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गुनहगार – Hindi Sex thriller Novel

Posted: 27 Sep 2015 10:42
by Fuck_Me
मैं ऐक मिड्ल क्लास फॅमिली मैं आँख खोले मेरे पिता आंटी-करप्षन के महकमे (डिपार्टमेंट) मैं अकाउंटेंट थे, मेरे मन ऐक घरालो महिला थी बेहन भयों मैं मेरा नंबर अख्रे था मुझ से बड़े 2 बही और 1 बेहन थे. हमारे घर मैं पैसे के कोई रेल पेल नही थे क्यूँ के मेरे पिता ऐक एमंडर एंसन थे जो रिश्वत लेन पे यक़ीन नही रखते थे लायकेन ऐसा भी नही था के पैसे के तंगी हो मेरे पिता के सॅलरी मैं अछा गुज़ारा चल रहा था. इतेफ़ाक़ के बात ये थे के मुझ से बड़े बेहन भाई मैं किसे को भी परह मैं ज़्यादा इंटेरेस्ट नही था उनके लाइ पास हो जाना हे बुहुत बड़े बात थे जब के मुझे बचपन से हे परह का जानूं के हद तक शोक़् था और स्कूल मैं अड्मिशन होने के बाद तू जैसे मैं बस किताबों का हे हो गया और मेरेहेयरआने वाले रिज़ल्ट के बाद मेरे माता पिता का सिर फखार से बुलंद होता जा रहा था.

जब 8त क्लास मैं मैने स्कूल मैं टॉप क्या तू जैसे मेरे पेरेंट्स के पयों ज़मीन पर नही पर रहे थे और मेरे मन मेरे बालयन लायटे लायटे नही थकते थे. मेरे बेहन बही जो मुझ से उमेर (आगे) मैं बड़े थे मेरे क़ाबलियत (इंटेलिजेन्स) देख के मुझ से ज़्यादा घुलने मिलने से भी डरने लगे बलके मेरे परहाए के ख़याल से अक्सर वो काम जो पिता जी या मन मुझे करने को कहते वो अभी अक्सर हू कर दया करते थे.

मेरे एस कामयाबी के बाद मेरे माता पिता ने ये फ़ैसला क्या के अब मुझे मज़ीद सरकारी स्कूल मैं नही परहना चाहये और मेरे अच्छे मुस्ताक़बिल (फ्यूचर) के लाइ उन्हों ने मुझे शहर के सब से अच्छे प्राइवेट स्कूल मैं दखल (अड्मिशन) करा दया, जिस के लाइ मेरे मन को अपने गहने (गोल्ड जेवाले्लारी) बैचने परे और मेरे पिता को अपने मोटोर्स्यले बैचने परे जिस पे वो ऑफीस आते जाते थे पर मेरे जानूं को देखते हुवे उन्हं ने बूसों मैं ढके खा के भी ऑफीस जाना मंज़ोर था. मगर शायद उन्हं एस बात का एहसास नही था के वो अपने ज़िंदगे के सब से बड़े घालती करने जा रहे थे. वो ऐक ऐसे साँप को दूध पिलाने लगे थे जो उनके साथ साथ अपने एर्द गिर्द (सराउंडिंग्स) के हर एंसन को डसने वाला था ……
जिस सरकारी स्कूल मैं पहले मैं पड़ा कराता था उसका हाल वैसा ही था जैसे की अक्सर सरकारी सचूलों का होता है और जिस स्कूल मैं मुझे अब अड्मिट किया गया था वो शहर के चाँद बड़े प्राइवेट स्कूल्स मैं से ऐक था, मैं जैसे ज़मीन से आसमान पर पहुच गया था क्यूँ की मेरी नयी और पूरेानी स्कूल के हालत मैं फर्श और अर्श जितना ही फ़र्क था. मगर उस स्कूल मैं भाराती हो के जो सब से पहले बात मेरे मन मैं आई वो ये थी की शायद मैं इस स्कूल के लायक नही क्यूँ की वहाँ पे पड़ने वाला हर स्टूडेंट किसी ना किसी अमीर घराने मैं से था और मैं क्या था ऐक मामूली अकाउंटेंट का बेटा.

