वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure story

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
novel
Silver Member
Posts: 405
Joined: 16 Aug 2015 14:42

Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:14

गंगा को अब गुस्सा आया! वो फूल उठाये, और फेंक दिए बाहर खिड़की से! बस, अब बहुत हुआ इस तेजराज का नाटक! बैठ गयी गुस्से में, सोचते हुए उस तेजराज के बारे में, माला भी आ बैठी उसके संग, माला कुछ बोल न सकी क्योंकि गंगा गुस्से में थी!
"भूदेव ने तो कहा था कि इंतज़ाम हो जाएगा?" बोली माला,
गंगा कुछ न बोली, बस बाहर झांकती रही,
"गंगा?" बोली माला,
फिर कुछ न बोली,
माला चुप लगा गयी, गंगा से मज़ाक करना तो सही था, लेकिन अगर गुस्से में हो, तो बात अलग ही होती, गंगा उसको ही डाँट देती,
"गंगा? पिता जी को बता दे सब" बोली माला,
गंगा ने गुस्से से देखा उसे, सिहर गयी भय से माला,
खड़ी हुई, अपना दुपट्टा बदला,
"आ माला मेरे साथ" बोली गंगा,
"कहाँ?" पूछा माला ने!
"तुझे चलना है या नहीं" पूछा गंगा ने,
अब खड़ी हो गयी माला,
"चल गंगा" बोली वो,
और धड़धड़ाते हुए, चली गयीं बाहर, किसी ने रोका भी नहीं!
"गंगा?" बोली माला,
"हुं?" बोली गंगा!
"कहाँ जा रही है तू?" पूछा माला ने,
"उस अंधे कुँए के पास" बोली गंगा!
माला ने सुना, और वहीं ठहर गयी, गंगा भी रुकी, माला को देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं उसने, और बढ़ गयी आगे, आज तो कुछ ठान ही रखा था गंगा ने! जब नहीं रुकी गंगा, तो माला भी भाग आई उसके पास,
"गंगा?" बोली माला,
गंगा कुछ न बोली!
"गंगा, एक बार पिता जी को बता देती तो अच्छा रहता" बोली माला,
कुछ नहीं बोली वो! चलती रही गंगा! गंगा आगे आगे, माला पीछे पीछे! और आ गया वो अँधा कुआँ! माला वहीँ रुक गयी! और गंगा, उस कुँए को निहारते हुए, चली उस तरफ ही! जैसे ही पहुंची, फूलों की बरसात सी होने लगी! कुछ सर पर गिरे, तो झाड़ दिए अपने सर से!
"सामने आओ मेरे?" बोली वो!
और आया वो तेजराज सामने!
कुँए के पास खड़ा हुआ, हतप्रभ सा, चकित सा!
"तू आ गयी गंगा! तू आ गयी!" बोला वो, मुस्कुरा कर,
गंगा गुस्से में देखती रही उसे!
"तू गुस्सा है गंगा?" बोला वो!
कुछ न बोली गंगा! बस फुनकती रही!
"गंगा! गुस्सा न हो, बहुत प्रेम करता हूँ तुझसे, सच्ची!" वो बोला,
सच्ची?
हाँ! बोला था भूदेव ने एक दो बार, यही शब्द, सच्ची! अब सर घूमा उसका! तो क्या?? तो क्या??
"हाँ! वो मैं ही था गंगा!" बोला वो!
रूप धर के आया था? भूदेव का? ये तेजराज?
"हाँ, वो श्रृंगारदानी, तेरे लिए लाया था न मैं, तूने ली भी थी, तेरे घर की टांडी पर रखी है जो, वो, वो मैंने ही दी थी गंगा! मैं बहुत प्रेम करता हूँ तुझसे गंगा! बहुत प्रेम!" बोला तेजराज!
अब जैसे चक्कर आये गंगा को! कहाँ फंसी गंगा!
