चंद्रकांता

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:32

ग्यारहवां बयान

कुमार का मिजाज बदल गया। वे बातें जो उनमें पहले थीं अब बिल्कुल न रहीं। मां-बाप की फिक्र, विजयगढ़ का ख्याल, लड़ाई की धुन, तेजसिंह की दोस्ती, चंद्रकान्ता और चपला के मरते ही सब जाती रहीं। किले से ये तीनों बाहर आये, आगे शिवदत्त की गठरी लिए देवीसिंह और उनके पीछे कुमार को बीच में लिए तेजसिंह चले जाते थे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह को इसका कुछ भी ख्याल न था कि वे कहां जा रहे हैं। दिन चढ़ते-चढ़ते ये लोग बहुत दूर एक घने जंगल में जा पहुंचे, जहां तेजसिंह के कहने से देवीसिंह ने महाराज शिवदत्त की गठरी जमीन में रख दी और अपनी चादर से एक पत्थर खूब झाड़कर कुमार को बैठने के लिए कहा, मगर वे खड़े ही रहे, सिवाय जमीन देखने के कुछ भी न बोले।

कुमार की ऐसी दशा देखकर तेजसिंह बहुत घबड़ाये। जी में सोचने लगे कि अब इनकी जिंदगी कैसे रहेगी? अजब हालत हो रही है, चेहरे पर मुर्दनी छा रही है, तनोबदन की सुधा नहीं, बल्कि पलकें नीचे को बिल्कुल नहीं गिरतीं, आंखों की पुतलियां जमीन देख रही हैं, जरा भी इधर-उधर नहीं हटतीं। यह क्या हो गया? क्या चंद्रकान्ता के साथ ही इनका भी दम निकल गया? यह खड़े क्यों हैं? तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ बैठने के लिए जोर दिया, मगर घुटना बिल्कुल न मुड़ा, धाम्म से जमीन पर गिर पड़े, सिर फूट गया, खून निकलने लगा मगर पलकें उसी तरह खुली की खुली, पुतलियां ठहरी हुईं, सांस रुक-रुककर निकलने लगी।

अब तेजसिंह कुमार की जिंदगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो गये, रोकने से तबीयत न रुकी, जोर से पुकारकर रोने लगे। इस हालत को देख देवीसिंह की भी छाती फटी, रोने में तेजसिंह के शरीक हुए। तेजसिंह पुकार-पुकार कर कहने लगे कि-''हाय कुमार, क्या सचमुच अब तुमने दुनिया छोड़ ही दी? हाय, न मालूम वह कौन-सी बुरी सायत थी कि कुमारी चंद्रकान्ता की मुहब्बत तुम्हारे दिल में पैदा हुई जिसका नतीजा ऐसा बुरा हुआ। अब मालूम हुआ कि तुम्हारी जिंदगी इतनी ही थी।'' तेजसिंह इस तरह की बातें कह रो रहे थे कि इतने में एक तरफ से आवाज आई-

''नहीं, कुमार की उम्र कम नहीं है बहुत बड़ी है, इनको मारने वाला कोई पैदा नहीं हुआ। कुमारी चंद्रकान्ता की मुहब्बत बुरी सायत में नहीं हुई बल्कि बहुत अच्छी सायत में हुई, इसका नतीजा बहुत अच्छा होगा। कुमारी से शादी तो होगी ही साथ ही इसके चुनार की गद्दी भी कुंअर वीरेन्द्रसिंह को मिलेगी। बल्कि और भी कई राज्य इनके हाथ से फतह होंगे। बड़े तेजस्वी और इनसे भी ज्यादे नाम पैदा करने वाले दो वीर पुत्र चंद्रकान्ता के गर्भ से पैदा होंगे। क्या हुआ है जो रो रहे हो?''

