वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इश्क़
Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ
हांफने लगी थी वो! दिल, ऐसा धड़के, जैसे अभी, पसलियां फाड़, बाहर आ जायेगा!
अपने कानों से भी धड़कन सुनाई पड़ रही थी उसे!
पसीने से तर-बतर हो चली थी उस वक़्त वो!
पेशानी पर पसीना छलछला गया था!
गरदन से बहता पसीन, राह ढूंढ रहा था!
ठुड्डी पर पसीना, टप-टप टपके जा रहा था!
उसने तभी साँसों को क़ाबू करने के लिए,
लम्बी लम्बी साँसें भरीं! कुछ धड़कन अब क़ाबू आयीं!
पसीना , चादर से पोंछ लिया था! वो बैठ गयी!
दीवार से कमर सटा ली,
घुटने ऊपर मोड़ लिए! और हाथ रख उन पर,
अपना सर टिका लिया!
ह'ईज़ा के वो अलफ़ाज़, वो आतशी अलफ़ाज़ उसके कानों में,
अभी तक गूँज रहे थे!
मुहब्बत!
मुहब्बत करते हैं फ़ैज़ान सुरभि से!
इंतिहाई मुहब्बत!
इस से पहले, इस लफ्ज़ से साबक़ा, न पड़ा था उसका!
सुना था, कुछ कहानियां पढ़ीं थीं, कुछ फ़िल्में देखी थीं, बस,
लेकिन हक़ीक़त की ज़िंदगी में, इस लफ्ज़ से कभी पेश आना न हुआ था उसका!
दिल की धड़कन, फिर से रफ़्तार पकड़ने लगी!
वो आतशी अलफ़ाज़, फिर से गूंजे!
ये क्या कह दिया ह'ईज़ा ने?
कहाँ फ़ैज़ान, और कहाँ वो?
फ़ैज़ान की हैसियत के आगे,
भला वो है क्या?
वो बाग़, वो ज़ायदाद, वो इमारतें!
और वो खुद फ़ैज़ान! कौन होगी वो जो,
दामन न थामेगी उसका? एक से बढ़कर एक!
इंसान थी, इंसानी तक़ाज़े आड़े आ ही जाने थे, तो आ गए!
घड़ी का अलार्म बजा,
छह बज गए थे!
अलार्म बजे ही जा रहा था!
काफी देर हुई, वो उठी,
बंद किया अलार्म,
खिड़की तक गयी, बाहर देखा,
सुबह की आमद से, ज़मीनी लोग, अपने अपने कामों में लग गए थे!
परिंदे, सुबह का गा-गा कर, ख़ैर-मक़्दम कर रहे थे!
सुहानी सुबह थी वो!
बंद कर दी खिड़की उसने,
ढक दिया पर्दा उसने,
और चली गुसलखाने,
धीरे से, बाल्टी में झाँका,
कोई फूल नहीं था, वो झुकी,
बैठी, उठाया मग उसमे से,
फिर देखा, कोई फूल नहीं!
आसपास देखा, बाल्टी के नीचे देखा,
कोई फूल नहीं था!
आज फ़ैज़ान, नहीं आया था! वो रुक गया था!
उसमे सब्र था, और सब्र के इम्तिहान से ही गुजरवा रहा था,
अपनी आदमजात महबूबा को!
क़ाबिल होते हुए भी रुकना, थम जाना,
यक़ीनन सब्र ही था उस जिन्न फ़ैज़ान के लिए!
नहीं तो, इस लम्हे में क्या और उस लम्हे में क्या!
तो कोई फूल नहीं मिला था उसे,
आज ज़रा, संजीदा थी वो,
संजीदा, जानो कि कैसे!
अपने आपको ही टटोल रही थी,
नाप-तोल चल रही थी,
तोला-माशा जांचा जा रहा था!
रत्ती भर इधर, या उधर खिसके,
तो सब खत्म!
तो कसौटी-जांच थी ये!
इसी को मैंने, संजीदा लिखा!
उसने स्नान किया, वस्त्र पहने, और केश संवार, हुई तैयार,
उठाया अपना ज़रूरी सामान! उठाया बैग,
और चल पड़ी बाहर,
मम्मी-पापा से मिली, कुणाल से मिली,
"सुरभि?" बोली माँ,
"हाँ मम्मी?" बोली वो,
"नीरज का रिश्ता पक्का हुआ था न? अब इस सोलह की सगाई है!" बोली माँ,
"अच्छा!" बोली वो,
बस इतना ही कहा,
ये न कहा, कि ये चाहिए और वो चाहिए,
जैसा कि अक्सर ही, कहा करती थी वो!
संजीदा!
इसीलिए लिखा मैंने!
चाय-नाश्ता किया उसने, चुपचाप,
खाना रखा बैग में, और उनको बता, घर से निकल पड़ी,
ली सवारी, और जा पहुंची कक्षा,
रास्ते भर, वही अलफ़ाज़, गूंजते रहे कानों में,
पीछा ही न छोड़ा उसका!
यातायात का शोर, चिल्ल-पों, कुछ सुनाई नहीं दिया!
कक्षा में जा पहुंची,
बैठी, अपनी सखाओं के संग,
आज सिर्फ देखा उन्हें,
बात न की,
कोई भी, कैसी भी,
कामना और पारुल समझ गयीं कि आज मामला संजीदा है कुछ!
शायद, मम्मी या पापा से कोई बात हुई है!
वे भी चुप्पी साधे रहीं!
दोपहर में,
किया भोजन कैंटीन में,
"क्या बात है सुरभि?" पूछा कामना ने,
"कुछ नहीं" बोली वो,
"हमें नहीं बताएगी?" बोली कामना,
"कुछ नहीं है" बोली वो,
"कुछ तो है ही!" बोली पारुल,
खिड़की से बाहर झाँका उसने,
आज कोई फूल नहीं!
कुछ न बोली किसी से भी,
हाथ में पेन, और खुली डायरी!
बाहर देखे जाए,
वे अलफ़ाज़, कानों में गूंजे जाएँ,
वो आँखें बंद करे,
फिर खोले,
और वे दोनों, उसे देखे ही जाएँ!
"ये क्या लिखा तूने?" बोली पारुल,
अब झटके से देखा सुरभि ने!
डायरी पर, पेन से, अंग्रेजी में, फ़ैज़ान लिख दिया था!
इस से पहले कि वो देखतीं,
एक झटके से, डीरय बंद कर दी उसने!
पारुल और कामना, खूब चिल्लाती रही,
गुस्सा करती रहीं!
गिड़गिड़ाती रहीं!
लेकिन, न दिखाया उसने!
करीब साढ़े तीन बजे,
वो वापिस हुई,
चौराहा पार किया,
और ले ली सवारी,
चल पड़ी घर वापिस,
आज पहला दिन था उसकी ज़िंदगी का,
जब उसके होंठ, संजीदगी ने सील डाले थे!
नहीं तो,
हंसना, मुस्कुराना, आम बात थी सुरभि के लिए!
रास्ते में,
वही डायरी खोली उसने,
फ़ैज़ान लिखा था!
उसने छुआ उसे ऊँगली से,
पेन निकाला,
और उसको ढांपने के लिए,
जैसे ही पेन छुआया,
हाथ न चला!
उंगलियां, जैसे हरक़त ने करें,
हाथ जैसे, हरक़त से बाज आये!
उसने फिर से कोशिश की,
और फिर से वही!
बंद कर दिया पेन!
रख लिया वापिस,
और डायरी के सफ़े के उस हिस्से को,
फाड़ना चाहा,
बड़ी हिम्मत की!
और फाड़ लिया!
अब हाथ में था वो हिस्सा!
बाहर झाँका,
और फेंकने के लिए,
निकाला हाथ बाहर उसने,
कई बार कोशिश की,
और एक में, सफल हो गयी!
फेंक दिया वो हिस्सा!
वो हिस्सा,
किए पंख की तरह,
उड़ चला,
उसने पीछे मुड़के देखा!
सड़क के बाएं गिरा था!
"रुकना भैया?" बोली तेज उस सवारी वाले से!
चालक ने, आहिस्ता से, एक तरफ रोक दिया वाहन,
वो दौड़ी,
भागी तेज तेज!
वो हिस्सा,
वहीँ पड़ा था!
लोगबाग गुजरते थे पैदल वहां से,
पांवों के नीचे खुन्दता वो!
दिल में टीस सी उठ गयी थी उसके!
उठाया वो हिस्सा,
और कर लिया मुट्ठी में बंद!
चली वापिस!
और वाहन, चला फिर से आगे!
एक ना-वजूद काग़ज़!
महज़ एक काग़ज़!
फ़क़त एक काग़ज़ के मामूली हिस्से ने,
जिसका कोई वजन भी मायने नहीं रखता था,
उस सुरभि को ही रोक दिया था!
अब इसे मैं क्या कहूँ?
उसने हाथ खोला अपना!
वो हिस्सा,
वो ना-वजूद काग़ज़,
मुड़-तुड गया था!
अपनी उँगलियों से,
सीधा किया उसे,
और फिर, समतल!
फ़ैज़ान लिखा था!
उस हिस्से को,
रख लिया डायरी में उसने!
और इस तरह अपने घर आ पहुंची सुरभि!
घर आई,
तो अपना सामान रखा,
हाथ-मुंह धोये,
फ्रिज में से, पानी पिया,
अपने कमरे में आई,
उसके लिए, कामवाली ने चाय चढ़ा दी थी,
आई अपने कमरे में,
बैठी, वस्त्र बदले अपने,
सामान करीने से रखा,
चाय आ गयी, संग कुछ खाने को भी,
चाय पी, संग खाया भी,
और बर्तन वापिस कर आई वो,
आई अंदर कमरे में,
उठायी अपनी डायरी,
और निकाला वो, मुड़ा-तुड़ा हिस्सा!
ना-वजूद काग़ज़ का,
बेहद मामूली हिस्सा!
मामूली!
हाँ, बेहद मामूली!
लेकिन, आज दिल में उसके,
टीस उठा दी थी इस मामूली से हिस्से ने!
अब ग़ौर से देखा वो हिस्सा!
अपने कानों से भी धड़कन सुनाई पड़ रही थी उसे!
पसीने से तर-बतर हो चली थी उस वक़्त वो!
पेशानी पर पसीना छलछला गया था!
गरदन से बहता पसीन, राह ढूंढ रहा था!
ठुड्डी पर पसीना, टप-टप टपके जा रहा था!
उसने तभी साँसों को क़ाबू करने के लिए,
लम्बी लम्बी साँसें भरीं! कुछ धड़कन अब क़ाबू आयीं!
पसीना , चादर से पोंछ लिया था! वो बैठ गयी!
दीवार से कमर सटा ली,
घुटने ऊपर मोड़ लिए! और हाथ रख उन पर,
अपना सर टिका लिया!
ह'ईज़ा के वो अलफ़ाज़, वो आतशी अलफ़ाज़ उसके कानों में,
अभी तक गूँज रहे थे!
मुहब्बत!
मुहब्बत करते हैं फ़ैज़ान सुरभि से!
इंतिहाई मुहब्बत!
इस से पहले, इस लफ्ज़ से साबक़ा, न पड़ा था उसका!
सुना था, कुछ कहानियां पढ़ीं थीं, कुछ फ़िल्में देखी थीं, बस,
लेकिन हक़ीक़त की ज़िंदगी में, इस लफ्ज़ से कभी पेश आना न हुआ था उसका!
दिल की धड़कन, फिर से रफ़्तार पकड़ने लगी!
वो आतशी अलफ़ाज़, फिर से गूंजे!
ये क्या कह दिया ह'ईज़ा ने?
कहाँ फ़ैज़ान, और कहाँ वो?
फ़ैज़ान की हैसियत के आगे,
भला वो है क्या?
वो बाग़, वो ज़ायदाद, वो इमारतें!
और वो खुद फ़ैज़ान! कौन होगी वो जो,
दामन न थामेगी उसका? एक से बढ़कर एक!
इंसान थी, इंसानी तक़ाज़े आड़े आ ही जाने थे, तो आ गए!
घड़ी का अलार्म बजा,
छह बज गए थे!
अलार्म बजे ही जा रहा था!
काफी देर हुई, वो उठी,
बंद किया अलार्म,
खिड़की तक गयी, बाहर देखा,
सुबह की आमद से, ज़मीनी लोग, अपने अपने कामों में लग गए थे!
परिंदे, सुबह का गा-गा कर, ख़ैर-मक़्दम कर रहे थे!
सुहानी सुबह थी वो!
बंद कर दी खिड़की उसने,
ढक दिया पर्दा उसने,
और चली गुसलखाने,
धीरे से, बाल्टी में झाँका,
कोई फूल नहीं था, वो झुकी,
बैठी, उठाया मग उसमे से,
फिर देखा, कोई फूल नहीं!
आसपास देखा, बाल्टी के नीचे देखा,
कोई फूल नहीं था!
आज फ़ैज़ान, नहीं आया था! वो रुक गया था!
उसमे सब्र था, और सब्र के इम्तिहान से ही गुजरवा रहा था,
अपनी आदमजात महबूबा को!
क़ाबिल होते हुए भी रुकना, थम जाना,
यक़ीनन सब्र ही था उस जिन्न फ़ैज़ान के लिए!
नहीं तो, इस लम्हे में क्या और उस लम्हे में क्या!
तो कोई फूल नहीं मिला था उसे,
आज ज़रा, संजीदा थी वो,
संजीदा, जानो कि कैसे!
अपने आपको ही टटोल रही थी,
नाप-तोल चल रही थी,
तोला-माशा जांचा जा रहा था!
रत्ती भर इधर, या उधर खिसके,
तो सब खत्म!
तो कसौटी-जांच थी ये!
इसी को मैंने, संजीदा लिखा!
उसने स्नान किया, वस्त्र पहने, और केश संवार, हुई तैयार,
उठाया अपना ज़रूरी सामान! उठाया बैग,
और चल पड़ी बाहर,
मम्मी-पापा से मिली, कुणाल से मिली,
"सुरभि?" बोली माँ,
"हाँ मम्मी?" बोली वो,
"नीरज का रिश्ता पक्का हुआ था न? अब इस सोलह की सगाई है!" बोली माँ,
"अच्छा!" बोली वो,
बस इतना ही कहा,
ये न कहा, कि ये चाहिए और वो चाहिए,
जैसा कि अक्सर ही, कहा करती थी वो!
संजीदा!
इसीलिए लिखा मैंने!
चाय-नाश्ता किया उसने, चुपचाप,
खाना रखा बैग में, और उनको बता, घर से निकल पड़ी,
ली सवारी, और जा पहुंची कक्षा,
रास्ते भर, वही अलफ़ाज़, गूंजते रहे कानों में,
पीछा ही न छोड़ा उसका!
यातायात का शोर, चिल्ल-पों, कुछ सुनाई नहीं दिया!
कक्षा में जा पहुंची,
बैठी, अपनी सखाओं के संग,
आज सिर्फ देखा उन्हें,
बात न की,
कोई भी, कैसी भी,
कामना और पारुल समझ गयीं कि आज मामला संजीदा है कुछ!
शायद, मम्मी या पापा से कोई बात हुई है!
वे भी चुप्पी साधे रहीं!
दोपहर में,
किया भोजन कैंटीन में,
"क्या बात है सुरभि?" पूछा कामना ने,
"कुछ नहीं" बोली वो,
"हमें नहीं बताएगी?" बोली कामना,
"कुछ नहीं है" बोली वो,
"कुछ तो है ही!" बोली पारुल,
खिड़की से बाहर झाँका उसने,
आज कोई फूल नहीं!
कुछ न बोली किसी से भी,
हाथ में पेन, और खुली डायरी!
बाहर देखे जाए,
वे अलफ़ाज़, कानों में गूंजे जाएँ,
वो आँखें बंद करे,
फिर खोले,
और वे दोनों, उसे देखे ही जाएँ!
"ये क्या लिखा तूने?" बोली पारुल,
अब झटके से देखा सुरभि ने!
डायरी पर, पेन से, अंग्रेजी में, फ़ैज़ान लिख दिया था!
इस से पहले कि वो देखतीं,
एक झटके से, डीरय बंद कर दी उसने!
पारुल और कामना, खूब चिल्लाती रही,
गुस्सा करती रहीं!
गिड़गिड़ाती रहीं!
लेकिन, न दिखाया उसने!
करीब साढ़े तीन बजे,
वो वापिस हुई,
चौराहा पार किया,
और ले ली सवारी,
चल पड़ी घर वापिस,
आज पहला दिन था उसकी ज़िंदगी का,
जब उसके होंठ, संजीदगी ने सील डाले थे!
नहीं तो,
हंसना, मुस्कुराना, आम बात थी सुरभि के लिए!
रास्ते में,
वही डायरी खोली उसने,
फ़ैज़ान लिखा था!
उसने छुआ उसे ऊँगली से,
पेन निकाला,
और उसको ढांपने के लिए,
जैसे ही पेन छुआया,
हाथ न चला!
उंगलियां, जैसे हरक़त ने करें,
हाथ जैसे, हरक़त से बाज आये!
उसने फिर से कोशिश की,
और फिर से वही!
बंद कर दिया पेन!
रख लिया वापिस,
और डायरी के सफ़े के उस हिस्से को,
फाड़ना चाहा,
बड़ी हिम्मत की!
और फाड़ लिया!
अब हाथ में था वो हिस्सा!
बाहर झाँका,
और फेंकने के लिए,
निकाला हाथ बाहर उसने,
कई बार कोशिश की,
और एक में, सफल हो गयी!
फेंक दिया वो हिस्सा!
वो हिस्सा,
किए पंख की तरह,
उड़ चला,
उसने पीछे मुड़के देखा!
सड़क के बाएं गिरा था!
"रुकना भैया?" बोली तेज उस सवारी वाले से!
चालक ने, आहिस्ता से, एक तरफ रोक दिया वाहन,
वो दौड़ी,
भागी तेज तेज!
वो हिस्सा,
वहीँ पड़ा था!
लोगबाग गुजरते थे पैदल वहां से,
पांवों के नीचे खुन्दता वो!
दिल में टीस सी उठ गयी थी उसके!
उठाया वो हिस्सा,
और कर लिया मुट्ठी में बंद!
चली वापिस!
और वाहन, चला फिर से आगे!
एक ना-वजूद काग़ज़!
महज़ एक काग़ज़!
फ़क़त एक काग़ज़ के मामूली हिस्से ने,
जिसका कोई वजन भी मायने नहीं रखता था,
उस सुरभि को ही रोक दिया था!
अब इसे मैं क्या कहूँ?
उसने हाथ खोला अपना!
वो हिस्सा,
वो ना-वजूद काग़ज़,
मुड़-तुड गया था!
अपनी उँगलियों से,
सीधा किया उसे,
और फिर, समतल!
फ़ैज़ान लिखा था!
उस हिस्से को,
रख लिया डायरी में उसने!
और इस तरह अपने घर आ पहुंची सुरभि!
घर आई,
तो अपना सामान रखा,
हाथ-मुंह धोये,
फ्रिज में से, पानी पिया,
अपने कमरे में आई,
उसके लिए, कामवाली ने चाय चढ़ा दी थी,
आई अपने कमरे में,
बैठी, वस्त्र बदले अपने,
सामान करीने से रखा,
चाय आ गयी, संग कुछ खाने को भी,
चाय पी, संग खाया भी,
और बर्तन वापिस कर आई वो,
आई अंदर कमरे में,
उठायी अपनी डायरी,
और निकाला वो, मुड़ा-तुड़ा हिस्सा!
ना-वजूद काग़ज़ का,
बेहद मामूली हिस्सा!
मामूली!
हाँ, बेहद मामूली!
लेकिन, आज दिल में उसके,
टीस उठा दी थी इस मामूली से हिस्से ने!
अब ग़ौर से देखा वो हिस्सा!
Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ
काग़ज़ के उस हिस्से पर, फ़ैज़ान ही लिखा था,
दिल में चल रही कशमकश, हाथ के ज़रिये,
काग़ज़ पर उतर आई थी!
और उसे कुछ मालूम भी न पड़ा!
ऐसा ही होता है कई बार,
कई बार जैसा सुरभि के साथ हुआ, हो जाता है,
या मुंह से कुछ अनचाहे अलफ़ाज़ ज़ुबान के रास्ते बाहर आ जाते हैं!
ये ज़हनी-कशमकश का नतीजा हुआ करता है!
जब एक गहरी सोच,
दो पाटों के बीच में, पिस रही होती है,
एक पाट दिमाग़ का और,
एक पाट दिल का!
और वो सोच, लगातार,
पिसती ही रहती है,
जब तक, एक पाट रुक नहीं जाता,
या तो दिमाग़ का पाट रुके,
या फिर दिल का!
यही कशमकश, उस वक़्त सुरभि के ज़हन से निकल,
दिल में उतरी,
और फिर हाथ के ज़रिये डायरी के उस सफ़े पर, दर्ज़ हो गयी!
ये हुआ क्या था उसे?
दिमाग़ कहाँ था और दिल कहाँ?
सोच कहाँ और आँखें कहाँ?
वो सोचती रही, और रख दिया वो हिस्सा,
वापिस उसी डायरी में, बीच में,
उठी वो, और जा लेटी बिस्तर पर,
खिड़की से बाहर झाँका,
नीला आसमान और सफेद बादल!
पल पल नयी नयी शक़्ल अख़्तियार करते थे वो!
उन्ही को देख रही थी वो,
करवट ली, नज़रें वहीँ टिकी रहीं,
आँखें बंद हुईं उसकी,
कुछ ही पलों में,
आँखें हुईं भारी, और गयी नींद के आग़ोश में!
सपना चला आया पीछे पीछे,
आज वो किसी सहरा के बीच लगने वाले हाट में थी!
लोगों ने, अपने बदन को, पूरा ढक रखा था,
क़िस्म क़िस्म की चीज़ें थीं वहाँ,
फल, मसाले, मिठाइयां, बर्तन, रस्सियाँ, देग़ आदि,
रोज़मर्रा की सारी चीज़ें वहां बिक रही थीं,
ये एक पखवाड़े में एक बार लगने वाली हाट थी!
वो अकेली खड़ी थी,
एक जगह, उसके बाएं एक औरत बैठी थी,
उसने एक कपड़ा बिछाया हुआ था, कपड़े पर,
कुछ कपड़े रखे हुए थे, छोटे से लकर, बड़ों तक के,
भाषा जो बोली जा रही थी, वो समझ न आई उसे!
उस औरत ने, उसको देखा, उठी वो,
उम्र में कोई पचास की रही होगी,
आई उसके पास,
"कहाँ से आई हो बेटी?" पूछा उस औरत ने,
"मैं?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ बेटी, अकेली हो न, इसीलिए पूछा!" बोली वो औरत,
"मैं, वो बे'दु'ईं क़बीले से आई हूँ, हु'मैद साहब वाले!" बोली वो,
"वो, फ़ैज़ान वाले?" पूछा उसने!
अब हैरान वो!
ये सब क्या?
कैसे मालूम?
"हाँ!" बोली वो,
"आओ, आओ मेरे साथ बेटी!" बोली वो,
और उसने, अपनी बेटी को आवाज़ दी,
उसकी बेटी आई, सुरभि को सलाम किया,
अपनी बेटी को बिठा दिया वहां, और ले चली सुरभि को संग अपने,
ले आई एक छोटे से तम्बू में,
"पानी पियोगी बेटी?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोली वो,
उस औरत ने, सुराही से, पानी निकाला,
एक कटोरी साफ़ की, डाला पानी उसमे,
और दे दिया सुरभि को,
सुरभि ने, पानी पिया और वापिस किया गिलास!
वो जगह बेहद ही खूबसूरत लगी उसको!
लम्बे लम्बे खजूर के पेड़,
देहाती से, क़बीले के लोग!
सामान खरीदते हुए औरतें और लड़कियां!
"ये कौन सी जगह है?" पूछा सुरभि ने,
"ये, मरीब है! यमन में हो आप बेटी!" बोली वो औरत!
मरीब! यमन!
प्रसिद्ध जगह है ये!
इतिहास में प्रसिद्ध रानी साहिब, शीबा, यहीं की थीं!
राजा सुलेमान से कई सवालात किये थे उसने!
और सुलेमान ने, सारे जवाब सही दिए थे!
यही है वो मरीब!
यहीं थी वो सुरभि उस जगह!
ऊँट गुजरे तभी वहीँ से,
गले में पड़ीं घंटियाँ बज उठीं!
उनके गले में टंगे, सामान के बड़े बड़े थैले,
अब उतारे जा रहे थे!
"ये लो!" बोली वो,
हाथ आगे किया सुरभि ने,
और उस औरत ने, एक मुट्ठी, अलक़श रख दिया उसके हाथ में!
अलक़श देखा, तो कुछ याद आया!
"वो अशुफ़ा कहाँ होंगी?" पूछा उसने!
''दूर है वो!" बोली वो औरत!
"कहाँ दूर?" पूछा उसने,
"यहाँ से दो रात दूर!" बोली वो औरत!
दो रात! अड़तालीस घंटे!
"मैं कैसे ढूँढूँ?" पूछा उसने,
"नहीं ढूंढ पाओगी अब!" बोली वो,
अब?
क्या मतलब?
हैरान सी हो गयी वो ये सुनकर!
"अब? मतलब?" बोली वो,
"फ़ैज़ान दूर चले गए हैं! महीना भर लगेगा बेटी!" बोली वो,
उसने सुना जैसे ही,
घुटने जैसे जवाब देने लगे!
नीचे झुकी और बैठ गयी!
और तभी,
आँख खुल गयी उसकी!
हड़बड़ा के उठी!
बत्ती जलायी,
घड़ी देखी,
सात बजे थे उस समय!
बाहर, खिड़की से देखा, तो शाम का रंग बिखरने लगा था!
खिड़की खोल दी उसने,
कुर्सी खींची,
और बैठ गयी,
चौखट पर, हाथ टिका, सर रख लिया,
महीना भर?
कहाँ गए वो सब?
महीना भर,
नहीं मिल पाएगी वो?
ऐसा क्या हुआ?
मैंने तो, जहां तक याद है,
कुछ नहीं किया,
क्या कोई गलती हुई?
फिर,
ये महीना भर?
इसे ही कहते हैं सुरभि, अकेलापन!
सब साथ हैं,
घर में ही!
पहले की तरह!
फिर भी अकेली?
क्यों?
किसलिए?
क्या बात हुई?
कैसा अकेलापन?
उठाया सर,
और लगाई पीठ पीछे कुर्सी से!
एक महीना!
वो बाग़,
वो दोनों!
और वो, फ़ैज़ान,
उठ गयी कुर्सी से,
कमरे में, अकेलापन,
काटने को दौड़े!
चली बाहर,
और चली छत की तरफ,
पहुंची छत पर,
जा लेटी उस पलंग पर!
आकाश को देखा,
चाँद, थे तो सही, लेकिन धुंधले से,
आज बदली ने ढका था उन्हें,
जी किया, की हाथ से हटा दे वो बदली!
और वो ढीठ बदली,
वो भी जैसे, बातें कर रही थी उनसे!
हट ही नहीं रही थी!
और दूसरी वाली,
वो भी दौड़ी चली आ रही थी,
पहली वाली से मिलने!
वो देखती रही!
कभी-कभार, चाँद, नज़रें चुरा उस बदली से,
देख लिया करते थे सुरभि को!
उन्हें पता था कि,
कोई अहम संदेसा है सुरभि का,
जो ले जाना है उन्हें!
वो घूरती रही चाँद को!
और वो बदली, दूसरी वाली भी,
आ मिली पहले वाली से,
अब तो और धुंधले हो गए चाँद,
और इधर,
सुरभि के दिल में भी, बदली छाने लगीं!
दिल में चल रही कशमकश, हाथ के ज़रिये,
काग़ज़ पर उतर आई थी!
और उसे कुछ मालूम भी न पड़ा!
ऐसा ही होता है कई बार,
कई बार जैसा सुरभि के साथ हुआ, हो जाता है,
या मुंह से कुछ अनचाहे अलफ़ाज़ ज़ुबान के रास्ते बाहर आ जाते हैं!
ये ज़हनी-कशमकश का नतीजा हुआ करता है!
जब एक गहरी सोच,
दो पाटों के बीच में, पिस रही होती है,
एक पाट दिमाग़ का और,
एक पाट दिल का!
और वो सोच, लगातार,
पिसती ही रहती है,
जब तक, एक पाट रुक नहीं जाता,
या तो दिमाग़ का पाट रुके,
या फिर दिल का!
यही कशमकश, उस वक़्त सुरभि के ज़हन से निकल,
दिल में उतरी,
और फिर हाथ के ज़रिये डायरी के उस सफ़े पर, दर्ज़ हो गयी!
ये हुआ क्या था उसे?
दिमाग़ कहाँ था और दिल कहाँ?
सोच कहाँ और आँखें कहाँ?
वो सोचती रही, और रख दिया वो हिस्सा,
वापिस उसी डायरी में, बीच में,
उठी वो, और जा लेटी बिस्तर पर,
खिड़की से बाहर झाँका,
नीला आसमान और सफेद बादल!
पल पल नयी नयी शक़्ल अख़्तियार करते थे वो!
उन्ही को देख रही थी वो,
करवट ली, नज़रें वहीँ टिकी रहीं,
आँखें बंद हुईं उसकी,
कुछ ही पलों में,
आँखें हुईं भारी, और गयी नींद के आग़ोश में!
सपना चला आया पीछे पीछे,
आज वो किसी सहरा के बीच लगने वाले हाट में थी!
लोगों ने, अपने बदन को, पूरा ढक रखा था,
क़िस्म क़िस्म की चीज़ें थीं वहाँ,
फल, मसाले, मिठाइयां, बर्तन, रस्सियाँ, देग़ आदि,
रोज़मर्रा की सारी चीज़ें वहां बिक रही थीं,
ये एक पखवाड़े में एक बार लगने वाली हाट थी!
वो अकेली खड़ी थी,
एक जगह, उसके बाएं एक औरत बैठी थी,
उसने एक कपड़ा बिछाया हुआ था, कपड़े पर,
कुछ कपड़े रखे हुए थे, छोटे से लकर, बड़ों तक के,
भाषा जो बोली जा रही थी, वो समझ न आई उसे!
उस औरत ने, उसको देखा, उठी वो,
उम्र में कोई पचास की रही होगी,
आई उसके पास,
"कहाँ से आई हो बेटी?" पूछा उस औरत ने,
"मैं?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ बेटी, अकेली हो न, इसीलिए पूछा!" बोली वो औरत,
"मैं, वो बे'दु'ईं क़बीले से आई हूँ, हु'मैद साहब वाले!" बोली वो,
"वो, फ़ैज़ान वाले?" पूछा उसने!
अब हैरान वो!
ये सब क्या?
कैसे मालूम?
"हाँ!" बोली वो,
"आओ, आओ मेरे साथ बेटी!" बोली वो,
और उसने, अपनी बेटी को आवाज़ दी,
उसकी बेटी आई, सुरभि को सलाम किया,
अपनी बेटी को बिठा दिया वहां, और ले चली सुरभि को संग अपने,
ले आई एक छोटे से तम्बू में,
"पानी पियोगी बेटी?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोली वो,
उस औरत ने, सुराही से, पानी निकाला,
एक कटोरी साफ़ की, डाला पानी उसमे,
और दे दिया सुरभि को,
सुरभि ने, पानी पिया और वापिस किया गिलास!
वो जगह बेहद ही खूबसूरत लगी उसको!
लम्बे लम्बे खजूर के पेड़,
देहाती से, क़बीले के लोग!
सामान खरीदते हुए औरतें और लड़कियां!
"ये कौन सी जगह है?" पूछा सुरभि ने,
"ये, मरीब है! यमन में हो आप बेटी!" बोली वो औरत!
मरीब! यमन!
प्रसिद्ध जगह है ये!
इतिहास में प्रसिद्ध रानी साहिब, शीबा, यहीं की थीं!
राजा सुलेमान से कई सवालात किये थे उसने!
और सुलेमान ने, सारे जवाब सही दिए थे!
यही है वो मरीब!
यहीं थी वो सुरभि उस जगह!
ऊँट गुजरे तभी वहीँ से,
गले में पड़ीं घंटियाँ बज उठीं!
उनके गले में टंगे, सामान के बड़े बड़े थैले,
अब उतारे जा रहे थे!
"ये लो!" बोली वो,
हाथ आगे किया सुरभि ने,
और उस औरत ने, एक मुट्ठी, अलक़श रख दिया उसके हाथ में!
अलक़श देखा, तो कुछ याद आया!
"वो अशुफ़ा कहाँ होंगी?" पूछा उसने!
''दूर है वो!" बोली वो औरत!
"कहाँ दूर?" पूछा उसने,
"यहाँ से दो रात दूर!" बोली वो औरत!
दो रात! अड़तालीस घंटे!
"मैं कैसे ढूँढूँ?" पूछा उसने,
"नहीं ढूंढ पाओगी अब!" बोली वो,
अब?
क्या मतलब?
हैरान सी हो गयी वो ये सुनकर!
"अब? मतलब?" बोली वो,
"फ़ैज़ान दूर चले गए हैं! महीना भर लगेगा बेटी!" बोली वो,
उसने सुना जैसे ही,
घुटने जैसे जवाब देने लगे!
नीचे झुकी और बैठ गयी!
और तभी,
आँख खुल गयी उसकी!
हड़बड़ा के उठी!
बत्ती जलायी,
घड़ी देखी,
सात बजे थे उस समय!
बाहर, खिड़की से देखा, तो शाम का रंग बिखरने लगा था!
खिड़की खोल दी उसने,
कुर्सी खींची,
और बैठ गयी,
चौखट पर, हाथ टिका, सर रख लिया,
महीना भर?
कहाँ गए वो सब?
महीना भर,
नहीं मिल पाएगी वो?
ऐसा क्या हुआ?
मैंने तो, जहां तक याद है,
कुछ नहीं किया,
क्या कोई गलती हुई?
फिर,
ये महीना भर?
इसे ही कहते हैं सुरभि, अकेलापन!
सब साथ हैं,
घर में ही!
पहले की तरह!
फिर भी अकेली?
क्यों?
किसलिए?
क्या बात हुई?
कैसा अकेलापन?
उठाया सर,
और लगाई पीठ पीछे कुर्सी से!
एक महीना!
वो बाग़,
वो दोनों!
और वो, फ़ैज़ान,
उठ गयी कुर्सी से,
कमरे में, अकेलापन,
काटने को दौड़े!
चली बाहर,
और चली छत की तरफ,
पहुंची छत पर,
जा लेटी उस पलंग पर!
आकाश को देखा,
चाँद, थे तो सही, लेकिन धुंधले से,
आज बदली ने ढका था उन्हें,
जी किया, की हाथ से हटा दे वो बदली!
और वो ढीठ बदली,
वो भी जैसे, बातें कर रही थी उनसे!
हट ही नहीं रही थी!
और दूसरी वाली,
वो भी दौड़ी चली आ रही थी,
पहली वाली से मिलने!
वो देखती रही!
कभी-कभार, चाँद, नज़रें चुरा उस बदली से,
देख लिया करते थे सुरभि को!
उन्हें पता था कि,
कोई अहम संदेसा है सुरभि का,
जो ले जाना है उन्हें!
वो घूरती रही चाँद को!
और वो बदली, दूसरी वाली भी,
आ मिली पहले वाली से,
अब तो और धुंधले हो गए चाँद,
और इधर,
सुरभि के दिल में भी, बदली छाने लगीं!
Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ
वो बड़ी बड़ी बदलियाँ थीं,
नहीं हटीं साहब, करीब घंटे में भी!
चाँद जैसे घूंघट के पीछे जा बैठे थे!
जैसे चिलमन के पीछे बैठे हों,
बस, चिलमन ज़रा झीना था!
घंटे भर, वो देखती रही थी चाँद को!
एकटक! बेहद ज़रूरी भी था ये,
महज़ वही थे, जो अब उसके अकेलेपन के साथी थे!
हाँ, बोलते कुछ न थे, लेकिन मन ही मन, बतिया लेते थे सुरभि से!
लेकिन आज तो उनकी भी शामत आई हुई थी!
ये बदलियाँ उनको तो ऐसे घेर के बैठी थीं,
जैसे बरसों से बिछोह की मारी हों!
तभी माँ ऊपर आ गयीं!
"सुरभि?" बोली वो,
"हूँ?" बोली धीरे से,
"यहां क्यों बैठी है बेटा?" पूछा माँ ने,
"लेटी हूँ" बोली वो,
"हाँ, क्यों लेटी है?" पूछा माँ ने,
"ऐसे ही माँ" बोली वो,
और फिर से देखा चाँद को,
माँ ने भी उधर ही देखा, कुछ न मिला!
"चल, नीचे चल?" बोली माँ,
"आ जाउंगी मम्मी" बोली वो,
और ले ली करवट, मुंह फेर लिया,
"कोई परेशानी है क्या बेटा?" पूछा मैंने,
उसकी कमर पर हाथ रखते हुए,
"नहीं मम्मी" बोली वो,
"तो नीचे चल?" बोली माँ,
"आ जाउंगी" बोली वो,
"खाना तैयार है" बोली माँ,
"भूख नहीं है मम्मी" बोली वो,
"ऐसा क्या खा लिया?" पूछा माँ ने,
"कुछ नहीं, बस भूख नहीं है" बोली वो,
"थोड़ा-बहुत तो खा ले?" बोली माँ,
"खा लूंगी" बोली वो,
पलटी, और सीधा चाँद को देखा,
हाँ, अब बदली छंटने लगी थीं!
"दूध ले आऊं बेटा?" बोली माँ,
"नहीं मम्मी" बोली वो,
अब माँ हुई परेशान!
ऐसा तो कभी नहीं किया सुरभि ने?
आज क्या बात हुई?
खाना तो कभी नहीं छोड़ा उसने?
आज क्या हुआ?
पलटी माँ, उसको देखा,
दाँतो में ऊँगली दबाये, चाँद को देख रही थी सुरभि!
"कब आएगी?" पूछा माँ ने,
"आ जाउंगी मम्मी" बोली वो,
बिना माँ को देखते हुए!
परेशान सी माँ, चल पड़ी वापिस,
एक एक सीढ़ी उतर, एक बार में, चली गयीं वापिस!
अब, पेट के बल लेट गयी सुरभि,
हाथ उठा, उनपर, चेहरा रख लिया,
और भिड़ा दी नज़र, सीधा चाँद पर,
अब चाँद साफ़ नज़र आ रहे थे उसे!
बहुत देर तक, नज़र गड़ाए रही वो,
"आप उन्हें देख रहे हो न?" पूछा मन से एक सवाल!
जैसे चाँद का जवाब आया कि हाँ!
सिर्फ उसने ही सुना वो जवाब!
"उनसे पूछना, मेरी याद आई उन्हें?" बोली मन में!
जैसे, सर हिलाया हो चाँद ने, हामी भरी हो!
सिर्फ सुरभि ने ही देखा!
"पूछना, ज़रूर पूछा, कि मैं कैसे रहूंगी महीना भर?" बोली वो, मन में!
फिर, एकदम संजीदा हो गयी!
स्थिर हो गयी!
ये वो लम्हे होते हैं, जब खुद में खुद नहीं रहता!
बेखुद हो जाता है इंसान!
सुध में सुध नहीं रहती,
बेसुध हो जाया करता है!
ये वही चंद लम्हे थे!
और अगले ही लम्हे,
उसके हाथों पर,
पानी टपका!
गरम पानी!
सर्द दिल के रास्ते से गुजरता हुआ,
आँखों की तपन से गरम हुआ वो पानी,
उसके हाथो पर टपका!
कब टपका, पता ही न चला!
बेखुदी में खुद आया तो,
आँखों के पानी में, चाँद झिलमिला उठे!
तब उसने, अपनी उँगलियों से वो पानी साफ़ किया!
"उनको बताना कि मेरी आँखों से पानी टपका था आज, मेरे आंसू बहे थे, ये ज़रूर बताना!!" बोली वो!
उसने ये बोला ही था मन में,
कि तेज हवा का झोंका आया!
तेज, वही महक लिए!
वो चौंक पड़ी!
एक झटके से ही उठ गयी!
अपने आसपास देखा!
तेज महक ने घेर रखा था उसे!
वो चारों तरफ देखे!
हर तरफ!
फिर चाँद को देखे!
जैसे चाँद, अब खुश हों!
ऐसे चमक रहे थे!
तेज क़दमों से, नीचे दौड़ पड़ी,
और सीधा अपने कमरे में!
कमरे में तेज महक उठी हुई थी!
बहुत तेज महक!
उसने खिड़की खोल दी,
तभी,
बाह से माँ की आवाज़ आई!
उस हड़बड़ाई,
चली माँ के पास,
"ले, ये दूध ले ले!" बोली माँ,
उसने लिया दूध,
लेकिन माँ ने, आंसुओं के दाग़ देख लिए!
अब माँ से कहाँ छिपते हैं आंसुओं के दाग़?
"क्या बात है?" पूछा माँ ने घबराते हुए!
"कुछ नहीं मम्मी" बोली वो,
और दूध का गिलास,
रख दिया मेज़ पर,
"पी ले इसको" बोली माँ,
उठाया गिलास,
और एक बार में ही पी गयी!
आज कुछ ज़रूर, ऐसी कोई बात थी, कुछ न कुछ,
सुरभि, एक बार में नहीं पीती थी दूध,
वो उसको चार या पांच घूँट में पिया करती थी!
लेकिन आज तो ऐसे पिया,
जैसे उसको कोई ज़रूरी काम हो!
माँ के माथे पर,
कुछ रेखाएं उभर आयीं, उसी पल!
माँ देखती रही उसको,
भांप गयी थी सुरभि भी,
इसीलिए,
अपनी एक किताब उठा ली उसने,
खोली, और बैठ गयी कुर्सी पर,
माँ ने तब, गिलास उठाया,
और चलीं बाहर,
एक बार रुक कर,
ज़रूर देखा सुरभि को!
माँ गयी तो,
उठी वो,
रखी किताब वापिस मेज़ पर,
दरवाज़ा किया बंद, और अपनी आँखों पर,
हाथ रख लिए, खड़े खड़े ही!
कुछ देर ऐसे ही, खड़ी रही,
फिर चली गुसलखाने,
हाथ-मुंह धोये,
और बाल्टी में देखा,
कुछ पड़ा था उसमे,
वो बैठी, उठाया उसे,
ये, पिस्ते का एक छिलका था!
उसके होंठों पर,
मुस्कान तैर गयी उसी लम्हे!
जैसे ही मुस्कान तैरी होंठों पर,
वो महक,
अचानक से ही गायब हो गयी!
आंसू न देख सकता था वो,
अपना वजूद भी बेच सकता था उसकी मुस्कान के लिए वो!
वो मुस्कुराई,
तो लौट गया वो!
वो लौट गया,
लेकिन मुस्कान दे गया सुरभि को!
सुरभि के मन से बोझ हट गया था!
लेकिन फिर से,
दिल में काला धुंआ सा उठा,
दम सा घुटा,
सांस सी थमी,
वो बाहर आई गुसलखाने से,
हाथ-मुंह पोंछे,
आँखों में फिर से संजीदगी भरी,
एक महीना?
इसका क्या मतलब हुआ?
एक महीना?
आज तो, पहला ही दिन है?
जाना होगा उसे!
हाँ, फिर से, पूछने!
वो लपक के बिस्तर पर चढ़ी,
चादर खोली, ओढ़ी और कीं आँखें बंद!
नहीं हटीं साहब, करीब घंटे में भी!
चाँद जैसे घूंघट के पीछे जा बैठे थे!
जैसे चिलमन के पीछे बैठे हों,
बस, चिलमन ज़रा झीना था!
घंटे भर, वो देखती रही थी चाँद को!
एकटक! बेहद ज़रूरी भी था ये,
महज़ वही थे, जो अब उसके अकेलेपन के साथी थे!
हाँ, बोलते कुछ न थे, लेकिन मन ही मन, बतिया लेते थे सुरभि से!
लेकिन आज तो उनकी भी शामत आई हुई थी!
ये बदलियाँ उनको तो ऐसे घेर के बैठी थीं,
जैसे बरसों से बिछोह की मारी हों!
तभी माँ ऊपर आ गयीं!
"सुरभि?" बोली वो,
"हूँ?" बोली धीरे से,
"यहां क्यों बैठी है बेटा?" पूछा माँ ने,
"लेटी हूँ" बोली वो,
"हाँ, क्यों लेटी है?" पूछा माँ ने,
"ऐसे ही माँ" बोली वो,
और फिर से देखा चाँद को,
माँ ने भी उधर ही देखा, कुछ न मिला!
"चल, नीचे चल?" बोली माँ,
"आ जाउंगी मम्मी" बोली वो,
और ले ली करवट, मुंह फेर लिया,
"कोई परेशानी है क्या बेटा?" पूछा मैंने,
उसकी कमर पर हाथ रखते हुए,
"नहीं मम्मी" बोली वो,
"तो नीचे चल?" बोली माँ,
"आ जाउंगी" बोली वो,
"खाना तैयार है" बोली माँ,
"भूख नहीं है मम्मी" बोली वो,
"ऐसा क्या खा लिया?" पूछा माँ ने,
"कुछ नहीं, बस भूख नहीं है" बोली वो,
"थोड़ा-बहुत तो खा ले?" बोली माँ,
"खा लूंगी" बोली वो,
पलटी, और सीधा चाँद को देखा,
हाँ, अब बदली छंटने लगी थीं!
"दूध ले आऊं बेटा?" बोली माँ,
"नहीं मम्मी" बोली वो,
अब माँ हुई परेशान!
ऐसा तो कभी नहीं किया सुरभि ने?
आज क्या बात हुई?
खाना तो कभी नहीं छोड़ा उसने?
आज क्या हुआ?
पलटी माँ, उसको देखा,
दाँतो में ऊँगली दबाये, चाँद को देख रही थी सुरभि!
"कब आएगी?" पूछा माँ ने,
"आ जाउंगी मम्मी" बोली वो,
बिना माँ को देखते हुए!
परेशान सी माँ, चल पड़ी वापिस,
एक एक सीढ़ी उतर, एक बार में, चली गयीं वापिस!
अब, पेट के बल लेट गयी सुरभि,
हाथ उठा, उनपर, चेहरा रख लिया,
और भिड़ा दी नज़र, सीधा चाँद पर,
अब चाँद साफ़ नज़र आ रहे थे उसे!
बहुत देर तक, नज़र गड़ाए रही वो,
"आप उन्हें देख रहे हो न?" पूछा मन से एक सवाल!
जैसे चाँद का जवाब आया कि हाँ!
सिर्फ उसने ही सुना वो जवाब!
"उनसे पूछना, मेरी याद आई उन्हें?" बोली मन में!
जैसे, सर हिलाया हो चाँद ने, हामी भरी हो!
सिर्फ सुरभि ने ही देखा!
"पूछना, ज़रूर पूछा, कि मैं कैसे रहूंगी महीना भर?" बोली वो, मन में!
फिर, एकदम संजीदा हो गयी!
स्थिर हो गयी!
ये वो लम्हे होते हैं, जब खुद में खुद नहीं रहता!
बेखुद हो जाता है इंसान!
सुध में सुध नहीं रहती,
बेसुध हो जाया करता है!
ये वही चंद लम्हे थे!
और अगले ही लम्हे,
उसके हाथों पर,
पानी टपका!
गरम पानी!
सर्द दिल के रास्ते से गुजरता हुआ,
आँखों की तपन से गरम हुआ वो पानी,
उसके हाथो पर टपका!
कब टपका, पता ही न चला!
बेखुदी में खुद आया तो,
आँखों के पानी में, चाँद झिलमिला उठे!
तब उसने, अपनी उँगलियों से वो पानी साफ़ किया!
"उनको बताना कि मेरी आँखों से पानी टपका था आज, मेरे आंसू बहे थे, ये ज़रूर बताना!!" बोली वो!
उसने ये बोला ही था मन में,
कि तेज हवा का झोंका आया!
तेज, वही महक लिए!
वो चौंक पड़ी!
एक झटके से ही उठ गयी!
अपने आसपास देखा!
तेज महक ने घेर रखा था उसे!
वो चारों तरफ देखे!
हर तरफ!
फिर चाँद को देखे!
जैसे चाँद, अब खुश हों!
ऐसे चमक रहे थे!
तेज क़दमों से, नीचे दौड़ पड़ी,
और सीधा अपने कमरे में!
कमरे में तेज महक उठी हुई थी!
बहुत तेज महक!
उसने खिड़की खोल दी,
तभी,
बाह से माँ की आवाज़ आई!
उस हड़बड़ाई,
चली माँ के पास,
"ले, ये दूध ले ले!" बोली माँ,
उसने लिया दूध,
लेकिन माँ ने, आंसुओं के दाग़ देख लिए!
अब माँ से कहाँ छिपते हैं आंसुओं के दाग़?
"क्या बात है?" पूछा माँ ने घबराते हुए!
"कुछ नहीं मम्मी" बोली वो,
और दूध का गिलास,
रख दिया मेज़ पर,
"पी ले इसको" बोली माँ,
उठाया गिलास,
और एक बार में ही पी गयी!
आज कुछ ज़रूर, ऐसी कोई बात थी, कुछ न कुछ,
सुरभि, एक बार में नहीं पीती थी दूध,
वो उसको चार या पांच घूँट में पिया करती थी!
लेकिन आज तो ऐसे पिया,
जैसे उसको कोई ज़रूरी काम हो!
माँ के माथे पर,
कुछ रेखाएं उभर आयीं, उसी पल!
माँ देखती रही उसको,
भांप गयी थी सुरभि भी,
इसीलिए,
अपनी एक किताब उठा ली उसने,
खोली, और बैठ गयी कुर्सी पर,
माँ ने तब, गिलास उठाया,
और चलीं बाहर,
एक बार रुक कर,
ज़रूर देखा सुरभि को!
माँ गयी तो,
उठी वो,
रखी किताब वापिस मेज़ पर,
दरवाज़ा किया बंद, और अपनी आँखों पर,
हाथ रख लिए, खड़े खड़े ही!
कुछ देर ऐसे ही, खड़ी रही,
फिर चली गुसलखाने,
हाथ-मुंह धोये,
और बाल्टी में देखा,
कुछ पड़ा था उसमे,
वो बैठी, उठाया उसे,
ये, पिस्ते का एक छिलका था!
उसके होंठों पर,
मुस्कान तैर गयी उसी लम्हे!
जैसे ही मुस्कान तैरी होंठों पर,
वो महक,
अचानक से ही गायब हो गयी!
आंसू न देख सकता था वो,
अपना वजूद भी बेच सकता था उसकी मुस्कान के लिए वो!
वो मुस्कुराई,
तो लौट गया वो!
वो लौट गया,
लेकिन मुस्कान दे गया सुरभि को!
सुरभि के मन से बोझ हट गया था!
लेकिन फिर से,
दिल में काला धुंआ सा उठा,
दम सा घुटा,
सांस सी थमी,
वो बाहर आई गुसलखाने से,
हाथ-मुंह पोंछे,
आँखों में फिर से संजीदगी भरी,
एक महीना?
इसका क्या मतलब हुआ?
एक महीना?
आज तो, पहला ही दिन है?
जाना होगा उसे!
हाँ, फिर से, पूछने!
वो लपक के बिस्तर पर चढ़ी,
चादर खोली, ओढ़ी और कीं आँखें बंद!