पाबंद रहते। आठ आठ महीने हैडक्वार्टर से गाँव न लौटते! पर इस सबके चलते भी कोई पच्चीस-तीस बरस में उनकी तीन बेटियाँ और दो बेटे पलपुस कर जवान जहान हो गए। इस बीच मि. के एम शुक्ला आरक्षक से न सिर्फ एएसआई हो गए, बल्कि उन्होंने एक मझोले शहर की सस्ती सी कॉलोनी में एक अदद मकान भी कर लिया था, जहाँ उनकी संतानें पढ़-लिखकर अपने पैर जमाने लगी थीं।

अब यह कहानी पंडिज्जी की मँझली बेटी नेहा शुक्ला पर केंद्रित होना चाहती है, जो एक पढ़ी लिखी और बा-रोजगार लड़की है। अपने माँ-बाप की तीसरी संतान है। जिसकी बड़ी बहन विवाहित और एक बच्ची की माँ है। जिसका बड़ा भाई दुर्घटना का शिकार हो गया। छोटा अविवाहित और दस्तकार है। सबसे छोटी बहन महज छात्र।

भारतीय जाति व्यवस्था में जिन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण होने का दर्जा जन्म से प्राप्त है, वह उसी कुल की एक अभिशप्त लड़की है जो जातियों से सदा चिढ़ती रहती है। उसे अपने लड़की होने का भी खासा क्षोभ है। वह पाजेब को बेड़ी और चूड़ी को हथकड़ी समझती है। जिसने कभी अपनी नाक में लोंग नहीं पहनी और साड़ी से कोफ्त होती है जिसे। विवाह वह करेगी नहीं, ऐसा होश सँभालने से ही तय कर रखा है उसने। गोया, उसकी धारणा है कि कोई भी पुरुष उसे वेश्या और गुलाम बनाकर ही रखेगा। अपनी माँ-बहन और अन्य स्त्रियों के अनुभव से तो यही जाना है अब तक। इसीलिए, उसकी यह धारणा दिन-बदिन मजबूत होती चली गई है। लेकिन इसके बावजूद उसे एक अच्छे पुरुष का निरंतर साथ चाहिए जो कि परिपक्व, समानताप्रिय और सुलझा हुआ हो। और भाग्य से ऐसा साथ उसे मिल भी गया है। वह पुरुष विवाहित है, इस बात की कभी परवाह नहीं की उसने। किसी पर अपना एकाधिकार नहीं चाहती, इसी से यह साथ मुतबातिर पिछले तीन साल से निभा पा रही है वह।

अब पंडिज्जी और पुलिस मैन! यानी करेला और नीम चढ़ा! उन्हें लड़की का ये सब चाल-चलन, बर्दाश्त इस जनम में तो हो नहीं सकता। अगर वे पहले जान जाते तो वह पेड़ ही नहीं जमने देते, जिस पर कि उल्लू आ बैठा है! और उन्हें तो उन्हें, स्त्रियों के मामले में आनुवांशिक रूप से उनके मध्ययुगीन छोटे पुत्र को भी बहन की ये हरकत नाकाबिले बर्दाश्त थी।

इसी मारे पंडिज्जी ने अपनी बड़ी बेटी के हाथ तो एमए करते ही पीले कर दिए थे। भले वह रोई-गिड़गिड़ाई, 'अभी हम शादी नहीं करेंगे। अभी तो पीएचडी करनी है। हम यूनिवर्सिटी गोल्डमेडलिस्ट हैं। प्रोफेसर बन जाएँगे...' लेकिन मम्मी को बहुत फिक्र थी उसकी चढ़ती उम्र की। थानेदार साहब उर्फ पंडिज्जी यानी उनके पति मि. के एम शुक्ला जब कभी उन्हें नौकरी पर साथ ले जाते तो ड्यूटी जाते वक्त क्वार्टर पर बाहर से ताला डाल जाते थे। तभी से उन्होंने यह सीख लिया था कि चढ़ती उम्र की औरतों का पुरुष के ताले में रहना कितना जरूरी है! यही उम्र तो मतवाली होती है। काम-वासना की पूर्ति के लिए इसने कोई गलत कदम उठा लिया! चिह्नित और जन्म से बीस विश्वा कान्यकुब्ज कुल के खून से उत्पन्न पुरुष के बजाय किसी और के संग सो गई तो नाक कट जाएगी। इसलिए, माँ-बाप और घर-परिवार ने मिल-जुलकर, गा-बजाकर उसे गाय की तरह एक खूँटे से खोलकर अपनी देखरेख में दूसरे खूँटे पर बँधवा दिया। पर तीन-चार साल बाद वही लड़की जब वेदविहित कर्म द्वारा एक संतान की माँ बनकर लौट आई; तंग रहती थी वहाँ, नौकरी चाहती थी यहाँ। तंग खाने-पीने को नहीं, पुरुष के साथ सोने और सम्मान को नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता के जज्बे को? तो उसी पिता ने और माँ ने उसे अपने यहाँ खुशी से रख लिया कि अब करो पीएचडी, डीलिट्, नौकरी... कुछ भी। क्योंकि अब तुम्हारा कौमार्य मिट गया। अब कोई खतरा नहीं है। किंतु मँझली, यानी नेहा को लेकर वे ऐसा गच्चा खाए हैं कि उसके हुए; जन्म लेने की कष्टदायी घटना तक की यादें आ रही हैं। अब स्नान के बाद स्त्रोत जाप करते करते अनायास चोटी में गाँठ लगाते उनके बरसों के अभ्यासी हाथ काँप जाते हैं...।

रात वह लेट लौटी थी। माँ ने दरवाजा जरूर खोला, पर कोई बात नहीं की। सुबह आँख खुली तो छोटी की हालत बद्तर! कुछ दिनों से उसके पेट में अपेंडिसाइटिस का जानलेवा दर्द होने लगा था। आखिर उसने माँ के फूले हुए चेहरे को नजरअंदाज कर धीरे से कहा, 'रिक्शा ले आती हूँ।'

सुनकर माँ ने कौड़ी-सी आँखें निकालीं, बोली कुछ नहीं। वह सिर खुजला कर रह गई।


वातावरण निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर कलाजत्थे बना दिए गए थे। जिन्हें नाटक और गीत सिखाने के लिए मुख्यालय पर एक प्रशिक्षण शिविर लगाया गया। प्रशिक्षु उसे दीदी कहते और आकाश को सर। वे लोग रिहर्सल में पहुँच जाते तो वे फैज और सफदर के गीत गाने लगते। ऐसे मौकों पर दोनों भावुक हो उठते, क्योंकि दिल से जुड़े थे अभियान से।

जब प्रत्येक टीम के पास प्रशिक्षित कलाकार हो गए तो उन्हें उनका स्थानीय कार्यक्षेत्र दे दिया गया। यानी हरेक टीम को अपने सर्किल के आठ-दस गाँवों में नुक्कड़ नाटक व गीतों का प्रदर्शन करना था। कलाजत्थों, कार्यकर्ताओं व ग्रामसमाज के उत्साहबर्धन के लिए उन्हें प्रतिदिन कम से कम पाँच-छह गाँवों का दौरा करना पड़ता।

और एक ऐसे ही प्रदर्शन के दौरान जिसे देखते-सुनते वे दोनों ही भाव विभोर हो गए थे। नेहा आकाश के कंधे से टिक गई थी और वे रोमांचित से उसी को देख रहे थे, किसी फोटोग्राफर ने वह पाज ले लिया! और वह चित्र उसे एक खबर प्रतीत हुआ, जो उसने एक स्थानीय अखबार में छपा भी दिया... जबकि उस क्षण वे लोग अपने आप से बेखबर, लक्ष्य को लेकर अति संवेदित थे!

