वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Unread post by admin » 12 Nov 2016 12:57

जिन्नाती खूबसूरती!
बला की खूबसूरती!
नज़र ही न हटे!
उसने अपना हाथ,
मेरे कंधे पर रख दिया!
मैं मुस्कुरा पड़ा!
"ह'ईज़ा?" कहा मैंने,
और उसका हाथ हटा दिया कंधे से,
"माना मैं आदमजात हूँ! माना मैं कच्चा भी हूँ!" कहा मैंने,
उसने फिर से हाथ रखने के लिए उठाया,
मैंने बीच में ही पकड़ लिया!
उसने भींच दिया मेरा हाथ!
"लेकिन, मैं यहां बहुत पक्का हूँ!" कहा मैंने,
और छुड़ा लिया हाथ अपना!
और बाहर से, खनकती हुई हंसी गूंजी!
मैंने बाहर देखा,
फ़ैज़ान के साथ,
सुरभि जा रही थी!
अब तो वो,
जिन्नी सी लग रही थी!
वैसी ही चाल-ढाल,
वैसी ही पोशाक़,
और वैसी ही नक़ाब!
वे, एक दूसरे तम्बू में चले गए थे!
इतने में ही,
वो ह'ईज़ा,
उठी, और चली बाहर,
मैं उस तम्बू को देखे जा रहा था,
और तभी अशुफ़ा आई,
मुझे देखा,
मुस्कुराई,
और चली गयी उसी तम्बू में,
फिर ह'ईज़ा लौट आई!
"आप और हाज़िरा!" बोली वो,
शरारत से बोली थी,
होंठों पर,
बेहयाई का जामा पहन लिया था उसने तब!
"क्या कहना चाहती हैं आप?" पूछा मैंने,
"वो जायज़ है न?" बोली वो,
"हाँ! क्यों?" पूछा मैंने,
"वो आतिश, आप आदमजात!" बोली वो,
आँखों में, क़ज़ा खेल उठी!
"हाँ ह'ईज़ा! सच है ये!" कहा मैंने,
"तो, जायज़ है न?" पूछा उसने!
"मैंने निक़ाह नहीं किया उस से!" बोला मैं,
"बाकी सबकुछ?" बोली वो,
अब फंसा मैं!
क्या बोलूं?
मेरी तो दुखती रग पकड़ ली थी उसने!
"हाँ, बाकी सब!" कहा मैंने,
"जायज़ है न?" बोली वो,
बेहद ही कड़वा सवाल था उसका ये!
मुंह कसैला हो गया था मेरा तो!
और जवाब भी क्या देता मैं!
ये तो वही हालत थी, कि हाथ सने थे घी में,
और मुंह भी सना था और तुर्रा ये दूँ,
कि संभाल के रख रहा था मैं तो!
सवाल ही ऐसा था,
जवाब दूँ, तो दूँ क्या!
"है न जायज़?" दोहराया सवाल उसने फिर से!
"जवाब नहीं है इसका मेरे पास!" कहा मैंने,
"हमारे पास है!" बोली वो,
मैं आया सकते में!
इसके पास कैसे इसका जवाब?
फंसा तो हुआ ही था, थोड़ा और धंसका नीचे!
कुछ न बोला मैं तो!
"हम दें जवाब?" बोली वो,
"दो?" कहा मैंने,
"रजामंदी! आप दोनों की!" बोली वो,
हाँ! जवाब तो यही था!
दिमाग़ में कैसे नहीं आया?
बेहद तेज-तर्रार है ये तो!
मान गया मैं उस ह'ईज़ा को!
"कुछ और कहें?" बोली वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"सुरभि और फ़ैज़ान भी में, ऐसी कोई रजामंदी नहीं!" बोली वो,
क्या?
ये क्या सुना मैंने?
ऐसा कैसे मुमकिन है?
"मैं समझा नहीं?" बोला मैंने,
"न आज तलक, न कभी भी, उनमे 'ऐसी' कोई रजामंदी न हुई, न होगी! फ़ैज़ान भाई ऐसा कभी नहीं करेंगे! वो तो, सुरभि को रूहानी मुहब्बत करते हैं, जिस्मानी नहीं!" बोली वो!
ओह फ़ैज़ान!
सलाम तेरी इस मुहब्बत को!
मुझे तो मुरीद बना लिया उसने अपना!
"हाँ आलिम साहब! न आज तक हुआ, और न होगा!" आया वो अंदर, ये कहते हुए!
पिस्ते-मेवे ले आया था संग में,
ह'ईज़ा उठ गयी थी, और बाहर चली गयी!
"लीजिये! खाइये!" बोला वो,
वो तश्तरी, आगे सरकाते हुए!
"फ़ैज़ान?" बोला मैं,
"जी फ़रमायें!" बोला वो,
"और अगर सुरभि ने कहा तो?" पूछा मैंने,
"तो हम मना कर देंगे!" बोला वो,
"झगड़ा किया तो?" पूछा मैंने,
"झगड़ा उठा लेंगे हम!" बोला वो,
"कभी बात न की तो?" पूछा मैंने,
"उनका दीदार ही काफ़ी है हमारे लिए!" बोला वो,
"और अगर! अगर! वो रोने लगी तो?" पूछा मैंने,
"हम नहीं रोने देंगे!" बोला वो,
"तो ये तो असरात हुए न?" कहा मैंने,
"नहीं! मुहब्बत!" बोला वो,
मेरे हर सवाल का जवाब था उसके पास!
सच कहता हूँ मित्रगण!
मैंने ऐसा जिन्न कभी नहीं देखा!
इतना सुलझा हुआ,
समझदार, गुस्सा तो नाम को नहीं,
अक़्लमंद, नेक और वफ़ादार!
उसने पिस्ते उठाये,
छीले,
और दिए मुझे, मैंने खाए वो!
"ये जगह कौन सी है?" पूछा मैंने,
"श्खरीज़! हमारा बचपन यहीं बीता था!" बोला वो,
"इसीलिए आप जुड़े हुए हो यहाँ से!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
और छीले हुए, और पिस्ते दे दिए उसने!
"और कौन कौन हैं घर में?" पूछा मैंने,
"जी, अम्मी हैं, अब्बू भी हैं, एक बड़े भाई हैं, सब गाँव में रहते हैं! और दो ये बहनें!" बोला वो,
मेरे घुटने से, एक छिलका उठाते हुए,
"एक बात पूछूँ फ़ैज़ान?" पूछा मैंने,
"आलिम साहब! ऐसा ज़ुल्म न करें आप! आप हमसे इजाज़त मांगें तो लानत है हमारी जात पर, आप हुक़्म करें!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
कितना सलीक़ेमन्द है फ़ैज़ान!
कुछ कहने का मौक़ा ही नहीं देता!
"जी, पूछें!" बोला वो,
"सच बताना?" कहा मैंने,
"हम झूठ नही बोलते आलिम साहब!" बोला वो,
"सुरभि को, पहली मर्तबा, कब देखा था आपने?" पूछा मैंने,
"आज से चार साल, पांच महीने और नौ दिन पहले!" बोला वो,
एक एक दिन गिनता आ रहा था वो तो!
मैं तो हैरान रह गया ये सुनकर!
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"एक दैर से आते वक़्त!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके हाथ में एक थाल ता, कुछ कटोरियाँ, और एक चिराग़ रौशन था, ज़ुल्फ़ें, खुली थीं, गीली, शायद ग़ुस्ल के बाद, सीधे वहीँ आ रही थीं!" बोला वो,
एक एक लम्हा याद था उसे!
उसने वो जगह भी बताई, उसका नाम भी!
ये जगह दिल्ली में है, एक बड़ा सा मंदिर है वहां!
उन दिनों नवरात्र चल रहे थे,
तभी देखा था उसने उसे, पहली मर्तबा!
उसने ये भी बताया कि,
सुरभि ने सफेद कपड़े पहने थे,
उसके साथ उसकी अम्मी जान और, कुछ लोग भी थे!
"आप कहाँ थे?" पूछा मैंने,
"हम, अपने एक वाक़िफ़ के साथ थे, हारुन नाम है उनका, वो वहीँ रहते हैं! हम उन्हें देख, नीचे आये, सामने रास्ता रोकने की हिम्मत न थी, एक तरफ खड़े रहे, और हमने उनके दीदार किये!" बोला वो,
खो गया था!
उन्हीं चंद लम्हों में,
खो गया था!
दीदार-ए-महबूब ऐसा ही होता है!
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"उसके बाद, रोज दीदार करते हम उनका!" बोला वो,
"एक दिन भी, बिना नागा नहीं गया!" बोला वो,
मेरा तो दिल ही धक् कर बैठा!
चार साल!
रोज दीदार!
लेकिन,
एक मर्तबा भी कोशिश नहीं की!
चाहता तो इंसान बन, मिल लेता!
लेकिन नहीं!
उसने कहा था कि,
वो फ़रेब नहीं करता!
मित्रगण!
मैंने जो भी इस घटना का इतिहास लिखा,
ये सब मुझे, फ़ैज़ान ने ही बताया!
कई मित्रों ने लिखा कि,
ये घटना सूक्ष्म पलों को भी लिए हुए है,
कारण यही है!
ये फ़ैज़ान के बताये हुए लम्हे हैं!
जिन्हें, यहाँ उकेरना का मैंने प्रयास किया!
मात्र प्रयास!
फ़ैज़ान को,
एक एक लम्हा ऐसे याद है,
जैसे अभी किसी,
बस,
भी ही गुजरे लम्हे की बात हो!
"फ़ैज़ान?" बोला मैं,
"जी!" बोला वो,
"गुसलखाने में रखे फूल?" पूछा मैंने,
"अशुफ़ा!" बोला वो,
"और वो, बैग में रखा बड़ा गुलाब का फूल?" पूछा मैंने,
"अशुफ़ा!" बोला वो,
"वो हरसिंगार के फूल?" पूछा मैंने,
"ह'ईज़ा!" बोला वो,
"वो पानी?(वाटर-कूलर)" पूछा मैंने,
"ह'ईज़ा!" बोला वो,
"वो गाड़ी में धुआं?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
"उस लड़के की पिटाई?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
"और वो जो, घर में आये लोग, पिट के गए?" पूछा मैंने,
"हु'मैद!" बोला वो,
सब बता दिया उसने!
एक एक लम्हा!
सारे वजूहात!
सारे, क़िरदार!
मैंने सर हिलाया अपना!
"और आप कब गए?" पूछा मैंने,
"चाँद का संदेसा!!" बोला मुस्कुरा कर,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"छत पर, वो महक!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उस गाड़ी को उठा के रखा!" बोला वो,
वो पेड़ जो गिरा था!
"सुरभि के पिता जी के पैसे!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"और दीदार कहाँ करते थे?" पूछा मैंने,
"रास्ते में!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"जितना देखा करते थे, उतनी तड़प उठती!" बोला वो,
सच ही कहा उसने!
"हम दीदार कर, लौट आते!" बोला वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
वो उठा,
और कोने की तरफ गया,
गिलास साफ़ किया,
पानी डाला,
और ले आया मेरे लिए,
"लीजिये!" बोला वो,
मैंने पानी लिया,
पिया, और गिलास वापिस किया!
उसने गिलास, वहीँ जाकर,
रख दिया!
फिर आ बैठा संग मेरे!
मुस्कुरा रहा था वो!
बाहर देख रहा था!
उसकी नीली आँखें, झिलमिला रही थीं!
तपती रेत से उठती रौशनी,
उसके रंग को और निखार रही थीं!
आँखों से जैसे, नीली रौशनी झलक रही थी!
धूप जो लौटती थी रेत से टकरा कर, तो उसमे रौशनी खुद-ब-खुद पैदा हो जाती थी!
वही रौशनी, उसकी आँखों से टकरा रही थी, आँखों से जैसे,
नीले रंग की रौशनी जैसे निकल रही थी!
फिर उसने मुझे देखा,
मुस्कुराया, आँखों में, चमक बनी हुई थी!
"आलिम साहब!" बोला वो,
"बोलिए!" कहा मैंने,
"मैं सब जानता हूँ! आपके पशोपेश का सबब!" बोला वो,
अब मैं मुस्कुराया!
"आप आलिम हैं, वही करेंगे, तो इंसानी क़ायदा-ओ-क़ानून कहता है! और करना भी चाहिए, जो अपने फ़र्ज़ से डिग जाता है, वो न तो इंसान है, न कोई ग़ैबी, हमारी तरह!" बोला वो!
ये फ़ैज़ान!
ओह! सच में!
कितनी गहरी बात करता है!
कितनी गहरी सोच है!
कितनी सटीक और ज़हनी बात कही उसने!
जो अपने फ़र्ज़ से डिग जाता है,
वो न इंसान है और न कोई ग़ैबी!
"आलिम साहब!" बोला वो फिर से,
"हाँ?" कहा मैंने,
"आपको एक वाक़या सुनाएँ हम? इजाज़त दें!" बोला वो,
"सुनाएँ! और इजाज़त न मांगें बार बार!" बोला मैं,
"नहीं आलिम साहब! अपने इख़लाक़ कभी नहीं छोड़ने चाहियें! मु'आफ़ी चाहेंगे!" बोला वो,
मैं फिर से मुस्कुराया!
"सुनाएँ!" कहा मैंने,
"हमारे रिश्तेदार हैं, आसिफ़, उन्हें क़ैद किया गया!" बोला वो,
"क़ैद? किसने?" पूछा मैंने,
"एक आलिम ने!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
उसने मुझे जगह बताई,
ये हरियाणा में है जगह,
वो इलाक़ा ऐसा ही है, घर घर आलिम हैं!
ज़िरका बड़ी फ़हद भी वहीँ है!
"फिर?" पूछा मैंने,
"हमारी बात हुई उस से, आलिम से!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसने एक शर्त रखी!" बोला वो,
"कैसी शर्त?" पूछा मैंने,
"कि साल भर, हम उसकी नौकरी करेंगे!" बोला वो,
"ओह.....फिर?" पूछा मैंने,
"हम चाहते तो, कब का मुंह बंद कर देते, लेकिन हमने इल्म की क़द्र रखी! आसिफ़ को छोड़ दिया गया, और साल भर तक, हमने नौकरी की!" बोला वो,
मुझे उस आलिम पर, बेहद गुस्सा आया!

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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Unread post by admin » 12 Nov 2016 12:57

मैंने नाम पूछा, पता पूछा, नहीं बताया!
"फिर?" पूछा मैंने,
"साल बीत गया, लेकिन हमें आज़ाद नहीं किया गया, हम बेहद शिद्दत से, उसका काम करते थे, सिर्फ नेकी का, दूसरे बदी के काम नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"अब जब नहीं आज़ाद किया, तो हमने अपने दम पर ही, उस आलिम से सब खींच लिया, और हम आज़ाद हो गए, जते जाते, उसको हम कुछ दौलत दे आये थे, उसके घर में, और भी लोग थे, ताकि उनका पेट भर सके!" बोला वो,
मैं तो हैरान रह गया!
अपने ईमान का इतना पक्का?
चाहता तो, क़ैद से छुड़ा भी लेता,
और उस आलिम को भी क़ैद कर आता!
इल्म की इज़्ज़त रखी उसने,
नौकरी की उस आलिम की,
नेकी के सभी काम किये!
वाह फ़ैज़ान वाह!
मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया!
वो बेहद खुश हुआ!
उसका ये वाक़या सुनाने का भी एक मक़सद था!
यही, कि जैसे उसने मान रखा उस इल्म का,
ऐसे ही, मैं अपने फ़र्ज़ को आगे रखूं!
दिल को छू गयी उसकी ये बात मेरे!
"आलिम साहब!" बोला वो,
और भी अशुफ़ा आई अंदर,
खाने-पीने का सामान ले आई थी,
ढेर सारा सामान!
फल, शरबत, अलक़श, मिठाइयां आदि आदि!
"लीजिये!" बोला वो,
और कर दिया सामान मेरे आगे!
मैंने फल खाए,
अलक़श खाया,
मिठाई भी खायी,
और वो, दिलक़श आब्शी-शरबत भी पिया!
बेहतरीन था सबकुछ!
उसके बाद, अशुफ़ा आबगीना ले आई,
मैंने हाथ धोये, तो उसने मझे कपड़ा दिया पोंछने के लिए!
पेट भर गया था मेरा! डकार आ गयी थी!
उसने हाथ उठाया अपना,
पढ़ा कुछ, मुस्कुराया,
"इजाज़त दें आलिम साहब?" बोला वो,
मैंने सर आगे कर दिया,
उसने माथा छुआ मेरा,
और अगले ही पल, मेरी आँखें बंद हो गयीं!
और जब खुलीं,
तो नज़ारा ही अलग था!
ये एक हाट थी!
ऊँट खड़े थे वहाँ!
लाल रंग का रेगिस्तान था वो!
चमकदार, लाल रंग!
उस वक़्त हवा नहीं थी,
रेत नहीं उड़ रही थी,
मेरे सर से एक, मुसल्ले की तरह का कपड़ा बंधा था,
मैं भी, क़बीले वाला सा लग रहा था!
लोग आ-जा रहे थे,
बकरियां, मैं-मैं कर रही थीं,
दुम्बे बंधे थे,
उस हाट में,
तरह तरह का सामान था!
बर्तन!
कपड़े!
अन्न! मक्का!
आदि आदि!
तभी मेरी नज़र सामने पड़ी!
क़बीले वाली बनी सुरभि,
फ़ैज़ान का हाथ पकड़े,
एक फल वाले के पास खड़ी थी,
मैं चल पड़ा उस तरफ!
सुरभि ने एक कीनू सा पकड़ा था हाथ में,
हाथ में नहीं,
दोनों हाथों में!
वो इतना बड़ा था कि जैसे छोटा तरबूज लगता था!
लेकिन था वो कीनू ही,
हमारे माल्टा से तीन गुना बड़ा!
उसकी सुगंध आ रही थी, खटास भरी!
दो ले लिए गए थे,
पैसे भी दे दिए गए थे!
फ़ैज़ान ने ही दिए थे!
अब फैजान ने, वो दोनों ही कीनू,
पकड़े, हाथ पकड़ा फ़ैज़ान का सुरभि ने,
और फ़ैज़ान ले चला आगे उसे,
पीछे देखा,
मुझे देखा,
मुस्कुराया,
और मैं उनके पीछे चल पड़ा!
फ़ैज़ान एक जगह रुका,
यहां तम्बू तो नहीं,
हाँ, तीन कनातें लगी थीं,
छत पर भी, कनात लगी थी,
दरी बिछी थी,
उसने अपना कपड़ा बिछाया नीचे,
और बिठा दिया सुरभि को उस पर,
खुद, ऐसे ही बैठ गया!
वो छीलने लगा था कीनू,
अंगूठे और उँगलियों से,
और तभी,
मुझे आवाज़ दी किसी ने,
मैं पीछे घूमा,
ये ह'ईज़ा थी,
एक तश्तरी में, वही कीनू कटे हुए थे,
उसकी फांकों के टुकड़े!
"लीजिये!" बोली वो,
मैंने ले लिया!
"आप भी लीजिये?" कहा मैंने,
"आप लीजिये, आपने लिया, हमने लिया!" बोली वो,
मुस्कुरा कर, मैं भी मुस्कुरा गया!
मैंने एक टुकड़ा उठाया,
खाया,
और जैसे ही मुंह में रखा!
ऐसा स्वाद!
ऐसा स्वाद कि लिख नहीं सकता!
खटास बस, उसकी सुगंध में थी,
ऐसा मीठा,
ऐसा मीठा!
कि उंगलियां चिपक जाएँ!
मेरा तो मुंह भर गया उसके रस से!
और ह'ईज़ा!
खुल के हंसी!
मैं मुंह बंद किये हंसा!
किसी तरह से खाया!
पहला टुकड़ा!
"इसे क्या कहते हैं?" पूछा मैंने,
"ज़ारूज़!" बोला मैं,
"जैसा नाम, वैसा काम!" कहा मैंने,
वो फिर से हंस पड़ी!
मेरे छोटे से मुंह में,
जैसे रसभरा, कोई गुब्बारा फूट जाता था!
मैं मुंह बंद करता,
कि कहीं मुंह से, पिचकारी न छूट जाए बाहर!
मैं ऐसा करता, मुंह बंद करता,
तो ह'ईज़ा खिलखिलाकर हंस पड़ती!
वो फिर से हंसी!
और मैंने तब,
उसके सर पर एक थपक दे दी!
वो और तेज हंसी!
ठीक सामने, वो फ़ैज़ान, उस ज़ारूज़ की फांकों को,
तोड़ तोड़ कर, खिला रहा था सुरभि को अपने हाथों से,
मुंह से रस टपकता,
तो अपने हाथों से पोंछ लेता, और खुद चाट लेता!
बीच बीच में, मुझे देखता, मुस्कुरा कर!
मैं भी मुस्कुरा जाता, उसे देखकर!
तभी पीछे से!!
तभी पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा गया! मेरे मुंह में, वो रस भरा था, मैंने पीछे मुड़कर, देखा, ये ह'ईज़ा ही थी! संजीदगी से, मुझे देख रही थी, चेहरे पर, अलग ही भाव उभरे थे उसके! मैंने सबसे पहले वो रसदार टुकड़ा, हलक़ के नीचे किया, और फिर उसको देखा, और सवाल किया!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
कुछ न बोली,
बस, मुझे नज़रों से दाग़े!
"क्या हुआ?" पूछा फिर से मैंने,
न बोले कुछ,
सिर्फ़, देखे ही देखे! देखे जाए!
पलकें भी न मारे वो तो!
मैंने उसके चेहरे को छुआ,
जैसे जगाया हो उसको, नींद से!
"बताओ ह'ईज़ा?" पूछा मैंने,
"वो देखो सामने!" बोली वो,
मैंने सामने देखा!
सुरभि, फ़ैज़ान की जांघ पर, सर रख, लेट गयी थी,
और फ़ैज़ान, उसको उन फांकों के टुकड़े,
उनके रेशे हटा, खिला रहा था सुरभि को!
सुरभि, जब भी वो टुकड़ा खाती,
फ़ैज़ान के गाल पर चिकोटी भर लेती थी!
खिलखिला कर, हंसने लगती थी!
रस अगर बहता, तो अपने हाथ से साफ़ कर देता वो इसके होंठ और ठुड्डी,
और खुस, चाट लेता था वो रस!
"क्या आपको, ज़रा सा भी एहसास है?" बोली वो,
अब लहजा कड़क हो गया था उसका!
"हाँ! है!" बोला मैं,
"अभी भी, इनको अलहैदा करेंगे?" पूछा उसने,
मैंने ह'ईज़ा की आँखों में देखा!
आँखें फैली हुई थीं!
उसको, सच में, उस लम्हे, गुस्सा आया हुआ था!
"अभी सोच रहा हूँ!" कहा मैंने,
"क्या सोच रहे हैं?" बोली वो,
"कि अलहैदा करूँ, या नहीं?" बोला मैं,
और एक टुकड़ा, फिर से मुंह में सरका लिया अंदर!
फिर से मुंह बंद हुआ मेरा!
गाल फूल गए मेरे!
"क्या करेंगे?" पूछा उसने,
"चल जाएगा पता!" कहा मैंने,
"अभी बताइये?" बोली वो,
"अभी, जांच रहा हूँ!" कहा मैंने,
"बताइये?" बोली वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
एक बहन का अपने भाई के लिए प्यार!
वो जायज़ गुस्सा!
और एक आलिम के सामने, मज़बूरी!
तीनों का सामना कर रही थी ह'ईज़ा!
मैंने आखिरी टुकड़ा भी सरका लिया मुंह में!
मुंह भरा, और ह'ईज़ा में, गुस्सा भरा!
कोई और होता, तो ख़ाक़ हो गया होता!
"सलाम साहब!" आई एक मर्दाना आवाज़!
मैं घूमा पीछे!
अशुफ़ा के संग एक मर्द था!
बेहद सजीला,
काली, करीने से रखी दाढ़ी,
सुनहरे बाल, और हरी आँखें!
लम्बा सा सफ़ेद, ज़रीदार कुर्ता और पायजामा!
लम्बा-चौड़ा जिस्म,
गोरा-चिट्टा और मुस्कुराता हुआ चेहरा!
"सलाम जनाब!" कहा मैंने,
और तब तक, ह'ईज़ा, मेरे हाथ धोने लगी थी!
हाथ धुलवा दिए, और पोंछ भी दिए!
"हम हु'मैद हैं!" बोला वो,
मैं मुस्कुराया उसको देखकर!
"ख़ुशी हुई हु'मैद साहब!" कहा मैंने,
''साहब न कहें आलिम साहब! हम तो क़तरा भी नहीं!" बोला वो,
''आएं, ज़रा उधर आएं!" बोला वो,
उधर, बैठे की जगह थी,
"चलिए!" कहा मैंने,
हम सब चले वहाँ, और आ गए,
"आएं, बैठें आप!" बोला हु'मैद,
मैं बैठ गया उधर, फिर वे सब भी बैठ गए,
सामने, अब दूसरा कीनू, छील रहा था फ़ैज़ान!
बीच बीच में, मुझे देख लेता था!
"आलिम साहब! एक इल्तज़ा है!" बोला वो,
"कहें?" बोला मैं,
"मुहब्बत के फूल को कुचलें नहीं आप, खिलता हुआ ही अच्छा लगता है!" बोला वो,
मैं मुस्कुराया!
"जानता हूँ हु'मैद साहब!" कहा मैंने,
"वो, सुरभि, हम सबकी जान है, टुकड़ा है हमारा!" बोला वो,
अब देखिये!
एक मिट्टी के खिलौने से कितना प्यार!
ये है जिन्नाती फ़ितरत!
जिस से प्यार किया,
उसी के हो गए!
भूल गए अपना वजूद!
अब ऐसे जियें, कि जैसे ग़ुलाम हो गए उसके!
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"मेरी बेटी बराबर है वो! जब हमसे लड़ती है, तो एक अलफ़ाज़ मुंह से नहीं निकलता हमारे! हमें तो डाँट दिया करती है! बेहद अच्छा लगता है!" बोला वो,
"जानता हूँ हु'मैद साहब!" कहा मैंने,
सुरभि!
अब इन्ही जिन्नात की हो कर रह गयी थी!
उसे अब, इंसान कहना था तो बस, जिस्म से,
नहीं तो ज़हनी तौर पर, अब वो, फ़क़त जिन्नी ही थी!
मैंने देखा सुरभि को!
अब वो टुकड़े खिला रही थी फ़ैज़ान को!
रस, पोंछती थी वो,
ठीक वैसे ही, जैसे फ़ैज़ान!
"हु'मैद साहब! होगा वही, सो सही रहेगा! इत्मीनान रखें!" कहा मैंने,
और हम सब, उठे खड़े हुए,
उधर, फ़ैज़ान ने मुझे देखा,
वो भी खड़े हो गए थे,
और जा रहे थे अब,
मैं भी चला उनके पीछे,
और ह'ईज़ा, चली संग मेरे!
कनखियों से देखे मुझे,
कि कहीं मना न कर दूँ संग आने को!
वे चल दिए आगे आगे,
हाट से दूर,
पेड़ों का झुरमुट था वहां,
कोई नख़लिस्तान था वो!
सुरभि, रेत में, दौड़ रही थी!
फ़ैज़ान से आगे निकल जाती,
और हाथों के इशारे से, उसको बुलाती!
जब फ़ैज़ान आता, तो फिर से आगे दौड़ जाती!
फ़ैज़ान ने, पीछे मुड़कर देखा,
और आगे चलता रहा!
सुरभि ने, तब हाथ थाम लिया था फ़ैज़ान का,
उसके कंधों से भी नीचे थी वो!
सर ऊंचा कर देखती थी उसे!
तब फ़ैज़ान, झुक जाता था!
और सुरभि, उसके सीने पर, चूम लेती थी,
उसका माथा, गाल, हाथ, हर जगह चूमती थी उसको!
बेहद प्यार करती थी उसे!
और तभी, फ़ैज़ान ने,
उसको उठा लिया,
भर लिया गोद में!
चिपका लिया अपने से, और सुरभि!
उसके गले में बाजू डाल, लिपट गयी उस से!
वो प्यार में डूबे थे!
मन करता, बस, अभी लौट जाऊं,
जो हो रहा है, होने दूँ! मैं क्यों उस गुनाह में हाथ रंगू?
फिर इंसानी तक़ाज़े और क़ायदे सामने आ खड़े होते थे!
क्या करता मैं?
मैं तो खुद ही लड़ने लगा था अपने आप से,
लड़ रहा था!
दो-फाड़ हो गए थे मेरे!
एक ने मेरी गरदन पकड़ी थी,
और एक ने, मेरा सर!
कुछ समझ न अाये!
क्या करूँ?
क्या फैंसला लूँ?
वे आगे चलते गए!
उतर गयी थी सुरभि उसकी गोद से तब,
और क्या देखा मैंने!
जो देखा, उस से तो मुझ में, एक और कील ठुक गयी उनकी मुहब्बत की!
वहाँ, ढेर पड़ा था!
ढेर, सोने, चांदी और हीरे-जवाहरातों का!
सुरभि के पांवों के नीचे,
अकूत दौलत बिछी थी!
और सुरभि, बिना नज़र डाले उन पर,
चले जा रही थी फ़ैज़ान से संग!
पांवों के नीचे,
वो दौलत,
मिट्टी के जैसे बिछी थी!
लेकिन, सुरभि ने, एक नज़र न डाली!
उसको दौलत नहीं,
फ़ैज़ान की मुहब्बत से वास्ता था!
मेरे मुंह से 'वाह!' निकल गया!
वे आगे चलते रहे,
और मैं अब उस दौलत पर खड़ा था!
ये दौलत,
क्या नहीं दे सकती थी!
क्या नहीं!
सबकुछ!
एक इंसान की सारी ज़रूरतें पूरी कर देती!
लेकिन,
जैसे, पेट भर कर खाओ,
और फिर भूख लग आती है बाद में,
उस हवस, लालच की भूख को तो,
ये दौलत भी नहीं पूरा कर सकती थी!
मेरे पांवों के नीचे,
वो दौलत,
कचर-कचर कर रही थी!
सुरभि और फ़ैज़ान अब, जा बैठे थे एक जगह,
फ़ैज़ान ने, कपड़ा बिछा दिया था उसको बिठाने के लिए,
और सुरभि के पाँव साफ़ कर रहा था!
उसको पांवों में, गुदगुदी होती, तो पकड़ लेती फ़ैज़ान को कस कर!
फ़ैज़ान के घुटनों पर,
सर रख लिया था उसने,
और फ़ैज़ान,
उसके माथे पर हाथ फेर रहा था!
चूम लेता था उसका माथा वो!
और उसके बाल,
सुलझाने लगता था!
कैसा अनूठा प्यार था!
कैसा सच्चा!
बे-खोट!
बे-दाग़!
बे-हवस!
मैं न सिर्फ़ हैरान था,
बल्कि, मन में एक अजीब सी ख़ुशी थी!
हाँ!
उस ख़ुशी में,
कभी-कभार मुझे छेद नज़र आते थे!
छेद,
इंसानी क़ायदों के!
सुरभि के माँ-बाप के आंसूओं के!
अपने फ़र्ज़ के,
एक आलिम के फ़र्ज़ के,
एक इम्तिहान के!
मेरे हाथ में था फैंसला!
लेकिन,
मैं डरता था!
जैसे ठंडी बर्फ़,
कभी इस हाथ,
तो कभी उस हाथ,
बदली जाती है,
ठीक वैसे ही, मेरी सोच,
मेरा फ़र्ज़, कभी इधर, तो कभी उधर!
मेरी बाजू थामी ह'ईज़ा ने,
मैंने देखा तभी उसे!
उसकी आँखों में बसे सवाल,
और ख़्वाहिशें,
सब आँखों में नुमायां थीं!
और तब,
मैंने भी उसकी बाजू पकड़ी!
किया पास उसे, ग़ौर से देखा,

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Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़

Unread post by admin » 12 Nov 2016 12:58

वो, बिना पलकें मारे, मेरी आँखों में, देख, मुझ से, कुछ, कह रही थी!
मैंने वो ज़ुबान पढ़ ली थी, और उसका जवाब तलाश कर, लिखना चाह रहा था,
उसी, ज़ुबान में........
फिर वे दोनों उठे, और सुरभि फ़ैज़ान का हाथ थामे आगे चल दी,
मैं भी चलने को हुआ, तो मेरा हाथ पकड़ लिया ह'ईज़ा ने!
"आप, यहां आएंं!" बोली वो,
और मेरा हाथ पकड़, ले चली एक तरफ,
जहां ले जा रही थी, वहाँ तम्बू लगे थे,
ये लाल और सफेद रंग के थे,
उस रोज़ और लम्हे हवा तो नहीं थी,
लेकिन गरमी का ये आलम था कि,
चमड़ी ही छिल जाए जिस्म की,
मैं बर्दाश्त किये जा रहा था,
और फिर वो मुझे एक तम्बू में ले आई,
तम्बू में आया, तो राहत मिली,
वो सुराही तक गयी,
पानी डाला गिलास में, और ले आई मेरे पास,
मैंने, पानी का गिलास पकड़ा, और पिया पानी!
वापिस किया गिलास,
और तभी बाहर क़दमों की आहट हुई,
रेत को पीछे धकेलते हुए कुछ क़दम बढ़े चले आ रहे थे!
मुहाना उठा, ये फ़ैज़ान था, हाथ में कुछ फल थे उसके,
देखा तो ये अंगूर के दो गुच्छे थे,
वो अंदर आया, तो ह'ईज़ा बाहर चली गयी!
बैठ गया फ़ैज़ान वहीँ मेरे पास,
"लीजिये, आपके लिए लाये हैं!" बोला वो,
मैंने अंगूर लिए,
एक गुच्छा,
हाथ में लिया, तो ये करीब आधा किलो होगा!
एक एक दाना, ऐसा मोटा, कि जैसे, जैसी बड़ी लीची!
मैंने तोड़ा एक दाना, और रखा मुंह में,
रस निकला उसमे से, मुंह भरा मेरा और मिठास?
मिठास ऐसी कि जैसे किलो भर गुड उसमे भर दिया गया हो!
"आलिम साहब!" बोला वो,
"कहें?" बोला मैं,
"हम जानते हैं, फैंसला लेना, आपके लिए भी बेहद मुश्क़िल है!" बोला वो,
मेरे भाव, मेरा झंझावत, सब जान गया था वो!
"लेकिन हम, आपकी तारीफ़ ज़रूर करेंगे, कि आपने हम पर एतबार किया! इसी ऐतबार के खातिर, हम वो भी करेंगे, जो आप कह नहीं पा रहे!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा,
सच में,
मैं कुछ कह नहीं पा रहा था,
कुछ बन ही न पा रहा था,
"हम जानते हैं, आपका पहला सवाल यही है कि हम सुरभि को सभी असरात से आज़ाद कर दें, तो आलिम साहब, एक बात बता दें आपको, सुरभि पर कि भी असरात नहीं हैं!" बोला वो,
ये तो मैं भी जानता था,
उस पर असरात नहीं थे!
उस पर असरात से भी अधिक मौजूद था!
उसका खुद का वो यक़ीन, और वो मुहब्बत!
उसी मुहब्बत की रवानगी की रौ में बहे जा रही थी!
"और आलिम साहब, अब आप दूसरा सवाल सवाल यहीं करेंगे कि, कितने दिन वो अलहैदा रहे हमसे, यही न?" बोला वो,
सच में मेरा दूसरा सवाल यही होता!
जैसे मेरा दिमाग़ पढ़ रहा था वो, हर लम्हे!
"हाँ! यही सवाल था मेरा दूसरा!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया,
"अब आप बताएं!" बोला वो,
"आप एक महीना दें मुझे फ़ैज़ान साहब!" बोला मैं,
"साहब न बोले, आलिम साहब! आपने एक महीना कहा, ठीक, हम दो महीने रुक जाएंगे! लेकिन हमें भी आपसे एक क़ौल की गुज़ारिश है!" बोला वो,
मैं तो मुस्कुरा पड़ा,
एक महीना नहीं, दो महीने!
इतना यक़ीन था अपनी मुहब्बत पर उसे!
इसे कहते हैं, मुहब्बत!
महबूब पर यक़ीन!
"और वो क़ौल?" कहा मैंने,
"जी, क़ौल ये, कि, एक छोटी से ख़्वाहिश है आपसे, वो ये, कि उनकी आँखों में, कोई आंसू न आये, सच में, हमने क़ौल दिया है उन्हें!" बोला वो,
हाँ! उसने क़ौल दिया था!
वो नहीं रोने देगा उसे!
चाहे कुछ भी हो!
चाहे कुछ भी करना पड़े!
"फ़ैज़ान!" कहा मैंने,
"जब उस से हर चीज़ हटा ली जाएगी, तो उसको, अपनी तड़प में, रोना तो आएगा ही, तब कैसे होगी?" बोला मैं,
"उनके, जिनसे ख़ून के रिश्ते हैं, वो इस क़ौल में शामिल नहीं हैं, आखिर, उनका हक़ है पूरा, माँ-बाप का पूरा हक़ है, भाई का, भाइयों का, सभी का, बुज़ुर्गों की इज़्ज़त ज़रूर करनी चाहिए, आप यक़ीन मानें, हमनें यही समझाया है उन्हें, कई बार!" बोला वो,
मैं तो बार बार हैरान होता था!
कितने शानदार इख़लाक़ हैं उसके!
फ़ैज़ान जैसा इंसान, आज तो मिलना ही मुश्क़िल है!
इंसान! हाँ, इंसान कहा मैंने!
ऐसी इख़लाक़ होना आज के ज़माने में,
मिला बेहद मुश्क़िल है! ना-मुमकिन सा!
"हमारा क़ौल बाहर वालों से है! उनको, ना-हक़ परेशान किया गया, तो हमसे बर्दाश्त नहीं होगा!" बोला वो,
"समझता हूँ!" कहा मैंने,
"तो आलिम साहब!" बोला वो,
"कहें?" बोला मैं,
"वो वक़्त अभी से शुरू होता है!" बोला वो,
और रखा मेरे सर पर हाथ,
मुझसे पूछकर ही!
और छाया अँधेरा!
खुली आँखें मेरी!
मैं कुर्सी पर बैठा था!
बिस्तर पर सुरभि लेटी थी!
शांत, बेसुध सी!
मैंने घड़ी देखी तभी!
चार घंटे बीत चुके थे!
मैं खड़ा हुआ, और चला बाहर!
जैसे ही दूसरे कमरे में आया, सभी खड़े हो गए थे!
मैं बैठा तब, पानी मंगवाया, पिया,
और तब, मैंने उन सभी को,
सारी बातें बतलाना शुरू किया!
मैं बताता गया और वो जैसे झुकते से चले गए,
आंसू निकलने लगे,
सुरभि की माता जी, तो लेट ही गयीं थीं,
पिता जी, फफ़क-फफ़क कर रोने लगे थे!
साथ बैठे भी, आंसू बहा रहे थे!
और मैं, एक पत्थर की तरह से बैठा था!
बस, मेरा मुंह ही चल रहा था!
मैंने उन्हें,
शुरू से लेकर, आखिर तक का,
सारा क़िस्सा-ओ-हाल सुना दिया!
उनके लिए, ये पहाड़ टूटने से कम न था!
ये मैं भी समझता था,
फ़ैज़ान की सारी अच्छाइयां, सोच और इख़लाक़ सब,
बता दिए थे उन्हें, लेकिन वो फ़ैज़ान उनके लिए,
इस दुनिया से बाहर का था!
शर्मा जी ने, संयत किया उन्हें,
समझाया, बहलाया, और उंच-नीच भी बताई,
"अब आपकी रजा है, चाहें तो किसी और को भी ला सकते हैं!" बोला मैं,
किसी और, मायने कोई दूसरा आलिम!
वे अब कुछ समझने के स्थिति में न थे!
बस, मुझसे ही आस बांधे रहे वे सब!
अब मैंने उनको समझाया कि,
दो महीने हैं उनके पास,
वे कोशिश करें, अपने लिहाज से, कि मन बदल सकें,
फ़ैज़ान से न डरें! वो ऐसा नहीं है!
तभी सुरभि चली आई वहां!
मुझे घूर के देखा,
आँखों में गुस्सा भर आया उसके,
और एक झटके से ही, उसने मेरा गिरेबान पकड़ लिया!
जैसे ही हाथ छोड़ने को हुई,
उसको पकड़ लिया उन लोगों ने,
वो मुझे गालियां देती रही!
मुझे एक दो बार, बेहद बुरा भी कहा,
मेरे घुटने में, दो बार लात भी मारी,
मैं जानता था उसकी हालत, अब वाक़िफ़ हो चुकी थी वो,
इसीलिए, मैंने कोई विरोध नहीं किया उसका!
और फिर, बुक्का फाड़, रोने लगी!
चिल्लाने लगी, 'फ़ैज़ान! फ़ैज़ान!'
उसने वो शाम,
ऐसे ही बिता दी!
रोते हुए!
बार बार, कुछ न कुछ उठकर फेंक देती थी मुझ पर!
उसने एक शीतल-पेय की बोतल फेंक मारी मेरे ऊपर!
मेरे हाथ में लगी वो,
और मेरा नाख़ून, आधा उखड़ गया तभी!
अब उसकी यही हालत होनी थी!
मैं जानता था!
उस शाम, हम लौट आये अपने स्थान पर वापिस,
रास्ते में से, चिकित्सक को दिखा दिया था,
आधा, छिला नाख़ून काट दिया गया था,
और पट्टी बाँध दी गयी थी,
दवा दे दी थी,
शर्मा जी, उस रात वहीँ ठहरे!
अगले दिन हम दोनों वापिस हुए,
दोपहर में वे चले गए,
और मैं अपने कक्ष में लेटा था!
मुझे एक तेज महक आई!
जानता था कि,
ये आमद है किसी की!
मैंने दरवाज़ा, खिड़की बंद कर दिए!
और उसके बाद,
एक हवा के से झोंके के साथ,
ह'ईज़ा हाज़िर हुई!
लाचार सी,
परेशान सी,
"आओ ह'ईज़ा!" कहा मैंने,
वो न बोले कुछ!
बस देखे जाए!
"मैंने कोई गुनाह नहीं किया!" कह मैंने,
चुप!
मुझे देखे!
"फ़ैज़ान कैसे हैं?" पूछा मैंने,
न बोले कुछ!
मैं आगे बढ़ा उसके पास,
उसको देखा, तो आँखों में, सवाल ही सवाल तैर रहे थे!
"हाँ ह'ईज़ा?" बोला मैं,
"फ़ैज़ान भाई के हालत नहीं देखी जाती हमसे........." बोली वो,
आवाज़ में, हल्कापन था, आवाज़ में, दुःख था, मज़बूरी सी,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"अकेले हैं बेहद, न किसी से बात, न किसी से मिलना, न किसी से बात, सुरभि के क़दमों के तले की रेत, हाथों से छानते रहते हैं........." बोली वो,
समझ सकता था मैं,
फ़ैज़ान ने तो साढ़े चार साल बेपनाह मुहब्बत की थी सुरभि से!
अब देखिये मज़बूरी!
अब पास सुरभि नहीं!
और खुद सुरभि के पास नहीं!
दो महीने तो अब अकेला ही रहना था!
फ़ैज़ान की हालत, जानी जा सकती थी!

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