वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure story

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
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Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:12

खड़ी हुई गंगा! दिल धड़का! आँखें हुईं चौड़ी! आ रहा था वो! वही था! वही, भूदेव! आया तो घोड़े की लगाम कसीं! अब गंगा चली कुँए के पास! आ गया वो वहां! गंगा, उसको देखे! कनखियों से! वो उतर रहा था घोड़े से! उतरा और घोड़े की लगाम पकड़, ले आया घोड़े को वहाँ! उसका मुंह खोला और नांद की तरफ छोड़ दिया! पूंछ घुमाते हुए, घोड़ा पानी पीने लगा!
"पानी!" बोला वो!
गंगा ने, घड़ा आगे किया, और उस भूदेव के हाथ में पानी डालने लगी! पानी पिया उसने, और फिर चेहरा धोया! फिर कपड़े से हाथ पोंछा अपना!
"कैसी है गंगा तू?" पूछा उसने!
"ठीक" बोली वो!
"शुक्र है! कम से कम आज बोली तो सही तू!" बोला भूदेव!
गर्मी थी वहाँ! वो जो पानी था पहले से ठहरा हुआ, गरम हो चुका था! बस भाप होने की देर थी!
"गंगा?" बोला वो!
"हाँ?" बोली वो!
"उधर आजा!" उसने इशारा किया, उस अंधे कुँए की तरफ!
नहीं चली! अकेले में नहीं जाना चाहती थी!
"डर नहीं गंगा! हाथ नहीं लगाउँगा तुझे, कभी भी, तेरी इजाज़त बग़ैर!" बोला वो!
अब कुछ हिम्मत बंधी गंगा की!
"नहीं लगाउँगा हाथ गंगा!" बोला वो! अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर!
हल्की सी हंस पड़ी गंगा! विश्वास हो चला था उसे, भले ही कुछ अंश! लेकिन ये अंश भी, बहुत था उस भूदेव के लिए!
"चल आ!" बोला वो!
और फिर भूदेव चला! और चली गंगा भी! और, वो माला! मंद मंद मुस्काये!
बैठ गया उस मुंडेर पर वो, उस पुराने कुँए की, अंधे कुँए की!
"आ, आजा, बैठ!" खिसकते हुए बोला वो!
नहीं बैठी! नहीं बैठी!! खड़ी रही!
"अच्छा, एक काम कर, तू बैठ जा, मैं खड़ा हो जाता हूँ, ले!" खड़ा होते हुए बोला वो!
नहीं बैठी!
"अब तो बैठ जा गंगा!" बोला भूदेव!
अब बैठ गयी! शर्माते हुए! अपने आप में ही सिकुड़ते हुए! नाक पर पसीना है, ये भी पता नहीं चला!!
"कल नहीं आ सका मैं! जाना पड़ा मुझे एक ज़रूरी काम से" बोला, गर्दन के पसीने पोंछते हुए वो!
गंगा चुप ही रही!
"तू आई होगी?" पूछा उसने!
सर हिलाकर, हाँ कही!
"मैं जानता हूँ! तू आई होगी! माफ़ कर दे! अब ऐसा नहीं होगा!" बोला वो!
माफ़ी मांग रहा था गंगा से!
माफ़ी शब्द सुन कर तो, और खिसक आई थी वो उसकी तरफ!!
"गंगा! तेरे बिना मन नहीं लगता! बस बहन के फेरे हो जाएँ, तो तेरे घर आऊँ मैं, ले जाऊं डोली तेरी!" बोला वो!
सिहर पड़ी! डोली सुन, सिहर पड़ी!
"सुन गंगा! मैं नहीं आ पाउँगा करीब महीना! मुझे दूर जाना है, किसी के संग, काम बहुत ज़रूरी है! इसीलिए, तुझसे मिलने आया मैं, कि तुझे बता दूँ!" बोला वो! उसके सर पर लटकती पेड़ की एक शाख को पकड़ कर!
एक महीना?