"गंगा, मैं तो तुझे बरसों से प्रेम करता हूँ, बरसों से, जब से तू यहां आ कर बैठती है, तब से, मैं, इस, इस कुँए में रहता हूँ, अँधा कुआँ, यही है वो अँधा कुआँ, बरसों से पड़ा रहा, छिपा रहा, बाहर नहीं निकला, लेकिन तेरा रूप देख, मैं आया बाहर, तुझे, देखा करता था मैं, मैं तो, बहुत प्रेम करता हूँ गंगा तुझे, इसीलिए, उस उदयचंद को बचाया, कि तू दुखी न हो, तेरे पिता को बचाया मैंने, गंगा! मेरा प्रेम स्वीकार ले गंगा!" बोला वो, थोड़ा पास आकर, आँखों में, प्रेम परोसे!
गंगा पीछे हटी!
वो आगे बढ़ा!
"गंगा! जानता हूँ, मैं प्रेत हूँ! जानता हूँ! मुझे मार डाला गया था गंगा, मैं खूब लड़ा, खूब, पार नहीं पड़ी मेरी, मुझे डाल दिया गया इसमें, गंगा, तभी से यहां हूँ मैं, अकेला, कोई नहीं है मेरा, तुझसे प्रीत हुई मेरी, गंगा, स्वीकार ले मेरा प्रेम!" गिड़गिड़ा सा गया वो!
गंगा की बोलती बंद थी! होंठ काँप रहे थे, कब गिर जाए नीचे, पता नहीं था!
"जानता हूँ, तेरे जी में कौन है, वो भूदेव, है न, अब कभी नहीं आएगा वो यहां, कभी नहीं गंगा! मेरे प्रेम जो आड़े आएगा, उसे नहीं छोड़ने वाला मैं, और गंगा, वो क्या देगा तुझे, क्या? देख, ये देख!" बोला वो, और हवा में दोनों हाथ मार कर, फेंकता रहा वहाँ आभूषण ही आभूषण! सोने के आभूषण!
गंगा के कान फ़टे!
प्राण हलक़ में आये,
आँखों में आंसू छलके, उस, उस भूदेव के लिए, जो अब नहीं आना था कभी....
गंगा, भाग ली वहाँ से! आँखों से आंसू टपक रहे थे! साँसें तक जातीं कब उसकी, पता नहीं था, भाग रही थी, माला पीछे पीछे आवाज़ दे रही थी, और गंगा, घर की तरफ, भागे जा रही थी!
एक और आवाज़ थी पीछे, जो दुःख भरे लहज़े में गूँज रही थी, उस तेजराज की, 'गंगा...........गंगा..........मत जा.......मत जा गंगा...........मत जा...........'
गंगा घर पहुंची, होशोहवास नहीं थे उसके उसके पास, घर में घुसी, तो कमरे में आई, कमरे में आई तो बिस्तर पर चढ़ी, और टांडी से वो श्रृंगारदानी उठायी, और फेंक दी बाहर वो श्रृंगारदानी, जैसे ही गिरी नीचे ज़मीन पर, आग पकड़ ली उसने, और हो गयी राख!
अब गंगा, गंगा न रही!
गंगा का चुलबुलापन, सब छू हो गया,
वो अब गंभीर, शून्य में ताकने वाली बन गयी,
माला रोज जाती कुँए पर, इंतज़ार करती, उस भूदेव का, और वो भूदेव, नहीं आया उसके बाद कभी, कहाँ था, पता नहीं, कहाँ गया, पता नहीं!
कोई बीस दिन बीते, गंगा की अब सभी को चिंता होती, माला ने सब बता दिया था उस भूदेव के बारे में, उस अंधे कुँए के प्रेत के बारे में उन्हें, वे तो भय से काँप गए थे, गंगा किसी से बात नहीं करती, किसी से भी, बस चुपचाप लेटी ही रहती, माँ-बाप ने इलाज करवाया गंगा का, गंगा पर कोई असर न होता, बड़े बड़े ओझा आये, सभी विफल, भोपा आये, अलख जगी, कुछ न हुआ!