बाद में उस अखबार की कतरन एक दिन आकाश ने नेहा को दिखलाई तो वह तपाक से कह बैठी, 'यह तो मृत है, जिसे देखना हो, हमें जीवंत देखे!'

वे हतप्रभ रह गए।

पापा ने भी वह चित्र कहीं देख लिया होगा! वे कॉलोनी को जोड़ने वाली फलिया पर बैठे मिले। माँ दरवाजे पर खड़ी। भीतर घुसते ही दोनों की ओर से भयानक शब्द-प्रताड़ना शुरू हो गई। वही एक धैंस, 'कल से निकली तो पैर काट लेंगे! बाँध कर डाल देंगे! नहीं तो काला मुँह कर देंगे कहीं! यानी हाँक देंगे जल्दी सल्दी किसी स्वजातीय के संग जो भले तुझसे अयोग्य, निठल्ला, काना-कुबड़ा हो!'

और उसी क्षण जरा-सी जुबानदराजी हो गई तो पापा यानी पुलिस यानी शुक्ला ने क्रोध में रंडी तक कह दिया!


छोटी की तड़प और तेज हो गई तो, उसने तैयार होकर उसे अकेले दम ले जाने का फैसला कर लिया।

पीछे से माँ ने अचानक गरज कर कहा, 'केस बड़े अस्पताल के लिए रैफर हो गया है!'

वह निशस्त्र हो गई। अचानक आँखों में बेबसी के आँसू उमड़ आए।

'पापा?' उसने मुश्किल से पूछा।

'गए, उनके तो प्राण हमेशा खिंचते ही रहते हैं,' वह बड़बड़ाने लगी, 'हमारी तो सात पुश्तों में कोई इस नौकरी में गया नहीं। जब देखो ड्यूटी! होली-दीवाली, ईद-ताजिया पर भी चैन नहीं... कहीं मंत्री संत्री आ रहे हैं, कहीं डकैत खून पी रहे हैं!'

वह पहले ऐसी नहीं थी। न पापा इतने गुस्सैल! भाई मोटर-एक्सीडेंट में नहीं रहे, तब से घर का संतुलन बिगड़ गया। फिर दूसरी गाज गिरी पापा के सस्पेंड होकर लाइन अटैच हो जाने से...।

पुलिस की छवि जरूर खराब है। पर पुलिस की मुसीबतें भी कम नहीं हैं। एक अपराधी हिरासत में मर गया था। ऐसा कई बार हो जाता है। यह बहुत अनहोनी बात नहीं है। कई बार स्वयं और कई बार सच उगलवाने के चक्कर में ये मौतें हो जाती हैं। राजनीति, समाज और अपराधियों के न जाने कितने दबाव झेलने पड़ते हैं पुलिसियों को। पापा पागल होने से बचे हैं, उसके लिए यही बहुत है। बेटे की मौत का गम और दो कुआँरी बेटियों के कारण असुरक्षा तथा आर्थिक दबाव झेलते वे लगातार नौकरी कर रहे हैं, यह कम चमत्कार नहीं है। कई पुलिसकर्मी अपनी सर्विस रिवॉल्वर से सहकर्मियों या घर के ही लोगों का खात्मा करते देखे गए हैं। माँ तो इसी चिंता में आधी पागल है! नेहा की समाजसेवा सुहाती नहीं किसी को।

और वह सुन्न पड़ गई। आकाश रोजाना की तरह लेने आ गए थे!

क्षेत्र में ट्रेनिंग का काम शुरू हो गया था। वे दोनों ही की-पर्सन थे। मास्टर ट्रेनर्स प्रशिक्षण हेतु जो सेंटर बनाए गए थे उन पर मिलजुल कर प्रशिक्षण देना था। वे रोज सुबह आठ बजे ही घर से लेने आ जाते।

'क्या हुआ?' उन्होंने गर्दन झुकाए-झुकाए पूछा।

'सर्जन ने केस रीजनल हॉस्पिटल के लिए रैफर कर दिया है...' आवाज बैठ रही थी।

'पापा?' उन्होंने माँ से पूछा।

माँ ने मुँह फेर लिया।

वे एक ऐसी सामाजिक परियोजना पर काम कर रहे थे, जिसे अभी कोई फंड और स्वीकृति भी नहीं मिली थी। मगर प्रतिबद्ध थे, क्योंकि परिवर्तन चाहते थे। क्षेत्र में उन्होंने सैकड़ों कार्यकर्ता जुटाए और साधन निहायत निजी। सभी कुछ खुद के हाथपाँव से। जिसके पास साइकिल-बाइक थी वह उससे, आकाश ने एक पुरानी जीप किराए पर ले रखी थी। शहर से देहात तलक सब लोग मिलजुल कर परिवार की तरह काम कर रहे थे। उन्होंने सभी को गहरी आत्मीयता से जोड़ रखा था। नेहा की माँ अक्सर उनका विरोध किया करती थी। परीक्षा से पहले नेहा एक युवा समूह का नेतृत्व अपने हाथ में लेकर बिलासपुर चली गई थी, उसे वह मंजूर था। उसके जम्मू-कश्मीर विजिट पर भी माँ ने कोई आपत्ति नहीं जताई! पर आकाश के संग गाँवों में फिरने, रात-बिरात लौटने से उसे चिढ़ थी...।

वह प्रार्थना कर उठी कि वे यहाँ से चुपचाप चले जायँ। मगर उन्होंने परिस्थिति भाँपकर साथ चलने का निर्णय ले लिया!

