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Re: कामवासना

Posted: 10 Dec 2014 09:45
by 007
क्या । वह हैरत से बोली - तुम्हें मुझे पूरी तरह से देखने की इच्छा नहीं करती ?
- कभी नहीं । वह एक झटके से सख्त स्वर में बोला - क्योंकि साथ ही मुझे ये भी पता है । तुम मेरी भाभी हो । भाभी माँ । और एक बच्चा भी अपने माँ के आँचल से प्यार करता है । सम्मोहित होता है । उसे भी उन स्तनों से लगाव होता है । जिनसे वह पोषण पाता है । वह ठीक पति की तरह माँ के शरीर को कहीं भी स्पर्श करता है । उसके पूर्ण शरीर पर जननी भूमि की तरह खेलता है । पर आप बताओ । उसकी ऐसी इच्छा कभी हो सकती है कि मैं अपनी माँ को नंगा देखूँ ।
पदमा की बङी बङी काली आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयी । उसका सौन्दर्य अभिमान पल में चूर चूर हो गया । मनोज जितना बोल रहा था । एकदम सच बोल रहा था ।
क्या अजीव झमेला सा था । नितिन बङी हैरत में था । वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था । यहाँ रुके । या घर चला जाये । इसको साथ ले जाये । या इसके हाल पर छोङ जाये । कौन था ये लङका ? कैसी अजीव सी थी इसकी कहानी । और वह काली स्त्री छाया ।
उसने फ़िर से उधर देखा । वह भी मानों थक कर जमीन पर बैठ गयी थी । और अचानक वह चौंका । मनोज ने जेब से देशी तमंचा निकाला । और उसकी ओर बङाया ।
- मेरे अजनबी दोस्त । वह डूबे स्वर में बोला - आज तुम मेरी कहानी सुन लो । मुझे कसूरवार पाओ । तो बे झिझक मुझे शूट कर देना । और यदि तुम मेरी कहानी नहीं सुनते । बीच में ही चले जाते हो । फ़िर मैं ही अपने आपको शूट कर लूँगा । और इसके जिम्मेदार तुम होगे । सिर्फ़ तुम ।
उसने उँगली नितिन की तरफ़ उठाई । वह कुछ न बोला । और चुप बैठा हुआ उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा ।

मध्य प्रदेश । यानी मध्य भारत का 1 राज्य । राजधानी भोपाल । यह प्रदेश 1 NOV 2000 तक क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बडा राज्य था । लेकिन 1 NOV 2000 के दिन इस राज्य के कई नगर उससे हटा कर छत्तीसगढ़ बना दिया गया । इस प्रदेश की सीमायें - महाराष्ट्र । गुजरात । उत्तर प्रदेश । छत्तीसगढ़ । और राजस्थान से मिलती है ।
भारत की गौरवशाली संस्कृति में मध्य प्रदेश किसी जगमगाते दीप के जैसा है । जिसकी रोशनी की अलग ही चमक और अलग प्रभाव है । विभिन्न संस्कृतियों की अनेकता में एकता के आकर्षक गुलदस्ता जैसा । जिसे प्रकृति ने स्वयं अपने हाथों से सजाया हो । और जिसका सौन्दर्य और सुगन्ध चारों ओर फैल रहे हों । यहाँ की आबोहवा में कला । साहित्य । संस्कृति की मधुर गन्ध सी बहती है । यहाँ के लोक समूहों और जन जाति समूहों में प्रतिदिन नृत्य । संगीत । गीत की रसधार सहज प्रवाहित होती है । इसलिये हर दिन ही उत्सव जैसा होकर जीवन में आनन्द रस घोल देता है । मध्य प्रदेश के तुंग उतुंग पर्वत शिखर । विन्ध्य सतपुड़ा । मैकल कैमूर की उपत्यिकाओं के अन्तर से गूँजती अनेक पौराणिक कथायें । नर्मदा । सोन । सिन्ध । चम्बल । बेतवा । केन । धसान । तवा । ताप्ती आदि नदियों के उदगम और मिलन की कथाओं से फूटती हजारों धारायें यहाँ के जीवन को हरा भरा कर तृप्त करती हैं ।
इस राज्य में 5 लोक संस्कृतियों का समावेश है । ये 5 साँस्कृतिक क्षेत्र है - निमाड़ । मालवा । बुन्देलखण्ड । बघेलखण्ड । ग्वालियर ( चंबल ) प्रत्येक भू भाग का अलग जीवंत लोक जीवन । साहित्य । संस्कृति । इतिहास । कला । बोली और परिवेश है ।
इस राज्य की संस्कृति बहुरंगी है । महाराष्ट्र । गुजरात । उड़ीसा की तरह मध्य प्रदेश को खास भाषाई संस्कृति से नहीं पहचाना जाता । बल्कि यहाँ विभिन्न लोक और जन जातीय संस्कृतियों का समागम है । इसलिये कोई एक लोक संस्कृति नहीं है । एक तरफ़ यहाँ 5 लोक संस्कृतियों का आपसी समावेश है । दूसरी ओर अनेक जन जातियों की आदिम संस्कृतियों का सुखद नजारा है ।

मध्य प्रदेश के 5 सांस्कृतिक क्षेत्र - निमाड़ । मालवा । बुन्देलखण्ड । बघेलखण्ड । ग्वालियर और धार - झाबुआ । मंडला - बालाघाट । छिन्दवाड़ा । होशंगाबाद । खण्डवा - बुरहानपुर । बैतूल । रीवा - सीधी । शहडोल आदि जन जातीय क्षेत्रों में विभक्त है ।