गंगा ने ऊपर देखा! आँखें उठायीं! और कह दिया अपना सारा हाल उन आँखों से!
"क्या करूँ गंगा! जाना पड़ेगा!" बोला वो!
अब गंगा की नज़रें फंस चुकी थीं उस से! उलझ गयी थीं!
"तेरी बहुत याद आएगी गंगा!" बोला वो!
आँखें नीची कीं उसने! गंगा ने!
"सुन गंगा?" बोला वो!
गंगा ने ऊपर देखा!
"ले!" बोला वो!
वही अंगूठी!
"रख ले मेरा मान गंगा! रख ले!" बोला वो!
हाथ आगे बढ़ाया गंगा ने! हाथ में रखी थी अंगूठी उस भूदेव के! जैसे ही उठाने के लिए उंगलियां लाईं नीचे, भूदेव ने मुट्ठी बंद कर ली! हाथ पीछे खींच लिया गंगा ने!
"बदल में क्या देगी गंगा?" बोला वो! हँसते हुए!
गंगा घबराई! दिल धड़का! क्या मांगेंगे बदल में?
"घबरा मत! मत घबरा गंगा!" बोला भूदेव!
गंगा बेचैन! क्या करे! पसीने छलकें! पेड़ में सी छनती धूप उसकी गर्दन पर पड़े! और पसीने, मोती सरीखे चमक पड़ें!
"अपना हाथ, मेरे हाथ पर रख देना गंगा! बस, काट लूँगा ये महीना इसी सहारे! तेरे बिना कहीं मर ही न जाऊं! कहीं लत के ही ना आऊँ!" बोला वो!
भूदेव! भोली गंगा को न उलझा संजीदा अल्फ़ाज़ों में! मत छल उसे इतना! नहीं जानती ये इसका मतलब! कहाँ देखी है इसने दुनिया? क्या जाने दुनियादारी? मत छल! ये तो बस, घर से कुआं और कुँए से घर!
"रखेगी न हाथ?" बोला वो!
और कर दिया हाथ आगे अपना! अंगूठी के साथ!
"ले गंगा!" बोला वो!
गंगा ने हाथ आगे नहीं बढ़ाया!
"ले गंगा?" बोला वो!
नहीं बढ़ाया!
नीचे बैठा अब वो!
"गंगा? ले!" बोला वो!
गंगा पीछे सरकी!
"ले ले गंगा? इतना मत तड़पाया कर!" बोला वो!
अब हाथ बढ़ाया आगे अपना उसने, और उठा ली अंगूठी! नहीं बंद किया हाथ इस बार भूदेव ने! लेकिन! अपना हाथ, वहीँ रखा! किसी उम्मीद में!
गंगा ने अंगूठी ले ली थी! हाथ में थी उसके! उलटे हाथ में! गंगा ने हाथ देखा भूदेव का! हाथ अभी भी खुला था! हाथ पर, लगाम के निशान भी छप गए थे! ऐसा काम था उस भूदेव का!
"गंगा?" बोला वो!
गंगा जमे! अंदर ही अंदर!
"गंगा?" बोला वो दुबारा!
नहीं रखा हाथ गंगा ने! उम्मीद, नाउम्मीद में बदली!
और जैसे ही, उस भूदेव ने, हाथ खींचना चाहा अपना, गंगा ने अपना हाथ रख दिया उसके हाथ पर! आँखें बंद हो गयीं दोनों की! स्पर्श से, भूदेव, बह चला उस प्रेम प्रवाह में! और गंगा! गंगा अपनी ही भंवर में तड़प उठी!! और तब, हाथ हटा लिया गंगा ने! नहीं तो, न जाने क्या हो जाता!
"बस गंगा! अब रह लूँगा मैं! गंगा! मेरी गंगा!" बोला धीरे से भूदेव!
खड़ा हुआ तब वो!
"तू परेशान नहीं होना! मैं आऊंगा! कोशिश करूँगा जल्दी आऊँ!" बोला वो!
गंगा, अभी तक अपना हाथ, अपने पीछे लिए खड़ी थी!