मैं उनसे किसी चीज़ मैं एज था तो वो थी पड़ाई जिस मैं उनका मुक़ाबला मैं कर सकता था. लायकेन मैं चाहे कितना भी लायक क्यूँ ना था मेरे अंदर ये एहसास जानम ले चुका था की मैं उन लोगों से कांतर हू, और मैं जान-बूझ के अपने असलियत सब से छुपाने लगा और जिसका आसान हाल मुझे ये नज़र आया का मैं किसी से दोस्ती ही ना करू और मैने यही किया. मैं ज़्यादा किसी से बात ना कराता और ना ही किसी से घुलता मिलता, मेरा ज़्यादा वक़्त या तो क्लासरूम मैं गुज़राता या फिर लाइब्ररी मैं क्यूँ की यही 2 जगहैीन मुझे अकेलापन का एहसास देती, जिसकी मुझे हर पल तलाश रहती. उस दिन भी मैं अपने आदत के अनुसार लाइब्ररी मैं बेठा था के अचानक मेरे सीट फेलो महेष्ने मुझ से वो सवाल किया जिस से बचने के लाइ मैं पहले दिन से कोशिश कर रहा था मगर शायद अब और ज़्यादा अपने असल से भागना मेरी क़िस्मत मैं ना था और मुझे लगा की आज मुझे अपनी असलियत बठानी पड़ेगी.

“अंकुश तुम्हारे फादर क्या करते है” ?

“मेरे पिता अक्कौतंत है” ……मेरा सिर खुद बी ए खुद शर्मिंदगी से झुक गया.

“वॉट???? तुम्हारे फादर अक्कौतंत है…..अरे यू किडिंग???…….उसके लहजे मैं ऐसी हैरात थी जैसे मैने उसे किसी अजूबे के अविष्कार होने के बड़े मैं बताया हो.

“क्यूँ, नही हो सकते क्या”?…….माने झुके हुवे सिर से जवाब दिया.

“नही हो सकते”……महेश ने पूरे कॉन्फिडेन्स से जवाब दिया.

“क्यूँ नही हो सकते”?……शायद ऐक अकाउंटेंट के बेटे को वहाँ पे पड़ता देख कर उसका हैरान होना कुछ घालत भी नही था.

“वो एस लिए के मेरे अंकल की ऑफीस मैं जो अकाउंटेंट है उनके बच्चे ऐक ऑर्डिनरी सी प्राइवेट स्कूल मैं पड़ते हैं”……उस ने बड़े गर्व से मेरी जानकारी मैं बदौती की.

“तो क्या इससे ये साहबित होता है की मेरे पिता अकाउंटेंट नही हो सकते”?…….माने इस बार थोड़े हैरंगी से उस से सवाल किया.

“हाँ क्यूँ के अगर तुम्हारे फादर हुमारी स्कूल की मंत्ली फीस दे भी दे तब भी वो यहाँ के अददमीससिओं फीस नही दे सकते”…….उस ने फिर से अपनी बुढ्ढि का सुबूत दिया.

“हाँ उसके लिए ही तो……” ……और पहली बार मेरे ज़ुबान सच बोलते बोलते रुक गयी और मैं नही जनता था की ये पहली बार आखड़ी बार होगी और इसके बाद मेरी ज़ुबान कभी सच नही बोलेगी. मैं उससे बठाना चाहता था की मेरी मन ने अपने गहने बेचे मेरे पीतने मेरे अददमीससिओं के लिए अपनी मोटरसाएकल बेची है मगर इस बार मेरी ज़ुबान से सच ना निकल सका शायद मेरे अंदर का शैठान मेरे सच पे भारी प़ड़ गया.

“हाँ उसके लिए क्या….”???…….. महेश मेरी बात पूरी होने का एन्ताज़ार कर रहा था और जब काफ़ी देर मैं चुप रहा तो उस ने मेरी बात रिपीट कर दी.

“अरे यार तुम भी ना बिल्कुल बेवक़ूफ़ हो”……….और फिर मेरी ज़ुबान ने सच का साथ चोद कर झूट का दामन थम लिया था, मेरा मन बहुत तेज़ी से झूटका जाल बुन रहा था.

“कमाल है बेवक़ॉफोन वाले बातें खुद कर रहे हो और कह मुझे रहे हो”……..इस बार संतोषी के बजाए महेश के आवाज़ मैं गुस्सा था.

