Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना
Posted: 19 Aug 2015 13:14
दादा और पोते का प्रेम तो बहुत पावन हुआ करता है! एक ऐसा प्रेम जिसमे दादा अपने जीवन को स्वयं ही पुनः अपने जीते जी जिया करता है! कुछ ऐसा ही प्रेम था बाबा अमली और उनके पोते खेमा के बीच! मैं समझ सकता हूँ कि कितना प्रेम करते होंगे वो अपने पोते को! उसके लिए सबको डांट-डपट दिया करते थे, चाहे खेमा का बाप हो या फिर माँ! खेमा को कोई कष्ट न हो, इसका पूर्ण ख़याल रखा करते थे बाबा अमली! पर न जाने ऐसा क्या हुआ था की खेमा को इस संसार से विदा होना पड़ा, वो भी बाबा अमली के सामने ही, इस से बड़ा और दुःख इस संसार में नहीं है की कोई दादा अपने जीते जी अपने पुत्र अथवा पोते को अर्थी पर देखे, इस से बड़ा कोई दुःख है ही नहीं इस संसार में, वहीँ भोग रहे थे बाबा अमली, उनके प्रति मेरा सर उनके सम्मान में झुके जा रहा था, कंठ में पीड़ा होने लगी थी मेरे, कोई और कुछ कहता तो शायद आंसू भी निकल ही आते मेरे!
मैंने हिम्मत जुटाई, ताकि और प्रश्न पूछ सकूँ, शंकाओं का समाधान कर सकूँ, तब तक सहायक पानी और सामान ले आया था, बत्ती थी नहीं, इसीलिए हण्डा जल रहा था अपनी पूरी ताक़त से, और उसने अपने संगी साथियों को, जो की कीट-पतंगे थे, आमंत्रित कर लिया था! पट-पट की आवाज़ आती थी जब कोई धुरंधर उसके शीशे से टकराता था! और वैसे भी बाहर नमी थी, कीड़े मकौड़े आदि अपने अपने बिल छोड़, चूंकि वहाँ पानी घुस चुका था, सभी बाहर ही चहलकदमी कर रहे थे! बाहर गैलरी में तो जैसे उनकी मैराथन दौड़ का सा आयोजन था! वे लड़ भी रहे थे और होड़ भी लगा रहे थे एक दूसरे से, पंखों वाले कुछ कदम उड़ते और जहां पाँव जमते, वहीँ टिक जाते थे! आज बारिश नहीं थी, मौसम भी साफ़ ही था, बाहर झाँकने पर, आकाश में तारागण दीख रहे थे, लेकिन स्वयं तारापति, आच्छादित मेघों के बीच संधि करने में जुटे हुए थे!
"लीजिये" आवाज़ आई कविश की,
गिलास तैयार था, साथ में सलाद थी और टला हुआ मुर्गा था, उसके टुकड़े बहुत बड़े बड़े थे, लेकिन तला बेहतरीन गया था, साथ में हरी-मिर्च की चटनी भी थी!
मैंने गिलास लिया, शर्मा जी ने भी लिया, मैंने एक टुकड़ा उठाया, और शर्मा जी को दिया, उन्होंने लिया और फिर मैंने दूसरा टुकड़ा उठा लिया, थोड़ा सा चबाया और स्थान भोग देते हुए, मैंने गिलास अपने गले में उड़ेल लिया! फिर उस टुकड़े को चबाया, चटनी के साथ, चटनी ऐसी तीखी थी की मदिरा की धार से भी टक्कर ले गयी थी वो तो! तभी अचानक से बाबा अमली का ख़याल आया, और उनके उस पोते का, खेमा का,
"बाबा? क्या हुआ था खेमा को?" मैंने पूछा,
बाबा गिरि मदिरा के गिलास से स्थान-भोग दे रहे थे उस समय, मैंने प्रतीक्षा की, उनको देखा मैंने, कुछ मंत्र बुदबुदा रहे थे!
"बाबा खेमा को क्या हुआ था?" पूछा मैंने फिर से,
"बताता हूँ" बोले बाबा गिरि,
मेरी उत्सुकता की जैसे परीक्षा ले रहे थे बाबा!
"बाबा अमली माह में एक बार इस तृप्तिका को भोग अर्पित किया करते थे, ये तीन रात्रि की क्रिया हुआ करती थी, इसमें वो तृप्तिका उनकी समस्याएं का निबटारा किया करती, उनको गूढ़ ज्ञान दिया करती" वे बोले और रुके,
ये तो होता ही है, भोग अर्पित तो किया ही जाता है, जिसको सिद्ध किया हो, उसके संग ये ही नियम है, उसका पालन आवश्यक है करना!