तेजसिंह और देवीसिंह का रोना एकदम बंद हो गया, इधर-उधर देखने लगे। तेजसिंह सोचने लगे कि हैं, यह कौन है, ऐसी मुर्दे को जिलाने वाली आवाज किसके मुंह से निकली? क्या कहा? कुमार को मारने वाला कौन है! कुमार के दो पुत्र होंगे! हैं, यह कैसी बात है? कुमार का तो यहां दम निकला जाता है। ढूंढना चाहिए यह कौन है? तेजसिंह और देवीसिंह इधर-उधर देखने लगे पर कहीं कुछ पता न चला। फिर आवाज आई, ''इधर देखो।'' आवाज की सीधा पर एक तरफ सिर उठाकर तेजसिंह ने देखा कि पेड़ पर से जगन्नाथ ज्योतिषी नीचे उतर रहे हैं।

जगन्नाथ ज्योतिषी उतरकर तेजसिंह के सामने आये और बोले, ''आप हैरान मत होइए, ये सब बातें जो ठीक होने वाली हैं मैंने ही कही हैं। इसके सोचने की भी जरूरत नहीं कि मैं महाराज शिवदत्त का तरफदार होकर आपके हित में बातें क्यों कहने लगा? इसका सबब भी थोड़ी देर में मालूम हो जायगा और आप मुझको अपना सच्चा दोस्त समझने लगेंगे, पहले कुमार की फिक्र कर लें तब आपसे बातचीत हो।''

इसके बाद जगन्नाथ ज्योतिषी ने तेजसिंह और देवीसिंह के देखते-देखते एक बूटी जिसकी तिकोनी पत्ती थी और आसमानी रंग का फूल लगा हुआ था, डंठल का रंग बिल्कुल सफेद और खुरदुरा था, उसी समय पास ही से ढूंढकर तोड़ी और हाथ में खूब मल के दो बूंद उसके रस की कुमार की दोनों आंखों और कानों में टपका दीं, बाकी जो सीठी बची उसको तालू पर रखकर अपनी चादर से एक टुकड़ा फाड़कर बांधा दिया और बैठकर कुमार के आराम होने की राह देखने लगे।

आधी घड़ी भी नहीं बीतने पाई थी कि कुमार की आंखों का रंग बदल गया, पलकों ने गिरकर कौड़ियों को ढांक लिया, धीरे- धीरे हाथ-पैर भी हिलने लगे, दो-तीन छींकें भी आईं जिनके साथ ही कुमार होश में आकर उठ बैठे। सामने ज्योतिषीजी के साथ तेजसिंह और देवीसिंह को बैठे देखकर पूछा, ''क्यों, मुझको क्या हो गया था?'' तेजसिंह ने सब हाल कहा। कुमार ने जगन्नाथ ज्योतिषी को दण्डवत किया और कहा, ''महाराज, आपने मेरे ऊपर क्यों कृपा की, इसका हाल जल्द कहिये, मुझको कई तरह के शक हो रहे हैं!''

ज्योतिषीजी ने कहा, ''कुमार, यह ईश्वर की माया है कि आपके साथ रहने को मेरा जी चाहता है। महाराज शिवदत्त इस लायक नहीं है कि मैं उसके साथ रहकर अपनी जान दूं। उसको आदमी की पहचान नहीं, वह गुणियों का आदर नहीं करता, उसके साथ रहना अपने गुण की मिट्ठी खराब करना है। गुणी के गुण को देखकर कभी तारीफ नहीं करता, वह बड़ा भारी मतलबी है। अगर उसका काम किसी से कुछ बिगड़ जाय तो उसकी आंखें उसकी तरफ से तुरंत बदल जाती हैं, चाहे वह कैसा ही गुणी क्यो न हो। सिवाय इसके वह अधार्मी भी बड़ा भारी है, कोई भला आदमी ऐसे के साथ रहना पसंद नहीं करेगा, इसी से मेरा जी फट गया। मैं अगर रहूंगा तो आपके साथ रहूंगा। आप-सा कदरदान मुझको कोई दिखाई नहीं देता, मैं कई दिनों से इस फिक्र में था मगर कोई ऐसा मौका नहीं मिलता था कि अपनी सचाई दिखाकर आपका साथी हो जाता, क्योंकि मैं चाहे कितनी ही बातें बनाऊं मगर ऐयारों की तरफ से ऐयारों का जी साफ होना मुश्किल है। आज मुझको ऐसा मौका मिला, क्योंकि आज का दिन आप पर बड़े संकट का था, जो कि महाराज शिवदत्त के धोखे और चालाकी ने आपको दिखाया!'' इतना कह ज्योतिषीजी चुप हो रहे।