“तुम्हे पता है मेरे पिता कोन्से ऑफीस मैं जॉब करते हाँ”?……अब मेरे आवाज़ मैं आत्मविश्वास था, मेरा दिमाग़ आने वाले लम्हों मैं झूट बोलने के लिए तय्यार हो चुका था.

“नही. तुम बताओ गे तो पता चलेगा ना”.

“मेरे पिता आंटी-करप्षन मैं अक्कौतंत है, उनकी पे भले ही कम है बट उपर की कमाई बुहुत होती है”……..ये बात कहते मेरी ज़ुबान ऐक बार भी नही अटकी क्यूँ की झूट बोलना हमेशा से आसान होता है मगर हम इस बात से अंजान होते है के झूट बोलना सिर्फ़ पहली बार ही आसान लगता है उसके बाद बोले जाना वाला हर झूट इंसान को अपनी जाल मैं फुंसटा चला जाता है.

“वॉट उपर के कमाई”??………..पहले तुMअहेश्ने हैरंगी से कहा मगर अग्लेहि पल जासे वो समझ गया हो………”अछा उ मीन रिश्वत, तो तुम्हारे फादर रिश्वत खाते हैं”…….उस ने मज़े ले ले कर कहा और मेरे दिल ऐक पल के लिए भी नही कंपा के जिस बाप ने मेरे लिए बूसों के ढके खाना स्वीकार किया ताकि उसका बेटा अछी पढ़ाई कर सके, ऐक पल मैं ही मैने अपने बाप के इस महान त्याग को मिट्टी मैं मिला दया.

“अछा तभी तो तुम यहाँ पारह रहे हो, खैर मैं चलता हू ज़रा 1 बुक इश्यू करनी थी, तुम आओगे या अभी बेठना है यहाँ पे”?

“नही तुम जाओ मैं ये चॅप्टर ख़त्म कर के ही ओँगा”……..मैने सामने पड़ी बुक की तरफ इशारा करते हुवे कहा.

महेश तो सिर हिलता चला गया मगर उसके जाने के बाद पहली बार मेरे दिल मैं शर्मिंदगी पैदा हुवी की मैने अपने ईमानदार बाप को ऐक रिश्वत खोर बना दिया लायकेन मैने ये सोच के अपने दिल को बहला दिया की जब मैने अपने पिता के बड़े मैं सच बोला तो महेश के लहजे मैं हकारात सी महसूस हुवे मगर जब मैने झूट बोला की वो रिश्वत खोर हैं तो बजाए हकारात के वो रिलॅक्स हो के चला गया जैसे उसके लिए ये जानकारी ज़रूरे हो की चाहे हराम की ही सही मेरे पिता के पास पैसा तो है. और ये सोच के मैने अपने दिल को तसल्ली दे दी की मैने जो भी किया ठीक किया मगर मुझे क्या पता था की जो तसल्ली मैं खुद को दे रहा हू वो भी झूती है और जिस थोड़े वक़्त के एहसास-ए-कमतरी को मैने छुपाने के लिए वो झूट बोला वो दीमक की तरहन आने वाले वक़्त मैं मुझे चाट जाए गी…..

समय का काम गुज़रना है सो गुज़राता गया और देखते ही देखते मैं 9त क्लास मैं पहुँच गया मगर वो जो एक झूठ मैने बोला था उसको छिपाने के लिए कई और छोटे बड़े झूठ मुझे बोलने पड़े जैसे जब मुझसे किसी ने पूछा के

“तुम कार के बजाए टॅक्सी मैं क्यूँ आते हो ? ”
गुनहगार – Hindi Sex Novel – 1

Re: गुनहगार – Hindi Sex thriller Novel

Posted: 27 Sep 2015 10:42
by Fuck_Me
तो उसके लिए मैने ये झूठ बोला की,

“हमारे घर मैं 1 ही कार हे जिस मे मेरे पिता दफ़्तर जाते हैं और दूसरी कार इस लिए नही लेते की इस तरहन मेरे पिता के ऑफीस वालों को शक हो सकता है की मेरे पिता रिश्वत खोर हैं”

फिर इस झूठ को छुपाने के लिए मैने अपने सारे दोस्तों को घर आने से माना कर दिया और ना कभी बताया की मैं कहाँ रहता हूँ और उसके लिए मैने ये झूठ बोला की