लेकिन फूल! अनवरत उसके सिरहाने रखे होते सुबह! गंगा उठाकर फेंक देती सभी के सभी! गंगा बदल गयी थी, हंसी और मुस्कान, जैसे सब भूल गयी थी...
कोई महीना बीता, भूदेव, नहीं आया था उस दिन के बाद से,
एक रात,
गंगा सोयी हुई थी, थक-हारकर सो गयी थी खुद से लड़ते लड़ते! यादों से लड़ते लड़ते! उस अक्स से लड़ते लड़ते! रत आधी हुई होगी तब!
"गंगा?" आवाज़ आई उसे!
त्यौरियां में हरकत सी हुई उसके!
"गंगा?" कोई बोला,
आवाज़ फुसफुसाहट की थी!
"गंगा?" आवाज़ फिर से आई,
आँख खुल गयी उसकी!
कमरे में कोई नहीं था, बस डिबिया जली थी,
"गंगा?" आवाज़ आई फिर से!
गंगा ने खिड़की का पर्दा सरकाया, सामने देखा, कोई खड़ा था, लेकिन कौन? गौर से देखा, वो तेजराज था, जब गंगा ने उसको देखा, तो बैठ गया था नीचे, और बैठे बैठे ही, सरके आ रहा था उस खिड़की की तरफ!
आया खिड़की के पास,
आलती-पालती मार के बैठ गया था!
"गंगा?" बोला वो!
कुछ न बोली गंगा!
"मुझसे गुस्सा है? अब नहीं आती तू कुँए पर?" पूछा उसने,
गंगा चुप!
कुँए का तो औचित्य शेष था ही नहीं अब!
भूदेव का क्या हुआ, कहाँ गया, सोचा ही नहीं था गंगा ने!
सोचते ही, कलेजा मुंह को आता था!
"गंगा?" बोला वो फिर!
गंगा अपनी सोच से बाहर निकली तभी!
"मैं अकेला हूँ गंगा, तरस खा मुझ पर, गंगा, मेरी गंगा.." रोते रोते हाथ जोड़ते हुए बोला वो!
गंगा शांत!
न पड़ा था असर गंगा पर, उसके इस रोने का!
"अकेला, बहुत बरसों से अकेला हूँ मैं गंगा" फिर से गिड़गिड़ा के बोला वो,
गंगा ने पर्दा डाल दिया खिड़की पर, और बैठ गयी, एक कुर्सी पर,
खिड़की के बाहर से, आवाज़ें आती रहीं, बार बार, गंगा! गंगा!

novel
Silver Member
Posts: 405
Joined: 16 Aug 2015 14:42

Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:14

"गंगा?" वो फिर से बोला! खिड़की के बाहर से! गंगा ने जवाब नहीं दिया, बैठी रही कुर्सी पर वो आँखें बंद किये!
"गंगा? ऐसा न कर, तेरे हाथ जोड़ता हूँ मैं!" बोला वो!
न सुना, अनसुना किया!
"गंगा? एक बार, एक बार, एक बार देख!" बोला वो!
नहीं सुना!! नहीं देखा!
"गंगा? ऐसा मत कर, मत कर ऐसा!" बोला वो!
फिर नहीं सुना!
"गंगा! कुछ लाया हूँ तेरे लिए, देख, देख तो सही?" फिर से गिड़गिड़ाया वो!
नहीं सुना! जितना सुनती, भूदेव याद आता! न जाने कहाँ था वो! किस हाल में, न जाने, क्या हाल किया है इस तेजराज ने उसका!
"गंगा, देख न? देख तो सही, एक बार, बस एक बार!" बोला वो!
अब गंगा को गुस्सा आया! झिड़कने के लिए उठी वो उसे! खिड़की का पर्दा खोला उसने, तो खड़ा था सामने, सामने, हाथ जोड़े हुए, चुप सा!