ज्योतिषीजी की आखिरी बात ने सभी को चौंका दिया। तीनों आदमी घसककर उनके पास आ बैठे। तेजसिंह ने कहा, ''हां ज्योतिषीजी जल्दी खुलासा कहिये, शिवदत्त ने क्योंकर धोखा दिया?'' ज्योतिषीजी ने कहा, ''महाराज शिवदत्त का यह कायदा है कि जब कोई भारी काम किया चाहता है तो पहले मुझसे जरूर पूछता है, लेकिन चाहे राय दूं या मना करूं मगर करता है अपने ही मन की और धोखा भी खाता है। कई दफे पण्डित बद्रीनाथ भी इन बातों से रंज हो गये कि जब अपने ही मन की करनी है जो ज्योतिषीजी से पूछने की जरूरत ही क्या है। आज रात को जो चालाकी उसने आपसे की उसके लिए भी मैंने मना किया था मगर कुछ न माना, आखिर नतीजा यह निकला कि घसीटासिंह और भगवानदत्त ऐयारों की जान गई, इसका खुलासा हाल मैं तब कहूंगा जब आप इस बात का वादा कर लें कि मुझको अपना ऐयार या साथी बनावेंगे।''

ज्योतिषीजी की बात सुन कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा। तेजसिंह ने कहा, ''ज्योतिषीजी, मैं बड़ी खुशी से आपको साथ रखूंगा परंतु आपको इसके पहले अपने साफ दिल होने की कसम खानी पड़ेगी।''

ज्योतिषीजी ने तेजसिंह के मन से शक मिटाने के लिए जनेऊ हाथ में लेकर कसम खाई, तेजसिंह ने उठ के उन्हें गले लगा लिया और बड़ी खुशी से अपने ऐयारों की पंगत में मिला लिया। कुमार ने अपने गले से कीमती माला निकाल ज्योतिषीजी को पहना दी। ज्योतिषीजी ने कहा, ''अब मुझसे सुनिये कि कुमार महल में क्यों कैद किये गये थे और जो रात को खून-खराबा हुआ उसका असल भेद क्या है?

जब आप लोग लश्कर से कुमारी की खोज में निकले थे तो रास्ते में बद्रीनाथ ऐयार ने आपको देख लिया था। आप लोगों के पहले वे वहां पहुंचे और चंद्रकान्ता को दूसरी जगह छिपाने की नीयत से उस खोह में उसको लेने गये मगर उनके पहुंचने से पहले ही कुमारी वहां से गायब हो गयी थी और वे खाली हाथ वापस आये, तब नाज़िम को साथ ले आप लोगो की खोज में निकले और आपको इस जंगल में पाकर ऐयारी की। नाज़िम ने ढेला फेंका था, देवीसिंह उसको पकड़ने गये, तब तक बद्रीनाथ जो पहले ही तेजसिंह बनकर आये थे, न मालूम किस चालाकी से आपको बेहोश कर किले में ले गये और जिसमें आपकी तबीयत से चंद्रकान्ता की मुहब्बत जाती रहे और आप उसकी खोज न करें तथा उसके लिए महाराज शिवदत्त से लड़ाई न ठानें इसलिए भगवानदत्त और घसीटासिंह जो हम सबों में कम उम्र थे चंद्रकान्ता और चपला बनाये गये जिनको आपने खत्म किया, बाकी हाल तो आप जानते ही हैं।''

ज्योतिषीजी की बात सुन कुमार मारे खुशी के उछल पड़े। कहने लगे, ''हाय, क्या गजब किया था। कितना भारी धोखा दिया! अब मालूम हुआ कि बेचारी चंद्रकान्ता जीती-जागती है मगर कहां है इसका पता नहीं, खैर यह भी मालूम हो जायगा!''

अब क्या करना चाहिए इस बात को सबों ने मिलकर सोचा और यह पक्का किया कि 1. महाराज शिवद्त्त को तो उसी खोह में जिसमें ऐयार लोग पहले कैद किये गये थे डाल देना चाहिए और दोहरा ताला लगा देना चाहिए क्योंकि पहले ताले का हाल जो शेर के मुंह में से जुबान खींचने से खुलता है 1 बद्रीनाथ को मालूम हो गया है, मगर दूसरे ताले का हाल सिवाय तेजसिंह के अभी कोई नहीं जानता। 2. कुमार को विजयगढ़ चले जाना चाहिए क्योंकि जब तक महाराज शिवदत्त कैद हैं लड़ाई न होगी, मगर हिफाजत के लिए कुछ फौज सरहद पर जरूर होनी चाहिए। 3. देवीसिंह कुमार के साथ रहें। 4. तेजसिंह और ज्योतिषीजी कुमारी की खोज में जायें।

