Re: दुक्खम्-सुक्खम्
Posted: 25 Dec 2014 14:29
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कवि ने अब तक किताबों में जिस दिल्ली के विषय में पढ़ा था वह पुरानी दिल्ली थी। पुरानी से भी ज्याबदा प्राचीन, मुगलकालीन। नये समय में दिल्ली में इतने मौलिक स्थापत्य, भवन और मार्ग बन गये थे कि अपनी दो आँखों में उसे सँभाल पाना उसे मुश्किल लग रहा था। उसे इतना पता था कि उसके नरोत्तम फूफाजी फतहपुरी में अख़बारों का स्टॉल लगाते थे। स्टेशन पर उतर वह फतहपुरी चल दिया। काफ़ी माथापच्ची के बाद पता चला कि नरोत्तम फूफाजी ने तो कब का यह धन्धा बन्द कर दिया, अब तो उनका लडक़ा लड्डू चौराहे पर मजमा जुटाकर बालजीवन घुट्टी की दवा बेचता है। किसी तरह कविमोहन बुआ के घर तक पहुँचा। बुआ की आँखें मोतियाबिन्द से प्रभावित थीं। वे कवि को पहचान नहीं पायीं। कवि ने आखिरी उपाय आज़माया। उसने बुआ के पास जाकर कान में कहा, ‘‘काना बाती कुर्र।’’
बुआ कवि के बचपन में लौट गयीं जब इन्हीं तरीकों से नन्हे कवि को हँसाया करती थीं। बुआ पहले हँसीं फिर रोयीं और अन्त में कवि को गले लगा लिया।
फूफाजी ने नीचे से लाकर खस्ता कचौड़ी और आलू की रसेदार तरकारी का नाश्ता करवाया और घर के एक-एक सदस्य की कुशल मंगल पूछी।
कवि ने बताया उसे मंगलवार को आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज में इंटरव्यू देना है।
‘‘तू इत्तो बड़ौ हौं गयौ कि दूसरों को पढ़ावैगौ,’’ बुआ खुश होकर बोलीं।
दिन भर में कवि ने पाया कि बुआ एक भी मिनट आराम नहीं करतीं। चौके से फ़ारिग होते ही वे खरबूजे के बीज छीलने बैठ जातीं। एक सीले अँगोछे में मोया लगे बीजों को बाँस की छोटी नहन्नी से दबाकर वे गिरी अलग करतीं और एक ही थाली में गिरी और छिलका डालती जातीं। शाम छ: बजे तक यह काम करने के बाद वे उठतीं। फूफाजी थाली फटककर छिलके और गिरी अलग कर लेते और दोनों को अलग पोटली में बाँध देते। कवि का अन्दाज़ा सही था कि यह काम दिहाड़ी का था। फूफाजी देर रात तक प्रूफ़ देखने का काम करते। कवि को लगा इस परिवार में कुल तीन सदस्य हैं, तीनों ने मिलकर घर की अर्थव्यवस्था को साधा हुआ है। सब एक-दूसरे के प्रति कितने संवेदनशील हैं।
लड्डू देर शाम लौटकर आया। कन्धे पर काले रंग का बड़ा-सा झोला था। उसने झोले में से कत्थई रंग की एक थैली निकाली। सारी रेजगारी गिनने पर
35/- रुपये निकली।
कवि ने कहा, ‘‘कमाई तो अच्छी हुई है पर मेहनत बहुत ज्यासदा है।’’
लड्डू हँसा, ‘‘भैया जोर-जोर से बोलने से गला बैठ गया है।’’
बुआ ने अदरक-तुलसी की चाय बनायी। कवि ने कहा, ‘‘अच्छा-ख़ासा नाम है तुम्हारा विजेन्द्र। यह लड्डू नाम कैसे पड़ गया। क्यों बुआ क्या इसे लड्डू बहुत पसन्द है?’’