कैसे रख दिया उसने हाथ? कैसे? इसी उलझन में पड़ी थी!
"आ, आ गंगा! अब मैं जाऊँगा!" बोला वो!
गंगा बैठी रही!
"उठ गंगा?" बोला वो!
तो उठी वो!
"मुझे देख?" बोला वो!
देखा उसको!
"बहुत सुंदर है तू! बहुत सुंदर! मेरा प्रेम है तू गंगा! मेरा प्रेम!" बोला वो!
गंगा चुप!! अजीब से शब्द!
"मेरा प्रेम है न? बस मेरा?" बोला वो!
सर हिला दिया बस! हाँ में!
"मुंह से बोल न?" बोला वो!
"हाँ" बोली गंगा!
"नहीं सुन पाया!" बोला, अपना कान पास लाकर उसके!
"हाँ!" बोली वो!
"क्या?" पूछा उसने! जानबूझकर!
हंस पड़ी! इस बार होंठ खुले!
"हाँ!" अबकी तेज बोली!
"हाँ! हाँ! गंगा!! मेरी गंगा!" बोला वो!
गंगा मन ही मन मुस्काये!
"चल, अब चल उधर!" बोला वो!
और गंगा, चल पड़ी, उसके पीछे, वो भूदेव चल पड़ा!
आये कुँए तक!

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Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:12

"जा, पानी भर ले, मैं भी चलूँगा अब!" बोला वो और घोड़े की लगाम आदि कस लिए, जोड़ लिया घोड़ा अपना!
गंगा, उसी को देखे जा रही थी!
"माला?" बोला वो!
"महीने भर नहीं आ पाउँगा मैं" बोला वो!
"इतना लम्बा काम?" बोली माला!
"हाँ, दूर तलक जाना है इस बार" बोला वो!
"कितनी दूर?" पूछा माला ने!
"बहुत कान काटती है तू माला!" बोला वो!
"ये तो मर जायेगी एक महीने में!" हंसके के बोली माला!
"तू है न संग इसके!" बोला वो!
"हाँ, मैं तो हूँ!" बोली वो!
"तो फिर कैसी चिंता?" बोला वो!
"कोशिश करना, जल्दी आना! गंगा प्यासी रह जायेगी!" बोली वो! छेड़ते हुए उस गंगा को!
"गंगा कभी प्यासी नहीं रहेगी! ये मेरी गंगा है! प्यासा तो मैं रहता हूँ, इसके बिना!" बोला वो!
"अब एक महीने में तो सूखा मार जाएगा इसको!" बोली माला!
"नहीं, कुछ नहीं होगा! कोशिश करूँगा कि जल्दी आऊँ!" बोला वो!
बैठ गया था घोड़े पर! घुमा लिया था घोड़ा!
"अच्छा गंगा! अब चलूँगा मैं, तू आराम से जाना, आऊंगा मैं जल्दी ही!" बोला वो!
और चल पड़ा! पीछे देखते हुए! और गंगा, भी देखती रही उसको! जाते हुए! चला गया वो! फिर घोड़े ने गति पकड़ी, और कुछ ही पलों में ओझल हुआ नज़रों से!
"चल गंगा! अब तो महीने में ही आएगा वो!" बोली माला!
गंगा शांत खड़ी थी! अपने में ही खोयी हुई!
"गंगा?" बोली माला!
न सुना गंगा ने!
तब माला आई पास में! छुआ उसे! तो जैसे होश आया उसे!
"चला गया वो! कहाँ खोयी हुई है?" पूछा माला ने!
गंगा ने फिर से रास्ते को देखा!
"गया वो! अब चल, देर हो रही है!" बोली माला,
पानी भरा, और चल दीं वापिस घर की ओर!
