2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना )
Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना
दादा और पोते का प्रेम तो बहुत पावन हुआ करता है! एक ऐसा प्रेम जिसमे दादा अपने जीवन को स्वयं ही पुनः अपने जीते जी जिया करता है! कुछ ऐसा ही प्रेम था बाबा अमली और उनके पोते खेमा के बीच! मैं समझ सकता हूँ कि कितना प्रेम करते होंगे वो अपने पोते को! उसके लिए सबको डांट-डपट दिया करते थे, चाहे खेमा का बाप हो या फिर माँ! खेमा को कोई कष्ट न हो, इसका पूर्ण ख़याल रखा करते थे बाबा अमली! पर न जाने ऐसा क्या हुआ था की खेमा को इस संसार से विदा होना पड़ा, वो भी बाबा अमली के सामने ही, इस से बड़ा और दुःख इस संसार में नहीं है की कोई दादा अपने जीते जी अपने पुत्र अथवा पोते को अर्थी पर देखे, इस से बड़ा कोई दुःख है ही नहीं इस संसार में, वहीँ भोग रहे थे बाबा अमली, उनके प्रति मेरा सर उनके सम्मान में झुके जा रहा था, कंठ में पीड़ा होने लगी थी मेरे, कोई और कुछ कहता तो शायद आंसू भी निकल ही आते मेरे!
मैंने हिम्मत जुटाई, ताकि और प्रश्न पूछ सकूँ, शंकाओं का समाधान कर सकूँ, तब तक सहायक पानी और सामान ले आया था, बत्ती थी नहीं, इसीलिए हण्डा जल रहा था अपनी पूरी ताक़त से, और उसने अपने संगी साथियों को, जो की कीट-पतंगे थे, आमंत्रित कर लिया था! पट-पट की आवाज़ आती थी जब कोई धुरंधर उसके शीशे से टकराता था! और वैसे भी बाहर नमी थी, कीड़े मकौड़े आदि अपने अपने बिल छोड़, चूंकि वहाँ पानी घुस चुका था, सभी बाहर ही चहलकदमी कर रहे थे! बाहर गैलरी में तो जैसे उनकी मैराथन दौड़ का सा आयोजन था! वे लड़ भी रहे थे और होड़ भी लगा रहे थे एक दूसरे से, पंखों वाले कुछ कदम उड़ते और जहां पाँव जमते, वहीँ टिक जाते थे! आज बारिश नहीं थी, मौसम भी साफ़ ही था, बाहर झाँकने पर, आकाश में तारागण दीख रहे थे, लेकिन स्वयं तारापति, आच्छादित मेघों के बीच संधि करने में जुटे हुए थे!
"लीजिये" आवाज़ आई कविश की,
गिलास तैयार था, साथ में सलाद थी और टला हुआ मुर्गा था, उसके टुकड़े बहुत बड़े बड़े थे, लेकिन तला बेहतरीन गया था, साथ में हरी-मिर्च की चटनी भी थी!
मैंने गिलास लिया, शर्मा जी ने भी लिया, मैंने एक टुकड़ा उठाया, और शर्मा जी को दिया, उन्होंने लिया और फिर मैंने दूसरा टुकड़ा उठा लिया, थोड़ा सा चबाया और स्थान भोग देते हुए, मैंने गिलास अपने गले में उड़ेल लिया! फिर उस टुकड़े को चबाया, चटनी के साथ, चटनी ऐसी तीखी थी की मदिरा की धार से भी टक्कर ले गयी थी वो तो! तभी अचानक से बाबा अमली का ख़याल आया, और उनके उस पोते का, खेमा का,
"बाबा? क्या हुआ था खेमा को?" मैंने पूछा,
बाबा गिरि मदिरा के गिलास से स्थान-भोग दे रहे थे उस समय, मैंने प्रतीक्षा की, उनको देखा मैंने, कुछ मंत्र बुदबुदा रहे थे!
"बाबा खेमा को क्या हुआ था?" पूछा मैंने फिर से,
"बताता हूँ" बोले बाबा गिरि,
मेरी उत्सुकता की जैसे परीक्षा ले रहे थे बाबा!
"बाबा अमली माह में एक बार इस तृप्तिका को भोग अर्पित किया करते थे, ये तीन रात्रि की क्रिया हुआ करती थी, इसमें वो तृप्तिका उनकी समस्याएं का निबटारा किया करती, उनको गूढ़ ज्ञान दिया करती" वे बोले और रुके,
ये तो होता ही है, भोग अर्पित तो किया ही जाता है, जिसको सिद्ध किया हो, उसके संग ये ही नियम है, उसका पालन आवश्यक है करना!
"ऐसे ही एक बार बाबा उस क्रिया में लगे थे, ये तीन रात और तीन दिवस की अखंड क्रिया थी, इसमें बाबा न किसी से मिलते थे, और न कोई ये जानता था कि वो कहाँ है, वो अज्ञात में वास किया करते थे, बस एक ही था जो ये जानता था, उनका पोता खेमा! वो अपने दादा को दूर से बैठा देख, बहुत खुश हुआ करता था! रोज न देखे तो भोजन-अन्न सब त्याग दिया करता था! और जब बाबा आया करते थे वापिस, तो अपने दादा से, उनके हाथों से बना भोजन खाया करता था खेमा! कभी कभी तो वो इन तीन दिन और तीन रात तक कुछ खाता ही नहीं था! बीमार न हो जाए, इसका ख़याल रखा जाता, लेकिन वो भी ज़िद्दी था! अपने दादा कि तरह ही! नहीं खाना तो नहीं खाना!" वे बोले,
दादा-पोते के इस प्रेम को देख, मेरा तो रोम रोम पुलकित हो उठा था! ये नाता ही ऐसा है! इसमें पोते को अपना पिता नहीं, दादा ही सर्वोत्तम लगता है! वो बात जो पूरा घर नहीं जानेगा, वो दादा और दादी को अवश्य ही पता होगी! अपने पोते और पोती द्वारा! कुछ ऐसा ही था बाबा अमली और उनके इस पोते का प्रेम!
लेकिन अभी तक, ये नहीं पता चला था की आखिर उसे हुआ क्या था?
"क्या हुआ था उस बार?" मैंने पूछा,
"बहुत बुरा" वे बोले,
"क्या बुरा?" मैंने पूछा,
"बहुत ही बुरा" वे बोले,
लम्बी सांस छोड़ते हुए,
"बाबा, मेरी परीक्षा न लीजिये, कृपा कीजिये, बता दीजिये" मैंने कहा,
"बताता हूँ अभी" बोले बाबा,
उनके ये कहना कि बताता हूँ अभी ऐसा लगता था कि सारा कलयुग मेरे ही सर पर उतर आया है! ऐसा बोझ लगता था!
कविश ने फिर से गिलास भरे,
हमें दिए,
मैंने पकड़ा,
और झट से खींच गया, थोड़ी सी चटनी चाटी, फिर टुकड़ा उठाया, और चबा लिया!
"बाबा को एक दिन और एक रात हो चुकी थी, ये दूसरा दिन था, उस दिन खेमा शाम के समय कोई पांच बजे, उनको दूर से देख कर आ रहा था, एक नहर पड़ती है वहां, अक्सर ही पानी भरा रहता है उसमे, और देखो तो नदी सी प्रतीत होती है, उस नदी पर एक पुल बना था, पुल संकरा था, एक बुग्घी ही आ-जा सकती थी, वो उस पुल के बीच में था, हाथ में सरकंडा लिए, मिट्टी को खंगालता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, सामने देख नहीं रहा था, और जब देखा, तो कई लोग भागे आ रहे थे, जैसे सभी अपनी अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे हों! वो ठिठक कर एक तरफ खड़ा हो गया, उसे कुछ समझ नहीं आया, और जब आया तो देर हो चुकी थी, एक सांड भागा आ रहा था उस पुल पर, उसने बुग्घी तोड़ डाली थी और कुछ लोगों को घायल भी किया था, जो लोग बचे थे, वो वापिस भाग रहे थे, कुछ ने उसको भी कहा, वो इस से पहले समझता, उसको एक टक्कर पड़ी छाती में, वो बेचारा उस बहती नदी में जा गिरा, कुछ न बोल सका, और बह गया, नहर कि बीचोंबीच, तैरना आता नहीं था, चीख सकता नहीं था, छाती की पसलियां टूट चुकी थीं उसकी..............." वे इतना बोल, चुप हो गए....
चुप तो मैं भी हो गया,
कुर्सी से कमर टिका ली,
शर्मा जी ने लम्बी सांस छोड़ी,
और मैं उस पुल पर जा पहुंचा अपने ख़याल में!!
वो कुछ नहीं बोल सका था, घायल था बुरी तरह से, बेचारा, लाचार खेमा.......
