Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st
Posted: 30 Oct 2015 08:14
गंगा को अब गुस्सा आया! वो फूल उठाये, और फेंक दिए बाहर खिड़की से! बस, अब बहुत हुआ इस तेजराज का नाटक! बैठ गयी गुस्से में, सोचते हुए उस तेजराज के बारे में, माला भी आ बैठी उसके संग, माला कुछ बोल न सकी क्योंकि गंगा गुस्से में थी!
"भूदेव ने तो कहा था कि इंतज़ाम हो जाएगा?" बोली माला,
गंगा कुछ न बोली, बस बाहर झांकती रही,
"गंगा?" बोली माला,
फिर कुछ न बोली,
माला चुप लगा गयी, गंगा से मज़ाक करना तो सही था, लेकिन अगर गुस्से में हो, तो बात अलग ही होती, गंगा उसको ही डाँट देती,
"गंगा? पिता जी को बता दे सब" बोली माला,
गंगा ने गुस्से से देखा उसे, सिहर गयी भय से माला,
खड़ी हुई, अपना दुपट्टा बदला,
"आ माला मेरे साथ" बोली गंगा,
"कहाँ?" पूछा माला ने!
"तुझे चलना है या नहीं" पूछा गंगा ने,
अब खड़ी हो गयी माला,
"चल गंगा" बोली वो,
और धड़धड़ाते हुए, चली गयीं बाहर, किसी ने रोका भी नहीं!
"गंगा?" बोली माला,
"हुं?" बोली गंगा!
"कहाँ जा रही है तू?" पूछा माला ने,
"उस अंधे कुँए के पास" बोली गंगा!
माला ने सुना, और वहीं ठहर गयी, गंगा भी रुकी, माला को देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं उसने, और बढ़ गयी आगे, आज तो कुछ ठान ही रखा था गंगा ने! जब नहीं रुकी गंगा, तो माला भी भाग आई उसके पास,
"गंगा?" बोली माला,
गंगा कुछ न बोली!
"गंगा, एक बार पिता जी को बता देती तो अच्छा रहता" बोली माला,
कुछ नहीं बोली वो! चलती रही गंगा! गंगा आगे आगे, माला पीछे पीछे! और आ गया वो अँधा कुआँ! माला वहीँ रुक गयी! और गंगा, उस कुँए को निहारते हुए, चली उस तरफ ही! जैसे ही पहुंची, फूलों की बरसात सी होने लगी! कुछ सर पर गिरे, तो झाड़ दिए अपने सर से!
"सामने आओ मेरे?" बोली वो!
और आया वो तेजराज सामने!
कुँए के पास खड़ा हुआ, हतप्रभ सा, चकित सा!
"तू आ गयी गंगा! तू आ गयी!" बोला वो, मुस्कुरा कर,
गंगा गुस्से में देखती रही उसे!
"तू गुस्सा है गंगा?" बोला वो!
कुछ न बोली गंगा! बस फुनकती रही!
"गंगा! गुस्सा न हो, बहुत प्रेम करता हूँ तुझसे, सच्ची!" वो बोला,
सच्ची?
हाँ! बोला था भूदेव ने एक दो बार, यही शब्द, सच्ची! अब सर घूमा उसका! तो क्या?? तो क्या??
"हाँ! वो मैं ही था गंगा!" बोला वो!
रूप धर के आया था? भूदेव का? ये तेजराज?
"हाँ, वो श्रृंगारदानी, तेरे लिए लाया था न मैं, तूने ली भी थी, तेरे घर की टांडी पर रखी है जो, वो, वो मैंने ही दी थी गंगा! मैं बहुत प्रेम करता हूँ तुझसे गंगा! बहुत प्रेम!" बोला तेजराज!
अब जैसे चक्कर आये गंगा को! कहाँ फंसी गंगा!
