कामवासना

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
007
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कामवासना

Unread post by 007 » 10 Dec 2014 09:40


कामवासना

उस दिन मौसम अपेक्षाकृत शान्त था । पर आकाश में घने काले बादल छाये हुये थे । जिनकी वजह से सुरमई अंधेरा सा फ़ैल चुका था । अभी 4 ही बजे होंगे । पर गहराती शाम का आभास हो रहा था । उस एकान्त वीराने स्थान पर एक अजीव सी डरावनी खामोशी छायी हुयी थी । किसी सोच विचार में मगन चुपचाप खङे वृक्ष भी किसी रहस्यमय प्रेत की भांति मालूम होते थे ।
नितिन ने एक सिगरेट सुलगाई । और वृक्ष की जङ के पास मोटे तने से टिक कर बैठ गया । सिगरेट । एक अजीव चीज । अकेलेपन की बेहतर साथी । दिलो दिमाग को सुकून देने वाली । एक सुन्दर समर्पित प्रेमिका सी । जो अन्त तक सुलगती हुयी सी प्रेमी को उसके होठों से चिपकी सुख देती है । उसने एक हल्का सा कश लगाया । और उदास निगाहों से सामने देखा । सामने । जहाँ टेङी मेङी अजीव से बल खाती हुयी नदी उससे कुछ ही दूरी पर बह रही थी ।

