मनोहर कहानियाँ

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
Jemsbond
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Re: मनोहर कहानियाँ

Unread post by Jemsbond » 20 Dec 2014 10:05

‘‘हवस की चाहत में’’


कपिल व वीरेन्द्र आवारागर्द व रसिक मिजाज इंसान थे। शराब और शबाब इनकी मुख्य कमजोरी थी दोनों जो भी पैसा कमाते, उसका अधिकांश हिस्सा अपनी अय्याशी पर खर्च कर डालते थे। समान विचार और एक ही कालोनी में रहने की वजह से उनमें बेहद अच्छी दोस्ती थी। एक दिन शाम दोनों अपनी हवस की पूर्ति के लिए किसी बाजारू औरत की तलाश में साथ निकले। कैंट रेलवे स्टेशन सहित उन सभी संभावित स्थानों, जहां उनकी नजर में बाजारू औरतें खड़ी मिल सकती थी, कई चक्कर लगा लिये, लेकिन किसी पेशेवर औरत से उनकी मुलाकात नहीं हुई। वह निराश होकर वापस लौट रहे थे कि रास्ते में एक जगह उन्हें राजू दिख गया। राजू से दोनों अच्छी तरह परिचित थे, क्योंकि राजू उनके लिए कभी-कभार चाय वगैरह ला देता, तो वे उसे एक-दो रूपया दे दिया करते थे। राजू पर नजर पड़ते ही कपिल की आँखों में अचानक चमक आ गयी, ‘‘क्यों, आज इसे ले चलूं?’’ उसने चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए वीरेन्द्र से पूछा।
वीरेन्द्र अधीर हो उठा, ‘‘यार! पूछ क्यों रहे हो, चल इसे ही ले चलें।’’
कपिल बोला, ‘‘हमारी तो पहले से ही इस पर नजर थी।’’
फिर कपिल ने राजू को आवाज दी, तो वह उनके पास आ गया। उस दिन वीरेन्द्र के घर पर गाजर का हलवा बना था। अतः वीरेन्द्र ने थोड़ा हलवा अपने पास रख लिया था। राजू को हलवा दिखाते हुए वीरेन्द्र ने पूछा, ‘‘राजू बेटे हलवा खायेगा?’’
‘‘हां अंकल!’’ मुस्कुराते हुए राजू ने तपाक से कहा।
‘‘तो चल मेरे साथ। हलवा के साथ तुझे पेठा भी खिलाउंगा।’’ इस बार कपिल ने कहा।
राजू उनकी बातों में आ गया और वह उनके साथ चल पड़ा। कपिल जहां नौकरी करता था, तीनों वहां आ गयें। फिर कपिल ने दफ्तर के सामने कुछ लकडि़यां एकत्र कर आग जला दी और वहां वीरेन्द्र व राजू के साथ बैठ गया। वीरेन्द्र ने अपने पास एक प्लास्टिक की पन्नी में थोड़ा गाजर का जो हलवा रखा था, वह राजू को खाने को दे दिया। राजू ने जब हलवा खा लिया, तो वीरेन्द्र ने पूछा, ‘‘बेटा! मजा आया।’’
‘‘हां अंकल! बेहद स्वादिष्ट था।’’ तोतली आवाज में राजू ने कहा।
‘‘तू केवल हमारी बात मान, हम तुझे पैसा भी देंगे और पेठा भी खिलाएंगे।’’ कपिल ने कहा।
‘‘ठीक है अंकल।’’ राजू बोला।
काफी समय तक तीनों आग के पास बैठे रहे। जब कपिल को लगा, अब आँफिस का कोई स्टाफ नही आएगा, तो वह राजू को साथ लेकर प्रथम मंजिल स्थित अपने कमरे में पहुंचा। वीरेन्द्र भी साथ था। कमरे में कपिल पहले से ही देशी शराब का आद्धा रख लिया था। दोनों ने राजू को बातों में लगाकर जल्दी-जल्दी सारी शराब अपने हलक के नीचे उतार लिया। चूँकि राजू दिमाग से कमजोर था, इसलिए वह उनकी मंशा से अनजान बना रहा। कपिल ने राजू को पूरी तरह नंगा कर दिया था, पर राजू ने कोई विरोध नहीं किया। फिर कपिल ने राजू को नीचे लिटा दिया और उसके साथ उसने अप्राकृतिक संबंध बनाने की कोशिश करने लगे, लेकिन राजू दर्द से चीख पड़ा। इस पर कपिल घबराकर हट गया।
