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Re: मनोहर कहानियाँ

Posted: 20 Dec 2014 09:57
by Jemsbond
‘‘जिसके प्यार में पागल


यौवन के व्रक्ष पर खूबसूरती के फूल खिले हो तो मंजर किसी कयामत से कम नहीं होता। यही हाल था दीपिका का। यूं तो खूबसूरती उसे कुदरत ने जन्म से तोहफे में बख्शी थी, लेकिन अब जब उसने लड़कपन के पड़ाव को पार कर यौवन की बहार में कदम रखा तो खूबसूरती संभाले नहीं सम्भल रही थी।
वह आईना देखती तो जैसे आईना भी खुद पर गर्व करता। उसकी सांस थम जाती और वह दुनिया में खूबसूरती के उदाहरण चांद को भी नसीहत दे डालता, ‘‘ऐ चांद, खुद पर न कर इतना गुरूर। तुझ पर तो दाग है। मगर मेरे वजूद में जो चांद सिमटा है, वह बेदाग है।’’
दीपिका मुस्कुराती तो लगता जैसे गुलाब का फूल सूरज की पहली किरण से मिलते हुए मुस्करा रहा है। अक्सर उसकी सहेलियां इस पर उसे टोक देतीं, ‘‘ऐसे मत मुस्कराया कर दीपिका, अगर किसी मनचले भंवरे ने देख लिया तो बेचारा जान से चला जाएगा। ’’
दीपिका खूबसूरत तो थी ही, साथ ही अच्छे संस्कार उसकी नस-नस में बसे थे। उसका व्यवहार कुशल होना, आधुनिकता और हंसमुख स्वभाव खूबसूरती पर चांद की तरह थे। दीपिका सयानी हो गई है। यह अहसास होते ही उसके मां इस अमानत को योग्य हाथों में सौंप देना चाहते थी। क्योंकि जमाना भी खराब है, फिर यह उम्र भी ऐसी है कि कदम भटकते देर नही लगती। इसलिए वह कहती, ‘‘कोई अच्छा सा घर-वर देखकर इसके हाथ पीले कर दो।’’
उसके पिता आधुनिक विचारों के थे। वह समय के साथ चलना चाहते थे। शुरू-शुरू में जब पत्नी कहती तो वह बात हंसकर टाल जाते थे, लेकिन जब दीपिका की मां कुछ अधिक ही गले पड़ने लगी तो वह उसके लिए घर-वर देखना शुरू कर दिया। जल्द ही उनकी मेहनत रंग लाई और सूर्यकान्त से उसकी शादी कर दी।
मधुर मिलन की रात्रि में सूर्यकान्त दीपिका के हुश्न और इष्क में इस तरह दीवाना हुआ कि उसे दीपिका की पलभर की जुदाई बर्दाश्त नहीं हो पाती। दोंनों ने महीनों खूब मौज-मजा किया। इस दौरान घूमने-फिरने और प्रेमके सिवा उनकी दुनिया में और कुछ भी नहीं था।
यूं ही समय खिसकता रहा काफी दिनों बाद भी जब सूर्यकान्त ने अपना काम-धाम नहीं शुरू किया तब घरवालों ने उसे काम करने को याद दिलाया तो वह जैसे नींद से जागा और पुनः अपने काम में लग गया। दीपिका भी ससुराल में आज्ञाकारी बहू की तरह दिन बिताने लगी। कुछ दिन तक तो ठीक-ठाक चला। धीरे-धीरे घर की जिम्मेदारियां दीपिका को भारी लगने लगी फिर तो वह उदास सी रहने लगी। पत्नी की उदासी जब सूर्यकान्त से नहीं देखी गई तो एक दिन पूछ बैठा, ‘‘क्या बात है दीपा, आजकल तुम कुछ अधिक ही उदास रहती हो?’’