एक लम्बी शान्ति छा गयी वहां, जैसे मौन-व्रत धारण कर लिया हो सभी ने, जैसे उस खेमा की आत्मा कि शान्ति के लिए, कोई होम चल रहा हो.....
बहुत बुरा!
सच में बहुत बुरा हुआ था उसके साथ!
मैं तो सोच कर ही सिहर गया था!
आखिर में वो चुप्पी मैंने ही तोड़ी.....
"किसी ने बचाया नहीं उसे?" मैंने पूछा,
"नहीं, कोई हिम्मत वाला नहीं था वहाँ, सब अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे, किसी कि नज़र गयी भी हो, तो पता नहीं, बहाव तेज था, कुछ ही पलों के कहाँ से कहाँ पहुँच गया था वो" वे बोले,
"बहुत बुरा हुआ उसके साथ" मैंने कहा,
"हाँ, बहुत बुरा" वे बोले,
तभी बाबा अमली का ध्यान आया मुझे!
"हाँ! वो बाबा अमली?" मैंने कहा,
अब चुप वे फिर से!
मैं उनका मुंह ताकूँ!
कविश ने गिलास भर दिया था, मैं एक ही झटके में खींच गया, आज तो मदिरा भी पानी जैसे लग रही थी मुझे, कोई नशा नहीं था उसमे,
"वो बाबा अमली?" मैंने पूछा,
"छोड़ आये थे वो क्रिया बीच में ही......"वे बोले,
"ओह..........अब समझ गया मैं, सब समझ गया मैं...." मैंने कहा,
और माथे पर दोनों हाथ रखे अपने!
करीब पांच मिनट शान्ति रही,
"उस दिन से, बाबा अमली टिक गए, न जीवन ही जी रहे हैं और न मौत ही आ रही है" बोले बाबा अमर अब,
"मैं समझ गया बाबा" मैंने कहा,
"पोते के प्रेम के कारण, अपना जीवन स्वाहा कर लिया उन्होंने, सब समझ गया मैं" मैंने कहा,
"उस खेमा कि लाश कभी नहीं मिली, बहुत ढूँढा, और इस से बाबा अमली के होंठ सदा के लिए खुलना भूल गए, वो आज भी वैसे है हैं, जिस रोज से वे टिके थे" बाबा अमर बोले,
सच में, बहुत ही दर्दनाक हादसा था ये,
बाबा अमली, आज क्यों इस हालत में हैं, अब समझ आ गया था मुझे!
"इसीलिए आपको बुलाया है हमने" वे बोले,
मैं चुप था...
वहीँ डूबा हुआ था अभी भी, उसी नहर में, जहां खेमा डूबा था....
मैंने बस गर्दन हिलायी अपनी!
कविश ने फिर से गिलास भरा और इस बार भी मैंने खींच लिया एक ही झटके में!
मैं उठा और आया बाहर, दिल भारी था बहुत, कितना लम्बा अरसा बीत गया था वो बोझ अपने कलेजे पर लिए बाबा अमली को, और आज ये हाल?
मैं उठा तो शर्मा जी भी उठ आये थे मेरे साथ, उन्होंने दो बीड़ियाँ सुलागयीं, एक मुझे दी और एक खुद ने ली.....बात कुछ नहीं हुई..बस धुंआ ही छोड़ते रहे हम.....
मैंने हिम्मत जुटाई, ताकि और प्रश्न पूछ सकूँ, शंकाओं का समाधान कर सकूँ, तब तक सहायक पानी और सामान ले आया था, बत्ती थी नहीं, इसीलिए हण्डा जल रहा था अपनी पूरी ताक़त से, और उसने अपने संगी साथियों को, जो की कीट-पतंगे थे, आमंत्रित कर लिया था! पट-पट की आवाज़ आती थी जब कोई धुरंधर उसके शीशे से टकराता था! और वैसे भी बाहर नमी थी, कीड़े मकौड़े आदि अपने अपने बिल छोड़, चूंकि वहाँ पानी घुस चुका था, सभी बाहर ही चहलकदमी कर रहे थे! बाहर गैलरी में तो जैसे उनकी मैराथन दौड़ का सा आयोजन था! वे लड़ भी रहे थे और होड़ भी लगा रहे थे एक दूसरे से, पंखों वाले कुछ कदम उड़ते और जहां पाँव जमते, वहीँ टिक जाते थे! आज बारिश नहीं थी, मौसम भी साफ़ ही था, बाहर झाँकने पर, आकाश में तारागण दीख रहे थे, लेकिन स्वयं तारापति, आच्छादित मेघों के बीच संधि करने में जुटे हुए थे!
"लीजिये" आवाज़ आई कविश की,
गिलास तैयार था, साथ में सलाद थी और टला हुआ मुर्गा था, उसके टुकड़े बहुत बड़े बड़े थे, लेकिन तला बेहतरीन गया था, साथ में हरी-मिर्च की चटनी भी थी!
मैंने गिलास लिया, शर्मा जी ने भी लिया, मैंने एक टुकड़ा उठाया, और शर्मा जी को दिया, उन्होंने लिया और फिर मैंने दूसरा टुकड़ा उठा लिया, थोड़ा सा चबाया और स्थान भोग देते हुए, मैंने गिलास अपने गले में उड़ेल लिया! फिर उस टुकड़े को चबाया, चटनी के साथ, चटनी ऐसी तीखी थी की मदिरा की धार से भी टक्कर ले गयी थी वो तो! तभी अचानक से बाबा अमली का ख़याल आया, और उनके उस पोते का, खेमा का,
"बाबा? क्या हुआ था खेमा को?" मैंने पूछा,
बाबा गिरि मदिरा के गिलास से स्थान-भोग दे रहे थे उस समय, मैंने प्रतीक्षा की, उनको देखा मैंने, कुछ मंत्र बुदबुदा रहे थे!
"बाबा खेमा को क्या हुआ था?" पूछा मैंने फिर से,
"बताता हूँ" बोले बाबा गिरि,
मेरी उत्सुकता की जैसे परीक्षा ले रहे थे बाबा!
"बाबा अमली माह में एक बार इस तृप्तिका को भोग अर्पित किया करते थे, ये तीन रात्रि की क्रिया हुआ करती थी, इसमें वो तृप्तिका उनकी समस्याएं का निबटारा किया करती, उनको गूढ़ ज्ञान दिया करती" वे बोले और रुके,
ये तो होता ही है, भोग अर्पित तो किया ही जाता है, जिसको सिद्ध किया हो, उसके संग ये ही नियम है, उसका पालन आवश्यक है करना!
"ऐसे ही एक बार बाबा उस क्रिया में लगे थे, ये तीन रात और तीन दिवस की अखंड क्रिया थी, इसमें बाबा न किसी से मिलते थे, और न कोई ये जानता था कि वो कहाँ है, वो अज्ञात में वास किया करते थे, बस एक ही था जो ये जानता था, उनका पोता खेमा! वो अपने दादा को दूर से बैठा देख, बहुत खुश हुआ करता था! रोज न देखे तो भोजन-अन्न सब त्याग दिया करता था! और जब बाबा आया करते थे वापिस, तो अपने दादा से, उनके हाथों से बना भोजन खाया करता था खेमा! कभी कभी तो वो इन तीन दिन और तीन रात तक कुछ खाता ही नहीं था! बीमार न हो जाए, इसका ख़याल रखा जाता, लेकिन वो भी ज़िद्दी था! अपने दादा कि तरह ही! नहीं खाना तो नहीं खाना!" वे बोले,
दादा-पोते के इस प्रेम को देख, मेरा तो रोम रोम पुलकित हो उठा था! ये नाता ही ऐसा है! इसमें पोते को अपना पिता नहीं, दादा ही सर्वोत्तम लगता है! वो बात जो पूरा घर नहीं जानेगा, वो दादा और दादी को अवश्य ही पता होगी! अपने पोते और पोती द्वारा! कुछ ऐसा ही था बाबा अमली और उनके इस पोते का प्रेम!
लेकिन अभी तक, ये नहीं पता चला था की आखिर उसे हुआ क्या था?
"क्या हुआ था उस बार?" मैंने पूछा,
"बहुत बुरा" वे बोले,
"क्या बुरा?" मैंने पूछा,
"बहुत ही बुरा" वे बोले,
लम्बी सांस छोड़ते हुए,
"बाबा, मेरी परीक्षा न लीजिये, कृपा कीजिये, बता दीजिये" मैंने कहा,
"बताता हूँ अभी" बोले बाबा,
उनके ये कहना कि बताता हूँ अभी ऐसा लगता था कि सारा कलयुग मेरे ही सर पर उतर आया है! ऐसा बोझ लगता था!