"गंगा, मैं तो तुझे बरसों से प्रेम करता हूँ, बरसों से, जब से तू यहां आ कर बैठती है, तब से, मैं, इस, इस कुँए में रहता हूँ, अँधा कुआँ, यही है वो अँधा कुआँ, बरसों से पड़ा रहा, छिपा रहा, बाहर नहीं निकला, लेकिन तेरा रूप देख, मैं आया बाहर, तुझे, देखा करता था मैं, मैं तो, बहुत प्रेम करता हूँ गंगा तुझे, इसीलिए, उस उदयचंद को बचाया, कि तू दुखी न हो, तेरे पिता को बचाया मैंने, गंगा! मेरा प्रेम स्वीकार ले गंगा!" बोला वो, थोड़ा पास आकर, आँखों में, प्रेम परोसे!
गंगा पीछे हटी!
वो आगे बढ़ा!
"गंगा! जानता हूँ, मैं प्रेत हूँ! जानता हूँ! मुझे मार डाला गया था गंगा, मैं खूब लड़ा, खूब, पार नहीं पड़ी मेरी, मुझे डाल दिया गया इसमें, गंगा, तभी से यहां हूँ मैं, अकेला, कोई नहीं है मेरा, तुझसे प्रीत हुई मेरी, गंगा, स्वीकार ले मेरा प्रेम!" गिड़गिड़ा सा गया वो!
गंगा की बोलती बंद थी! होंठ काँप रहे थे, कब गिर जाए नीचे, पता नहीं था!
"जानता हूँ, तेरे जी में कौन है, वो भूदेव, है न, अब कभी नहीं आएगा वो यहां, कभी नहीं गंगा! मेरे प्रेम जो आड़े आएगा, उसे नहीं छोड़ने वाला मैं, और गंगा, वो क्या देगा तुझे, क्या? देख, ये देख!" बोला वो, और हवा में दोनों हाथ मार कर, फेंकता रहा वहाँ आभूषण ही आभूषण! सोने के आभूषण!
गंगा के कान फ़टे!
प्राण हलक़ में आये,
आँखों में आंसू छलके, उस, उस भूदेव के लिए, जो अब नहीं आना था कभी....
गंगा, भाग ली वहाँ से! आँखों से आंसू टपक रहे थे! साँसें तक जातीं कब उसकी, पता नहीं था, भाग रही थी, माला पीछे पीछे आवाज़ दे रही थी, और गंगा, घर की तरफ, भागे जा रही थी!
एक और आवाज़ थी पीछे, जो दुःख भरे लहज़े में गूँज रही थी, उस तेजराज की, 'गंगा...........गंगा..........मत जा.......मत जा गंगा...........मत जा...........'
गंगा घर पहुंची, होशोहवास नहीं थे उसके उसके पास, घर में घुसी, तो कमरे में आई, कमरे में आई तो बिस्तर पर चढ़ी, और टांडी से वो श्रृंगारदानी उठायी, और फेंक दी बाहर वो श्रृंगारदानी, जैसे ही गिरी नीचे ज़मीन पर, आग पकड़ ली उसने, और हो गयी राख!
अब गंगा, गंगा न रही!
गंगा का चुलबुलापन, सब छू हो गया,
वो अब गंभीर, शून्य में ताकने वाली बन गयी,
माला रोज जाती कुँए पर, इंतज़ार करती, उस भूदेव का, और वो भूदेव, नहीं आया उसके बाद कभी, कहाँ था, पता नहीं, कहाँ गया, पता नहीं!
कोई बीस दिन बीते, गंगा की अब सभी को चिंता होती, माला ने सब बता दिया था उस भूदेव के बारे में, उस अंधे कुँए के प्रेत के बारे में उन्हें, वे तो भय से काँप गए थे, गंगा किसी से बात नहीं करती, किसी से भी, बस चुपचाप लेटी ही रहती, माँ-बाप ने इलाज करवाया गंगा का, गंगा पर कोई असर न होता, बड़े बड़े ओझा आये, सभी विफल, भोपा आये, अलख जगी, कुछ न हुआ!
लेकिन फूल! अनवरत उसके सिरहाने रखे होते सुबह! गंगा उठाकर फेंक देती सभी के सभी! गंगा बदल गयी थी, हंसी और मुस्कान, जैसे सब भूल गयी थी...
कोई महीना बीता, भूदेव, नहीं आया था उस दिन के बाद से,
एक रात,
गंगा सोयी हुई थी, थक-हारकर सो गयी थी खुद से लड़ते लड़ते! यादों से लड़ते लड़ते! उस अक्स से लड़ते लड़ते! रत आधी हुई होगी तब!
"गंगा?" आवाज़ आई उसे!
त्यौरियां में हरकत सी हुई उसके!
"गंगा?" कोई बोला,
आवाज़ फुसफुसाहट की थी!
"गंगा?" आवाज़ फिर से आई,
आँख खुल गयी उसकी!
कमरे में कोई नहीं था, बस डिबिया जली थी,
"गंगा?" आवाज़ आई फिर से!
गंगा ने खिड़की का पर्दा सरकाया, सामने देखा, कोई खड़ा था, लेकिन कौन? गौर से देखा, वो तेजराज था, जब गंगा ने उसको देखा, तो बैठ गया था नीचे, और बैठे बैठे ही, सरके आ रहा था उस खिड़की की तरफ!
आया खिड़की के पास,
आलती-पालती मार के बैठ गया था!
"गंगा?" बोला वो!
कुछ न बोली गंगा!
"मुझसे गुस्सा है? अब नहीं आती तू कुँए पर?" पूछा उसने,
गंगा चुप!
कुँए का तो औचित्य शेष था ही नहीं अब!
भूदेव का क्या हुआ, कहाँ गया, सोचा ही नहीं था गंगा ने!
सोचते ही, कलेजा मुंह को आता था!
"गंगा?" बोला वो फिर!
गंगा अपनी सोच से बाहर निकली तभी!
"मैं अकेला हूँ गंगा, तरस खा मुझ पर, गंगा, मेरी गंगा.." रोते रोते हाथ जोड़ते हुए बोला वो!
गंगा शांत!
न पड़ा था असर गंगा पर, उसके इस रोने का!
"अकेला, बहुत बरसों से अकेला हूँ मैं गंगा" फिर से गिड़गिड़ा के बोला वो,
गंगा ने पर्दा डाल दिया खिड़की पर, और बैठ गयी, एक कुर्सी पर,
खिड़की के बाहर से, आवाज़ें आती रहीं, बार बार, गंगा! गंगा!
"भूदेव ने तो कहा था कि इंतज़ाम हो जाएगा?" बोली माला,
गंगा कुछ न बोली, बस बाहर झांकती रही,
"गंगा?" बोली माला,
फिर कुछ न बोली,
माला चुप लगा गयी, गंगा से मज़ाक करना तो सही था, लेकिन अगर गुस्से में हो, तो बात अलग ही होती, गंगा उसको ही डाँट देती,
"गंगा? पिता जी को बता दे सब" बोली माला,
गंगा ने गुस्से से देखा उसे, सिहर गयी भय से माला,
खड़ी हुई, अपना दुपट्टा बदला,
"आ माला मेरे साथ" बोली गंगा,
"कहाँ?" पूछा माला ने!
"तुझे चलना है या नहीं" पूछा गंगा ने,
अब खड़ी हो गयी माला,
"चल गंगा" बोली वो,
और धड़धड़ाते हुए, चली गयीं बाहर, किसी ने रोका भी नहीं!
"गंगा?" बोली माला,
"हुं?" बोली गंगा!
"कहाँ जा रही है तू?" पूछा माला ने,
"उस अंधे कुँए के पास" बोली गंगा!
माला ने सुना, और वहीं ठहर गयी, गंगा भी रुकी, माला को देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं उसने, और बढ़ गयी आगे, आज तो कुछ ठान ही रखा था गंगा ने! जब नहीं रुकी गंगा, तो माला भी भाग आई उसके पास,
"गंगा?" बोली माला,
गंगा कुछ न बोली!
"गंगा, एक बार पिता जी को बता देती तो अच्छा रहता" बोली माला,
कुछ नहीं बोली वो! चलती रही गंगा! गंगा आगे आगे, माला पीछे पीछे! और आ गया वो अँधा कुआँ! माला वहीँ रुक गयी! और गंगा, उस कुँए को निहारते हुए, चली उस तरफ ही! जैसे ही पहुंची, फूलों की बरसात सी होने लगी! कुछ सर पर गिरे, तो झाड़ दिए अपने सर से!