सूर्यकान्त के पूछने पर दीपिका कहने लगी, ‘‘मेरा तो घर के अन्दर दम घुटने लगा है। मैं इतने प्रतिबन्ध में नहीं रह सकती हूँ।’’
‘‘प्रतिबन्ध……’’ सूर्यकान्त ने चौंकते हुए कहा, ‘‘प्रतिबन्ध कैसा दीपा? यह तो हर लड़की के साथ होता है। ससुराल में बड़ो का कहना मानना तो तुम्हारा फर्ज है, फिर तुम्हें किसी प्रकार का कोई रोक तो नहीं है, ऊपर से मैं भी तो तुम्हें घुमाता-टहलाता रहता हूँ। बहुत ज्यादा घर से बाहर रहना अच्छी बात थोड़े होती है।’’
सूर्यकान्त के समझाने पर दीपिका चुप हो गई, पर अब वह ज्यादातर अपने मायके में ही रहने लगी थी। जब वह ससुराल आती तो सूर्यकान्त से अनाप-सनाप चीजों की फरमाइश कर देती। इसी दौरान एक दिन दीपिका ने बीयर पीने की इच्छा जाहिर करते हुए बताया कि बीयर पीना तो उसका शौक है। तब सहसा सूर्यकान्त को दीपिका कीबात का यकीन ही नहीं हुआ।
सूर्यकान्त दीपिका को अपनी जान से भी अधिक चाहता था। उसके बीयर पीने की शौक सूर्यकान्त को नागवार लग रही थी, फिर भी पत्नी के प्रेम में अंधा सूर्यकान्त दीपिका का यह शौक भी पूरा करने लगा। जब कभी भी दीपिका बीयर पीती थी तब वह सूर्यकान्त के आगे खुली किताब हो जाती थी और मजा लेकर बताती थी कि उसके कितने ब्वायफ्रेन्ड थे। किन-किन के साथ वह घूमती और कहां-कहां जाती थी।
हालांकि पत्नी की बात सूर्यकान्त को बुरी जरूर लगती थी, पर यह सोचकर वह कुछ भी नहीं कहता था कि यह सब उसने शादी से पहले किया था। वह प्यार से दीपिका को समझाता, ‘‘देखो दीपा! अब तक तुम क्या करती थी इससे मुझे कोई लेना-देना नहीं है, पर अब तुम शादीशुदा हो इसका भी ध्यान देना।’’
प्रतीक चित्र
इस पर दीपिका नशे में झूमते हुए कहती, ‘‘छोड़ो यार! मुझे तो उन सब के साथ धुमने-फिरने, मौज-मजा करने में बहुत आनन्द आता है। तुम तो बस अब भी पुराने ख्यालात के लगते हो……’’
समय का चक्र चलता रहा सूर्यकान्त दीपिका को यह सोचकर कम ही मायके जाने देता था कि कही वह अपने पुराने यार-दोस्तों के साथ फिर से घूमना टहलना शुरू न कर दे। पति के बदले रवैये से दीपिका परेशान सी हो उठी थी। उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें? आखिर कुछ सोच कर वह भी सूर्यकान्त पर अपने मां-बाप व भाई से अलग रहने के लिए दबाव बनाने लगी। लेकिन जब सूर्यकान्त परिवार से अलग रहने के लिए साफ मना कर दिया तो दीपिका सूर्यकान्त से रूठकर मायके चली गई।
दीपिका की नाराजगी से सूर्यकान्त अन्दर ही अन्दर टूट गया था। वह उसे वापस घर लाने का काफी प्रयास भी किया लेकिन सफल नहीं हुआ और एक दिन बहन की तबियत खराब होने की जानकारी मिली तो दीपिका बहन के पास दिल्ली चली गई।
काफी मान-मनौवल के बाद रूठकर दिल्ली गई दीपिका सूर्यकान्त के पास आ गई। एक दिन बीयर पीने के बाद उसने एकान्त की क्षणों में बताया था कि दिल्ली में जीजाजी उसकी हर इच्छा पूरी करते थे। वहां एक दिन में हम सब तीन-तीन बोतल रम पी जाते थे। वाह-वाही झाड़ते हुए उसने यह भी बता दिया कि दिल्ली में रहने के दौरान वह कभी जीजा के साथ तो कभी उनके भाई के साथ तक सो जाती थी तो सूर्यकान्त का खून खौल उठा, भला कोई मर्द यह कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि उसकी बीबी दूसरे के साथ सोई थी फिर भी सूर्यकान्त ने इस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया।