बुआ बोलीं, ‘‘अरे नहीं, जब ये पैदा भया घर में यही बात हुई लड्डू बँटने चाहिए छोरा भयौ है। पर इसकी रही तबियत खराब।’’
‘‘पीलिया हो गया था इसे।’’ फूफाजी ने याद किया।
बस इसी परेशानी में आजकल-आजकल होती रही और लड्डू बँटे ही नहीं। घर में सबने कहा, ‘‘यह लड्डू गोपाल सुस्थ हो तो लड्डू बँटें। बस तभी से इसे लड्डू कहने लगे।’’
‘‘पढ़ाई बीच में छोड़ दी क्या?’’ कवि ने लड्डू से पूछा।
लड्डू ने सिर झुका लिया।
फूफाजी बोले, ‘‘पढ़ाई से इसका जी उचाट हो गया। एक बार सातवीं में फेल हो गया था। तभी से इसने ठान ली अब स्कूल नहीं जाना। पूछो इससे कित्ता समझाया।’’
बुआ उसे बचाने लगीं, ‘‘ठीक है वोही किस्सा लेकर न बैठ जाया करो।’’
‘‘ऐसे ही भग्गो की पढ़ाई छूट गयी थी। मैंने फिर से शुरू करवाई है। तू भी लड्डू मिडिल का इम्तहान प्राइवेट दे ले। मैं तैयारी करवा दूँगा।’’ कवि ने कहा।
रात में बारजे पर खड़े होकर देखने पर फतहपुरी की सडक़ चौड़ी लग रही थी जबकि दिन में सँकरी। दिन भर यहाँ से इतने रिक्शे, ताँगे और ठेले, साइकिल गुज़रते। एकदम पास में खारी बावली बाज़ार था, मेवे मसाले का बड़ा व्यापार अड्डा। इसीलिए फतहपुरी के इस मकान में हर समय मसालों की गन्ध आती रहती थी, जैसे मिर्चों की धाँस हवा में समायी हो। लड्डू ने दिखाया, ‘‘यह देखिए सीधी सडक़ यहाँ से लाल किला जाती है। लाल किले से आपको दरियागंज की बस मिल जाएगी।’’
दस बजे तक सब नींद में लुढक़ गये। कवि को देर तक नींद नहीं आयी। मन उद्विग्न था। यह महज़ एक नौकरी का इंटरव्यू नहीं था जिसका सामना उसे करना था। यह एक नयी जीवन-पद्धति का भी घोषणा-पत्र था। उसे लग रहा था, संयुक्त परिवार में यदि सामंजस्य न हो तो वह पागलख़ाना साबित होता है। एकल परिवार की कल्पना से उसे रोमांच हो आया। वह ऐसा घर बनाएगा जहाँ पिता की दाँताकिलकिल का दख़ल न होगा। माँ के लिए उसे लगाव महसूस हो रहा था, उन्हें पास रखकर वह उनका इलाज करवाए, उन्हें आराम दे पर इसमें अभी बहुत वक्त था। पहले नौकरी तो मिले।
कवि को यह सोचकर ग्लानि हो रही थी कि बुआ ने कितने चाव से उसके सारे घरबार की बात की जबकि उसने अपने घर में बुआ का जिक्र आते ही कलह-कोहराम देख रखा था। दादाजी ख़ुद अपनी बहन को पसन्द नहीं करते थे, जिसकी वजह आज तक उसे पता नहीं चली। अब उसे ऐसा लग रहा था कि उनकी शादी के बाद यह नापसन्दगी और बढ़ गयी थी। दरअसल फूफाजी अपने घर के विद्रोही लडक़े थे जिन्होंने हिंडौन में पत्थर के पुश्तैनी व्यापार से इनकार कर अपने लिए नया रास्ता चुना। वे बनना चाहते थे पत्रकार लेकिन समुचित डिग्री और सम्पर्क न होने की वजह से अख़बारों के हॉकर बनकर रह गये। सुबह चार बजे रोज़ उठकर उस क़ारोबार को भी सँभाल न पाये और अब इधर-उधर के छुट्टा कामों से गुज़ारा चला रहे थे।
यही सब याद करते, न जाने कब कवि की आँख लग गयी।
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सवेरे नौ बजे जब बुआ के हाथों, कविमोहन, दही-बूरा खाकर इंटरव्यू के लिए निकला उसका मन उत्साह और ऊर्जा से भरा हुआ था। दरियागंज में आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज ढूँढऩे में ज़रा भी दिक्कत नहीं हुई। इंटरव्यू शुरू होने में अभी दस मिनट शेष थे।
हॉल में ग्यारह उम्मीदवार उपस्थित थे। इनमें कवि के अलावा और दो लडक़े सेंट जॉन्स आगरा के थे। इनमें से नदीम ख़ान से उसका परिचय मात्र था जबकि कुबेरनाथ कुलश्रेष्ठ की गिनती तेजस्वी छात्रों में रही थी। लेकिन चपरासी ने सबसे पहले पुकारा, ‘‘अपूर्व मेहरोत्रा।’’
बेहद स्मार्ट और खूबसूरत यह अभ्यर्थी दिल्ली विश्वविद्यालय का ही था और बाकी लडक़ों से पता चला कि इसकी नियुक्ति की काफ़ी सम्भावना थी। दिल्ली में स्थित कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के पढ़े हुए अभ्यर्थियों को ज्यामदा तरजीह देते थे। ऐसे में आगरा विश्वविद्यालय का नम्बर डाँवाडोल ही लग रहा था।