कुछ और बातचीत करके सब कोई उठ खड़े हुए और वहां से चल पड़े।

Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:32

बारहवा बयान

दोपहर के वक्त एक नाले के किनारे सुंदर साफ चट्टान पर दो कमसिन औरतें बैठी हैं। दोनों की मैली-फटी साड़ी, दोनों के मुंह पर मिट्टी, खुले बाल, पैरों पर खूब धूल पड़ी हुई और चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छाई हुई है। चारों तरफ भयानक जंगल, खूनी जानवरों की भयानक आवाजें आ रही हैं। जब कभी जोर से हवा चलती है तो पेड़ों की घनघनाहट से जंगल और भी डरावना मालूम पड़ता है।

1.पहले भाग में आपने पढ़ा होगा कि खोह का दरवाजा जिसमें ऐयारों को तेजसिंह ने कैद किया था शेर के मुंह में हाथ डालकर जुबान खींचने से खुल जाता था। ऐसा दरवाजा या ताला यदि कोई चाहे तो बना सकता है, असंभव नहीं, खूब गौर कर देखिये।

इन दोनों औरतों के सामने नाले के उस पार एक तेंदुआ पानी पीने के लिए उतरा, उन्होने उस तेंदुए को देखा मगर वह खूनी जानवर इन दोनों को न देख सका, क्योंकि जहां वे दोनों बैठी थीं सामने ही एक मोटा जामुन का पेड़ था।

इन दोनों में से एक जो ज्यादे नाजुक थी उस तेंदुए को देख डरी और धीरे से दूसरे से बोली, ''प्यारी सखी, देखो कहीं वह इस पार न उतर आवे।'' उसने कहा, ''नहीं सखी वह इस पार न आवेगा, अगर आने का इरादा भी करेगा तो मैं पहले ही इन तीरों से उसको मार गिराऊंगी जो उस नाले के सिपाहियों को मारकर लेती आई हूं। इस वक्त हमारे पास दो सौ तीर हैं और हम दोनों तीर चलाने वाली हैं, लो तुम भी एक तीर चढ़ा लो।'' यह सुन उसने भी एक तीर कमान पर चढ़ाई मगर उसकी कोई जरूरत न पड़ी। वह तेंदुआ पानी पीकर तुरंत ऊपर चढ़ गया और देखते-देखते गायब हो गया तब इन दोनों में यों बात-चीत होने लगी-

कुमारी-क्यों चपला, कुछ मालूम पड़ता है कि हम लोग किस जगह आ पहुंचे और यह कौन-सा जंगल है तथा विजयगढ़ की राह किधर है?

चपला-कुमारी, कुछ समझ में नहीं आता, बल्कि अभी तक मुझको भागने की धुन में यह भी नहीं मालूम कि किस तरफ चली आई। विजयगढ़ किधर है, चुनार कहां छोड़ा, और नौगढ़ का रास्ता कहां है! सिवाय तुम्हारे साथ महल में रहने या विजयगढ़ की हद में घूमने के कभी इन जंगलों में तो आना ही नहीं हुआ। हां चुनार से सीधो विजयगढ़ का रास्ता जानती हूं मगर उधर मैं इस सबब से नहीं गई कि आजकल हमारे दुश्मनों का लश्कर रास्ते में पड़ा है, कहीं ऐसा न हो कोई देख ले, इसलिए मैं जंगल ही जंगल दूसरी तरफ भागी। खैर देखो ईश्वर मालिक है, कुछ न कुछ रास्ते का पता लग ही जायगा। मेरे बटुए में मेवा हैं, लो इसको खा लो और पानी पी लो, फिर देखा जायगा।

कुमारी-इसको किसी और वक्त के वास्ते रहने दो। क्या जाने हम लोगों को कितने दिन दु:ख भोगना पड़े। यह जंगल खूब घना है, चलो बेर मकोय तोड़कर खायें। अच्छा तो न मालूम पड़ेगा मगर समय काटना है।