कविश ने फिर से गिलास भरे,
हमें दिए,
मैंने पकड़ा,
और झट से खींच गया, थोड़ी सी चटनी चाटी, फिर टुकड़ा उठाया, और चबा लिया!
"बाबा को एक दिन और एक रात हो चुकी थी, ये दूसरा दिन था, उस दिन खेमा शाम के समय कोई पांच बजे, उनको दूर से देख कर आ रहा था, एक नहर पड़ती है वहां, अक्सर ही पानी भरा रहता है उसमे, और देखो तो नदी सी प्रतीत होती है, उस नदी पर एक पुल बना था, पुल संकरा था, एक बुग्घी ही आ-जा सकती थी, वो उस पुल के बीच में था, हाथ में सरकंडा लिए, मिट्टी को खंगालता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, सामने देख नहीं रहा था, और जब देखा, तो कई लोग भागे आ रहे थे, जैसे सभी अपनी अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे हों! वो ठिठक कर एक तरफ खड़ा हो गया, उसे कुछ समझ नहीं आया, और जब आया तो देर हो चुकी थी, एक सांड भागा आ रहा था उस पुल पर, उसने बुग्घी तोड़ डाली थी और कुछ लोगों को घायल भी किया था, जो लोग बचे थे, वो वापिस भाग रहे थे, कुछ ने उसको भी कहा, वो इस से पहले समझता, उसको एक टक्कर पड़ी छाती में, वो बेचारा उस बहती नदी में जा गिरा, कुछ न बोल सका, और बह गया, नहर कि बीचोंबीच, तैरना आता नहीं था, चीख सकता नहीं था, छाती की पसलियां टूट चुकी थीं उसकी..............." वे इतना बोल, चुप हो गए....
चुप तो मैं भी हो गया,
कुर्सी से कमर टिका ली,
शर्मा जी ने लम्बी सांस छोड़ी,
और मैं उस पुल पर जा पहुंचा अपने ख़याल में!!
वो कुछ नहीं बोल सका था, घायल था बुरी तरह से, बेचारा, लाचार खेमा.......
एक लम्बी शान्ति छा गयी वहां, जैसे मौन-व्रत धारण कर लिया हो सभी ने, जैसे उस खेमा की आत्मा कि शान्ति के लिए, कोई होम चल रहा हो.....
बहुत बुरा!
सच में बहुत बुरा हुआ था उसके साथ!
मैं तो सोच कर ही सिहर गया था!
आखिर में वो चुप्पी मैंने ही तोड़ी.....
"किसी ने बचाया नहीं उसे?" मैंने पूछा,
"नहीं, कोई हिम्मत वाला नहीं था वहाँ, सब अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे, किसी कि नज़र गयी भी हो, तो पता नहीं, बहाव तेज था, कुछ ही पलों के कहाँ से कहाँ पहुँच गया था वो" वे बोले,
"बहुत बुरा हुआ उसके साथ" मैंने कहा,
"हाँ, बहुत बुरा" वे बोले,
तभी बाबा अमली का ध्यान आया मुझे!
"हाँ! वो बाबा अमली?" मैंने कहा,
अब चुप वे फिर से!
मैं उनका मुंह ताकूँ!
कविश ने गिलास भर दिया था, मैं एक ही झटके में खींच गया, आज तो मदिरा भी पानी जैसे लग रही थी मुझे, कोई नशा नहीं था उसमे,
"वो बाबा अमली?" मैंने पूछा,
"छोड़ आये थे वो क्रिया बीच में ही......"वे बोले,
"ओह..........अब समझ गया मैं, सब समझ गया मैं...." मैंने कहा,
और माथे पर दोनों हाथ रखे अपने!
करीब पांच मिनट शान्ति रही,
"उस दिन से, बाबा अमली टिक गए, न जीवन ही जी रहे हैं और न मौत ही आ रही है" बोले बाबा अमर अब,
"मैं समझ गया बाबा" मैंने कहा,
"पोते के प्रेम के कारण, अपना जीवन स्वाहा कर लिया उन्होंने, सब समझ गया मैं" मैंने कहा,
"उस खेमा कि लाश कभी नहीं मिली, बहुत ढूँढा, और इस से बाबा अमली के होंठ सदा के लिए खुलना भूल गए, वो आज भी वैसे है हैं, जिस रोज से वे टिके थे" बाबा अमर बोले,
सच में, बहुत ही दर्दनाक हादसा था ये,
बाबा अमली, आज क्यों इस हालत में हैं, अब समझ आ गया था मुझे!
"इसीलिए आपको बुलाया है हमने" वे बोले,
मैं चुप था...
वहीँ डूबा हुआ था अभी भी, उसी नहर में, जहां खेमा डूबा था....
मैंने बस गर्दन हिलायी अपनी!
कविश ने फिर से गिलास भरा और इस बार भी मैंने खींच लिया एक ही झटके में!
मैं उठा और आया बाहर, दिल भारी था बहुत, कितना लम्बा अरसा बीत गया था वो बोझ अपने कलेजे पर लिए बाबा अमली को, और आज ये हाल?
मैं उठा तो शर्मा जी भी उठ आये थे मेरे साथ, उन्होंने दो बीड़ियाँ सुलागयीं, एक मुझे दी और एक खुद ने ली.....बात कुछ नहीं हुई..बस धुंआ ही छोड़ते रहे हम.....
Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना
बीड़ियाँ खत्म हो गयीं, हमने उनकी पूरी जान निकाल ली थी, जितनी जान उनमे थी! जब ख़त्म हो आगयीं, तो फेंक दी बाहर मैदान में!
"बहुत बुरा हुआ बाबा अमली के साथ" बोले शर्मा जी,
"हाँ, बहुत बुरा" मैंने कहा,
"मैंने नहीं सोचा था कि ऐसा कुछ हुआ होगा उन बाबा अमली के साथ" बोले वो,
"मैंने भी नहीं सोचा था" मैंने कहा,
"क्या सोचा होगा बाबा ने और क्या हो गया" वो बोले,
"उनका दुःख बस वही जानते हैं" मैंने कहा,
"सच बात है, हम तो क़यास भर ही लगा सकते हैं" वो बोले,
मैंने गर्दन हिलाकर हाँ कही,
"आइये" वे बोले,
"चलो" मैंने कहा,
हम अंदर चले गए फिर,
आ बैठे अपनी अपनी कुर्सी पर,
हंडे को घेर रखा था कीड़े-मकौड़ों ने, कुछ शहीद हो चुके थे, वे नीचे पड़े थे, अपने हाथ पाँव ऊपर उठाये, कुछ अभी ज़िंदा थे, बस अंत के समय के पहाड़े पढ़ रहे थे, कोई कोई कभी कभार अपना हाथ या पाँव हिला देता था, दीवारों पर रेंगती छिपकलियों की तो दावत हो रही थी आजकल! खूब खाने को मिल रहा था लबालब! छोटे छोटे बच्चे उनके, अब शिकारी बन चुके थे पक्के!
कविश ने गिलास भर दिए थे फिर से, हमने उठाये, और इस बार मैंने आधा ही खींचा, और थोड़ा सा टुकड़ा खाया, चटनी के साथ. शर्मा जी ने खाली कर दिया था अपना गिलास, वे भी अब टुकड़ा उठा, खा रहे थे,
"बाबा अमली की उम्र क्या होगी अब?" मैंने पूछा बाबा गिरि से,
"कोई चौरानवें या पिचानवें बरस" वे बोले,
एक वृद्ध, बाट जोह रहा था मृत्यु की, और मृत्यु कहाँ थी, कुछ पता नहीं था! कैसी दयनीय हालत थी उनकी, वे मुक्त हो जाएँ, यही चाहते थे बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, और अब उनके साथ मैं भी! सच में, मैं भी यही चाटा था कि बाबा इस देह-बंधन और इस संसार से, और अपने उस दुःख से, सदा के लिए पार पा जाएँ, हो जाएँ मुक्त!
अब वो बुज़ुर्ग क्रिया भी नहीं कर सकते थे, शरीर कृशकाय था, बिन सहारे के तो उठ भी नहीं सकते थे, बैठा तो दूर, अपने बिस्तर पर, बस आँखें बंद किये प्रतीक्षा करते होंगे मृत्यु की, और कोई इच्छा शेष नहीं होगी उनमे! ये स्पष्ट था! बिन मांगे मोती मिले और मांगे मिले न भीख!
"आज बारिश में राहत है" बाबा गिरि बोले,
"हाँ, आज नहीं हुई" मैंने कहा,
"अगर कल सही रहे, तो बोलो, चला जाए वहाँ?" पूछा उन्होंने,
अब मैं मना कैसे करता!
