दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

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Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 14:10

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पत्नी के प्रसव के समय का कुछ मोटा-सा अन्दाज़ कविमोहन को था। वह मथुरा जाना चाहता था। लेकिन मार्च भर उसकी एम.ए. की परीक्षा चली और जब वह फ़ारिग हुआ तो जिन दो ट्यूशनों का काम उसने ले रखा था, उन बच्चों की परीक्षा शुरू हो गयी। अपनी परीक्षा से ज्या दा तैयारी उसे सचिन और विकास के पर्चों के लिए करनी पड़ रही थी। दोनों जगह अलग क़िस्म के दबाव थे। सचिन चमड़े के व्यापारी अंगदप्रसाद का बेटा था। वह नवीं में एक साल फेल हो चुका था। उसके पिता आगरे और दयालबाग के बीच चक्कर लगाते रहते। सचिन को हर किताब एक बोझ और हर परीक्षा जंजाल लगती। वह चाहता था कि पिता के साथ खालों का कारोबार सँभाले। लेकिन अंगदप्रसाद ने कविमोहन से कहा, ‘‘कविबाबू, किसी तरह मेरे लडक़े को बी.ए. करवा दो। हमारे ख़ानदान में कोई भी दसवीं से आगे नहीं पढ़ा।’’

कवि ने कहा, ‘‘पहले यह दसवीं तो पास कर ले।’’

‘‘तुम किसलिए हो। पन्द्रह रुपये कम लगते हैं तो मैं बीस देने को तैयार हूँ पर सचिन इस बार पक्का पास होना चाहिए।’’

कविमोहन उन्हें बताना चाहता कि परीक्षा में तो सचिन का लिखा-पढ़ा ही काम आएगा पर उसके पिता इतना मौक़ा ही न देते।

दूसरी ट्यूशन का विद्यार्थी दिमाग से तेज़ था पर उसमें अनुशासन नाम का तत्त्व नहीं था। कवि उसे जायसी समझाने की कोशिश करता। विकास उसे रोककर कहता, ‘‘मास्साब चलें ‘रतन’ देख आयें, कल उतर जाएगी।’’

विकास को फिल्मों का चस्का था। एक-एक फिल्म वह कई-कई बार देखता। फिल्म का एक-एक दृश्य और गीत उसे कंठस्थ रहता पर जायसी का ‘पद्मावत’ उसे पहाड़ मालूम देता। यही हाल अँग्रेज़ी विषय का था। कविमोहन ने उसे समझाया भी कि वह आसान विषय लेकर फस्र्ट इयर कर ले पर विकास हिन्दी, अँग्रेज़ी के साथ इतिहास लिये हुए था।

कविमोहन की सारी अर्थव्यवस्था इन्हीं दो ट्यूशनों पर टिकी हुई थी। पिता अनेक अहसान जताते हुए किसी तरह उसे पच्चीस रुपये महीना देते। इतनी धनराशि में हॉस्टल में रहना, धुले हुए कपड़े पहनना और दो वक्त खाने का जुगाड़ करना हँसी-खेल नहीं था। ऊपर से कवि को किताबें खरीदने का चस्का था। ऐसे में ट्यूशनों से मिलनेवाले तीस रुपये महीने बहुत अहम थे।

सचिन और विकास की परीक्षा ख़त्म होने में अप्रैल पूरा खप गया। उनसे मुक्त होते ही कविमोहन को इन्दु की याद आयी। पता नहीं पत्नी ने क्या सोचा होगा।

जल्द ही एक दिन कविमोहन ने स्टेशन के पास की दुकान से एक रुपये के दो झबले, आध सेर रेवड़ी और पाव भर दालमोठ खरीदकर मथुरा की गाड़ी पकड़ ली।

गर्मी अभी जानलेवा थी। शाम को भी लू चलती। पसीना-पसीना जब वह घर पहुँचा, दिन झुक आया था। बड़ी बहन लीला अपने चार महीने के बेटे के साथ आयी हुई थी। भग्गो माचिस की डिब्बी में गेहूँ के दाने डालकर, डिब्बी झुनझुने की तरह बजा रही थी। कविमोहन को देखकर खेल छोड़ वह खड़ी हो गयी, ‘‘आहा जीजी, भैयाजी आ गये।’’

इतने दिनों से घर में बेटे की बाट जोही जा रही थी पर उसका मुँह देखते ही माँ पर रुलाई का दौरा पड़ गया। लीला दौडक़र पानी लायी, माँ को जबरन पिलाया। माँ का हाल देखकर यह कहना मुश्किल था कि उनके गीले चेहरे और गर्दन में आँसू और पसीने का अनुपात क्या है। माँ ने अपने सिर पर हाथ मारकर कहा, ‘‘सराफेवालों ने अपनी खोटी चवन्नी हमारे द्वारे डाल दी। दो-दो छोरियाँ जन दी इसने।’’

‘‘अब बस भी करो जीजी।’’ लीला ने समझाया।

कविमोहन ने बहन से पूछा, ‘‘बेबी नहीं दिख रही? क्या सो रही है?’’