"ऐसे ही एक बार बाबा उस क्रिया में लगे थे, ये तीन रात और तीन दिवस की अखंड क्रिया थी, इसमें बाबा न किसी से मिलते थे, और न कोई ये जानता था कि वो कहाँ है, वो अज्ञात में वास किया करते थे, बस एक ही था जो ये जानता था, उनका पोता खेमा! वो अपने दादा को दूर से बैठा देख, बहुत खुश हुआ करता था! रोज न देखे तो भोजन-अन्न सब त्याग दिया करता था! और जब बाबा आया करते थे वापिस, तो अपने दादा से, उनके हाथों से बना भोजन खाया करता था खेमा! कभी कभी तो वो इन तीन दिन और तीन रात तक कुछ खाता ही नहीं था! बीमार न हो जाए, इसका ख़याल रखा जाता, लेकिन वो भी ज़िद्दी था! अपने दादा कि तरह ही! नहीं खाना तो नहीं खाना!" वे बोले,
दादा-पोते के इस प्रेम को देख, मेरा तो रोम रोम पुलकित हो उठा था! ये नाता ही ऐसा है! इसमें पोते को अपना पिता नहीं, दादा ही सर्वोत्तम लगता है! वो बात जो पूरा घर नहीं जानेगा, वो दादा और दादी को अवश्य ही पता होगी! अपने पोते और पोती द्वारा! कुछ ऐसा ही था बाबा अमली और उनके इस पोते का प्रेम!
लेकिन अभी तक, ये नहीं पता चला था की आखिर उसे हुआ क्या था?
"क्या हुआ था उस बार?" मैंने पूछा,
"बहुत बुरा" वे बोले,
"क्या बुरा?" मैंने पूछा,
"बहुत ही बुरा" वे बोले,
लम्बी सांस छोड़ते हुए,
"बाबा, मेरी परीक्षा न लीजिये, कृपा कीजिये, बता दीजिये" मैंने कहा,
"बताता हूँ अभी" बोले बाबा,
उनके ये कहना कि बताता हूँ अभी ऐसा लगता था कि सारा कलयुग मेरे ही सर पर उतर आया है! ऐसा बोझ लगता था!
कविश ने फिर से गिलास भरे,
हमें दिए,
मैंने पकड़ा,
और झट से खींच गया, थोड़ी सी चटनी चाटी, फिर टुकड़ा उठाया, और चबा लिया!
"बाबा को एक दिन और एक रात हो चुकी थी, ये दूसरा दिन था, उस दिन खेमा शाम के समय कोई पांच बजे, उनको दूर से देख कर आ रहा था, एक नहर पड़ती है वहां, अक्सर ही पानी भरा रहता है उसमे, और देखो तो नदी सी प्रतीत होती है, उस नदी पर एक पुल बना था, पुल संकरा था, एक बुग्घी ही आ-जा सकती थी, वो उस पुल के बीच में था, हाथ में सरकंडा लिए, मिट्टी को खंगालता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, सामने देख नहीं रहा था, और जब देखा, तो कई लोग भागे आ रहे थे, जैसे सभी अपनी अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे हों! वो ठिठक कर एक तरफ खड़ा हो गया, उसे कुछ समझ नहीं आया, और जब आया तो देर हो चुकी थी, एक सांड भागा आ रहा था उस पुल पर, उसने बुग्घी तोड़ डाली थी और कुछ लोगों को घायल भी किया था, जो लोग बचे थे, वो वापिस भाग रहे थे, कुछ ने उसको भी कहा, वो इस से पहले समझता, उसको एक टक्कर पड़ी छाती में, वो बेचारा उस बहती नदी में जा गिरा, कुछ न बोल सका, और बह गया, नहर कि बीचोंबीच, तैरना आता नहीं था, चीख सकता नहीं था, छाती की पसलियां टूट चुकी थीं उसकी..............." वे इतना बोल, चुप हो गए....
चुप तो मैं भी हो गया,
कुर्सी से कमर टिका ली,
शर्मा जी ने लम्बी सांस छोड़ी,
और मैं उस पुल पर जा पहुंचा अपने ख़याल में!!
वो कुछ नहीं बोल सका था, घायल था बुरी तरह से, बेचारा, लाचार खेमा.......
एक लम्बी शान्ति छा गयी वहां, जैसे मौन-व्रत धारण कर लिया हो सभी ने, जैसे उस खेमा की आत्मा कि शान्ति के लिए, कोई होम चल रहा हो.....
बहुत बुरा!
सच में बहुत बुरा हुआ था उसके साथ!