"हाँ, चला जाए वहाँ" मैंने कहा,
लेकिन अभी भी एक प्रश्न और शेष था! और वो इस श्रृंखला में अंतिम प्रश्न ही होता! तो मैंने सही समय और क्षण की प्रतीक्षा की!
और वो क्षण आ गया!
बाबा अमर लेट गए थे और बाबा गिरि शर्मा जी से बीड़ी मांग रहे थे!
"बाबा?" मैंने पूछा,
बाबा बीड़ी का धुंआ छोड़ रहे थे!
"बोलो?" बोले वो,
"एक और प्रश्न है" मैंने कहा,
"पूछो" वे बोले,
"क्या बाबा ने, बाबा अमली ने आपसे कहा था कि आप उस तृप्तिका को साधें और उनको मुक्त करें?" मैंने कहा,
सवाल तीखा था! कुछ निजी भी!
लेटे हुए बाबा अमर नाथ उठ बैठे, कविश ने हाथ पकड़ कर उठाया उनको,
"हाँ, उन्होंने ही कहा था" बोले बाबा अमर,
मैं थोड़ा सा चौंक पड़ा था उनका उत्तर सुनकर,
"कब कहा था? मेरा अर्थ, कितने अरसे पहले?" मैंने पूछा,
"कोई चार साल पहले" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब मैंने अपना गिलास खुद ही बनाया, कहानी में रोचकता का अब चरम आ पहुंचा था! गिलास खाली किया और फिर से प्रश्न किया,
"क्या आपने साधा तृप्तिका को?" मैंने पूछा,
"प्रयास किया" वे बोले,
"प्रयास? मैं समझा नहीं?" मैंने कहा,
"हाँ प्रयास" वे बोले,
"क्या हुआ था?" मैंने पूछा!
अब बाबा ने मुझे एक हैरतअंगेज़ कहानी सुनाई! उनके शब्दों के अनुसार मैं उसको निम्न प्रकार से लिखूंगा!
----बाबा अमली ने, बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि को बुला भेजा था, बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, अपने अपने क्षेत्रों के पारंगत औघड़ थे, इसी कारण से ही, वो उनकी समस्या का हरण कर सकते थे! ऐसा बाबा अमली को लगता था! बाबा अमली ने, एक एक क्रिया-विधि उनको बता दी, सबसे पहले तो उन्हें एक रमास का पेड़ लगाना था, जो मात्र रक्त से ही सींचा जाता, रमास, जंगली रमास, उसी का पेड़, उन्होंने एक रमास का पौधा लगाया एक गुप्त-स्थान पर, ये स्थान भी बाबा अमली ने ही बताया था, वो स्थान आज भी गुप्त है, नैनीताल में नहीं है वो स्थान, वो नैनीताल तो बाद में आये थे, उनका पुत्र उन्हें ले आया था उस स्थान से, तो वो पौधा उस स्थान पर रोपा गया, एक बलि-कर्म के उपरान्त, अब इसकी देख-रेख के लिए कुछ सहायक नियुक्त किये गए, उसमे मात्र रक्त से ही रोपन किया जा सकता था, अतः यही किया गया, एक एक सहायक को उसका कार्य बता दिया, तब तक बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, उन विधियों और मंत्रों को कंठस्थ करते रहे! इसमें समय लगा, ऐसी क्रिया उन्होंने कभी नहीं की थी, और किसी चूक की गुंजाइश भी नहीं थी! पौधा बड़ा होने लगा, उसकी देख-रेख होने लगी उचित ढंग से, एक वर्ष बीता, पौधा मज़बूती से संवरने लगा! किसी बालक की तरह से उसका खयाल रखा जाता! इस प्रकार कोई ढाई वर्ष बीत गए, अब वो पौधा, पेड़ का रूप ले चुका था! युग्मा-क्रिया हेतु अब वो तैयार था! बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, हमेशा उसको देखते ही रहते, कुछ दिशा-निर्देश भी देते, इस प्रकार एक चबूतरा भी बनवा लिया गया वहाँ, साथ में ब्रह्म-अलख का स्थान भी, विधियां, मंत्र आदि भी कंठस्थ हो चुके थे दोनों को! और इस तरह बाबा अमली से सलाह-मशविरा हुई, और एक रात्रि से क्रिया आरम्भ करने हेतु, समय भी निश्चित हो गया, एक बाट और, बाबा अमर नाथ को कुछ और भी निर्देश दिए गए थे, उनका सख्ती से पालन करना था, नहीं तो कभी भी प्राण दान करने पड़ते उस युग्मा को, वो भी सहर्ष!
और आ गया वो समय! उस स्थान पर, कुटिया बना लीं गयी थीं! सहायक आदि और बाबा अमर नाथ के संग उनका भांजा कविश सदैव ही बना रहता! और इस प्रकार उस रात्रि से उस युग्मा के साधना आरम्भ की दोनों ही बाबाओं ने मिलकर! प्रत्येक रात्रि एक बलि-कर्म हुआ करता था! इस प्रकार वो क्रिया अपने उत्तरार्ध में आ पहुंची थी, कई रात्रि बीत चुकी थीं, सभी नियमों का पालन किया जा रहा था, जो भी आवश्यक नियम थे! और फिर आई वो निर्णायक रात्रि! जिस रात्रि उस युग्मा को प्रकट होना था! ये दोनों साधक, मुक्ति माँगना चाहते थे बाबा अमली की! बस इतना ही! चूंकि लम्बी आयु प्रदान तो कर ही दी थी उस युग्मा ने उन बाबा अमली को! अब कितनी आयु शेष है, इसका कोई पैमाना नहीं था, बस यही कि कैसे भी करके उनको मुक्ति मिले!
उस रात!!
उस रात वो स्थान जैसे चमचमा गया था! जैसे समस्त तारागण उस स्थान के ऊपर ही एकत्रित हो चले थे! जैसे उनका समूचा प्रकाश एकत्रित हो, उसी स्थान पर, उस पेड़ पर, और उन साधकों पर पड़ रहा था! रात्रि समय एक का समय हुआ होगा! अँधेरा अब अँधेरा शेष नहीं बचा था, अँधेरे को किसी अलौकिक सत्ता के आगमन की बेला ने चीर कर रख दिया था! साधक दम साधे उस बेला का ही इंतज़ार कर रहे थे! वो पेड़ और उसकी सखाकाएँ, सब झूम रही थीं! आज उसे स्वार्णाभूषण प्राप्त जो होने थे! करीब आधा घंटा और बीता, आकाश से श्वेत पुष्पों की बरसात आरम्भ होने लगी!
ठीक वैसे ही, जैसे बताया था बाबा अमली ने!
सुगंध! मादक सुगंध वाले पुष्प नीचे तैरते हुए आ रहे थे! कुछ गोल गोल घूमते हुए! कुछ तीव्र गति से, और कुछ आहिस्ता आहिस्ता! वो स्थान महक उठा! वो पुष्प कौन से थे, नहीं पता चल सका था, बस मधुमालती से से लगते थे! फिर तेज भीनी भीनी सुगंध वाली बयार! ठीक वैसी ही, जैसा बाबा अमली ने बताया था! साधकों के दिल मुंह को आ गए! कलेजा सीने में धधक उठा! उस शीतल माहौल में भी, उन दोनों साधकों की पेशानियों पर, पसीने छलछला आये! यही तो होता है! जब आराध्य का आगमन होता है, तो यही होता है! कभी कभार हृदय-गति भी रुक जाती है कई साधकों की! बहुतों ने ऐसे अपने प्राण गंवाएं हैं! मैं भी साक्षी हूँ इन घटनाओं का!
वही सब इनके साथ हो रहा था, वे मन्त्रों में बंधे थे, लेकिन उनके शरीर प्रकृति में! और प्रकृति अपना मूल कभी नहीं छोड़ती! इसीलिए डर और भय, देह-क्षति और मृत्यु सदैव साधकों के समक्ष नृत्य करते ही रहते हैं! वही सब हो रहा था!
सहसा ही एक दिव्य सुनहरा प्रकाश कौंधा!
साधक सिहर उठे! इस प्रकाश में एक अजीब सा शोर था! सागर की लहरों का सा शोर!
दोनों ही साधक उठ खड़े हुए! अपने दोनों हाथ जोड़े!
आकाश की ओर देखते हुए! जहां से ये प्रकाश कौंध रहा था! प्रकाश में शीतलता थी! ताप नाममात्र को नहीं था! आँखें चुंधिया जाएँ, ऐसा तेज प्रकाश था वो!
वायुप्रवाह तीव्र हो उठा!
वहाँ की मिट्टी उड़ चली, छोटे छोटे कंकड़-पत्थर उड़ने लगे! उनकी देह पर भी लगते! झाड़ियाँ, सूखी लकड़ियों की छालें, सब हवा में उड़ चलीं! लेकिन एक बात विशेष थी! वो पेड़, वो रमास का पेड़, शांत खड़ा था! उसको वायु हिला भी न सकी थी! दोनों ही साधकों ने ये देखा था!