घर पहुंचीं! तो सीधा अपने कमरे में! बैठ गयी! हाथ खोला, तो वही अंगूठी थी! अपनी अनामिका ऊँगली में पहनी, तो बड़ी थी, मध्यमा में आ गयी पूरी! पहन कर, हाथ आगे कर, निहारती रही उस अंगूठी को! तभी आहट हुई किसी के कदमों की, तो झट से निकाल ली, और रख दी चादर के नीचे! माँ थी! माँ आई, तो लेट गयी! माँ ने कुछ कपड़े उठाये और चली गयी बाहर!
लेटी ही रही गंगा! अब जान न थी बदन में! एक महीना कैसे कटेगा? कैसे? कब होगी मुलाक़ात? एक महीना तो बहुत बड़ा है!
कुछ बीत चले, कोई चार या पांच दिन! पानी लेने जाती थीं वो! और गंगा, उस अंधे कुँए के पास, बैठ जाया करती थी, देखा करती थी, कि कहीं आ ही न जाएँ वो! जो दिल पर गुजर रही थी, वो कोई कैसे जाने! ये तो वही जानता है जिस पर बीतती है! गंगा पर क्या बीत रही थी, ये माला भी न जानती थी! माला तो बस छेड़ा करती थी उसे! गंगा, बैठी हुई थी वहीं! सोच में डूबी! खाली आँखों से, खालीपन को झांकते हुए! खान, खाली ही तो थी वो! जान बची नहीं थी! इंतज़ार ने निचोड़ ही डाला था! न खाने में मन, न किसी से बात करने में! न सोना ही अच्छा लगे, न ही जागना! सब, बस खालीपन! किस बिरहा के रेगिस्तान में छोड़ा गया था वो उसे! अपनी परछाईं भी अपनी न लगे! न आगे कुछ, न पीछे कुछ! न दायें, न बाएं! बस खालीपन का रेगिस्तान और उसकी तपती रेत!
कुछ दिन और बीते! कोई दस दिन! पिता जी भी घर आ चुके थे! वो उदयचंद भी! पिताजी खूब सामान लाये थे बाहर से! सभी के लिए! लेकिन गंगा, गंगा के लिए सब फीका! मज़बूरी ये, कि अब दोहरी शख़्सियत जीनी पड़े! एक अंदर वाली और एक बाहर वाली! गंगा, हंसती तो फीका! बात करती, तो फीकी! बस, जी ही रही थी दोनों ही शख़्सियत!
एक दिन, उसी अंधे कुँए पर बैठी थी वो! घुटनों पर सर रखे! नज़र कभी उठाती, तो सामने देखती! उस सुनसान रास्ते को! वहाँ कोई न होता! बस आदत न छूटती वहाँ देखने की!
"गंगा!" आवाज़ आई उसे!
वो चौंकी!
आसपास देखा!
कोई नहीं था!
आवाज़, थी भी वैसी ही! उस भूदेव जैसी! लेकिन था कोई नहीं वहां!
"गंगा!" फिर से आवाज़ आई!
उठ खड़ी हुई! आसपास फिर से देखा!
कोई नहीं था! बस कुछ पत्र, वो कुआँ और चंद पेड़! हाँ, दूर एक टूटी सी दीवार ज़रूर थी! लेकिन वो तो बहुत दूर थी!
बेचैन! क्या धोखा हुआ उसे? कहीं उसी का दिमाग तो नहीं खेल रहा उस से? ऐसा खेल?? ये क्या हो रहा है उसे!
"गंगा!" फिर से आवाज़ आई!
इस बार आवाज़ भूदेव की ही थी! पक्का! उसी की ही आवाज़!
वही लहज़ा! और वही ठहराव!
भूदेव? और यहां? यहां तो कहाँ? दिमाग उलझा! साँसें हुईं तेज! धड़कन सीने से भी बाहर सुनाई दे जाएँ!
"गंगा!" फिर से आवाज़ आई!
"कौन है?" बोली वो!
कोई नहीं था!
"कोई है?" बोली वो!
"मेरी गंगा!" आवाज़ आई!
अब घबराई वो!
सामने माला को देखा!
"माला?" वो चिल्लाई!
माला ने देखा, और हाथ के इशारे से पूछा कि क्या?
