वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure story

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
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Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:11

"गंगा! मुझे बात किया कर! मुझे बहुत अच्छा लगेगा! करेगी न?" बोला वो!
"हाँ!" वो बोली!
"बस एक ही शब्द सीखा है क्या गंगा, बोलना?" पूछा उसने!
हंस पड़ी! इस बार हंसी नहीं रुकी! हंस पड़ा वो भी!
"कितनी सुंदर लगती है ऐसे तू! हंसती रहा कर गंगा!" बोला वो!
"तुझे कुछ चाहिए गंगा?" पूछा उसने!
"नहीं" बोली गंगा!
"चल मैं लेता आऊंगा! अब जा! मैं भी जाता हूँ!" बोला वो!
और चढ़ा घोड़े पर! लगाई एड़, और दौड़ पड़ा! जाते हुए, देखती रही उसको गंगा!
चला गया वो! अब कुछ शेष न रहा! बस वो उड़ती धूल, नीचे बैठती रही!
"अब चल गंगा" बोली माला!
"हाँ, चल" बोली गंगा!
और चल दीं घर के लिए! अपनी पोटली, अपनी बगल में दबा, माला भी चल पड़ी!
"कल तो आएगा नहीं वो!" बोली माला!
"हाँ, पता है" वो बोली,
"अब कैसे लगेगा मन?" बोली माला!
"लग जायेगा!" बोली गंगा!
"ओहो! अच्छा?" बोली माला!
"हाँ! लग जायेगा!" बोली गंगा!
"देखते हैं!" छेड़ा फिर से माला ने!
पहुंच गयीं घर! घर में पिता जी थे, जाने वाले थे अपने व्यापार के काम से बाहर, संग उनके, वो उदयचंद भी था! उसने भी काम जोड़ना था अपना, इसीलिए संग था उनके!
"गंगा?" बुलाया पिता जी ने!
गयी दौड़ी दौड़ी!
"कुछ लाना है बिटिया?" पूछा पिता जी ने!
"नहीं" बोली वो!
"कुछ चाहिए हो तो बता?" बोले पिता जी!
"नहीं" वो बोली!
"चल ठीक है, मैं आ जाऊँगा आठ दिन में" बोले वो,
अक्सर जाते थे, ऐसे ही आठ-दस दिन में वापिस आते थे! कोई नयी बात नहीं थी! और फिर चले गए पिता जी, घर के बाहर एक ऊँट-गाड़ी खड़ी थी, कुछ सामान रखा उसमे, और चले गए!
अंदर अपने कमरे में थी गंगा! आई माला अंदर!
"गंगा?" बोली माला!
"हाँ, बोल?" गंगा बोली,
"अब कैसे जायेगी मेले?" बोली वो!
"मतलब?" बोली गंगा!
"पिता जी तो गए! अब कैसे जायेगी?" बोली वो!
अरे! हाँ! अब कैसे जायेगी गंगा मेले में!
"चल रहने दे! फिर कभी" बोली माला!
"हाँ" गंगा बोली, दुःख तो हुआ उसे!
"अगली बार जब जायेगी तो तेरा ब्याह हो चुका होगा उस से! फिर तो अपने आप ही ले जायेगा वो तुझे!" बोली माला!
गंगा मुस्कुरा पड़ी!
उस रात भी, नींद नहीं आई सही से! और वो तो खैर अब आनी भी नहीं थी! नींद और चैन, उड़न-छू हो जाया करते हैं! और गंगा भी कोई अछूती नहीं थी इस से! भोजन करती तो स्वाद नहीं आता! कुछ काम करती, तो शून्य में निहारने लगती! और छोड़ना पड़ता काम! बस बिस्तर, और वही यादें!
उस रोज, दोपहर के बाद, वे गयीं कुँए पर! पानी भरने से पहले, गंगा जा बैठी अंधे कुँए पर! वही ख़याल! आज आना तो था नहीं उसको! ये तो पता ही था! फिर भी, बार बार पीछे मुड़कर देख लिया करती थी वो, वो रास्ता! लेकिन कोई आये, तो दिखे न! किसी ने आना ही नहीं था! कम से कम उस दिन!
"गंगा?" माला चिल्लाई!
तन्द्रा टूटी गंगा की! पलकें पीटीं!
"आ जा?" बोली माला!