चपला-अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी।

चपला और चंद्रकान्ता दोनों वहां से उठीं। नाले के ऊपर इधर-उधर घूमने लगीं। दिन दोपहर से ज्यादे ढल चुका था। पेड़ों की छांह में घूमती जंगली बेरों को तोड़ती खाती वे दोनों एक टूटे-फूटे उजाड़ मकान के पास पहुंचीं जिसको देखने से मालूम होता था कि यह मकान जरूर किसी बड़े राजा का बनाया हुआ होगा मगर अब टूट-फूट गया है। चपला ने कुमारी चंद्रकान्ता से कहा, ''बहिन तुम मकान के टूटे दरवाजे पर बैठो, मैं फल तोड़ लाऊं तो इसी जगह बैठकर दोनों खायें और इसके बाद तब इस मकान के अंदर घुसकर देखें कि क्या है। जब तक विजयगढ़ का रास्ता न मिले यही खण्डहर हम लोगों के रहने के लिए अच्छा होगा, इसी में गुजारा करेंगे। कोई मुसाफिर या चरवाहा इधर से आ निकलेगा तो विजयगढ़ का रास्ता पूछ लेंगे और तब यहां से जायेंगे।'' कुमारी ने कहा, ''अच्छी बात है, मैं इसी जगह बैठती हूं, तुम कुछ फल तोड़ो लेकिन दूर मत जाना!'' चपला ने कहा, ''नहीं मैं दूर न जाऊंगी, इसी जगह तुम्हारी आंखों के सामने रहूंगी।'' यह कहकर चपला फल तोड़ने चलीगई।

तेरहवां बयान

चपला खाने के लिए कुछ फल तोड़ने चली गई। इधर चंद्रकान्ता अकेली बैठी-बैठी घबड़ा उठी। जी में सोचने लगी कि जब तक चपला फल तोड़ती है तब तक इस टूटे-फूटे मकान की सैर करें, क्योंकि यह मकान चाहे टूटकर खंडहर हो रहा है मगर मालूम होता है किसी समय में अपना सानी न रखता होगा।

कुमारी चंद्रकान्ता वहां से उठकर खंडहर के अंदर गई। फाटक इस टूटे-फूटे मकान का दुरुस्त और मजबूत था। यद्यपि उसमें किवाड़ न लगे थे, मगर देखने वाला यही कहेगा कि पहले इसमें लकड़ी या लोहे का फाटक जरूर लगा रहा होगा।

कुमारी ने अंदर जाकर देखा कि बड़ा भारी चौखूटा मकान है। बीच की इमारत तो टूटी-फूटी है मगर हाता चारों तरफ का दुरुस्त मालूम पड़ता है। और आगे बढ़ी, एक दलान में पहुंची जिसकी छत गिरी हुई थी पर खंभे खड़े थे। इधर-उधर ईंट-पत्थर के ढेर थे जिन पर धीरे- धीरे पैर रखती और आगे बढी। बीच में एक मैदान देख पड़ा जिसको बड़े गौर से कुमारी देखने लगी। साफ मालूम होता था कि पहले यह बाग था क्योंकि अभी तक संगमर्मर की क्यारियां बनी हुई थीं, छोटी-छोटी नहरें जिनसे छिड़काव का काम निकलता होगा अभी तक तैयार थीं। बहुत से फव्वारे बेमरम्मत दिखाई पड़ते थे मगर उन सबों पर मिट्टी की चादर पड़ी हुई थी। बीचोंबीच उस खण्डहर के एक बड़ा भारी पत्थर का बगुला बना हुआ दिखाई दिया जिसको अच्छी तरह से देखने के लिए कुमारी उसके पास गई और उसकी सफाई और कारीगरी को देख उसके बनाने वाले की तारीफ करने लगी।

वह बगुला सफेद संगमर्मर का बना हुआ था और काले पत्थर के कमर बराबर ऊंचे तथा मोटे खंभे पर बैठाया हुआ था। टांगें उसकी दिखाई नहीं देती थीं, यही मालूम होता था कि पेट सटाकर इस पत्थर पर बैठा है। कम से कम पंद्रह हाथ के घेरे में उसका पेट होगा। लंबी चोंच, बाल और पर उसके ऐसी कारीगरी के साथ बनाये हुए थे कि बार-बार उसके बनाने वाले कारीगर की तारीफ मुंह से निकलती थी। जी में आया कि और पास जाकर बगुले को देखे। पास गई, मगर वहां पहुंचते ही उसने मुंह खोल दिया। चंद्रकान्ता यह देख घबड़ा गई कि यह क्या मामला है, कुछ डर भी मालूम हुआ, सामना छोड़ बगल में हो गई। अब उस बगुले ने पर भी फैला दिये।