"इधर आ, माला!" चिल्ला के बोली वो!
आ गयी माला! हाथ पोंछते हुए!
"क्या हुआ?" पूछा उसने!
"यहाँ, यहां नाम लिया किसी ने मेरा!" बोली गंगा!
माला हंस पड़ी!
"तेरा दिमाग चल गया है गंगा!" बोली वो!
"सच में! उसने बोला, मेरी गंगा!" बोली गंगा!
"अच्छा!! किसी ने नाम लिया तेरा! और बोला मेरी गंगा!" बोली वो!
"हाँ माला!" बोली गंगा!
"तो फिर आवाज़ भी उसी भूदेव की ही होगी!" बोली माला!
"हाँ! वही आवाज़!" बोली गंगा!
फिर से हंसी माला! हाथ पर हाथ मारते हुए!
"पागल! तो पागल हो गयी है उसके प्यार में!" बोली माला!
"यक़ीन कर मेरा!" बोली वो!
"कैसे यक़ीन करूँ?" बोली माला!
"यक़ीन कर माला?" बोली वो!
"तो आवाज़ इस पत्थर ने दी? या पेड़ ने, या उस कुँए के अंदर से कोई बोला?" बोली माला!
गंगा आसपास देखे!
"अब क्यों नहीं आ रही आवाज़?" पूछा माला ने!
"मुझे क्या पता?" बोली गंगा!
"अब चल यहां से, चल!" बोली माला!
गंगा, घबराई सी, चल दी साथ उसके!
"अरे कुछ नहीं है! तेरा वहम है!" बोली माला!
इतना सटीक वहम?
इतना पूर्ण वहम?
कैसे सम्भव!!
"चल उठा पानी" बोली माला!
पानी उठाया गंगा ने!
"चल अब!" बोली माला!
और चल दीं घर की तरफ!
लेकिन गंगा परेशान थी!
वो आवाज़?
मेरी गंगा?
वही लहज़ा?
साफ़ साफ़ सुना था उसने!
कौन था?
वहां तो कोई नहीं था!
तो फिर?
यही सब सोचते सोचते, आ गयी घर गंगा!

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Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:13

रात को सोते समय उसकी आँख खुल गयी! एक तो नींद आती नहीं थी, आती थी, तो हर करवट में आँख खुल जाती थी! अब ये परेशानी तो खुद ही गले में डाली थी उसने! किसी से दिल लगाकर, लेकिन आज रात जो नींद खुली थी, उसका कारण कुछ और था! उसको अपने चेहरे पर कुछ रेंगता हुआ सा लगा था, जैसे कुछ रेंगा हो, कि कीड़ा या मकड़ी वगैरह! उसने हाथ से हटाया था उसे! लेकिन कुछ नहीं था! उसने उठकर, वो तकिया भी झाड़ लिया था, हाथ से अपना बिस्तर भी झाड़ लिया था! कुछ नहीं था! अब आँख खुल गयी थी उसकी! लेटी तो नींद नहीं आई! कभी इधर करवट बदले, कभी उधर! कभी पीठ के बल और कभी पेट के बल! पूरा बिस्तर ही नाप लिया था उसने! लेकिन नींद नहीं आई! आखिर में, उठी, बैठी, और पलंग से उतरने के लिए टांगें नीचे की, जैसे ही पाँव ज़मीन पर रखे, तो उसका पाँव किसी चीज़ से छुआ, वो नीचे झुकी! पाँव हटा के देखा, तो कुछ पड़ा था, उसने उठाया उसको! ये एक फूल था, गुड़हल का अधखिला फूल! गुड़हल का कि पौधा नहीं था घर में, बस गाँव के बाहर की तरफ जो मंदिर था, उसके अहाते में लगे थे गुड़हल के फूल! ये कहाँ से आया? उसने सोचा, फिर अटकलें लगानी बंद कीं उसने! जमना ले आई होगी! जाती रहती है मंदिर वो तो! या माँ गयी होगी, ले आई होंगी! और ये गिर गया होगा यहां! उसने वो फूल सिरहाने रख दिया अपने! उठी, और खिड़की के पास जा बैठी! बाहर घुप्प अँधेरा था! हाथ को हाथ नहीं दिखे, ऐसा अँधेरा! दूर कहीं एक डिबिया जल रही थी, दूर, बस वही एकमात्र प्रकाश था! अभी तो बीस दिन बाकी थे! ऐसे ही काटने थे! बैठे बैठे नींद की झपकी लगी, तो खड़ी हुई, और जा लेटी! रात के तीसरे प्रहर का चौथा चरण था! आखिर आ ही गयी नींद उसे!
सुबह हुई! उठी गंगा! अंगड़ाई ली, तो हाथ पीछे टकराया किसी ठंडी सी चीज़ से! पलट के देखा! वहां फूल थे! ताज़ा गुड़हल के करीब दस फूल! अब झटके से खड़ी हुई वो! तकिया हटाया, तो और भी फूल निकले, कुल हुए अब पंद्रह! ये फूल कौन लाया? रात तो एक ही था!
"माला?" आवाज़ दी उसने!
माला आई आँखें रगड़ते हुए!
"ये फूल कौन लाया?" पूछा गंगा ने!
"मुझे क्या पता?" बोली वो!
"तू तो नहीं लायी?" पूछा गंगा ने!
"नहीं, मैं नहीं लायी" बोली वो, उबासी लेते हुए!
"जमना को भेज ज़रा" बोली गंगा!
"भेजती हूँ" बोली वो, और चली गयी!
जमना आ गयी अंदर कमरे में, स्नान करके आई थी, बाल संवार रही थी!
"जमना?" बोली गंगा,
"हाँ?" बोली जमना!
"तू ये फूल तो नहीं लायी?" पूछा जमना से!
"नहीं तो?" बोली वो!
"कौन लाया?" पूछा उसने,
"मुझे नहीं पता, मैं जा रही हूँ, मंदिर जाना है" बोली वो!
गंगा हैरान! जमना तो मंदिर भी नहीं गयी अभी! तो ये फूल?
तभी जमना लौटी वापिस!
"मैं ले जाती हूँ ये फूल!" बोली जमना और इकट्ठे कर लिए फूल उसने! और ले गयी!
जमना गयी, तो बैठी गंगा! फिर से ध्यान उन्ही फूलों पर! कहीं माँ तो नहीं लायी? उठी, माँ के पास चली, वहाँ पहुंची, माँ भी बैठी हुई थी!
"माँ?" बोली गंगा!
"हाँ?" बोली माँ!
"मेरे सिरहाने फूल रखे थे आज, कौन लाया?" पूछा,
"कैसे फूल?" माँ ने पूछा,
"वो जो मंदिर में हैं, वही फूल" बोली गंगा!
"नहीं मैं तो नहीं लायी, कहीं जमना तो नहीं ले आई?" माँ ने पूछा,
"नहीं, मना कर रही है वो" बोली गंगा!
"माला से पूछा?" माँ ने कहा,
"हाँ, वो भी मना कर रही है" बोली गंगा!
"कहाँ हैं फूल?" पूछा माँ ने,
"जमना ले गयी" बोली गंगा!
"चल ठीक है, मंदिर में चढ़ जाएंगे" बोली माँ!
गंगा वापिस हुई, अपने कमरे में! अपने वस्त्र उठाये, और चली गयी स्नान करने!
दोपहर बीती! और चलीं वो कुँए पर पानी भरने! जा पहुंची वहीँ! कुछ और भी महिलायें थीं वहाँ, एक ऊँट-गाड़ी भी खड़ी थी, कुछ महिलायें बैठीं थीं उस पर, और उनके मर्द शायद पानी का इंतज़ाम कर रहे थे! गंगा, चली उस अंधे कुँए की तरफ! अचानक से उसको कल वाली बात याद आई! वो आवाज़ें! लेकिन माला ने दिमाग सही कर दिया था उसका! शायद वहम ही था! प्रेम में डूबना इस तरह, पागलपन की निशानी तो है ही! शायद कान ही बज उठे हों! वो बैठ गयी वहाँ! और बिछा दीं निगाहें! सामने देखा! वही ऊँट-गाड़ी जा रही थी, हिलते हिलते! लेकिन कोई आ नहीं रहा था!!