मैं तो सोच कर ही सिहर गया था!
आखिर में वो चुप्पी मैंने ही तोड़ी.....
"किसी ने बचाया नहीं उसे?" मैंने पूछा,
"नहीं, कोई हिम्मत वाला नहीं था वहाँ, सब अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे, किसी कि नज़र गयी भी हो, तो पता नहीं, बहाव तेज था, कुछ ही पलों के कहाँ से कहाँ पहुँच गया था वो" वे बोले,
"बहुत बुरा हुआ उसके साथ" मैंने कहा,
"हाँ, बहुत बुरा" वे बोले,
तभी बाबा अमली का ध्यान आया मुझे!
"हाँ! वो बाबा अमली?" मैंने कहा,
अब चुप वे फिर से!
मैं उनका मुंह ताकूँ!
कविश ने गिलास भर दिया था, मैं एक ही झटके में खींच गया, आज तो मदिरा भी पानी जैसे लग रही थी मुझे, कोई नशा नहीं था उसमे,
"वो बाबा अमली?" मैंने पूछा,
"छोड़ आये थे वो क्रिया बीच में ही......"वे बोले,
"ओह..........अब समझ गया मैं, सब समझ गया मैं...." मैंने कहा,
और माथे पर दोनों हाथ रखे अपने!
करीब पांच मिनट शान्ति रही,
"उस दिन से, बाबा अमली टिक गए, न जीवन ही जी रहे हैं और न मौत ही आ रही है" बोले बाबा अमर अब,
"मैं समझ गया बाबा" मैंने कहा,
"पोते के प्रेम के कारण, अपना जीवन स्वाहा कर लिया उन्होंने, सब समझ गया मैं" मैंने कहा,
"उस खेमा कि लाश कभी नहीं मिली, बहुत ढूँढा, और इस से बाबा अमली के होंठ सदा के लिए खुलना भूल गए, वो आज भी वैसे है हैं, जिस रोज से वे टिके थे" बाबा अमर बोले,
सच में, बहुत ही दर्दनाक हादसा था ये,
बाबा अमली, आज क्यों इस हालत में हैं, अब समझ आ गया था मुझे!
"इसीलिए आपको बुलाया है हमने" वे बोले,
मैं चुप था...
वहीँ डूबा हुआ था अभी भी, उसी नहर में, जहां खेमा डूबा था....
मैंने बस गर्दन हिलायी अपनी!
कविश ने फिर से गिलास भरा और इस बार भी मैंने खींच लिया एक ही झटके में!
मैं उठा और आया बाहर, दिल भारी था बहुत, कितना लम्बा अरसा बीत गया था वो बोझ अपने कलेजे पर लिए बाबा अमली को, और आज ये हाल?
मैं उठा तो शर्मा जी भी उठ आये थे मेरे साथ, उन्होंने दो बीड़ियाँ सुलागयीं, एक मुझे दी और एक खुद ने ली.....बात कुछ नहीं हुई..बस धुंआ ही छोड़ते रहे हम.....
मैंने हिम्मत जुटाई, ताकि और प्रश्न पूछ सकूँ, शंकाओं का समाधान कर सकूँ, तब तक सहायक पानी और सामान ले आया था, बत्ती थी नहीं, इसीलिए हण्डा जल रहा था अपनी पूरी ताक़त से, और उसने अपने संगी साथियों को, जो की कीट-पतंगे थे, आमंत्रित कर लिया था! पट-पट की आवाज़ आती थी जब कोई धुरंधर उसके शीशे से टकराता था! और वैसे भी बाहर नमी थी, कीड़े मकौड़े आदि अपने अपने बिल छोड़, चूंकि वहाँ पानी घुस चुका था, सभी बाहर ही चहलकदमी कर रहे थे! बाहर गैलरी में तो जैसे उनकी मैराथन दौड़ का सा आयोजन था! वे लड़ भी रहे थे और होड़ भी लगा रहे थे एक दूसरे से, पंखों वाले कुछ कदम उड़ते और जहां पाँव जमते, वहीँ टिक जाते थे! आज बारिश नहीं थी, मौसम भी साफ़ ही था, बाहर झाँकने पर, आकाश में तारागण दीख रहे थे, लेकिन स्वयं तारापति, आच्छादित मेघों के बीच संधि करने में जुटे हुए थे!
"लीजिये" आवाज़ आई कविश की,
गिलास तैयार था, साथ में सलाद थी और टला हुआ मुर्गा था, उसके टुकड़े बहुत बड़े बड़े थे, लेकिन तला बेहतरीन गया था, साथ में हरी-मिर्च की चटनी भी थी!