पानी भर गया था शायद! चल पड़ी गंगा!
"ले, अब चल" बोली माला!
धीमे कदमों से, चलते हुए, उठाया घड़ा, और फिर से देखा रास्ते को! सूना पड़ा था रास्ता!
"नहीं आएगा वो आज!" बोली माला!
घड़ा उठाया माला ने, और आई गंगा के पास!
"चल अब!" बोली माला!
और अब, चल पड़ी गंगा! घर की तरफ!
पीछे मुड़के देखा!
"अरे! नहीं आएगा वो!" बोली माला!
चल पड़ी फिर आगे! और पहुँच गयीं घर! सारा दिन बोझिल कटा! एक एक पल एक एक घटी समान! एक एक घटी, एक एक अहोरात्र समान!
रात में चैन नहीं!
दिन बोझिल कटे!
क्या करे गंगा!
और फिर आया अगला दिन!
हुई दोपहर!
और चल पड़ी गंगा घड़ा उठाये उस माला के साथ!
"आज बात करना उस से!" बोली माला!
"हाँ, ठीक है" बोली गंगा!
"तुझे तरस नहीं आता उस पर?" बोली माला!
"तरस? कैसा तरस?" पूछा गंगा ने!
"कितनी दूर से आता है तुझे देखने! तुझसे बात करने! और तू? पत्थर सी खड़ी रहती है!" बोली माला!
मुस्कुरा गयी गंगा!
और आ गए दोनों वहीँ! कुँए पर!
नज़रें बिछायीं! और हाथ आगे कर, आँखों के ऊपर, गड़ा दीं आँखें!
कुछ ही देर बाद, कोई आ रहा था! घोड़ा तेज तेज दौड़ाये!
आ गया पास! उतरा! और आया गंगा के पास!
"पानी!" बोला वो!
अब घड़ा किया आगे उसने! और पिलाया पानी! पानी पिया उसने, अपना चेहरा धोया! और फिर पोंछा!
"कैसे है गंगा तू?" पूछा उसने!
"ठीक" बोली गंगा!
नज़रें चुराते हुए!
"और घर में?" पूछा उसने!
"सब ठीक" बोली वो!
"और माला? तू?" पूछा उसने!
"मैं भी ठीक!" बोली माला!
अब माला आ गयी थी पास उनके!
"ये मेले न जा सकेगी!" बोली माला!
"क्यों?" पूछा उसने!
"पिता जी नहीं हैं घर पर" बोली वो!
"अच्छा, क्या करते हैं?" पूछा उसने,
"व्यापारी हैं" बोली माला!
"अच्छा, फिर तो गए होंगे कहीं?" पूछा उसने!
"हाँ" माला बोली!
"कोई बात नहीं! मैं ले आऊंगा इसके लिए कुछ!" बोला वो!
"हाँ, ये तो नहीं जायेगी! बेचारी!" हंस पड़ी माला!
"बेचारी न कह माला इसको! मैं हूँ न इसका!" वो बोला!
माला और हंसी!
"बता न गंगा? हूँ या नहीं?" पूछा उसने!
अब गंगा के प्राण सूखें! क्या बोले!
"बोल गंगा?" बोला वो!
सामने आया! अपना हाथ आगे बढ़ाया! फिर रोका! फिर बढ़ाया! और फिर पीछे खींच लिया!
"तू बोलती नहीं है गंगा!" बोला वो!
गंगा! क्या बोले!
"हूँ या नहीं?" पूछा उसने!
"हाँ!" बोली गंगा! लरजती हुई आवाज़ में!
"ले माला! बोल दिया इसने!" बोला वो!
"गंगा, हाथ दे ज़रा आगे?" बोला वो!
घबरा गयी!
"अरे दे न?" बोला वो!
घबराये! पत्थर सी बन गयी थी!!

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Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:12

"अरे दे न हाथ?" हंस के बोला वो!
गंगा, अपना हाथ बचाये! कमर पर ले गयी थी!
"हाथ कर गंगा?" बोला वो!
नहीं किया!
"अरे गंगा! काहे इतनी शर्म!?" बोला वो!
नहीं दिया!
"ठीक है, मत दे, कोई बात नहीं, तेरी मर्ज़ी!" बोला थक-हारकर!