निमाड़ मध्य प्रदेश के पश्चिमी अंचल में आता है । इसकी भौगोलिक सीमाओं में एक तरफ़ विन्ध्य की उतुंग पर्वत श्रृंखला । और दूसरी तरफ़ सतपुड़ा की सात उपत्यिकाएँ हैं । और मध्य में बहती है । नर्मदा की जल धार । पौराणिक काल में निमाड़ अनूप जनपद कहलाता था । बाद में इसे निमाड़ कहा गया ।
महाकवि कालीदास की धरती मालवा हरी भरी धन धान्य से भरपूर रही है । यहाँ के लोगों ने कभी अकाल नहीं देखा । विन्ध्याचल के पठार पर प्रसरित मालवा की भूमि सस्य । श्यामल । सुन्दर और उर्वर तो है ही । ये धरती पश्चिम भारत की सबसे अधिक स्वर्णमयी और गौरवमयी भूमि रही है ।
उत्तर में यमुना । दक्षिण में विंध्य प्लेटों की श्रेणियों । उत्तर - पश्चिम में चंबल । और दक्षिण पूर्व में पन्ना । आजमगढ़ श्रेणियों से घिरे भू भाग को बुंदेलखंड नाम से जाना जाता है । कनिंघम ने बुंदेलखंड के अधिकतम विस्तार के समय इसमें गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश जो पश्चिम में बेतवा नदी से पूर्व में चन्देरी और सागर के जिलों सहित विंध्यवासिनी देवी के मन्दिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्हारी तक प्रसरित था
बघेलखण्ड का सम्बन्ध भी अति प्राचीन भारतीय संस्कृति से है । यह भू भाग रामायण काल में कोसल प्रान्त के अन्तर्गत था । महाभारत काल में विराट नगर बघेलखण्ड भूमि पर ही था । जिसका नाम आजकल सोहागपुर है । भगवान राम की वनवास यात्रा इसी क्षेत्र से हुई थी । यहाँ के लोगों में शिव । शाक्त । वैष्णव सम्प्रदाय की परम्परा विद्यमान है । नाथ पंथी योगियो का भी खासा प्रभाव है । पर कबीर पंथ का प्रभाव सर्वाधिक है । कबीर के खास शिष्य धर्मदास बाँदवगढ़ निवासी ही थे ।
ग्वालियर मध्य प्रदेश का चंबल क्षेत्र । भारत का मध्य भाग । यहाँ भारतीय इतिहास की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनायें हुई हैं । इस क्षेत्र का सांस्कृतिक आर्थिक केंद्र ग्वालियर शहर है । सांस्कृतिक रुप से भी यहाँ अनेक संस्कृतियों का आवागमन और संगम हुआ है । 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम झाँसी की वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई ने इसी भूमि पर लड़ा था ।
इसी मध्य प्रदेश के निमाङ की अमराइयो में कोयल की कूक गूंजने लगी थी । पलाश के फूलो की लाली फ़ैल रही थी । होली का खुमार सिर चढकर बोल रहा था । मधुर गीतों की गूँज से निमाङ चहक रहा था ।
दिल में ढेरों रंग बिरंगे अरमान लिये रंग बिरंगे ही वस्त्रों में सजी सुन्दर युवतियों के होंठ गुनगुना रहे थे - म्हारा हरिया ज्वारा हो कि । गहुआ लहलहे मोठा हीरा भाई वर बोया जाग । कि लाड़ी बहू सींच लिया रानी सिंची न जाण्य हो कि ज्वारा पेला पडया । उनकी सरस क्थो लाई हो । हीरा भाई ढकी लिया ।
इसी रंग बिरंगी धरती पर वह रूप की रंगीली रानी आँखों में रंग बिरंगे ही सपने सजाये जैसे सब बन्धन तोङ देने को मचल रही थी । उसकी छातियों में मीठी मीठी कसक सी होती थी । उसके दिल में कोई अनजान सी हूक उठती थी । हाय वो कौन होगा । जो उसे बाँहों में भींच कर रख देगा ।
सासु न बहू गौर पूजा ही रना देव । अडोसन पड़ोसन गौर पूजा हो रना देव । पड़ोसन पर तुटयो गरबो भान हो रना देव । कसी पट तुटयो गरबो भान हो रना देव । दूध केरी दवनी मङ घेर हो रना देव । पूत करो पालनों पटसल हो रना देव । स्वामी सुत सुख लड़ी सेज हो रना देव । असी पट तुटयो गरबो भान हो रना देव ।

आज की रात । उसने सोचा । इसी वीराने में बीतने वाली थी । कहाँ का फ़ालतू लफ़ङा उसे आ लगा था । साँप के मुँह छछूँदर । न निगलते बने । न उगलते ।
- पर पर मेरे दोस्त । वह फ़िर से बोला - जिन्दगी किसी हसीन ख्वाव जैसी नहीं होती । कभी नहीं होती । जिन्दगी की ठोस हकीकत कुछ और ही होती है ? कुछ और ही ।
यकायक वह उकता सा उठा । वह उठ खङा हुआ । और फ़िर बिना बोले ही चलने को हुआ । मनोज ने उसे कुछ नहीं कहा । और तमंचा कनपटी से लगा लिया - ओ के मेरे अजनबी दोस्त अलबिदा ।
आ वैल मुझे मार । जबरदस्ती गले लग जा । शायद इसी के लिये कहा गया है । हारे हुये जुआरी की तरह वह फ़िर से बैठ गया । उसने एक सिगरेट निकाली । और सुलगा ली । लेकिन नितिन खामोशी से उस छाया को ही देखता रहा ।