"सामने आओ मेरे?" बोली वो!
और आया वो तेजराज सामने!
कुँए के पास खड़ा हुआ, हतप्रभ सा, चकित सा!
"तू आ गयी गंगा! तू आ गयी!" बोला वो, मुस्कुरा कर,
गंगा गुस्से में देखती रही उसे!
"तू गुस्सा है गंगा?" बोला वो!
कुछ न बोली गंगा! बस फुनकती रही!
"गंगा! गुस्सा न हो, बहुत प्रेम करता हूँ तुझसे, सच्ची!" वो बोला,
सच्ची?
हाँ! बोला था भूदेव ने एक दो बार, यही शब्द, सच्ची! अब सर घूमा उसका! तो क्या?? तो क्या??
"हाँ! वो मैं ही था गंगा!" बोला वो!
रूप धर के आया था? भूदेव का? ये तेजराज?
"हाँ, वो श्रृंगारदानी, तेरे लिए लाया था न मैं, तूने ली भी थी, तेरे घर की टांडी पर रखी है जो, वो, वो मैंने ही दी थी गंगा! मैं बहुत प्रेम करता हूँ तुझसे गंगा! बहुत प्रेम!" बोला तेजराज!
अब जैसे चक्कर आये गंगा को! कहाँ फंसी गंगा!
"गंगा, मैं तो तुझे बरसों से प्रेम करता हूँ, बरसों से, जब से तू यहां आ कर बैठती है, तब से, मैं, इस, इस कुँए में रहता हूँ, अँधा कुआँ, यही है वो अँधा कुआँ, बरसों से पड़ा रहा, छिपा रहा, बाहर नहीं निकला, लेकिन तेरा रूप देख, मैं आया बाहर, तुझे, देखा करता था मैं, मैं तो, बहुत प्रेम करता हूँ गंगा तुझे, इसीलिए, उस उदयचंद को बचाया, कि तू दुखी न हो, तेरे पिता को बचाया मैंने, गंगा! मेरा प्रेम स्वीकार ले गंगा!" बोला वो, थोड़ा पास आकर, आँखों में, प्रेम परोसे!
गंगा पीछे हटी!
वो आगे बढ़ा!
"गंगा! जानता हूँ, मैं प्रेत हूँ! जानता हूँ! मुझे मार डाला गया था गंगा, मैं खूब लड़ा, खूब, पार नहीं पड़ी मेरी, मुझे डाल दिया गया इसमें, गंगा, तभी से यहां हूँ मैं, अकेला, कोई नहीं है मेरा, तुझसे प्रीत हुई मेरी, गंगा, स्वीकार ले मेरा प्रेम!" गिड़गिड़ा सा गया वो!
गंगा की बोलती बंद थी! होंठ काँप रहे थे, कब गिर जाए नीचे, पता नहीं था!
"जानता हूँ, तेरे जी में कौन है, वो भूदेव, है न, अब कभी नहीं आएगा वो यहां, कभी नहीं गंगा! मेरे प्रेम जो आड़े आएगा, उसे नहीं छोड़ने वाला मैं, और गंगा, वो क्या देगा तुझे, क्या? देख, ये देख!" बोला वो, और हवा में दोनों हाथ मार कर, फेंकता रहा वहाँ आभूषण ही आभूषण! सोने के आभूषण!
गंगा के कान फ़टे!
प्राण हलक़ में आये,
आँखों में आंसू छलके, उस, उस भूदेव के लिए, जो अब नहीं आना था कभी....
गंगा, भाग ली वहाँ से! आँखों से आंसू टपक रहे थे! साँसें तक जातीं कब उसकी, पता नहीं था, भाग रही थी, माला पीछे पीछे आवाज़ दे रही थी, और गंगा, घर की तरफ, भागे जा रही थी!
एक और आवाज़ थी पीछे, जो दुःख भरे लहज़े में गूँज रही थी, उस तेजराज की, 'गंगा...........गंगा..........मत जा.......मत जा गंगा...........मत जा...........'
गंगा घर पहुंची, होशोहवास नहीं थे उसके उसके पास, घर में घुसी, तो कमरे में आई, कमरे में आई तो बिस्तर पर चढ़ी, और टांडी से वो श्रृंगारदानी उठायी, और फेंक दी बाहर वो श्रृंगारदानी, जैसे ही गिरी नीचे ज़मीन पर, आग पकड़ ली उसने, और हो गयी राख!
अब गंगा, गंगा न रही!
गंगा का चुलबुलापन, सब छू हो गया,
वो अब गंभीर, शून्य में ताकने वाली बन गयी,
माला रोज जाती कुँए पर, इंतज़ार करती, उस भूदेव का, और वो भूदेव, नहीं आया उसके बाद कभी, कहाँ था, पता नहीं, कहाँ गया, पता नहीं!
कोई बीस दिन बीते, गंगा की अब सभी को चिंता होती, माला ने सब बता दिया था उस भूदेव के बारे में, उस अंधे कुँए के प्रेत के बारे में उन्हें, वे तो भय से काँप गए थे, गंगा किसी से बात नहीं करती, किसी से भी, बस चुपचाप लेटी ही रहती, माँ-बाप ने इलाज करवाया गंगा का, गंगा पर कोई असर न होता, बड़े बड़े ओझा आये, सभी विफल, भोपा आये, अलख जगी, कुछ न हुआ!
लेकिन फूल! अनवरत उसके सिरहाने रखे होते सुबह! गंगा उठाकर फेंक देती सभी के सभी! गंगा बदल गयी थी, हंसी और मुस्कान, जैसे सब भूल गयी थी...
कोई महीना बीता, भूदेव, नहीं आया था उस दिन के बाद से,
एक रात,
गंगा सोयी हुई थी, थक-हारकर सो गयी थी खुद से लड़ते लड़ते! यादों से लड़ते लड़ते! उस अक्स से लड़ते लड़ते! रत आधी हुई होगी तब!
"गंगा?" आवाज़ आई उसे!
त्यौरियां में हरकत सी हुई उसके!
"गंगा?" कोई बोला,
आवाज़ फुसफुसाहट की थी!
"गंगा?" आवाज़ फिर से आई,
आँख खुल गयी उसकी!
कमरे में कोई नहीं था, बस डिबिया जली थी,
"गंगा?" आवाज़ आई फिर से!
गंगा ने खिड़की का पर्दा सरकाया, सामने देखा, कोई खड़ा था, लेकिन कौन? गौर से देखा, वो तेजराज था, जब गंगा ने उसको देखा, तो बैठ गया था नीचे, और बैठे बैठे ही, सरके आ रहा था उस खिड़की की तरफ!
आया खिड़की के पास,
आलती-पालती मार के बैठ गया था!
"गंगा?" बोला वो!
कुछ न बोली गंगा!
"मुझसे गुस्सा है? अब नहीं आती तू कुँए पर?" पूछा उसने,
गंगा चुप!
कुँए का तो औचित्य शेष था ही नहीं अब!
भूदेव का क्या हुआ, कहाँ गया, सोचा ही नहीं था गंगा ने!
सोचते ही, कलेजा मुंह को आता था!
"गंगा?" बोला वो फिर!
गंगा अपनी सोच से बाहर निकली तभी!
"मैं अकेला हूँ गंगा, तरस खा मुझ पर, गंगा, मेरी गंगा.." रोते रोते हाथ जोड़ते हुए बोला वो!
गंगा शांत!
न पड़ा था असर गंगा पर, उसके इस रोने का!
"अकेला, बहुत बरसों से अकेला हूँ मैं गंगा" फिर से गिड़गिड़ा के बोला वो,
गंगा ने पर्दा डाल दिया खिड़की पर, और बैठ गयी, एक कुर्सी पर,
खिड़की के बाहर से, आवाज़ें आती रहीं, बार बार, गंगा! गंगा!