Hindi sex novel - गावं की लड़की - Village Girl

Contains all kind of sex novels in Hindi and English.
User avatar
rajkumari
Platinum Member
Posts: 1095
Joined: 22 May 2016 09:23

Re: Hindi sex novel - गावं की लड़की - Village Girl

Unread post by rajkumari » 15 Jul 2016 08:56

गावं की लड़की 4

रोजाना दोपहेर को वे एक या दो घंटे के लिए दुकान बंद कर खाना खा कर दुकान के पिछले हिस्से मे बने कमरे मे आराम करते. यह दुकान को ही दो भागो मे बाँट कर बना था जिसके बीच मे केवल एक दीवार थी और दुकान से इस कमरे मे आने के लिए एक छोटा सा दरवाजा था जिस पर एक परदा लटका रहता. अंदर एक चौकी थी और पिछले कोने मे शौचालय और स्नानघर भी था . यह कमरा दुकान के तुलना मे काफ़ी बड़ा था. कमरे मे एक चौकी थी जिसपर पर भोला पंडित सांड की तरह लेट गये और नीचे एक चटाई पर लक्ष्मी लेट कर आराम करने लगी, सावित्री को भी लेटने के लिए कहा पर पंडितजी की चौकी के ठीक सामने ही बिछी चटाई पर लेटने मे काफ़ी शर्म महसूस कर रही थी लक्ष्मी यह भाँप गयी कि सावित्री भोला पंडित से शर्मा रही है इस वजह से चटाई पर लेट नही रही है. लक्ष्मी ने चटाई उठाया और दुकान वाले हिस्से मे जिसमे की बाहर का दरवाजा बंद था, चली गयी. पीछे पीछे सावित्री भी आई और फिर दोनो एक ही चटाई पर लेट गये, लक्ष्मी तो थोड़ी देर के लिए सो गयी पर सावित्री लेट लेट दुकान की छत को निहारती रही और करीब दो घंटे बाद फिर सभी उठे और दुकान फिर से खुल गई. करीब दस ही दीनो मे लक्ष्मी ने सावित्री को बहुत कुछ बता और समझा दिया था आगे उसके पास समय और नही था कि वह सावित्री की सहयता करे. फिर सावित्री को अकेले ही आना पड़ा. पहले दिन आते समय खंडहेर के पास काफ़ी डर लगता मानो जैसे प्राण ही निकल जाए. कब कोई गुंडा खंडहेर मे खेन्च ले जाए कुछ पता नही था. लेकिन मजबूरी थी दुकान पर जाना. जब पहली बार खंडहेर के पास से गुज़री तो सन्नाटा था लेकिन संयोग से कोई आवारा से कोई अश्लील बातें सुनने को नही मिला. किसी तरह दुकान पर पहुँची और भोला पंडित को नमस्कार किया और वो रोज़ की तरह कुछ भी ना बोले और दुकान के अंदर आने का इशारा बस किया. खंडहेर के पास से गुज़रते हुए लग रहा डर मानो अभी भी सावित्री के मन मे था. आज वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी क्योंकि लक्ष्मी अब नही आने वाली थी. दस दिन तो केवल मा के कहने पर आई थी. यही सोच रही थी और दुकान मे एक तरफ भोला पंडित और दूसरी तरफ एक स्टूल पे सावित्री सलवार समीज़ मे बैठी थी.