‘‘अपनी मैया से लगी बैठी होगी।’’ जीजी ने कहा।

भग्गो कवि का थैला खखोर रही थी। रेवड़ी और दालमोठ के ठोंगे निकालकर उसने खोले फिर नाक सिकोडक़र बोली, ‘‘भैयाजी गजक नायँ लाये।’’

‘‘जल्दी रही याई मारे भूल गयौ। अगली बार सही।’’

भग्गो ने कागज़ के पैकेट से झबले निकाले, ‘‘आहा यह चन्दू के लिए हैं।’’

लीला ने कहा, ‘‘कबी तुझे जरा अकल नहीं है। इत्ते छोटे झबले लायौ है।’’

तब माँ को समझ आयी, झबले किसके लिए आये हैं। माँ बिफर गयी, ‘‘ऐसी बेसरमाई कभी देखी, बाप बनौ घूम रह्यै है। बेटी के लिए कपड़े आ रहे हैं। रहने दे भग्गो, भर दे सब सामान थैला में। जिसके लिए लाया है, वही निकारे।’’

भग्गो बड़े बेमन से रेवड़ी और दालमोठ के ठोंगे भी मोडक़र थैले में रखती कि माँ ने दोनों ठोंगे झपटकर दूसरी तरफ़ रख लिये। भग्गो ने कहा, ‘‘भाभी बिराजी हैं तीन तिखने।’’

कवि का मन हुआ दौड़ता हुआ ऊपर चढ़ जाए पर माँ और बड़ी बहन के सामने हौसला नहीं पड़ा।

‘‘ब्यालू कर ली?’’ माँ ने पूछा।

‘‘नहीं जीजी, तुम्हारे हाथ का कौला का साग और परामठा खाने को तरस गया।’’ कवि ने कहा।

माँ प्रसन्न हो गयीं। आज भी यही ब्यालू बनी थी।

‘‘खाना परस दूँ भैयाजी? भग्गो ने पूछा।

‘‘पहले चाय पिला तो थकाई दूर हो।’’ कवि ने कहा।

समस्या यह थी कि चाय बनाये कौन। घर में चाय कभी-कभी बनती। चूल्हे की आँच में कई बार चाय का पानी धुआँ जाता और अच्छी-भली चाय चौपट हो जाती। कवि की ससुराल से एक छोटा प्राइमस स्टोव आया था पर उसे जलाना सिर्फ इन्दु जानती थी।

तभी ज़ीने में पैरों की आवाज़ हुई। यह इन्दु थी। इन्दु के गोरे मुख पर सौरगृह से निवृत्त होने के बाद की पीली आभा थी जो गुलाबी धोती में छुपाये नहीं छुप रही थी।

जीजी ने कहा, ‘‘इन्दु स्टोप जला के नेक चाय तो बना दे। और देख आधा कटोरा मेरा भी। हाँ, ये रबड़ की स्लीपर बाहर उतार दे। चौके के बाहर चट्टी पड़ी है।’’

सारा काम निपटाकर इन्दु जब ऊपर गयी, कवि पहले ही कमरे में पहुँचकर बेबी-मुन्नी के साथ लेट गया था। उसने सोचा था वह पत्नी से कहेगा कि वह बहुत कमज़ोर हो गयी है पर उसने बेबी की टाँग पर पलस्तर चढ़ा देखा तो गुस्से का गुबार फूट पड़ा, ‘‘इसकी हड्डी कैसे टूट गयी। खुली हवा का तुम्हें इतना शौक है कि तीन तिखने चढक़र बैठी हो।’’

इन्दु हक्का-बक्का। वह समझ गयी कि नीचे काफी लगाई-बुझाई हो चुकी है।

उसने कहा, ‘‘बेबी ज़ीने से नहीं टट्टर से गिरी है। खाट चढ़ाने को जीजी ने खिडक़ा खुलवाया था। बाद में खिडक़ा बन्द करने का किसी को ध्यान नहीं रहा। बेबी शाम को खरबूजे की फाँक खाती-खाती कमरे की तरफ़ आ रही थी कि गिरी धड़ाम से। टाँग की हड्डी टूटी और भौंह के पास कट गया सो अलग।’’