नीचे झुका! एक पोटली थी,
"गंगा! ये ले, तेरे लिए! तेरे लिए लाया मैं, बहुत दूर से लाया हूँ! मेरी अपनी! तू ले ले, अब कोई नहीं है मेरा, कोई नहीं तेरे बिना गंगा! मैं अकेला हूँ, अकेला!" बोला वो!
गंगा, न झिड़क सकी उसे! याद आई भूदेव की! भूदेव भी तो लाता था! वही याद आया उसे! वो भी दूर से लाता था!
"गंगा? रख ले इसे! रख ले! मेरा कहा मान गंगा! रख ले!" बोला वो!
चुप गंगा! आँखों में आंसू लिए, चुप गंगा!
आवाज़ बंद हो गयी बाहर से! गंगा फिर से कुर्सी पर जा बैठी, न आई आवाज़ उसे अब कोई भी! बैठे बैठ घंटा गुजर गया, कोई आवाज़ नहीं आई! वो उठी, और पर्दा सरकाया, तो खिड़की के पास, एक पोटली रखी थी, बंधी हुई, वहाँ एक लकड़ी के पल्ले से! उसने पोटली उस लकड़ी के पल्ले से खोली, और अंदर ली, पोटली भारी थी, अब मुंह खोला उसका, तो उस पोटली में गहने थे, गहने, सोने के!
"गंगा! ये मेरी माँ के हैं! तेरे लिए लाया हूँ, रख ले, रख ले गंगा, रख ले, मेरे किसी काम के नहीं, किसी काम के नहीं ये गहने" आवाज़ आई फिर से उसी की, गंगा ने देखा, तो बैठा हुआ था, हाथ जोड़े, गंगा को देखते हुए,
"रख ले, एहसान कर दे गंगा, तेरे लिए लाया हूँ, मेरे किसी काम के नहीं, माँ के थे, मेरी बींदणी के लिए, वो जो बंगणी हैं न, वो दादी की है, रख ले, मेरा दिल रख ले इन्हे रख कर गंगा! रख ले!" फिर से गिड़गिड़ाया तेजराज!
वापिस लटका दी गंगा ने पोटली वहीँ! उसी पल्ले पर!
रो पड़ा! रो पड़ा तेजराज! बुरी तरह से!
सरका दिया पर्दा उसने! और बैठ गयी!
उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था! कुछ समझ नहीं!
"गंगा! गंगा!" बोला वो फिर, बाहर से!
शायद, उस रात रोता ही रहा वो! कुर्सी पर कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला उसे! सो गयी थी, सुबह जब पक्षी चहचहाए तो आँख खुली! पर्दा सरकाया, बाहर झाँका, कोई नहीं था, जा चुका था तेजराज!
उसी दिन, पिता जी गए बाहर, और गंगा ने मन बनाया कुँए पर जाने का, दिल तो फटता लेकिन न जाने क्यों मन में बहुत इच्छा थी जाने की! माला खुश थी, कम से कम, इस झंझावत से वो निकली तो सही! आयीं गाँव के बाहर, और देखा रास्ता! रास्ता देखा, तो हूक उठी दिल में! गंगा, खड़ी हो गयी वहीँ! आँखों में सैलाब उमड़ने लगा! आँखें डबडबा गयीं फौरन ही! भांप गयी फ़ौरन ही माला!
"चल गंगा?" बोली माला,
पाँव जम गए थे उसके!
"गंगा? चल?" बोली माला!
कैसे चले! गंगा तो थम गयी थी! प्रवाह रुक गया था!
"आ, चल" बोली माला,
चली गंगा, धीरे धीरे!