माँ यकायक ऋणी हो गई।

नेहा खुश थी। बहुत खुश।

जरूरत का छोटा मोटा सामान जीप में डालकर, बैग में जाँच के परचे रख वह तैयार हो गई। उन्होंने माँ को आगे बैठाया, बहन उसकी गोद में लिटा दी। ड्रायवर से बोले, 'गाड़ी सँभाल कर चलाना।' दरवाजे पर ताला लगाकर वह उड़ती-सी पीछे बैठ गई। जीप स्टार्ट हुई तो वे भी बगल में आ बैठे। शहर निकलते ही कंधे पर हाथ रख लिया, जैसे सांत्वना दे रहे हों!

उनके सहयोग पर दिल भर आया था। जबकि, शुरू में उनके साथ जाना नहीं चाहती थी। जीप लेने आती और वह घर पर होते हुए मना करवा देती। क्योंकि शुरू से ही उसका उनसे कुछ ऐसा बायाँ चंद्रमा था कि एक दिशा के बावजूद वे समानांतर पटरियों पर दौड़ रहे थे...।

Jemsbond
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Re: लिव-इन रिलेशनशिप

Unread post by Jemsbond » 20 Dec 2014 08:34



तकरीबन तीन साल पहले आकाश जब एक प्रशिक्षण कैंप कर रहे थे, वह अपने कोरग्रुप के साथ फाइल में छुपा कर उनका कार्टून बनाया करती थी। उनकी बकरा दाढ़ी और रूखा-सा चेहरा माइक पर देखते ही बोर होने लगती। और उसके बाद उसने एक कैंप किया और उसमें आकाश और उनके साथियों ने व्यवधन डाला... न सिर्फ प्रयोग बल्कि विचार को ही नकार दिया! तब तो उनसे पक्की दुश्मनी ही ठन गई। जल्द ही बदला लेने का सुयोग भी मिल गया उसे! एक संभागीय उत्सव में प्रदर्शन के लिए आकाश को उसकी टीम का सहारा लेना पड़ा था। और वह कान दबाए चुपचाप चली तो गई उनके साथ पर एक छोटे से बहाने को लेकर ऐंठ गई और बगैर प्रदर्शन टीम वापस लिए अपने शहर चली आई! वे वहीं अकेले और असहाय अपना सिर धुनते रह गए थे।

फिर अली सर ने कहा, 'नेहा, सुना है तुम आकाश को सहयोग नहीं दे रही? यह कोई अच्छी बात नहीं है!'

वे उसके जम्मू-कश्मीर विजिट के गाइड, नजर झुक गई। उनके निर्देशन में रजौरी तक कैंप किया था। वह उनका सम्मान करती थी। मगर उन्होंने दो-चार दिन बाद फिर जोर डाला तो उसने उन्हें भी टका-सा जवाब दे डाला, 'माफ कीजिए, सर! मैं खुद से अयोग्य व्यक्ति के नीचे काम नहीं कर सकती!'

यहीं मात खा गई, वे बोले, 'तुम जाओ तो सही, धारणा बदल जाएगी,' उन्होंने विश्वास दिलाया, 'नीचे-ऊपर की तो कोई बात ही नहीं... यह तो एनजीओ है - स्वयंसेवी संगठन! सभी समान हैं। कोई लालफीताशाही नहीं।'

नेहा अखबारों में उनकी प्रगति-रिपोर्ट पढ़ती... और सहमत होती जाती। और आखिर, उस संस्था में तो थी ही, समिति ने उसे उनके यहाँ डैप्यूट भी कर रखा था! परीक्षा के बाद खाली भी हो गई थी। सिलाई-कढ़ाई सीखना नहीं थी, ना-ब्यूटीशियन कोर्स और भवन सज्जा! फिर करती क्या? उन्हीं के साथ हो ली।

उन दिनों वे उसे आगे बिठा देते और खुद पीछे बैठ जाते। सिगरेट पीते। उसे स्मैल आती। पर सह लेती। पिता घर में होते तब हरदम धुआँ भरा रहता। नाक पर चुन्नी और कभी-कभी सिर्फ दो उँगलियाँ टिकाए अपने काम में जुटी रहती। हालाँकि बचपन में उसने भाई के साथ बीड़ी चखी, तंबाकू चखी, चौक-बत्ती खाई... पर उन चीजों से अब घिन छूटने लगी थी। तीन-चार दिन में आकाश ने उसे नाक मूँदे देख लिया। उसी दिन से जीप में सिगरेट बंद। वे दूसरे कार्यकर्ताओं को भी धूम्रपान नहीं करने देते। वे वाकई अच्छे साबित हो रहे थे।

उन दिनों वह एक वित्त विकास निगम के लिए भी काम करती थी। आकाश दाएँ बाएँ होते तब कार्यकर्ताओं को अपनी प्लांटेशन वाली योजनाएँ समझाती। धीरे धीरे तमाम स्वयंसेवकों को निगम का सदस्य बना लिया। पर एक बार जब एक मीटिंग के दौरान प्रोजेक्ट पर बात करते करते निगम का आर्थिक जाल फैलाने लगी तो वे एकदम भड़क उठे। कुरसी से उठकर जैसे दहाड़ उठे, 'नेहा-जीऽ! सुनिए, सुनिएऽ! ये एजेंटी जुआ, लॉटरी यहाँ मत चलाइए। ये लोग एक स्वयंसेवी संगठन के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं! इन्हें मिसगाइड मत करिए! यहाँ सिर्फ प्रोजेक्ट चलेगा, समझीं आपऽ?'

- समझ गई!' उसने मुँह फेर लिया।

- कल से बुलाना!' अपमान के कारण चेहरा गुस्से से जल उठा।

उठकर एकदम भाग जाना चाहती थी, पर वह भी नहीं कर पाई। रात में ठीक से नींद नहीं आई। बारबार वही हमला याद हो आता! पर दो दिन बाद एक किताब पढ़ी, 'यह हमारी असमान दुनिया' तो सारा अपमान, सारा गुस्सा तिरोहित हो गया। वह फिर से पहुँच गई उसी खेमे में। और गाँव गाँव जाकर पुरुष कार्यकर्ताओं की मदद से महिला संगठन बनाने लगी। उसे अच्छा लगने लगा। वित्त विकास निगम की एजेंटी एक सहेली को दान कर दी। जैसे लक्ष्य निर्धरित हो गया था और उपस्थिति दर्ज हो रही थी, 'समाज में स्त्री की मौलिक भूमिका।'

जीप इंडस्ट्रियल ऐरिया के मध्य से गुजर रही थी। हॉस्पिटल अब ज्यादा दूर न था। लेकिन छोटी दर्द के कारण ऐंठ रही थी। माँ घबराने लगी। आकाश ने ड्रायवर से कहा, 'गाड़ी और खींचो जरा!' नेहा खामोश नजरों से उन्हें ताकने लगी, क्योंकि चेसिस बज रही थी। गाड़ी गर्म होकर कभी भी नठ सकती थी।

- कुछ नहीं होगा!' उन्होंने चेहरे की भंगिमा से आश्वस्त किया तो, पलकें झुका लीं उसने।

वापसी में अक्सर लेट हो जाते। तब भी गाड़ी इसी कदर भगाई जाती। गर्म होकर कभी कभी ठप पड़ जाती। सारी जल्दी धरी रह जाती! उसे लगातार वही डर सता रहा था। मगर इस बार जीप ने धोखा नहीं दिया। बहन को कैज्युअलिटी में एडमिट करा कर सारे टेस्ट जल्दी जल्दी करा लिए। दिन भर इतनी भागदौड़ रही कि ठीक से पानी पीने की भी फुरसत नहीं मिल पाई। रात आठ-नौ बजे जूनियर डॉक्टर्स की टीम पुनर्परीक्षण कर ले गई और अगले दिन ऑपरेशन सुनिश्चित हो गया तो थोड़ी राहत मिली।

वे बोले, 'चलो, जरा घूमकर आते हैं।'

उसने माँ से पूछा, 'कोई जरूरत की चीज तो नहीं लानी?'

उसने 'ना' में गर्दन हिला दी। माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं। किंतु उसकी परेशानी को नजरअंदाज कर वह आकाश के साथ चली गई।

चौक पर पहुँचकर उन्होंने पावभाजी और डिब्बाबंद कुल्फी खाई। असर पेट से दिमाग तक पहुँचा तो रौशनी में नहाई इमारतें दुल्हन-सी जगमगा उठीं। चहलकदमी करते हुए वे फव्वारे के नजदीक तक आ गए। बैंचों पर बैठे जोड़े आपस में लिपटे हुए मिले। माहौल का असर कि आकाश से अनायास सटने लगी और वे आँखों में आँखें डाल विनोदपूर्वक कहने लगे, 'योगी किस कदर ध्यान-मग्न बैठे हैं!'

लाज से गड़ गई कि - आप बहुत खराब हैं!'

उसे वार्ड में छोडकर वे अपने मित्र के यहाँ रात गुजारने चले गए। वह तब भी उन्हें आसपास महसूस कर रही थी। मानों करीब रहते रहते कोई भावनात्मक संक्रमण हो गया था। उनकी आवाज, ऊष्मा और उपस्थिति हरदम मँडराती थी सिर पर।


सुबह वे जल्दी आ गए, सो तत्परता के कारण दुपहर तक ऑपरेशन निबट गया। छोटी का स्ट्रेचर खुद ही धकेल कर ओटी तक ले गए और वापस लाए। हड़ताल के कारण उस दिन कोई वार्डबाय न मिला था। दुपहर बाद अचानक बोले, 'नेहा! अब मैं रिलैक्स होना चाहता हूँ! तुम्हें कोई जरूरत न हो तो चला जाऊँ?'

वे अपने स्थानीय मित्र के यहाँ जाने के लिए कह रहे थे, शायद! बहन को फिलहाल दवाइयों की जरूरत थी, ना जूस की। नाक में नली पड़ी थी और प्याली में उसका पित्त गिर रहा था। नेहा को कपड़े धोने थे, कुछ इस्त्री करने थे। जल्दी सल्दी में गंदे संदे और मिचुड़े हुए रख लाई थी।

उसने माँ से पूछा, 'मम्मी, दो घंटे के लिए मैं भी चली जाऊँ सर के साथ?'

वे एकटक देखती रहीं। पति होते तो शायद, ज्यादा मजबूत होतीं। उसने कपड़े एक बैग में ठूँसे और बछड़े की तरह रस्सा तुड़ाकर भाग खड़ी हुई।

बाहर आते ही आकाश ने इशारे से स्कूटर बुलाया और वे लोग मुस्तैदी से उसमें बैठ गए। काम की फिक्र में ड्रायवर को सुबह ही गाड़ी समेत वापस भेज दिया था। समिति के दूसरे लोगों को लेकर वह फील्ड में निकल गया होगा!

कैंपस निकलते-निकलते वे एक प्रस्ताव की भाँति बोले, 'अपन चल तो रहे हैं,' थोड़े हँसे, 'क्या-पता, बिजली पानी की किल्लत हो वहाँ!' फिर ऊँचे स्वर में ऑटोचालक से कहा, 'यहाँ आसपास कोई लॉज है क्या?'

उसने गर्दन मोड़ी, आँखों से बोला - है!'

'चलो, किसी लॉज में ही चलो...।' आकाश ने नेहा को देखते हुए कहा। पर उसके तईं जैसे, कुछ घटा ही नहीं! घर हो या लॉज, उसे तो एक बाथरूम से मतलब था। जब तक वे रेस्ट करेंगे, कपड़े धो लूँगी! घर भी आ जाते और दीदी की कंचन उत्साह में नाचती तोतली आवाज में आकर बताती, 'मोंतीजी-मोंतीजी, आपते तल आ दए!' और बाहर भाग जाती जीप में खेलने। वह तब भी, जिस काम में जुती होती, उसे निबटा कर ही तैयार होती, अपना बैग उठाती। वे तब तक ऊपर के कमरे में जाकर रेस्ट करते रहते...।

लेकिन काउंटर पर आकर लेडीज रिसेप्शनिस्ट ने पूछा, 'सर! साथ में वाइफ हैं?' तो वह सकुच गई। आकाश मुस्कराकर रह गए। रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें चाबी पकड़ा दी। नेहा फिर सामान्य हो गई - दुनिया है!' पर परिस्थिति इतनी सहज नहीं थी। यह उसे रूम में आकर पता चला! बाथरूम की ओर जाने लगी तो वे हाथ पकड़ हाँफते से बोले, 'नेहा, थोड़ा तो रेस्ट कर लो! बाद में धे लेना...।'

उसने फिर भी यही सोचा कि मेरी खटपट से नींद में खलल पड़ेगा, इसलिए ऐसा बोल रहे हैं!' सफेद चादर पर बेड का किनारा पकड़ कर लेट गई। झपक जाएँगे तो खिसक लूँगी!'

लेकिन झपकने के बजाय वे उसकी ओर सरक कर कुछ बुदबुदाए जो वह सुन नहीं पाई। फिर अकस्मात बाँहों में भरकर चूमने लगे...।

उसके तईं यह कतई अप्रत्याशित घटना थी। उसका हलक सूखने लगा। न कोई गुदगुदी हुई न उत्तेजना, बल्कि डर लगने लगा। और वह रोने लगी। उसे अपनी बोल्डनेस आज सचमुच महँगी पड़ गई थी। मगर उसके ताप और स्पर्श से निरंकुश हो चुके आकाश के लिए अब खुद को रोक पाना नामुमकिन था। वे उसके आँसू पीते हुए बोले, 'पहली बार थोड़ी घबराहट होती है... डरो नहीं, प्लीज!'

तभी मानों विस्फोट हुआ। उन्हें पीछे धकेल, बैग कंधे पर टाँग वह नीचे उतर आई। फिर कुछ देर टूसीटर की प्रतीक्षा कर पैदल ही अस्पताल की राह चल पड़ी। भीतर जैसे, हडकंप मचा हुआ था।

कुछ देर में वे पीछे-पीछे आ गए। साथ चलते हुए कातर स्वर में बोले, 'नेहा-आ! प्लीज, ऐसी नादानी मत दिखाओ... तुम मेच्योर हो, पढ़ी लिखी... रिलेक्स-प्लीज!'

उनका गला भर आया था। पर उसने रुख नहीं मिलाया। न एक शब्द बोली। सामने देखती हुई गर्दन उठाए सरपट दौड़ती-सी चलती रही...।

वार्ड में आकर आकाश गैलरी में ही एक चादर बिछा कर लेट गए थे। वे उसे अब दुश्मन सूझ रहे थे। वह चाह रही थी कि किसी तरह आँखों से ओझल हो जायँ। क्यों उन्होंने एक लड़की को अपनी मर्जी की चीज समझ लिया! उसका जमीर उन्हें धिक्कार रहा था।

रात ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे के लगभग आकाश की तबीयत काफी बिगड़ गई। वे भयानक डिप्रेशन के शिकार हो रहे थे। नेहा का अस्वीकार उन्हें खाए जा रहा था। अब तक उसके पापा भी आ गए थे। आकाश ने खुद को सँभालते हुए उनके सामने ही उससे पूछा, 'अब मैं लौट जाऊँ, सुबह ड्रायवर को भेज दूँगा?'

'जैसी मर्जी।' उसने उपेक्षा से कहा।

वे अपना बैग उठा कर हार्टपेशेंट की तरह घबराहट में डूबे हुए निकल गए वार्ड से। उनके जाते ही नेहा खुद को स्वस्थ महसूस करने लगी।

पापा उनके इस तरह चले जाने को लेकर काफी चिंतित हो गए थे। उनके इस भोलेपन पर नेहा ग्लानि से गड़ी जा रही थी। क्योंकि वे पापा ही थे जो उसके लेट हो जाने पर घर के बाहर या और भी आगे कॉलोनी को जोड़ने वाले रोड की फलिया पर रात दस दस ग्यारह ग्यारह बजे तक बैठे मिलते। चेहरा गुस्से से तमतमाया होता, पर मुँह से एक शब्द नहीं निकालते। उस पर यकीन भी था और उसे पुरुषों के समान अवसर देने का जज्बा भी। माँ अक्सर विरोध दर्ज कराती कि वह वापसी में लेट न हुआ करे, अन्यथा यह काम छोड़ दे! उसकी हालत तब काम छोड़ देने की रही नहीं थी। जिस दिन साथ नहीं जा पाती, किसी काम में मन नहीं लगता। खाना-पीना, रहना सब कुछ उन्हीं के साथ भला लगने लगा था...।

अगले दिन जब अस्पताल में झाड़ू-पोंछा चल रहा था, ड्रायवर बाहर गैलरी में आकर खड़ा हो गया। वह एक शिष्ट लड़का, उसे दीदी कहता और मानता भी। उसने उसे मुस्करा कर आश्वस्त कर दिया। शाम तक वे लोग वार्ड में घर की तरह रहने लगे। पापा स्टोव और बर्तन ले आए थे। उसे एक अच्छे सुलभ कॉम्लेक्स का पता चल गया था।

रात में सभी सो गए तो ड्रायवर ने उसे एक बंद लिफाफा दिया।

आकाश ने यही कहा था...।

नेहा ने सुबह तक नहीं खोला। मगर सुबह वह उसी को पढ़ने के लिए अस्पताल के पार्क में चली गई। उसका हृदय संताप से भरा हुआ था। इच्छा न रहते हुए भी उसने लिफाफा खोल लिया और उसमें रखी स्लिप निकाल कर पढ़ने लगी...।

आकाश ने लिखा था, 'मैं अपराधी हूँ। यह एक तरह का अपमान है, बल्कि स्त्री-हत्या! मगर इस पाप के लिए तुमने मुझे मानसिक रूप से तैयार कर लिया था!'

तारीखें जुदा थीं तो क्या! संयोग से दोनों का जन्मदिन एक ही महीने में पड़ता। वे अपने ग्रुप को किसी न किसी बहाने सेलिब्रेट किया करते थे। बड़े उत्साह से कार्यकर्ताओं के जन्मदिन मनाए जाते। सभी एक-दूसरे को छोटे-बड़े उपहार देते। सहभोज होता और गाना-बजाना भी। डायरी में सभी के जन्म दिनांक उन्होंने पहले से टाँक रखे थे। दिसंबर आया तो एक माकूल शुक्रवार देख आकाश ने घोषित कर दिया कि - आज दीदी का जन्मदिन मनेगा।'

- सर का भी तो!' उसने जोड़ा।

लोग मगन हो गए। जीपों में भरकर सब नदी तट पर पहुँच गए! वहीं रसोई रचाई, वहीं नाचे-गाए! सभी ने दोनों को छोटे-बड़े उपहार दिए। और आकाश ने उसे एक सुंदर सलवार सूट तो उसने उन्हें एक खूबसूरत हैट और सेविंग ब्रश विथ इलेकिट्रक रेजर! आकाश मुस्कराने लगे, क्योंकि वे दाढ़ी नहीं बनाते थे! और वह खिसिया गई, जैसे सरेआम निमंत्रित कर रही थी!

स्लिप लिफाफे में डाल, उसे वस्त्रों में छुपा लिया। फिर एक निश्वास छोड़ उठ खड़ी हुई और वार्ड में वापस चली आई।

वह स्थानीय संपादक फालतू में ही पीछे पड़ गया था, जिसने पहले एक बार चित्र छाप दिया था! सुनी सुनाई बातों के आधार पर उसने कुछ दिनों बाद बॉक्स में एक खबर लगाई, 'नाटक खेलने गई टीम पिटते-पिटते बची!'

निज प्रतिनिधि गाँव गाँव को जागरूक करने का बीड़ा उठाने वाली टीम ग्राम लहरौली में पिटते-पिटते बची। घटना उस समय घटी जब टीम समन्वयक आकाश खडगे जीप में एक युवा लड़की को लेकर इस गाँव में पहुँचे। जीप गाँव में पहुँची तो लोग परंपरानुसार जीप के पास आ गए थे। इकट्ठे हुए लोगों को कोई आशय बताए बिना लट्ठ-सा मारते हुए आकाश जी बोले, 'आप लोग अपने घर की जवान बेटियों और जवान बहुओं को बाहर निकालो।' बता दें कि इस जिले में बिना समझाए कोई बात कहने का अंत बुरा होता है। उनकी बात सुनकर गाँव के लोग भौंचक्के रह गए और उन्हें तमाम खरी खोटी सुना दी। लड़ने पर आमादा एक दो लोगों ने यहाँ तक कह दिया कि, 'हम लोग चल रहे हैं तेरे घर, तू निकाल अपनी जवान बहन-बेटी को!' कहना न होगा कि गाँव वालों की बातों को सुनकर आकाश रफूचक्कर होने की जुगत भिड़ाने लगे। जैसे तैसे यह टीम बिना मल्हार गाए और नाटक खेले गाँव से भागकर शहर आ पाई।'

खबर पढकर वे आहत हो गए...।

समिति द्वारा जागरूकता विषयक नुक्कड़ नाटक गाँवगाँव दलित बस्तियों में कराए जा रहे थे। इस बात पर सवर्ण वर्ग अपना अपमान महसूस कर रहा था कि बाहर से आया दल उनके मोहल्लों में नाटक न कर निचली बस्तियों में जा रहा है...। पिछली गर्मियों में जब ग्राम मुकटसिंह का पुरा में कला जत्था, प्रदर्शन ठाकुर मुकुटसिंह के दरवाजे न कर हरिजन बस्ती में करने लगा तो टीम पर सवर्ण जातियों के लड़के पत्थर फेंकने लगे।

रात का समय। आसपास कोई पुलिस मदद न थी। टीम प्रदर्शन-स्थल से एक छप्पर में आ गई। भीड़ ने उसे घेर रखा था। बच्चे, बूढ़े, जवान और औरतें... हर कोई नाटक देखना चाहता था। मगर आकाश ने प्रदर्शन स्थगित कर वापसी का ऐलान कर दिया था। नेहा भीड़ की तरफदारी करने लगी, 'पड़ने दो, कितने पत्थर पड़ेंगे। लहूलुहान होकर भी नाटक करके ही जाएँगे। देश भर में संदेश तो जाएगा कि सामंतवाद कितना हावी है! गुंडाराज कोने कोने में पनप गया है...।'

Jemsbond
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Re: लिव-इन रिलेशनशिप

Unread post by Jemsbond » 20 Dec 2014 08:35



तभी एक तेज कंकड़ उसके सीने में आकर लगा...जो चोट पहुँचाने की गरज से नहीं, उसे बाईजी मान छेड़खानी की नीयत से मारा गया था...। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई। भीड़ में वे लड़के भी आ मिले थे जो जीप ठाकुर मुकुटसिंह के दरवाजे पर रोक रहे थे! अपमान से आँखों में आँसू आ गए। बोलते बोलते वह रुक गई। आकाश ने पूछा तो बताया नहीं। वे दुखी हो गए। वापसी में ड्रायवर और उसके बीच आ बैठे। जीप गाँव से निकल आई तो वह उनके बाजू से सिर टिका कर बेसुध सो गई, जैसे दुख मिटा रही हो!

फिर बाराकलाँ में भी जब नरवरिया एवं निम्न जाति की बस्ती में टीम नाटक करने पहुँची, घटना घट गई...।

वहाँ भी ब्राह्मण-ठाकुरों के लड़के आकर उत्पात मचाने लगे। नरवरियों का ही एक लड़का जो मुख और पंजों पर गेरू पोत, बदन पर कोयला निरक्षर लंगूर बन दो पेड़ों के मध्य बँधे रस्से पर झूल रहा था कि उन्होंने रस्सा काट दिया जिससे वह कुएँ में जा गिरा! भीड़ ने रस्सा डाल जल्दी से निकाल तो लिया पर सिर फट गया। आकाश ने मंच से खूब खरी खोटी सुनाई। उसने भी माइक हाथ ले, दलितों को एकजुट हो टक्कर लेने को उकसाया...! घरों में घुसी सवर्ण महिलाओं को ललकारने लगी कि वे अपने शराबी और बुरे चाल चलन वाले पतियों के खिलाफ संघर्ष करें।'

आवाज तीखी हो गई, जैसे बिच्छू का डंक! मुँह लाल, गोया सुर्ख़ मिर्च! जिसे देख-सुन लोग ताव में अपनी बंदूकें निकाल लाए और फुफकारते हुए हवाई फायर करने लगे! दहशत इतनी व्याप गई कि जीप में बैठते ही वह आकाश से भयभीत बच्चे की तरह सट गई। वापसी में पानी भी इतना तेज बरसा कि बौछार से कपड़े निचुड़ गए। हवा तीर-सी लग रही थी। बिजली बम-सी फट रही थी। डर से बेतरह सीना बज रहा था उसका।

फिर यह अक्सर होता कि वे रात को वापसी में ड्रायवर और उसके बीच आ जाते। गोया, सुरक्षा की दृष्टि से हाथ कंधें पर रख लेते...।

धीरे धीरे सर्दियाँ आ गईं।

जिला मुख्यालय की सीमा से लगे ग्राम कल्यानपुरा में शोहदे दिन छुपते ही महिलाओं का दिशा मैदान दूभर कर देते। नामचीन लोग जुए के अड्डे तथा शराब की दुकानें चलाते। उसने संगठन की स्थानीय महिला कार्यकर्ता शोभिका में जोश भर दिया। वह रोज-बरोज पोस्टकार्ड लिखने लगी - एसपी, कलेक्टर, सीएम, पीएम को। गाँव की महिलाओं को संगठित कर आवाज उठाने लगी...।

मुहिम कारगर होने लगी तो गुंडों ने उसका बलात्कार कर हत्या कर दी!

लाश पीएम के लिए आई तो नेहा उसे देख बेहोश हो गई। आकाश हाथों में उठाकर डॉक्टर के कमरे में ले गए।

तब से रात को लौटते वक्त गोद में सिमट जाती। वे शॉल ओढ़ा लेते और वह सोई रहती। इतनी गहरी नींद कि कोई सपना न आता।


अपने साथ घटी इस दुर्घटना को कदाचित भूल जाती वह, लेकिन आकाश को किसी करवट चैन न था। दिन तो भागदौड़ में किसी तरह कट जाता, मगर रात उन पर भारी पड़ जाती। पत्नी ने एकाध बार पूछा भी, 'आप किसी बड़े टेंशन में हैं?' पर वे टाल गए। उन्हें लग रहा था कि बेशक वे अपने दुर्बल चरित्र के कारण इस दुर्घटना के दागी हुए हैं, पर यह उनके द्वारा प्रायोजित न थी।

जून की दुपहर में जब शार्टकट के चक्कर में ड्रायवर जीप को एक धूल भरे मैदान से निकाल रहा था। उन दो के सिवा गाड़ी में और कोई कार्यकर्ता न था। वे आगे ही ड्रायवर और उसके बीच आ बैठे थे। सूरज आसमान में, किरणें धरती पर चमक रही थीं कि अचानक पहिया गड्डे में चला गया! जीप ऐसा हिचकोला खा गई कि नेहा आगे की ओर झूल गई और उन्होंने हत्थे के धोखे में उसकी गोलाई पकड़ ली! फिर सकपका कर ड्रायवर पर खिसियाने लगे मगर हाथ वह स्पर्श नहीं भूला! देह सटते सटते, देह को चाहने लगी थी। समस्या यह कि अब इस लकीर को मिटाया नहीं जा सकता। वह माफ नहीं करे तो उम्र भर पश्चाताप की आग में जलें और माफ कर दे पर दूरी बना ले तो विरह में! वह जैसे जरूरी हो गई जिंदगी के लिए! जबकि शुरू में वे कोई तवज्जो न देते, वह भी आने को राजी न थी...।

तीन-चार दिन बाद वे विवश से फिर अचानक अस्पताल पहुँच गए। छोटी के पलंग और सोफे के बीच फर्श पर जो जगह खाली थी, उसी पर चटाई डाले नेहा सो रही थी। मम्मी बाथरूम के अंदर। पापा और ड्रायवर का अतापता नहीं! आकाश ने झुककर उसकी कलाई पकड़ ली तो आँखें टुक से खुल गईं। फिर देखते ही देखते उनमें चमक आ गई।

थोड़ी देर में माँ सहसा बाथरूम से निकल आई। आकाश पर नजर पड़ते ही वह रैक से परचा उठाती बोली, 'ये इंजेक्शन आसपास कहीं मिल नहीं रहा।'

परचा उन्होंने हाथ से ले लिया। उठते हुए बोले, 'चलो-नेहा! चौक पर देख लें, वहाँ तो होना चाहिए!'

वह जैसे, उपासी बैठी थी! चुन्नी बदलकर झट साथ हो ली।

बाहर निकलते ही बातें होने लगीं तो आवाज में चहक भर गई।

चौक पर स्कूटर से उतरते ही इंजेक्शन उन्हें पहली दुकान पर ही मिल गया। लेकिन आकाश उसका हाथ थाम लगभग दो फर्लांग तक पैदल चलाते हुए एक रेस्तराँ में ले गए। जहाँ दोनों ने ताजा नाश्ता करके दही की लस्सी पी। इस बीच उन्होंने बताया कि आप लोगों के चले आने से कैसी कठिनाई आ रही है! जीप तो जैसे तैसे हैंडल कर ली, पर जो महिला संगठन सुस्त पड़ रहे हैं, उन्हें सक्रिय नहीं कर पा रहे।'

उसे अस्पताल छोड़कर वे लौटने लगे तो वह अवश-सी उन्हें अकेले जाते हुए देखती रही।

पहले उसे समझ में नहीं आता था कि वे इतने बेचैन और उद्विग्न क्यों हैं! जबकि हम यथास्थिति में मजे से जिए जा रहे हैं! लोग तीज-त्यौहारों, खेलों, प्रवचनों-कुंभों में इतने आनंदित हैं। और यह सुविधा हमें लगातार मुहैया कराई जा रही है!'

वे कहते - हमारी मूल समस्या से ध्यान हटाने की यह उनकी नीतिगत साजिश है। समाज को नशे में बनाए रखकर वे अपना उल्लू सीध कर रहे हैं।'

एक दिन मुश्किल से कटा। दूसरे दिन उसने ड्रायवर से कहा, 'तुम्हें पता है, अपने क्षेत्र में आज पर्यवेक्षक आ रहे हैं!'

'सर ने बताया तो था एक बार... पर उन्होंने मुझे यहाँ छोड़ रखा है! कोई और इंतजाम कर लिया होगा!'

'हाँ, कर लिया है,' वह मुस्कराई, 'गाड़ी खुद चलाने लगे हैं! कभी उसका गीयर निकल जाता है, कभी सेल्फ नहीं उठता... पचते रहते हैं!'

'अरे!' वह आश्चर्यचकित-सा देखता रह गया। उनके गाड़ी चलाने लगने से एक कौतूहल मिश्रित खुशी उसके भीतर नाच उठी थी। उसने कहा, 'अपन लोग चलें वहाँ! छोटी दीदी की हालत में अब तो काफी सुधर है, मम्मी-पापा हैं-ही...।'

वह जैसे इसी बात के लिए उसका मुँह जोह रही थी! पहली बार पापा से मुँह फाड़कर बोली, 'आप देखते रहे हैं, हम लोगों ने कितनी मेहनत उठाई है! यही समय है जब अच्छे से अच्छा प्रदर्शन कर हम अपने प्रोजेक्ट को आगे ले जा सकते हैं...।'

उन्होंने बेटी की आँखों में गहराई से देखा। वहाँ शायद, आँसू उमड़ आए थे! बीड़ी का टोंटा एक ओर फेंकते धीरे से बोले, 'चली जाओ,' फिर बीवी को कसने लगे, 'इससे कहो, रात में अपने घर में आकर सोए!'

उसे बुरा लगा। सिर झुका लिया तो आँसू बरौनियों में लटक गए।

लेट होने पर माँ प्रायः बखेड़ा खड़ा कर देती थी। कभी कभार जुबानदराजी हो जाती तो राँड़, रंडो, बेशर्म कुतिया तक की उपाधि मिल जाती! मगर अगले दिन पैर फिर उठ जाते। माँ देखती, हिदायत देती रह जाती। ऐसे वक्त निकलती जब पापा घर में नहीं होते। गाड़ी समिति के दूसरे लोग मॉनीटरिंग वगैरह के लिए ले जाते तो साइकिल से ही आसपास के गाँवों में चली जाती। एक भी दिन खाली नहीं बैठती। नेहा को बच्चा बच्चा जानता। चहुँओर से नवजात पिल्लों की तरह दुम हिलाते, दौड़े चले आते! औरतों के चेहरे खिल जाते। लड़कियाँ जोर से गा उठतीं, 'देश में गर बेटियाँ मायूस और नाशाद हैं...' किसान-मजदूर सभी उत्साह से भर उठते। कोई कहता, 'बोल अरी ओ धरती बोल, राज सिंहासन डाँवाडोल!' कोई कहता, 'इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें...' तब वह खुद भी गुनगुनाती हुई आगे बढ़ जाती, 'ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के!'