अपूर्व मेहरोत्रा का साक्षात्कार आधा घंटे चला। जब वह बाहर आया, काफ़ी प्रसन्न लग रहा था। बाकी अभ्यर्थी उसे घेरकर खड़े हो गये, ‘‘क्या पूछा उन्होंने?’’, ‘‘सेलेक्शन बोर्ड में कितने सदस्य हैं?’’, ‘‘कोई खूसट और ख़ब्ती तो नहीं है?’’ जैसे सवाल लडक़े दाग रहे थे और अपूर्व मेहरोत्रा बड़ी खुशमिज़ाजी से जवाब दे रहा था।
अँग्रेज़ी वर्णानुक्रम में कवि का नम्बर जब तक आया, दोपहर के एक बज चुके थे।
क्लर्क ने आकर सूचना दी, ‘‘साहब लोग लंच करनेवाले हैं, दो बजे से इंटरव्यू फिर चलेगा। जाइए, आप सब भी कैंटीन में चाय पी लीजिए।’’
चाय के बहाने चहलक़दमी हो गयी। कॉलेज की बड़ी-सी इमारत, चौड़े गलियारे और लम्बे व्याख्यान-कक्ष देखकर रोमांच हो आया कि अगर हमारा चयन हो गया तो इन्हीं गलियारों से होकर हम व्याख्यान-कक्ष में पहुँचा करेंगे। कवि मन-ही-मन पिछले दिनों का पढ़ा-लिखा घोख रहा था। प्रकट वह नदीम और कुबेर के साथ बैठा हुआ था। नदीम कुबेर से कह रहा था, ‘‘मेरे अब्बा तो दयालबाग में जमे हुए हैं, इसलिए मैं आगरे में पढ़ा, तुम दिल्लीवाले होकर आगरे क्या करने गये थे? यहाँ कहीं दाखिला नहीं मिला क्या?’’
कुबेर ने आँख दबाकर कहा, ‘‘मत पूछो दोस्त। इस बात का एक रोमांटिक इतिहास है।’’
कवि को इस बात से झेंप आ रही थी कि उसके हमउम्र ये सहपाठी अभी अविवाहित थे जबकि वह दो बच्चों का बाप बन बैठा था। परिवार की कचर-पचर में पडक़र वह वक्त से पहले बड़ा हो गया और वक्त से पहले ही बूढ़ा हो जाएगा।
‘‘आगरे के पानी का असर है या ताज के साये का, वहाँ जो भी आता है मजनूँ बनकर आता है।’’
‘‘मेरा मामला ताज के साये का नहीं, मुमताज़ की मुहब्बत का था। उसी के पीछे-पीछे पहुँच गया।’’
एक गहरी नि:श्वास लेकर कविमोहन ने घड़ी देखी। दो बजने ही वाले थे। ‘एक्सक्यूज़ मी’ कहकर वह उठ खड़ा हुआ। उसे पता था इन दोनों का बुलावा उसके बाद आनेवाला था।
सब कुछ प्रत्याशित कहाँ हो पाता है। हम लाख योजना बनाएँ एक एक्स-फैक्टर होता है जो हमारे गणित को ध्वस्त करता चलता है।
जैसे ही कविमोहन ने इंटरव्यू-कक्ष में प्रवेश किया, पैनल के एक सदस्य ने तड़ से उस पर सवाल फेंका, ‘‘मिस्टर कविमोहन वॉट डू यू थिंक इज़ मोर क्रूशल टु इंडिया एज़ ए नेशन, वल्र्ड वॉर टू ऑर फ्रीडम स्ट्रगल? (कविमोहन तुम्हारे विचार से भारतवर्ष के लिए कौन-सा मसला ज्या,दा अहम है, द्वितीय विश्वयुद्ध अथवा स्वाधीनता का संघर्ष।)
ऐसे सवालों का सामना रणनीति से नहीं नीति से करना होता है। उसी के अधीन कवि के मुँह से निकला, ‘‘सर, फ्रीडम स्ट्रगल।’’ (सर, स्वाधीनता संघर्ष)।
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध एक नकारात्मक आन्दोलन है जिससे हमारी गुलामी की जड़ें और मज़बूत होंगी जबकि आज़ादी एक सकारात्मक संघर्ष है।’’
‘‘अगर जनता में संघर्ष चेतना न हो तो आज़ादी का संघर्ष क्या कर लेगा।’’
‘‘अस्तित्व और संघर्ष-चेतना समानान्तर विकास पाते आये हैं।’’
एक सदस्य ने वार्तालाप अँग्रेज़ी साहित्य की तरफ़ मोडऩे का प्रयत्न किया, ‘‘ई. एम. फॉस्र्टर के इस बयान से आप कहाँ तक सहमत हैं कि उपन्यास में पात्र टाइप होते हैं अथवा विशिष्ट।’’
कविमोहन को ई. एम. फॉस्र्टर की पुस्तक ‘एसपेक्ट्स ऑफ़ द नॉवल’ पूरी कंठस्थ थी। उसने चाल्र्स डिकेन्स का हवाला देकर इस टिप्पणी की व्याख्या कर दी।
कवि के उच्चारण, ज्ञान और शब्द भंडार से सभी सदस्य प्रभावित हुए।
एक बुज़ुर्ग सदस्य ने पूछा, ‘‘आप साहित्य के सवालों से ओत-प्रोत हैं। किन्तु आपको यहाँ बी.ए., बी.कॉम. के विद्यार्थियों को अँग्रेज़ी का सामान्य पाठ्यक्रम पढ़ाना होगा। आपके अन्दर बहुत जल्द हताशा पैदा हो जाएगी, तब आप क्या करेंगे।’’
‘‘मैंने सोच-समझकर यहाँ के लिए आवेदन किया है। अँग्रेज़ी भाषा का ज्ञान प्रसारित करना भी ज़रूरी काम है।’’
एक सदस्य ने डब्ल्यू. बी. येट्स पर प्रश्न पूछे।
कवि के जवाबों से सभी सदस्य प्रभावित हुए।
बाहर आने पर कवि को बताया गया कि उसका इंटरव्यू पूरे चालीस मिनट चला। नदीम ख़ान ने कहा, ‘‘हमने सोचा तुम अन्दर जाकर सो गये हो।’’
सभी अभ्यर्थियों के इंटरव्यू होने के बाद भी परिणाम घोषित होने में देर थी।
पाँच बजनेवाले थे। उकताकर लडक़ों ने ऑफिस में जाकर पूछा, ‘‘हम रुकें या जाएँ?’’