अभी कुछ ही दिन बीते थे कि दीपिका का जीजा दिल्ली से इलाहाबाद आया । तब पति से जिद कर दीपिका ने एक दिन अपने जीजा को खाने पर बुलवाया। उस दिन सूर्यकान्त किसी जरूरी काम से कुछ देर के लिए बाहर चला गया। वापस लौटा तो कमरे में दीपिका अपने जीजा के साथ आपत्तिजनक स्थिति में पड़ी थी। सूर्यकान्त के वापस आते ही दोंनों अलग हुए और अपने कपड़े ठीक कर बाहर निकल गए। अपनी आंखों से पत्नी का असली रूप देखकर सूर्यकान्त को अपने आप से घीन आने लगी और वह सोचने लगा कि जिसके प्यार में वह पागल है, वह उसकी बीबी होते हुए भी गैरों की बांहों में झूलने के लिए बेताब है। गुस्से में आकर उसने दीपिका को कई थप्पड़ रसीद कर दिया।
अब तक दीपिका के प्रेम में दीवाना सूर्यकान्त दीपिका से घ्रणा करने लगा था। वह सोचता था कि दीपिका कभी नहीं सुधरेगी और हमेशा ही अपने हुश्न के जाल में उलझा कर नए-नए लोगों के साथ मौज-मस्ती करती रहेगी। अन्ततः सूर्यकान्त को जब यकीन हो गया कि कि दीपिका उसकी बन कर नहीं रह सकती, वह किसी अन्य की बाहों में उसे नहीं देख सकता था। तब सूर्यकान्त ने हमेशा-हमेशा के लिए दीपिका को दुनिया से विदाकर देने का निर्णय ले लिया।
एक दिन रात में सूर्यकान्त बहाने से दीपिका को सूनसान स्थान पर ले जाकर गोली मार दी। अगले दिन सुबह-सुबह जल्दी उठ कर सूर्यकान्त ने दरवाजे पर ताला लगाया फिर चला गया। दोपहर बाद घर लौटा तो यहां-वहां दीपिका के बारे में पता लगाने लगा। इसी क्रम में उसने दीपिका के मायके भी पता किया। अन्ततः दीपिका को खोजने का नाटक करता गुमसूदगी दर्ज करवाने खुद थाने पहुंच गया। लेकिन पुलिस की तेज-तर्रार नजरो व सूझ-बूझ से सूर्यकान्त की चालाकी काम नहीं आई और उसने खुद अपना अपराध कबूल कर लिया।


Re: मनोहर कहानियाँ

Posted: 20 Dec 2014 09:59
by Jemsbond
‘‘हवस का शिकारी’’


दिव्या उम्र के 17वें पड़ाव पर पहुंच गई थी। उसका निखरता हुआ शरीर इस बात की सूचना दे रहाथा कि वह जवानी की दहलीज में कदम रख चुकी है। दिव्या का जितना प्यारा नाम था, उतना ही खूबसूरत चेहरा भी था। गोरा रंग होने के साथ-साथ उसके चेहरे पर एक अजीब सी कशिश थी, जो किसी को भी उसका दिवाना बना देती थी। हसमुख होने के कारण वह सहज लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन जाया करती थी।
सत्रह बसन्त पार कर लेने के बाद अब दिव्या उम्र के उस नाजुक दौर में पहुंच चुकी थी, जहां युवतियों के दिल की जवान होती उमंगे, मोहब्बत के आसमान पर बिना नतीजा सोचे उड़ जाना चाहती है। ऐसी ही हसरतें दिव्या के दिल में भी कुचांले भरने लगी थी, पर उम्र के इस पायदान पर खड़ी दिव्या ने अभी तक किसी की तरफ नजर भरकर देखा तक नही था।
