Re: गोदान -प्रेमचंद
Posted: 29 Dec 2014 19:09
रायसाहब ने आपत्ति के भाव से कहा - बहन तो मालती ही की है।
मेहता ने गर्म हो कर कहा - मालती की बहन होना क्या अपमान की बात है? मालती को आपने जाना नहीं, और न जानने की परवा की। मैंने भी यही समझा था, लेकिन अब मालूम हुआ कि वह आग में पड़ कर चमकने वाली सच्ची धातु है। वह उन वीरों में है, जो अवसर पड़ने पर अपने जौहर दिखाते हैं, तलवार घुमाते नहीं चलते। आपको मालूम है, खन्ना की आजकल क्या दशा है?
रायसाहब ने सहानुभूति के भाव से सिर हिला कर कहा - सुन चुका हूँ, और बार-बार इच्छा हुई कि उससे मिलूँ, लेकिन फुरसत न मिली। उस मिल में आग लगना उनके सर्वनाश का कारण हो गया।
'जी हाँ। अब वह एक तरह से दोस्तों की दया पर अपना निर्वाह कर रहे हैं। उस पर गोविंदी महीनों से बीमार है। उसने खन्ना पर अपने को बलिदान कर दिया, उस पशु पर जिसने हमेशा उसे जलाया। अब वह मर रही है। और मालती रात की रात उसके सिरहाने बैठी रह जाती है - वही मालती, जो किसी राजा-रईस से पाँच सौ फीस पा कर भी रात-भर न बैठेगी। खन्ना के छोटे बच्चों को पालने का भार भी मालती पर है। यह मातृत्व उसमें कहाँ सोया हुआ था, मालूम नहीं। मुझे तो मालती का यह स्वरूप देख कर अपने भीतर श्रद्धा का अनुभव होने लगा, हालाँकि आप जानते हैं, मैं घोर जड़वादी हूँ। और भीतर के परिष्कार के साथ उसकी छवि में भी देवत्व की झलक आने लगी है। मानवता इतनी बहुरंगी और इतनी समर्थ है, इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। आप उनसे मिलना चाहें तो चलिए, इसी बहाने मैं भी चला चलूँगा'
रायसाहब ने संदिग्ध भाव से कहा - जब आप ही मेरे दर्द को नहीं समझ सके, तो मालती देवी क्या समझेगी, मुफ्त में शर्मिंदगी होगी, मगर आपको पास जाने के लिए किसी बहाने की जरूरत क्यों! मैं तो समझता था, आपने उनके ऊपर अपना जादू डाल दिया है।
मेहता ने हसरत-भरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया - वह बातें अब स्वप्न हो गई। अब तो कभी उनके दर्शन भी नहीं होते। उन्हें अब फुरसत भी नहीं रहती। दो-चार बार गया, मगर मुझे मालूम हुआ, मुझसे मिल कर वह कुछ खुश नहीं हुईं, तब से जाते झेंपता हूँ। हाँ, खूब याद आया, आज महिला-व्यायामशाला का जलसा है, आप चलेंगे?
रायसाहब ने बेदिली के साथ कहा - जी नहीं, मुझे फुर्सत नहीं है। मुझे तो यह चिंता सवार है कि राजा साहब को क्या जवाब दूँगा। मैं उन्हें वचन दे चुका हूँ।
यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए और मंद गति से द्वार की ओर चले। जिस गुत्थी को सुलझाने आए थे, वह और भी जटिल हो गई। अंधकार और भी असूझ हो गया। मेहता ने कार तक आ कर उन्हें विदा किया।
रायसाहब सीधे अपने बँगले पर आए और दैनिक पत्र उठाया था कि मिस्टर तंखा का कार्ड मिला। तंखा से उन्हें घृणा थी और उनका मुँह भी न देखना चाहते थे, लेकिन इस वक्त मन की दुर्बल दशा में उन्हें किसी हमदर्द की तलाश थी, जो और कुछ न कर सके, पर उनके मनोभावों से सहानुभूति तो करे। तुरंत बुला लिया।
तंखा पाँव दबाते हुए, रोनी सूरत लिए कमरे में दाखिल हुए और जमीन पर झुक कर सलाम करते हुए बोले - मैं तो हुजूर के दर्शन करने नैनीताल जा रहा था। सौभाग्य से यहीं दर्शन हो गए! हुजूर का मिजाज तो अच्छा है।
इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार भाषा में, और अपने पिछले व्यवहार को बिलकुल भूलकर, रायसाहब का यशोगान आरंभ किया - ऐसी होम-मेंबरी कोई क्या करेगा, जिधर देखिए हुजूर ही के चर्चे हैं। यह पद हुजूर ही को शोभा देता है।
रायसाहब मन में सोच रहे थे, यह आदमी भी कितना बड़ा धूर्त है, अपनी गरज पड़ने पर गधे को दादा कहने वाला, परले सिरे का बेवगा और निर्लज्ज, मगर उन्हें उन पर क्रोध न आया, दया आई। पूछा - आजकल आप क्या कर रहे हैं?
'कुछ नहीं हुजूर, बेकार बैठा हूँ। इसी उम्मीद से आपकी खिदमत में हाजिर होने जा रहा था कि अपने पुराने खादिमों पर निगाह रहे। आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूँ हुजूर! राजा सूर्यप्रताप सिंह को तो हुजूर जानते हैं, अपने सामने किसी को नहीं समझते। एक दिन आपकी निंदा करने लगे। मुझसे न सुना गया। मैंने कहा - बस कीजिए महाराज, रायसाहब मेरे स्वामी हैं और मैं उनकी निंदा नहीं सुन सकता। बस इसी बात पर बिगड़ गए। मैंने भी सलाम किया और घर चला आया। साफ कह दिया, आप कितना ही ठाठ-बाट दिखाएँ, पर रायसाहब की जो इज्जत है, वह आपको नसीब नहीं हो सकती। इज्जत ठाठ से नहीं होती, लियाकत से होती है। आपमें जो लियाकत है, वह तो दुनिया जानती है।
रायसाहब ने अभिनय किया - आपने तो सीधे घर में आग लगा दी।
तंखा ने अकड़ कर कहा - मैं तो हुजूर साफ कहता हूँ, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जब हुजूर के कदमों को पकड़े हुए हूँ, तो किसी से क्यों डरूँ। हुजूर के तो नाम से जलते हैं। जब देखिए, हुजूर की बदगोई। जब से आप मिनिस्टर हुए हैं, उनकी छाती पर साँप लोट रहा है। मेरी सारी-की-सारी मजदूरी साफ डकार गए। देना तो जानते ही नहीं हुजूर। असामियों पर इतना अत्याचार करते हैं कि कुछ न पूछिए किसी की आबरू सलामत नहीं। दिन-दहाड़े औरतों को.......
कार की आवाज आई और राजा सूर्यप्रताप सिंह उतरे। रायसाहब ने कमरे से निकल कर उनका स्वागत किया और सम्मान के बोझ से नत हो कर बोले - मैं तो आपकी सेवा में आने वाला ही था।
यह पहला अवसर था कि राजा सूर्यप्रताप सिंह ने इस घर को अपने चरणों से पवित्र किया। यह सौभाग्य!
मिस्टर तंखा भीगी बिल्ली बने बैठे हुए थे। राजा साहब यहाँ! क्या इधर इन दोनों महोदयों में दोस्ती हो गई है? उन्होंने रायसाहब की ईर्ष्याग्नि को उत्तेजित करके अपना हाथ सेंकना चाहा था, मगर नहीं, राजा साहब यहाँ मिलने के लिए आ भले ही गए हों, मगर दिलों में जो जलन है, वह तो कुम्हार के आँवे की तरह इस ऊपर की लेप-थोप से बुझने वाली नहीं।
राजा साहब ने सिगार जलाते हुए तंखा की ओर कठोर आँखों से देख कर कहा - तुमने तो सूरत ही नहीं दिखाई मिस्टर तंखा! मुझसे उस दावत के सारे रुपए वसूल कर लिए और होटल वालों को एक पाई न दी, वह मेरा सिर खा रहे हैं। मैं इसे विश्वासघात समझता हूँ। मैं चाहूँ तो अभी तुम्हें पुलिस में दे सकता हूँ।
यह कहते हुए उन्होंने रायसाहब को संबोधित करके कहा - ऐसा बेईमान आदमी मैंने नहीं देखा रायसाहब! मैं सत्य कहता हूँ, मैं भी आपके मुकाबले में न खड़ा होता। मगर इसी शैतान ने मुझे बहकाया और मेरे एक लाख रुपए बरबाद कर दिए। बँगला खरीद लिया साहब, कार रख ली। एक वेश्या से आशनाई भी कर रखी है। पूरे रईस बन गए और अब दगाबाजी शुरू की है। रईसों की शान निभाने के लिए रियासत चाहिए। आपकी सियासत अपने दोस्तों की आँखों में धूल झोंकना है।
रायसाहब ने तंखा की ओर तिरस्कार की आँखों से देखा और बोले - आप चुप क्यों हैं मिस्टर तंखा, कुछ जवाब दीजिए। राजा साहब ने तो आपका सारा मेहनताना दबा लिया था। है इसका कोई जवाब आपके पास? अब कृपा करके यहाँ से चले जाइए और खबरदार, फिर अपनी सूरत न दिखाइएगा। दो भले आदमियों में लड़ाई लगा कर अपना उल्लू सीधा करना बेपूंजी का रोजगार है, मगर इसका घाटा और नफा दोनों ही जान-जोखिम है, समझ लीजिए।
तंखा ने ऐसा सिर गड़ाया कि फिर न उठाया। धीरे से चले गए। जैसे कोई चोर कुत्ता मालिक के अंदर आ जाने पर दबकर निकल जाए।
जब वह चले गए, तो राजा साहब ने पूछा - मेरी बुराई करता होगा?
'जी हाँ, मगर मैंने भी खूब बनाया।'
'शैतान है।'
'पूरा।'
'बाप-बेटे में लड़ाई करवा दे, मियाँ-बीबी में लड़ाई करवा दे। इस फन में उस्ताद है। खैर, आज बेचारे को अच्छा सबक मिल गया।'
इसके बाद रुद्रपाल के विवाह के बातचीत शुरू हुई। रायसाहब के प्राण सूखे जा रहे थे। मानो उन पर कोई निशाना बाँधा जा रहा हो। कहाँ छिप जायँ। कैसे कहें कि रुद्रपाल पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा, मगर राजा साहब को परिस्थिति का ज्ञान हो चुका था। रायसाहब को अपने तरफ से कुछ न कहना पड़ा। जान बच गई।
उन्होंने पूछा - आपको इसकी क्यों कर खबर हुई?
'अभी-अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक पत्र भेजा है, जो उसने मुझे दे दिया।'
'आजकल के लड़कों में और तो कोई खूबी नजर नहीं आती, बस स्वच्छंदता की सनक सवार है।'
'सनक तो है ही, मगर इसकी दवा मेरे पास है। मैं उस छोकरी को ऐसा गायब कर दूँगा कि कहीं पता न लगेगा। दस-पाँच दिन में यह सनक ठंडी हो जायगी। समझाने से कोई नतीजा नहीं!'
रायसाहब काँप उठे। उनके मन में भी इस तरह की बात आई थी, लेकिन उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था। संस्कार दोनों व्यक्तियों के एक-से थे। गुफावासी मनुष्य दोनों ही व्यक्तियों में जीवित था। रायसाहब ने उसे ऊपरी वस्त्रों से ढँक दिया था। राजा साहब में वह नग्न था। अपना बड़प्पन सिद्ध करने के उस अवसर को रायसाहब छोड़ न सके।
जैसे लज्जित हो कर बोले - लेकिन यह बीसवीं सदी है, बारहवीं नहीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, मैं नहीं कह सकता, लेकिन मानवता की दृष्टि से?
राजा साहब ने बात काट कर कहा - आप मानवता लिए फिरते हैं और यह नहीं देखते कि संसार में आज भी मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर विजय पा रही है। नहीं, राष्ट्रों में लड़ाइयाँ क्यों होतीं? पंचायतों से झगड़े न तय हो जाते? जब तक मनुष्य रहेगा, उसकी पशुता भी रहेगी।
छोटी-मोटी बहस छिड़ गई और वह विवाद के रूप में आ कर अंत में वितंडा बन गई और राजा साहब नाराज हो कर चले गए। दूसरे दिन रायसाहब ने भी नैनीताल को प्रस्थान किया। और उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंग्लैंड की राह ली। अब उनमें पिता-पुत्र का नाता न था, प्रतिद्वंद्वी हो गए थे। मिस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सलाहकार और पैरोकार थे। उन्होंने रुद्रपाल की तरफ से रायसाहब पर हिसाब-फहमी का दावा किया। रायसाहब पर दस लाख की डिगरी हो गई। उन्हें डिगरी का इतना दु:ख न हुआ, जितना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़ कर दु:ख था, जीवन की संचित अभिलाषाओं के धूल में मिल जाने का और सबसे बड़ा दु:ख था इस बात का कि अपने बेटे ने ही दगा दी। आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से छीन लिया गया था।
मगर अभी शायद उनके दु:ख का प्याला भरा न था। जो कुछ कसर थी, वह लड़की और दामाद के संबंध-विच्छेद ने पूरी कर दी। साधारण हिंदू बालिकाओं की तरह मीनाक्षी भी बेजबान थी। बाप ने जिसके साथ ब्याह कर दिया, उसके साथ चली गई, लेकिन स्त्री-पुरुष में प्रेम न था। दिग्विजय सिंह ऐयाश भी थे, शराबी भी। मीनाक्षी भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती थी। पुस्तकों और पत्रिकाओं से मन बहलाया करती थी। दिग्विजय की अवस्था तो तीस से अधिक न थी। पढ़ा-लिखा भी था, मगर बड़ा मगरूर, अपने कुल-प्रतिष्ठा की डींग मारने वाला, स्वभाव का निर्दयी और कृपण। गाँव की नीच जाति की बहू-बेटियों पर डोरे डाला करता था। सोहबत भी नीचों की थी, जिनकी खुशामदों ने उसे और भी खुशामदपसंद बना दिया था। मीनाक्षी ऐसे व्यक्ति का सम्मान दिल से न कर सकती थी। फिर पत्रों में स्त्रियों के अधिकारों की चर्चा पढ़-पढ़ कर उसकी आँखें खुलने लगी थीं। वह जनाना क्लब में आने-जाने लगी। वहाँ कितनी ही शिक्षित ऊँचे कुल की महिलाएँ आती थीं। उनमें वोट और अधिकार और स्वाधीन ता और नारी-जागृति की खूब चर्चा होती थी, जैसे पुरुषों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा जा रहा हो। अधिकतर वही देवियाँ थीं, जिनकी अपने पुरुषों से न पटती थी, जो नई शिक्षा पाने के कारण पुरानी मर्यादाओं को तोड़ डालना चाहती थीं। कई युवतियाँ भी थीं, जो डिग्रियाँ ले चुकी थीं और विवाहित जीवन को आत्मसम्मान के लिए घातक समझ कर नौकरियों की तलाश में थीं। उन्हीं में एक मिस सुलताना थीं, जो विलायत से बार-एट-ला हो कर आई थीं और यहाँ परदानशीन महिलाओं को कानूनी सलाह देने का व्यवसाय करती थीं। उन्हीं की सलाह से मीनाक्षी ने पति पर गुजारे का दावा किया। वह अब उसके घर में न रहना चाहती थी। गुजारे की मीनाक्षी को जरूरत न थी। मैके में वह बड़े आराम से रह सकती थीं मगर वह दिग्विजय सिंह के मुख में कालिख लगा कर यहाँ से जाना चाहती थी। दिग्विजय सिंह ने उस पर उल्टा बदचलनी का आक्षेप लगाया। रायसाहब ने इस कलह को शांत करने की भरसक बहुत चेष्टा की, पर मीनाक्षी अब पति की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी। यद्यपि दिग्विजय सिंह का दावा खारिज हो गया और मीनाक्षी ने उस पर गुजारे की डिगरी पाई, मगर यह अपमान उसके जिगर में चुभता रहा। वह अलग एक कोठी में रहती थी, और समष्टिवादी आंदोलन में प्रमुख भाग लेती थी, पर वह जलन शांत न होती थी।
एक दिन वह क्रोध में आ कर हंटर लिए दिग्विजय सिंह के बँगले पर पहुँची। शोहदे जमा थे और वेश्या का नाच हो रहा था। उसने रणचंडी की भाँति पिशाचों की इस चंडाल चौकड़ी में पहुँच कर तहलका मचा दिया। हंटर खा-खा कर लोग इधर-उधर भागने लगे। उसके तेज के सामने वह नीच शोहदे क्या टिकते - जब दिग्विजय सिंह अकेले रह गए, तो उसने उन पर सड़ासड़ हंटर जमाने शुरू किए और इतना मारा कि कुँवर साहब बेदम हो गए। वेश्या अभी तक कोने में दुबकी खड़ी थी। अब उसका नंबर आया। मीनाक्षी हंटर तान कर जमाना ही चाहती थी कि वेश्या उनके पैरों पर गिर पड़ी और रो कर बोली - दुलहिन जी, आज आप मेरी जान बख्श दें। मैं फिर कभी यहाँ न आऊँगी। मैं निरपराध हूँ।
मीनाक्षी ने उसकी ओर घृणा से देख कर कहा - हाँ, तू निरपराध है। जानती है न, मैं कौन हूँ। चली जा, अब कभी यहाँ न आना। हम स्त्रियाँ भोग-विलास की चीजें हैं ही, तेरा कोई दोष नहीं।
वेश्या ने उसके चरणों पर सिर रख कर आवेश में कहा - परमात्मा आपको सुखी रखे। जैसा आपका नाम सुनती थी, वैसा ही पाया।
'सुखी रहने से तुम्हारा क्या आशय है?'
'आप जो समझें महारानी जी।'
'नहीं, तुम बताओ।'
वेश्या के प्राण नखों में समा गए। कहाँ से कहाँ आशीर्वाद देने चली। जान बच गई थी, चुपके अपनी राह लेनी चाहिए थी, दुआ देने की सनक सवार हुई। अब कैसे जान बचे?
डरती-डरती बोली - हुजूर का एकबाल बढ़े, मरतबा बढ़े, नाम बढ़े।
मीनाक्षी मुस्कराई - हाँ, ठीक है।
वह आ कर अपनी कार में बैठी, हाकिम-जिला के बँगले पर पहुँच कर इस कांड की सूचना दी और अपनी कोठी में चली आई। तब से स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। दिग्विजय सिंह रिवाल्वर लिए उसकी ताक में फिरा करते थे और वह भी अपनी रक्षा के लिए दो पहलवान ठाकुरों को अपने साथ लिए रहती थी। और रायसाहब ने सुख का जो स्वर्ग बनाया था, उसे अपनी जिंदगी में ही ध्वंस होते देख रहे थे। और अब संसार से निराश हो कर उनकी आत्मा अंतर्मुखी होती जाती थी। अब तक अभिलाषाओं से जीवन के लिए प्रेरणा मिलती रहती थी। उधर का रास्ता बंद हो जाने पर उनका मन आप ही आप भक्ति की ओर झुका, जो अभिलाषाओं से कहीं बढ़ कर सत्य था। जिस नई जायदाद के आसरे पर कर्ज लिए थे, वह जायदाद कर्ज की पुरौती किए बिना ही हाथ से निकल गई थी और वह बोझ सिर पर लदा हुआ था। मिनिस्ट्री से जरूर अच्छी रकम मिलती थी, मगर वह सारी की सारी उस पद की मर्यादा का पालन करने में ही उड़ जाती थी और रायसाहब को अपना राजसी ठाठ निभाने के लिए वही आसामियों पर इजाफा और बेदखली और नजराना लेना पड़ता था, जिससे उन्हें घृणा थी। वह प्रजा को कष्ट न देना चाहते थे। उनकी दशा पर उन्हें दया आती थी, लेकिन अपनी जरूरतों से हैरान थे। मुश्किल यह थी कि उपासना और भक्ति में भी उन्हें शांति न मिलती थी। वह मोह को छोड़ना चाहते थे, पर मोह उन्हें न छोड़ता था और इस खींच-तान में उन्हें अपमान, ग्लानि और अशांति से छुटकारा न मिलता था। और जब आत्मा में शांति नहीं, तो देह कैसे स्वस्थ रहती? निरोग रहने का सब उपाय करने पर भी एक न एक बाधा गले पड़ी रहती थी। रसोई में सभी तरह के पकवान बनते थे, पर उनके लिए वही मूँग की दाल और फूलके थे। अपने और भाइयों को देखते थे, जो उनसे भी ज्यादा मकरूज अपमानित और शोकग्रस्त थे, जिनके भोग-विलास में, ठाठ-बाट में किसी तरह की कमी न थी। मगर इस तरह की बेहयाई उनके बस में न थी। उनके मन के ऊँचे संस्कारों का ध्वंस न हुआ था। परपीड़ा, मक्कारी, निर्लज्जता और अत्याचार को वह ताल्लुकेदारी की शोभा और रोब-दाब का नाम दे कर अपनी आत्मा को संतुष्ट कर सकते थे, और यही उनकी सबसे बड़ी हार थी।
मेहता ने गर्म हो कर कहा - मालती की बहन होना क्या अपमान की बात है? मालती को आपने जाना नहीं, और न जानने की परवा की। मैंने भी यही समझा था, लेकिन अब मालूम हुआ कि वह आग में पड़ कर चमकने वाली सच्ची धातु है। वह उन वीरों में है, जो अवसर पड़ने पर अपने जौहर दिखाते हैं, तलवार घुमाते नहीं चलते। आपको मालूम है, खन्ना की आजकल क्या दशा है?
रायसाहब ने सहानुभूति के भाव से सिर हिला कर कहा - सुन चुका हूँ, और बार-बार इच्छा हुई कि उससे मिलूँ, लेकिन फुरसत न मिली। उस मिल में आग लगना उनके सर्वनाश का कारण हो गया।
'जी हाँ। अब वह एक तरह से दोस्तों की दया पर अपना निर्वाह कर रहे हैं। उस पर गोविंदी महीनों से बीमार है। उसने खन्ना पर अपने को बलिदान कर दिया, उस पशु पर जिसने हमेशा उसे जलाया। अब वह मर रही है। और मालती रात की रात उसके सिरहाने बैठी रह जाती है - वही मालती, जो किसी राजा-रईस से पाँच सौ फीस पा कर भी रात-भर न बैठेगी। खन्ना के छोटे बच्चों को पालने का भार भी मालती पर है। यह मातृत्व उसमें कहाँ सोया हुआ था, मालूम नहीं। मुझे तो मालती का यह स्वरूप देख कर अपने भीतर श्रद्धा का अनुभव होने लगा, हालाँकि आप जानते हैं, मैं घोर जड़वादी हूँ। और भीतर के परिष्कार के साथ उसकी छवि में भी देवत्व की झलक आने लगी है। मानवता इतनी बहुरंगी और इतनी समर्थ है, इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। आप उनसे मिलना चाहें तो चलिए, इसी बहाने मैं भी चला चलूँगा'
रायसाहब ने संदिग्ध भाव से कहा - जब आप ही मेरे दर्द को नहीं समझ सके, तो मालती देवी क्या समझेगी, मुफ्त में शर्मिंदगी होगी, मगर आपको पास जाने के लिए किसी बहाने की जरूरत क्यों! मैं तो समझता था, आपने उनके ऊपर अपना जादू डाल दिया है।
मेहता ने हसरत-भरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया - वह बातें अब स्वप्न हो गई। अब तो कभी उनके दर्शन भी नहीं होते। उन्हें अब फुरसत भी नहीं रहती। दो-चार बार गया, मगर मुझे मालूम हुआ, मुझसे मिल कर वह कुछ खुश नहीं हुईं, तब से जाते झेंपता हूँ। हाँ, खूब याद आया, आज महिला-व्यायामशाला का जलसा है, आप चलेंगे?
रायसाहब ने बेदिली के साथ कहा - जी नहीं, मुझे फुर्सत नहीं है। मुझे तो यह चिंता सवार है कि राजा साहब को क्या जवाब दूँगा। मैं उन्हें वचन दे चुका हूँ।
यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए और मंद गति से द्वार की ओर चले। जिस गुत्थी को सुलझाने आए थे, वह और भी जटिल हो गई। अंधकार और भी असूझ हो गया। मेहता ने कार तक आ कर उन्हें विदा किया।
रायसाहब सीधे अपने बँगले पर आए और दैनिक पत्र उठाया था कि मिस्टर तंखा का कार्ड मिला। तंखा से उन्हें घृणा थी और उनका मुँह भी न देखना चाहते थे, लेकिन इस वक्त मन की दुर्बल दशा में उन्हें किसी हमदर्द की तलाश थी, जो और कुछ न कर सके, पर उनके मनोभावों से सहानुभूति तो करे। तुरंत बुला लिया।
तंखा पाँव दबाते हुए, रोनी सूरत लिए कमरे में दाखिल हुए और जमीन पर झुक कर सलाम करते हुए बोले - मैं तो हुजूर के दर्शन करने नैनीताल जा रहा था। सौभाग्य से यहीं दर्शन हो गए! हुजूर का मिजाज तो अच्छा है।
इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार भाषा में, और अपने पिछले व्यवहार को बिलकुल भूलकर, रायसाहब का यशोगान आरंभ किया - ऐसी होम-मेंबरी कोई क्या करेगा, जिधर देखिए हुजूर ही के चर्चे हैं। यह पद हुजूर ही को शोभा देता है।
रायसाहब मन में सोच रहे थे, यह आदमी भी कितना बड़ा धूर्त है, अपनी गरज पड़ने पर गधे को दादा कहने वाला, परले सिरे का बेवगा और निर्लज्ज, मगर उन्हें उन पर क्रोध न आया, दया आई। पूछा - आजकल आप क्या कर रहे हैं?