मैंने गिलास लिया, शर्मा जी ने भी लिया, मैंने एक टुकड़ा उठाया, और शर्मा जी को दिया, उन्होंने लिया और फिर मैंने दूसरा टुकड़ा उठा लिया, थोड़ा सा चबाया और स्थान भोग देते हुए, मैंने गिलास अपने गले में उड़ेल लिया! फिर उस टुकड़े को चबाया, चटनी के साथ, चटनी ऐसी तीखी थी की मदिरा की धार से भी टक्कर ले गयी थी वो तो! तभी अचानक से बाबा अमली का ख़याल आया, और उनके उस पोते का, खेमा का,
"बाबा? क्या हुआ था खेमा को?" मैंने पूछा,
बाबा गिरि मदिरा के गिलास से स्थान-भोग दे रहे थे उस समय, मैंने प्रतीक्षा की, उनको देखा मैंने, कुछ मंत्र बुदबुदा रहे थे!
"बाबा खेमा को क्या हुआ था?" पूछा मैंने फिर से,
"बताता हूँ" बोले बाबा गिरि,
मेरी उत्सुकता की जैसे परीक्षा ले रहे थे बाबा!
"बाबा अमली माह में एक बार इस तृप्तिका को भोग अर्पित किया करते थे, ये तीन रात्रि की क्रिया हुआ करती थी, इसमें वो तृप्तिका उनकी समस्याएं का निबटारा किया करती, उनको गूढ़ ज्ञान दिया करती" वे बोले और रुके,
ये तो होता ही है, भोग अर्पित तो किया ही जाता है, जिसको सिद्ध किया हो, उसके संग ये ही नियम है, उसका पालन आवश्यक है करना!
"ऐसे ही एक बार बाबा उस क्रिया में लगे थे, ये तीन रात और तीन दिवस की अखंड क्रिया थी, इसमें बाबा न किसी से मिलते थे, और न कोई ये जानता था कि वो कहाँ है, वो अज्ञात में वास किया करते थे, बस एक ही था जो ये जानता था, उनका पोता खेमा! वो अपने दादा को दूर से बैठा देख, बहुत खुश हुआ करता था! रोज न देखे तो भोजन-अन्न सब त्याग दिया करता था! और जब बाबा आया करते थे वापिस, तो अपने दादा से, उनके हाथों से बना भोजन खाया करता था खेमा! कभी कभी तो वो इन तीन दिन और तीन रात तक कुछ खाता ही नहीं था! बीमार न हो जाए, इसका ख़याल रखा जाता, लेकिन वो भी ज़िद्दी था! अपने दादा कि तरह ही! नहीं खाना तो नहीं खाना!" वे बोले,
दादा-पोते के इस प्रेम को देख, मेरा तो रोम रोम पुलकित हो उठा था! ये नाता ही ऐसा है! इसमें पोते को अपना पिता नहीं, दादा ही सर्वोत्तम लगता है! वो बात जो पूरा घर नहीं जानेगा, वो दादा और दादी को अवश्य ही पता होगी! अपने पोते और पोती द्वारा! कुछ ऐसा ही था बाबा अमली और उनके इस पोते का प्रेम!
लेकिन अभी तक, ये नहीं पता चला था की आखिर उसे हुआ क्या था?
"क्या हुआ था उस बार?" मैंने पूछा,
"बहुत बुरा" वे बोले,
"क्या बुरा?" मैंने पूछा,
"बहुत ही बुरा" वे बोले,
लम्बी सांस छोड़ते हुए,
"बाबा, मेरी परीक्षा न लीजिये, कृपा कीजिये, बता दीजिये" मैंने कहा,
"बताता हूँ अभी" बोले बाबा,
उनके ये कहना कि बताता हूँ अभी ऐसा लगता था कि सारा कलयुग मेरे ही सर पर उतर आया है! ऐसा बोझ लगता था!
कविश ने फिर से गिलास भरे,
हमें दिए,
मैंने पकड़ा,
और झट से खींच गया, थोड़ी सी चटनी चाटी, फिर टुकड़ा उठाया, और चबा लिया!