और जो वस्तु हाथ में थी उसके, वापिस जेब में डाल ली उसने!
"माला?" बोला वो!
"हाँ?" बोली माला!
"इसकी शर्म कैसे हटाऊँ मैं?" पूछा उसने, हँसते हुए!
"मैं बताऊँ?" बोली माला! छेड़ते हुए गंगा को! गंगा उसे देखे!!
"हाँ! बता मुझे!" बोला वो!
"आती हूँ" बोली माला!
आई, और हाथ पकड़ा उस भूदेव का उसने, और गंगा का भी हाथ पकड़ा, जैसे ही भूदेव के हाथ में देने को हुई, वो गंगा का हाथ, गंगा ने छिटक लिया अपना हाथ!
"रहने दे! करने दे इसको शर्म!" बोला वो!
"गंगा? हाथ दे न?" बोली माला!
कुछ न बोली! कुँए को देखती रही! बस!
"वैसे, है क्या?" पूछा माला ने!
"ये!" बोला वो, जेब से हाथ निकालकर, हाथ खोलता हुआ बोला!
वो एक अंगूठी थी! सोने की! रत्न जड़ा था उसमे! चमक रहा था हीरे के तरह! शायद हीरा ही हो!
"ये तो अंगूठी है!" बोली माला!
"हाँ, इसके लिए बनवायी है!" वो बोला!
"गंगा?" बोली माला!
आँखें तरेड़े! आँखें दिखाए उस माला को!
"तेरे लिए बनी है तो लेती क्यों नहीं गंगा तू?" बोली माला!
"इसे पता नहीं क्या डर है!" बोला वो!
"ले ले न?" बोली माला!
नहीं! नहीं ली उसने! हीरे से ज़्यादा मोल हया का!
"मैंने कोई जंतर नहीं चलाया है इस पर गंगा!" बोला वो!
हंस पड़ी! लेकिन होंठ नहीं खुले!
"ठीक है, तेरी मर्ज़ी!" बोला वो!
और रख ली वो अंगूठी जेब में दुबारा!
"गंगा! तो माह में ब्याह कर दूंगा बहन का अपनी! फिर तेरा हाथ मांगने आऊंगा घर! अपनी माँ के संग!" बोला वो!
"ये हुई न बात!" बोली माला!
"हाँ माला, इस से दूर नहीं रहा जाता मुझे अब!" बोला वो!
"रहा तो इस से भी नहीं जाता! दिन भर बिस्तर में लेट, एड़ियां रगड़ती है एक दूसरे से!!" बोल गयी माला!
"सच में गंगा?" पूछा उसने!
"बोल न?" बोली माला!
"बोल न गंगा? सच में?" पूछा उसने!
"अरे जो सच है बोल न?" बोली माला!
लेकिन! गंगा तो खजूर की काठ थी! पानी को सोख तो लेगी, लेकिन टूटेगी नहीं!
"चल! तुझे और तंग नहीं करता मैं! मैं जानता हूँ तेरे अंदर की बात!" बोला वो!
गंगा चुप!! जानते हो तो पूछते क्यों हो!!
"चल, अब चलूँगा, अवेर न हो जाए, मुझे जाना है कहीं!" बोला वो!
पलटा! घोड़े तक गया! जीन ठीक की! अपनी जूतियां निकाल कर, धूल झाडी, और बैठ गया फिर!
"अच्छा गंगा! चलता हूँ! कल फिर मिलूंगा! " बोला वो!
घोड़ा हिनहिनाया! अगले दोनों पाँव उठाये! तैयार था घोड़ा!
"अच्छा, चलता हूँ अब!" बोला वो!
एड़ लगाई! और चल दिया! घोड़ा, करने लगा हवा से बात!
वे दोनों, देखती रहीं उसको जाते देख! और चला गया वो!
"तू नहीं मानी न?" बोली माला!
"कैसे?" पूछा,
"नहीं की न बात?" बोली वो!
"मैं क्या करूँ? मुंह नहीं खुलता" बोली वो!
"उसको देख? कितना तरसता है वो!" बोली माला!
"अब मैं क्या करूँ? बता?" बोली गंगा!
"कुछ मत कर तू!" बोली गुस्से से माला!
"माला?" बोली गंगा!
"बात मर कर मेरे से!" बोली माला, घड़ा उठाते हुए!
