Re: वर्ष २०१२, नॉएडा की एक घटना (सुरभि और जिन्न फ़ैज़ान का इ
Posted: 16 Dec 2015 21:44
सुरभि को लगने लगा था कि जैसे वो भी इन्ही में से एक है! कितने अदब वाले लोग हैं ये!
तमाम ज़िंदगी यही कट जाए, तो उस से बड़ी कोई नैमत नहीं उसके लिए!
तेज हवा चली, और मुहाने का पर्दा हिला, अंदर तक आ गया,
ह'ईज़ा उठी, और पर्दे को कस के बाँध दिया, उसकी डोरियों को,
उन लट्ठों से बाँध, लपेट दिया!
"ह'ईज़ा?" बोली अशुफ़ा,
"हाँ?" जवाब दिया ह'ईज़ा ने!
"वो खिच्चा ला, दे सुरभि को!" बोली अशुफा,
"अभी लायी!" बोली वो, और चली बाहर,
"अशुफ़ा?" कहा सुरभि ने,
"हाँ, सुरभि?" बोली वो,
"मुझे भी यहीं रख लो!" बोली वो,
हंस पड़ी अशुफ़ा! सुरभि के गालों पर, दोनों हाथ रख दिए!
और चूम लिया उसका माथा!
"हम लोग, अलग हैं सुरभि! कर लगी बसर?" बोली अशुफ़ा!
"क्यों नहीं!" बोली जोश से,
"रात बीत जाने दो, सहर के बाद सोचना!" बोली वो,
रात! कितनी हसीन रात है ये!
रेगिस्तान! दूर-दराज में!
कुछ ही सूखे से पेड़ों के नीचे!
बाहर, अलाव जलते हुए!
हम्दा खाया जा रहा था सभी के द्वारा!
ये तम्बू!
लेकिन रात?
रात कहाँ है?
ये तो दिन है?
बाहर झाँका उसने, पर्दा हटा कर,
धूप खिली थी! चमक पड़ी रेगिस्तान की,
और नींद खुल गयी उसकी चमक से!
हाँफते हुए उठी सुरभि!
घड़ी देखी!
ढाई बजा था रात का!
लेकिन वो चमक?
ह'ईज़ा?
अशुफ़ा?
खड़ी हुई,
माथे पर, पसीने की बूँदें छलछला गयी थीं!
पोंछा माथा अपना,
जग से, गिलास में पानी डाला,
और पीने से पहले, वो गिलास देखा,
अपने आप ही, मुस्कान बिखर गयी होंठों पर!
'रात बीत जाने दो, सहर के बाद सोचना!' आये ये अलफ़ाज़ याद उसे!
मन ही मन, अशुफ़ा याद आई उसे!
कितनी प्यारी है वो! बड़ी बहन सा प्यार करती है!
काश, ये सपना न होता! काश..........
झट से पानी पिया, पानी का स्वाद, अजीब सा लगा उसे!
रखा गिलास, आखिरी घूँट अभी मुंह में ही था,
उसको, कई घूँटों में पिया, कि आ जाए वही स्वाद, किसी एक छोटे घूँट में!
न आया, पी लिया पानी!
जा लेटी, करवट ली, उसका गद्दा, जैसे पत्थर का सा बन गया था!
याद आ रहा था, वो फर वाला मोटा गद्दा!
आँखें बंद कीं उसने,
और कोशिश की नींद की!
आई नींद!
और फिर से, वहीँ, बे'दु'ईं क़बीले में जा पहुंची!
हाथ पकड़ रखा था अशुफा ने उसका,
उसके नाखूनों को सहला रही थी अशुफ़ा!
कोई गीत गुनगुनाते हुए!
"क्या गुनगुना रही हो?" पूछा सुरभि ने,
"एक लोक-गीत है(श'उआ'ज़ी कहा जाता है इसे)" बोली अशुफ़ा,
"क्या मायने हैं इसके?" पूछा सुरभि ने,
"मायने! एक क़बीला है, दूर-दराज में रहता है! नमक लाते हैं मर्द उनके, और औरतें, परिवार चलाती हैं, मर्द, महीने में, एक आद बार ही घर आते हैं, तो शाम को, ब्याहता औरतें, उनके आने का इंतज़ार करती हैं! वो अपने साथ, बर्तन, गहने, नए कपड़े, कंघियां और खाने का सामान लाते हैं! तो वो, चाँद से कहती हैं, कि तुम तो देख रहे हो उन्हें! ज़रा उनको मेरा भी संदेसा पहुंचा देना, कि रेगिस्तान में, कोई दिल उसके लिए धड़क रहा है! उसका इंतज़ार कर रहा है कोई! वे भी चाँद को देखते हैं, और यही गीत गाते हैं! ये यही है, यही है इसके मायने!" बोली अशुफ़ा!
"ओह! बहुत प्यार है! तो कोई आपका बाहर है अभी?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ!" बोली वो,
"कौन?" पूछा सुरभि ने,
"मेरे खाविंद हुमैद और मेरे भाई!" बोली वो,
"क्या नाम है भाई का आपके?" पूछा सुरभि ने!
"फ़ैज़ान!" बोली अशुफ़ा!
फ़ैज़ान!
क्यों लगा ऐसा ये नाम सुनकर कि,
वो अपना सा ही है?
क्यों चेहरे के भाव बदल गए एक साथ?
क्यों लगा कि, ये गीत उसे भी गाना चाहिए?
क्यों लगा कि उसे भी इंतज़ार है?
माथे में शिकन पड़ीं!
होंठ सूख गए थे उसके!
खुली नींद!
पसीने में नहायी थी सुरभि!
नींद उड़ गयी थी आँखों से!
उठी वो,
अपने होंठ छुए,
सूख गए थे होंठ!
पानी पिया उसने,
और खिड़की के बाहर नज़र गयी!
चाँद!
चमक रहे थे!
जैसे देख रहे हों उसे!
वो चली खिड़की के पास!
खोल दिया उसे!
चाँद को देखा!
आज से पहले, ऐसे न देखे थे चाँद!
आज तो रूप बदल गया था!
मन किया, संदेसा भेज दूँ! अभी! इसी लम्हे!
खुली रहने दी खिड़की!
और होंठों पर,
एक मुस्कान चली आई!
अपने आप ही,
वो गीत निकलने लगा मुंह से!
वही, जो गुनगुना रही थी अशुफ़ा!
जा लेटी फिर से!
चाँद को देखते हुए ही!
चाँद, तो जैसे इंतज़ार कर रहे थे!
कि कब सुरभि संदेसा भेजे,
और वो जाकर खबर करें!
फिर से मुस्कान आई सुरभि के होंठों पर!
आँखें बंद कीं अपनी,
और चली गयी नींद के आग़ोश में!
अपने आपको,
उसी तम्बू में पाया!
खिच्चा ले आई थी ह'ईज़ा,
दिया गया सुरभि को,
उसने पिया, वही स्वाद, खोये जैसा!
"कब तक आएंगे वो?" पूछा सुरभि ने,
"कल-परसों में आने वाले हैं!" बोली वो,
कल या परसों!
बहुत दूर है कल!
और परसों तो शायद, साल सा बीतेगा!
ऐसे ख्याल आये दिल में!
खिच्च पी लिया गया था!
"आओ सुरभि!" बोली खड़ी होते हुए अशुफ़ा!
वो खड़ी हुई,
ह'ईज़ा भी,
और अशुफा, ले चली उसको,
जहां ले गयी, वो बड़ी ही सुंदर जगह थी!
एकदम साफ़!
जब एक क़बीला, ऐसे किसी नख़लिस्तान पर ठहरता है,
तो सारी साफ़-सफाई करके आगे बढ़ता है,
गंदगी का नामोनिशान नहीं रहता!
दूर से लाये हुए, खजूर के पौधे,
फूलों के पौधे, रूप दिए जाते हैं!
एक तम्बू, हमेशा तैयार रहता है,
उसमे खाना, दिशा-ज्ञान,
निकटतम शहर से दूरी,
कपड़े, कंबल आदी का इंतज़ाम किया जाता है,
ताकि कोई भूला-भटका वहां पहुंचे,
तो ये ज़ालिम रेगिस्तान,
उसकी जान न ले ले!
इस से, उन क़बीलों के नाम पर दाग नहीं लगे!
इसीलिए ऐसा किया जाता है,
जब भी कोई नया क़बीला वहाँ आता है,
तो ज़रूरत की सभी चीज़ें रख दिया करता है!
ये है, वहां का रिवाज़!
"कितनी सुंदर जगह है!" बोली सुरभि!
"आपको पसंद आई?" पूछा अशुफ़ा ने!
"बेहद!" बोली वो,
"हाँ, सुंदर जगह है!" बोली अशुफ़ा!
"नहाओगी?" पूछा ह'ईज़ा ने!
"हाँ!" बोली वो,
ले गयी एक सुरक्षित जगह!
वहां केवल औरतें ही जा सकती हैं,
मर्दों को मनाही होती है!
सभी पालन करते हैं इसका,
उसको स्नान करवाया गया!
खुशबूदार इत्र लगाया गया!
उसकी ऐसी खिदमत की,
कि सुरभि को दुनिया में सबसे भाग्यशाली होने का,
गुमान भर आया ज़हन में!
आ गयीं वापिस तम्बू में,
खाना लगाया गया,
सुरभि को खिलाया गया,
जब सुरभि ने खा लिया,
तो बाद में दोनों ने खाया,
हलीम-बिरयानी थी!
बेहद लज़ीज़ थी!
सुरभि को, बहुत पसंद आई वो!
पानी पिलाया गया उसको,
इस पानी का स्वद, ठीक वैसा ही था,
जैसा उसने उस सुराही से पिया था!
इस पानी में,
कुछ अलग ही स्वाद था!
कुछ अलग ही आनंद देता था!
जिस से, प्यास तो बुझती ही थी,
जिस्म में, ताक़त आ जाया करती थी!
और उसके थोड़ी देर बाद, शरबत पिलाया गया!
ऐसा शरबत उसने, कहीं भी, कभी भी, न पिया था!
तमाम ज़िंदगी यही कट जाए, तो उस से बड़ी कोई नैमत नहीं उसके लिए!
तेज हवा चली, और मुहाने का पर्दा हिला, अंदर तक आ गया,
ह'ईज़ा उठी, और पर्दे को कस के बाँध दिया, उसकी डोरियों को,
उन लट्ठों से बाँध, लपेट दिया!
"ह'ईज़ा?" बोली अशुफ़ा,
"हाँ?" जवाब दिया ह'ईज़ा ने!
"वो खिच्चा ला, दे सुरभि को!" बोली अशुफा,
"अभी लायी!" बोली वो, और चली बाहर,
"अशुफ़ा?" कहा सुरभि ने,
"हाँ, सुरभि?" बोली वो,
"मुझे भी यहीं रख लो!" बोली वो,
हंस पड़ी अशुफ़ा! सुरभि के गालों पर, दोनों हाथ रख दिए!
और चूम लिया उसका माथा!
"हम लोग, अलग हैं सुरभि! कर लगी बसर?" बोली अशुफ़ा!
"क्यों नहीं!" बोली जोश से,
"रात बीत जाने दो, सहर के बाद सोचना!" बोली वो,
रात! कितनी हसीन रात है ये!
रेगिस्तान! दूर-दराज में!
कुछ ही सूखे से पेड़ों के नीचे!
बाहर, अलाव जलते हुए!
हम्दा खाया जा रहा था सभी के द्वारा!
ये तम्बू!
लेकिन रात?
रात कहाँ है?
ये तो दिन है?
बाहर झाँका उसने, पर्दा हटा कर,
धूप खिली थी! चमक पड़ी रेगिस्तान की,
और नींद खुल गयी उसकी चमक से!
हाँफते हुए उठी सुरभि!
घड़ी देखी!
ढाई बजा था रात का!
लेकिन वो चमक?
ह'ईज़ा?
अशुफ़ा?
खड़ी हुई,
माथे पर, पसीने की बूँदें छलछला गयी थीं!
पोंछा माथा अपना,
जग से, गिलास में पानी डाला,
और पीने से पहले, वो गिलास देखा,
अपने आप ही, मुस्कान बिखर गयी होंठों पर!
'रात बीत जाने दो, सहर के बाद सोचना!' आये ये अलफ़ाज़ याद उसे!
मन ही मन, अशुफ़ा याद आई उसे!
कितनी प्यारी है वो! बड़ी बहन सा प्यार करती है!
काश, ये सपना न होता! काश..........
झट से पानी पिया, पानी का स्वाद, अजीब सा लगा उसे!
रखा गिलास, आखिरी घूँट अभी मुंह में ही था,
उसको, कई घूँटों में पिया, कि आ जाए वही स्वाद, किसी एक छोटे घूँट में!
न आया, पी लिया पानी!
जा लेटी, करवट ली, उसका गद्दा, जैसे पत्थर का सा बन गया था!
याद आ रहा था, वो फर वाला मोटा गद्दा!
आँखें बंद कीं उसने,
और कोशिश की नींद की!
आई नींद!
और फिर से, वहीँ, बे'दु'ईं क़बीले में जा पहुंची!
हाथ पकड़ रखा था अशुफा ने उसका,
उसके नाखूनों को सहला रही थी अशुफ़ा!
कोई गीत गुनगुनाते हुए!
"क्या गुनगुना रही हो?" पूछा सुरभि ने,
"एक लोक-गीत है(श'उआ'ज़ी कहा जाता है इसे)" बोली अशुफ़ा,
"क्या मायने हैं इसके?" पूछा सुरभि ने,
"मायने! एक क़बीला है, दूर-दराज में रहता है! नमक लाते हैं मर्द उनके, और औरतें, परिवार चलाती हैं, मर्द, महीने में, एक आद बार ही घर आते हैं, तो शाम को, ब्याहता औरतें, उनके आने का इंतज़ार करती हैं! वो अपने साथ, बर्तन, गहने, नए कपड़े, कंघियां और खाने का सामान लाते हैं! तो वो, चाँद से कहती हैं, कि तुम तो देख रहे हो उन्हें! ज़रा उनको मेरा भी संदेसा पहुंचा देना, कि रेगिस्तान में, कोई दिल उसके लिए धड़क रहा है! उसका इंतज़ार कर रहा है कोई! वे भी चाँद को देखते हैं, और यही गीत गाते हैं! ये यही है, यही है इसके मायने!" बोली अशुफ़ा!
"ओह! बहुत प्यार है! तो कोई आपका बाहर है अभी?" पूछा सुरभि ने,
"हाँ!" बोली वो,
"कौन?" पूछा सुरभि ने,
"मेरे खाविंद हुमैद और मेरे भाई!" बोली वो,
"क्या नाम है भाई का आपके?" पूछा सुरभि ने!
"फ़ैज़ान!" बोली अशुफ़ा!
फ़ैज़ान!
क्यों लगा ऐसा ये नाम सुनकर कि,
वो अपना सा ही है?
क्यों चेहरे के भाव बदल गए एक साथ?
क्यों लगा कि, ये गीत उसे भी गाना चाहिए?
क्यों लगा कि उसे भी इंतज़ार है?
माथे में शिकन पड़ीं!
होंठ सूख गए थे उसके!
खुली नींद!
पसीने में नहायी थी सुरभि!
नींद उड़ गयी थी आँखों से!
उठी वो,
अपने होंठ छुए,
सूख गए थे होंठ!
पानी पिया उसने,
और खिड़की के बाहर नज़र गयी!
चाँद!
चमक रहे थे!
जैसे देख रहे हों उसे!
वो चली खिड़की के पास!
खोल दिया उसे!
चाँद को देखा!
आज से पहले, ऐसे न देखे थे चाँद!
आज तो रूप बदल गया था!
मन किया, संदेसा भेज दूँ! अभी! इसी लम्हे!
खुली रहने दी खिड़की!
और होंठों पर,
एक मुस्कान चली आई!
अपने आप ही,
वो गीत निकलने लगा मुंह से!
वही, जो गुनगुना रही थी अशुफ़ा!
जा लेटी फिर से!
चाँद को देखते हुए ही!
चाँद, तो जैसे इंतज़ार कर रहे थे!
कि कब सुरभि संदेसा भेजे,
और वो जाकर खबर करें!
फिर से मुस्कान आई सुरभि के होंठों पर!
आँखें बंद कीं अपनी,
और चली गयी नींद के आग़ोश में!
अपने आपको,
उसी तम्बू में पाया!
खिच्चा ले आई थी ह'ईज़ा,
दिया गया सुरभि को,
उसने पिया, वही स्वाद, खोये जैसा!
"कब तक आएंगे वो?" पूछा सुरभि ने,
"कल-परसों में आने वाले हैं!" बोली वो,
कल या परसों!
बहुत दूर है कल!
और परसों तो शायद, साल सा बीतेगा!
ऐसे ख्याल आये दिल में!
खिच्च पी लिया गया था!
"आओ सुरभि!" बोली खड़ी होते हुए अशुफ़ा!
वो खड़ी हुई,
ह'ईज़ा भी,
और अशुफा, ले चली उसको,
जहां ले गयी, वो बड़ी ही सुंदर जगह थी!
एकदम साफ़!
जब एक क़बीला, ऐसे किसी नख़लिस्तान पर ठहरता है,
तो सारी साफ़-सफाई करके आगे बढ़ता है,
गंदगी का नामोनिशान नहीं रहता!
दूर से लाये हुए, खजूर के पौधे,
फूलों के पौधे, रूप दिए जाते हैं!
एक तम्बू, हमेशा तैयार रहता है,
उसमे खाना, दिशा-ज्ञान,
निकटतम शहर से दूरी,
कपड़े, कंबल आदी का इंतज़ाम किया जाता है,
ताकि कोई भूला-भटका वहां पहुंचे,
तो ये ज़ालिम रेगिस्तान,
उसकी जान न ले ले!
इस से, उन क़बीलों के नाम पर दाग नहीं लगे!
इसीलिए ऐसा किया जाता है,
जब भी कोई नया क़बीला वहाँ आता है,
तो ज़रूरत की सभी चीज़ें रख दिया करता है!
ये है, वहां का रिवाज़!
"कितनी सुंदर जगह है!" बोली सुरभि!
"आपको पसंद आई?" पूछा अशुफ़ा ने!
"बेहद!" बोली वो,
"हाँ, सुंदर जगह है!" बोली अशुफ़ा!
"नहाओगी?" पूछा ह'ईज़ा ने!
"हाँ!" बोली वो,
ले गयी एक सुरक्षित जगह!
वहां केवल औरतें ही जा सकती हैं,
मर्दों को मनाही होती है!
सभी पालन करते हैं इसका,
उसको स्नान करवाया गया!
खुशबूदार इत्र लगाया गया!
उसकी ऐसी खिदमत की,
कि सुरभि को दुनिया में सबसे भाग्यशाली होने का,
गुमान भर आया ज़हन में!
आ गयीं वापिस तम्बू में,
खाना लगाया गया,
सुरभि को खिलाया गया,
जब सुरभि ने खा लिया,
तो बाद में दोनों ने खाया,
हलीम-बिरयानी थी!
बेहद लज़ीज़ थी!
सुरभि को, बहुत पसंद आई वो!
पानी पिलाया गया उसको,
इस पानी का स्वद, ठीक वैसा ही था,
जैसा उसने उस सुराही से पिया था!
इस पानी में,
कुछ अलग ही स्वाद था!
कुछ अलग ही आनंद देता था!
जिस से, प्यास तो बुझती ही थी,
जिस्म में, ताक़त आ जाया करती थी!
और उसके थोड़ी देर बाद, शरबत पिलाया गया!
ऐसा शरबत उसने, कहीं भी, कभी भी, न पिया था!