कुमारी को चपला ने बहुत ढीठ कर दिया था। कभी-कभी जब जिक्र आ जाता तो चपला यही कहती थी कि दुनिया में भूत-प्रेत कोई चीज नहीं, जादू-मंत्र सब खेल कहानी है, जो कुछ है ऐयारी है। इस बात का कुमारी को भी पूरा यकीन हो चुका था। यही सबब था कि चंद्रकान्ता इस बगुले के मुंह खोलने और पर फैलाने से नहीं डरी, अगर किसी दूसरी ऐसी नाजुक औरत को कहीं ऐसा मौका पड़ता तो शायद उसकी जान निकल जाती। जब बगुले को पर फैलाते देखा तो कुमारी उसके पीछे हो गयी, बगुले के पीछे की तरफ एक पत्थर जमीन में लगा था जिस पर कुमारी ने पैर रखा ही था कि बगुला एक दफे हिला और जल्दी से घूम अपनी चोंच से कुमारी को उठाकर निगल गया,तब घूमकर अपने ठिकाने हो गया। पर समेट लिए और मुंह बंद कर लिया।

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Re: चंद्रकांता

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:33

चौदहवां बयान

थोड़ी देर में चपला फलों से झोली भरे हुए पहुंची, देखा तो चंद्रकान्ता वहां नहीं है। इधर-उधर निगाह दौड़ाई, कहीं नहीं। इस टूटे मकान (खण्डहर) में तो नहीं गई है! यह सोचकर मकान के अंदर चली। कुमारी तो बेधाड़क उस खण्डहर में चली गई थी मगर चपला रुकती हुई चारों तरफ निगाह दौड़ाती और एक-एक चीज तजवीज करती हुई चली। फाटक के अंदर घुसते ही दोनों बगल दो दलान दिखाई पड़ेर्। ईंट-पत्थर के ढेर लगे हुए, कहीं से छत टूटी हुई मगर दीवारों पर चित्रकारी और पत्थरों की मूर्तियां अभी तक नई मालूम पड़ती थीं।

चपला ने ताज्जुब की निगाह से उन मूर्तियों को देखा, कोई भी उसमें पूरे बदन की नजर न आई, किसी का सिर नहीं, किसी की टांग नहीं, किसी का हाथ कटा, किसी का आधा धाड़ ही नहीं! सूरत भी इन मूर्तियों की अजब डरावनी थी। और आगे बढ़ी, बड़े-बड़े मिट्टी-पत्थर के ढेर जिनमें जंगली पेड़ लगे हुए थे, लांघती हुई मैदान में पहुंची, दूर से वह बगुला दिखाई पड़ा जिसके पेट में कुमारी पड़ चुकी थी।

सब जगहों को देखना छोड़ चपला उस बगुले के पास धाड़धाड़ाती हुई पहुंची। उसने मुंह खोल दिया। चपला को बड़ा ताज्जुब हुआ, पीछे हटी। बगुले ने मुंह बंद कर दिया। सोचने लगी अब क्या करना चाहिए। यह तो कोई बड़ी भारी ऐयारी मालूम होती है। क्या भेद है इसका पता लगाना चाहिए। मगर पहले कुमारी को खोजना उचित है क्योंकि यह खण्डहर कोई पुराना तिलिस्म मालूम होता है, कहीं ऐसा न हो कि इसी में कुमारी फंस गई हो। यह सोच उस जगह से हटी और दूसरी तरफ खोजने लगी।

चारों तरफ हाता घिरा हुआ था, कई दलान और कोठरियां ढूटी-फूटी और कई साबुत भी थीं, एक तरफ से देखना शुरू किया। पहले एक दलान में पहुंची जिसकी छत बीच से टूटी हुई थी, लंबाई दलान की लगभग सौ गज की होगी, बीच में मिट्टी-चूने का ढेर, इधर-उधर बहुत-सी हड्डी पड़ी हुईं और चारों तरफ जाले-मकड़े लगे हुए थे। मिट्टी के ढेर में से छोटे-छोटे बहुत से पीपल वगैरह के पेड़ निकल आये थे। दलान के एक तरफ छोटी-सी कोठरी नजर आई जिसके अंदर पहुंचने पर देखा एक कुआं है, झांकने से अंधेरा मालूम पड़ा।