और तभी बाबा अमर नाथ ने, वो अंतिम मंत्र पढ़े, जिस से उस युग्मा का स्वागत होना था! लेकिन मन में भय व्याप्त हो चला था दोनों के!
कुछ और पल बीते!
कुछ भयानक से पल!
पुष्प-वर्षा रुक चुकी थी तब तक!
और वे दोनों साधक! शांत खड़े थे! अपना धड़कता दिल लिए!
प्रकाश फिर से कौंधा!
वे फिर से काँप उठे!!!
"बहुत बुरा हुआ बाबा अमली के साथ" बोले शर्मा जी,
"हाँ, बहुत बुरा" मैंने कहा,
"मैंने नहीं सोचा था कि ऐसा कुछ हुआ होगा उन बाबा अमली के साथ" बोले वो,
"मैंने भी नहीं सोचा था" मैंने कहा,
"क्या सोचा होगा बाबा ने और क्या हो गया" वो बोले,
"उनका दुःख बस वही जानते हैं" मैंने कहा,
"सच बात है, हम तो क़यास भर ही लगा सकते हैं" वो बोले,
मैंने गर्दन हिलाकर हाँ कही,
"आइये" वे बोले,
"चलो" मैंने कहा,
हम अंदर चले गए फिर,
आ बैठे अपनी अपनी कुर्सी पर,
हंडे को घेर रखा था कीड़े-मकौड़ों ने, कुछ शहीद हो चुके थे, वे नीचे पड़े थे, अपने हाथ पाँव ऊपर उठाये, कुछ अभी ज़िंदा थे, बस अंत के समय के पहाड़े पढ़ रहे थे, कोई कोई कभी कभार अपना हाथ या पाँव हिला देता था, दीवारों पर रेंगती छिपकलियों की तो दावत हो रही थी आजकल! खूब खाने को मिल रहा था लबालब! छोटे छोटे बच्चे उनके, अब शिकारी बन चुके थे पक्के!
कविश ने गिलास भर दिए थे फिर से, हमने उठाये, और इस बार मैंने आधा ही खींचा, और थोड़ा सा टुकड़ा खाया, चटनी के साथ. शर्मा जी ने खाली कर दिया था अपना गिलास, वे भी अब टुकड़ा उठा, खा रहे थे,
"बाबा अमली की उम्र क्या होगी अब?" मैंने पूछा बाबा गिरि से,
"कोई चौरानवें या पिचानवें बरस" वे बोले,
एक वृद्ध, बाट जोह रहा था मृत्यु की, और मृत्यु कहाँ थी, कुछ पता नहीं था! कैसी दयनीय हालत थी उनकी, वे मुक्त हो जाएँ, यही चाहते थे बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, और अब उनके साथ मैं भी! सच में, मैं भी यही चाटा था कि बाबा इस देह-बंधन और इस संसार से, और अपने उस दुःख से, सदा के लिए पार पा जाएँ, हो जाएँ मुक्त!
अब वो बुज़ुर्ग क्रिया भी नहीं कर सकते थे, शरीर कृशकाय था, बिन सहारे के तो उठ भी नहीं सकते थे, बैठा तो दूर, अपने बिस्तर पर, बस आँखें बंद किये प्रतीक्षा करते होंगे मृत्यु की, और कोई इच्छा शेष नहीं होगी उनमे! ये स्पष्ट था! बिन मांगे मोती मिले और मांगे मिले न भीख!
"आज बारिश में राहत है" बाबा गिरि बोले,
"हाँ, आज नहीं हुई" मैंने कहा,
"अगर कल सही रहे, तो बोलो, चला जाए वहाँ?" पूछा उन्होंने,
अब मैं मना कैसे करता!
"हाँ, चला जाए वहाँ" मैंने कहा,
लेकिन अभी भी एक प्रश्न और शेष था! और वो इस श्रृंखला में अंतिम प्रश्न ही होता! तो मैंने सही समय और क्षण की प्रतीक्षा की!
और वो क्षण आ गया!
बाबा अमर लेट गए थे और बाबा गिरि शर्मा जी से बीड़ी मांग रहे थे!
"बाबा?" मैंने पूछा,
बाबा बीड़ी का धुंआ छोड़ रहे थे!
"बोलो?" बोले वो,
"एक और प्रश्न है" मैंने कहा,
"पूछो" वे बोले,
"क्या बाबा ने, बाबा अमली ने आपसे कहा था कि आप उस तृप्तिका को साधें और उनको मुक्त करें?" मैंने कहा,
सवाल तीखा था! कुछ निजी भी!
लेटे हुए बाबा अमर नाथ उठ बैठे, कविश ने हाथ पकड़ कर उठाया उनको,
"हाँ, उन्होंने ही कहा था" बोले बाबा अमर,
मैं थोड़ा सा चौंक पड़ा था उनका उत्तर सुनकर,
"कब कहा था? मेरा अर्थ, कितने अरसे पहले?" मैंने पूछा,
"कोई चार साल पहले" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब मैंने अपना गिलास खुद ही बनाया, कहानी में रोचकता का अब चरम आ पहुंचा था! गिलास खाली किया और फिर से प्रश्न किया,
"क्या आपने साधा तृप्तिका को?" मैंने पूछा,
"प्रयास किया" वे बोले,
"प्रयास? मैं समझा नहीं?" मैंने कहा,
"हाँ प्रयास" वे बोले,
"क्या हुआ था?" मैंने पूछा!
अब बाबा ने मुझे एक हैरतअंगेज़ कहानी सुनाई! उनके शब्दों के अनुसार मैं उसको निम्न प्रकार से लिखूंगा!
----बाबा अमली ने, बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि को बुला भेजा था, बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, अपने अपने क्षेत्रों के पारंगत औघड़ थे, इसी कारण से ही, वो उनकी समस्या का हरण कर सकते थे! ऐसा बाबा अमली को लगता था! बाबा अमली ने, एक एक क्रिया-विधि उनको बता दी, सबसे पहले तो उन्हें एक रमास का पेड़ लगाना था, जो मात्र रक्त से ही सींचा जाता, रमास, जंगली रमास, उसी का पेड़, उन्होंने एक रमास का पौधा लगाया एक गुप्त-स्थान पर, ये स्थान भी बाबा अमली ने ही बताया था, वो स्थान आज भी गुप्त है, नैनीताल में नहीं है वो स्थान, वो नैनीताल तो बाद में आये थे, उनका पुत्र उन्हें ले आया था उस स्थान से, तो वो पौधा उस स्थान पर रोपा गया, एक बलि-कर्म के उपरान्त, अब इसकी देख-रेख के लिए कुछ सहायक नियुक्त किये गए, उसमे मात्र रक्त से ही रोपन किया जा सकता था, अतः यही किया गया, एक एक सहायक को उसका कार्य बता दिया, तब तक बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, उन विधियों और मंत्रों को कंठस्थ करते रहे! इसमें समय लगा, ऐसी क्रिया उन्होंने कभी नहीं की थी, और किसी चूक की गुंजाइश भी नहीं थी! पौधा बड़ा होने लगा, उसकी देख-रेख होने लगी उचित ढंग से, एक वर्ष बीता, पौधा मज़बूती से संवरने लगा! किसी बालक की तरह से उसका खयाल रखा जाता! इस प्रकार कोई ढाई वर्ष बीत गए, अब वो पौधा, पेड़ का रूप ले चुका था! युग्मा-क्रिया हेतु अब वो तैयार था! बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, हमेशा उसको देखते ही रहते, कुछ दिशा-निर्देश भी देते, इस प्रकार एक चबूतरा भी बनवा लिया गया वहाँ, साथ में ब्रह्म-अलख का स्थान भी, विधियां, मंत्र आदि भी कंठस्थ हो चुके थे दोनों को! और इस तरह बाबा अमली से सलाह-मशविरा हुई, और एक रात्रि से क्रिया आरम्भ करने हेतु, समय भी निश्चित हो गया, एक बाट और, बाबा अमर नाथ को कुछ और भी निर्देश दिए गए थे, उनका सख्ती से पालन करना था, नहीं तो कभी भी प्राण दान करने पड़ते उस युग्मा को, वो भी सहर्ष!