कभी कभी कितना अजीव सा लगता है सब कुछ । उसने सोचा - जिन्दगी भी क्या ठीक ऐसी ही नहीं है । जैसा दृश्य अभी है । टेङी मेङी होकर बहती उद्देश्य रहित जिन्दगी । दुनियाँ के कोलाहल में भी छुपा अजीव सा सन्नाटा । प्रेत जैसा जीवन । इंसान का जीवन और प्रेत का जीवन समान ही है । दोनों ही अतृप्त । बस तलाश वासना तृप्ति की ।
- उफ़्फ़ोह ! ये लङका भी अजीव ही है । उसके कानों में दूर माँ की आवाज गूँजी - फ़िर से अकेले में बैठा बैठा क्या सोच रहा है ? इतना बङा हो गया । पर समझ नहीं आता । ये किस समझ का है । आखिर क्या सोचता रहता है । इस तरह ।
- क्या सोचता है । इस तरह ? उसने फ़िर से सोचा - उसे खुद ही समझ नहीं आता । वह क्या सोचता है ।
क्यों सोचता है ? या कुछ भी नहीं सोचता है ? जिसे लोग सोचना कहते हैं । वह शायद उसके अन्दर है ही नहीं । वह तो जैसा भी है है ।
उसने एक नजर पास ही खङे स्कूटर पर डाली । और छोटा सा कंकर उठाकर नदी की ओर उछाल दिया ।
नितिन B.A का छात्र था । और मध्य प्रदेश के एक छोटे से शहर का रहने वाला था । उसके पिता शहर में ही मध्य स्तर के सरकारी अफ़सर थे । और उसकी माँ साधारण सी घरेलू महिला थी । उसकी 1 बडी बहन थी । जिसकी मध्य प्रदेश में ही दूर किसी अच्छे गाँव मे शादी हो चुकी थी । उसका कद 5 फ़ुट 9 इंच था ।
वह साधारण शक्ल सूरत वाला । सामान्य से पैन्ट शर्ट पहनने वाला । एक कसरती युवा था । उसके बालों का स्टायल साधारण था । और वाहन के रूप में उसका अपना स्कूटर ही था ।
वह शुरु से ही अकेला और तनहाई पसन्द था । शायद इसीलिये उसकी कभी कोई प्रेमिका नही रही । और न ही उसका कोई खास दोस्त ही था । दुनियाँ के लोगों की भीङ में भी वह खुद को बेहद अकेला महसूस करता था । वो हमेशा चुप और खोया खोया रहता । यहाँ तक कि काम भाव भी उसे स्पर्श नही करता ।
तब इसी अकेलेपन और ऐसी आदतों ने उसे 16 साल की उमर मे ही गुप्त रूप से तन्त्र मन्त्र और योग की रहस्यमयी दुनिया की तरफ़ धकेल दिया । लेकिन उसके जीवन के इस पहलू को कोई नही जानता था ।
अंतर्मुखी स्वभाव का ये लङका स्वभाव से शिष्ट और बेहद सरल था । बस उसे एक ही शौक था । कसरत करना ।
कसरत । वह उठकर खङा हो गया । उसने खत्म होती सिगरेट में आखिरी कश लगाया । और सिगरेट को दूर उछाल दिया । स्कूटर की तरफ़ बढते ही उसकी निगाह साइड में कुछ दूर खङे बङे पीपल पर गयी । और वह हैरानी से उस तरफ़ देखने लगा । कोई नवयुवक पीपल की जङ से दीपक जला रहा था । उसने घङी पर निगाह डाली । ठीक छह बज चुके थे । अंधेरा तेजी से बङता जा रहा था । उसने एक पल के लिये कुछ सोचा । फ़िर तेजी से उधर ही जाने लगा ।