“मेरा बड़ा भाई पागल है जब भी हमारे घर मैं कोई नया मेहमान आता है वो उससे मारने के लिए उस पर हमला बोल देता है”

जिसे सुन के सब दर भी गये और मेरे घर आने का सोचना भी चोर दिया. इन्न झूतों को सच्चा साहबित करने मेरे लिए आसान था उसकी एक वजह मेरे पेरेंट्स थे जिन्हों ने मुझे कभी कोई कमी नही महसूस होने दी और मेरी ज़ाहिर परिस्थिति हमेशा ऐसे होती जैसे मैं किसी खाते पीते घराने से हूँ, और दूसरा कारण वो स्कूल था क्यूँ की वहाँ पर आने वाला हर लड़का उस सोसाइटी से जुड़ा हुआ था जहाँ पे किसी की इन्वेस्टिगेशन के लिए किसी के पास टाइम नही होता वहाँ पे तो बस जो देखाया जाता हा वो सच होता था, और तीसरी वजह मेरी चतुराई थी जिस के वजा से ना तो कभी टीचर्स को और ना ही प्रिन्सिपल को कभी मुझ से शिकायत होती की वो मेरे पेरेंट्स को स्कूल बुलवा के शिकायत करते.वक़्त के साथ मैं झूठ बोलने के फन मैं महारात हासिल कराता जा रहा था और इस सब के बीच जो एक बात अछी थी वो ये के मेरा परहने का जज़्बा कम नही हुवा और मैं अपने क्लास का पोज़िशन होल्डर स्टूडेंट था.

मुझे 9त क्लास मैं आए कुछ ही दिन हुवे थे की मेरी तबीयत अचानक खराब हो गयी और मैं पूरा 1 हफ़्ता स्कूल नही जा सका और मैं लाइब्ररी मैं बेठा वो लेक्चर्स नोट कर रहा था जो मेरी घैर-हज़री मैं परहया गया था की अचानक एक पतली सी आवाज़ ने मुझ से सवाल क्या.

“तुम्हारा नाम अंकुश है”?…….मैने जब अपने रिजिस्टर से सिर उठा के सवाल करने वाले को देखा तो हैरंगी से मेरा मूह खुल गया क्यूँ की मैं सोच भी नही सकता था के कभी कोई लड़की खुद मुझसे बात करेगी और वो भी क्लास की सब से खूबसूरात लड़की.

“अगर तुम मुझे देख चुके हो तो बठाना पसंद करोगे की तुम्हारा नाम अंकुश है”?……उसने इस तरहा मुझे अपनी तरफ बिना पालक झपके देखता हुआ देख कर मज़े लेने लगी, और अपना सवाल फिर से दोहराया जैसे वो जानती हो के वो इतनी ही खूबसूरात है की मेरा उससे इस तरहन देखना उसका अधिकार हो.

“जी मेरा ही नाम अंकुश देव है”……….मैने उसी पल मे अपने नज़रे नीची कर के जवाब दिया.

“तुम एक हफ्ते से कहाँ गुम हो गये थे” ?……..एक और सवाल.

“महेश क्या तुम मेरे साथ वाले सीट खाली कर दो गे”?……अगले दिन जब हम सूबह क्लास मैं जा रहे थे तू मैने महेश के सामने अपना मुद्दा पेश कर दया.

“क्यूँ तू ऐक सीट पे पूरा नही आता क्या”……महेश ने अपने बालो को सेट करते हुवे मेरे बात को मज़ाक़ मैं यूरा दया.

“नही….मेरा मतलब हा के हाँ, मेरे लाइ तू ऐक सीट काफे हा लायकेन मेरे साथ वाले सीट पे संजना बेठना चाहते हा”……..मैने उसे सीट खाली करने का कारण बता दया.

“हाँ कल मुझे भी उस ने यहे कहा तू ऐसा कर मेरे साथ वाले सीट खाली कर दे”…..उस ने बादुस्तूर (कंटिन्यूवस्ली) अपने बालो को सेट करते हुवे फिर से मेरे बात चुटकियों मैं यूरा दी. और उस के गैर संजीदगी देखते हुवे मुझे उसे कल संजना से होने वाले मुलाक़ात के बड़े मैं सब कुछ बठाना परा.