और चली आई कुँए तक, बाट जोहती आँखें, नहीं मानीं! बिछा दीं नज़रें! सामने, उस धूल भरे रास्ते में! रास्ता बियाबान! सुनसान! सन्नाटे का आलम! कोई नहीं आ रहा था, और आना भी नही था! सहसा, नज़र पड़ी उस कुँए पर! चल पड़ी उधर ही! मना किया माला ने, लेकिन नहीं मानी गंगा! माला अब चिंतित! कहीं अनहोनी न हो जाए! क्या करे? किसको बुलाये? दुविधा में माला! न गंगा के पास जाते बने, और न वापिस गाँव!
और उधर,
गंगा जा पहुंची उस कुँए पर!
आँखों में क्रोध था! आँखें चौडीं थीं और नथुने फड़क रहे थे! कोमलांगी गंगा, पाषाणंगी सी प्रतीत हो रही था! और तभी, तभी फूल बरसे! गुड़हल के फूल! ताज़े! ओंस लगे फूल!
"सामने आ?" चिल्लाई गंगा!
आ गया सामने!
भीरु सा खड़ा था कुँए के पास!
बस कोई चार फ़ीट दूर!
"भूदेव कहाँ हैं?" पूछा उसने!
तेजराज चौंका!
"गंगा?" बोला वो!
"मर गयी गंगा!" बोली वो!
"ऐसा न बोल गंगा! ऐसा न बोल, मर तो मैं गया हूँ, मैं, देख, मैं मर गया हूँ, ऐसा न बोल, जी दुखता है मेरा, ऐसा न बोल, ऐसे बोल कभी न बोलना, तुझे कोई नहीं मार सकता, तू तो गंगा है! मेरी गंगा! ऐसा न बोल, न बोल गंगा!" दोनों हाथ हिला के बोला तेजराज!
"कहाँ हैं भूदेव?" पूछा गंगा ने!
न बोला कुछ!
खड़ा रहा भीरु सा!
"बता?" बोली गंगा!
नहीं बोला कुछ!
"क्या किया तूने उनके साथ? बता?" पूछा गंगा ने!
नहीं बोला कुछ भी!
खड़ा रहा, चुपचाप, नज़रें नीची किये बस!
"तू, प्रेम करता है न मुझसे?" पूछा गंगा ने!
"हां!! हाँ! गंगा! बहुत बहुत प्रेम करता हूँ, बहुत!" बोला वो!
"क्या यही मायने हैं प्रेम के?" पूछा गंगा ने!
चुप!
सांप सा सूंघा उसे!
"बता?? क्या यही मायने हैं?" पूछा गंगा ने!
"मैं नहीं समझा" बोला वो!
"नहीं समझा या समझना नहीं चाहता?" बोली गंगा!
"नहीं समझा, माई सौगंध" सरपर हाथ रखे हुए बोला वो!
"तू समझ भी नहीं सकता!" बोली गंगा!
डर सा गया था वो! सच में! डर सा गया था!
"भूदेव कहाँ हैं?" पूछा,
"नहीं पता" बोला वो,
"तुझे नहीं पता?" बोली वो,
"हाँ, नहीं पता" बोला वो!
"कहीं तूने....?" वो बोली, और इस से पहले पूरा करती, वो बोल पड़ा!
"नहीं! नहीं गंगा! नहीं! ऐसा न सोच गंगा!" बोला वो!
बैठ गया था, जैसे क्षमा याचना मांग रहा हो!
"तो कहाँ हैं?" पूछा फिर से!
"नहीं पता!" वो बोला,
फिर गंगा ने घूरा उसे!
आँखें नीची किये हुए, बैठा रहा!
"गंगा?" बोला वो, थोड़ी देर बाद,
गंगा ने देखा उसे!
"ये!" बोला, पोटली पीठ में से निकालते हुए, खोंस रखी थी उसने!
आगे कर दी पोटली उसने!
"ये मेरी दादी और माँ के हैं, रख ले गंगा!" बोला वो!
गंगा गुस्से में!!
"नहीं!" बोली वो!
"रख ले न गंगा?" बोला वो!