क्लर्क ने बताया, ‘‘कल फिर आप सबको ग्यारह बजे आना होगा?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘इस कॉलेज की यही परम्परा है। यहाँ दो बार इंटरव्यू देना होता है। एक्सपर्टस ने आपको जाँच लिया। अब मैनेजमेंट के लोगों से मिलिएगा।’’
सबका मूड उखड़ गया। इसका मतलब था कॉलेज में मैनेजमेंट का हस्तक्षेप बहुत ज्यारदा है। दो-एक अभ्यर्थी तो एकदम बिदककर बोले, ‘‘रखना है तो घर पर ख़बर कर दें। हम तो दो-दो बार इंटरव्यू देने से रहे।’’
कवि के पास नखरा दिखाने की गुंजाइश नहीं थी। हाँ, उसे यह ज़रूर लगा कि उसे बुआ की मुश्किल एक दिन के लिए और बढ़ानी पड़ेगी।
दो-दो बार इंटरव्यू का सरंजाम सुनकर फूफाजी को ज़रा भी ताज्जुब नहीं हुआ। उन्होंने कहा, ‘‘भई यह भी लालाओं का कॉलेज है। यहाँ तो चपरासी भी रक्खा जाता है तो उसे लालाजी के सामने पेश होना पड़ता है। शिक्षक रखने से पहले तो वे दो बार ठोक-बजाकर ज़रूर देखेंगे।’’
कवि ने चिन्तित होकर कहा, ‘‘अब इस दूसरी इंटरव्यू की क्या तैयारी करनी होगी?’’
‘‘कुछ नहीं, तुम चुप ही रहना। यह जो तुम्हारी जाति है न वही फ़ैसला करवाएगी। आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज में वैश्य भाइयों का बोलबाला है।’’
कवि को बड़ा अजीब लगा। मथुरा के चम्पा अग्रवाल कॉलेज में भी उसे यही पता चला था कि उसे नियुक्ति महज़ इसलिए मिली क्योंकि वह अग्रवाल जाति का था। अर्थात वह नियुक्ति उसके अब तक के पढ़े-गुने पर ज़ोरदार तमाचा थी। दिल्ली जैसे बड़े नगर में भी यही तर्क कारगर होगा, इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी।
कविमोहन विस्तृत आकाश की तलाश में दिल्ली आया था। उसने चाहा था अपनी योग्यता के बल पर वह एक झटके में न सिर्फ नौकरी वरन् जीवन-शैली बदल डाले। उसे याद आया चम्पा अग्रवाल कॉलेज के इंटरव्यू के वक्त प्रबन्धक भरतियाजी ने कहा था, ‘‘अपने लाला नत्थीमल का छोरा है क्या नाम कविमोहन। भई इससे तो पढ़वाना ही पड़ेगा।’’
चम्पा अग्रवाल कॉलेज के अनेक आन्तरिक पचड़ों के बीच, पुराने अध्यापकों के विवाद और संवाद में कभी उस जैसे रंगरूट की बात शान्ति से सुन ली जाती तो सिर्फ इसलिए कि वह प्रबन्धकजी की नवीनतम पसन्द था। किन्तु इस तथ्य पर इतराने से ज्यालदा वह घबराने लगा था। उसे लगता ज़रूर शहर का पिछड़ापन इस मानसिकता के लिए जिम्मेदार है। कवि के सपनों का भारत जातिवर्ग रहित समतामूलक समाज देखने का आकांक्षी था।
कवि ने अब तक किताबों में जिस दिल्ली के विषय में पढ़ा था वह पुरानी दिल्ली थी। पुरानी से भी ज्याबदा प्राचीन, मुगलकालीन। नये समय में दिल्ली में इतने मौलिक स्थापत्य, भवन और मार्ग बन गये थे कि अपनी दो आँखों में उसे सँभाल पाना उसे मुश्किल लग रहा था। उसे इतना पता था कि उसके नरोत्तम फूफाजी फतहपुरी में अख़बारों का स्टॉल लगाते थे। स्टेशन पर उतर वह फतहपुरी चल दिया। काफ़ी माथापच्ची के बाद पता चला कि नरोत्तम फूफाजी ने तो कब का यह धन्धा बन्द कर दिया, अब तो उनका लडक़ा लड्डू चौराहे पर मजमा जुटाकर बालजीवन घुट्टी की दवा बेचता है। किसी तरह कविमोहन बुआ के घर तक पहुँचा। बुआ की आँखें मोतियाबिन्द से प्रभावित थीं। वे कवि को पहचान नहीं पायीं। कवि ने आखिरी उपाय आज़माया। उसने बुआ के पास जाकर कान में कहा, ‘‘काना बाती कुर्र।’’
बुआ कवि के बचपन में लौट गयीं जब इन्हीं तरीकों से नन्हे कवि को हँसाया करती थीं। बुआ पहले हँसीं फिर रोयीं और अन्त में कवि को गले लगा लिया।
फूफाजी ने नीचे से लाकर खस्ता कचौड़ी और आलू की रसेदार तरकारी का नाश्ता करवाया और घर के एक-एक सदस्य की कुशल मंगल पूछी।
कवि ने बताया उसे मंगलवार को आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज में इंटरव्यू देना है।
‘‘तू इत्तो बड़ौ हौं गयौ कि दूसरों को पढ़ावैगौ,’’ बुआ खुश होकर बोलीं।
दिन भर में कवि ने पाया कि बुआ एक भी मिनट आराम नहीं करतीं। चौके से फ़ारिग होते ही वे खरबूजे के बीज छीलने बैठ जातीं। एक सीले अँगोछे में मोया लगे बीजों को बाँस की छोटी नहन्नी से दबाकर वे गिरी अलग करतीं और एक ही थाली में गिरी और छिलका डालती जातीं। शाम छ: बजे तक यह काम करने के बाद वे उठतीं। फूफाजी थाली फटककर छिलके और गिरी अलग कर लेते और दोनों को अलग पोटली में बाँध देते। कवि का अन्दाज़ा सही था कि यह काम दिहाड़ी का था। फूफाजी देर रात तक प्रूफ़ देखने का काम करते। कवि को लगा इस परिवार में कुल तीन सदस्य हैं, तीनों ने मिलकर घर की अर्थव्यवस्था को साधा हुआ है। सब एक-दूसरे के प्रति कितने संवेदनशील हैं।
लड्डू देर शाम लौटकर आया। कन्धे पर काले रंग का बड़ा-सा झोला था। उसने झोले में से कत्थई रंग की एक थैली निकाली। सारी रेजगारी गिनने पर
35/- रुपये निकली।
कवि ने कहा, ‘‘कमाई तो अच्छी हुई है पर मेहनत बहुत ज्यासदा है।’’
लड्डू हँसा, ‘‘भैया जोर-जोर से बोलने से गला बैठ गया है।’’
बुआ ने अदरक-तुलसी की चाय बनायी। कवि ने कहा, ‘‘अच्छा-ख़ासा नाम है तुम्हारा विजेन्द्र। यह लड्डू नाम कैसे पड़ गया। क्यों बुआ क्या इसे लड्डू बहुत पसन्द है?’’
बुआ बोलीं, ‘‘अरे नहीं, जब ये पैदा भया घर में यही बात हुई लड्डू बँटने चाहिए छोरा भयौ है। पर इसकी रही तबियत खराब।’’
‘‘पीलिया हो गया था इसे।’’ फूफाजी ने याद किया।
बस इसी परेशानी में आजकल-आजकल होती रही और लड्डू बँटे ही नहीं। घर में सबने कहा, ‘‘यह लड्डू गोपाल सुस्थ हो तो लड्डू बँटें। बस तभी से इसे लड्डू कहने लगे।’’
‘‘पढ़ाई बीच में छोड़ दी क्या?’’ कवि ने लड्डू से पूछा।
लड्डू ने सिर झुका लिया।
फूफाजी बोले, ‘‘पढ़ाई से इसका जी उचाट हो गया। एक बार सातवीं में फेल हो गया था। तभी से इसने ठान ली अब स्कूल नहीं जाना। पूछो इससे कित्ता समझाया।’’
बुआ उसे बचाने लगीं, ‘‘ठीक है वोही किस्सा लेकर न बैठ जाया करो।’’
‘‘ऐसे ही भग्गो की पढ़ाई छूट गयी थी। मैंने फिर से शुरू करवाई है। तू भी लड्डू मिडिल का इम्तहान प्राइवेट दे ले। मैं तैयारी करवा दूँगा।’’ कवि ने कहा।
रात में बारजे पर खड़े होकर देखने पर फतहपुरी की सडक़ चौड़ी लग रही थी जबकि दिन में सँकरी। दिन भर यहाँ से इतने रिक्शे, ताँगे और ठेले, साइकिल गुज़रते। एकदम पास में खारी बावली बाज़ार था, मेवे मसाले का बड़ा व्यापार अड्डा। इसीलिए फतहपुरी के इस मकान में हर समय मसालों की गन्ध आती रहती थी, जैसे मिर्चों की धाँस हवा में समायी हो। लड्डू ने दिखाया, ‘‘यह देखिए सीधी सडक़ यहाँ से लाल किला जाती है। लाल किले से आपको दरियागंज की बस मिल जाएगी।’’
दस बजे तक सब नींद में लुढक़ गये। कवि को देर तक नींद नहीं आयी। मन उद्विग्न था। यह महज़ एक नौकरी का इंटरव्यू नहीं था जिसका सामना उसे करना था। यह एक नयी जीवन-पद्धति का भी घोषणा-पत्र था। उसे लग रहा था, संयुक्त परिवार में यदि सामंजस्य न हो तो वह पागलख़ाना साबित होता है। एकल परिवार की कल्पना से उसे रोमांच हो आया। वह ऐसा घर बनाएगा जहाँ पिता की दाँताकिलकिल का दख़ल न होगा। माँ के लिए उसे लगाव महसूस हो रहा था, उन्हें पास रखकर वह उनका इलाज करवाए, उन्हें आराम दे पर इसमें अभी बहुत वक्त था। पहले नौकरी तो मिले।
कवि को यह सोचकर ग्लानि हो रही थी कि बुआ ने कितने चाव से उसके सारे घरबार की बात की जबकि उसने अपने घर में बुआ का जिक्र आते ही कलह-कोहराम देख रखा था। दादाजी ख़ुद अपनी बहन को पसन्द नहीं करते थे, जिसकी वजह आज तक उसे पता नहीं चली। अब उसे ऐसा लग रहा था कि उनकी शादी के बाद यह नापसन्दगी और बढ़ गयी थी। दरअसल फूफाजी अपने घर के विद्रोही लडक़े थे जिन्होंने हिंडौन में पत्थर के पुश्तैनी व्यापार से इनकार कर अपने लिए नया रास्ता चुना। वे बनना चाहते थे पत्रकार लेकिन समुचित डिग्री और सम्पर्क न होने की वजह से अख़बारों के हॉकर बनकर रह गये। सुबह चार बजे रोज़ उठकर उस क़ारोबार को भी सँभाल न पाये और अब इधर-उधर के छुट्टा कामों से गुज़ारा चला रहे थे।
यही सब याद करते, न जाने कब कवि की आँख लग गयी।
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सवेरे नौ बजे जब बुआ के हाथों, कविमोहन, दही-बूरा खाकर इंटरव्यू के लिए निकला उसका मन उत्साह और ऊर्जा से भरा हुआ था। दरियागंज में आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज ढूँढऩे में ज़रा भी दिक्कत नहीं हुई। इंटरव्यू शुरू होने में अभी दस मिनट शेष थे।
हॉल में ग्यारह उम्मीदवार उपस्थित थे। इनमें कवि के अलावा और दो लडक़े सेंट जॉन्स आगरा के थे। इनमें से नदीम ख़ान से उसका परिचय मात्र था जबकि कुबेरनाथ कुलश्रेष्ठ की गिनती तेजस्वी छात्रों में रही थी। लेकिन चपरासी ने सबसे पहले पुकारा, ‘‘अपूर्व मेहरोत्रा।’’
बेहद स्मार्ट और खूबसूरत यह अभ्यर्थी दिल्ली विश्वविद्यालय का ही था और बाकी लडक़ों से पता चला कि इसकी नियुक्ति की काफ़ी सम्भावना थी। दिल्ली में स्थित कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के पढ़े हुए अभ्यर्थियों को ज्यामदा तरजीह देते थे। ऐसे में आगरा विश्वविद्यालय का नम्बर डाँवाडोल ही लग रहा था।
अपूर्व मेहरोत्रा का साक्षात्कार आधा घंटे चला। जब वह बाहर आया, काफ़ी प्रसन्न लग रहा था। बाकी अभ्यर्थी उसे घेरकर खड़े हो गये, ‘‘क्या पूछा उन्होंने?’’, ‘‘सेलेक्शन बोर्ड में कितने सदस्य हैं?’’, ‘‘कोई खूसट और ख़ब्ती तो नहीं है?’’ जैसे सवाल लडक़े दाग रहे थे और अपूर्व मेहरोत्रा बड़ी खुशमिज़ाजी से जवाब दे रहा था।
अँग्रेज़ी वर्णानुक्रम में कवि का नम्बर जब तक आया, दोपहर के एक बज चुके थे।
क्लर्क ने आकर सूचना दी, ‘‘साहब लोग लंच करनेवाले हैं, दो बजे से इंटरव्यू फिर चलेगा। जाइए, आप सब भी कैंटीन में चाय पी लीजिए।’’
चाय के बहाने चहलक़दमी हो गयी। कॉलेज की बड़ी-सी इमारत, चौड़े गलियारे और लम्बे व्याख्यान-कक्ष देखकर रोमांच हो आया कि अगर हमारा चयन हो गया तो इन्हीं गलियारों से होकर हम व्याख्यान-कक्ष में पहुँचा करेंगे। कवि मन-ही-मन पिछले दिनों का पढ़ा-लिखा घोख रहा था। प्रकट वह नदीम और कुबेर के साथ बैठा हुआ था। नदीम कुबेर से कह रहा था, ‘‘मेरे अब्बा तो दयालबाग में जमे हुए हैं, इसलिए मैं आगरे में पढ़ा, तुम दिल्लीवाले होकर आगरे क्या करने गये थे? यहाँ कहीं दाखिला नहीं मिला क्या?’’
कुबेर ने आँख दबाकर कहा, ‘‘मत पूछो दोस्त। इस बात का एक रोमांटिक इतिहास है।’’
कवि को इस बात से झेंप आ रही थी कि उसके हमउम्र ये सहपाठी अभी अविवाहित थे जबकि वह दो बच्चों का बाप बन बैठा था। परिवार की कचर-पचर में पडक़र वह वक्त से पहले बड़ा हो गया और वक्त से पहले ही बूढ़ा हो जाएगा।
