गुनहगार – Hindi Sex thriller Novel
Posted: 27 Sep 2015 10:42
मैं ऐक मिड्ल क्लास फॅमिली मैं आँख खोले मेरे पिता आंटी-करप्षन के महकमे (डिपार्टमेंट) मैं अकाउंटेंट थे, मेरे मन ऐक घरालो महिला थी बेहन भयों मैं मेरा नंबर अख्रे था मुझ से बड़े 2 बही और 1 बेहन थे. हमारे घर मैं पैसे के कोई रेल पेल नही थे क्यूँ के मेरे पिता ऐक एमंडर एंसन थे जो रिश्वत लेन पे यक़ीन नही रखते थे लायकेन ऐसा भी नही था के पैसे के तंगी हो मेरे पिता के सॅलरी मैं अछा गुज़ारा चल रहा था. इतेफ़ाक़ के बात ये थे के मुझ से बड़े बेहन भाई मैं किसे को भी परह मैं ज़्यादा इंटेरेस्ट नही था उनके लाइ पास हो जाना हे बुहुत बड़े बात थे जब के मुझे बचपन से हे परह का जानूं के हद तक शोक़् था और स्कूल मैं अड्मिशन होने के बाद तू जैसे मैं बस किताबों का हे हो गया और मेरेहेयरआने वाले रिज़ल्ट के बाद मेरे माता पिता का सिर फखार से बुलंद होता जा रहा था.
जब 8त क्लास मैं मैने स्कूल मैं टॉप क्या तू जैसे मेरे पेरेंट्स के पयों ज़मीन पर नही पर रहे थे और मेरे मन मेरे बालयन लायटे लायटे नही थकते थे. मेरे बेहन बही जो मुझ से उमेर (आगे) मैं बड़े थे मेरे क़ाबलियत (इंटेलिजेन्स) देख के मुझ से ज़्यादा घुलने मिलने से भी डरने लगे बलके मेरे परहाए के ख़याल से अक्सर वो काम जो पिता जी या मन मुझे करने को कहते वो अभी अक्सर हू कर दया करते थे.
मेरे एस कामयाबी के बाद मेरे माता पिता ने ये फ़ैसला क्या के अब मुझे मज़ीद सरकारी स्कूल मैं नही परहना चाहये और मेरे अच्छे मुस्ताक़बिल (फ्यूचर) के लाइ उन्हों ने मुझे शहर के सब से अच्छे प्राइवेट स्कूल मैं दखल (अड्मिशन) करा दया, जिस के लाइ मेरे मन को अपने गहने (गोल्ड जेवाले्लारी) बैचने परे और मेरे पिता को अपने मोटोर्स्यले बैचने परे जिस पे वो ऑफीस आते जाते थे पर मेरे जानूं को देखते हुवे उन्हं ने बूसों मैं ढके खा के भी ऑफीस जाना मंज़ोर था. मगर शायद उन्हं एस बात का एहसास नही था के वो अपने ज़िंदगे के सब से बड़े घालती करने जा रहे थे. वो ऐक ऐसे साँप को दूध पिलाने लगे थे जो उनके साथ साथ अपने एर्द गिर्द (सराउंडिंग्स) के हर एंसन को डसने वाला था ……
जिस सरकारी स्कूल मैं पहले मैं पड़ा कराता था उसका हाल वैसा ही था जैसे की अक्सर सरकारी सचूलों का होता है और जिस स्कूल मैं मुझे अब अड्मिट किया गया था वो शहर के चाँद बड़े प्राइवेट स्कूल्स मैं से ऐक था, मैं जैसे ज़मीन से आसमान पर पहुच गया था क्यूँ की मेरी नयी और पूरेानी स्कूल के हालत मैं फर्श और अर्श जितना ही फ़र्क था. मगर उस स्कूल मैं भाराती हो के जो सब से पहले बात मेरे मन मैं आई वो ये थी की शायद मैं इस स्कूल के लायक नही क्यूँ की वहाँ पे पड़ने वाला हर स्टूडेंट किसी ना किसी अमीर घराने मैं से था और मैं क्या था ऐक मामूली अकाउंटेंट का बेटा.
मैं उनसे किसी चीज़ मैं एज था तो वो थी पड़ाई जिस मैं उनका मुक़ाबला मैं कर सकता था. लायकेन मैं चाहे कितना भी लायक क्यूँ ना था मेरे अंदर ये एहसास जानम ले चुका था की मैं उन लोगों से कांतर हू, और मैं जान-बूझ के अपने असलियत सब से छुपाने लगा और जिसका आसान हाल मुझे ये नज़र आया का मैं किसी से दोस्ती ही ना करू और मैने यही किया. मैं ज़्यादा किसी से बात ना कराता और ना ही किसी से घुलता मिलता, मेरा ज़्यादा वक़्त या तो क्लासरूम मैं गुज़राता या फिर लाइब्ररी मैं क्यूँ की यही 2 जगहैीन मुझे अकेलापन का एहसास देती, जिसकी मुझे हर पल तलाश रहती. उस दिन भी मैं अपने आदत के अनुसार लाइब्ररी मैं बेठा था के अचानक मेरे सीट फेलो महेष्ने मुझ से वो सवाल किया जिस से बचने के लाइ मैं पहले दिन से कोशिश कर रहा था मगर शायद अब और ज़्यादा अपने असल से भागना मेरी क़िस्मत मैं ना था और मुझे लगा की आज मुझे अपनी असलियत बठानी पड़ेगी.
“अंकुश तुम्हारे फादर क्या करते है” ?
“मेरे पिता अक्कौतंत है” ……मेरा सिर खुद बी ए खुद शर्मिंदगी से झुक गया.
“वॉट???? तुम्हारे फादर अक्कौतंत है…..अरे यू किडिंग???…….उसके लहजे मैं ऐसी हैरात थी जैसे मैने उसे किसी अजूबे के अविष्कार होने के बड़े मैं बताया हो.
“क्यूँ, नही हो सकते क्या”?…….माने झुके हुवे सिर से जवाब दिया.
“नही हो सकते”……महेश ने पूरे कॉन्फिडेन्स से जवाब दिया.
“क्यूँ नही हो सकते”?……शायद ऐक अकाउंटेंट के बेटे को वहाँ पे पड़ता देख कर उसका हैरान होना कुछ घालत भी नही था.
“वो एस लिए के मेरे अंकल की ऑफीस मैं जो अकाउंटेंट है उनके बच्चे ऐक ऑर्डिनरी सी प्राइवेट स्कूल मैं पड़ते हैं”……उस ने बड़े गर्व से मेरी जानकारी मैं बदौती की.
“तो क्या इससे ये साहबित होता है की मेरे पिता अकाउंटेंट नही हो सकते”?…….माने इस बार थोड़े हैरंगी से उस से सवाल किया.
“हाँ क्यूँ के अगर तुम्हारे फादर हुमारी स्कूल की मंत्ली फीस दे भी दे तब भी वो यहाँ के अददमीससिओं फीस नही दे सकते”…….उस ने फिर से अपनी बुढ्ढि का सुबूत दिया.
“हाँ उसके लिए ही तो……” ……और पहली बार मेरे ज़ुबान सच बोलते बोलते रुक गयी और मैं नही जनता था की ये पहली बार आखड़ी बार होगी और इसके बाद मेरी ज़ुबान कभी सच नही बोलेगी. मैं उससे बठाना चाहता था की मेरी मन ने अपने गहने बेचे मेरे पीतने मेरे अददमीससिओं के लिए अपनी मोटरसाएकल बेची है मगर इस बार मेरी ज़ुबान से सच ना निकल सका शायद मेरे अंदर का शैठान मेरे सच पे भारी प़ड़ गया.
“हाँ उसके लिए क्या….”???…….. महेश मेरी बात पूरी होने का एन्ताज़ार कर रहा था और जब काफ़ी देर मैं चुप रहा तो उस ने मेरी बात रिपीट कर दी.
“अरे यार तुम भी ना बिल्कुल बेवक़ूफ़ हो”……….और फिर मेरी ज़ुबान ने सच का साथ चोद कर झूट का दामन थम लिया था, मेरा मन बहुत तेज़ी से झूटका जाल बुन रहा था.
“कमाल है बेवक़ॉफोन वाले बातें खुद कर रहे हो और कह मुझे रहे हो”……..इस बार संतोषी के बजाए महेश के आवाज़ मैं गुस्सा था.
“तुम्हे पता है मेरे पिता कोन्से ऑफीस मैं जॉब करते हाँ”?……अब मेरे आवाज़ मैं आत्मविश्वास था, मेरा दिमाग़ आने वाले लम्हों मैं झूट बोलने के लिए तय्यार हो चुका था.
“नही. तुम बताओ गे तो पता चलेगा ना”.
“मेरे पिता आंटी-करप्षन मैं अक्कौतंत है, उनकी पे भले ही कम है बट उपर की कमाई बुहुत होती है”……..ये बात कहते मेरी ज़ुबान ऐक बार भी नही अटकी क्यूँ की झूट बोलना हमेशा से आसान होता है मगर हम इस बात से अंजान होते है के झूट बोलना सिर्फ़ पहली बार ही आसान लगता है उसके बाद बोले जाना वाला हर झूट इंसान को अपनी जाल मैं फुंसटा चला जाता है.
“वॉट उपर के कमाई”??………..पहले तुMअहेश्ने हैरंगी से कहा मगर अग्लेहि पल जासे वो समझ गया हो………”अछा उ मीन रिश्वत, तो तुम्हारे फादर रिश्वत खाते हैं”…….उस ने मज़े ले ले कर कहा और मेरे दिल ऐक पल के लिए भी नही कंपा के जिस बाप ने मेरे लिए बूसों के ढके खाना स्वीकार किया ताकि उसका बेटा अछी पढ़ाई कर सके, ऐक पल मैं ही मैने अपने बाप के इस महान त्याग को मिट्टी मैं मिला दया.
“अछा तभी तो तुम यहाँ पारह रहे हो, खैर मैं चलता हू ज़रा 1 बुक इश्यू करनी थी, तुम आओगे या अभी बेठना है यहाँ पे”?
“नही तुम जाओ मैं ये चॅप्टर ख़त्म कर के ही ओँगा”……..मैने सामने पड़ी बुक की तरफ इशारा करते हुवे कहा.
महेश तो सिर हिलता चला गया मगर उसके जाने के बाद पहली बार मेरे दिल मैं शर्मिंदगी पैदा हुवी की मैने अपने ईमानदार बाप को ऐक रिश्वत खोर बना दिया लायकेन मैने ये सोच के अपने दिल को बहला दिया की जब मैने अपने पिता के बड़े मैं सच बोला तो महेश के लहजे मैं हकारात सी महसूस हुवे मगर जब मैने झूट बोला की वो रिश्वत खोर हैं तो बजाए हकारात के वो रिलॅक्स हो के चला गया जैसे उसके लिए ये जानकारी ज़रूरे हो की चाहे हराम की ही सही मेरे पिता के पास पैसा तो है. और ये सोच के मैने अपने दिल को तसल्ली दे दी की मैने जो भी किया ठीक किया मगर मुझे क्या पता था की जो तसल्ली मैं खुद को दे रहा हू वो भी झूती है और जिस थोड़े वक़्त के एहसास-ए-कमतरी को मैने छुपाने के लिए वो झूट बोला वो दीमक की तरहन आने वाले वक़्त मैं मुझे चाट जाए गी…..
समय का काम गुज़रना है सो गुज़राता गया और देखते ही देखते मैं 9त क्लास मैं पहुँच गया मगर वो जो एक झूठ मैने बोला था उसको छिपाने के लिए कई और छोटे बड़े झूठ मुझे बोलने पड़े जैसे जब मुझसे किसी ने पूछा के
“तुम कार के बजाए टॅक्सी मैं क्यूँ आते हो ? ”
गुनहगार – Hindi Sex Novel – 1
जब 8त क्लास मैं मैने स्कूल मैं टॉप क्या तू जैसे मेरे पेरेंट्स के पयों ज़मीन पर नही पर रहे थे और मेरे मन मेरे बालयन लायटे लायटे नही थकते थे. मेरे बेहन बही जो मुझ से उमेर (आगे) मैं बड़े थे मेरे क़ाबलियत (इंटेलिजेन्स) देख के मुझ से ज़्यादा घुलने मिलने से भी डरने लगे बलके मेरे परहाए के ख़याल से अक्सर वो काम जो पिता जी या मन मुझे करने को कहते वो अभी अक्सर हू कर दया करते थे.
मेरे एस कामयाबी के बाद मेरे माता पिता ने ये फ़ैसला क्या के अब मुझे मज़ीद सरकारी स्कूल मैं नही परहना चाहये और मेरे अच्छे मुस्ताक़बिल (फ्यूचर) के लाइ उन्हों ने मुझे शहर के सब से अच्छे प्राइवेट स्कूल मैं दखल (अड्मिशन) करा दया, जिस के लाइ मेरे मन को अपने गहने (गोल्ड जेवाले्लारी) बैचने परे और मेरे पिता को अपने मोटोर्स्यले बैचने परे जिस पे वो ऑफीस आते जाते थे पर मेरे जानूं को देखते हुवे उन्हं ने बूसों मैं ढके खा के भी ऑफीस जाना मंज़ोर था. मगर शायद उन्हं एस बात का एहसास नही था के वो अपने ज़िंदगे के सब से बड़े घालती करने जा रहे थे. वो ऐक ऐसे साँप को दूध पिलाने लगे थे जो उनके साथ साथ अपने एर्द गिर्द (सराउंडिंग्स) के हर एंसन को डसने वाला था ……
जिस सरकारी स्कूल मैं पहले मैं पड़ा कराता था उसका हाल वैसा ही था जैसे की अक्सर सरकारी सचूलों का होता है और जिस स्कूल मैं मुझे अब अड्मिट किया गया था वो शहर के चाँद बड़े प्राइवेट स्कूल्स मैं से ऐक था, मैं जैसे ज़मीन से आसमान पर पहुच गया था क्यूँ की मेरी नयी और पूरेानी स्कूल के हालत मैं फर्श और अर्श जितना ही फ़र्क था. मगर उस स्कूल मैं भाराती हो के जो सब से पहले बात मेरे मन मैं आई वो ये थी की शायद मैं इस स्कूल के लायक नही क्यूँ की वहाँ पे पड़ने वाला हर स्टूडेंट किसी ना किसी अमीर घराने मैं से था और मैं क्या था ऐक मामूली अकाउंटेंट का बेटा.
मैं उनसे किसी चीज़ मैं एज था तो वो थी पड़ाई जिस मैं उनका मुक़ाबला मैं कर सकता था. लायकेन मैं चाहे कितना भी लायक क्यूँ ना था मेरे अंदर ये एहसास जानम ले चुका था की मैं उन लोगों से कांतर हू, और मैं जान-बूझ के अपने असलियत सब से छुपाने लगा और जिसका आसान हाल मुझे ये नज़र आया का मैं किसी से दोस्ती ही ना करू और मैने यही किया. मैं ज़्यादा किसी से बात ना कराता और ना ही किसी से घुलता मिलता, मेरा ज़्यादा वक़्त या तो क्लासरूम मैं गुज़राता या फिर लाइब्ररी मैं क्यूँ की यही 2 जगहैीन मुझे अकेलापन का एहसास देती, जिसकी मुझे हर पल तलाश रहती. उस दिन भी मैं अपने आदत के अनुसार लाइब्ररी मैं बेठा था के अचानक मेरे सीट फेलो महेष्ने मुझ से वो सवाल किया जिस से बचने के लाइ मैं पहले दिन से कोशिश कर रहा था मगर शायद अब और ज़्यादा अपने असल से भागना मेरी क़िस्मत मैं ना था और मुझे लगा की आज मुझे अपनी असलियत बठानी पड़ेगी.
“अंकुश तुम्हारे फादर क्या करते है” ?
“मेरे पिता अक्कौतंत है” ……मेरा सिर खुद बी ए खुद शर्मिंदगी से झुक गया.
“वॉट???? तुम्हारे फादर अक्कौतंत है…..अरे यू किडिंग???…….उसके लहजे मैं ऐसी हैरात थी जैसे मैने उसे किसी अजूबे के अविष्कार होने के बड़े मैं बताया हो.
“क्यूँ, नही हो सकते क्या”?…….माने झुके हुवे सिर से जवाब दिया.
“नही हो सकते”……महेश ने पूरे कॉन्फिडेन्स से जवाब दिया.
“क्यूँ नही हो सकते”?……शायद ऐक अकाउंटेंट के बेटे को वहाँ पे पड़ता देख कर उसका हैरान होना कुछ घालत भी नही था.
“वो एस लिए के मेरे अंकल की ऑफीस मैं जो अकाउंटेंट है उनके बच्चे ऐक ऑर्डिनरी सी प्राइवेट स्कूल मैं पड़ते हैं”……उस ने बड़े गर्व से मेरी जानकारी मैं बदौती की.
“तो क्या इससे ये साहबित होता है की मेरे पिता अकाउंटेंट नही हो सकते”?…….माने इस बार थोड़े हैरंगी से उस से सवाल किया.
“हाँ क्यूँ के अगर तुम्हारे फादर हुमारी स्कूल की मंत्ली फीस दे भी दे तब भी वो यहाँ के अददमीससिओं फीस नही दे सकते”…….उस ने फिर से अपनी बुढ्ढि का सुबूत दिया.
“हाँ उसके लिए ही तो……” ……और पहली बार मेरे ज़ुबान सच बोलते बोलते रुक गयी और मैं नही जनता था की ये पहली बार आखड़ी बार होगी और इसके बाद मेरी ज़ुबान कभी सच नही बोलेगी. मैं उससे बठाना चाहता था की मेरी मन ने अपने गहने बेचे मेरे पीतने मेरे अददमीससिओं के लिए अपनी मोटरसाएकल बेची है मगर इस बार मेरी ज़ुबान से सच ना निकल सका शायद मेरे अंदर का शैठान मेरे सच पे भारी प़ड़ गया.
“हाँ उसके लिए क्या….”???…….. महेश मेरी बात पूरी होने का एन्ताज़ार कर रहा था और जब काफ़ी देर मैं चुप रहा तो उस ने मेरी बात रिपीट कर दी.
“अरे यार तुम भी ना बिल्कुल बेवक़ूफ़ हो”……….और फिर मेरी ज़ुबान ने सच का साथ चोद कर झूट का दामन थम लिया था, मेरा मन बहुत तेज़ी से झूटका जाल बुन रहा था.
“कमाल है बेवक़ॉफोन वाले बातें खुद कर रहे हो और कह मुझे रहे हो”……..इस बार संतोषी के बजाए महेश के आवाज़ मैं गुस्सा था.
“तुम्हे पता है मेरे पिता कोन्से ऑफीस मैं जॉब करते हाँ”?……अब मेरे आवाज़ मैं आत्मविश्वास था, मेरा दिमाग़ आने वाले लम्हों मैं झूट बोलने के लिए तय्यार हो चुका था.
“नही. तुम बताओ गे तो पता चलेगा ना”.
“मेरे पिता आंटी-करप्षन मैं अक्कौतंत है, उनकी पे भले ही कम है बट उपर की कमाई बुहुत होती है”……..ये बात कहते मेरी ज़ुबान ऐक बार भी नही अटकी क्यूँ की झूट बोलना हमेशा से आसान होता है मगर हम इस बात से अंजान होते है के झूट बोलना सिर्फ़ पहली बार ही आसान लगता है उसके बाद बोले जाना वाला हर झूट इंसान को अपनी जाल मैं फुंसटा चला जाता है.
“वॉट उपर के कमाई”??………..पहले तुMअहेश्ने हैरंगी से कहा मगर अग्लेहि पल जासे वो समझ गया हो………”अछा उ मीन रिश्वत, तो तुम्हारे फादर रिश्वत खाते हैं”…….उस ने मज़े ले ले कर कहा और मेरे दिल ऐक पल के लिए भी नही कंपा के जिस बाप ने मेरे लिए बूसों के ढके खाना स्वीकार किया ताकि उसका बेटा अछी पढ़ाई कर सके, ऐक पल मैं ही मैने अपने बाप के इस महान त्याग को मिट्टी मैं मिला दया.
“अछा तभी तो तुम यहाँ पारह रहे हो, खैर मैं चलता हू ज़रा 1 बुक इश्यू करनी थी, तुम आओगे या अभी बेठना है यहाँ पे”?
“नही तुम जाओ मैं ये चॅप्टर ख़त्म कर के ही ओँगा”……..मैने सामने पड़ी बुक की तरफ इशारा करते हुवे कहा.
महेश तो सिर हिलता चला गया मगर उसके जाने के बाद पहली बार मेरे दिल मैं शर्मिंदगी पैदा हुवी की मैने अपने ईमानदार बाप को ऐक रिश्वत खोर बना दिया लायकेन मैने ये सोच के अपने दिल को बहला दिया की जब मैने अपने पिता के बड़े मैं सच बोला तो महेश के लहजे मैं हकारात सी महसूस हुवे मगर जब मैने झूट बोला की वो रिश्वत खोर हैं तो बजाए हकारात के वो रिलॅक्स हो के चला गया जैसे उसके लिए ये जानकारी ज़रूरे हो की चाहे हराम की ही सही मेरे पिता के पास पैसा तो है. और ये सोच के मैने अपने दिल को तसल्ली दे दी की मैने जो भी किया ठीक किया मगर मुझे क्या पता था की जो तसल्ली मैं खुद को दे रहा हू वो भी झूती है और जिस थोड़े वक़्त के एहसास-ए-कमतरी को मैने छुपाने के लिए वो झूट बोला वो दीमक की तरहन आने वाले वक़्त मैं मुझे चाट जाए गी…..
समय का काम गुज़रना है सो गुज़राता गया और देखते ही देखते मैं 9त क्लास मैं पहुँच गया मगर वो जो एक झूठ मैने बोला था उसको छिपाने के लिए कई और छोटे बड़े झूठ मुझे बोलने पड़े जैसे जब मुझसे किसी ने पूछा के
“तुम कार के बजाए टॅक्सी मैं क्यूँ आते हो ? ”
गुनहगार – Hindi Sex Novel – 1