- क्या बताऊँ दोस्त ? वह गम्भीरता से दूर तक देखता हुआ बोला - शायद तुम कुछ न समझोगे । ये बङी अजीव कहानी ही है । भूत प्रेत जैसी कोई चीज क्या होती है ? तुम कहोगे । बिलकुल नहीं । मैं भी कहता हूँ । बिलकुल नहीं । लेकिन कहने से क्या हो जाता है । फ़िर क्या भूत प्रेत नहीं ही होते ।
ये दीपक ? नितिन हैरानी से बोला - ये दीपक आप यहाँ क्यों ..मतलब ?
- मेरा नाम मनोज है । लङके ने एक निगाह दीपक पर डाली - मनोज पालीवाल । ये दीपक क्यों ? दरअसल मुझे खुद पता नहीं । ये दीपक क्यों ? इस पीपल के नीचे ये दीपक जलाने से क्या हो सकता है । मेरी समझ के बाहर है । लेकिन फ़िर भी जलाता हूँ ।
- पर कोई तो वजह ..वजह ? नितिन हिचकता हुआ सा बोला - जब आप ही..आप ही तो जलाते हैं ।
- बङे भाई ! वह गहरी सांस लेकर बोला - मुझे एक बात बताओ । घङे में ऊँट घुस सकता है । नहीं ना । मगर कहावत है । जब अपना ऊँट खो जाता है । तो वह घङे में भी खोजा जाता है । शायद इसका मतलब यही है कि समस्या का जब कोई हल नजर नहीं आता । तव हम वह काम भी करते हैं । जो देखने सुनने में हास्यास्पद लगते हैं । जिनका कोई सुर ताल ही नहीं होता ।
उसने बङे अजीव भाव से एक उपेक्षित निगाह दीपक पर डाली । और यूँ ही चुपचाप सूने मैदानी रास्ते को देखने लगा । उस बूङे पुराने पीपल के पत्तों की अजीव सी रहस्यमय सरसराहट उन्हें सुनाई दे रही थी । अंधेरा फ़ैल चुका था । वे दोनों एक दूसरे को साये की तरह देख पा रहे थे । मरघट के पास का मैदान । उसके पास प्रेत स्थान युक्त ये पीपल । और ये तन्त्र दीप । नितिन के रोंगटे खङे होने लगे । उसके बदन में एक तेज झुरझुरी सी दौङ गयी । उसकी समस्त इन्द्रियाँ सजग हो उठी । वह मनोज के पीछे भासित उस आकृति को देखने लगा । जो उस कालिमा में काली छाया सी ही उसके पीछे खङी थी । और मानों उस तन्त्र दीप का उपहास उङा रही हो ।

मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा करें । क्या मामला है । क्या होने वाला है ?
- कुछ..सिगरेट वगैरह..। मनोज हिचकिचाता हुआ सा बोला - रखते हो । वैसे अब तक कब का चला जाता । पर तुम्हारी वजह से रुक गया । तुमने दुखती रग को छेङ दिया । इसलिये कभी सोचता हूँ । तुम्हें सब बता डालूँ
दिल का बोझ कम होगा । पर तुरन्त ही सोचता हूँ । उसका क्या फ़ायदा । कुछ होने वाला नहीं है ।
- कितना शान्त होता है ये मरघट । फ़िर वह एक गहरा कश लगाकर दोबारा बोला - ओशो कहते हैं । दरअसल मरघट ठीक बस्ती के बीच होना चाहिये । जिससे आदमी अपने अन्तिम परिणाम को हमेशा याद रखें ।
मनोज को देने के बाद उसने भी एक सिगरेट सुलगा ली थी । और जमीन पर ही बैठ गया था । लेकिन मनोज ने सिगरेट को सादा नहीं पिया था । उसने एक पुङिया में से चरस निकाला था । उसने वह नशा नितिन को भी आफ़र किया । लेकिन उसने शालीनता से मना कर दिया