‘‘आगरे के पानी का असर है या ताज के साये का, वहाँ जो भी आता है मजनूँ बनकर आता है।’’
‘‘मेरा मामला ताज के साये का नहीं, मुमताज़ की मुहब्बत का था। उसी के पीछे-पीछे पहुँच गया।’’
एक गहरी नि:श्वास लेकर कविमोहन ने घड़ी देखी। दो बजने ही वाले थे। ‘एक्सक्यूज़ मी’ कहकर वह उठ खड़ा हुआ। उसे पता था इन दोनों का बुलावा उसके बाद आनेवाला था।
सब कुछ प्रत्याशित कहाँ हो पाता है। हम लाख योजना बनाएँ एक एक्स-फैक्टर होता है जो हमारे गणित को ध्वस्त करता चलता है।
जैसे ही कविमोहन ने इंटरव्यू-कक्ष में प्रवेश किया, पैनल के एक सदस्य ने तड़ से उस पर सवाल फेंका, ‘‘मिस्टर कविमोहन वॉट डू यू थिंक इज़ मोर क्रूशल टु इंडिया एज़ ए नेशन, वल्र्ड वॉर टू ऑर फ्रीडम स्ट्रगल? (कविमोहन तुम्हारे विचार से भारतवर्ष के लिए कौन-सा मसला ज्या,दा अहम है, द्वितीय विश्वयुद्ध अथवा स्वाधीनता का संघर्ष।)
ऐसे सवालों का सामना रणनीति से नहीं नीति से करना होता है। उसी के अधीन कवि के मुँह से निकला, ‘‘सर, फ्रीडम स्ट्रगल।’’ (सर, स्वाधीनता संघर्ष)।
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध एक नकारात्मक आन्दोलन है जिससे हमारी गुलामी की जड़ें और मज़बूत होंगी जबकि आज़ादी एक सकारात्मक संघर्ष है।’’
‘‘अगर जनता में संघर्ष चेतना न हो तो आज़ादी का संघर्ष क्या कर लेगा।’’
‘‘अस्तित्व और संघर्ष-चेतना समानान्तर विकास पाते आये हैं।’’
एक सदस्य ने वार्तालाप अँग्रेज़ी साहित्य की तरफ़ मोडऩे का प्रयत्न किया, ‘‘ई. एम. फॉस्र्टर के इस बयान से आप कहाँ तक सहमत हैं कि उपन्यास में पात्र टाइप होते हैं अथवा विशिष्ट।’’
कविमोहन को ई. एम. फॉस्र्टर की पुस्तक ‘एसपेक्ट्स ऑफ़ द नॉवल’ पूरी कंठस्थ थी। उसने चाल्र्स डिकेन्स का हवाला देकर इस टिप्पणी की व्याख्या कर दी।
कवि के उच्चारण, ज्ञान और शब्द भंडार से सभी सदस्य प्रभावित हुए।
एक बुज़ुर्ग सदस्य ने पूछा, ‘‘आप साहित्य के सवालों से ओत-प्रोत हैं। किन्तु आपको यहाँ बी.ए., बी.कॉम. के विद्यार्थियों को अँग्रेज़ी का सामान्य पाठ्यक्रम पढ़ाना होगा। आपके अन्दर बहुत जल्द हताशा पैदा हो जाएगी, तब आप क्या करेंगे।’’
‘‘मैंने सोच-समझकर यहाँ के लिए आवेदन किया है। अँग्रेज़ी भाषा का ज्ञान प्रसारित करना भी ज़रूरी काम है।’’
एक सदस्य ने डब्ल्यू. बी. येट्स पर प्रश्न पूछे।
कवि के जवाबों से सभी सदस्य प्रभावित हुए।
बाहर आने पर कवि को बताया गया कि उसका इंटरव्यू पूरे चालीस मिनट चला। नदीम ख़ान ने कहा, ‘‘हमने सोचा तुम अन्दर जाकर सो गये हो।’’
सभी अभ्यर्थियों के इंटरव्यू होने के बाद भी परिणाम घोषित होने में देर थी।
पाँच बजनेवाले थे। उकताकर लडक़ों ने ऑफिस में जाकर पूछा, ‘‘हम रुकें या जाएँ?’’
क्लर्क ने बताया, ‘‘कल फिर आप सबको ग्यारह बजे आना होगा?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘इस कॉलेज की यही परम्परा है। यहाँ दो बार इंटरव्यू देना होता है। एक्सपर्टस ने आपको जाँच लिया। अब मैनेजमेंट के लोगों से मिलिएगा।’’
सबका मूड उखड़ गया। इसका मतलब था कॉलेज में मैनेजमेंट का हस्तक्षेप बहुत ज्यारदा है। दो-एक अभ्यर्थी तो एकदम बिदककर बोले, ‘‘रखना है तो घर पर ख़बर कर दें। हम तो दो-दो बार इंटरव्यू देने से रहे।’’
कवि के पास नखरा दिखाने की गुंजाइश नहीं थी। हाँ, उसे यह ज़रूर लगा कि उसे बुआ की मुश्किल एक दिन के लिए और बढ़ानी पड़ेगी।
दो-दो बार इंटरव्यू का सरंजाम सुनकर फूफाजी को ज़रा भी ताज्जुब नहीं हुआ। उन्होंने कहा, ‘‘भई यह भी लालाओं का कॉलेज है। यहाँ तो चपरासी भी रक्खा जाता है तो उसे लालाजी के सामने पेश होना पड़ता है। शिक्षक रखने से पहले तो वे दो बार ठोक-बजाकर ज़रूर देखेंगे।’’
कवि ने चिन्तित होकर कहा, ‘‘अब इस दूसरी इंटरव्यू की क्या तैयारी करनी होगी?’’
‘‘कुछ नहीं, तुम चुप ही रहना। यह जो तुम्हारी जाति है न वही फ़ैसला करवाएगी। आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज में वैश्य भाइयों का बोलबाला है।’’
कवि को बड़ा अजीब लगा। मथुरा के चम्पा अग्रवाल कॉलेज में भी उसे यही पता चला था कि उसे नियुक्ति महज़ इसलिए मिली क्योंकि वह अग्रवाल जाति का था। अर्थात वह नियुक्ति उसके अब तक के पढ़े-गुने पर ज़ोरदार तमाचा थी। दिल्ली जैसे बड़े नगर में भी यही तर्क कारगर होगा, इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी।
कविमोहन विस्तृत आकाश की तलाश में दिल्ली आया था। उसने चाहा था अपनी योग्यता के बल पर वह एक झटके में न सिर्फ नौकरी वरन् जीवन-शैली बदल डाले। उसे याद आया चम्पा अग्रवाल कॉलेज के इंटरव्यू के वक्त प्रबन्धक भरतियाजी ने कहा था, ‘‘अपने लाला नत्थीमल का छोरा है क्या नाम कविमोहन। भई इससे तो पढ़वाना ही पड़ेगा।’’
चम्पा अग्रवाल कॉलेज के अनेक आन्तरिक पचड़ों के बीच, पुराने अध्यापकों के विवाद और संवाद में कभी उस जैसे रंगरूट की बात शान्ति से सुन ली जाती तो सिर्फ इसलिए कि वह प्रबन्धकजी की नवीनतम पसन्द था। किन्तु इस तथ्य पर इतराने से ज्यालदा वह घबराने लगा था। उसे लगता ज़रूर शहर का पिछड़ापन इस मानसिकता के लिए जिम्मेदार है। कवि के सपनों का भारत जातिवर्ग रहित समतामूलक समाज देखने का आकांक्षी था।