“यानी तेरा मतलब हा के संजना सिंग खुद तेरे पास आई थी तुझ से हेल्प माँगने और फिर उस ने तुझ से ये कहा के वो तेरे साथ वाले सीट पे बेठना चाहती हा”?…….महेश जैसे हैरंगी के मारे बेहोंश होने को था.

“हाँ”……मैने उसके हैरंगी का मज़ा लायटे हुवे जवाब दया.

“तू जनता हा संजना सिंग किस के बेटी हा”?

“नही….क्यूँ जानकारी ज़रूरी हा क्या”?……मैं बदमज़ा (अपसेट) सा हो गया क्यूँ की वो मेरे बात मन्नाने के बजाई दोसरि बातों पे शुरू हो गया था.

“सिंग इंडस्ट्रीस का नाम सुना हा तुम ने”?

“हाँ कहीं पे सुना सुना सा लगता हा”…….मैने याद करने की कोशिश की.

“ज़रूर सुना हो गा क्यूँ की इंडिया के कुछ बड़ी इंडस्ट्रीस मैं एसका नाम भी आता हा और अब सुन्नने मैं आया हा की अब एसके ओनर मिस्टर.सिंग अपने प्रॉडक्ट्स एक्सपोर्ट करने का भी सोच रहे हाँ”……उस ने मुझे सिंग इंडस्ट्रीस के पूरे हिस्टरी सुना दी.

“तू कर रहे हों गे लायकेन तुम ये सब मुझे क्यूँ बता रहे हो”?…..मैं उसका एतने जानकारी डायने का कारण नही समझ पाया.

“एस लाइ बता रहा हों के एस इंडस्ट्रीस के मलिक का नाम हा रणवीर सिंग और उस से बड़ी बात ये हा के संजना सिंग उसकी आक्लॉटी बेटी हा और उस से बड़ी बात ये हा के ये वोही संजना सिंग हा जिस ने कल तुम से कहा के वो तुम्हारे साथ वाले सीट पे बेठना चाहती हा”…….महेश ने ड्रामाय अंदाज मैं हर राज पर से परदा उठाया और अब के बार हैरंगी के मारे चुप होने की बड़ी मेरी थी.

“लायकेन ये सब तुम मुझे क्यूँ बता रहे हो”?…….मूज़े अपने होश संभालने मैं थोड़ा समय लगा मगर उसकी बाद मैने पहला सवाल उस से यहे क्या.

“वो एस लाइ मेरे भोले राम के तेरे लॉटरी निकल आए हा बेटा, एतनी अमीर बाप के बेटी तुज से दोस्ती कर रही हा जिसे इंडिया मैं आए सिर्फ़ 2 हफ्ते गुज़रे हाँ और जिस ने अभी तक स्कूल के किसी लड़के को घास भी नही डाली”……..उसके लहज़े मैं मेरे लाइ रुष्क (अप्रिसियेशन) या हसद मैं समझ नही पाया.

“वो तू ठीक हा पर यार एस मैं लॉटरी निकालने वाले क्या बात हा”?…..मैं अभी तक उसके बात को सहे टॉर पे समाज नही पाया था.

“लॉटरी एस लाइ क्यूँ की जिस तरहन के गिफ्ट्स वो अपने फ्रेंड्स को पिछले 2 हफ्ते मैं दे चुके हा उस से पता चलता हा के वो कितना ज़्यादा अपने दोस्तों पे पैसा लूटती हा, और अब जब उस ने तुम से दोस्ती के हा तू जाहिर हा तुम पर भी ऐसे मेहरबानियाँ करे गी, तू फिर तेरे लॉटरी निकल आए ना”……महेश ने डीटेल से अपनी बात मुझे समझाए और अब सच मैं मेरे समाज मैं आ गया था, जिस बात पे मैने अभी तक गूर भी नही क्या था महेश उस बात के तह (डेप्त) तक भी फुँछ चुका था. और महेश जैसा लड़का जिसका अपना बाप ऐक जाना माना बिज़्नेसमॅन था वो अगर संजना के पैसे से एट्ना इंप्रेस था तू एस से अंदाज़ा लगाना मुश्किल ना था के वो कितने अमीर बाप के बेटी हा.