और आ गया वो समय! उस स्थान पर, कुटिया बना लीं गयी थीं! सहायक आदि और बाबा अमर नाथ के संग उनका भांजा कविश सदैव ही बना रहता! और इस प्रकार उस रात्रि से उस युग्मा के साधना आरम्भ की दोनों ही बाबाओं ने मिलकर! प्रत्येक रात्रि एक बलि-कर्म हुआ करता था! इस प्रकार वो क्रिया अपने उत्तरार्ध में आ पहुंची थी, कई रात्रि बीत चुकी थीं, सभी नियमों का पालन किया जा रहा था, जो भी आवश्यक नियम थे! और फिर आई वो निर्णायक रात्रि! जिस रात्रि उस युग्मा को प्रकट होना था! ये दोनों साधक, मुक्ति माँगना चाहते थे बाबा अमली की! बस इतना ही! चूंकि लम्बी आयु प्रदान तो कर ही दी थी उस युग्मा ने उन बाबा अमली को! अब कितनी आयु शेष है, इसका कोई पैमाना नहीं था, बस यही कि कैसे भी करके उनको मुक्ति मिले!
उस रात!!
उस रात वो स्थान जैसे चमचमा गया था! जैसे समस्त तारागण उस स्थान के ऊपर ही एकत्रित हो चले थे! जैसे उनका समूचा प्रकाश एकत्रित हो, उसी स्थान पर, उस पेड़ पर, और उन साधकों पर पड़ रहा था! रात्रि समय एक का समय हुआ होगा! अँधेरा अब अँधेरा शेष नहीं बचा था, अँधेरे को किसी अलौकिक सत्ता के आगमन की बेला ने चीर कर रख दिया था! साधक दम साधे उस बेला का ही इंतज़ार कर रहे थे! वो पेड़ और उसकी सखाकाएँ, सब झूम रही थीं! आज उसे स्वार्णाभूषण प्राप्त जो होने थे! करीब आधा घंटा और बीता, आकाश से श्वेत पुष्पों की बरसात आरम्भ होने लगी!
ठीक वैसे ही, जैसे बताया था बाबा अमली ने!
सुगंध! मादक सुगंध वाले पुष्प नीचे तैरते हुए आ रहे थे! कुछ गोल गोल घूमते हुए! कुछ तीव्र गति से, और कुछ आहिस्ता आहिस्ता! वो स्थान महक उठा! वो पुष्प कौन से थे, नहीं पता चल सका था, बस मधुमालती से से लगते थे! फिर तेज भीनी भीनी सुगंध वाली बयार! ठीक वैसी ही, जैसा बाबा अमली ने बताया था! साधकों के दिल मुंह को आ गए! कलेजा सीने में धधक उठा! उस शीतल माहौल में भी, उन दोनों साधकों की पेशानियों पर, पसीने छलछला आये! यही तो होता है! जब आराध्य का आगमन होता है, तो यही होता है! कभी कभार हृदय-गति भी रुक जाती है कई साधकों की! बहुतों ने ऐसे अपने प्राण गंवाएं हैं! मैं भी साक्षी हूँ इन घटनाओं का!
वही सब इनके साथ हो रहा था, वे मन्त्रों में बंधे थे, लेकिन उनके शरीर प्रकृति में! और प्रकृति अपना मूल कभी नहीं छोड़ती! इसीलिए डर और भय, देह-क्षति और मृत्यु सदैव साधकों के समक्ष नृत्य करते ही रहते हैं! वही सब हो रहा था!
सहसा ही एक दिव्य सुनहरा प्रकाश कौंधा!
साधक सिहर उठे! इस प्रकाश में एक अजीब सा शोर था! सागर की लहरों का सा शोर!
दोनों ही साधक उठ खड़े हुए! अपने दोनों हाथ जोड़े!
आकाश की ओर देखते हुए! जहां से ये प्रकाश कौंध रहा था! प्रकाश में शीतलता थी! ताप नाममात्र को नहीं था! आँखें चुंधिया जाएँ, ऐसा तेज प्रकाश था वो!
वायुप्रवाह तीव्र हो उठा!
वहाँ की मिट्टी उड़ चली, छोटे छोटे कंकड़-पत्थर उड़ने लगे! उनकी देह पर भी लगते! झाड़ियाँ, सूखी लकड़ियों की छालें, सब हवा में उड़ चलीं! लेकिन एक बात विशेष थी! वो पेड़, वो रमास का पेड़, शांत खड़ा था! उसको वायु हिला भी न सकी थी! दोनों ही साधकों ने ये देखा था!
और तभी बाबा अमर नाथ ने, वो अंतिम मंत्र पढ़े, जिस से उस युग्मा का स्वागत होना था! लेकिन मन में भय व्याप्त हो चला था दोनों के!
कुछ और पल बीते!
कुछ भयानक से पल!
पुष्प-वर्षा रुक चुकी थी तब तक!
और वे दोनों साधक! शांत खड़े थे! अपना धड़कता दिल लिए!
प्रकाश फिर से कौंधा!
वे फिर से काँप उठे!!!
Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना
प्रकाश फैला था, हरा और सुनहरी सा! आकाश जैसे नीचे खिसक आया था उस समय! बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, साँसें थामे इस अलौकिक दृश्य को अपनी आँखों से देख रहे थे! भोग आदि पहले से ही सजा दिए गए थे! अलख भी जैसे प्रतीक्षा में थी! वो एक ओर झुकी हुई, लपलपा रही थी! एक अजीब सा शोर व्याप्त था वहाँ, जैसा कि मैंने पहले लिखा, सागर की लहरों जैसा, लेकिन वे लहरें शांत नहीं, उपद्रवी थीं! ऐसा शोर था, शीतलता ने पाँव पसार रखे थे! पल पल बहुत भारी था काटने के लिए! और फिर ये तो युग्मा थी! वेत्ता और नखाकेशी का संयुक्त रूप! ऐसा रूप जिसकी कल्पना भी नहीं की थे उन दोनों ही साधकों ने! कल्पना तो छोड़िये, कल्पना-चित्रण भी सम्भव नहीं हो सकता था! वो तो बस इतना जानते थे कि वही सब होगा, जैसा बताया था बाबा अमली ने उन्हें!
तभी जैसे जल से भरे गागर छलके! अपने चारों ओर देखा उन्होंने! आवाज़ बहुत स्पष्ट थी! सुगंध अत्यंत ही तीव्र हो उठी थी! ऐसी कि नथुनों में घुसे तो और कोई गंध ही न आये! और अगले ही पल, शान्ति छा गयी! वायु-प्रवाह बंद हो गया! सन्नाटा पसर गया वहाँ! निर्जीवता का राज सा कायम हो गया! प्रतीक जीवित वस्तु अथवा पेड़-पौधे, जैसे सब जड़ हो गए! और प्रकाश की एक सफेद सी रेखा आकाश के मध्य से नीचे भूमि पर, एक चक्र का सा रूप लेने लगी! ये चक्र भूमि से कुछ ऊपर ही था, उस स्थान के मध्य ही, उन दोनों से कोई बारह फ़ीट दूर! ये चक्र प्रकाश के कणों द्वारा बना था, ऐसा लगता था! वे कण ऐसे थे, जो एक दूसरे गुंथे हुए थे! ऐसा दृश्य तो उन साधकों ने कभी नहीं देखा था! और इसी कारण से उनकी साँसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे हाँ, वहाँ की प्रत्येक वस्तु प्रकाश में नहायी हुई थी! अचानक से फिर से पुष्प-वर्षा आरम्भ हुई! और वो चक्र अब जैसे पूर्ण हो गया! वो रेखा जैसे उस चक्र को बनाने के लिए पूरी की पूरी उसी चक्र में फ़ना हो गयी थी! उस चक्र का परिमाप करीब दस फ़ीट रहा होगा! रंग में भूरा और पीला सा ये चक्र, अब घूम भी नहीं रहा था, बस झिलमिला रहा था! और अगले ही पल, उस चक्र में, वलय सा प्रकट हुआ और उस वलय में, अब उत्थान सा हुआ! कुछ कण ऊपर से उठे, और लेने लगे घूमते हुए एक आकृति का रूप! वे दोनों साधक मुंह फाड़े, इस सभी अलौकिक दृश्य को देख रहे थे! बाबा अमर नाथ को यहां एक मंत्र बोलना था, बाबा अमर नाथ ने वो मंत्र पढ़ा, और फिर उन्होंने क्या देखा!! देखा, वो आकृति एक स्त्री का रूप लेने लगी! धीरे धीरे, उस स्त्री की काया कोई दस फ़ीट रही होगी कम से कम, जैसा कि बाबा अमर नाथ ने बताया था! और जब वो आकृति पूर्ण हुई, तो उन्होंने जो देखा, वो इस संसार में कहीं नहीं देखा था! वो अप्सरा भी नहीं थी! वो यक्षिणी भी नहीं थी! वो कोई देव कन्या भी नहीं थी और न ही कोई आसुरिक कन्या! वो कोई विशिष्ट ही थी! पुष्ट देह, उन्नत ग्रीवा और वक्ष-स्थल, श्वेत वस्त्रों में जैसे कई अप्सराओं ने सृजन कर एक महा-अप्सरा का रूप लिया हो! ऐसा रूप-श्रृंगार तो उन्होंने कल्पना में भी नहीं सोचा था! बाबा अमली ने सिद्ध किया था उसको! कैसे विलक्षण बाबा रहे होंगे वो अमली बाबा! कैसे विलक्षण! कल्पना से भी परे! शब्द नहीं बाँध सकते थे उस अनुपम सौंदर्य को, उस दैविक सौंदर्य को! ये संसार तो नगण्य था उसके लिए! फिर भी, मंत्र-शक्ति में बंधी वो युग्मा का आगमन हो चुका था! दोनों ही साधकों ने शीश झुकाया! अपने उद्देश्य से बस, कुछ ही पल दूर थे! साधक आगे बढ़े! आगे बढ़ते ही घुटनों पर बैठ गए अपने! हाथ जोड़े, अपनी गर्दनें ऊपर करते हुए, देखते रहे उस युग्मा को! समय जैसे स्थिर हो चुका था! जैसे वो भी, इस विशेष दृश्य को निहारने के लिए स्वयं ही रुक गया था! सबकुछ जैसे बहुत धीमे धीमे हो रहा था! जैसे एक एक करके, मोती खुलते जा रहे थे! मोती, माला से!