- लेकिन मैं शर्मिन्दा नहीं हूँ । पदमा सहजता से बोली - अभी भी नहीं हूँ । अभी अभी तुमने कहा । तुम्हें मुझे यहाँ देखना भाता है । फ़िर बताओ । क्यों । बोलो बोलो । ऐसे ही मैं भी तुमको बहुत निगाहों से देखती हूँ । अगर तुम्हारे दिल में कुछ काम रस सा जागता है । फ़िर मेरे दिल में क्यों नहीं ? और वैसे भी देवर भाभी का सम्बन्ध अनैतिक नहीं है । देवर को द्वय वर कहा गया है । दूसरा वर । यह एक तरह से समाज का अलिखित कानून है । देवर भाभी के शरीरों का मिलन हो सकता है ।
मनोज शायद तुम्हें मालूम न हो । अभी तुम दुनियादारी के मामले में बच्चे हो । अगर किसी स्त्री को उसके पति की कमी से औलाद ना होती हो । तो उसकी अतृप्त जमीन में देवर ही बीजारोपण का प्रथम अधिकारी होता है । उसके बाद । कुछ परिस्थितियों में जेठ भी । और जानते हो । ऐसा हमेशा घर वालों की मर्जी से उनकी जानकारी में होता है । वे कुँवारे और शादीशुदा देवर को प्रेरित करते हैं कि वह भाभी की उजाङ जमीन पर खुशियों की फ़सल लहलहा दे ।
नितिन के दिमाग में एक विस्फ़ोट सा हुआ । कैसा अजीव संसार है यह । शायद यहाँ बहुत कुछ ऐसा विचित्र है । जिसको उस जैसे लोग कभी नहीं जान पाते । तन्त्र दीप से शुरू हुयी उसकी मामूली प्रेतक जिज्ञासा इस लङके के दिल में घुमङते कैसे तूफ़ान को सामने ला रही थी । उसने सोचा तक न था । सोच भी न सकता था ।
- शब्द । शब्द । वह तमंचा जमीन पर रखता हुआ बोला - और शब्द । शब्दों का कमाल । कितनी हैरानी की बात थी । भाभी के शब्द आज मुझे जहर से लग रहे थे । उसके चुलवुले पन में मुझे एक नागिन नजर आ रही थी । उसके बेमिसाल सौन्दर्य में मुझे काली नागिन नजर आ रही थी । एक खतरनाक चुङैल । खतरनाक चुङैल । मुझे..अचानक उसे कुछ याद सा आया - एक बात बताओ । तुम भूत प्रेतों में विश्वास करते हो । मेरा मतलब । भूत होते हैं । या नहीं होते हैं ?
नितिन ने एक सिहरती सी निगाह काली छाया पर डाली । उसका ध्यान सरसराते पीपल के पत्तों पर गया ।

Re: कामवासना

Posted: 10 Dec 2014 09:48
by 007
निरन्तर कभी कभी आसपास महसूस होती अदृश्य रूहों पर गया । उसने गौर से मनोज को देखा ।
और बोला - पता नहीं । कह नहीं सकता । शायद होते हों । शायद न होते हों ।
अब वह बङी उलझन में था । उसने सोचा । ये अपने दिल का गम हल्का करना चाहता है । क्या वह स्वयं इससे प्रश्न पूछे । और जल्दी जल्दी ये बताता चला जाये । और बात खत्म हो । पर तुरन्त ही उसका दिमाग रियेक्ट करता । इसके अन्दर कोई बहुत बङा रहस्य । कोई बहुत बङी आग जल रही है । जिसका निकल जाना जरूरी है । वरना शायद ये खुद को गोली भी मार ले । मार सकता था । इसलिये एक जिन्दगी की खातिर उसमें स्वयं जो क्रिया हो रही थी । वही तरीका अधिक उचित था । और तब उसे सिर्फ़ सुनना था । देखना था ।
- मनसा जोगी । वह भाव से बे स्वर बोला - रक्षा करें ।
- लेकिन मैं जानता हूँ । वह फ़िर से बोला - मैंने उन्हें कभी देखा तो नहीं । पर मुझे 100% पता है । होते हैं । और तुम जानते हो । इनके भूत प्रेत होने का जो मुख्य कारण है । बस एक ही । सेक्स । काम वासना । व्यक्ति में निरन्तर सुलगती काम वासना । काम वासना से पीङित । काम वासना से अतृप्त रहा । इंसान निश्चय ही भूत प्रेत के अंजाम को प्राप्त होता है ।
ये अचानक से क्या हो गया था । पदमिनी नायिका पदमा भावहीन चेहरे से आंगन में खिलते गमलों को देख रही थी । उसे लग रहा था । कुछ असामान्य सा था । जो एकदम घटित हुआ था । वह इतना अनुभवी भी नहीं था कि इन बातों का कोई ठीक अर्थ निकाल सके । बस यार दोस्तों के अनुभव के चलते उसे कुछ जानकारी थी ।
- भाभी ! तब अचानक वह उसकी ओर देखता हुआ बोला - एक बात बोलूँ । सच सच बताना । क्या तुम भैया से खुश नहीं हो ? क्या तुम्हें तृप्ति नहीं होती ।
दूसरी तरफ़ देखती पदमा ने यकायक झटके से मुँह घुमाया । उसने तेजी से ब्लाउज के ऊपरी तीन हुक खोल दिये । और नागिन सी चमकती आँखों से उसकी तरफ़ देखा ।