गुनहगार – Hindi Sex Novel – 2

Re: गुनहगार – Hindi Sex thriller Novel

Posted: 27 Sep 2015 10:43
by Fuck_Me
“खैर वो तू बाद मैं देखा जाए गा, लायकेन अभी के लाइ तुम साथ वाले सीट खाली कर रहे हो या नही”?…..मैने उसके सामने ऐसे जाहेर क्या जैसे एस बात से मुझे कोई फ़र्क नही पराता हालाँकि दिल हे दिल मैं अपने खुश किस्मती पे मैं नाज़ कर रहा था.

“हाँ कराता हों, अब तू तेरे हर बात मन्नानी परे गी आख़िर को संजना सिंग का दोस्त बन गया हा तू”………महेश आख़िर कर मेरे बात मन हे गया.

और जब हम दोनो क्लास मैं फुँचे तू संजना पहले से हे मेरे सीट के सामने परे डेस्क पे बेठी चॉक्लेट खा रहे थी, हमेन देख के भी उस ने सिवाए ऐक दोस्ठाना मुस्कुराहट (स्माइल) के कोई रिक्षन शो नही क्या जस्से फिलहाल चॉक्लेट खाना हे दूण्या का सब से ज़रूरी कम हो.

“हेलो संजना”…….अपने सीट के करीब फुँछ के, महेश ने हे उस से हेलो ही के मैं अभी तक खामोश खड़ा था.

“हेलो महेश, सॉरी के मैं तुम्हां तुम्हारी सीट से भगा रहे हों मगर वो क्या हा की मैं, अंकुश से मेद्स मैं हेल्प लोन गी तू सोचा एसके साथ हे बेठ जायों एस तरहन क्लास मैं भी हेल्प लैयती राहों गी”……..महेश ने अपने सीट से जैसे अपना बाग उठाया, संजना ने बाग रखते हुवे महेश से सॉरी क्या.

“इट्स ओक संजना मैं समझता हों वैसे भी, अंकुश और मैं तू 1 साल से ऐक साथ हे बेठ रहे हाँ अब थोड़ा चेंज होना चाहये”…..महेश ने मज़ाहिया (फन्नी) लहज़े मैं जवाब दया, जिसे सुन कर संजना बस हल्का सा मुस्कुराइ.

“चॉक्लेट खायो गे”?…….मैं जैसे हे अपनी सीट पे बेठा उस ने मुझे चॉक्लेट खाने के ऑफर के जिसे मैने क़बूल करते हुवे उसके हाथ से चॉक्लेट ले ली.

मुझे उस पल लगा के मैं अपने अंदर के एहसासे कमतरी से मुकामल जान चुरा चुका हों मगर मैं ग़लत था एंसन ऐक बार अगर अपनी हे नज़रों मैं खुद को गिरा दे तू फिर जिंदगी भर नही उठा सकता और मेरा हाल भी कुछ ऐसा हे था, मेरे अंदर अब कुछ भी ऐसा नही था जिस के वजा से मैं अपना सिर उठा के चल सकता एस लाइ अब मैं दूसरे सहारे खोज रहा था अपने कमजोर वजूद के सहारे के लाइ मगर एंसन एस बात से अंजन था के जो एमारात ऐक बार अंदर से खोली हो जाए उसके बाद उसे कितना भी बरा सहारा क्यूँ ना मिल जाए वो ज़्यादा दिन नही टिक सकती.

कॉलेज मैं गुजरने वाले 4 साल मेरे जिंदगी के सब से खूबसूरात और यादगार 4 साल थे. संजना मेरे जिंदगी मैं ऐक ऐसा उन-देखा हाथ बन गये थे जो मेरे तरफ आने वाली हर मुसीबत को रोक लेता. 4 साल मैं बुहुत कुछ बदल गया तावो शर्मीला और नर्वस रहने वाले अंकुश को संजना के मोहब्बत ने ऐक मज़बूत और कॉन्फिडेंट मर्द बना दया था. मेरे एर्द गिर्द भी बुहुत कुछ बदल चुका था, संजना के अंकली के डेत हो चुके थे और मेरे दीदी और बड़े भाई का बियाः हो गया था. मेरे दोनो भाई क्यूँ के पढ़ाई बिल्कुल ज़ीरो थे मेरे पिता जी ने उनको गारमेंट्स के शॉप खोल दी थे जिसको दोनो बुहुत अच्छे तरीके से चला रहे थे और कुल मिला के सब कुछ बुहुत अछा चल रहा था.