"नहीं" बोली गंगा!
"कोई ले जाएगा! ले, रख ले!" बोला वो!
"ले जाएगा तो ले जाने दे!" बोली गंगा!
खड़ा हुआ! पोटली लिए हुए!
"गंगा, तभी मेरा क़त्ल किया गया था" हल्के से बोला,
अब गंगा ने देखा उसे!
आँखें नीची किये हुए, खड़ा था वो!
गंगा आगे गयी, बिना डर के, उसके पास!

novel
Silver Member
Posts: 405
Joined: 16 Aug 2015 14:42

Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:14

गंगा आगे बढ़ी, उस तेजराज के पास, जिसने अभी कहा था कि उसका क़त्ल हुआ था उन्ही ज़ेवरों के कारण, तेजराज चुप खड़ा था, चुप, डरपोक जैसा, वो डरता था उस गंगा से! गयी उसके पास तो वो पीछे हटा, वो और आगे गयी तो और पीछे हटा!
"रुक जा गंगा! रुक जा!" बोला वो!
गंगा न समझ सकी कुछ! क्यों हट रहा था पीछे वो?
"रुक जा गंगा" बोला वो, हाथ आगे करके,
गंगा एक क़दम आगे बढ़ी, तो वो झट से कुँए की दूसरी ओर चला गया! वहीँ खड़ा हो गया, आँखें नीची किये और वो पोटली लिए!
"गंगा, बताता हूँ तुझे" बोला वो,
गंगा वहीँ खड़ी रही! सुन रही थी उसको! अब अपने गाँव का नाम बताया उसने गंगा को, वो गाँव दूर था वहां से, कोई बीस किलोमीटर, वहीँ का रहने वाला था वो, वो एक सैनिक था, सेना में था, तेजराज नाम के अनुसार बहुत कुशल तलवारबाज था, शस्त्र-विद्या में निपुण था! घर में एक बड़ा भाई, जो अपंग था, एक छोटी बहन, जो अनब्याही थी अभी, और माँ थी, पिता काफी समय पहले गुजर चुके थे, सारी गुजर-बसर का ज़िम्मा अब इसी तेजराज पर था, बड़ा भी अपंग था, एक हाथ और एक पाँव, नहीं काम करते थे उसके, चलता-फिरता भी मुश्किल से था, भाई का अच्छा ख़याल रखता था तेजराज, बहन की शादी के लिए, लगा हुआ था अपनी माँ के संग, और इसी तरह एक रिश्ता मिला, बात बन गयी थी, बहन का ब्याह कर दिया था तेजराज ने, बहुत खुश था वो, चूंकि माँ खुश थी, सबसे बड़ी ज़िम्मेवारी निभा दी थी उसने! समय बीता तो माँ ने उसकी शादी की भी बात की, उसकी शादी हो जाए, तो सभी को सुख मिले, माँ भी वृद्ध थी, अब हाथ-पाँव नहीं चलते थे, ऊपर से वो अपंग और लाचार भाई, तेजराज ने कह दिया था कि माँ जैसा चाहे, वैसा उसको मंजूर है, और इस तरह से और समय बीता, एक रिश्ता भी मिला, दो माह के बाद वापिस घर लौट रहा था वो, घर आया, तो जो पूँजी लाया था कमा के, रख दी माँ के हाथों में! माँ ने रिश्ता बताया उसको, हाँ कर दी उसने, रिश्ता तय हो गया फिर, और ब्याह होने में कुछ ही दिन शेष थे, घर में खुशियों का माहौल था, अपंग भाई भी खुश था! लेकिन खुशियों को लगी नज़र! शादी का माहौल था, और घर में डाका पड़ गया! बहुत बहादुरी से लड़ा तेजराज, और तभी उसकी माँ ने दी उसे वो पोटली, जिसमे उसकी दादी और उसकी माँ के ज़ेवर थे, ये उसकी ब्याहता के लिए थे, किसी के हाथ न लगें इसीलिए उनको सुरक्षित रखना ज़रूर था, रात के अँधेरे में, वो तेजराज, भाग चला, चिंता तो थी माँ की और भाई की उसे, लेकिन डकैतों को तो माल चाहिए था, इसीलिए भाग चले उसके पीछे!