वीरेन्द्र ने प्यार भरे स्वर में राजू से कहा, ‘‘बेटा कुछ नहीं होगा…… अरे यह तो एक खेल है, राजू तुम्हें यह खेल सीखना जरूरी है।’’ वीरेन्द्र ने बहला-फुसलाकर उसे चुप करा दिया।
थोड़ी देर बाद वीरेन्द्र ने राजू के साथ अप्राकृतिक संबंध बनाने की चेष्टा की, तो वह असहाय दर्द से पुनः चीख उठा तब घबराकर कपिल ने उसका मुंह जोर से दबा दिया, ताकि उसकी चीख बाहर न जा सके।
अब कपिल व वीरेन्द्र को यह भय हो गया कि राजू उनकी इस करतूत की पोल खोल सकता है। फिर उन दोनों ने इशारों ही इशारों में उसे खत्म कर देने का निर्णय ले लिया, फिर कपिल ने पूरी ताकत से राजू का गला दबा दिया। वहीं वीरेन्द ने राजू का अंडकोश पकड़कर जोर से दबाते हुए उसे खींच लिया। कुछ ही पल में राजू की मौत हो गयी।
वारदात को अंजाम देने के बाद पुलिस को गुमराह करने के लिए उसी रात राजू को उसी की टीशर्ट की मदद से गले में फंदा लगाकर अस्पताल की दीवार के साथ बने पीछे वाले कमरे की खिड़की की ग्रिल से लटका दिया तथा उसके बाकी कपड़े वहीं पास फेंककर दोनों सावधानी पूर्वक वहां से भाग निकले। कपिल व वीरेन्द्र की सोच थी, कि पुलिस को यह मामला आत्महत्या का लगेगा और पुलिस उन तक कभी नहीं पहुंच पायेगी। लेकिन उनकी यह सोच गलत साबित हुई। कड़ी मशक्कत के बाद पुलिस ने इस मामले का पर्दाफास कर दोनों को जेल भेज दिया।

Jemsbond
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Re: मनोहर कहानियाँ

Unread post by Jemsbond » 20 Dec 2014 10:06

प्यार के दो पल
*प्यार के लिये तड़पती एक महिला की कहानी*

आज बहुत देर तक सोता रहा था वो. सूरज सर पे चढ़ आया था. इतवार था, कहीं जाना भी नहीं था और फिर कर थकान भी कुछ ज़्यादा ही हो गयी थी. आजकल ज़ल्दी थकान होने लगी थी उसे, कुछ तो उम्र का तकाजा था और कुछ अकेलापन. बात भी करे तो किस से. आजकल मेट्रोज में किस के पास टाइम है बात करने का. बस रोज़ शाम को दफ्तर से घर जाओ और इस कमरे के कैदखाने में कैद हो जाओ.
गैस जलाकर चाय चढ़ा दी और दरवाजे के नीचे पडा हुआ अखबार उठा लाया. आठ महीने हो गए प्रशांत को दिल्ली आये हुए. अपना सारा घर-बार, बीवी-बच्चे, माँ-बाप सब छोड़ कर आना पडा था. नौकरी का सवाल था भाई, छोटे शहरों आजकल नौकरी कहाँ मिलती है. आठ महीने से इसी जुगाड़ में है कि परमानेंट हो जाऊं तो जा कर बीवी-बच्चों को भी ले आऊं. तब तक इसी तरह काम चलाना पड़ेगा. बड़े शहरों में मकान मिलना भी बहुत मुश्किल है. वो तो किस्मत अच्छी थी कि इस कमरे का जुगाड़ हो गया. मकान मालकिन भी मजबूरी कि मारी एक विधवा है. भरी जवानी में पति का देहांत हो गया बेचारी अपना खर्चा चलाने के लिए कमरा किराये पर देना चाहती थी, किराने कि दूकान वाले ने बता दिया और प्रशांत का काम बन गया. तब से ये कमरा ही उसकी दुनिया है.
चाय तैयार हो गई तो कप में डाल कर खिड़की के पास आकर बैठ गया. बाहर आँगन में अनीता कपडे धो रही थी. अनीता उसी मकान मालकिन का नाम है. अनीता को देख कर उसको अपने बीवी याद आ जाती थी. दोनों कि उम्र बराबर ही तो होगी. बस फर्क इतना था कि अनीता विधवा थी इसलिए कोई श्रृंगार नहीं करती थी जबकि उसकी सुधा को श्रृंगार का बेहद शौक है. हमेशा सजी-धजी रहती है.
"तुम घर में भी लिपस्टिक क्यूँ लगाती हो सुधा" एक बार पूछ लिया था उसने. जवाब मिला "तुम नहीं लगाते हो ना इसीलिए."