यूं तो दिव्या बचपन से ही महत्वाकांक्षी थी। लिहाजा वह पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ वह घर का काम-काज भी मेहनत और लगन से किया करती थी, पर हाईस्कूल करने के बाद अचानक घर पर काम की अधिकता के चलते उसे स्कूल जाने का समय नही मिल पाता था। लिहाजा उसके पिता ने घर पर ही उसके शिक्षा का प्रबंध कर उसकी इंटर की परीक्षा उत्तर प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा परिशद बोर्ड से दिलवाने का निश्चय किया। इस सम्बन्ध में अपने बहन-बहनोई से राय-मशवरा कर चंदौली जनपद से इण्टर का फार्म भरवा दिया।
वक्त बीतता रहा, वक्त के साथ ही नजदीक आ गई। परीक्षा देने के लिए वह सप्ताह भर पहले पटना से वाराणसी अपनी बुआ रजनी के यहां आ गई और मन लगा कर परीक्षा की तैयारी करने में जुट गई। दिव्या की बुआ के पति डाँक्टर हैं। उन्होंने वाराणसी में अपना भव्य व आलीशान मकान बनवा रखा है।
दिव्या जब अपने बुआ के घर आई तो घर में रंग-रोगन का काम चल रहा था । काम ठेकेदारी से करवाया जा रहा था। काम का ठेका रामनाथ ने ले रखा था। उसी के दिशा-निर्देश पर घर की रंगाई-पुताई की जाती थी। रंगाई-पुताई के लिए रामनाथ ने 3-4 कारीगर रखे थे, उन्ही में एक कारीगर संजय भी था।
25 वर्षीय संजय कुछ दिनों से वह राजनाथ के साथ ही था। संजय काम करने में तो मेहनती था पर शुरू से ही वह मनचला प्रवृत्ति का था। जब भी कोई हसीन व जवान लड़की उसके पास से गुजरती तो उसका मन उसे पाने के लिए लालायित हो जाता था। काम करने के दौरान भी अगर कोई लड़की उसे अकेले मिल जाती थी तो वह जबरन उसे अपनी हवस का शिकार बना लेता था। लड़की शर्म बस इस बात को उजागर नही करती थी। इसके चलते उसका हौसला काफी बढ़ चुका था।
दिव्या की बुआ के यहां भी वह ठेकेदार राजनाथ के आदमी के रूप में काम कर रहा था। पहली बार जब उसने दिव्या को देखा तो उसे पाने के लिए लालायित रहने लगा था। पर काम के दौरान दिव्या की बुआ वअन्य कारीगर भी होते थे, लिहाजा वह मन मारकर रह जाता और उचित मौके की तलाश में रहने लगा। संयोग से उसे एक दिन मौका मिल ही गया।
अचानक एक दिन किसी कारण बस अन्य कारीगर काम पर नही आए तो संजय अकेले ही रंग-रोगन का काम करने लगा। उस दिन वह किचन के आस-पास ही रंगाई-पुताई कर रहा था। लगभग 9 बजे दिव्या की बुआ के पति अपनी क्लीनिक पर चले गए। उनके बच्चे भी पढ़ने के लिए स्कूल जा चुके थे। अब घर पर दिव्या व उसकी बुआ ही रह गयी थी। दिव्या अपने कमरे में बैठी परीक्षा की तैयारी कर रही थी। लगभग एक बजे चौका बर्तन करने वाली आ गई थी, अचानक थोड़ी देर बाद रजनी को याद आया कि आज उसे कैंट स्थित पोस्ट आफिस में पैसा जमा करना जरुरी है। तब वह उठती हुई बोली, ‘‘दिव्या…’’
‘‘जी बुआ…’’
‘‘मै जरा पोस्टआफिस पैसा जमा कर आती हूँ।’’
प्रतीक चित्र
दिव्या कुछ बोल पाती इससे पहले ही रजनी पासबुक आदि लेकर घर से निकल गई। उन्होंने सोचा था जब तक बाई काम कर रही है, वह वापस लौट आएगी। लेकिन उनके आने से पहले ही बाई अपना काम निपटाकर चली गई, तो दिव्या घर में अकेली हो गई। दिव्या को अकेली देख संजय के मन में पहले से बैठा शैतान जाग उठा और वह दिव्या को अपनी हवस का शिकार बनाने का मन बना काम से अपना हाथ रोकते हुए आवाज लगाई, ‘‘दीदी… प्यास लगी है, जरा एक ग्लास पानी तो देना…..’’