मित्रगण! उसके पश्चात जो हुआ, उसका स्पष्टीकरण न तो बाबा अमर नाथ के पास था और न ही बाबा गिरि के पास! बस इतना याद है कि, उस युग्मा ने प्रयोजन पूछा उसके आगमन का, बस, यहीं अटक गए बाबा अमर नाथ! इस समय की उस विशेष लघु-संधि पर, अटक गए थे! आप स्वयं ही समझ सकते हैं कि क्यों! वो बाबा अमली की मुक्ति के लिए ही ये क्रिया कर रहे थे, और जब क्रिया अपने पूर्णावस्था को प्राप्त होने ही वाली थी, बाबा अमर नाथ अटक गए! उनके मन में दो-फाड़ हो गए! और अगले ही पल, वो प्रकाश एक बिंदु ने परिवर्तित हो गया! अब न वहां वो उज्जवल प्रकाश ही था और न ही वो युग्मा! न वो चक्र, और न वो वो बिंदु! घुप्प अँधेरा हो चला था! और अगले ही पल जो हुआ, बस उसी का प्रकाश फैला था! एक तेज धमाके के साथ वो रमास का पेड़, चीथड़े चीथड़े हो गया! क्या तना, क्या शाख, क्या पत्ते, और क्या जड़! सब अग्नि के मुख में समा गए! आग ने सब लीले लिया वहाँ! वे साधक, अपने अपने प्राण बचाने के लिए भाग छूटे वहाँ से! अग्नि के अंगार उनके बदन पर भी गिरे थे, वे भागे तो सामने ही एक तालाब सा था, उसमे पानी था शेष अभी, वे लपक कर कूद गए उस तालाब में! और इस तरह से प्राण बचाये अपने! प्राण बच गए थे, देह सुरक्षित थी! इसी का संतोष था उन्हें!
अब दो-फाड़ मन कैसे हुआ?
क्या सोच लिया था बाबा अमर नाथ ने?
बाबा गिरि ने क्या सोचा?
युग्मा ने क्या भांपा?
अब ये प्रश्न उठ खड़े हुए थे!
लेकिन, इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं आप और मैं जानते हैं! सरल हैं! मानव-वृति को ज़ाहिर करते हैं! मानव लाख चाहे, अपनी मनोवृत्तियों को दबा तो सकता है, लेकिन उनका मूल नाश नहीं कर सकता!
लालच!
बाबा अमर नाथ के मन में लालच घुसा! काश, ये युग्मा सिद्ध हो उनसे! काश ऐसा ही हो! ऐसा हुआ, तो बाबा अमली को भी मुक्त करवा ही देंगे वो! उर भांपा क्या युग्मा ने? लालच की गंध! ऐसे कौन सी शक्ति है, जिसे अपने साधक की वृति न पता हो? और फिर, उसका आगमन किसलिए हुआ था? मात्र बाबा अमली के लिए! और हुआ क्या? सब सामने ही था!
बाबा के मन में लालच, स्वार्थ घुसा! कोई नयी बात नहीं! अक्सर ऐसा होता है! कोई और होता तो उस युग्मा के दर्शन के पश्चात ऐसा ही होता! भूल जाता वो कि उद्देश्य क्या है उसका! मुझे आश्चर्य नहीं हुआ! रत्ती भर भी नहीं! कोई बात नहीं! लेकिन, बाबा अमर नाथ अब इस जीवन में तो, कभी आह्वान नहीं कर सकते थे उस युग्मा का! उन्होंने अपना हक़ खो दिया था! जो मात्र एक बार ही उपलब्ध होता है!
और अब बुलाया था मुझे, मेरे बारे में जानते थे वो, शंकर बाबा, दौला बाबा आदि ने बताया था उनको, श्री श्री श्री से भी कई बार मिले थे वे! इसी कारण से बुलाया था मुझे!
ये थी वो कहानी!
कहानी सुनी!
कमरे में शान्ति पसर गयी थी! सभी नज़रें बचा रहे थे, बाबा अमर नाथ आँखों पर हाथ धरे चुपचाप बैठे थे, बाबा गिरि, चेहरे को हाथ पर टिकाये, कोहनी को टेबल पर रखे, आँखें बंद किये बैठे थे! कविश, चुपचाप बैठा था, मैं मेज़ पर रखे हुए उस सलाद को देखे जा रहा था, जिस पर छिड़का नमक अब पानी बन चुका था! शर्मा जी, बाहर झाँक रहे थे!
तभी गिलास में मदिरा परोसने की आवाज़ आई!
कविश ने गिलास में मदिरा डाल दी थी,
"लीजिये" बोला वो,
मैंने गिलास लिया,
शर्मा जी को दिया,
फिर अपना गिलास उठाया,
सिप किया, सलाद का एक टुकड़ा उठाया, और चबाया, चबाने की आवाज़ ऐसी आई जैसे चुप्पी में सेंध लगा दी हो!
"आप समझ गए कि क्या प्रयास?" बाबा गिरि का स्वर आया,
"आ गया समझ" मैंने कहा,
मैंने कहा, और शब्द न थे, क्या कहता!
और एक घूँट भरा!
"अब अपनी राय दीजिये?" बोले बाबा,
मैं मुस्कुराया!
वे हैरत में पड़े! सच में, आँखें चौड़ी करते हुए मुझे देखा!
"बताइये?" बोले वो!
"प्रयास!" मैंने कहा,
"प्रयास?" वे बोले,
"हाँ, प्रयास करूँगा मैं!" मैंने कहा,
बाबा गिरि उठे, मेरे पास आये, मेरे कंधे पर हाथ रखा,
मैंने देखा उन्हें, आँखों में मायूसी ने घर जमा लिया था!
"बैठिये" मैंने कहा,
मेरे साथ ही, मेज़ पर, बैठ गए वो!
"मैं तैयार हूँ" मैंने कहा,
बाबा गिरि की आँखों में, एक चमक सी उठी!
वो चमक, एक किरण थी, एक आशा की किरण!!