इस कुएं के अंदर क्या है! यह कोठरी बनिस्बत और जगहों के साफ क्यों मालूम पड़ती है? कुआं भी साफ दीख पड़ता है, क्योंकि जैसे अक्सर पुराने कुओं में पेड़ वगैरह लग जाते हैं, इसमें नहीं हैं, कुछ-कुछ आवाज भी इसमें से आती है जो बिल्कुल समझ नहीं पड़ती।

इसका पता लगाने के लिए चपला ने अपने ऐयारी के बटुए में से काफूर निकाला और उसके टुकड़े बालकर कुएं में डाले। अंदर तक पहुंचकर उन बलते हुए काफूर के टुकड़ों ने खूब रोशनी की। 1 अब साफ मालूम पड़ने लगा कि नीचे से कुआं बहुत चौड़ा और साफ है मगर पानी नहीं है बल्कि पानी की जगह एक साफ सफेद बिछावन मालूम पड़ता है जिसके ऊपर एक बूढ़ा आदमी बैठा है। उसकी लंबी दाढ़ी लटकती हुई दिखाई पड़ती है, मगर गर्दन नीची होने के सबब चेहरा मालूम नहीं पड़ता। सामने एक चौकी रखी हुई है जिस पर रंग-बिरंगे फूल पड़े हैं। चपला यह तमाशा देख डर गई। फिर जी को सम्हाला और कुएं पर बैठ गौर करने लगी मगर कुछ अक्ल ने गवाही न दी। वह काफूर के टुकड़े भी बुझ गये जो कुएं के अंदर जल रहे थे और फिर अंधॆरा हो गया।

उस कोठरी में से एक दूसरे दलान में जाने का रास्ता था। उस राह से चपला दूसरे दलान में पहुंची, जहां इससे भी ज्यादे जी दहलाने और डराने वाला तमाशा देखा। कूड़ा-कर्कट, हड्डी और गंदगी में यह दलान पहले दलान से कहीं बढ़ा-चढ़ा था, बल्कि एक साबुत पंजर (ढांचा) हड्डी का भी पड़ा हुआ था जो शायद गदहे या टट्टू का हो। उसी के बगल से लांघती हुई चपला बीचों बीच दलान में पहुंची।

एक चबूतरा संगमर्मर का पुरसा भर ऊंचा देखा जिस पर चढ़ने के लिए खूबसूरत नौ सीढ़ियां बनी हुई थीं। ऊपर उसके एक आदमी चौकी पर लेटा हुआ हाथ में किताब लिये कुछ पढ़ता हुआ मालूम पड़ा, मगर ऊंचा होने के सबब साफ दिखाई न दिया। इस चबूतरे पर चढ़े या न चढ़े? चढ़ने से कोई आफत तो न आवेगी! भला सीढ़ी पर एक पैर रखकर देखूं तो सही? यह सोचकर चपला ने सीढ़ी पर एक पैर रखा। पैर रखते ही बड़े जोर से आवाज हुई और संदूक के पल्ले की तरह खुलकर सीढ़ी के ऊपर वाले पत्थर ने चपला के पैर को जोर से फेंक दिया जिसकी धामक और झटके से वह जमीन पर गिर पड़ी। सम्हलकर उठ खड़ी हुई, देखा तो वह सीढ़ी का पत्थर जो संदूक के पल्ले की तरह खुल गया था ज्यों का त्यों बंद हो गया है।

चपला अलग खड़ी होकर सोचने लगी कि यह टूटा-फूटा मकान तो अजब तमाशे का है। जरूर यह किसी भारी ऐयार का बनाया हुआ होगा। इस मकान में घुसकर सैर करना कठिन है, जरा चूके और जान गई। पर मुझको क्या डर क्योंकि

1. काफूर का दस्तूर है कि जलाकर किसी गङ्ढे या कुएं में डालें तो बराबर जलता हुआ चला जायगा और नीचे भी जलता रहेगा।