"गंगा! मैं भागा, उस समय तेरा गाँव बसा न था, मैं बीहड़ों को पार करता भागता रहा अपने घोड़े पर, चांदनी खिली हुई थी उस रात, गंगा, आठ-दस आदमी लगे थे मेरे पीछे, अचानक मुझे ये कुआँ दिखा, मैंने वो पोटली यहां रख दी, और भाग चला, वो, वो जो दीवार है न गंगा? वहाँ, तब ये कोठरी थी, चौकसी की कोठरी, मैं जा छिपा उसमे, लेकिन ढूंढ लिया उन्होंने मुझे, मैं बहुत लड़ा, घायल भी हुआ, लेकिन बताया नहीं उन ज़ेवरों के बारे में, आखिर गंगा, मैं टूट गया, मेरा सीधा हाथ कट के गिर गया, और अगले ही वार से, मेरा सर, धड़ से अलग हो गया, गंगा..." बोला वो!
और रो पड़ा, रोते रोते, बैठ गया नीचे!
"मैं छूट नहीं सका गंगा, माँ की याद आई, बड़े भाई की याद आई, मैं गया घर, तभी की तभी, माँ नहीं मिली जीवित, और न मेरा बड़ा भाई भी, मैं तड़प कर रह गया, और फिर इस, इस कुँए में वास किया, कि कभी बाहर नहीं आऊंगा, तंग नहीं करूँगा किसी को भी, हमेशा, यहीं पड़ा रहूंगा मैं, मैं सौइयों बरस यहीं पड़ा रहा गंगा, चपचाप, अलग, अकेला..." बोला वो,
गंगा सुन रही थी उसकी कहानी, एक एक शब्द, बड़े गौर से,
"गंगा, तू यहाँ आकर बैठा करती थी, जब पानी लेने आती थी, मैं तुझे गुनगुनाते सुनता, लेकिन हिम्मत नहीं कर सका तुझे देखने की, बरस गुजरे, और एक दिन, मैंने तुझे देखा, जब देखा, तो तुझसे लग्न हो चली, प्रीत जग गयी मन में, जी लग गया तुझसे, लेकिन फिर भी तुझे कभी नहीं बताया, मैं तुझे अपना ही मानने लगा गंगा, तुझे आते जाते देखता, रुझे हँसते देखता तो मैं खुश होता, तेरा इंतज़ार करता, कि तू कब आएगी, तू आती, तो मैं तुझे देख झूम पड़ता गंगा! लेकिन कभी तुझसे नहीं कहा मैंने, जानता था, मैं प्रेत हूँ और तू ज़िंदा, मैं खूब समझाता अपने आपको, लेकिन प्रीत न मानी मेरी, फिर भी नहीं आया तेरे सामने....बस यही सोचता कि ये पोटली तुझे दे दूँ गंगा " बोला तेजराज,
"फिर क्यों आया मेरे सामने?" गंगा ने तपाक से पूछ लिया,
"नहीं आता गंगा मैं, नहीं आता" बोला वो,
"तो क्यों?" पूछा उसने,
"वो, वो भूदेव, वो आ गया था" बोला वो,
गंगा, भूदेव का नाम सुन, फिर से मुरझाने सी लगी, याद भारी होने लगी,
"गंगा, ये रख ले" बोला वो,
"नहीं" बोली गंगा,
"रख ले गंगा" बोला वो,
"नहीं" बोली वो,
"गुस्सा है मुझे?" पूछा उसने,
गंगा कुछ नहीं बोली उस से!
"बोल न गंगा?" बोला वो!
नहीं बोली!
बार बार यही कहता रहा कि पोटली रख ले गंगा!
और फिर गंगा पलटी, जैसे ही पलटी,
"गंगा??'' बोला वो,
नहीं रुकी,
"गंगा? रुक ज़रा" बोला वो,
रुकी तब,
"मानता हूँ, तेरा दिल दुखाया है मैंने, लेकिन, मेरा सोच, मेरे जी पर क्या गुजरी?" पूछा उसने!
गंगा ने देखा उसको, घूर कर,
और पलटी फिर,
"रुक?" बोला वो,
नहीं रुकी,
"रुक जा गंगा! गंगा?? गंगा?" बोलता रहा वो!
नहीं रुकी, सीधा कुँए पर गयी, चुपचाप,
"चल माला" बोली गंगा!
"चल" बोली माला,
और चल पड़ीं घर के लिए!
पीछे से, आवाज़ आती रही, गंगा! रुक जा! रुक जा गंगा!
आ गयी घर, घर अब काटने को लगे उसे, कहाँ फंसी थी वो! कैसा प्रेम! एक दैहिक प्रेमी, जिसका कोई अता-पता नहीं, एक अशरीरी प्रेमी, जो टूट कर प्रेम करता है उसे!
रात हुई,
और गंगा अपने से खूब लड़ने के बाद, सो गयी थी, लेकिन नींद में भी, उसको उसी भूदेव की बातें याद आती थीं! वो पल, वो बातें! सब!
"गंगा?" आवाज़ आई उसे!
गंगा की आँखें खुलीं!
"गंगा?" फिर से आवाज़ आई!
गंगा खड़ी हुई, आवाज़ खिड़की से आई थी!
पर्दा सरकाया तो सामने तेजराज था, मुस्कुराता हुआ! हाथ दोनों पीछे किये हुए!
"गंगा? बाहर आ?" बोला वो!
कुछ न बोली वो!
"आ न?" बोला वो!
गंगा कुछ न बोली अब भी!
"आ न गंगा?" बोला वो!
गंगा पर्दा डालने को ही थी कि,
"सुन? देख, मिठाई लाया हूँ तेरे लिए! बहुत दूर से! आ जा!" बोला वो!
गंगा चुप खड़ी रही!
"देख, ये देख?" बोला वो!
मिठाई थी उसके हाथों में! काफी सारी!
"आ जा, ले ले!" बोला वो!
अब गंगा पलट गयी, पर्दा डाल दिया उसने!
अब रोने की आवाज़ आई उसे!
उसने खिड़की और पर्दे के बीच की झिरी से बाहर झाँका,
नीचे बैठा, अपने घुटनों पर हाथ रखे, रो रहा था तेजराज, मिठाई, गोद में रखे!
"गंगा, तू कब समझेगी, कब समझेगी तू?" रोते हुए बोला,
चेहरा नीचे किये हुए!
"मैं अभागा हूँ गंगा, अभागा, अभागा हूँ मैं" बोला वो,
हिचकी सी ली,
"कोई नहीं मेरा, कोई नहीं, अकेला हूँ मैं, अकेला" बोला वो,
और खड़ा हुआ, मिठाई गिर गयी नीचे ज़मीन पर,
सर ऊपर किया उसने,
"गंगा? कब जानेगी तू?" बोला वो,
फिर हंसने लगा!
ज़ोर ज़ोर से!
"तेजराज, मर गया!! मर गया तेजराज!" हँसते हुए बोला!
"मरे हुए का क्या प्रेम! क्या मोल!" बोला वो,
और लौट पड़ा!
हँसता हुआ, रुखा,
पीछे देखा,
और फिर रो पड़ा!
"अभागा हूँ मैं, हाँ गंगा, तेरी गलती नहीं, मैं ही अभागा हूँ" वो बोला,
और चल पड़ा वापिस, वापिस, अपने कुँए की ओर!

Post Reply