तभी जैसे जल से भरे गागर छलके! अपने चारों ओर देखा उन्होंने! आवाज़ बहुत स्पष्ट थी! सुगंध अत्यंत ही तीव्र हो उठी थी! ऐसी कि नथुनों में घुसे तो और कोई गंध ही न आये! और अगले ही पल, शान्ति छा गयी! वायु-प्रवाह बंद हो गया! सन्नाटा पसर गया वहाँ! निर्जीवता का राज सा कायम हो गया! प्रतीक जीवित वस्तु अथवा पेड़-पौधे, जैसे सब जड़ हो गए! और प्रकाश की एक सफेद सी रेखा आकाश के मध्य से नीचे भूमि पर, एक चक्र का सा रूप लेने लगी! ये चक्र भूमि से कुछ ऊपर ही था, उस स्थान के मध्य ही, उन दोनों से कोई बारह फ़ीट दूर! ये चक्र प्रकाश के कणों द्वारा बना था, ऐसा लगता था! वे कण ऐसे थे, जो एक दूसरे गुंथे हुए थे! ऐसा दृश्य तो उन साधकों ने कभी नहीं देखा था! और इसी कारण से उनकी साँसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे हाँ, वहाँ की प्रत्येक वस्तु प्रकाश में नहायी हुई थी! अचानक से फिर से पुष्प-वर्षा आरम्भ हुई! और वो चक्र अब जैसे पूर्ण हो गया! वो रेखा जैसे उस चक्र को बनाने के लिए पूरी की पूरी उसी चक्र में फ़ना हो गयी थी! उस चक्र का परिमाप करीब दस फ़ीट रहा होगा! रंग में भूरा और पीला सा ये चक्र, अब घूम भी नहीं रहा था, बस झिलमिला रहा था! और अगले ही पल, उस चक्र में, वलय सा प्रकट हुआ और उस वलय में, अब उत्थान सा हुआ! कुछ कण ऊपर से उठे, और लेने लगे घूमते हुए एक आकृति का रूप! वे दोनों साधक मुंह फाड़े, इस सभी अलौकिक दृश्य को देख रहे थे! बाबा अमर नाथ को यहां एक मंत्र बोलना था, बाबा अमर नाथ ने वो मंत्र पढ़ा, और फिर उन्होंने क्या देखा!! देखा, वो आकृति एक स्त्री का रूप लेने लगी! धीरे धीरे, उस स्त्री की काया कोई दस फ़ीट रही होगी कम से कम, जैसा कि बाबा अमर नाथ ने बताया था! और जब वो आकृति पूर्ण हुई, तो उन्होंने जो देखा, वो इस संसार में कहीं नहीं देखा था! वो अप्सरा भी नहीं थी! वो यक्षिणी भी नहीं थी! वो कोई देव कन्या भी नहीं थी और न ही कोई आसुरिक कन्या! वो कोई विशिष्ट ही थी! पुष्ट देह, उन्नत ग्रीवा और वक्ष-स्थल, श्वेत वस्त्रों में जैसे कई अप्सराओं ने सृजन कर एक महा-अप्सरा का रूप लिया हो! ऐसा रूप-श्रृंगार तो उन्होंने कल्पना में भी नहीं सोचा था! बाबा अमली ने सिद्ध किया था उसको! कैसे विलक्षण बाबा रहे होंगे वो अमली बाबा! कैसे विलक्षण! कल्पना से भी परे! शब्द नहीं बाँध सकते थे उस अनुपम सौंदर्य को, उस दैविक सौंदर्य को! ये संसार तो नगण्य था उसके लिए! फिर भी, मंत्र-शक्ति में बंधी वो युग्मा का आगमन हो चुका था! दोनों ही साधकों ने शीश झुकाया! अपने उद्देश्य से बस, कुछ ही पल दूर थे! साधक आगे बढ़े! आगे बढ़ते ही घुटनों पर बैठ गए अपने! हाथ जोड़े, अपनी गर्दनें ऊपर करते हुए, देखते रहे उस युग्मा को! समय जैसे स्थिर हो चुका था! जैसे वो भी, इस विशेष दृश्य को निहारने के लिए स्वयं ही रुक गया था! सबकुछ जैसे बहुत धीमे धीमे हो रहा था! जैसे एक एक करके, मोती खुलते जा रहे थे! मोती, माला से!
मित्रगण! उसके पश्चात जो हुआ, उसका स्पष्टीकरण न तो बाबा अमर नाथ के पास था और न ही बाबा गिरि के पास! बस इतना याद है कि, उस युग्मा ने प्रयोजन पूछा उसके आगमन का, बस, यहीं अटक गए बाबा अमर नाथ! इस समय की उस विशेष लघु-संधि पर, अटक गए थे! आप स्वयं ही समझ सकते हैं कि क्यों! वो बाबा अमली की मुक्ति के लिए ही ये क्रिया कर रहे थे, और जब क्रिया अपने पूर्णावस्था को प्राप्त होने ही वाली थी, बाबा अमर नाथ अटक गए! उनके मन में दो-फाड़ हो गए! और अगले ही पल, वो प्रकाश एक बिंदु ने परिवर्तित हो गया! अब न वहां वो उज्जवल प्रकाश ही था और न ही वो युग्मा! न वो चक्र, और न वो वो बिंदु! घुप्प अँधेरा हो चला था! और अगले ही पल जो हुआ, बस उसी का प्रकाश फैला था! एक तेज धमाके के साथ वो रमास का पेड़, चीथड़े चीथड़े हो गया! क्या तना, क्या शाख, क्या पत्ते, और क्या जड़! सब अग्नि के मुख में समा गए! आग ने सब लीले लिया वहाँ! वे साधक, अपने अपने प्राण बचाने के लिए भाग छूटे वहाँ से! अग्नि के अंगार उनके बदन पर भी गिरे थे, वे भागे तो सामने ही एक तालाब सा था, उसमे पानी था शेष अभी, वे लपक कर कूद गए उस तालाब में! और इस तरह से प्राण बचाये अपने! प्राण बच गए थे, देह सुरक्षित थी! इसी का संतोष था उन्हें!
अब दो-फाड़ मन कैसे हुआ?
क्या सोच लिया था बाबा अमर नाथ ने?
बाबा गिरि ने क्या सोचा?
युग्मा ने क्या भांपा?
अब ये प्रश्न उठ खड़े हुए थे!
लेकिन, इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं आप और मैं जानते हैं! सरल हैं! मानव-वृति को ज़ाहिर करते हैं! मानव लाख चाहे, अपनी मनोवृत्तियों को दबा तो सकता है, लेकिन उनका मूल नाश नहीं कर सकता!
लालच!
बाबा अमर नाथ के मन में लालच घुसा! काश, ये युग्मा सिद्ध हो उनसे! काश ऐसा ही हो! ऐसा हुआ, तो बाबा अमली को भी मुक्त करवा ही देंगे वो! उर भांपा क्या युग्मा ने? लालच की गंध! ऐसे कौन सी शक्ति है, जिसे अपने साधक की वृति न पता हो? और फिर, उसका आगमन किसलिए हुआ था? मात्र बाबा अमली के लिए! और हुआ क्या? सब सामने ही था!
बाबा के मन में लालच, स्वार्थ घुसा! कोई नयी बात नहीं! अक्सर ऐसा होता है! कोई और होता तो उस युग्मा के दर्शन के पश्चात ऐसा ही होता! भूल जाता वो कि उद्देश्य क्या है उसका! मुझे आश्चर्य नहीं हुआ! रत्ती भर भी नहीं! कोई बात नहीं! लेकिन, बाबा अमर नाथ अब इस जीवन में तो, कभी आह्वान नहीं कर सकते थे उस युग्मा का! उन्होंने अपना हक़ खो दिया था! जो मात्र एक बार ही उपलब्ध होता है!
और अब बुलाया था मुझे, मेरे बारे में जानते थे वो, शंकर बाबा, दौला बाबा आदि ने बताया था उनको, श्री श्री श्री से भी कई बार मिले थे वे! इसी कारण से बुलाया था मुझे!
ये थी वो कहानी!
कहानी सुनी!
कमरे में शान्ति पसर गयी थी! सभी नज़रें बचा रहे थे, बाबा अमर नाथ आँखों पर हाथ धरे चुपचाप बैठे थे, बाबा गिरि, चेहरे को हाथ पर टिकाये, कोहनी को टेबल पर रखे, आँखें बंद किये बैठे थे! कविश, चुपचाप बैठा था, मैं मेज़ पर रखे हुए उस सलाद को देखे जा रहा था, जिस पर छिड़का नमक अब पानी बन चुका था! शर्मा जी, बाहर झाँक रहे थे!
तभी गिलास में मदिरा परोसने की आवाज़ आई!
कविश ने गिलास में मदिरा डाल दी थी,
"लीजिये" बोला वो,
मैंने गिलास लिया,
शर्मा जी को दिया,
फिर अपना गिलास उठाया,
सिप किया, सलाद का एक टुकड़ा उठाया, और चबाया, चबाने की आवाज़ ऐसी आई जैसे चुप्पी में सेंध लगा दी हो!
"आप समझ गए कि क्या प्रयास?" बाबा गिरि का स्वर आया,
"आ गया समझ" मैंने कहा,
मैंने कहा, और शब्द न थे, क्या कहता!
और एक घूँट भरा!
"अब अपनी राय दीजिये?" बोले बाबा,
मैं मुस्कुराया!
वे हैरत में पड़े! सच में, आँखें चौड़ी करते हुए मुझे देखा!
"बताइये?" बोले वो!
"प्रयास!" मैंने कहा,
"प्रयास?" वे बोले,
"हाँ, प्रयास करूँगा मैं!" मैंने कहा,
बाबा गिरि उठे, मेरे पास आये, मेरे कंधे पर हाथ रखा,
मैंने देखा उन्हें, आँखों में मायूसी ने घर जमा लिया था!
"बैठिये" मैंने कहा,
मेरे साथ ही, मेज़ पर, बैठ गए वो!
"मैं तैयार हूँ" मैंने कहा,
बाबा गिरि की आँखों में, एक चमक सी उठी!
वो चमक, एक किरण थी, एक आशा की किरण!!