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Re: कामवासना

Unread post by 007 » 10 Dec 2014 09:42

तेल से लबालब भरे उस बङे दिये की पीली रोशनी में वे दोनों शान्त बैठे थे । नितिन ने एक निगाह ऊपर पीपल की तरफ़ डाली । और उत्सुकता से उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा । उसे हैरानी हो रही थी । वह काली अशरीरी छाया उन दोनों से थोङा दूर ही शान्ति से बैठी थी । और कभी कभी एक उङती निगाह मरघट की तरफ़ डाल लेती थी । नितिन की जिन्दगी में यह पहला वास्ता था । जब उसे ऐसी कोई छाया नजर आ रही थी । रह रह कर उसके शरीर में प्रेत की मौजूदगी के लक्षण बन रहे थे । उसे वायु रूहों का पूर्ण अहसास हो रहा था । और एकबारगी तो वह वहाँ से चला जाना ही चाहता था । पर किन्हीं अदृश्य जंजीरों ने जैसे उसके पैर जकङ दिये थे ।
- मनसा जोगी ! वह हल्का सा भयभीत हुआ - रक्षा करें ।
मनोज पर चरसी सिगरेट का नशा चढने लगा । उसकी आँखें सुर्ख हो उठी ।
- ये जिन्दगी बङी अजीव है मेरे दोस्त । वह किसी कथावाचक की तरह गम्भीरता से बोला - कब किसको बना दे । कब किसको उजाङ दे । कब किसको मार दे । कब किसको जिला दे ।
- आपको । नितिन सरल स्वर में बोला - घर नहीं जाना । रात बढती जा रही है । मेरे पास स्कूटर है । मैं आपको छोङ देता हूँ ।
- एक सिगरेट..सिगरेट और दोगे । वह प्रार्थना सी करता हुआ बोला - प्लीज प्लीज बङे भाई ।
उसने बङे अजीव ढंग से फ़िर उस काली छाया को देखा । और पैकेट उसे थमा दिया । थोङी थोङी हवा चलने लगी थी । दिये की लौ लपलपा उठती थी । मनोज ने उसे जङ की आङ में कर दिया । और दोबारा पुङिया निकाल ली ।