और तभी लू का एक तेज थपेड़ा आया! गंगा के दानों में दबा वो दुपट्टा निकल गया! सर से भी उड़ गया! उड़ता हुआ, काफी दूर जा गिरा! भागी लेने गंगा! पकड़ लिया, और ओढ़ भी लिया! आ गयी वापिस! फिर से बैठ गयी वहाँ! कुछ पल शान्ति के बीते!
और फिर एक फुसफुसाहट!
"गंगा!" आवाज़ आई, फुसफुसाती हुई!
गंगा आसपास देखे!
"मेरी गंगा!" फिर से आवाज़ आई!
गंगा उठ खड़ी हुई! आसपास देखा! कोई नहीं था वहाँ!
गंगा ने उचक उचक के भी देखा! लेकिन कोई नहीं था!
"कौन है यहां?" बोली वो!
कोई आवाज़ नहीं फिर!
कुछ देर, कोई आवाज़ नहीं!
गंगा फिर से बैठ गयी! तभी सर से कुछ टकराया उसके! टकरा के, नीचे गिरा! गंगा ने देखा, एक फूल! गुड़हल का फूल! गंगा घबरा गयी! मलेठ( एक जंगली पेड़) के उस पेड़ पर, गुड़हल के फूल? ऐसा कैसे? उठ गयी थी गंगा!
"गंगा! मेरी गंगा!!" फिर से आवाज़ आई!
नही! नहीं!
अब ये वहम नहीं!
आवाज़ साफ़ थी!
गंगा! मेरी गंगा!
"माला?" बोली चिल्ला के गंगा!
"क्या हुआ?" बोली माला! चिल्ला के!
"इधर, इधर आ जल्दी!" बोली वो!
माला भागे भागे आई वहाँ!
"ये देख?" उसने ऊँगली से इशारा किया नीचे, फूल की तरफ!
"क्या है?" माला ने दोनों हाथ बाँध कर पूछा!
"फूल" वो बोली,
"कहाँ है फूल?" पूछा माला ने!
अब गंगा ने जैसे ही नीचे देखा, फूल नहीं था वहाँ!
"यहीं था? मेरे सर से टकराया था? मुझे आवाज़ भी दी किसी ने?" बोली एक ही सांस में गंगा!
"कुछ नहीं था! दिमाग में तेरे अब और कुछ नहीं बचा!" बोली माला!
"सच कह रही हूँ माला मैं" बोली गंगा!
"मान लिया! लेकिन आवाज़ देने वाला है कहाँ?" पूछा उसने!
"पता नहीं" वो बोली,
"आ चल, देखते हैं" बोली गंगा का हाथ पकड़ कर!
अब वे चलीं ढूंढने! उस आवाज़ देने वाले को!
"कोई है क्या?" बोली माला!
कोई नहीं था!
बियाबान, बंजर!!
और कुछ नहीं!
बेजान पत्थर! और कुछ नहीं!
लू के थपेड़े झेलतीं झाड़ियाँ, और कुछ नहीं!
"ले, कोई नहीं है!" बोली माला,
"लेकिन...........?" बोली गंगा!
"कोई लेकिन वेकिन नहीं, चल अब, पानी भर, और चल" बोली वो!
हाथ पकड़ कर, ले चली उसे!
कुँए पर पहुंचे, पानी भरा और चलीं वापिस!
लेकिन वो फूल?
वो आवाज़ें?
वो भ्रम नहीं था! न ही वहम!!
कुछ तो था! कुछ न कुछ तो!
यही सोचती हुई, चलती रही गंगा! और माला!
उसका उपहास उड़ाती रही! सारे रास्ते!

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