संजय की आवाज सुनकर दिव्या ने अपनी पढ़ाई रोक दी और शीशे के एक ग्लास में पानी लेकर संजय के पास आ गई। जैसे ही दिव्या ने पानी देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो संजय ने उसकी कलाई पकड़ लिया। संजय के इस कृत्य से दिव्या घबरा गई और उसके हाथ से पानी का ग्लास छूट कर गिर गया। इस बौखलाहट में वह कुछ सोच-समझ पाती कि अचानक संजय ने उसे दबोच कर फर्श पर गिरा दिया। दिव्या बचाव के लिए हाथ पांव मारती रही, पर संजय कहां मानने वाला था। वह दिव्या के नाजुक अंगों से छेड़छाड़ करते हुए उसे वस्त्रविहीन करने लगा तो दिव्या गिड़-गिड़ा उठी, लेकिन संजय पर तो जैसे भूत सवार हो चुका था।
संजय की हैवानियत रूकते न देख दिव्या के मुंह से चीख निकल गई। चीख सुन संजय हैवान बन गया और एक हाथ से उसका मुंह दबा कर उसे आवरण विहीन कर दिया और उसके उरोजो को बेदर्दी से मसलते हुए उसके उपर छा गया। दिव्या दर्द से छटपटती रही पर संजय को इससे कुछ लेना देना नही था,उसे तो बस अपने जिस्म की प्यास बुझाने से मतलब था। वह तभी उठा जब उसके जिस्म का सारा लावा उबलकर बाहर आ गया
संजय जब अपने हवस की प्यास बुझाकर उठा तब तक दिव्या बेहोश हो चुकी थी। यह देख संजय घबरा गया और अपने बचने का उपाय सोचने लगा अचानक वही पास पड़े ईंट से दिव्या पर वार करने लगा और तब तक वार करता रहा जब तक दिव्या की मौत नही हो गई। फिर वही पास में पड़े लोहे के एक बड़े बक्से में शव छिपाने के बाद काम में जुटा ही था कि दिव्या की बुआ आ गई। घर में दिव्या को न देख कर संजय से पूछातो उसने टाल-मटोल सा जवाब दे दिया और फरार होने का बहाना ढूढ़ता रहा। रजनी दिव्या के मिलने तक उसे रूके रहने को कह पति को दिव्या के गायब होने की जानकारी दे दी ।
दिव्या की खोज होती रही अचानक कौतूहल बस रजनी ने बक्सा खोला तो उसमें से उठ रही गंध से वह शंकित हो रजाई आदि निकालने लगी। इसी बीच लघुशंका का बहाना कर संजय फरार हो गया। दिव्या का शव मिलने पर किसी ने पुलिस को खबर कर दिया। संजय पकड़ा गया तो उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया तब पुलिस ने हवस के इस शिकारी को जेल भेज दिया।

Re: मनोहर कहानियाँ

Posted: 20 Dec 2014 10:00
by Jemsbond
‘‘भाई-बहन के अनैतिक प्यार की कहानी’’

यौवन के व्रक्ष पर खूबसूरती के फूल खिले हो तो मंजर किसी कयामात से कम नही होता। यही हाल था मीना का, यूं तो खूबसूरती उसे कुदरत ने जन्म से तोहफे में बख्शी थी, लेकिन अब जब उसने लड़कपन के पड़ाव को पार यौवन की बहार में कदम रखा तो उसकी खूबसूरती संभाले नहीं सम्भल रही थी।