बताऊँ । वह फ़िर से उसकी तरफ़ देखता हुआ बोला - या ना बताऊँ ?
वह उसे फ़िर से सिगरेट में चरस भरते हुये देखता रहा । उसे इस बात पर हैरानी हो रही थी कि जो प्रेतक उपस्थिति के अनुभव उसे हो रहे हैं । क्या उसे नहीं हो रहे । या फ़िर नशे की वजह से वह उन्हें महसूस नहीं कर पा रहा । या
फ़िर अपने किसी गम की वजह से वह उसे महसूस नहीं कर पा रहा । या या..उसके दिमाग में एक विस्फ़ोट सा हुआ - या वह ऐसे अनुभवों का अभ्यस्त तो नहीं है । उसकी निगाह तुरन्त तन्त्र दीप पर गयी । और स्वयं ही उस काली छाया पर गयी । छाया जो किसी औरत की थी । और पीली मुर्दार आँखों से उन दोनों को ही देख रही थी ।
एकाएक जैसे उसके दिमाग में सब तस्वीर साफ़ हो गयी । वह निश्चित ही प्रेत वायु का लम्बा अभ्यस्त था । साधारण इंसान किसी हालत में इतनी देर प्रेत के पास नहीं ठहर सकता था ।
- मेरा बस चले तो साली की माँ ही...। उसने भरपूर सुट्टा लगाया । और घोर नफ़रत से बोला - पर कोई सामने तो हो । कोई नजर तो आये । अदृश्य को कैसे क्या करूँ । बोलो । तुम बोलो । गलत कह रहा हूँ मैं ।
- लेकिन मनोज जी ?
- बताता हूँ । सब बताता हूँ । बङे भाई । जाने क्यों अन्दर से आवाज आ रही है । तुम्हें सब बताऊँ । जाने क्यों । जाने क्यों । मेरे गाली बकने को गलत मत समझना । आदमी जब वेवश हो जाता है । तो फ़िर उसे और कुछ नहीं सूझता । सिवाय गाली देने के ।
पदमा ने धुले हुये कपङों से भरी बाल्टी उठाई । और बाथरूम से बाहर आ गयी । उसके बङे से आंगन में धूप खिली हुयी थी । वह फ़टकारते हुये एक एक कपङे को तार पर डालने लगी । उसकी लटें बार बार उसके चेहरे पर झूल जाती थी । जिन्हें वह नजाकत से पीछे झटक देती थी । विवाह के चार सालों में ही उसके यौवन में भरपूर निखार आया था । उसका अंग अंग खिल सा उठा था । अपने ही सौन्दर्य को देखकर वह मुग्ध हो जाती थी । उसकी छातियों में एक अजीव सा रोमांच भर उठता था । वाकई पुरुष के हाथ में कोई जादू होता है । उसकी समीपता में एक विचित्र ऊर्जा सी होती है । जो लङकी की जवानी को फ़ूल की तरह से महका देती है ।
विवाह के बाद उसका शरीर तेजी से भरा था । उसके एकदम गोल उन्नत स्तन और भी विकसित हुये थे । ये सोचते ही उसके चेहरे पर शर्म की लाली दौङ गयी । कितने बेशर्म और लालची होते हैं सब पुरुष । सब यहीं ताकते हैं । बूढी हो या जवान । इन्हें एक ही काम । इसके लिये शायद औरत कहीं भी सेफ़ नहीं । शायद अपने ही घर में भी नहीं ।
उसने एक गहरी सांस ली । और उदास नजरों से नितिन को देखा । उसकी आँखें हल्की हल्की नम हो चली थी ।

नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - कैसा अजीव बनाया है । दुनियाँ का ये सामाजिक ढांचा भी । और कैसा अजीव बनाया है । देवर भाभी का सम्बन्ध भी । दरअसल..मेरे दोस्त । ये समाज समाज नहीं । पाखण्डी लोगों का समूह मात्र है । हम ऊपर से कुछ और बरताव करते हैं । हमारे अन्दर कुछ और ही मचल रहा होता है । हम सब पाखण्डी हैं । तुम । मैं । और सब ।
मेरी भाभी ने मुझे माँ के समान प्यार दिया था । मैं पुत्रवत ही उसके सीने से लिपट जाता था । कहीं भी छू लेता था । क्योंकि तब उस स्पर्श में काम वासना नहीं थी । इसलिये मुझे कहीं भी छूने में झिझक नहीं थी । और फ़िर वही भाभी कुछ समय बाद मुझे एक स्त्री नजर आने लगी । सिर्फ़ एक भरपूर जवान स्त्री । मेरे अन्दर का पुत्र लगभग मर गया । और उसकी जगह सिर्फ़ पुरुष बचा रह गया । अपनी भाभी के ही स्तन मुझे अच्छे लगने लगे । चुपके चुपके उन्हें देखना । और झिझकते हुये छूने को जी सा ललचाने लगा । जिस भाभी को मैं कभी भी गोद में ऊँचा उठा लेता था । भाभी मैं नहीं मैं नहीं.. कहता उनके सीने से लग जाता ।
अब उसी को छूने में एक अजीव सी झिझक होने लगी । इस काम वासना ने हमारे पवित्र माँ बेटे जैसे प्यार को गन्दगी का कीचङ सा लपेट दिया । लेकिन शायद ये बात सिर्फ़ मेरे अन्दर ही थी । भाभी के अन्दर नहीं । उसे पता भी नहीं कि मेरी निगाहों में क्या रस पैदा हो गया ? मैं यही सोचता था ।
बाल्टी से निकालकर कपङे निचोङती हुयी पदमा की निगाह अचानक सामने बैठे मनोज पर गयी । फ़िर अपने ब्लाउज पर गयी । आँचल रहित सीना । साङी का आँचल उसने कमर में खोंस लिया था । वह चोर नजरों से उसके ब्लाउज से बाहर छलकते सुडौल स्तनों को देख रहा था ।
- क्या गलती है इसकी ? पदमा ने सोचा - कुछ भी तो नहीं । ये होने जा रहा मर्द है । कौन ऐसा शरीफ़ है । जो स्त्री कुचों का दीवाना नहीं । बूढा । जवान । बच्चा । अधेङ । शादीशुदा । या फ़िर कुंवारा । भूत प्रेत । या देवता भी । सच तो ये है । स्त्री भी स्त्री के स्तनों को देखती है । स्वयं से तुलनात्मक या फ़िर वासनात्मक भी । शायद ईश्वर की कुछ खास रचना हैं । नारी स्तन । नारी का सौन्दर्य है । नारी स्तन ।
उसने अपने आँचल को ठीक करने का कोई उपकृम नहीं किया । और सीधे ही तपाक से पूछा - सच बता । क्या देख रहा था ?
मनोज एकदम हङबङा गया । उसने झेंप कर मुँह फ़ेर लिया । उसके चेहरे पर ग्लानि के भाव थे । पदमा ने आखिरी कपङा तार पर डाला । और उसके पास ही सामने चारपाई पर बैठ गयी । उसने अपने आँचल को अभी भी ज्यों का त्यों ही रखा । उसके मन में एक अजीव सा भाव था । शायद एक शाश्वत प्रश्न जैसा ।