"सुन तो?" बोली वो!
"मैं नहीं सुन रही!" बोली माला!
"गुस्सा क्यों होती है?" पूछा गंगा ने!
"मैं हूँ गुस्सा!" बोली माला!
अब गंगा भी चुप!
"गंगा?" बोली माला!
"हाँ?" बोली गंगा!
"सुन" बोली वो!
"हाँ?" गंगा बोली!
"इतना प्रेम कोई मुझे करता न, तो मैं तो चली जाती उसी के साथ!" अपनी भौंहें उचकाते हुए बोली माला!
"तो बता मैं क्या करूँ?" पूछा गंगा ने!
"उसी बातों का जवाब नहीं दे सकती तू?" बोली माला!
"कोशिश करती हूँ, लेकिन मुंह नहीं खुलता!" बोली गंगा!
"अब तू ही आना उस से मिलने, मैं नहीं आउंगी तेरे संग!" बोली माला!
"माला??" बोली गंगा!
"और क्या, मुझे नहीं अच्छा लगता ऐसा!" बोली वो!
"अच्छा ठीक है, दूँगी जवाब, आएगी न मेरे संग?" पूछा गंगा ने! मनाते हुए उसे!
"मेरो कसम?" पूछा माला ने!
"हाँ, तेरी कसम!" बोली गंगा!
"रख मेरे सर पर हाथ?" बोली माला!
हाथ रख दिया गंगा ने!
ले ली कसम! उस माला की,
जो उसके लिए बहन से भी अधिक थी!
"अब चल, घर चल!" बोली माला,
घड़े उठाये, और चल दीं घर!
घर पहुंची! और गंगा, फिर से भंवर की बीच गोते खाए!
कैसे करेगी वो बात?
कहाँ से लाएगी हिम्मत?
कैसे हटाएगी चिलमन-ए-हया?
कैसे होगा ये सब?
खुद ही के सवाल!
और खुद ही के जवाब!
इसे, प्रेम-भंवर में फंसना कहते हैं! फंस गयी थी वो!
न निकले बने, न डूबे बने!
रात हुई! और नींद नदारद! अक्स सामने! होंठों के पपोटों में, रक्त आ जमे! जीभ से साफ़ करे! तो जीभ सूखी! करवट बदले, तो बदन काटे! फिर बदले, तो फिर काटे!
उठ जाए! कहीं और बैठे!
खड़ी हो, तो खड़ा न हुआ जाए! बैठे, तो बैठा न जाए!
ये कैसी लगी, लगी दिल को!!
रात गहराई! खिड़की से बाहर झाँका! अँधेरा पसरा था! जमना, चैन से सोयी थी! जमना के वस्त्र ठीक किये उसने! और फिर आ बैठी एक कुर्सी पर! बाहर झांके! भाटा! पसीने आएं! पसीने पोंछे तो अपने बदन में ही स्पर्श महसूस हो किसी का! ये कैसी लगी!
कैसे करके रात काटी!
सुबह हुई!
सुबह भी, बदन सुस्ताया जैसा! अलसाया जैसा!
सुबह से ही, अक्स सामने आये!
वो आवाज़! वो ताव! वो पानी माँगना!
वो अपने मुंह से 'गंगा' नाम लेना!!
कोई सुध-बुध नहीं!
कोई होश नहीं!
खुद, खुद ही नहीं!
और फिर बीती दोपहर...........
क्रमशः

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Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:12

दोपहर बीती तो पाँव जैसे खुद-बा-खुद चलने को तैयार! दौड़ने को तैयार! उठाया घड़ा, बचा हुआ पानी वहीँ दूसरे घड़े में गिरा और दी आवाज़ माला को! माला भी तैयार! अब दोनों ही दौड़ पड़ीं! क्या पता आ ही रहा हो, या पहुँच ही गया हो! नज़रें सामने रास्ते पर ही थीं! पलकें भी नहीं मार रही थी गंगा! बस, क़दम बढ़े जा रहे थे आगे, अपने आप! जैसे पांवों में घिरनी लग गयी हो! पहुँच गयीं कुँए तक! आज दो महिलायें और थीं वहां! वे भी पानी भर रही थीं, माला की बातें हुईं उनसे! और फिर वे चली गयीं! उनका वहाँ रुकना ठीक नहीं था, गाँव भर में, गंगा के पहुँचने से पहले ही ढिंढोरा पिट चुका होता! महिलायें उसके घर का रुख़ किये, आ धमकतीं उसके घर में! कौन है? कहाँ से आया है? क्या नाम है? क्या पेशा है? कब मिला और कैसे मिला, आदि आदि सवाल! गाँव भर में खबर फ़ैल जाती और जवाब देना भारी पड़ जाता! अच्छा था चली गयीं थीं वो! और एक तो थी भी ऐसी ही चुगलखोर! चलो चली गयीं, बात टली! माला ने पानी निकालना शुरू किया, और भरना शुरू की वो नांद! ताकि घोड़ा पानी पी सके!