वह आईना देखती तो जैसे आईना भी खुद पर गर्व करता। उसकी सांस थम जाती और वह दुनिया में खूबसूरती के उदाहरण चांद को भी नसीहत दे डालता, ‘‘ऐ चांद, खुद पर न कर इतना गुरूर। तुझ पर तो दाग है। मगर मेरे वजूद में जो चांद सिमटा है, वह बेदाग है।’’
मीना मुस्कराती तो लगता जैसे गुलाब का फूल सूरज की पहली किरण से मिलते हुए मुस्करा रहा है। अक्सर उसकी सहेलियां इस पर उसे टोक देतीं, ‘‘ऐसे मत मुस्कराया कर मीना, अगर किसी मनचले भंवरे ने देख लिया तो बेचारा जान से चला जाएगा।’’
वक्त गुजरता रहा इसी बीच एक दिन मीना रात में बाथरूम के लिए उठी तो उसने लाइट जलाई। बाथरूम करके जब वह वापस आई तो अनायास शंकर पर उसकी नजर पड़ी। शंकर उसका भाई है। वह टांगे पसारकर बेसुध सोया था और उस समय उसके शरीर पर सिर्फ एक जांघिया था।
मीना उसे एक-दो पल देखती रही तो उसके जिस्म में सिर से पांव तक एक झुरझुरी सी दौड़ने लगी। ऐसा अनुभव उसे पहले कभी नहीं हुआ था। उसके लिए यह बड़ा मीठा और अकल्पनीय अनुभव था। पता नही क्यों, मीना को शंकर की खुली टांगे अच्छी लगने लगी। वह एकटक उसकी मांसल टांगो के इर्द-गिर्द अपनी नजर फिराती रही तो उसके शरीर में दौड़ने वाली वह मीठी-सी झुरझुरी बढ़ती ही चली गयी।
मीना के विवेकी मन ने उसे एक झटका-सा दिया, नहीं यह सब गलत है, तुम अपने भाई को गलत नजर से देख रही हो। पर तभी उसके इस विचार को उसके अविवेकी मन ने दबा दिया। वह संज्ञा शून्य-सी होने लगी। उसे लगा कि वह अपना संयम खोती जा रही है।
किशोरावस्था की यह विडंबना होती है कि जो विचार मन में उठता है। वह किसी ज्वार की तरह उठता है। वह सही-गलत, आगे-पीछे कुछ नहीं देखता। बस अपनी उफनती चाल में सब कुछ बहा ले जाता है।
मीना भी किशोर मन के कुविचार के एक बवंडर में आ फंसी थी। अब उसे अपना भाई शंकर नहीं दिखाई पड़ रहा था, बल्कि उसकी जगह यौवन से खिला एक पुरूष शरीर दिखाई पड़ रहा था। बस यही वह समय था, जब मीना के मन में आये कुविचार ने उसके अंदर एक तूफान मचा दिया। एक ऐसा तूफान जो सारी हदों-मर्यादाओं और रिश्तों को उखाड़ फेंकने पर आमादा हो गया।
मीना अब खलिस मीना नहीं रही थी । वह उस विरह-पीडि़त हिरणी की तरह हो गयी थी जिसके काम का ताप उसके शरीर को झुलसाता-तड़पाता रहा और मन भटकता रहता है। मीना भी अब पूरी तौर पर भटक चुकी थी।
मीना शंकर की अधखुली देह को निहारते-निहारते वहीं बैठ गयी। फिर उसके हाथ ने हरकत की और वह शंकर की चिकनी टांग पर फिसलने लगा। शंकर अब भी नींद में बंसुध पड़ा था। कुछ ही देर मे मीना का हाथ कुछ आगे बढ़कर शंकर के पुरुषांग पर पहुंच गया। मीना की अंगुलियां जब उस पर फिरने लगीं तो शंकर की छठी इंद्रिय जागी और उसकी नींद उचट गयी।
आंख खुली तो शंकर ने अपनी दीदी को अजीब हरकत करते देखा। वह एक झटके में उठ बैठा और बोला, ‘‘यह क्या कर रही हो?’’