बैग में वापसी योग्य सामान ठूँसकर ड्रायवर के साथ बस में बैठ अपने नगर चली आई। भाग्य से रिक्शा आकाश की जीप से बीच राह टकरा गया। वह किलक कर अपनी जगह पर आ बैठी। ड्रायवर अपनी जगह। वे पर्यवेक्षकों की अगवानी के लिए स्टेशन जा रहे थे। नेहा को अचानक पाकर हर्षातिरेक में हाथ अपने हाथ में ले बैठे। दूसरी ओर ड्रायवर घने बाजार में चपलता से गाड़ी चला रहा था। अब वे आधे अधूरे नहीं थे। उनके स्वर में वही पहले-सी बुलंदी और दिमाग में वही तेजी मौजूद थी, जिसके बल पर कितने दिनों से एक अंतहीन बाधदौड़ दौड़ते चले आ रहे थे।

पर्यवेक्षकों को रेस्टहाउस में टिका कर वे उसे अपने घर ले गए। अब से पहले वह रात में कभी उनके घर नहीं गई थी। कपड़े गंदे हो रहे थे और उनमें अस्पताल की बू भरी थी। झिझकते-झिझकते उनकी पत्नी से लेकर बदल लिए। आकाश की नजर पड़ी तो अनायास मुस्करा पड़ी कि आप इन्हीं में तो देखना चाहते थे - हमें! फिर वे बेड पर ही खाने के लिए बैठ गए। आकाश ने अखबार बिछाते हुए कहा, 'यह रहा हमारा दस्तरख्वान!'

नेहा मुस्कराती रही...।

सुजाता प्रसन्नता के साथ खिला रही थी। उंतालीस साल की खाई-अघाई औरत। उसकी एक बेटी, एक बेटा था। बेटा किशोर और बेटी वयःसंधि काल में प्रवेश करती हुई। और वह स्वयं एक कुशल गृहिणी। जिसका शौहर पेशे से वकील और ख्यातनाम सामाजिक कार्यकर्ता। घर-गृहस्थी और बच्चों को सपेरने में पता ही नहीं चल रहा था कि मियाँ जी हाथ से निकल रहे हैं! फिर भी छठी इंद्री की प्रेरणा से इम्तिहान-सा लेते हुए पूछा, 'अच्छा नेहा, बताओ - काहे की सब्जी है?'

उसने एक क्षण सोचा और किसी प्रायमरी स्टूडेंट-सी सशंकित स्वर में बोली, 'चौल्लेइया की...!'

'तुम कभी धोखा नहीं खा सकतीं।' मुस्कराते हुए उसकी आँखें चमकने लगीं। और वह पापा की हिदायत भूल गई कि रात में अपने घर से बाहर नहीं सोना! सुबह वे उससे पहले उठकर फील्ड में निकल गए, तब कहीं अपने घर पहुँची! बरसात अभी थमी नहीं थी। पर जाने क्या सूझा कि - सारे फर्श झाड़पोंड डाले! ढेर सारे कपड़े भिगो लिए... बेडसीट्स, चादरें, मेजपोश, कुर्सियों के कुशन और खिड़की, दरवाजों के परदे तक नहीं छोड़े! माँ होती तो कहती, 'जिस काम के पीछे पड़ती है, हाथ धेकर पड़ जाती है!'

माँ को क्या पता, उसे तो सबकुछ अच्छा लगने लगा था। अच्छा आज से नहीं, पिछली सारी ऋतुओं से। चिलचिलाती धूप में जब चैसिस आग हो जाती, इंजन धुआँ उगल उठता, आकाश से सटकर वह पसीने से ठंडक पा लेती...। इतनी बेरुखी बरतने के बाद भी उनका फिर से अस्पताल जा पहुँचना - जगाना, हाथ पकड़ घुमाना, घर ले जाना, साथ खिलाना, सुलाना... सब कुछ कितना सुखद! एक जादुई यथार्थ। जिसमें विचरण की वह आदी हो गई है! कैसे संभव है उससे निकल पाना! जिस दिन साथ नहीं मिलता, मानों पगला जाती है! कुछ भी अच्छा नहीं लगता, किसी काम में दिल नहीं लगता!

पर्यवेक्षकों ने मेप ले लिया था। वे अपनी मरजी से कुछ अनाम केंद्रों पर पहुँचने वाले थे। दुपहर तक एक अन्य जीप आ गई और वह ड्रायवर के साथ फील्ड में निकल गई। पर्यवेक्षण के आतंक में सौ फीसदी केंद्रों को सजग करना था।

रात नौ-दस बजे तक वे सब लगाम खींचे घोड़ों की तरह लगातार दौड़ते रहे। मगर काम से पर्यवेक्षक इतने प्रभावित हुए कि सबके सामने ही आकाश का हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, 'प्रोजेक्ट की सफलता के लिए हमें पूरे देश में आप सरीखे वॉलंटियर्स चाहिए!'

- अरे!' उसके तो हाथपाँव ही फूल गए! आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।

वे उसे आकाश से भी अधिक महत्व दे रहे थे... क्योंकि असेसमेंट के दौरान ही एक ग्रामीण ने बड़ा अटपटा प्रश्न खड़ा कर दिया था कि - हमारे मौजे का रकबा इतना कम क्यों होता जा रहा है?'

और वह अड़ गया कि - हमें परियोजना नहीं जमीन चाहिए, पानी और बिजली चाहिए!'

जाहिर है, वे राजनैतिक नहीं थे जो कोरे वायदे कर जाते... हकला गए बेचारे! आकाश ने उसे समझाना चाहा तो मुँहजोरी होने लगी। विरोध में कई स्वर उठ खड़े हुए। तब उसने बीच में कूदकर सभा में एक ऐसा प्रतिप्रश्न खड़ा कर दिया कि सबके मुँह सिल गए।

उसने कहा था - आपकी जमीनें कोई और नहीं हमारी जनसंख्या निगल रही है! बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं... गाँव से जुड़ा एक छोटा-सा उद्योग ईंट भट्टा ही कितने खेतों की उपजाऊ मिट्टी हड़प लेता है! परिवार के विस्तार से ही जरूरतें सुरसा का मुख हो गई हैं जिनकी पूर्ति के लिए खुद आप लोग ही हरे वृक्ष काटने को मजबूर हैं। फिर पानी क्यों बरसेगा, नहरें और कुएँ कहाँ से भरेंगे। जरा सोचें, बिना जागरूकता के यह नियंत्रण संभव है! अशिक्षा के कारण ही सारी दुर्गति है, फिर आप जाने... पर आप क्यों जानें? आप तो प्रकृति और सरकार पर निर्भर हो गए हैं...!'

आवेश के कारण चेहरा लाल पड़ गया था। सभा में सन्नाटा खिंच गया।

वापसी में पर्यवेक्षक उसे अपनी कार में बिठाना चाह रहे थे। उन्होंने उत्साहित भी किया कि - प्रोजेक्ट के बारे वह उन्हें अपने अनुभव सुनाए तो वे दीगर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को लाभान्वित कर सकेंगे!' ऐसी बातों से आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था। पर अपने सर को छोड़कर इस वक्त वह कहीं जाना नहीं चाहती थी।

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