दुकान एक पतली गली मे एकदम किनारे होने के वजह से भीड़ भाड़ बहुत कम होती और जो भी ग्राहक आते वो शाम के समय ही आते. दुकान के दूसरी तरफ एक उँची चहारदीवारी थी जिसके वजह से दुकान मे कही से कोई नही देख सकता था तबतक की वह दुकान के ठीक सामने ना हो. इस पतली गली मे यह अंतिम दुकान थी और इसके ठीक बगल वाली दुकान बहुत दीनो से बंद पड़ी थी. शायद यही बात स्टूल पर बैठी सावित्री के मन मे थी कि दुकान भी तो काफ़ी एकांत मे है, पंडित जी अपने कुर्सी पे बैठे बैठे अख़बार पढ़ रहे थे, करीब एक घंटा बीत गया लेकिन वो सावित्री से कुछ भी नही बोले. सावित्री को पता नही क्यो यह अक्चा नही लग रहा था. उनके कड़क और रोबीले मिज़ाज़ के वजह से उसके पास कहाँ इतनी हिम्मत थी कि भोला पंडित से कुछ बात की शुरुआत करे. दुकान मे एक अज़ीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था, तभी भोला पंडित ने स्टूल पर नज़रे झुकाए बैठी सावित्री के तरफ देखा और बोला " देखो एक कपड़ा स्नानघर मे है उसे धो कर अंदर ही फैला देना" मोटी आवाज़ मे आदेश सुनकर सावित्री लगभग हड़बड़ा सी गयी और उसके हलक के बस जी शब्द ही निकला और वह उठी और स्नानघर मे चल दी. स्नानघर मे पहुँच कर वह पीछे पलट कर देखी कि कहीं पंडित जी तो नही आ रहे क्योंकि सावित्री आज अकेले थी और दुकान भी सन्नाटे मे था और पंडित जी भी एक नये आदमी थे. फिर भी पंडित जी के उपर विश्वास था जैसा कि लक्ष्मी ने बताया था. सावित्री को लगा कि पंडित जी वहीं बैठे अख़बार पढ़ रहे हैं. फिर सावित्री ने स्नानघर मे कपड़े तलाशने लगी तो केवल फर्श पर एक सफेद रंग की लंगोट रखी थी जिसे पहलवान लोग पहनते हैं. यह भोला पंडित का ही था. सावित्री के मन मे अचानक एक घबराहट होने लगी क्योंकि वह किसी मर्द का लंगोट धोना ठीक नही लगता. स्नानघर के दरवाजे पर खड़ी हो कर यही सोच रही थी कि अचानक भोला पंडित की मोटी कड़क दार आवाज़ आई "कपड़ा मिला की नही" वे दुकान मे बैठे ही बोल रहे थे. सावित्री पूरी तरह से डर गयी और तुरंत बोली "जी मिला" सावित्री के पास इतनी हिम्मत नही थी कि भोला पंडित से यह कहे कि वह एक लड़की है और उनकी लंगोट को कैसे धो सकती है. आख़िर हाथ बढाई और लंगोट को ढोने के लिए जैसे ही पकड़ी उसे लगा जैसे ये लंगोट नही बल्कि कोई साँप है. फिर किसी तरह से लंगोट को धोने लगी. फिर जैसे ही लंगोट पर साबुन लगाने के लिए लंगोट को फैलाया उसे लगा कि उसमे कुछ काला काला लगा है फिर ध्यान से देख तो एकद्ूम सकपका कर रह गयी. यह काला कला कुछ और नही बल्कि झांट के बॉल थे जो भोला पंडित के ही थे.
जो की काफ़ी मोटे मोटे थे. वह उन्हे छूना बिल्कुल ही नही चाहती थी लेकिन लंगोट साफ कैसे होगी बिना उसे साफ किए. फिर सावित्री ने पानी की धार गिराया कि झांट के बाल लंगोट से बह जाए लेकिन फिर भी कुछ बॉल नही बह सके क्योंकि वो लंगोट के धागो मे बुरी तरह से फँसे थे. यह सावित्री के लिए चुनौती ही थी क्योंकि वह भोला पंडित के झांट के बालो को छूना नही चाहती थी. अचानक बाहर से आवाज़ आई "सॉफ हुआ की नही" और इस मोटे आवाज़ ने मानो सावित्री की हड्डियाँ तक कपा दी और बोल पड़ी "जी कर रही हूँ" और घबराहट मे अपने उंगलिओ से जैसे ही लंगोट मे फँसे झांट के बालो को निकालने के लिए पकड़ी कि सिर से पाव तक गन्गना गयी , उसे ऐसे लगा जैसे ये झांट के बाल नही बल्कि बिजली का कुर्रेंट है, आख़िर किसी तरह एक एक बाल को लंगोट से निकाल कर फर्श पर फेंकी और पानी की धार फेंक कर उसे बहाया जो स्नानघर के नाली के तरफ तैरते हुए जा रहे थे और सावित्री की नज़रे उन्हे देख कर सनसना रही थी. किसी ढंग से लंगोट साफ कर के वह अंदर ही बँधे रस्सी पर फैला कर अपना हाथ धो ली और वापस दुकान मे आई तो चेहरे पर पसीना और लालपान छा गया था. उसने देखा कि भोला पंडित अभी भी बैठे अख़बार पढ़ रहे थे. सावित्री जा कर फिर से स्टूल पर बैठ गयी और नज़रे झुका ली. कुछ देर बाद दोपहर हो चली थी और भोला पंडित के खाना खाने और आराम करने का समय हो चला था. समय देख कर भोला पंडित ने दुकान का बाहरी दरवाजा बंद किया और खाना खाने के लिए अंदर वाले कमरे मे चले आए. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने का सीधा मतलब था कि कोई भी अंदर नही आ सकता था. भोला पंडित खाना खाने लगे और सावित्री तो घर से ही खाना खा कर आती इस लिए उसे बस आराम ही करना होता. सावित्री ने चटाई लेकर दुकान वाले हिस्से मे आ गयी और चटाई बिछा कर लेटने के बजाय बैठ कर आज की घटना के बारे मे सोचने लगी. उसे लगता जैसे भोला पंडित की झांट को छू कर बहुत ग़लत किया, लेकिन डरी सहमी और क्या करती. बार बार उसके मन मे डर लगता. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने के कारण वह अपने आप को सुरक्षित नही महसूस कर रही थी. यही सोचती रही कि अंदर के कमरे से खर्राटे की आवाज़ आने लगी. फिर यह जान कर की भोला पंडित सो गये है वह भी लेट गयी पर उनके लंगोट वाली झांतो की याद बार बार दिमाग़ मे घूमता रहता. यही सब सोचते सोचते करीब एक घंटा बीत गया. फिर भोला पंडित उठे तो उनके उठने के आहट सुन कर सावित्री भी चटाई पर उठ कर बैठ गयी. थोड़ी देर बाद शौचालय से पेशाब करने की आवाज़ आने लगी , वो भोला पंडित कर रहे थे.अभी दुकान खुलने मे लगभग एक घंटे का और समय था और भोला पंडित शायद एक घंटे और आराम करेंगे' यही बात सावित्री सोच रही थी की अंदर से पंडित जी ने सावित्री को पुकारा. "सुनो" सावित्री लगभग घबड़ाई हुई उठी और अपना समीज़ पर दुपट्टे को ठीक कर अंदर आए तो देखी की भोला पंडित चौकी पर बैठे हैं. सावित्री उनके चौकी से कुछ दूर पर खड़ी हो गयी और नज़रे झुका ली और पंडित जी क्या कहने वाले हैं इस बात का इंतज़ार करने लगी. तभी भोला पंडित ने पुचछा "महीना तुम्हारा कब आया था"

User avatar
rajkumari
Platinum Member
Posts: 1095
Joined: 22 May 2016 09:23

Re: Hindi sex novel - गावं की लड़की - Village Girl

Unread post by rajkumari » 15 Jul 2016 08:57

गावं की लड़की 4

रोजाना दोपहेर को वे एक या दो घंटे के लिए दुकान बंद कर खाना खा कर दुकान के पिछले हिस्से मे बने कमरे मे आराम करते. यह दुकान को ही दो भागो मे बाँट कर बना था जिसके बीच मे केवल एक दीवार थी और दुकान से इस कमरे मे आने के लिए एक छोटा सा दरवाजा था जिस पर एक परदा लटका रहता. अंदर एक चौकी थी और पिछले कोने मे शौचालय और स्नानघर भी था . यह कमरा दुकान के तुलना मे काफ़ी बड़ा था. कमरे मे एक चौकी थी जिसपर पर भोला पंडित सांड की तरह लेट गये और नीचे एक चटाई पर लक्ष्मी लेट कर आराम करने लगी, सावित्री को भी लेटने के लिए कहा पर पंडितजी की चौकी के ठीक सामने ही बिछी चटाई पर लेटने मे काफ़ी शर्म महसूस कर रही थी लक्ष्मी यह भाँप गयी कि सावित्री भोला पंडित से शर्मा रही है इस वजह से चटाई पर लेट नही रही है. लक्ष्मी ने चटाई उठाया और दुकान वाले हिस्से मे जिसमे की बाहर का दरवाजा बंद था, चली गयी. पीछे पीछे सावित्री भी आई और फिर दोनो एक ही चटाई पर लेट गये, लक्ष्मी तो थोड़ी देर के लिए सो गयी पर सावित्री लेट लेट दुकान की छत को निहारती रही और करीब दो घंटे बाद फिर सभी उठे और दुकान फिर से खुल गई. करीब दस ही दीनो मे लक्ष्मी ने सावित्री को बहुत कुछ बता और समझा दिया था आगे उसके पास समय और नही था कि वह सावित्री की सहयता करे. फिर सावित्री को अकेले ही आना पड़ा. पहले दिन आते समय खंडहेर के पास काफ़ी डर लगता मानो जैसे प्राण ही निकल जाए. कब कोई गुंडा खंडहेर मे खेन्च ले जाए कुछ पता नही था. लेकिन मजबूरी थी दुकान पर जाना. जब पहली बार खंडहेर के पास से गुज़री तो सन्नाटा था लेकिन संयोग से कोई आवारा से कोई अश्लील बातें सुनने को नही मिला. किसी तरह दुकान पर पहुँची और भोला पंडित को नमस्कार किया और वो रोज़ की तरह कुछ भी ना बोले और दुकान के अंदर आने का इशारा बस किया. खंडहेर के पास से गुज़रते हुए लग रहा डर मानो अभी भी सावित्री के मन मे था. आज वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी क्योंकि लक्ष्मी अब नही आने वाली थी. दस दिन तो केवल मा के कहने पर आई थी. यही सोच रही थी और दुकान मे एक तरफ भोला पंडित और दूसरी तरफ एक स्टूल पे सावित्री सलवार समीज़ मे बैठी थी.
दुकान एक पतली गली मे एकदम किनारे होने के वजह से भीड़ भाड़ बहुत कम होती और जो भी ग्राहक आते वो शाम के समय ही आते. दुकान के दूसरी तरफ एक उँची चहारदीवारी थी जिसके वजह से दुकान मे कही से कोई नही देख सकता था तबतक की वह दुकान के ठीक सामने ना हो. इस पतली गली मे यह अंतिम दुकान थी और इसके ठीक बगल वाली दुकान बहुत दीनो से बंद पड़ी थी. शायद यही बात स्टूल पर बैठी सावित्री के मन मे थी कि दुकान भी तो काफ़ी एकांत मे है, पंडित जी अपने कुर्सी पे बैठे बैठे अख़बार पढ़ रहे थे, करीब एक घंटा बीत गया लेकिन वो सावित्री से कुछ भी नही बोले. सावित्री को पता नही क्यो यह अक्चा नही लग रहा था. उनके कड़क और रोबीले मिज़ाज़ के वजह से उसके पास कहाँ इतनी हिम्मत थी कि भोला पंडित से कुछ बात की शुरुआत करे. दुकान मे एक अज़ीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था, तभी भोला पंडित ने स्टूल पर नज़रे झुकाए बैठी सावित्री के तरफ देखा और बोला " देखो एक कपड़ा स्नानघर मे है उसे धो कर अंदर ही फैला देना" मोटी आवाज़ मे आदेश सुनकर सावित्री लगभग हड़बड़ा सी गयी और उसके हलक के बस जी शब्द ही निकला और वह उठी और स्नानघर मे चल दी. स्नानघर मे पहुँच कर वह पीछे पलट कर देखी कि कहीं पंडित जी तो नही आ रहे क्योंकि सावित्री आज अकेले थी और दुकान भी सन्नाटे मे था और पंडित जी भी एक नये आदमी थे. फिर भी पंडित जी के उपर विश्वास था जैसा कि लक्ष्मी ने बताया था. सावित्री को लगा कि पंडित जी वहीं बैठे अख़बार पढ़ रहे हैं. फिर सावित्री ने स्नानघर मे कपड़े तलाशने लगी तो केवल फर्श पर एक सफेद रंग की लंगोट रखी थी जिसे पहलवान लोग पहनते हैं. यह भोला पंडित का ही था. सावित्री के मन मे अचानक एक घबराहट होने लगी क्योंकि वह किसी मर्द का लंगोट धोना ठीक नही लगता. स्नानघर के दरवाजे पर खड़ी हो कर यही सोच रही थी कि अचानक भोला पंडित की मोटी कड़क दार आवाज़ आई "कपड़ा मिला की नही" वे दुकान मे बैठे ही बोल रहे थे. सावित्री पूरी तरह से डर गयी और तुरंत बोली "जी मिला" सावित्री के पास इतनी हिम्मत नही थी कि भोला पंडित से यह कहे कि वह एक लड़की है और उनकी लंगोट को कैसे धो सकती है. आख़िर हाथ बढाई और लंगोट को ढोने के लिए जैसे ही पकड़ी उसे लगा जैसे ये लंगोट नही बल्कि कोई साँप है. फिर किसी तरह से लंगोट को धोने लगी. फिर जैसे ही लंगोट पर साबुन लगाने के लिए लंगोट को फैलाया उसे लगा कि उसमे कुछ काला काला लगा है फिर ध्यान से देख तो एकद्ूम सकपका कर रह गयी. यह काला कला कुछ और नही बल्कि झांट के बॉल थे जो भोला पंडित के ही थे.
जो की काफ़ी मोटे मोटे थे. वह उन्हे छूना बिल्कुल ही नही चाहती थी लेकिन लंगोट साफ कैसे होगी बिना उसे साफ किए. फिर सावित्री ने पानी की धार गिराया कि झांट के बाल लंगोट से बह जाए लेकिन फिर भी कुछ बॉल नही बह सके क्योंकि वो लंगोट के धागो मे बुरी तरह से फँसे थे. यह सावित्री के लिए चुनौती ही थी क्योंकि वह भोला पंडित के झांट के बालो को छूना नही चाहती थी. अचानक बाहर से आवाज़ आई "सॉफ हुआ की नही" और इस मोटे आवाज़ ने मानो सावित्री की हड्डियाँ तक कपा दी और बोल पड़ी "जी कर रही हूँ" और घबराहट मे अपने उंगलिओ से जैसे ही लंगोट मे फँसे झांट के बालो को निकालने के लिए पकड़ी कि सिर से पाव तक गन्गना गयी , उसे ऐसे लगा जैसे ये झांट के बाल नही बल्कि बिजली का कुर्रेंट है, आख़िर किसी तरह एक एक बाल को लंगोट से निकाल कर फर्श पर फेंकी और पानी की धार फेंक कर उसे बहाया जो स्नानघर के नाली के तरफ तैरते हुए जा रहे थे और सावित्री की नज़रे उन्हे देख कर सनसना रही थी. किसी ढंग से लंगोट साफ कर के वह अंदर ही बँधे रस्सी पर फैला कर अपना हाथ धो ली और वापस दुकान मे आई तो चेहरे पर पसीना और लालपान छा गया था. उसने देखा कि भोला पंडित अभी भी बैठे अख़बार पढ़ रहे थे. सावित्री जा कर फिर से स्टूल पर बैठ गयी और नज़रे झुका ली. कुछ देर बाद दोपहर हो चली थी और भोला पंडित के खाना खाने और आराम करने का समय हो चला था. समय देख कर भोला पंडित ने दुकान का बाहरी दरवाजा बंद किया और खाना खाने के लिए अंदर वाले कमरे मे चले आए. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने का सीधा मतलब था कि कोई भी अंदर नही आ सकता था. भोला पंडित खाना खाने लगे और सावित्री तो घर से ही खाना खा कर आती इस लिए उसे बस आराम ही करना होता. सावित्री ने चटाई लेकर दुकान वाले हिस्से मे आ गयी और चटाई बिछा कर लेटने के बजाय बैठ कर आज की घटना के बारे मे सोचने लगी. उसे लगता जैसे भोला पंडित की झांट को छू कर बहुत ग़लत किया, लेकिन डरी सहमी और क्या करती. बार बार उसके मन मे डर लगता. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने के कारण वह अपने आप को सुरक्षित नही महसूस कर रही थी. यही सोचती रही कि अंदर के कमरे से खर्राटे की आवाज़ आने लगी. फिर यह जान कर की भोला पंडित सो गये है वह भी लेट गयी पर उनके लंगोट वाली झांतो की याद बार बार दिमाग़ मे घूमता रहता. यही सब सोचते सोचते करीब एक घंटा बीत गया. फिर भोला पंडित उठे तो उनके उठने के आहट सुन कर सावित्री भी चटाई पर उठ कर बैठ गयी. थोड़ी देर बाद शौचालय से पेशाब करने की आवाज़ आने लगी , वो भोला पंडित कर रहे थे.अभी दुकान खुलने मे लगभग एक घंटे का और समय था और भोला पंडित शायद एक घंटे और आराम करेंगे' यही बात सावित्री सोच रही थी की अंदर से पंडित जी ने सावित्री को पुकारा. "सुनो" सावित्री लगभग घबड़ाई हुई उठी और अपना समीज़ पर दुपट्टे को ठीक कर अंदर आए तो देखी की भोला पंडित चौकी पर बैठे हैं. सावित्री उनके चौकी से कुछ दूर पर खड़ी हो गयी और नज़रे झुका ली और पंडित जी क्या कहने वाले हैं इस बात का इंतज़ार करने लगी. तभी भोला पंडित ने पुचछा "महीना तुम्हारा कब आया था"

User avatar
rajkumari
Platinum Member
Posts: 1095
Joined: 22 May 2016 09:23

Re: Hindi sex novel - गावं की लड़की - Village Girl

Unread post by rajkumari » 15 Jul 2016 08:58

गावं की लड़की 6

उसके मन मे विरोध के भी भाव थे कि ऐसा करने से वो मना कर दे लेकिन गाओं की अट्ठारह साल की सीधी साधी ग़रीब लड़की जिसने अपना ज़्यादा समय घर मे ही बिताया था,
और शर्मीली होने के साथ साथ वह एक डरपोक किस्म की भी हो गयी थी. और वह अपने घर से बाहर दूसरे जगह यानी भोला पंडित के दुकान मे थी जिसका दरवाजा बंद था और दोपहर के समय एकांत और शांत माहौल मे उसका मन और डर से भर गया था. उसके उपर से भोला पंडित जो उँची जाती के थे और उनका रोबीला कड़क आवाज़ और उससे बहुत कम बातें करने का स्वाभाव ने सावित्री के मन मे बचे खुचे आत्मविश्वास और मनोबल को तो लगभग ख़त्म ही कर दिया था. वैसे वह पहले से ही काफ़ी डरी हुई थी और आज उसका पहला दिन था जब वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी.
इन सब हालातों मे विरोध ना कर सकने वाली सावित्री को अब पंडित जी के पैर पर हाथ लगाना ही पड़ा. जैसे ही उसने उनके पैर पर हाथ रखा सारा बदन सनसनाहट से गन्गना गया क्योंकि यह एक मर्द का पैर था. जो कि काफ़ी ताकतवर और गाथा हुआ था और जिस पर घने बॉल उगे थे. वैसे सावित्री कभी कभी अपनी मा का पैर दबा देती थी जब वो काफ़ी थॅकी होती और उसे पैर दबाना मा ने ही सिखाया था. इसलिए मा के पैर की बनावट की तुलना मे भोला पंडित का पैर काफ़ी कड़ा और गाथा हुआ था. जहाँ मा के पैर पर बाल एकदम ना थे वहीं भोला पंडित के पैर पर काफ़ी घने बाल उगे थे. बालो को देखकर और छूकर उसे लंगोट मे लगे झांट के बालों की याद आ गयी और फिर से सनसना सी गयी. वह अपने हाथो से भोला पंडित के पैर को घुटने के नीचे तक ही दबाती थी. साथ साथ पंडित जी के बालिश्ट शरीर को भी महसूस करने लगी. जवान सावित्री के लिए किसी मर्द का पैर दबाना पहली बार पड़ा था और सावित्री को लगने लगा था कि किसी मर्द को छूने से उसके शरीर मैं कैसी सनसनाहट होती है. कुछ देर तक सावित्री वैसे ही पैर दबाती रही और पंडित जी के पैर के घने मोटे बालों को अपने हाथों मे गड़ता महसूस करती रही. तभी पंडित जी ने अपने पैर के घुटनो को मोदकर थोड़ा उपर कर दिया जिससे धोती घुटनो और झंघो से कुछ सरक गयी और उनकी पहलवान जैसी गठीली जांघे धोती से बाहर आ गयी. भोला पंडित के पैरों की नयी स्थिति के अनुसार सावित्री को भी थोड़ा पंडित जी की तरफ ऐसे खिसकना पड़ा ताकि उनके पैरो को अपने हाथों से दबा सके. फिर सावित्री पंडित जी के पैर को दबाने लगी लेकिन केवल घुटनो के नीचे वाले हिस्से को ही. कुछ देर तक केवल एक पैर को दबाने के बाद जब सावित्री दूसरे पैर को दबाने के लिए आगे बढ़ी तभी पंडित जी कड़ी आवाज़ मे बोल पड़े "उपर भी" सावित्री के उपर मानो पहाड़ ही गिर पड़ा. वह समझ गयी कि वो जाँघो को दबाने के लिए कह रहे हैं. पंडित जी की बालिश्ट जाँघो पर बाल कुछ और ही ज़्यादा थे. जाँघो पर हाथ लगाते हुए सावित्री अपनी इज़्ज़त को लगभग लूटते देख रही थी. कही पंडित जी क्रोधित ना हो जाए इस डर से जाँघो को दबाने मे ज़्यादा देर करना ठीक नही समझ रही थी.
अब उसके हाथ मे कंपन लगभग साफ पता चल रहा था. क्योंकि सावित्री पंडित जी के जेंघो को छूने और दबाने के लिए मानसिक रूप से अपने को तैयार नही कर पा रही थी. जो कुछ भी कर रही थी बस डर और घबराहट मे काफ़ी बेबस होने के वजह से. उसे ऐसा महसूस होता था की अभी वह गिर कर तुरंत मर जाएगी. शायद इसी लिए उसे सांस लेने के लिए काफ़ी मेहनत करनी पड़ रही थी. उसके घबराए हुए मन मे यह भी विचार आता था कि उसकी मा ने उसके इज़्ज़त को गाओं के अवारों से बचाने के लिए उसे स्कूल की पड़ाई आठवीं क्लास के बाद बंद करवा दिया और केवल घर मे ही रखी. इसके लिए उसकी विधवा मा को काफ़ी संघर्ष भी करना पड़ा. अकेले घर को चलाने के लिए उसे काफ़ी मेहनत करनी पड़ती थी और इसी लिए कई लोगो के घर जा कर बर्तन झाड़ू पोच्छा के काम करती. आख़िर यह संघर्ष वह अब भी कर रही थी. इसीलिए वह सावित्री को गाओं मे कम करने के बजाय वह अधेड़ पंडित जी के दुकान पर काम करने के लिए भेजा था. यही सोचकर की बाप के उमर के अधेड़ भोला पंडित के दुकान पर उसकी लड़की पूरी सुरक्षित रहेगी जैसा की लक्ष्मी ने बताया था कि पंडित जी काफ़ी शरीफ आदमी हैं. लेकिन सीता की यह कदम की सावित्री भी काम कर के इस ग़रीबी मे इज़्ज़त के लिए इस संघर्ष मे उसका साथ दे जिससे कुछ आमदनी बढ़ जाए और सावित्री की जल्दी शादी के लिए पैसे का इंतेज़ाम हो जाए, सावित्री को अब ग़लत लगने लगा था. लेकिन सावित्री अपने मा को बहुत अच्छी तरीके से जानती थी. सीता को इज़्ज़त से बहुत प्यार था और वह कहती भी थी की मैं ग़रीब भले हूँ और मेरे पास पैसे भले ना हो पर मेरे पास इज़्ज़त तो है. यह बात सही भी थी क्योंकि सावित्री को याद था कि उसके बाप के मरने के बाद सीता ने इस ग़रीबी मे अपनी इज़्ज़त मर्यादा को कैसे बचा कर रखने के लिए कैसे कैसे संघर्ष की. जब वह सयानी हुई तब किस तरह से स्कूल की पड़ाई बंद कराके सावित्री को घर मे ही रहने देने की पूरी कोशिस की ताकि गाओं के गंदे माहौल के वजह से उसके इज़्ज़त पर कोई आँच ना आए. और इज़्ज़त के लिए ही गाओं के गंदे माहौल से डरी सीता यह चाहती थी कि सावित्री की बहुत जल्दी शादी कर के ससुराल भेज दिया जे और इसी लिए वह अपने इस संघर्ष मे सावित्री को भी हाथ बताने के लिए आगे आने के लिए कही.वो भी इस उम्मीद से की कुछ पैसे का इंतेज़ाम हो जाए, पंडित जी के दुकान पर काम के लिए मजबूरी मे भेजी थी इन्ही बातों को सोचते हुए सावित्री को लगा की उसके आँख से आँसू गिर जाएँगे और आँखे लगभग दबदबा गयी. और ज्यो ही सावित्री ने अपना काँपता हाथ पंडित जी के घने उगे बालो वाले बालिश्ट जाँघ पर रखी उसे लगा कि उसकी मा और वह दोनो ही इज़्ज़त के लिए कर रहे अंतिम शंघर्ष मे अब हार सी गयी हो. यही सोचते उसके दबदबाई आँखो से आँसू उसके गालों पर लकीर बनाते हुए टपक पड़े. अपने चेहरे पर आँसुओं के आते ही सावित्री ने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया ताकि पंडित जी की नज़र आँसुओं पर ना पड़ जाए. तभी उसे लगा की पंडित जी उसके आँसुओं को देख लिया हो और दूसरे पल वह उठकर लगभग बैठ गये. सावित्री को लगा की शायद भगवान ने ग़रीब की सुन ली हो और अब इज़्ज़त बच जाय क्योंकि पंडित जी उसके रोने पर तरस खा कर उससे जाँघ ना दब्वाये. ऐसी सोच ने सावित्री के शरीर मे आशा की एक लहर दौड़ा दी. लेकिन अगले पलों मे ऐसा कुछ भी ना हुआ और पंडित जी बगल मे चौकी पर बिछे बिस्तेर के नीचे से एक किताब निकाली और फिर बिना कुछ कहे वैसे ही लेट गये और उस किताब को पढ़ने लगे. सावित्री को लगा कि वो आसमान से गिर गयी हो. नतीज़ा यह की सावित्री अपने आँखो मे आँसू लिए हुए उनके बालिश्ट झांग को दबाने लगी. जो कि बहुत कड़ा था और काफ़ी घने बाल होने के कारण सावित्री के हाथ मे लगभग चुभ से रहे थे. और ऐसा लगता मानो ये बाल सावित्री के हथेली मे गुदगुदी कर रहे हों क्योंकि काफ़ी मोटे और कड़े भी थे. जब भी सावित्री पंडित जी के जाँघ को दबाती उसे महसूस होता की उनके झांग और उसके हाथों के बीच मे उनके कड़े मोटे बाल एक परत सी बना ले रही हों.

Post Reply