‘‘चुप रहो, दीपक सुन लेगा।’’ मीना ने उसे हौले से झिड़की दी और अपनी हरकत जारी रखी।
शंकर भी किशोर उम्र की पगडंडी से गुजर रहा था। उसके तन-मन में भी भूचाल आने लगा और फिर कुछ देर में ही उसके सोचने-समझने की शक्ति जवाब दे गयी। उसे अब न केवल मीना की हरकत अच्छी लगने लगी बल्कि उसके हाथ भी मीना के कोमल जिस्म में फिसलने लगे।
इसके बाद तो उस अंधेरी रात में वे दोनो एक ऐसा गुनाह कर बैठे, जिसने भाई-बहन के पवित्र रिश्तें को जलाकर खाक कर दिया।
एक बार उन दोनों ने पाप के कुंड में डुबकी क्या लगायी कि अब हर रात उनका मन यह सब करने को मचलने लगा। हर रात वे भाई-बहन के पाक रिश्तें की होली जलाकर उसे नापाक करते रहे। लेकिन अब तक परिवार में उनके शर्मनाक संबंधों की भनक किसी को भी नही लग पाई थी।
वक्त गुजरता रहा इसी बीच एक दिन रात मे जब दोनों भाई-बहन अपने पवित्र रिश्तें को कलंकित करने के अभियान में तल्लीन थे, तभी पानी पीने के लिए कमरे से बाहर आई मीना की मां मेनका ने मीना की सिसकारियां सुन ली। उसने बच्चों के कमरे में आकर जब लाइट जलाई तो वहां का शर्मनाक मंजर देखकर उनकी आंखें फटी रह गयीं।
मां द्वारा रंगे हाथ पकड़े जाने से दोनों एक-दूसरे से अलग हो गये और कपड़े पहनने लगे।
कुछ देर तक तो मेनका को जैसे काठ मार गया, और उसका क्रोध सातवें आसमान में जा पहुंचा, ‘‘निर्लज्जों, तुम दोनों ने इस दुनिया का सबसे बड़ा पाप किया है। तुम्हारा यह पाप यह धरती न जाने कैसे झेल पाई। तुम्हारा यह घिनौना गुनाह देखकर आसमान क्यों नही फटा, और तुम्हारा यह पाप देखकर मेरी कोख में कीड़े क्यों नही पड़ गये।’’
‘‘हमें माफ कर दो मम्मी, हमसे गलती हो गई।’’ मीना ने सिर झुकाते हुए कहा।
‘‘गलती… अरे इस गलती को तो भगवान भी माफ नहीं करेगा। होने दो सुबह, तुम्हारे पापा को सब कुछ बताऊॅगी मैं। कल लोग जब यह जानेंगे कि तुम दोनों ने भाई-बहन के पवित्र रिश्तें पर थूककर मुंह काला किया है, तो वे तुम जैसे भाई-बहन को जन्म देना ही बंद कर देंगे।’’ फिर मेनका अपने कमरे में चली गयी।
प्रतीक चित्र
मीना और शंकर एक-दूसरे को भयभीत नजरों से देखने लगे।
‘‘तू बाथरूम गई थी, दरवाजा बंद करना क्यों भूल गई। वही हुआ न, जिसका डर था।’’ शंकर मीना पर बरसने लगा, ‘‘कल सुबह मम्मी पापा को यह बात बतायेगी, शाम तक पूरे इलाके में बात फैल जाएगी, फिर न जाने क्या होगा।’’
‘‘सुबह होने से पहले हमें कुछ सोचना पड़ेगा, वरना हम कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।’’ मीना ने परेशान लहजे में कहा।
‘‘बस एक ही रास्ता है।’’
‘‘कौन सा रास्ता?’’