'कुछ नहीं हुजूर, बेकार बैठा हूँ। इसी उम्मीद से आपकी खिदमत में हाजिर होने जा रहा था कि अपने पुराने खादिमों पर निगाह रहे। आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूँ हुजूर! राजा सूर्यप्रताप सिंह को तो हुजूर जानते हैं, अपने सामने किसी को नहीं समझते। एक दिन आपकी निंदा करने लगे। मुझसे न सुना गया। मैंने कहा - बस कीजिए महाराज, रायसाहब मेरे स्वामी हैं और मैं उनकी निंदा नहीं सुन सकता। बस इसी बात पर बिगड़ गए। मैंने भी सलाम किया और घर चला आया। साफ कह दिया, आप कितना ही ठाठ-बाट दिखाएँ, पर रायसाहब की जो इज्जत है, वह आपको नसीब नहीं हो सकती। इज्जत ठाठ से नहीं होती, लियाकत से होती है। आपमें जो लियाकत है, वह तो दुनिया जानती है।
रायसाहब ने अभिनय किया - आपने तो सीधे घर में आग लगा दी।
तंखा ने अकड़ कर कहा - मैं तो हुजूर साफ कहता हूँ, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जब हुजूर के कदमों को पकड़े हुए हूँ, तो किसी से क्यों डरूँ। हुजूर के तो नाम से जलते हैं। जब देखिए, हुजूर की बदगोई। जब से आप मिनिस्टर हुए हैं, उनकी छाती पर साँप लोट रहा है। मेरी सारी-की-सारी मजदूरी साफ डकार गए। देना तो जानते ही नहीं हुजूर। असामियों पर इतना अत्याचार करते हैं कि कुछ न पूछिए किसी की आबरू सलामत नहीं। दिन-दहाड़े औरतों को.......
कार की आवाज आई और राजा सूर्यप्रताप सिंह उतरे। रायसाहब ने कमरे से निकल कर उनका स्वागत किया और सम्मान के बोझ से नत हो कर बोले - मैं तो आपकी सेवा में आने वाला ही था।
यह पहला अवसर था कि राजा सूर्यप्रताप सिंह ने इस घर को अपने चरणों से पवित्र किया। यह सौभाग्य!
मिस्टर तंखा भीगी बिल्ली बने बैठे हुए थे। राजा साहब यहाँ! क्या इधर इन दोनों महोदयों में दोस्ती हो गई है? उन्होंने रायसाहब की ईर्ष्याग्नि को उत्तेजित करके अपना हाथ सेंकना चाहा था, मगर नहीं, राजा साहब यहाँ मिलने के लिए आ भले ही गए हों, मगर दिलों में जो जलन है, वह तो कुम्हार के आँवे की तरह इस ऊपर की लेप-थोप से बुझने वाली नहीं।
राजा साहब ने सिगार जलाते हुए तंखा की ओर कठोर आँखों से देख कर कहा - तुमने तो सूरत ही नहीं दिखाई मिस्टर तंखा! मुझसे उस दावत के सारे रुपए वसूल कर लिए और होटल वालों को एक पाई न दी, वह मेरा सिर खा रहे हैं। मैं इसे विश्वासघात समझता हूँ। मैं चाहूँ तो अभी तुम्हें पुलिस में दे सकता हूँ।
यह कहते हुए उन्होंने रायसाहब को संबोधित करके कहा - ऐसा बेईमान आदमी मैंने नहीं देखा रायसाहब! मैं सत्य कहता हूँ, मैं भी आपके मुकाबले में न खड़ा होता। मगर इसी शैतान ने मुझे बहकाया और मेरे एक लाख रुपए बरबाद कर दिए। बँगला खरीद लिया साहब, कार रख ली। एक वेश्या से आशनाई भी कर रखी है। पूरे रईस बन गए और अब दगाबाजी शुरू की है। रईसों की शान निभाने के लिए रियासत चाहिए। आपकी सियासत अपने दोस्तों की आँखों में धूल झोंकना है।
रायसाहब ने तंखा की ओर तिरस्कार की आँखों से देखा और बोले - आप चुप क्यों हैं मिस्टर तंखा, कुछ जवाब दीजिए। राजा साहब ने तो आपका सारा मेहनताना दबा लिया था। है इसका कोई जवाब आपके पास? अब कृपा करके यहाँ से चले जाइए और खबरदार, फिर अपनी सूरत न दिखाइएगा। दो भले आदमियों में लड़ाई लगा कर अपना उल्लू सीधा करना बेपूंजी का रोजगार है, मगर इसका घाटा और नफा दोनों ही जान-जोखिम है, समझ लीजिए।
तंखा ने ऐसा सिर गड़ाया कि फिर न उठाया। धीरे से चले गए। जैसे कोई चोर कुत्ता मालिक के अंदर आ जाने पर दबकर निकल जाए।
जब वह चले गए, तो राजा साहब ने पूछा - मेरी बुराई करता होगा?
'जी हाँ, मगर मैंने भी खूब बनाया।'
'शैतान है।'
'पूरा।'
'बाप-बेटे में लड़ाई करवा दे, मियाँ-बीबी में लड़ाई करवा दे। इस फन में उस्ताद है। खैर, आज बेचारे को अच्छा सबक मिल गया।'
इसके बाद रुद्रपाल के विवाह के बातचीत शुरू हुई। रायसाहब के प्राण सूखे जा रहे थे। मानो उन पर कोई निशाना बाँधा जा रहा हो। कहाँ छिप जायँ। कैसे कहें कि रुद्रपाल पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा, मगर राजा साहब को परिस्थिति का ज्ञान हो चुका था। रायसाहब को अपने तरफ से कुछ न कहना पड़ा। जान बच गई।
उन्होंने पूछा - आपको इसकी क्यों कर खबर हुई?
'अभी-अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक पत्र भेजा है, जो उसने मुझे दे दिया।'
'आजकल के लड़कों में और तो कोई खूबी नजर नहीं आती, बस स्वच्छंदता की सनक सवार है।'
'सनक तो है ही, मगर इसकी दवा मेरे पास है। मैं उस छोकरी को ऐसा गायब कर दूँगा कि कहीं पता न लगेगा। दस-पाँच दिन में यह सनक ठंडी हो जायगी। समझाने से कोई नतीजा नहीं!'
रायसाहब काँप उठे। उनके मन में भी इस तरह की बात आई थी, लेकिन उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था। संस्कार दोनों व्यक्तियों के एक-से थे। गुफावासी मनुष्य दोनों ही व्यक्तियों में जीवित था। रायसाहब ने उसे ऊपरी वस्त्रों से ढँक दिया था। राजा साहब में वह नग्न था। अपना बड़प्पन सिद्ध करने के उस अवसर को रायसाहब छोड़ न सके।
जैसे लज्जित हो कर बोले - लेकिन यह बीसवीं सदी है, बारहवीं नहीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, मैं नहीं कह सकता, लेकिन मानवता की दृष्टि से?
राजा साहब ने बात काट कर कहा - आप मानवता लिए फिरते हैं और यह नहीं देखते कि संसार में आज भी मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर विजय पा रही है। नहीं, राष्ट्रों में लड़ाइयाँ क्यों होतीं? पंचायतों से झगड़े न तय हो जाते? जब तक मनुष्य रहेगा, उसकी पशुता भी रहेगी।
छोटी-मोटी बहस छिड़ गई और वह विवाद के रूप में आ कर अंत में वितंडा बन गई और राजा साहब नाराज हो कर चले गए। दूसरे दिन रायसाहब ने भी नैनीताल को प्रस्थान किया। और उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंग्लैंड की राह ली। अब उनमें पिता-पुत्र का नाता न था, प्रतिद्वंद्वी हो गए थे। मिस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सलाहकार और पैरोकार थे। उन्होंने रुद्रपाल की तरफ से रायसाहब पर हिसाब-फहमी का दावा किया। रायसाहब पर दस लाख की डिगरी हो गई। उन्हें डिगरी का इतना दु:ख न हुआ, जितना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़ कर दु:ख था, जीवन की संचित अभिलाषाओं के धूल में मिल जाने का और सबसे बड़ा दु:ख था इस बात का कि अपने बेटे ने ही दगा दी। आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से छीन लिया गया था।
मगर अभी शायद उनके दु:ख का प्याला भरा न था। जो कुछ कसर थी, वह लड़की और दामाद के संबंध-विच्छेद ने पूरी कर दी। साधारण हिंदू बालिकाओं की तरह मीनाक्षी भी बेजबान थी। बाप ने जिसके साथ ब्याह कर दिया, उसके साथ चली गई, लेकिन स्त्री-पुरुष में प्रेम न था। दिग्विजय सिंह ऐयाश भी थे, शराबी भी। मीनाक्षी भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती थी। पुस्तकों और पत्रिकाओं से मन बहलाया करती थी। दिग्विजय की अवस्था तो तीस से अधिक न थी। पढ़ा-लिखा भी था, मगर बड़ा मगरूर, अपने कुल-प्रतिष्ठा की डींग मारने वाला, स्वभाव का निर्दयी और कृपण। गाँव की नीच जाति की बहू-बेटियों पर डोरे डाला करता था। सोहबत भी नीचों की थी, जिनकी खुशामदों ने उसे और भी खुशामदपसंद बना दिया था। मीनाक्षी ऐसे व्यक्ति का सम्मान दिल से न कर सकती थी। फिर पत्रों में स्त्रियों के अधिकारों की चर्चा पढ़-पढ़ कर उसकी आँखें खुलने लगी थीं। वह जनाना क्लब में आने-जाने लगी। वहाँ कितनी ही शिक्षित ऊँचे कुल की महिलाएँ आती थीं। उनमें वोट और अधिकार और स्वाधीन ता और नारी-जागृति की खूब चर्चा होती थी, जैसे पुरुषों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा जा रहा हो। अधिकतर वही देवियाँ थीं, जिनकी अपने पुरुषों से न पटती थी, जो नई शिक्षा पाने के कारण पुरानी मर्यादाओं को तोड़ डालना चाहती थीं। कई युवतियाँ भी थीं, जो डिग्रियाँ ले चुकी थीं और विवाहित जीवन को आत्मसम्मान के लिए घातक समझ कर नौकरियों की तलाश में थीं। उन्हीं में एक मिस सुलताना थीं, जो विलायत से बार-एट-ला हो कर आई थीं और यहाँ परदानशीन महिलाओं को कानूनी सलाह देने का व्यवसाय करती थीं। उन्हीं की सलाह से मीनाक्षी ने पति पर गुजारे का दावा किया। वह अब उसके घर में न रहना चाहती थी। गुजारे की मीनाक्षी को जरूरत न थी। मैके में वह बड़े आराम से रह सकती थीं मगर वह दिग्विजय सिंह के मुख में कालिख लगा कर यहाँ से जाना चाहती थी। दिग्विजय सिंह ने उस पर उल्टा बदचलनी का आक्षेप लगाया। रायसाहब ने इस कलह को शांत करने की भरसक बहुत चेष्टा की, पर मीनाक्षी अब पति की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी। यद्यपि दिग्विजय सिंह का दावा खारिज हो गया और मीनाक्षी ने उस पर गुजारे की डिगरी पाई, मगर यह अपमान उसके जिगर में चुभता रहा। वह अलग एक कोठी में रहती थी, और समष्टिवादी आंदोलन में प्रमुख भाग लेती थी, पर वह जलन शांत न होती थी।
एक दिन वह क्रोध में आ कर हंटर लिए दिग्विजय सिंह के बँगले पर पहुँची। शोहदे जमा थे और वेश्या का नाच हो रहा था। उसने रणचंडी की भाँति पिशाचों की इस चंडाल चौकड़ी में पहुँच कर तहलका मचा दिया। हंटर खा-खा कर लोग इधर-उधर भागने लगे। उसके तेज के सामने वह नीच शोहदे क्या टिकते - जब दिग्विजय सिंह अकेले रह गए, तो उसने उन पर सड़ासड़ हंटर जमाने शुरू किए और इतना मारा कि कुँवर साहब बेदम हो गए। वेश्या अभी तक कोने में दुबकी खड़ी थी। अब उसका नंबर आया। मीनाक्षी हंटर तान कर जमाना ही चाहती थी कि वेश्या उनके पैरों पर गिर पड़ी और रो कर बोली - दुलहिन जी, आज आप मेरी जान बख्श दें। मैं फिर कभी यहाँ न आऊँगी। मैं निरपराध हूँ।
मीनाक्षी ने उसकी ओर घृणा से देख कर कहा - हाँ, तू निरपराध है। जानती है न, मैं कौन हूँ। चली जा, अब कभी यहाँ न आना। हम स्त्रियाँ भोग-विलास की चीजें हैं ही, तेरा कोई दोष नहीं।
वेश्या ने उसके चरणों पर सिर रख कर आवेश में कहा - परमात्मा आपको सुखी रखे। जैसा आपका नाम सुनती थी, वैसा ही पाया।
'सुखी रहने से तुम्हारा क्या आशय है?'
'आप जो समझें महारानी जी।'
'नहीं, तुम बताओ।'
वेश्या के प्राण नखों में समा गए। कहाँ से कहाँ आशीर्वाद देने चली। जान बच गई थी, चुपके अपनी राह लेनी चाहिए थी, दुआ देने की सनक सवार हुई। अब कैसे जान बचे?
डरती-डरती बोली - हुजूर का एकबाल बढ़े, मरतबा बढ़े, नाम बढ़े।
मीनाक्षी मुस्कराई - हाँ, ठीक है।
वह आ कर अपनी कार में बैठी, हाकिम-जिला के बँगले पर पहुँच कर इस कांड की सूचना दी और अपनी कोठी में चली आई। तब से स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। दिग्विजय सिंह रिवाल्वर लिए उसकी ताक में फिरा करते थे और वह भी अपनी रक्षा के लिए दो पहलवान ठाकुरों को अपने साथ लिए रहती थी। और रायसाहब ने सुख का जो स्वर्ग बनाया था, उसे अपनी जिंदगी में ही ध्वंस होते देख रहे थे। और अब संसार से निराश हो कर उनकी आत्मा अंतर्मुखी होती जाती थी। अब तक अभिलाषाओं से जीवन के लिए प्रेरणा मिलती रहती थी। उधर का रास्ता बंद हो जाने पर उनका मन आप ही आप भक्ति की ओर झुका, जो अभिलाषाओं से कहीं बढ़ कर सत्य था। जिस नई जायदाद के आसरे पर कर्ज लिए थे, वह जायदाद कर्ज की पुरौती किए बिना ही हाथ से निकल गई थी और वह बोझ सिर पर लदा हुआ था। मिनिस्ट्री से जरूर अच्छी रकम मिलती थी, मगर वह सारी की सारी उस पद की मर्यादा का पालन करने में ही उड़ जाती थी और रायसाहब को अपना राजसी ठाठ निभाने के लिए वही आसामियों पर इजाफा और बेदखली और नजराना लेना पड़ता था, जिससे उन्हें घृणा थी। वह प्रजा को कष्ट न देना चाहते थे। उनकी दशा पर उन्हें दया आती थी, लेकिन अपनी जरूरतों से हैरान थे। मुश्किल यह थी कि उपासना और भक्ति में भी उन्हें शांति न मिलती थी। वह मोह को छोड़ना चाहते थे, पर मोह उन्हें न छोड़ता था और इस खींच-तान में उन्हें अपमान, ग्लानि और अशांति से छुटकारा न मिलता था। और जब आत्मा में शांति नहीं, तो देह कैसे स्वस्थ रहती? निरोग रहने का सब उपाय करने पर भी एक न एक बाधा गले पड़ी रहती थी। रसोई में सभी तरह के पकवान बनते थे, पर उनके लिए वही मूँग की दाल और फूलके थे। अपने और भाइयों को देखते थे, जो उनसे भी ज्यादा मकरूज अपमानित और शोकग्रस्त थे, जिनके भोग-विलास में, ठाठ-बाट में किसी तरह की कमी न थी। मगर इस तरह की बेहयाई उनके बस में न थी। उनके मन के ऊँचे संस्कारों का ध्वंस न हुआ था। परपीड़ा, मक्कारी, निर्लज्जता और अत्याचार को वह ताल्लुकेदारी की शोभा और रोब-दाब का नाम दे कर अपनी आत्मा को संतुष्ट कर सकते थे, और यही उनकी सबसे बड़ी हार थी।