‘‘और ये, इसे क्या हुआ है, शरीर पर मांस नाम को भी नहीं है!’’ उसने मुन्नी की ओर इशारा किया।

‘‘इस बार दूध उतरा ही नहीं,’’ इन्दु ने आँखें झुकाकर जवाब दिया, ‘‘एक लुटिया दूध में दो लुटिया पानी मिलाकर औंटाते हैं, वही खुराक है इसकी। अब तो ज़रा गाढ़ा दूध दो तो उलट देती है। हज़म नहीं होता। या हरे-पीले दस्त शुरू हो जाते हैं।’’

‘‘मैं अभी जाकर जीजी से पूछूँ?’’ कवि ने भडक़कर कहा।

‘‘महाभारत ही मचाओगे न। सास-ननद बर्र के छत्ते-सी पीछे पड़ जाएँगी। तुम तो चार दिन बाद चल दोगे।’’

कवि का मन कसैला हो गया। आधी रात तक इन्दु अपनी बिथा-कथा सुनाती रही : कैसे उसे सारा दिन काम में उलझाया जाता है। जब बच्चे रोते हैं तो बच्चों का ताना दिया जाता है। उसके पास बाल सीधे करने को कंघा तक नहीं है। रोज़ उसे ठंडा, बासी खाना मिलता है। बात-बात में उसके मायकेवालों को ताना दिया जाता है। कवि ने अँधेरे में टटोलकर टीन का अपना नया कंघा निकालकर पत्नी को दिया।

इन्दु की कृशकाया पर हाथ फेरते हुए कवि को लग रहा था उसे अपनी दुनिया बदलने की पहल घर से ही करनी होगी।

Jemsbond
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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 14:11

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विद्यार्थी जीवन के ग्रहणशील वर्षों में कविमोहन के मन-मस्तिष्क पर दो प्राध्यापकों के विचारों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा था। एक थे डॉक्टर राजेन्द्र और दूसरे प्रोफेसर हार्ट। हिन्दी और अँग्रेज़ी साहित्य के ये दो महारथी एक-दूसरे के विलोम भी थे। पढ़ाने के साथ-साथ राजेन्द्रजी ‘मीमांसा’ नाम की लघु पत्रिका निकालते थे जिसमें बड़े-बड़े रचनाकार अपना नाम छपा देखकर गर्व अनुभव करते। खाली समय में कवि आगरा प्रेस जाकर मीमांसा के प्रूफ़ पढ़ता। इससे राजेन्द्रजी की सहायता हो जाती और कवि को दिग्गजों की रचनाएँ पढऩे को मिल जातीं। शायद उनमें कवि पिता-रूप की आदर्श छवि ढूँढ़ता रहता। वे जब हवा में मुट्ठी तानकर कहते, ‘‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’’ पचासों छात्र उनके साथ-साथ जयघोष करते। स्वाधीनता के लिए वे सशस्त्र क्रान्ति ज़रूरी मानते।

प्रोफेसर हार्ट का मानना था कि छात्रों को राजनीति से दूर रहना चाहिए। वे कहते, ‘‘हर आदमी को बीस साल का होते-होते बीस किताबें चुन लेनी चाहिए जिनके सहारे वह अपना आगामी जीवन बिता ले।’’ वे कहते, ‘‘शेक्सपियर पढ़ो तो तुम पाओगे समस्त जीवन तुम्हारे आगे प्रस्तुत है। कौन-सा ऐसा भाव है जो उसने व्यक्त नहीं किया, प्रेम, पराक्रम, प्रतिशोध की पराकाष्ठा, ईष्र्या, घृणा, पश्चाताप के आरोह-अवरोह, आक्रमण, षड्यन्त्र, दुरभिसन्धि के प्रपंच सब उसके नाटकों में व्यक्त हुए हैं। किताबें जीवन से ज्या-दा सच के निकट होती हैं।’’

निजी जीवन की समस्याओं से घबराकर कविमोहन किताबों की शरण में जाता। प्राय: यह पलायन अमूल्य सिद्ध होता। कभी डन की कोई प्रेम-कविता उसे पुलकित कर जाती। कभी टॉमस हार्डी की हिरोइन की त्रासदी विचलित कर जाती। कवि का अब तक का अध्ययन सुरुचि से संवेदना की यात्रा था। पुस्तकों में रमकर वह भूल जाता कि घर में उसे सडिय़ल स्वभाव पिता और अडिय़ल-प्रकृति माँ से टकराना पड़ता है। कई बार तो यह भी याद न रहता कि अब वह पहले जैसा आज़ाद नहीं है। पत्नी का जीवन उसके साथ अनजाने ही नत्थी हो गया है।

कभी रातों में गर्मी या मच्छर या दोनों के कारण नींद उड़ जाती। ऐसे में अब तक के साल उसकी आँखों के आगे चलचित्र की तरह घूम जाते। जब वह पहले पहल कविता-कहानी रचने की ओर हुआ, उसकी आदत थी, वजीफे के पैसे मिलते ही वह दो रजिस्टर ख़रीदता और उनके ऊपर साफ़ हरूफों में लिख देता—कविमोहन की कविताएँ, कविमोहन की कहानियाँ। पिछले रजिस्टर महीने भर में भर जाते। यों उसके पास अलग कमरा नहीं था पर माँ का कमरा उसे अपनी कृतियाँ सहेजकर रखने के लिए सही जगह लगता। वह सभी रजिस्टर वहाँ एक आले में रख देता। एक बार पिताजी दुकान से उठकर अन्दर आये। उन्हें पुडिय़ा बाँधने के लिए कागज़ कम पड़ रहा था। पुराने अख़बार वैसे ही नहीं बचते थे। सवेरे दुकान खोलने के वक्त ही कल का अख़बार काम में आ जाता। तभी उन्हें माँ के कमरे में आले में रखे रजिस्टर दिखे। वे शिक्षित थे पर दीक्षित नहीं। उन्होंने उलट-पलटकर रजिस्टर देखे। यह तो पता चल गया कि बेटे ने उनमें कुछ लिख रखा है पर क्या लिख रखा है, यह देखने लायक़ धैर्य उनमें नहीं था। ये लम्बी कापियाँ पूरी भरी हुई हैं, बस यह उन्हें दिखा। करीब घंटे भर बाद जब कविमोहन लौटा, आला खाली था। माँ के इशारा करने पर वह सीधे दुकान में पहुँचा। उस समय पिता उसके रजिस्टर के पन्ने फाड़ उनमें जीरे और हल्दी की पुडिय़ा बाँधकर एक ग्राहक को दे रहे थे।

कवि उबल पड़ा, ‘‘दादाजी, जे तुम का कर रए हो। जे मेरी कबिताओं की कापियाँ हैं।’’

‘‘सब भरी भई हैं।’’ पिता ने कहा।

‘‘पर फेंकने के लिए नई हैं,’’ कवि ने उनके घुटने के नीचे से कापियाँ खींच लीं।

पिता ने आग्नेय आँखों से उसे घूरा पर तब तक अगला ग्राहक आ गया था। कवि पैर पटकता हुआ अन्दर चला गया।

रात में दुकान बढ़ाकर जब वे कमरे में हाथ-पैर धोकर आये, पत्नी से बोले, ‘‘जे कबी तुमने बहौत मुँहजोर बनायौ है, इत्ता सिर पर धरना ठीक नईं।’’

पत्नी ने अभी-अभी मुँह में पान का बीड़ा डाला था। वह बोलकर अपना सुख नष्ट नहीं करना चाहती थी।

पिता को तेज़ गुस्सा आया, ‘‘मैं बावला हूँ जो बक रहा हूँ। छोरा कबित्त पे कबित्त लिख-लिखकर कागज़ काले कर रह्यै है, तुम्हें याकी सुध है।’’

‘‘हम्बै।’’

‘‘याई दिना के लिए इसकी पढ़ाई-लिखाई की फीस भरी ही मैंने कि बाप पे अर्रा-अर्रा के चढ़ै!’’

दसवीं में जब कविमोहन का अव्वल दर्जा आया, माँ ने ही उसके आगे पढ़ाने का समर्थन किया था। पिता उसे कॉलेज भेजने के हक़ में क़तई नहीं थे। उनका इरादा था कि दसवीं पास वणिक-पुत्र दुकान में बराबर का हाथ बँटाये। नतीजा निकलने के अगले ही दिन उन्होंने कहा, ‘‘कबी, अब दुकनदारी तुम सँभारौ। हम तो भौत थक गये।’’

कवि की चेतना को भयंकर झटका लगा। सुबह से लेटे-लेटे वह बी.ए., एम.ए. और प्रोफेसरी के सपने ले रहा था। पिता भी कोई अनपढ़ नहीं थे। दसवीं उन्होंने भी पास कर रखी थी। एक पल सन्न, पिता की ओर देख उसने दृढ़ता से कहा, ‘‘दादाजी अभी मैं दुकान पर नहीं बैठूँगा, आगे पढ़ूँगा।’’

‘‘अच्छा, और पढ़ाई का खर्च कौन देगा, तेरा बाप?’’

‘‘अब तक जैसे रो-रोकर आपने मेरी फीस दी, वह मुझे ठीक नहीं लगता। खुशी-खुशी दें तो ठीक वरना मैं खुद कोई इन्तज़ाम कर लूँगा।’’

‘‘ससुरा बाप के आगे पूँछ फटकार रहा है। दसमी पास करके जे हाल है। बी.ए. हो गया तो कौन हाल करेगा। मैं कहे देता हूँ, कोई ज़रूरत नहीं कॉलेज जाने की। बाँट-तराजू सँभारो और होश में रहो।’’

‘‘दादाजी मैंने बूरा तोलने के लिए हाईस्कूल नहीं किया। मुझे आगे पढऩा है।’’

पिता ने उठकर दो धौल उसकी पीठ पर लगा दिये। कविमोहन का पढ़ाई का इरादा और पक्का हो गया।

माँ उसे बचाने लपकी पर कविमोहन बाँह छुड़ाता हुआ ज़ीना चढ़ गया। गुस्से और असन्तोष का गुबार ऊपर के कमरे में जाकर आँसुओं की शक्ल में निकला। उसे लग रहा था पिता के रूप में घर में कोई राक्षस रहता है। एक तो उसकी कविताओं की कापियाँ फाड़ दीं, ऊपर से पीट दिया। उसके जो दोस्त रद्दी नम्बरों से पास हुए, उन्होंने भी घर से मिठाई और शाबाशी पायी। वह प्रथम श्रेणी लाकर भी सराहना से वंचित रहा। मिठाई तो दूर दो बताशे भी नसीब नहीं हुए। माँ पर भी उसे गुस्सा आया। वह क्यों नहीं समझातीं पिताजी को!

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Re: दुक्खम्‌-सुक्खम्‌

Unread post by Jemsbond » 25 Dec 2014 14:11

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मुँहअँधेरे माँ ने अमूमन आवाज़ लगायी, ‘‘कबी ओ कबी, उठ दूध लेकर आ।’’

गली के ढाल पर किशना घोसी सुबह पाँच बजे गाय दुहता था। पीतल का कलईदार डोल लेकर दूध लाना कविमोहन का काम था।

जब दो आवाज़ पर भी कोई आहट नहीं हुई तो माँ ने उसकी चारपाई के पास आकर उसे झकझोरना चाहा। उसके हाथ में कवि की खाली कमीज़ आ गयी जो वह इसलिए उतारकर धर गया था कि घरवालों को पता चल जाए कि वह वाकई घर छोड़ गया है।

माँ घबराई हुई पति के पास आयी। वे सोये हुए तो नहीं थे पर अलसा रहे थे।

‘‘गजब हो गया, कबी भाग गयौ जनै।’’

अभी दिन पूरी तरह उगा नहीं था। अँधेरा अपनी आखिरी चौखट पर खड़ा था। पति ने लालटेन जलाकर घर भर में ढूँढऩा शुरू किया। एक क्षण वे लालटेन लिये, आँगन में हतबुद्धि से इधर-उधर ताकते रहे, फिर हड़बड़ाकर चाभी लगाकर दुकान का पिछला द्वार खोला। बरामदे के पास वाले कमरे में दुकान थी। उन्होंने गल्ला गिनकर देखा। रुपये पूरे थे। पिछली रात जब दुकान बढ़ाई थी, तब भी उतने ही थे।

वे कुछ आश्वस्त हुए। कवि की माँ घबराई हुई ऊपर की मंजिलें देखकर डगमगाती हुई ज़ीना उतर रही थी। थक गयी तो ज़ीने में ही बैठ गयी।

पति ने ज़ीने में मुँह करके कहा, ‘‘फिकर न करो कवि की माँ। ससुरा दो दिना में वापस आ जाएगा। रुपया-अधेला सब ठीक है।’’

माँ ने ज़ीने की सीढ़ी पर ही अपना सिर कूट डाला, ‘‘भाड़ में जाय तुम्हारा रुपया-पैसा। मेरा पला-पलाया छोरा चला गया, तुम अभी अंटी ही टटोल रहे हो। न तुम उसकी कापियाँ फाड़ते न मेरा कबी घर छोडक़र भागता।’’

लाला नत्थीमल कुछ देर पत्नी की तरफ़ देखते रहे। उन्होंने लालटेन खट् से ज़मीन पर रख दी और वहीं बैठ गये। वे पिछले दिन की घटना याद करने लगे, उन्होंने यही तो कहा था कि छोरा दुकान पर बैठे। इत्ती-सी बात पे कवि के मिर्चें लग गयीं। ठीक है वह अव्वल आया। उन्होंने सिहाया नहीं उसे। पर वह ससुरा उनसे कौन रिश्ता रखता है। कभी नहीं कहता, दादाजी तुम नेक आराम कर लो, मैं काम देख लूँगा। स्कूल से आकर लौंडे-लपाड़ों में घूमना, कविताई करना, याके सिवा कौन काम है उसे। इतना ज्याकदा उन्होंने डाँटा भी नहीं था। न उन्होंने हाथ उठाया। परकी साल जब उसने कल्लो कहारिन को एक पंसेरी चावल उधार दिया था, तब उन्होंने उसकी मार-कुटाई भी कर दी थी।

कविमोहन तब क्यों नहीं भागा, अब क्यों भागा।

वे कहाँ गलत हैं, उनकी समझ नहीं आ रहा था। उनका ख़याल था कि दिन भर दुकान पर खटने के बाद हिसाब भी न मिलाया तो क्या खाक़ कमाया। यह बात और है कि वे हर घंटे पर हिसाब मिलाया करते। व्यापार की ये वणिक बारीकियाँ उन्होंने अपने पिता और उनके पिता ने अपने पिता से सीखी थीं। इस बात पर तीनों पीढिय़ाँ सहमत थीं कि उधार मुहब्बत की कैंची है। इस सिद्धान्त का खुला उल्लंघन कवि ने किया जब उन्होंने उसे दोपहर में घंटे-दो घंटे जबरन दुकान पर बैठाया।

ग्वाल टोले के छोटे-छोटे बच्चे दो पैसे, चार पैसे का मिर्च-मसाला खरीदने आते थे। भोले-भाले बच्चों का ध्यान न बाँट पर, न तराजू पर। चुटकी-चुटकी सौदा कम देने पर उनसे काफी मुनाफ़ा कमाया जा सकता था। पर कवि इन्हीं बच्चों को ज्यानदा सौदा दे देता। बच्चों से बोलना, चुहल करना उसे अच्छा लगता। वे, कई बार, टोली में आते, सौदा लेते और चलने से पहले नन्हे-नन्हे हाथ पसारकर कहते, ‘‘राजा भैया टूँगा।’’ कवि रत्ती-रत्ती गुड़ सबकी हथेली पर रख देता और देर तक उन बच्चों का आह्लालाद देखता रहता। गुड़ की डली मुँह में रख वे लुढक़-पुढक़ घर की ओर भाग जाते। उन्हें देख कविमोहन को अक्सर सुभद्राकुमारी चौहान की ‘मेरा बचपन’ कविता याद आती।

पिता को जब इस कार्रवाई की भनक मिली उन्हें अन्दर-ही-अन्दर बड़ी तिलमिलाहट हुई। दोपहर के यही दो घंटे उनके आराम के थे। इस तरह तो बेटा दुकान लुटा देगा। फिर भी, कवि से बकझक करने की बजाय उन्होंने गुड़ का तसला दुकान से उठाकर गोदाम में बन्द कर दिया। लेकिन कवि ने अगले ही रोज़ नया रास्ता खोज लिया। अब वह बच्चों को गुड़ की बजाय काले नमक की डली बाँटने लगा। बच्चों की उमंग में कोई कमी नहीं आयी। वे ज्यावदा खुश हुए क्योंकि नमक की डली गुड़ की डली से ज्याटदा देर मुँह में बनी रहती।

गुड़ महीनों कोठरी में बन्द पड़ा रहा। एक दिन ग्राहक के आने पर पिता ने देखा तो पाया तसले में पड़ा सारा गुड़ गोबर बन चुका है। उन्हें अफ़सोस हुआ या नहीं, यह कवि पर स्पष्ट नहीं हो पाया। गुस्से से बलबलाते हुए उन्होंने सारा गुड़ किशन घोसी की नयी ब्याई भैंस के आगे डलवा दिया।

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