"मैं कुछ समझा नहीं"
"अरे जानू ! मैं लगाउंगी तो तुम्हारे भी अपने आप लग जाएगी ना, इसीलिए...हा हा हा", जोर से शरारती हंसी सुनाई दी थी उसकी.
"दीपू बेटा जिद मत किया कर" अचानक आई इस आवाज़ ने उसे जैसे नींद से जगा दिया. सामने आँगन में अनीता अपने पांच साल के इकलौते बेटे को डांट रही थी. दीपू किसी बात को लेकर जिद कर रहा था और रो रहा था. प्रशांत ने वहीँ से आवाज़ लगाईं.." दीपू, क्या बात है क्यूँ रो रहा है ?" दीपू ने सुनकर भी अनसुना कर दिया और रोना जारी रखा. अनीता ने प्रशांत की तरफ देखते अपने पल्लू सँभालते हुए कहा "क्या करूँ, सुबह से जिद कर रहा है की सर्कस देखने जाना है. अब आप बताओ इसे मैं कहाँ से सर्कस दिखा कर लाऊं."
उसकी बात सुन कर प्रशांत मुस्कुरा दिया. उसने मन ही मन सोचा "बेचारा बिना बाप का बच्चा , इसे कौन सर्कस दिखने ले कर जायेगा." और फिर अचानक उसने जोर से दीपू को आवाज़ लगाते हुए कहा "चल दीपू आज मैं तुझे सर्कस दिखा कर लाऊँगा ..तैयार हो जा". दीपू तो ये सुनते ही ख़ुशी से झूम उठा और उधर अनीता ने झेंपते हुए कहा "अरे नहीं , आप कहाँ परेशान होंगे..ये तो बस यूँ ही जिद करता रहता है.."
"कोई बात नहीं, बच्चा ही तो है, जिद तो करेगा ही, और फिर मैं भी आज फ्री हूँ मेरा भी टाइम पास हो जायेगा. मैं ले जाऊंगा आप 3 बजे तैयार कर देना इसको." प्रशांत ने पुरे अपनेपन से कहा और फिर मन ही मन सोचने लगा चलो आज शाम पार्क में अकेले बैठने से अच्छा है बच्चे का मन ही बहलाया जाये.
प्रशांत ने अपने रविवार के बाकी सभी काम निपटाए और नहा धोकर तैयार हुआ तो घडी में २ बज गए थे. उसने कपडे बदले और अनीता के कमरे के सामने जा कर दीपू को आवाज़ लगाई. प्रशांत कभी अनीता के कमरे में नहीं जाता उसे आता देख कर अनीता कुछ असहज हो जाती है, इसलिए उसने बाहर से ही आवाज़ लगाई तो दीपू ने झट से दरवाज़ा खोल दिया. वो पूरी तरह तैयार था फिर भी प्रशांत ने पुछा "हाँ दीपू ? तैयार हो गए ", और उसके पैरो की तरफ इशारा करते हुए बोला "अरे अभी तक जूते नहीं पहने. जल्दी करो भाई सर्कस चालु हो जायेगा.." उसकी बात सुनते ही दीपू दौड़कर जूते ले आया तब तक अनीता ने थोडा शरमाते हुए उसे कमरे में भीतर बुलाया और दीपू से बोली "चल, जल्दी से आजा जूते पहन ले".
दीपू ने जूते पहनते हुए उसके कान में कुछ कहा तो अनीता ने जवाब दिया "नहीं बेटा..तू अंकल के साथ जा रहा है फिर क्या है.."
उसकी बात सुनकर प्रशांत ने पूछा "क्या बात है..क्या बोल रहा है दीपू?"
"नहीं कुछ नहीं, ये तो पागल है कहता है की माँ आप भी चलो" अनीता ने जवाब दिया..
उसकी बात सुनकर प्रशांत ने कहा "ठीक ही बोल रहा है, आप यहाँ अकेली क्या करोगी, चलो हमारे साथ आपका भी थोडा मन बहल जायेगा...वैसे भी आप कही जाती भी नहीं हैं."
"नहीं ..मैं कहा जाउंगी..आप लोग ही..." अनीता बोलने लगी तो दीपू ने बीच में ही टोका, "नहीं माँ, चलो ना आप भी..आप नहीं जाओगी तो मैं भी नहीं जाऊंगा.."
"चलिए ना..अच्छा लगेगा आपको भी.." प्रशांत ने जोर दिया तो अनीता राज़ी हो गयी और बोली ठीक है लेकिन मुझे कपडे तो बदल लेने दे बेटा. और यह बोल कर वह अपनी आलमारी में से कपडे निकालने लगी.
अनीता के पास एक ही कमरा था उसमे ही दोनों माँ बेटे रहते थे. प्रशांत अनीता की परेशानी समझ गया कपडे बदलने के लिए उसका बाहर जाना ज़रूरी था सो उसने कहा " मैं बाहर जाकर रिक्शा रोकता हूँ, आप तैयार हो कर आ जाइये."
थोड़ी ही देर में अनीता हलके गुलाबी रंग की साड़ी में तैयार हो कर आई. आज प्रशांत ने पहली बार अनीता को ध्यान से देखा. बिना किसी श्रृंगार के भी अनीता बहुत सुन्दर लग रही थी. उसने गुलाबी रंग का ब्लाउज पहना था जिसमे से उसके अन्तःवस्त्र झलक रहे थे. प्रशांत को इस तरह देखता पाकर अनीता भी थोड़ी शरमा गई.
प्रशांत ने रिक्शा रोक लिया था उसने ध्यान हटाते हुए दीपू से कहा "चलो भाई दीपू लेट हो रहे हैं जल्दी से बैठो रिक्शे में." सबसे पहले अनीता बैठी और उसने दीपू को गोद में बैठा लिया उसके बायीं तरफ उछल कर प्रशांत भी बैठ गया. रिक्शे में बस इतनी ही जगह थी की दोनों के बाहें आपस में टकरा रहीं थीं. अनीता काफी सिकुड़ कर बैठी थी फिर भी बार बार उसका कन्धा प्रशांत की बांह से टकरा रहा था. दोनों को ये स्पर्श अन्दर तक महसूस हो रहा था. अच्छा भी लग रहा था. मगर शर्म से दोनों चुप थे. बाकी काम रास्ते के गड्ढे पूरा कर रहे थे.
थोड़ी ही देर में वे लोग सर्कस के सामने पहुँच गए. दीपू तो सर्कस का तम्बू देखते ही पागल सा हो गया. उसको खुश होता देख अनीता भी खुश हो गयी और उसके साथ हंसी मज़ाक करने लगी. प्रशांत ने टिकट लिए और तीनों अन्दर चले गए. दीपू का आधा टिकट ही लिया था इसलिए उसे गोद में बैठना पड़ा. और प्रशांत और अनीता एक बार फिर से पास पास कुर्सी पर बैठे तो स्पर्श क्रिया ने अपना काम कर दिया. पुरे 3 घंटे दीपू सर्कस के करतब देखने में मगन रहा और प्रशांत और अनीता अपनी भावनाओं से खिलवाड़ करते रहे.
करते भी क्या ? प्रशांत को भी अपने घर गए एक अरसा हो गया था और उधर अनीता तो 3 सालों से विधवा का जीवन जी ही रही थी. आखिर शरीर की भी तो कुछ कमजोरियां होती हैं. इसी उहापोह में कब शो ख़त्म हुआ दोनों को पता ही नहीं चला. हाँ जो पता चला वो ये की अनीता का चेहरा आज बहुत खिला खिला लगने लगा..आज वो खुल कर हंस भी रही थी और उसकी आँखों में भी एक अलग ही चमक थी.
शो ख़त्म हो चूका था. वे लोग निकल कर बाहर आ गए. दीपू बेहद खुश था. अनीता भी खुश लग रही थी. प्रशांत ने अनीता की तरफ देखते हुए कहा "अभी तो अँधेरा होने में देर है, अगर आप चाहो तो थोड़ी देर सामने वाले पार्क में बैठते हैं, दीपू भी खेल लेगा और हम लोग भी एक एक कप चाय पी लेंगे." अनीता ने हामी भर दी और वे लोग पार्क में जाकर एक बेंच पर बैठ गए. चाय वाला आया तो प्रशांत ने दो चाय ले ली और दीपू को मूंगफली दिलवा दी. दीपू पार्क में दौड़ लगाने में मस्त हो गया. अब वे दोनों अकेले थे. कुछ देर की चुप्पी के बाद प्रशांत ने अनीता की ओर मुंह कर के कहा, "आप को अच्छा लग रहा है या नहीं ?"
अनीता बोली "हाँ अच्छा लग रहा है, मैं तो बहुत अरसे बाद यहाँ आई हूँ. पहले दीपू के पापा के साथ ही कभी आती थी. अब कहाँ....." एक ठंडी सांस ली उसने.
"मैं समझ सकता हूँ, लेकिन अगर आप किसी से बात नहीं करेंगी तो दुःख कम कैसे होगा, आप तो किसी से बात भी नहीं करती हैं. मिला जुला करो सबसे तभी तो दुःख कम होता है." प्रशांत ने अनीता को समझाने की कोशिश की.
काफी देर तक दोनों अपनी बीती जिंदगी की बातें करते रहे. आज अनीता काफी खुल गयी थी. उसने अपनी कॉलेज लाइफ के बारे में भी काफी कुछ बताया. दोनों का मन काफी हल्का हो गया था..इधर उधर की बातें करते समय का पता ही नहीं चला और अँधेरा हो गया तो अनीता बोली "अब चलना चाहिए काफी समय हो गया है." प्रशांत ने दीपू को आवाज़ लगाई और तीनों वहाँ से रवाना हो गए.
घर पहुँचते सूरज पूरी तरह डूब चूका था. अनीता अपने कमरे में चली गयी और प्रशांत ने अपने कमरे की कुण्डी खोलकर कपडे निकाले और ढीला होकर पलंग पर लेट गया. आज का दिन अच्छा निकला था उसका, वर्ना रविवार को अक्सर वो बहुत बोर हो जाया करता था. थोड़ी देर आराम करने के बाद वो उठ खड़ा हुआ. सुबह से खाली नाश्ता ही तो किया था उसने, इसलिए सोचा चलो कुछ खाने की व्यवस्था देख लें. अभी वो मुंह हाथ धोने के लिए बाथरूम में जाने ही वाला था की दरवाजे पर दस्तक देते हुए दीपू ने जोर से दरवाज़ा खोल दिया. अन्दर आते हुए दीपू बोला "अंकल मम्मी ने बोला है आप आज हमारे साथ ही खाना खायेंगे." अचानक आये इस बुलावे से प्रशांत उलझन में पड़ गया और उसने दीपू से पूछा "क्यूँ बेटा, आज कोई ख़ास बात है क्या..?" दीपू को खेलने जाने की ज़ल्दी थी इसलिए वो कमरे से बहार निकलते हुए बोला "नहीं, मुझे नहीं मालूम, बस मम्मी ने बोला है"...और दीपू बहार भाग गया.
प्रशांत खड़ा खडा सोचता रहा की क्या किया जाये, फिर उसके मन में आया चलो अच्छा है एक दिन घर का बना खाना मिल जायेगा. रोज़ तो वो ही होटल का तेल मसालों वाला खाना ही खाना पड़ता है. मगर एक उलझन थी, रविवार के दिन वो हमेशा दो पैग ज़रूर लगाता था. अब अगर अनीता के साथ खाना खायेगा तो पी नहीं पायेगा. ये सोचकर उसने विचार बदल दिया और कपडे पहन कर अनीता के पास मना करने के लिए चल दिया.
अनीता के कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था. प्रशांत बिना आवाज़ दिए ही अन्दर चला गया. सामने पलंग पर अनीता लेटी हुई थी, उसकी साड़ी पैरों पर थोड़ी ऊपर सरक गयी थी जिस से उसकी गोरी खूबसूरत पिंडलियाँ झलक रही थीं. साडी का आँचल भी एक तरफ को पडा था और उसके गोल, उन्नत स्तन ब्लाउज से बाहर झाँक रहे थे. इस हालत में अनीता को देखते ही प्रशांत सकपका गया और उधर अनीता भी उसको देखकर झेंप गयी और ज़ल्दी से साड़ी संभालते हुए उठ कर खड़ी हो गयी. दोनों की आँखे मिलीं और नीचे झुक गयीं. एक छोटी सी चुप्पी के बीच में प्रशांत ने अपना इरादा बदल लिया था, वो बोला "मैं बाज़ार की तरफ जा रहा हूँ, सोचा आपसे पूछ लूँ कुछ लाना तो नहीं है." अनीता ने संभलते हुए कहा "नहीं अभी तो कुछ भी नहीं लाना, वैसे आप कब तक आ जायेंगे".
प्रशांत को अच्छा लगा, उसका पूछना "मैं घंटे भर में आ जाऊँगा, वैसे भी मैं तो खाना लेट ही खाता हूँ, आप को कोई परेशानी हो तो तकलीफ ना करें मैं बाहर ही खा लूँगा" उसने तक्कलुफ़ दिखाया.
"नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं, आप हो आइये, मैं दीपू को खिला दूंगी, मुझे भी अभी भूख नहीं है मैं आपके साथ ही खा लुंगी, जब आप खाना चाहें बता देना मैं गरम गरम बना दूंगी" अनीता ने उसकी समस्या का समाधान कर दिया था. उसने मन ही मन निर्णय लिया की जब तक अनीता दीपू को खिला कर सुलायेगी तब तक वह अपना पीने का कार्यक्रम कर लेगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा.
प्रशांत घर से निकल कर सीधा वाइन शॉप की तरफ बढ़ गया, अब उस से रुका नहीं जा रहा था, उसकी आँखों में अभी भी अनीता की गोरी पिंडलियाँ और विशाल स्तन ही घूम रहे थे. आधे घंटे में ही उसने अपने पीने की सारी व्यवस्था की और कमरे में आ गया. वैसे तो अक्सर वो दो पैग ही लेता था मगर आज ना जाने क्या सोच कर पूरी बोतल ही उठा लाया था. कमरे में आकर उसने टीवी चालु कर दिया और सारे सामान टेबल पर सजाकर अपना काम चालू करने लगा तभी उसके दिमाग में आया, कहीं ऐसा न हो की मेरे पीने का पता अनीता को चल जाये और वो बुरा मान जाए. उसने डरते हुए बोतल वापस बंद कर दी. अब उसकी स्तिथि अजीब सी हो गयी थी, सामने बोतल रखी थी मगर वो पी नहीं सकता था. वैसे उसे पीने की आदत तो नहीं थी मगर इतना शौक तो था की हाथ में आया मौका गंवाना नहीं चाहता था. उसे पता था आज नहीं पी तो फिर सात दिन तक नहीं पी सकता. इसी उधेड़-बुन में उसने फैसला लिया. उसने अनीता से अनुमति लेना ठीक समझा. तुरंत उठा और अनीता के कमरे की तरफ चल दिया दरवाज़ा खुला हुआ था, मगर इस बार उसने बगिर आवाज़ दिए अन्दर जाना ठीक नहीं समझा इसलिए उसने वहीँ से आवाज़ लगाईं "दीपू, कहाँ है भाई, खेल कर आया या नहीं." उसकी आवाज़ सुनकर अनीता कमरे से बाहर निकलते हुए बोली "देखिये ना, नालायक अभी तक नहीं आया. मैं अभी बुलाती हूँ इसको". प्रशांत ने हँसते हुए कहा "रहने दो, खेल रहा होगा यहीं कहीं, अभी आ जायेगा खुद ही." अनीता ने प्रशांत को कमरे में बुलाते हुए कहा "आप आइये ना बैठिये, आप को भूख लगी होगी, सब्जी तैयार हो रही है अगर आप कहें तो चपाती बना देती हूँ आपके लिए." प्रशांत ने ज़ल्दी से जवाब दिया "अरे नहीं, अभी नहीं खाना तो थोडा लेट ही खायेगे अगर आप को कोई परेशानी ना हो तो..?" "मुझे क्या परेशानी होगी, आप बता देना जब भी खाना हो, मैं तब ही बना दूंगी."
प्रशांत अब मुद्दे की बात पर आना चाहता था "आप से एक परमिशन लेनी है अगर आप बुरा ना माने तो..?"
"हाँ, हाँ...बताईये ना, क्या बात है..?" अनीता ने सँभालते हुए पूछा.
प्रशांत ने डरते डरते कहा "अनीता जी, दरअसल मुझे बस एक रविवार ही मिलता है थोडा एन्जॉय करने के लिए. इसलिए मैं हमेशा रविवार को खाने से पहले थोड़ी से ड्रिंक लेना पसंद करता हूँ, अगर आप को कोई ऐतराज़ ना हो तो मैं ले सकता हूँ..?"
"इसमें पूछने की क्या बात है, आप अगर लेना चाहें तो बेशक लीजिये मुझे कोई दिक्कत नहीं.." अनीता ने मुस्कुराते हुए अनुमति दे दी. प्रशांत को जैसे मन मांगी मुराद मिल गयी. उसने थैंक्स बोला और तुरंत अपने कमरे की तरफ बढ़ गया, ज्यादा देर वहा रुकना उसे ठीक नहीं लगा, कहीं अनीता का विचार बदल गया तो...
अपने कमरे में आ कर उसने अभी पहला पैग ही बनाया था की दरवाज़े से आवाज़ आई "मैं अन्दर आ सकती हूँ..?"
"हाँ आइये ना," कहते हुए उसने दरवाज़ा खोल दिया.
अनीता हाथ में प्लेट लिए हुए अन्दर आई और प्लेट टेबल पर रख दी, प्लेट में गर्म गर्म प्याज की पकोडिया थीं.
"अरे, ये...अआपने ये सब..क्यूँ.."प्रशांत को कुछ अजीब सा लगा.
अनीता ने उसकी बात काट दी "जब शौक ही पूरा करना है तो ढंग से कीजिये ना. मुझे पता है पकौड़ियों के साथ ड्रिंक्स का मज़ा ही और है..है ना ?उसने हँसते हुए प्रशांत की तरफ देखा.
"हा..हा..हाँ बात तो एक दम सही बोली है आपने..आज तो मज़ा आ ही जायेगा..." उसने अनीता की आँखों में झांकते हुए कहा तो अनीता झेंप गयी और फर्श की तरफ देखती हुई मुस्कुराने लगी.
"आप अपना एन्जॉय कीजिये, मैं दीपू को खाना खिला देती हूँ. दिन भर का थका हुआ है इसलिए ज़ल्दी सो जायेगा आज." अनीता ने उठते हुए कहा और तेज़ कदमों से कमरे से बाहर निकल गयी.
गिलास हाथ में लिए हुए प्रशांत देर तक अनीता के बारे में सोचता रहा. आज उसे अनीता काफी बदली बदली लगी, वो अब तक ये सोचता था की अनीता कम बोलने वाली है, कभी मुस्कुरा कर बात भी नहीं करती, शायद घमंडी है वगैरह वगैरह. लेकिन आज अनीता उसे एक खूबसूरत और जवान औरत लग रही थी. उसे दुःख हो रहा था की अनीता कैसे अपना पहाड़ सा जीवन अकेले बिताएगी. उसकी ज़रूरतें कैसे पूरी होती होंगी. जवान बदन को सिर्फ पेट की भूख ही थोड़ी होती है. क्या गुज़रती होगी उस पर. सोचते सोचते उसने दो पैग कब ख़तम कर लिए पता ही नहीं चला. आज तो दो पैग का असर भी नहीं हुआ था उसपर इसलिए उसने एक और पैग बना लिया और ध्यान बंटाने के लिए सिगरेट जलाने लगा.
तभी एक बार फिर दरवाजे पर अनीता नज़र आई, अन्दर आते हुए उसने पूछा "आप की ड्रिंक्स पूरी हुई या नहीं, दीपू तो खाना खा कर सो भी चूका है, अब हम दोनों ही रह गए हैं खाने के लिए, अगर आप बोले तो बना लूँ.."
"बस..ये लास्ट पैग है, फिर खाते हैं खाना.." अपने गिलास की तरफ इशारा करते हुए प्रशांत ने कहा. आइये न बैठिये आप भी वहां भी अकेली क्या करेंगी.
अनीता पलंग पर ही बैठ गयी. अनीता ने बोतल की तरफ देखते हुए पूछा "आप रम लेते हैं हमेशा".
"हाँ मुझे रम ही पसंद आती है.." प्रशांत ने जवाब दिया.
अनीता कुछ याद करते हुए बोली "दीपू के पापा भी रम ही लिया करते थे. बिलकुल आपकी तरह बस रविवार को." प्रशांत ने उसकी तरफ ध्यान से देखा मगर कुछ बोला नहीं बस उसके बोलने का इंतज़ार करता रहा.
अनीता अपनी पुरानी यादों में खोने लगी "उनको भी पकोड़े खाने का बहुत शौक था..हमेशा कहते थे..अन्नू तेरे हाथ के पकोड़े खाने से नशा होता है वर्ना रम में तो कुछ भी नहीं..." उसकी आँखें नम होने लगीं थी..प्रशांत ने उसे टोका नहीं. अनीता बोलती रही..बहुत देर तक ना जाने क्या क्या बोलती रही..और साथ में रोती भी रही. प्रशांत ना जाने कब उसके पास जा कर पलंग पर बैठ गया था..और ना जाने कब अनीता ने उसके कंधे पर अपना सर रख लिया था..दोनों को पता ही नहीं चला.
अनीता रोती जा रही थी और प्रशांत उसके गोरे गोरे गालों पर लुढ़क रही आंसूं की बूंदों को पौंछ रहा था..दोनों किसी दूसरी दुनिया में खो से गए थे. अनीता को भी पहली बार कोई हमदर्द मिला था और प्रशांत को भी उसके भोलेपन पर प्यार आने लगा था. प्रशांत ने उसका चेहरा ऊँगली से ऊपर उठाया और उसके होठों पर अपनी ऊँगली रख दी." बस..अनीता...अब बस करो..." उसने धीर से उसे चुप करने की कोशिश की.