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Re: कामवासना

Unread post by 007 » 10 Dec 2014 09:43

औरत । पुरुष की कामना । औरत ।.. औरत । पुरुष की वासना । औरत ।.. औरत । पुरुष की भावना । औरत ।
फ़िर वह मनोज के स्वाभाविक भावों को कौन से नजरिये से गलत समझे । उसकी जगह उसका कोई दूर दराज का चाचा ताऊ भी निश्चित ही उसके लिये यही आंतरिक भाव रखता । क्योंकिं वह एक सम्पूर्ण लौकिक औरत थी ।
भांति भांति के कुदरती सुन्दर फ़ूलों की तरह ही सृष्टि कर्ता ने औरत को भी विशेष सांचे में ढाल कर बनाया । जहाँ उसके अंगों में फ़लों का सा मधुर रस भर दिया । वहीं उसके सौन्दर्य में फ़ूलों की अनुपम महक भी डाल दी । जहाँ उसके मादक अंगों से सुरा के पैमाने छलका दिये । वहीं उसकी सादगी में एक शान्त धीर गम्भीर देवी नजर आयी ।
कुछ ऐसी ही थी पदमा भी । उसकी बङी बङी काली आँखों में एक अजीव सा सम्मोहन था । जो साधारण दृष्टि से देखने पर भी यौन आमन्त्रण जैसा मालूम होता था । पदमिनी स्त्री प्रकार की ये नायिका मानों धरा के फ़लक पर कयामत बनकर उतरी थी । उसके लहराते लम्बे रेशमी बाल उसके कन्धों पर फ़ैले रहते थे । वह नये नये स्टायल का जूङा बनाने और इत्र लगाने की बेहद शौकीन थी ।
पदमा की लम्बाई 5 फ़ीट 8 इंच थी । और उसका फ़िगर 34-26-34 की मनमोहक बनाबट में खूबसूरती से गढा गया था । अपनी 5 फ़ीट 8 इंच की लम्बाई के बाद भी वह 2 इंच ऊँची हील वाली सेंडल पहनती थी । और अपनी मदमस्त चाल से पुरुषों के दिल में उथल पुथल मचा कर रख देती थी । उसके लचकते मांसल नितम्बों की थिरकन कब्र में पैर लटकाये बूङों में जोश की तरंग पैदा कर देती थी ।
- मनोज ! वह सम्मोहनी आँखों से देखती हुयी बोली - मैं जानना चाहती हूँ । तुम चोरी चोरी अभी क्या देख रहे थे । डरो मत । सच बताओ । मैं किसी को बोलूँगी नहीं । शायद मेरे तुम्हारे मन में एक ही बात हो ।
- भाभी ! वह कठिनता से कांपती आवाज में बोला - आपने कभी किसी से प्यार किया है ?
- प्यार..प्यार ? हाँ किया है ना । वह सहजता से सरल स्वर में बोली - देख मनोज । हर लङका लङकी किशोरावस्था में किसी न किसी विपरीत लिंगी से प्यार करते ही हैं । भले ही वो प्यार एक तरफ़ा हो । दो तरफ़ा हो । सफ़ल हो । असफ़ल हो । मैंने भी अपने गाँव में एक लङके राजीव से प्यार किया । पर वो ऐसा पागल निकला । मुझ रूप की रानी के प्यार की परवाह न कर साधु बाबा हो गया । हाँ मनोज । उसका मानना था । ईश्वर से प्यार ही सच्चा प्यार है । बाकी मेरी जैसी सुन्दर रसीली रस भरी औरत तो जीती जागती माया है । माया ।
माया । उसने एक गहरी सांस ली । वह चुप ही रहा । पर रह रह कर भाभी के सीने का आकर्षण उसे वहीं देखने को विवश कर देता । और पदमा उसे इसका भरपूर मौका दे रही थी । इसीलिये वह अपनी नजरें उससे मिलाने के बजाये इधर उधर कर लेती ।
- बस । कुछ देर बाद वह बोली - एक बार तुम बिलकुल सच बताओ । तुम चोरी चोरी क्या देख रहे थे । फ़िर मैं भी तुम्हें कुछ बताऊँगी । शायद जिस सौन्दर्य की झलक मात्र से तुम बैचेन हो । वह सम्पूर्ण सौन्दर्य खुल कर तुम्हारे सामने हो । क्योंकि..कहते कहते वह रुकी - मैं भी एक औरत हूँ । और मैं अपने सौन्दर्य प्रेमी को अतृप्त नहीं रहने दे सकती । कभी नहीं ।
- नहीं । वह तेजी से बोला - ऐसा कुछ नहीं । ऐसा कुछ नहीं है भाभी माँ । मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता । पर मैं सच कहूँगा । ये..ये आपके ब्लाउज के अन्दर जो हैं । बस ना जाने क्यों । इन्हें देखने को दिल सा करता है ।..भाभी.वो गाना है ना - तेरे दो अनमोल रतन । एक है राम । और एक लखन । जाने क्यों मुझे ये गाना आपके इनके लिये गाना अच्छा लगता है । जब भी मुझे आपकी बाहर कहीं याद आती है । मैं इन्हीं को याद कर लेता हूँ - तेरे दो अनमोल रतन । एक है राम । और एक लखन ।
उसकी साफ़ सरल सीधी सच्ची स्पष्ट बात और मासूमियत पर पदमा हँसते हँसते पागल हो उठी । यकायक उसके मोतियों जैसे चमकते दाँतों की बिजली सी कौंधती । और उसके हँसने की मादक मधुर स्वर लहरी वातावरण में काम रस सा घोल देती । वह भी मूर्खों की भांति उसके साथ हँसने लगा ।