मेरे पिता रिटाइयर्मेंट के करीब फुँछ चुके थे जब मैने अपना बेअचलोर कंप्लीट क्या और स्कूल के तरहन कॉलेज मैं भी मैने अपना रेकॉर्ड खराब नही होने दया और बेअचलोर के रिज़ल्ट मैं भी कॉलेज मैं मेरे 3र्ड पोज़िशन थे. पिता जी ने मुझे कहा के वो अपने डेपरातेमेंट मैं काफे अच्छे पोज़िशन पे नोकरी दिला सकते हैं और मैं साथ साथ अपने पढ़ाए भी जारी रख सकता हों क्यूँ के अब वो रिटाइर होने वाले थे तू उनका ख़याल था मुझे भी जॉब शुरू कर डायने चाहये. लायकेन मुझे तू ऐसा लगा जैसे पिता जी ने मुझे जॉब का ना कहा बलके कोई शारप दे दया हो मैं उन पे बुहुत घुसा हुवा के मैने एस दिन के लाइ एतने मेहनत नही के थे ऐक फज़ूल से जॉब शुरू कर डॉन. मेरे घुसे को देख के पिता जी चुप हो गये और बोला के जैसा तुम चाहते हो वैसे करो.

मेरा एरदा था के मैं किसे अच्छे उनी मैं म्बा मैं अड्मिशन कर लोन क्यूँ के मुझे भरोसा था के मुझे स्कॉलरशिप मिल जाए गा किसे भी अच्छे उनी मैं और बेक अड्मिशन वाघेरा के लाइ संजना तू थे हे मेरे साथ और वो मेरे लाइ किसे आत्म मशीन के तरहन थे जिस से जब चाहता मैं पैसे निकल लेता बस फ़र्क ये था मुझे संजना से पैसे लेन के लाइ किसे आत्म कार्ड के ज़रूरात नही थे. मैने संजना को अपने फ्यूचर प्लान के बड़े मैं जब बताया तू मेरे लाइ उसके पास एस से भी बरा सर्प्राइज़ था. उस ने मुझे बताया के वो लंडन के ऐक यूनिवर्सिटी मैं मेरे स्कॉलरशिप के लाइ पहले से अप्लाइ कर चुके हा और उन्हों ने मेरा रेकॉर्ड देख के मुझे स्कॉलरशिप डायने के लाइ राज़ी हो गये हाँ बस मुझे ऐक टेस्ट क्लियर करना होगा जिसके बाद मैं वहाँ जा के पारह सकता हों. मैं तू खुशी से बेहोश होने को था मैने तू सोचा भी नही था के मैं बाहर जा के भी पारह सकता हों.

क़िस्मत मेरे उपेर मेहरबान थी सब कुछ आसान होता जा रहा था मेरे लाइ क़िस्मत का हर दरवाजा खुलता जा रहा था और टेस्ट क्लियर करने के बाद 1 महीने मैं मुझे लंडन चले जाना था मैं अब अपने वीसा का एनटजार कर रहा था.

“संजना तुम मेरे जिंदगी मैं नही आते तू शायद मैं कब का अंधारों मैं भटक गया होता” …. उस दिन भी मैं और संजना अपने पसंदीदा रेस्तूरंत मैं बेठे अपना फ्यूचर प्लान कर रहे थे जब मैने संजना का हाथ पकड़ के मोहब्बत भरे लहजे मैं कहा.

“मैने ऐसा कुछ नही क्या असल मैं तू सारा करीडिट तुम्हेँ और तुम्हारे माता पिता को जाता हा जिन्हों ने एतने दिकाटों के बावजूद तुम्हेँ परहया और तुम ने एतने मेहनत के मैने तू सिर्फ़ तुम्हेँ ऐक रह दिखाए बेक सारे मेहनत तुम्हारे अपने हा” …. उस ने प्यार से मेरे तरफ देखते हुवे कहा.

“सिर्फ़ मेहनत से कुछ नही होता जब तक कोई मदद करने वाला ना हो तुम ने हर कदम पे मेरा हाथ थाम रखा और आज भी अगर मैं लंडन मैं परहने जा रहा हों तू वो सब तुम्हारे कारण हा” …. मैने उसका हाथ दोनो हाथों मैं पाकर के चूम लया.

“क्या कर रहे हो हम पब्लिक प्लेस पे हाँ” …. वो शर्मा गये.
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