अनीता ने अपनी आँखे बंद कर ली थीं मगर आंसूं की धारा अभी तक चालू थी..दोनों की चेहरे नज़दीक आ गए थे...अनीता लगभग प्रशांत की बाँहों में थी. एक दुसरे की गर्म साँसें दोनों को बैचैन कर रही थी..ऐसे में क्या हुआ जो प्रशांत ने अपने होठ अनीता के कांपते हुए होठों पर रख दिए. और बस उसी पल में जैसे कोई भूचाल आ गया...अनीता का निचला होठ अब प्रशांत के होठों में था और वो उसके होठों को चूस रहा था...अनीता बिना किसी विरोध के उसकी बाहों में खामोश लेटी हुई थी....दोनों एक दुसरे से दूर होने की कोई कोशिश नहीं कर रहे थे. प्रशांत ने अनीता की पीठ पर अपना बायाँ हाथ कसते हुए दायें हाथ से उसके गालों को सहलाना शुरू कर दिया... अनीता उसकी हर हरकत पर खामोश थी ....और ना जाने कब उसने भी प्रशांत के रम से महकते होठों को चूसना चालु कर दिया.
प्रशांत के हाथ शायद उसके काबू में नहीं थे..अनीता के बड़े बड़े उभार का आकार नापने के लिए मचलने लगे...ब्लाउज के हुक भी ज्यादा देर तक साथ नहीं दे पाए और श्वेत कपोत देखते देखते आज़ाद हो गए... प्रशांत अनिता के मांसल शरीर को जहां-तहां चूमने लगा। अनिता के लिए यह पहला पुरुष स्पर्श नहीं था। वह बौरा सी गई, उसके होंठों से आनंदतिरेक सिसकारियां निकलने लगीं, फिर तो वह प्रशांत के बदन से लता की भांति लिपट गई। प्रशांत उसके शरीर की गोलाइयां नापने लगा। जल्दी ही उनके तन के तमाम कपड़े इधर-उधर कमरे में बिखर गए. और वे दोनों जन्मजात नग्नावस्था में एक दूसरे से गुंथे अपनी ज़रूरतों को पूरा कर रहे थे...गरम गरम साँसों की आवाज़ कमरे में गूँज रही थी...पेट की भूख पर बदन की भूख भारी हो चली थी.... फिर कमरे में एक तूफान आया और गुजर गया। इसके बाद कमरे में पहले की सी शांति छा गई तथा दोनों के चेहरों पर असीम तृप्ति के भाव दृष्टिगोचर हो रहे थे।
एक बार अनिता के कदम फिसले तो फिर फिसलते ही चले गए। दिन में प्रशांत काम पर चला जाता रात में अनिता अपने बेटे को सुलाकर चुपके से प्रशांत के कमरे पर पहुँच जाती। अनिता को देखते ही प्रशांत आपा खो बैठता, वह एकदम झपटकर अनिता को बांहों में भींच लेता और उन्मत्त भाव से प्यार करने लगता तो अनिता मदहोश हो जाती। उसे महसूस होता कि जैसे जीवन में पहली बार किसी पुरूष का संसर्ग मिल रहा हो। विह्नल भाव से वह प्रशांत की चौड़ी छाती में दुबक जाती।
वक्त गुजरता रहा इस तरह दो महीने कब बीत गए पता ही नहीं चला। एक दिन डाकिया प्रशांत के घर से आया खत दिया तो अनिता उसे लेकर प्रशांत के पास पहुँची और बोली, “आज आप के घर से ख़त आया है..." अनिता के शब्द अभी पूरे भी न हुए थे कि प्रशांत ने फौरन ही बाहर वाला दरवाजा बंद कर दिया। उसने एकदम झपटकर अनिता को बांहों में भींच लिया और उन्मत्त भाव से प्यार करने लगा। तब अनिता उसे समझाते हुए बोली, “आपको घर आये दो महीने हो गए. इस बार तो एक-दो दिन की छुट्टी ले ही लीजिये ....." प्रशांत ने ख़त पढ़ा और मोड़ कर तकिये के नीचे रख दिया. अनीता उसके सीने के बालों से खेलते हुए बोली, “घर आते जाते रहेंगे तो कोई शक नहीं करेगा।”
अनिता की बात प्रशांत को ठीक लगी। अगले दिन ही वह छुट्टी लेकर घर गया। दो-तीन दिन के बाद लौट आया। फिर तो उसका क्रम बन गया। महीने में दो दिन के लिए वह घर चला जाता था। जब तक वह अनिता के पास रहता अनिता उसका ख्याल रखती थी...... प्रशांत भी उसका व उसके बच्चे का ख्याल रखता। इस तरह पाँच साल बीत गए और प्रशांत का तबादला हो गया तब अनिता के दिन पहले की तरह बीतने लगे।

The Romantic
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Re: मनोहर कहानियाँ

Unread post by The Romantic » 21 Dec 2014 17:30

nice. waiting for more....

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