‘‘हमारे राज को सिर्फ मम्मी जानती है, इसलिए हमें सुबह होने से पहले मम्मी का मुंह बंद करना होगा।’’
‘‘यानी मम्मी का खून…।’’ मीना कांप उठी।
‘‘हां, गुनाह हमने किया और सजा मम्मी को भोगनी पड़ेगी।’’ शंकर की आंखो में दर्द छलक आया, ‘‘मम्मी भी तो गुनहगार है, हम जैसी संतान को पैदा करना भी तो गुनाह ही है। मम्मी को इस गुनाह की सजा जरूर मिलनी चाहिए।’’
फिर शंकर ने आलमारी में रखा एक बैग खोलकर लम्बे फलवाला चाकू निकाला और अपने कमरे से बाहर निकलकर मेनका के कमरे मे चला गया। मेनका लाइट जलाकर ही सोती थी। शंकर डबडबाई आंखों से कुछ पल गहरी नींद में सो रही मेनका को देखता रहा, फिर बड़बड़ाया, ‘‘काश! तुमने हमारा पाप नहीं देखा होता तो हम तुम्हारे खून से अपने हाथ कभी न रंगते मम्मी। अगले जन्म में हम जैसी पापी संतान को पैदा मत करना।’’
फिर शंकर ने बाएं हाथ से गहरी नींद में सो रही मेनका का मुंह पूरी ताकत से दबा दिया और दाएं हाथ में थामे चाकू से उसके चेहरे और गले में ताबड़तोड़ वार करने लगा। उसने कई वार मेनका के पेट पर भी किए। काफी देर तक खून से लिथड़ी मेनका तड़पती रही। फिर जब उसके प्राण शरीर से जुदा हो गए तो शंकर ने उसकी लाश को घसीटकर फर्श पर डाल दिया। उस वक्त उसके शरीर पर सिर्फ जांघिया ही था, जिस पर खून लग चुका था।
‘‘त…तूने सचमुच ही मम्मी का खून कर दिया?’’ मीना ने हैरत से आंखे फैलाकर पूछा।
‘‘हां।’’ शंकर ने सपाट लहजे में कहा।
‘‘सुबह पापा लाश देखेंगे तब…।’’
‘‘तब की तब देखी जाएगी।’’
उस वक्त रात के डेढ़ बज रहे थे। खून से सना चाकू मेज पर रखने के बाद शंकर बेड पर लेटकर सोने का उपक्रम करने लगा, मगर जिस बेटे के हाथ अपनी मां के खून से रंगे हों, भला उसे नींद कहां आती!
हर सुबह मेनका छः बजे के आसपास चाय बनाकर सभी को ‘बेड-टी’ देती थी, मगर उस सुबह सात बजे तक भी मेनका चाय बनाकर नहीं लाई तो विजय दुकान से बाहर निकलकर मेनका के कमरे में गया। वहां मेनका की लाश देखकर उसके होश फाख्ता हो गये। वह दूसरे कमरे मे अपने बच्चों को जगाने गया तो वहां मेजपर खून से सना चाकू तथा शंकर के जांघिए पर खून लगा देख वह समझ गया कि मेनका का खून शंकर ने ही किया है। विजय शंकर पर टूट पड़ा, ‘‘कमीने, क्यों मारा अपनी मां को तूने… क्या दुश्मनी थी तेरी उससे?’’
शंकर और मीना रोने लगे। फिर उन दोनों ने सारी हरकत बयान कर दी। हकीकत सुनकर विजय अपना माथा पीटने लगा।
‘‘मैं और तुम्हारी मम्मी तो भूल ही गये थे कि तुम दोनों जवान हो गये हो। तुम्हें एक साथ नहीं सोने देना चाहिए था। गलती तुम्हारी नही, हमारी सोच की थी। हमे क्या पता था कि जमाना इतना बदल गया है कि भाई-बहन ही… खैर! मेनका तो गई। अब मैं नही चाहता कि भांडा फूटे और तुम दोनो जेल जाओ।’’
फिर विजय ने दोनों को समझाया कि पुलिस जब उनसे पूछताछ करे तो उन्हें क्या कहना है और क्या नहीं कहना है। इसके बाद विजय ने फोन कर पुलिस नियंत्रण कक्ष को अपनी पत्नी का कत्ल होने की सूचना दे दी।
जांच शुरू हुई कुछ ही देर मे सच्चाई पुलिस के सामने आ गई तब जांच अधिकारी ने विजय की निशानशानदेही पर मकान की छत पर रखी पानी की टंकी के पास से खून सना, शंकर का जांघिया और हत्या में प्रयुक्त चाकू बरामद करने के बाद विजय, शंकर और मीना को गिरफ्तार कर लिया।
अगले दिन विजय को हत्या के सुबूत छिपाने व हत्यारों को बचाने के जुर्म में तथा मीना एवं शंकर को योजना बनाकर हत्या करने के जुर्म में कोर्ट में पेश किया गया, जहां से उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया।