Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ
Posted: 22 Dec 2015 08:22
उसने आँखें बंद कर ली थीं, आज तो वो खुद ही जाना चाहती थी,
एक सवाल था मन में उसके.
उसका ही जवाब आज ढूंढना था उसे!
कुछ ही पलों में,
आँखें भारी होने लगीं उसकी,
और उसके कुछ ही देर बाद,
वो नींद के आग़ोश में पहुंच गयी!
आ गयी थी नींद उसे!
नींद आई, तो सपना भी खड़ा हो,
उसके पीछे पीछे चल पड़ा!
मारी छलांग!
और पहुंची, उसी क़बीले में!
आज दोपहर थी,
लोगों की आमद-जामद बंद थी आज!
चिलचिलाती धूप थी!
लू चल रही थीं!
रेत, उड़ रहा था!
टीले बन रहे थे नए!
उन टीलों पर,
लहरदार लकीरें बन रही थीं!
ठूंठ से पौधे,
अपनी गरदन हिला रहे थे!
ज़मीन पर, कोई भी कीड़ा न था!
बस इक्का-दुक्का रेगिस्तानी छिपकलियां,
इधर-उधर भागे जा रही थीं!
उनके भागने का अंदाज़ बेहद ही शानदार था!
वे जैसे ठुमके मारती थीं!
और जब रूकती थीं,
तो वो अंदाज़ भी निराला था!
सीधा हाथ उठाती,
तो उल्टा पाँव,
सीधा पाँव उठाती,
तो उल्टा हाथ!
ये सब, उस जलती हुई रेत की तपिश से, बचने के लिए था!
क़ुदरत की समझ,
बहुत ऊंची होती है!
चुन चुन के उसने,
जीव, भूगोल बना, उनको व्यवस्थित किया है!
खैर,
हवा बहुत तेज थी!
सुरभि के कपड़े, फड़-फड़ करते थे!
वो चल पड़ी उस क़बीले की तरफ!
काले और पीले रंग का तम्बू था अशुफ़ा का!
दीख रहा था उसको,
वो चल पड़ी,
और जा पहुंची,
तम्बू का मुहाना बंद था,
आवाज़ दी उसने दो बार,
और तब मुहाना खुला,
ये अशुफ़ा ही थी,
लपक के आई बाहर, और अपन कपड़ा खोल,
बाँध दिया सर उसका!
ले गयी अंदर उसे,
हाथ का, खजूर से बना पंखा,
झला उसने फौरन ही!
बिठाया उसे, और उठी वो खुद,
चली सुराही से पानी लेने,
डाला पानी उसने गिलास में,
और लायी उसके लिए, दिया उसे,
पिलाया अपने हाथ से फिर,
जब पी लिया, तो रख दिया गिलास एक तरफ,
और लगा लिया गले सुरभि को!
"ह'ईज़ा कहाँ है?" पूछा उसने,
"फ़ैज़ान भाई के साथ!" बोली अशुफ़ा!
"कहाँ हैं वे?" पूछा उसने,
"हैं कहीं दूर, एक महीना लगेगा!" बोली वो,
"एक महीना? किसलिए?" पूछा उसने,
"सब जान जाओगी सुरभि!" बोली वो,
"आप बताओ न?" पूछा उसने,
"अभी नहीं सुरभि!" बोली वो,
"नहीं, बताओ मुझे?" बोली सुरभि,
चुपचाप देखे अशुफा उसे,
आँखों में तड़प भी थी और सवाल भी!
किसका जवाब दे पहले?
तड़प?
या सवाल?
कुछ सोचा अशुफ़ा ने,
"सुरभि?" बोली वो फिर,
"हाँ?" पूछा उसने,
"फ़ैज़ान भाई, खुद चले गए" बोली वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"आप जानती हो, अनजान न बनिए?" बोली अशुफ़ा,
"अभी दूँगी जवाब मैं सुरभि आपको!" बोली वो,
"अभी दीजिये?" बोली सुरभि,
ज़िद सी थी सवाल में,
"दीजिये?" बोली फिर से, अशुफ़ा की बाजू पकड़, हिलाते हुए!
मुस्कुरा पड़ी अशुफ़ा तब!
उस सुरभि की, ज़िद पर!
"सुरभि?" बोली वो,
"बोलिए?" बोली वो,
"फ़ैज़ान आपसे बेहद मुहब्बत करते हैं, जानती हैं आप?" बोली अशुफ़ा,
चेहरा लाल हुआ!
आँखों में, हया का पर्दा खिंचा!
दिल में धड़कन, तेज हुई!
होंठ, लरज पड़े,
और आँखें, नीचे हो गयीं उसकी!
"आप जानती हैं?" फिर से पूछा,
न बोली कुछ!
कैसे करे इक़रार!
ज़ुबान थी तो मुंह में ही,
लेकिन आवाज़ नहीं थी!
आवाज़ नहीं निकल रही थी!
"आप रह लेंगे एक महीना?" पूछा अशुफ़ा ने,
न बोली कुछ!
सर नीचे ही रखे!
अशुफ़ा ने, इस हया पर,
माथा चूम लिया सुरभि का!
"सुरभि!" बोली अशुफ़ा,
सर उठाया,
आँखें कीं ऊपर,
"फ़िज़ां आपसे अब से नहीं, पिछले चार साल से मुहब्बत करते हैं!" बोली वो,
चौंक पड़ी!
चार साल?
पिछले चार साल?
और उसे भनक भी नहीं?
"वे तड़पते थे आपके लिए!" बोली अशुफ़ा!
नज़रें नीची!
"एक एक लम्हा, आपको देखते हुए गुजरता था उनका!" बोली अशुफ़ा!
"अब न रहा गया उनसे!" बोली अशुफ़ा!
एक लम्हे को, देखा अशुफ़ा को उसने,
"आखिर, मुहब्बत के आगे हार गए वो, और जज़्ब नहीं कर पाये!" बोली वो,
अपने हाथों के, नाख़ून, खरोंचे, अपने ही हाथ के, दूसरे नाखूनों से!
"हमने चार साल पहले ही कहा था, कि वो इज़हार कर दें, लेकिन नहीं, उन्होंने मना कर दिया! आपको देखकर ही, सुक़ून ले आते थे, कहते थे, मेरी मुहब्बत एक तरफ़ा ही सही, वे आपसे वाबस्ता तो हैं! हर लम्हे, आपके सलोने रूप का बखान करते थे! बस इज़हार नहीं कर पाये वो! कहते थे, हिम्मत नहीं है, कहीं ठुकरा दिया, तो पत्थर बन, कहीं पड़े रहेंगे..........." बोली संजीदगी से अशुफ़ा,
एक एक अलफ़ाज़,
जैसे आज सैलाब बन कर टूटा था सुरभि पर!
आज जैसे, बहा ले जा रहा था सैलाब उसे!
"आपको हमने बुलाया था सुरभि! उनकी रजा नहीं थी, और सुरभि, ये सपना नहीं, हक़ीक़त है! मैं सच हूँ, ये सहरा, ये धूप, वो ह'ईज़ा, वो फ़ैज़ान सब सच हैं! एक बार इज़हार करना सुरभि, अपनी मुहब्बत का इज़हार! एक लम्हे में ही, आपके सामने चले आएंगे वो!" बोली वो,
और देखा तब सुरभि ने अशुफ़ा को!
मुस्कुरा रही थी!
आगे बढ़,
लगा लिया गले!
"ये सब सच है सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
और तभी आँखें खुल गयीं उसकी!
उठी वो,
जब पानी पिया था,
तो कपड़े पर, पानी गिरा था,
वो कपड़ा अभी भी गीला था!
सुरभि,
सिहर उठी!
कुछ समझ न आये!
ये सपना?
सच है?
ये सब सच है?
सच नहीं है, तो,
उसके आंसू क्यों निकले?
क्यों उसने,
संदेसा भेजा?
क्यों हर लम्हे,
उसे ये सब, घेरे रहता है?
और वो..............
वो फ़ैज़ान?
चार साल?
एक तरफ़ा मुहब्बत?
धम्म से गिरी पीछे,
दिमाग की नसें,
जैसे सूज गयीं उसकी!
सर पकड़ लिया उसने अपना!
उसे,
अशुफ़ा के अलफ़ाज़ सुनाई दें!
वो लू! वो लू छुए!
वो रेत, रेत उड़े!
टीले बनें, रेत की लहरें बनें!
उसके कपड़े, लू में,
फड़-फड़ करें!
एक झंझावात में फस गयी थी उस लम्हे सुरभि!
फिर.....उठी वो!
और!!
क्रमशः
एक सवाल था मन में उसके.
उसका ही जवाब आज ढूंढना था उसे!
कुछ ही पलों में,
आँखें भारी होने लगीं उसकी,
और उसके कुछ ही देर बाद,
वो नींद के आग़ोश में पहुंच गयी!
आ गयी थी नींद उसे!
नींद आई, तो सपना भी खड़ा हो,
उसके पीछे पीछे चल पड़ा!
मारी छलांग!
और पहुंची, उसी क़बीले में!
आज दोपहर थी,
लोगों की आमद-जामद बंद थी आज!
चिलचिलाती धूप थी!
लू चल रही थीं!
रेत, उड़ रहा था!
टीले बन रहे थे नए!
उन टीलों पर,
लहरदार लकीरें बन रही थीं!
ठूंठ से पौधे,
अपनी गरदन हिला रहे थे!
ज़मीन पर, कोई भी कीड़ा न था!
बस इक्का-दुक्का रेगिस्तानी छिपकलियां,
इधर-उधर भागे जा रही थीं!
उनके भागने का अंदाज़ बेहद ही शानदार था!
वे जैसे ठुमके मारती थीं!
और जब रूकती थीं,
तो वो अंदाज़ भी निराला था!
सीधा हाथ उठाती,
तो उल्टा पाँव,
सीधा पाँव उठाती,
तो उल्टा हाथ!
ये सब, उस जलती हुई रेत की तपिश से, बचने के लिए था!
क़ुदरत की समझ,
बहुत ऊंची होती है!
चुन चुन के उसने,
जीव, भूगोल बना, उनको व्यवस्थित किया है!
खैर,
हवा बहुत तेज थी!
सुरभि के कपड़े, फड़-फड़ करते थे!
वो चल पड़ी उस क़बीले की तरफ!
काले और पीले रंग का तम्बू था अशुफ़ा का!
दीख रहा था उसको,
वो चल पड़ी,
और जा पहुंची,
तम्बू का मुहाना बंद था,
आवाज़ दी उसने दो बार,
और तब मुहाना खुला,
ये अशुफ़ा ही थी,
लपक के आई बाहर, और अपन कपड़ा खोल,
बाँध दिया सर उसका!
ले गयी अंदर उसे,
हाथ का, खजूर से बना पंखा,
झला उसने फौरन ही!
बिठाया उसे, और उठी वो खुद,
चली सुराही से पानी लेने,
डाला पानी उसने गिलास में,
और लायी उसके लिए, दिया उसे,
पिलाया अपने हाथ से फिर,
जब पी लिया, तो रख दिया गिलास एक तरफ,
और लगा लिया गले सुरभि को!
"ह'ईज़ा कहाँ है?" पूछा उसने,
"फ़ैज़ान भाई के साथ!" बोली अशुफ़ा!
"कहाँ हैं वे?" पूछा उसने,
"हैं कहीं दूर, एक महीना लगेगा!" बोली वो,
"एक महीना? किसलिए?" पूछा उसने,
"सब जान जाओगी सुरभि!" बोली वो,
"आप बताओ न?" पूछा उसने,
"अभी नहीं सुरभि!" बोली वो,
"नहीं, बताओ मुझे?" बोली सुरभि,
चुपचाप देखे अशुफा उसे,
आँखों में तड़प भी थी और सवाल भी!
किसका जवाब दे पहले?
तड़प?
या सवाल?
कुछ सोचा अशुफ़ा ने,
"सुरभि?" बोली वो फिर,
"हाँ?" पूछा उसने,
"फ़ैज़ान भाई, खुद चले गए" बोली वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"आप जानती हो, अनजान न बनिए?" बोली अशुफ़ा,
"अभी दूँगी जवाब मैं सुरभि आपको!" बोली वो,
"अभी दीजिये?" बोली सुरभि,
ज़िद सी थी सवाल में,
"दीजिये?" बोली फिर से, अशुफ़ा की बाजू पकड़, हिलाते हुए!
मुस्कुरा पड़ी अशुफ़ा तब!
उस सुरभि की, ज़िद पर!
"सुरभि?" बोली वो,
"बोलिए?" बोली वो,
"फ़ैज़ान आपसे बेहद मुहब्बत करते हैं, जानती हैं आप?" बोली अशुफ़ा,
चेहरा लाल हुआ!
आँखों में, हया का पर्दा खिंचा!
दिल में धड़कन, तेज हुई!
होंठ, लरज पड़े,
और आँखें, नीचे हो गयीं उसकी!
"आप जानती हैं?" फिर से पूछा,
न बोली कुछ!
कैसे करे इक़रार!
ज़ुबान थी तो मुंह में ही,
लेकिन आवाज़ नहीं थी!
आवाज़ नहीं निकल रही थी!
"आप रह लेंगे एक महीना?" पूछा अशुफ़ा ने,
न बोली कुछ!
सर नीचे ही रखे!
अशुफ़ा ने, इस हया पर,
माथा चूम लिया सुरभि का!
"सुरभि!" बोली अशुफ़ा,
सर उठाया,
आँखें कीं ऊपर,
"फ़िज़ां आपसे अब से नहीं, पिछले चार साल से मुहब्बत करते हैं!" बोली वो,
चौंक पड़ी!
चार साल?
पिछले चार साल?
और उसे भनक भी नहीं?
"वे तड़पते थे आपके लिए!" बोली अशुफ़ा!
नज़रें नीची!
"एक एक लम्हा, आपको देखते हुए गुजरता था उनका!" बोली अशुफ़ा!
"अब न रहा गया उनसे!" बोली अशुफ़ा!
एक लम्हे को, देखा अशुफ़ा को उसने,
"आखिर, मुहब्बत के आगे हार गए वो, और जज़्ब नहीं कर पाये!" बोली वो,
अपने हाथों के, नाख़ून, खरोंचे, अपने ही हाथ के, दूसरे नाखूनों से!
"हमने चार साल पहले ही कहा था, कि वो इज़हार कर दें, लेकिन नहीं, उन्होंने मना कर दिया! आपको देखकर ही, सुक़ून ले आते थे, कहते थे, मेरी मुहब्बत एक तरफ़ा ही सही, वे आपसे वाबस्ता तो हैं! हर लम्हे, आपके सलोने रूप का बखान करते थे! बस इज़हार नहीं कर पाये वो! कहते थे, हिम्मत नहीं है, कहीं ठुकरा दिया, तो पत्थर बन, कहीं पड़े रहेंगे..........." बोली संजीदगी से अशुफ़ा,
एक एक अलफ़ाज़,
जैसे आज सैलाब बन कर टूटा था सुरभि पर!
आज जैसे, बहा ले जा रहा था सैलाब उसे!
"आपको हमने बुलाया था सुरभि! उनकी रजा नहीं थी, और सुरभि, ये सपना नहीं, हक़ीक़त है! मैं सच हूँ, ये सहरा, ये धूप, वो ह'ईज़ा, वो फ़ैज़ान सब सच हैं! एक बार इज़हार करना सुरभि, अपनी मुहब्बत का इज़हार! एक लम्हे में ही, आपके सामने चले आएंगे वो!" बोली वो,
और देखा तब सुरभि ने अशुफ़ा को!
मुस्कुरा रही थी!
आगे बढ़,
लगा लिया गले!
"ये सब सच है सुरभि!" बोली अशुफ़ा!
और तभी आँखें खुल गयीं उसकी!
उठी वो,
जब पानी पिया था,
तो कपड़े पर, पानी गिरा था,
वो कपड़ा अभी भी गीला था!
सुरभि,
सिहर उठी!
कुछ समझ न आये!
ये सपना?
सच है?
ये सब सच है?
सच नहीं है, तो,
उसके आंसू क्यों निकले?
क्यों उसने,
संदेसा भेजा?
क्यों हर लम्हे,
उसे ये सब, घेरे रहता है?
और वो..............
वो फ़ैज़ान?
चार साल?
एक तरफ़ा मुहब्बत?
धम्म से गिरी पीछे,
दिमाग की नसें,
जैसे सूज गयीं उसकी!
सर पकड़ लिया उसने अपना!
उसे,
अशुफ़ा के अलफ़ाज़ सुनाई दें!
वो लू! वो लू छुए!
वो रेत, रेत उड़े!
टीले बनें, रेत की लहरें बनें!
उसके कपड़े, लू में,
फड़-फड़ करें!
एक झंझावात में फस गयी थी उस लम्हे सुरभि!
फिर.....उठी वो!
और!!
क्रमशः