लेकिन, देर हुई काफी उस दिन! वो घुड़सवार आया नहीं! और धूप जान लिए जा रही थी! खाल उधेड़ने को तैयार! इंतज़ार! अब इंतज़ार करना था गंगा को! वो चली वहां से, और रास्ता पार कर, जा पहुंची उस बूढ़े अंधे कुँए के पास! जा बैठी वहीँ! पीठ कुँए की तरफ किया, और आँखें, दूर रास्ते पर जमाये! कोई आधा घंटा बीत गया! और कोई नहीं आया! फिर पौना घंटा! और फिर कोई दिखाई पड़ा! कोई आ रहा था घोड़े पर! कोई घुड़सवार! तेज तेज दौड़ते हुए! गंगा हुई चौकस! उठ गयी! और टिका दीं आँखें! जब आया तो वो, वो नहीं था! वो भूदेव नहीं था! वो कोई और था! कद-काठी तो वैसी ही थी, लेकिन वो भूदेव नहीं था! वो घुड़सवार रुका कुँए पर, उतरा और चला कुँए की तरफ, उसका घोड़ा, चला नांद की तरफ! पानी भरा था, तो लगा पानी पीने!
"पानी" बोला वो,
तो माला ने घड़ा किया उसकी तरफ, उसने झुकते हुए पानी पिया! काफी पानी!
"सेठ मंगू का घर कहाँ हैं?" पूछा उसने,
"अंदर जाते ही, बाएं, बाएं में एक चौड़े फाटक वाला घर है, वही है सेठ मंगू का घर" बोली माला!
"अच्छा! तू इसी गाँव की है?" पूछा उसने!
"हाँ" बोली माला,
"पहले भी खबर की थी इसको, आया नहीं ये सेठ मंगू" बोला वो, चाबुक लहराते हुए! घोड़े पर, नज़र डालते हुए!
"हाँ दो आये थे उसको पूछने" बोली माया,
"अच्छा, भूदेव आया होगा" बोला वो!
"हाँ, भूदेव" बोली माला,
"हाँ, ये क्षेत्र उसी का है वैसे, मुझे आना पड़ा आज" वो बोला,
"अच्छा, और भूदेव कहाँ है?" पूछा माला ने!
वो, थोड़ा सा सकपकाया!
"वो तो परसों से शहर से दूर गया है" बोला वो!
तब तक, घोड़े ने पानी पी लिया था, अब लगाम पकड़ी उसकी, माला को देखा, घोड़े पर चढ़ा, और चल पड़ा गाँव की ओर!
अब भागी माला अंधे कुँए पर बैठी गंगा के पास!
"गंगा? ओ गंगा?" बोली वो!
"हाँ?" बोली गंगा!
"वो नहीं आएगा आज" बोली माला!
"तुझे कैसे पता?" पूछा गंगा ने, उठते हुए!
"वो आया था न अभी, उसने बताया!" बोली वो!
"तूने उस से पूछ लिया?" पूछा गंगा ने!
"तो तेरी मुश्किल हल नहीं कर दी?" बोला माला! तुनक कर!
"कब आना है उन्हें फिर?" पूछा गंगा ने!
मुस्कुरा पड़ी! माला तंज भरे लहजे में मुस्कुरा पड़ी!
"उन्हें! गंगा!! उन्हें!!" बोली माला!
"बता मुझे पहले?" पूछा गंगा ने!
"वो बता रहा था की परसों से गया है शहर से दूर" बोली वो!
"परसों? लेकिन कल तो...??" बोली गंगा!