- देखो इधर । वह सख्त स्वर में बोली - ये दो बङे बङे माँस के गोले । सिर्फ़ चर्बी माँस के गोले । अगर एक सुन्दर जवान मरी औरत का शरीर लावारिस फ़ेंक दिया जाये । तो फ़िर इस शरीर को कौवे कुत्ते ही खायेंगे । मेरी ये मृगनयनी आँखें किसी प्यासी चुङैल के समान भयानक हो जायेंगी । मेरे इस सुन्दर शरीर से बदबू और घिन आयेगी । बताओ । इसमें ऐसा क्या है ? जो किसी स्त्री को नहीं पता । जो किसी पुरुष को नहीं पता । फ़िर भी कोई तृप्त हुआ आज तक । अन्तिम अंजाम । जानते हुये भी ।
- नितिन जी ! वह ठहरे स्वर में बोला - बङे ही अजीव पल थे वो । वक्त जैसे थम गया था । उस पर काम देवी सवार थी । और मुझे ये भी नहीं पता । उस वक्त उसकी मुझसे क्या ख्वाहिश थी । सच ये है कि मैं किसी सम्मोहन सी स्थिति में था । लेकिन उसका सौन्दर्य । उसके अंग । सभी मुझे विषैले नाग बिच्छू जैसे लग रहे थे । और जैसे कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही थी । मुझे सही गलत का बोध करा रही थी । शब्द जैसे अपने आप मेरे मुँह से निकल रहे थे । जैसे शायद अभी भी निकल रहे हैं । शब्द ।
लेकिन भाभी ! मेरा ये मतलब नहीं था । मैंने सावधानी से कहा - औरत की काम वासना को यदि उसके लिये नियुक्त पुरुष मौजूद हो । तब ऐसी बात कुछ अजीब सी लगती है ना । इसीलिये मैंने कहा । शायद आप अतृप्त तो नहीं हो ।
- अतृप्तऽऽऽ । अतृप्तऽऽ । अतृप्तऽऽ । अतृप्तऽऽ । अतृप्त । अतृप्त । अतृप्त । मनोज का यह शब्द रह रह कर उसके दिमाग में हथौङे सी चोट करने लगा । एकाएक उसकी मुखाकृति बिगङने लगी । उसका बदन ऐंठने लगा । उसका सुन्दर चेहरा बेहद कुरूप हो उठा । उसके चेहरे पर राख सी पुती नजर आने लगी । वह बङी जोर से हँसी । और
- हाँ ! हाँ ! उसने ब्लाउज के पल्ले पकङकर एक झटका मारा । एक झटके से ब्लाउज दूर जा गिरा - हाँ मैं अतृप्त ही हूँ । सदियों से प्यासी । एक अतृप्त औरत । एक प्यासी आत्मा । जिसकी प्यास आज तक कोई दूर न कर सका । कोई भी ।
अब तक उकताहट महसूस कर रहा नितिन एकाएक सजग हो गया । उसकी निगाह स्वतः ही काली छाया पर गयी । जो बैचेनी से पहलू बदलने लगी थी । पर मनोज उन दोनों की अपेक्षा शान्त था ।
- फ़िर क्या हुआ ? बेहद उत्सुकता में उसके मुँह से निकला ।
- कुछ नहीं । उसने भावहीन स्वर में उत्तर दिया - कुछ नहीं हुआ । वह बेहोश हो गयी ।

रात के दस बजने वाले थे । बादलों से फ़ैला अंधेरा कब का छँट चुका था । नीले आसमान में चाँद निकल आया था । उस शमशान में दूर दूर तक कोई रात्रिचर जीव भी नजर नहीं आ रहा था । सिर्फ़ सिर के ऊपर उङते चमगादङों की सर्र सर्र कभी कभी उन्हें सुनाई दे जाती थी । बाकी भयानक सन्नाटा ही सांय सांय कर रहा था । पर मनोज अब काफ़ी सामान्य हो चुका था । और बिलकुल शान्त था ।
लेकिन अब उसके मन में भयंकर तूफ़ान उठ रहा था । क्या बात को यूँ ही छोङ दिया जाये । इसके घर या अपने घर चला जाये । या घर चला ही नहीं जाये । यहीं । या फ़िर और कहीं । वह सब जाना जाये । जो इस लङके के दिल में दफ़न था । यदि वह मनोज को यूँ ही छोङ देता । तो फ़िर पता नहीं । वह कहाँ मिलता । मिलता भी या नहीं मिलता । आगे क्या कुछ होने वाला था । ऐसे ढेरों सवाल उसके दिलोदिमाग में हलचल कर रहे थे ।
- बस हम तीन लोग ही हैं घर में । वह बिलकुल सामान्य होकर बोला - मैं । मेरा भाई । और मेरी भाभी ।
वे दोनों वापस पुल पर आ गये थे । और पुल की रेलिंग से टिके बैठे थे । यह वही स्थान था । जहाँ नीचे बहती नदी से नितिन उठकर उसके पास गया था । और जहाँ उसका वेस्पा स्कूटर भी खङा था । आज क्या ही अजीव सी बात हुयी थी । उन्हें यहाँ आये कुछ ही देर हुयी थी । और ये बहुत अच्छा था । वह काली छाया यहाँ उनके साथ नहीं आयी थी । बस कुछ दूर पीछे चलकर अंधेरे में चली गयी थी । यहाँ बारबार आसपास ही महसूस होती अदृश्य रूहें भी नहीं थी । और सबसे बङी बात । जो उसे राहत पहुँचा रही थी । मनोज यहाँ एकदम सामान्य व्यवहार कर रहा था । उसके बोलने का लहजा शब्द आदि भी सामान्य थे । फ़िर वहाँ क्या बात थी ? क्या वह किसी अदृश्य प्रभाव में था । किसी जादू टोने । किसी सम्मोहन । या ऐसा ही और कुछ अलग सा ।
- फ़िर क्या हुआ ? अचानक जब देर तक नितिन अपनी उत्सुकता रोक न सका । तो स्वतः ही उसके मुँह से निकला - उसके बाद क्या हुआ ?
- कब ? मनोज हैरानी से बोला - कब क्या हुआ ? मतलब ?
नितिन के छक्के छूट गये । क्या वह किसी ड्र्ग्स आदि का आदी था । या कोई प्रेत रूह । या कोई शातिर इंसान । अब उसके इस कब का वह क्या उत्तर देता । सो चुप ही रह गया ।
- मुझे अब चलना चाहिये । अचानक वह उठता हुआ बोला - रात बहुत हो रही है । तुम्हें भी घर जाना होगा । कह कर वह तेजी से एक तरफ़ बढ गया ।
- अरे सुनो सुनो । वह हङबङा कर जल्दी से बोला - कहाँ रहते हो आप । मैं छोङ देता हूँ । सुनो भाई । एक मिनट..मनोज । तुम्हारा एड्रेस क्या है ?
- बन्द गली । उसे दूर से आते मनोज के शब्द सुनाई दिये - बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा ।
- हा हा हा । जोगी ने भरपूर ठहाका लगाया
बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हा हा हा । एकदम सही पता ।
वह एकदम हैरान रह गया । हमेशा गम्भीर सा रहने वाला उसका तांत्रिक गुरु खुल कर हँस रहा था । उसके चेहरे पर रहस्यमय मुस्कान खेल रही थी । मनसा जोगी कुछ कुछ काले से रंग का विशालकाय काले पहाङ जैसा भारी भरकम इंसान था । और कोई भी उसको देखने सुनने वाला धोखे से गोगा कपूर समझ सकता था । बस उसकी एक आँख छोटी और सिकुङी हुयी थी । जो उसकी भयानकता में वृद्धि करती थी । मनसा बहुत समय तक अघोरियों के सम्पर्क में उनकी शिष्यता में रहा था । और मुर्दा शरीरों पर शव साधना करता था । पहले उसका झुकाव पूरी तरह तामसिक शक्तियों के प्रति था । लेकिन भाग्यवश उसके जीवन में यकायक बदलाव आया । और वह उसके साथ साथ द्वैत की छोटी सिद्धियों में हाथ आजमाने लगा । अघोर के उस अनुभवी को उम्मीद से पहले सफ़लता मिलने लगी । और उसके अन्दर का सोया इंसान जागने लगा । तब ऐसे ही किन्ही क्षणों में नितिन से उसकी मुलाकात हुयी । जो एकान्त स्थानों पर घूमने की आदत से हुआ महज संयोग भर था ।
मनसा जोगी शहर से बाहर थाने के पीछे टयूब वैल के पास घने पेङों के झुरमुट में एक कच्चे से बङे कमरे में रहता था । कमरे के आगे पङा बङा सा छप्पर उसके दालान का काम करता था । जिसमें अक्सर दूसरे साधु बैठे रहते थे ।
नितिन को रात भर ठीक से नींद नहीं आयी थी । तब वह सुबह इसी आशा में चला आया था कि मनसा शायद कुटिया पर ही हो । और संयोग । वह उसे मिल भी गया था । वह भी बिलकुल अकेला । इससे नितिन के उलझे दिमाग को बङी राहत मिली थी । पूरा विवरण सुनने के बाद जब मनसा एड्रेस को लेकर बेतहाशा हँसा । तो वह सिर्फ़ भौंचक्का सा उसे देखता ही रह गया ।
- भाग जा बच्चे । मनसा रहस्यमय अन्दाज में उसको देखता हुआ बोला - ये साधना सिद्धि तन्त्र मन्त्र बच्चों के खेल नहीं । इनमें दिन रात ऐसे ही झमेले हैं । इसलिये अभी भी समय है । दरअसल ये वो मार्ग है । जिस पर जाना तो आसान है । पर लौटने का कोई विकल्प ही नहीं है ।
- मेरी ऐसी कोई खास ख्वाहिश भी नहीं । वह साधारण स्वर में बोला - पर इस दुनियाँ में कुछ चीजें लोगों को इस तरह भी प्रभावित कर सकती हैं क्या ? कि जीवन उनके लिये एक उलझी हुयी पहेली बनकर रह जाये । उनका जीना ही दुश्वार हो जाये । मैं उसे बुलाने नहीं गया था । उससे मिलना एक संयोग भर था ।
जिस मुसीवत में वो आज था । उसमें कल मैं भी हो सकता हूँ । अन्य भी हो सकते हैं । तब क्या हम हाथ पर हाथ रखकर ऐसे ही बैठे देखते रहें ।
शायद यही होता है । एक पढे लिखे इंसान । और लगभग अनपढ साधुओं में फ़र्क । मनसा इन थोङे ही शब्दों से बेहद प्रभावित हुआ । उसे इस सरल मासूम लङके में जगमगाते हीरे सी चमक नजर आयी । शायद वह एक सच्चा इंसान था । त्यागी था । और उसके हौंसलों में शक्ति का उत्साह था । सो वह तुरन्त ही खुद भी सरल हो गया ।
वही उस दिन वाला स्थान आज भी था । नदी के पुल से नीचे उतरकर । बहती नदी के पास ही बङा सा पेङ । पिछले तीन दिन से वह यहीं मनोज का इंतजार कर रहा था । पर वह नहीं आया था । मनसा ने उसे - बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । का मतलब भी समझा दिया था । और भी बहुत कुछ समझा दिया था । बस रही बात मनोज को फ़िर से तलाशने की । तो मनसा ने जो उपाय बताया । वो कोई गुरु ज्ञान जैसा नहीं था । बल्कि एक साधारण बात ही थी । जो अपनी हालिया उलझन के चलते यकायक उसे नहीं सूझी थी कि - वो निश्चित ही उपचार के लिये तन्त्र दीप जलाने उसी स्थान पर आयेगा ।
सो वह पिछले तीन दिन से उसे देख रहा था । पर वह नहीं आया था । उसने एक सिगरेट सुलगायी । और यूँ ही कंकङ उठाकर नदी की तरफ़ उछालने लगा ।
- कमाल के आदमी हो भाई । मनोज उसे हैरानी से देखता हुआ बोला - क्या करने आते हो । इस मनहूस शमशान में । जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे । पर आना उसकी मजबूरी है । क्योंकि आगे जाने के लिये गाङी यहीं से मिलेगी ।
- यही बात । अबकी वह सतर्कता से बोला - मैं आपसे भी पूछ सकता हूँ । क्या करने आते हो । इस मनहूस शमशान में । जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे ।
ये चोट मानों सीधी उसके दिल पर लगी । वह बैचेन सा हो गया । और कसमसाता हुआ पहलू बदलने लगा ।
- दरअसल मेरी समझ में नहीं आता । आखिर वह सोचता हुआ सा बोला - क्या बताऊँ । और कैसे बताऊँ । मेरे परिवार में मैं मेरी भाभी और मेरे भाई हैं । हमने कुछ साल पहले एक नया घर खरीदा है । सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक कुछ अजीव सा घटने लगा । और उसी के लिये मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस तरह के शब्दों का प्रयोग करूँ । जो अपनी बात ठीक उसी तरह कह सकूँ । जैसे वह होती है । पर मैं कह ही नहीं पाता । ये दीपक..उसने दीप की तरफ़ इशारा किया - एक उपचार जैसा बताया गया है । मुझे नहीं पता कि इसका सत्य क्या है ? यहाँ शमशान में । खास इस पीपल के वृक्ष के नीचे । कोई दीपक जला देने से भला क्या हो सकता है । मेरी समझ से बाहर है । पर आश्वासन यही दिया है । इससे हमारे घर का अजीव सा माहौल खत्म हो जायेगा ।
- क्या अजीव सा ? वह दूर देखता हुआ बोला ।
- कुछ सिगरेट वगैरह पीते हो ? वह बैचेनी से बोला ।
उसने आज एक बात अलग की थी । वह अपना स्कूटर ही यहीं ले आया था । और उसी की सीट पर आराम से बैठा था । शायद कोई रात उसे पूरी तरह वहीं बितानी पङ जाये । इस हेतु उसने बैटरी से छोटा बल्ब जलाने का खास इंतजाम अपने पास कर रखा था । और सिगरेट के एक्स्ट्रा पैकेट भी ।
सुबह के ग्यारह बजने वाले थे । पदमा काम से फ़ारिग हो चुकी थी । वह अनुराग के आफ़िस चले जाने के बाद सारा काम जल्दी से निबटाकर तब नहाती थी । उतने समय तक मनोज पढता रहता । और उसके घरेलू कार्यों में भी हाथ बँटा देता । भाभी के नहाने के बाद दोनों साथ खाना खाते ।
दोनों के बीच एक अजीव सा रिश्ता था । अजीव सी सहमति थी । अजीव सा प्यार था । अजीव सी भावना थी । जो काम वासना थी भी । और बिलकुल भी नहीं थी ।
पदमा ने बाथरूम में घुसते घुसते कनखियों से मनोज को देखा । एक चंचल शोख रहस्यमय मुस्कान उसके होठों पर तैर उठी । उसने बाथरूम का दरवाजा बन्द नहीं किया । और सिर्फ़ हलका सा परदा ही डाल दिया । परदा । जो मामूली हवा के झोंके से उङने लगता था ।
आंगन में कुर्सी पर पढते मनोज का ध्यान अचानक भाभी की मधुर गुनगुनाहट हु हु हु हूँ हूँ आऽऽ आऽऽ । पर गया । वह किताब में इस कदर खोया हुआ था कि उसे पता ही नहीं था कि भाभी कहाँ है । और क्या कर रही है ? तब उसकी दृष्टि ने आवाज का तार पकङा । और उसका दिल धक्क से रह गया । उसके कुंवारे शरीर में एक गर्माहट सी दौङ गयी ।

Re: कामवासना

Posted: 10 Dec 2014 09:50
by 007
बाथरूम का पर्दा रह रह कर हवा से उङ जाता था । पदमा ऊपरी हिस्से से निर्वस्त्र थी । उसके पुष्ट तने दूधिया उरोज उठे हुये थे । और वह आँखें बन्द किये अपने ऊपर पानी उङेल रही थी ।
- मेरे दो अनमोल रतन । वह मादक स्वर में गुनगुना रही थी - एक है ...हु हु हु हूँ हूँ
नैतिकता अनैतिकता के मिले जुले संस्कार उस किशोर लङके के अंतर्मन को बारबार थप्पङ से मारने लगे ।
नैतिकता बारबार उसका मुँह विपरीत ले जाती थी । और प्रबल अनैतिकता का वासना संस्कार उसकी निगाहों को सीधा बहीं ले जाता था । लेकिन ये अच्छा था कि भाभी की आँखें बन्द थी । और वह उसे देखते हुये नहीं देख रही थी । फ़िर अट्टाहास करती हुयी अनैतिकता ही विजयी हुयी । और न चाहते हुये भी वह कामुक भाव से लगातार पदमा को देखने लगा ।
- औरत..औरत .एक .नग्न औरत । वह चरस के नशे में झूमता हुआ सा बोला - मैंने सुना है । शास्त्रों में ऐसा लिखा है । औरत को उसका बनाने वाला भगवान भी नहीं समझ पाया कि - आखिर ये चीज क्या बन गयी ? फ़िर मैं तो एक सीधा सादा सामान्य लङका ही था । मगर ..?
उस दिन से विपरीत आज नितिन के चेहरे पर एक अदृश्य आंतरिक खुशी सी दौङ गयी । ठीक आज भी बही स्थिति बन गयी थी । जो उस दिन खुद ब खुद थी । और बकौल मनोज के हकीकत ज्यों की त्यों उसी स्थिति में उसके मुँह से निकलती थी ।
- और उसी के लिये । उसे मनोज के शब्द याद आये - मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस तरह के शब्दों का प्रयोग करूँ । जो अपनी बात ठीक उसी तरह कह सकूँ । जैसे वह होती है । पर मैं कह ही नहीं पाता ।

फ़िर अभी तो बहुत समय था । रात के नौ बजने में भी अभी बीस मिनट बाकी थे ।
- मनोज भाई । पदमा उसके सामने चारपाई पर बैठते हुये बोली - तुम्हें कैसी लङकियाँ अच्छी लगती हैं ? दुबली । मोटी । लम्बी । नाटी । गोरी । काली । पढी । अनपढ । शहरी । ग्रामीण ।
- क्यों पूछा ? वह हैरानी से बोला - ऐसा प्रश्न आपने ।
- क्यूँ पूछा । मतलब ? वह आँखें निकाल कर बोली - मैं तेरी भाभी हूँ । सुबह सुबह जब मैं उठती हूँ । मुझे तम्बू में बम्बू तना दिखाई नहीं देता क्या । देख मेरी आँखें कितनी बङी बङी हैं । ये अन्दर तक देख सकती हैं । पर ओ डवल्यू एल तूने पूछा ही है । क्यूँ पूछा । तो बता देती हूँ । उसमें कौन सी कोई चोरी वाली बात है । बता तेरे लिये लङकी कौन तलाश करेगा ? बोल । बोल । फ़िर अपना बम्बू किस तम्बू में..?
- लगता है ना । सब कुछ अश्लील सा । वह फ़िर से बोला - मगर सोचो । तो वास्तव में है नहीं । ये सिर्फ़ पढने सुनने में अश्लील लग सकता है । किसी पोर्न चीप स्टोरी जैसा । पर ठीक से सोचो । भाभियों को इससे भी गहरे और खुले मजाक करने का सामाजिक अधिकार हासिल है । प्रायः ऐसे खुले शब्दों वाक्यों का प्रयोग उस समय होता है । जिनको कहीं लिखा भी नहीं जा सकता । और मैं तुमसे कह भी नहीं सकता । बताओ इसमें कुछ गलत है क्या ?
नितिन ने पहली बार सहमति में सिर हिलाया । वह सच्चाई के धरातल पर बिलकुल सत्य ही बोल रहा था । यकायक फ़िर उसकी निगाह पीछे से चलकर आती उसी काली छाया पर गयी । शायद आज वह देर से आयी थी । उसने एक नजर शमशान के उस हिस्से पर डाली । जहाँ चिता सजायी जाती थी । वह गौर से उधर देखती रही । फ़िर चुपचाप उनसे कुछ ही दूर बैठ गयी ।

कहते हैं । सौन्दर्य और कुरूपता । नग्नता और वस्त्र आदि आवरण । देखने वाले की आँखों में होते हैं । दिमाग में होते हैं । न कि उस व्यक्ति में । जिसमें ये दिखाई दे रहा है । हम किसी को जब बेहद प्यार करते हैं । तो साधारण शक्ल सूरत वाला वह व्यक्ति भी हमें खास नजर आता है । बहुत सुन्दर नजर आता है । और लाखों में एक नजर आता है । क्योंकि हम अपने भावों की गहनता के आधार पर उसका चित्रण कर रहे होते हैं ।
- नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - ये ठीक है कि मेरी भाभी एक आम स्त्री के चलते वाकई सुन्दर थी । और सर्वांग सुन्दर थी । इतनी सुन्दर । इतनी मादक । इतनी नशीली कि खुद शराब की बोतल अपने अन्दर भरी सुरा से मदहोश होकर झूमने लगे ।
पर मेरे लिये वह एक साधारण स्त्री थी । एक मातृवत औरत । जो पूर्ण ममता से मेरे भोजन आदि का ख्याल रखती थी । वह हमारे छोटे से घर की शोभा थी । मैं उसकी सुन्दरता पर गर्वित तो था । पर मोहित नहीं । उसकी सुन्दरता उस दृष्टिकोण से मेरे लिये आकर्षण हीन थी कि मैं उसे अपनी बाँहों में मचलने वाली रूप अप्सरा की ही कल्पनायें करने लगता । मुझे ठीक समझने की कोशिश करना भाई । मैं उसके स्तन नितम्ब आदि काम अंगों को कभी कभी खुद को सुख पहुँचाने वाले भाव से अवश्य देख लेता था । पर इससे आगे मेरा भाव कभी न बढा था । और ये भाव शायद मेरा नहीं । सबका होता है । एक सामान्य स्त्री पुरुष आकर्षण भाव । क्योंकि मैं ये भी अच्छी तरह जानता था कि वह मेरी भाभी है । और भाभी माँ समान भी होती है । होती है । क्या वो थी । मेरी माँ । भाभी माँ । बोलो कुछ गलत कहा मैंने ?
नितिन एक अजीव से मनोबैज्ञानिक झमेले में फ़ँस गया । उसका इंट्रेस्ट सिर्फ़ इस बात में था कि उसके घर में ऐसी क्या परेशानी है । जिसके चलते वह शमशान में तंत्र दीप जलाता है । ये काली औरत की अशरीरी छाया से इस लङके का क्या सम्बन्ध है ? और वो उसको मनुष्य के काम सम्बन्धों काम भावनाओं का मनोबिज्ञान पूरी दार्शनिकता से समझा रहा था । शायद । उसने सोचा । अपनी बात पूरी करते करते ये गलत को सही सिद्ध कर दे । और कर क्या दे । बराबर करे ही जा रहा था ।
- लेकिन । उसने उकता कर बात का रुख मोङने की कोशिश की ।
- हाँ लेकिन । वह फ़िर से जैसे दूर से आते स्वर में बोला - ठीक यही कहा था मैंने । लेकिन भाभी किसी और लङकी की जरूरत ही क्या है ? तुम मेरे लिये खाना बना देती हो । कपङे धो देती हो । फ़िर दूसरी और लङकी क्यों ?
पदमा वाकई पदमिनी नायिका थी । अंग अंग से छलकती मदिरा । बंधन तोङने को मचलता सा उन्मुक्त यौवन । नहाने के बाद उसने आरेंज कलर की ब्रा रहित मैक्सी पहनी थी । और लगभग पारदर्शी उस झिंगोले में आरेंज फ़्लेवर सी ही गमक रही थी । रूप की रानी । स्वर्ग से प्रथ्वी पर उतर आयी अप्सरा ।

उसने मैक्सी के बन्द ऊपर नीचे अजीव आङे टेङे अन्दाज में लगाये थे कि उसे चोरी चोरी देखने की इच्छा का सुख ही समाप्त हो गया । उसका अंग अंग खिङकी से झांकती सुन्दरी की तरह नजर आ रहा था । उसके सामने भाभी नहीं । सिर्फ़ एक कामिनी औरत ही थी ।
- मनोज ! उसने भेदती निगाहों से उसे देखा - अभी शायद तुम उतना न समझो । पर हर आदमी में दो आदमी होते हैं । और हर औरत में दो औरत । एक जो बाहर से नजर आता है । और एक जो अन्दर होता है । अन्दर..उसने एक निगाह उसके शरीर पर खास डाली - इस अन्दर के आदमी की हर औरत दीवानी है । और क्योंकि अन्दर से तुम पूर्ण पुरुष हो । पूर्ण पुरुष । छोटे स्केल से दो इंच बङे । और बङे स्केल से चार इंच छोटे ।
नितिन हैरान रह गया । यकायक तो उसकी समझ में नहीं आया कि ये क्या कह रहा है । फ़िर वह ठहाका लगा उठा । नशे मे हुआ बेहद गम्भीर मनोज भी सब कुछ भूलकर उसके साथ ही हँसने लगा ।
- हाँ बङे भाई ! वह फ़िर से बोला - ठीक यही भाव मेरे मन में आया । जो सामान्यतः इस वक्त तुम्हारे मन में आया । पहले तो मैं समझा ही नहीं कि भाभी क्या बोल रही है । और कहाँ बोल रही है ? शब्द । इसलिये कमाल के होते है ना शब्द भी । पवित्र । अपवित्र । द्वेष । कामुक । अश्लील । राग । वैराग । सब शब्द ही तो हैं ।..सोचो मेरे भाई । कोई भी हमारे बारे में जाने क्या क्या सोच रहा है । क्या देख रहा है ? हम कभी जान सकते हैं क्या ? बोलो कभी जान सकते हैं क्या ?
- अरे पगले राजा ! पदमा फ़िर इठला कर बोली - इन सब बातों को इतना सीरियस भी मत ले । ये देवर भाभी की कहानी है । एक ऐसा रोमांस है । जिसको रोमांस नहीं कह सकते । फ़िर भी होता रोमांस जैसा ही है ।.देख मैं ही बताती हूँ । मेरी सोच क्या है ? मैं रूप कला । रूप की रानी । रूपसी । रूप स्वरूपा । फ़िर यदि लोग मुझे देख कर आहें ना भरें । तब इस रूप के रूप का क्या मतलब ? हर रूपवती चाहती है कि लोगों पर उसक्के रूप का यही असर हो । रूप का रूप जाल । और निसंदेह तब मैं भी ऐसा ही चाहती हूँ । क्योंकि मेरा रूप अच्छी अच्छों का रूप फ़ीका कर देता है ।
फ़िर एक बात और । अभी तुम आयु के जिस दौर से गुजर रहे हो । तुम्हें औरत को सिर्फ़ इसी रूप में देखना अच्छा लगेगा । न कोई माँ । न कोई बहन । न भाभी बुआ मौसी आदि । सिर्फ़ औरत । औरत । जो पहले कभी लङकी होती है । फ़िर औरत । औरत । तव हम दोनों की ये नयन सुख वासना पूर्ति घर में ही हो जायेगी । क्यों मुझे कोई और ताके । और क्यों तुम बाहर ललचाओ ।