"बाबा को एक दिन और एक रात हो चुकी थी, ये दूसरा दिन था, उस दिन खेमा शाम के समय कोई पांच बजे, उनको दूर से देख कर आ रहा था, एक नहर पड़ती है वहां, अक्सर ही पानी भरा रहता है उसमे, और देखो तो नदी सी प्रतीत होती है, उस नदी पर एक पुल बना था, पुल संकरा था, एक बुग्घी ही आ-जा सकती थी, वो उस पुल के बीच में था, हाथ में सरकंडा लिए, मिट्टी को खंगालता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, सामने देख नहीं रहा था, और जब देखा, तो कई लोग भागे आ रहे थे, जैसे सभी अपनी अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे हों! वो ठिठक कर एक तरफ खड़ा हो गया, उसे कुछ समझ नहीं आया, और जब आया तो देर हो चुकी थी, एक सांड भागा आ रहा था उस पुल पर, उसने बुग्घी तोड़ डाली थी और कुछ लोगों को घायल भी किया था, जो लोग बचे थे, वो वापिस भाग रहे थे, कुछ ने उसको भी कहा, वो इस से पहले समझता, उसको एक टक्कर पड़ी छाती में, वो बेचारा उस बहती नदी में जा गिरा, कुछ न बोल सका, और बह गया, नहर कि बीचोंबीच, तैरना आता नहीं था, चीख सकता नहीं था, छाती की पसलियां टूट चुकी थीं उसकी..............." वे इतना बोल, चुप हो गए....
चुप तो मैं भी हो गया,
कुर्सी से कमर टिका ली,
शर्मा जी ने लम्बी सांस छोड़ी,
और मैं उस पुल पर जा पहुंचा अपने ख़याल में!!
वो कुछ नहीं बोल सका था, घायल था बुरी तरह से, बेचारा, लाचार खेमा.......
एक लम्बी शान्ति छा गयी वहां, जैसे मौन-व्रत धारण कर लिया हो सभी ने, जैसे उस खेमा की आत्मा कि शान्ति के लिए, कोई होम चल रहा हो.....
बहुत बुरा!
सच में बहुत बुरा हुआ था उसके साथ!
मैं तो सोच कर ही सिहर गया था!
आखिर में वो चुप्पी मैंने ही तोड़ी.....
"किसी ने बचाया नहीं उसे?" मैंने पूछा,
"नहीं, कोई हिम्मत वाला नहीं था वहाँ, सब अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे, किसी कि नज़र गयी भी हो, तो पता नहीं, बहाव तेज था, कुछ ही पलों के कहाँ से कहाँ पहुँच गया था वो" वे बोले,
"बहुत बुरा हुआ उसके साथ" मैंने कहा,
"हाँ, बहुत बुरा" वे बोले,
तभी बाबा अमली का ध्यान आया मुझे!
"हाँ! वो बाबा अमली?" मैंने कहा,
अब चुप वे फिर से!
मैं उनका मुंह ताकूँ!
कविश ने गिलास भर दिया था, मैं एक ही झटके में खींच गया, आज तो मदिरा भी पानी जैसे लग रही थी मुझे, कोई नशा नहीं था उसमे,
"वो बाबा अमली?" मैंने पूछा,
"छोड़ आये थे वो क्रिया बीच में ही......"वे बोले,
"ओह..........अब समझ गया मैं, सब समझ गया मैं...." मैंने कहा,
और माथे पर दोनों हाथ रखे अपने!
करीब पांच मिनट शान्ति रही,
"उस दिन से, बाबा अमली टिक गए, न जीवन ही जी रहे हैं और न मौत ही आ रही है" बोले बाबा अमर अब,
"मैं समझ गया बाबा" मैंने कहा,
"पोते के प्रेम के कारण, अपना जीवन स्वाहा कर लिया उन्होंने, सब समझ गया मैं" मैंने कहा,
"उस खेमा कि लाश कभी नहीं मिली, बहुत ढूँढा, और इस से बाबा अमली के होंठ सदा के लिए खुलना भूल गए, वो आज भी वैसे है हैं, जिस रोज से वे टिके थे" बाबा अमर बोले,
सच में, बहुत ही दर्दनाक हादसा था ये,
बाबा अमली, आज क्यों इस हालत में हैं, अब समझ आ गया था मुझे!
"इसीलिए आपको बुलाया है हमने" वे बोले,
मैं चुप था...
वहीँ डूबा हुआ था अभी भी, उसी नहर में, जहां खेमा डूबा था....
मैंने बस गर्दन हिलायी अपनी!
कविश ने फिर से गिलास भरा और इस बार भी मैंने खींच लिया एक ही झटके में!
मैं उठा और आया बाहर, दिल भारी था बहुत, कितना लम्बा अरसा बीत गया था वो बोझ अपने कलेजे पर लिए बाबा अमली को, और आज ये हाल?
मैं उठा तो शर्मा जी भी उठ आये थे मेरे साथ, उन्होंने दो बीड़ियाँ सुलागयीं, एक मुझे दी और एक खुद ने ली.....बात कुछ नहीं हुई..बस धुंआ ही छोड़ते रहे हम.....