"अरे हाँ! कल तो आया था वो! हो सकता है, यहीं आया हो सीधा! और यहीं से सीधा गया हो, कह तो रहा था, कि दूर जाना है उसे?" बोली माला!
न समझ सकी गंगा ये गड्ड-मड्ड मामला! वो आज नहीं आएगा, बस, ये जान सकी, अब कब आएगा, पता नहीं!
"चल, पानी भर और चल" बोली माला!
गंगा चल पड़ी!
पांवों में लगी घिरनी, टूट गयी थी अब!
पांवों जैसे बेड़ियां हों, ऐसे चली!
पानी भरा, उठाया और चली वापिस! पीछे मुड़के देखा, कोई नहीं था! हाँ, सामने से वही घुड़सवार आ रहा था!
गुजरा उनके पास से, और चला गया, उन्हें ही देखता हुआ!
"इसी से पूछा था मैंने" बोली माला!
"अच्छा" गंगा बोली!
"ये भी यहीं काम करता है, भूदेव के संग ही!" बोली माला!
"अच्छा" गंगा बोली,
आ गयीं घर अपने! पानी रखा, बेमन से गंगा ने! और चली कमरे की तरफ! जा लेटी बिस्तर पर!
"क्यों नहीं आये?" अपने आप से पूछा!
उत्तर था नहीं!
"बता जाते?" सोचा उनसे!
हाँ, कम से कम बता तो सकता ही था वो! लेकिन कारिंदा है अमीन के दफ़्तर में, क्या करे, चला गया होगा कहीं! भेज दिया होगा उसे!
वो रात! बड़ी ही नीरस सी कटी! मन दुविधा में था! कम से कम खबर होती तो दिल को ढांढस बंधवाया जा सकता था, अब तो कोई तक़रीर सुन ही नहीं रहा! बेकाबू है! बार बार सवाल करता है! क्या समझाये गंगा उसे! क्या जवाब दे! रात भर, दिल उलझा रहा! उलझा इसी जाल में!
बड़ी मुश्किल से सुबह हुई!
सुबह हुई तो तो बदन कसमसाए! रात की थकावट! आँखें लाल और आँखों की पलकें जैसे सूज चली हों! आंसुओं की तरावट मिल जाती तो....शायद ऐसा न होता!
दोपहर से पहले,
माला आई कमरे में!
अपने केश संवार रही थी गंगा! केश, काफी सघन और लम्बे थे गंगा के! अब माला ने मदद की, उसके केश संवारने में!
"लगता है सारी रात नींद नहीं आई गंगा!" बोली माला!
कुछ न बोली!
बोलती तो झूठ ही होता!
आँखें तो सब बता रही थीं! कैसे बोले झूठ!
"आज कह देना उस से!" बोली माला!
"क्या?" पूछा उसने!
"कि बता के तो जाते?" बोली माला!
कुछ न बोली गंगा!!
"कैसे तड़प रही है तू गंगा!!" बोली माला!
कुछ न बोली!
आँखें, नीचे कर लीं!
कहीं दर्पण ही कुछ न कह दे!!
केश संवर गए!
"चल अब!" बोली माला!
"चल" बोली गंगा!
घड़े उठाये, और चल दीं बाहर! आयीं रास्ते पर!
"आज कह देना साफ़ साफ़!" बोली माला!
"अगर न आये तो?" बोली गंगा!
"तब तो तू मर ही जायेगी!" हंस के बोली माला!
"चुप!" बोली गंगा!
हंस भी पड़ी!
अपनी मनोदशा से कौन अनजान रहता है भला!
जा पहुंची कुँए! गंगा ने घड़ा रखा वहीँ और चल पड़ी उस अंधे कुँए के पास!
"कहाँ चली?" बोली माला!
"आ जाउंगी" बोली गंगा!
"यही रह न?" माला चिल्ला के बोली!
"आ जाउंगी" बोली गंगा!
और जा बैठी उस कुँए के पास!
बिछा दीं आँखें! फूल सजा दिए उमंगों के रास्ते में!
प्रेम की शीतलता से उस भाटे से भी निजात मिलने लगी!
और तभी!
तभी कुछ दिखा!
आ रहा था कोई!
तेज! घोड़ा दौड़ाते हुए! उसी तरफ! भागता हुआ! मिट्टी उड़ाता हुआ!

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