एक मिनट एक मिनट यार । वह अपने को संयमित करती हुयी बोली - क्या बात कही । मनोज मुझे तेरी बात पर अपनी एक सहेली की याद आ गयी । उसकी नयी नयी शादी हुयी थी । पहली विदाई में जब वह पीहर आने लगी । तो उसका पति बहुत उदास हो गया । वह बोली - ऐसे क्यों मुँह लटका लिया । मैं मर थोङे ना गयी । सिर्फ़ 8 दिन को ही तो जा रही हूँ । तब उसका पति बोला - मुझे तेरे जाने का दुख नहीं । तू जाती हो तो जा । पर मुझे इन दोनों
की बहुत याद आयेगी । ऐसा कर इन्हें काट कर मुझे दे जा ।
अचानक अब तक गम्भीर बैठे नितिन ने जोरदार ठहाका लगाया । ऐसी अजीव बात उसने पहली बार ही सुनी थी । माहौल की मनहूसियत एकाएक छँट सी गयी । मनोज हल्के नशे में था । वह भी उसके साथ हँसा ।
- तेरे दो अनमोल रतन । एक है राम । और एक लखन । फ़िर वह धीमे धीमे सुबकने लगा ।
अजीव सस्पेंस फ़ैलाया था । इस लङके ने । वह सिर्फ़ इस जिज्ञासा के चलते उसके पास आया था कि वो ये तन्त्र दीप क्यों जला रहा था ? कौन सी प्रेत बाधा का शिकार हुआ था । और अभी इस साधारण से प्रश्न का उत्तर मिल पाता । वह काली अशरीरी छाया एक बङे अनसुलझे रहस्य की तरह वहाँ प्रकट हुयी । एक और प्रश्न ?
- मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा करें ।
वह काली छाया अभी भी बूङे पीपल के आसपास ही टहल सी रही थी । वह शहर से बाहर स्थानीय उजाङ और खुला शमशान ही था । सो अशरीरी रूहों के आसपास होने का अहसास उसे बारबार हो रहा था । पर मनोज इस सबसे बिलकुल बेपरवाह बैठा था ।
दरअसल नितिन ने प्रत्यक्ष अशरीरी भासित रूह को पहली बार ही देखा था । पर वह तन्त्र क्रियाओं से जुङा होने के कारण ऐसे अनुभवों का कुछ हद अभ्यस्त था । लेकिन वह युवक तो उपचार के लिये आया था । फ़िर वह कैसे ये सब महसूस नहीं कर रहा था ? और उसके ख्याल में कारण दो ही हो सकते थे । उसका भी प्रेतों के सामीप्य का अभ्यस्त होना । या फ़िर नशे में होना । या उसकी निडरता अजानता का कारण वह भी हो सकता था । या फ़िर वह अपने ख्याली गम में इस तरह डूबा था कि उसे माहौल की भयंकरता पता ही नहीं चल रही थी । उसकी निगाह फ़िर एक बार काली छाया पर गयी ।
- मैं सोचता हूँ । वह कुछ अजीव से स्वर में बोला - हमें अब घर चलना चाहिये ।
- अरे बैठो दोस्त ! मनोज फ़िर से गहरी सांस भरता हुआ बोला - कैसा घर । कहाँ का घर । सब मायाजाल है साला । चिङा चिङी के घोंसले । चिङा चिङी..अरे हाँ ..मुझे एक बात बताओ । तुमने औरत को कभी वैसे देखा है । बिना वस्त्रों में । एक खूबसूरत जवान औरत । पदमिनी नायिका । रूपसी । रूप की रानी जैसी । एक नंग्न औरत ।
- सुनो ! वह हङबङा कर बोला - तुम बहकने लगे हो । हमें अब चलना चाहिये ।
ठ ठ ठहरो भाई ! तुम गलत समझे । वह उदास हँसी हँसता हुआ बोला - शायद फ़िर तुमने ओशो को नहीं पढा । मैं आंतरिक भावों से नग्न औरत की बात कर रहा हूँ । और इस तरह औरत को कोई नग्न नहीं कर पाता । शायद उसका पति भी नहीं । शायद उसका पति । यानी मेरा सगा भाई । भाई । भाई मुझे समझ नहीं आता । मैं कसूरवार हूँ या नहीं । याद रखो ।.. वह दार्शनिकता दिखाता हुआ बोला - औरत को नग्न करना आसान नहीं । वस्त्र रहित नग्नता नग्नता नहीं है ।
- ठीक है मनोज । पदमा जबरदस्त मादक अंगङाई लेकर अपनी बङी बङी आँखों से सीधी उसकी आँखों में झांकती हुयी सी बोली - तुमने बिलकुल सही और सच बोला । हाँ ये सच है । किसी भी लङकी में जैसे ही यौवन सुन्दरता के ये पुष्प खिलना शुरू होते हैं । वह सबके आकर्षण का केन्द्र बन जाती है । एक सादा सी लङकी मोहक मोहिनी में रूपांतरित होने लगती है । तुमने कभी इस तरह सोचा ।..मैं जानती हूँ । तुम मुझे पूरी तरह देखना चाहते हो । छूना चाहते हो । खेलना चाहते हो । क्योंकि ये सब सोचते समय तुम्हारे अन्दर मैं तुम्हारी भाभी नहीं । सिर्फ़ एक खूबसूरत औरत होती हूँ । उस समय भाभी मर जाती है । सिर्फ़ औरत । सिर्फ़ औरत ही रह जाती है । बताओ मैंने सच कहा ना ?
- गलत । वह कठिन स्वर में बोला - एकदम गलत । ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं । बस सच इतना ही है कि जब भी इस घर में तुम्हें चलते फ़िरते देखता हूँ । तो मैं तुम्हें पहले पूरा ही देखता हूँ । लेकिन फ़िर न जाने क्यों मेरी निगाह इधर हो जाती है । यहाँ देखना क्यों आकर्षित करता है । मैं समझ नहीं पाता ।

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