जान से भी प्यारी मेरी चंद्रकान्ता इसी मकान में कहीं फंसी हुई है जिसका पता लगाना बहुत जरूरी है। चाहे जान चली जाय मगर बिना कुमारी को लिये इस मकान से बाहर कभी न जाऊंगी? देखूं इस सीढ़ी और चबूतरे में क्या-क्या ऐयारियां की गई हैं? कुछ देर तक सोचने के बाद चपला ने एक दस सेर का पत्थर सीढ़ी पर रखा। जिस तरह पैर को उस सीढ़ी ने फेंका था उसी तरह इस पत्थर को भी भारी आवाज के साथ फेंक दिया।

चपला ने हर एक सीढ़ी पर पत्थर रखकर देखा, सबों में यही करामात पाई। इस चबूतरे के ऊपर क्या है इसको जरूर देखना चाहिए यह सोच अब वह दूसरी तरकीब करने लगी। बहुत से ईंट-पत्थर उस चबूतरे के पास जमा किए और उसके ऊपर चढ़कर देखा कि संगमर्मर की चौकी पर एक आदमी दोनों हाथों में किताब लिए पड़ा है, उम्र लगभग तीस वर्ष की होगी। खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह भी पत्थर का है। चपला ने एक छोटी-सी कंकड़ी उसके मुंह पर डाली, या तो पत्थर का पुतला मगर काम आदमी का किया। चपला ने जो कंकड़ी उसके मुंह पर डाली थी उसको एक हाथ से हटा दिया और फिर उसी तरह वह हाथ अपने ठिकाने ले गया। चपला ने तक एक कंकड़ उसके पैर पर रखा, उसने पैर हिलाकर कंकड़ गिरा दिया। चपला थी तो बड़ी चालाक और निडर मगर इस पत्थर के आदमी का तमाशा देख बहुत डरी और जल्दी वहां से हट गई। अब दूसरी तरफ देखने लगी। बगल के एक और दलान में पहुंची, देखा कि बीचों बीच दलान के एक तहखाना मालूम पड़ता है, नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं और ऊपर की तरफ दो पल्ले किवाड़ के हैं जो इस समय खुले हैं।

चपला खड़ी होकर सोचने लगी कि इसके अंदर जाना चाहिए या नहीं! कहीं ऐसा न हो कि इसमें उतरने के बाद यह दरवाजा बंद हो जाय तो मैं इसी में रह जाऊं, इससे मुनासिब है कि इसको भी आजमा लूं। पहिले एक ढोंका इसके अंदर डालूं लेकिन अगर आदमी के जाने से यह दरवाजा बंद हो सकता है तो जरूर ढोंके के गिरते ही बंद हो जायगा तब इसके अंदर जाकर देखना मुश्किल होगा, अस्तु ऐसी कोई तरकीब की जाय जिससे उसके जाने से किवाड़ बंद न होने पावे, बल्कि हो सके तो पल्लों को तोड़ ही देना चाहिए।

इन सब बातों को सोचकर चपला दरवाजे के पास गई। पहले उसके तोड़ने की फिक्र की मगर न हो सका, क्योंकि वे पल्ले लोहे के थे। कब्जा उनमें नहीं था, सिर्फ पल्ले के बीचोंबीच में चूल बनी हुई थी जो कि जमीन के अंदर घुसी हुई मालूम पड़ती थी। यह चूल जमीन के अंदर कहां जाकर अड़ी थी इसका पता न लग सका।

चपला ने अपने कमर से कमंद खोली और चौहरा करके एक सिरा उसका उस किवाड़ के पल्ले में खूब मजबूती के साथ बांधा, दूसरा सिरा उस कमंद का उसी दलान के एक खंभे में जो किवाड़ के पास ही था बांधा, इसके बाद एक ढोंका पत्थर का दूर से उस तहखाने में डाला। पत्थर पड़ते ही इस तरह की आवाज आने लगी जैसे किसी हाथी में से जोर से हवा निकलने की आवाज आती है, साथ ही इसके जल्दी से एक पल्ला भी बंद हो गया, दूसरा पल्ला भी बंद होने के लिए खिंचा मगर वह कमंद से कसा हुआ था, उसको तोड़ न सका, खिंचा का खिंचा ही रह गया। चपला ने सोचा-''कोई हर्ज नहीं, मालूम हो गया कि यह कमंद इस पल्ले को बंद न होने देगी, अब बेखटके इसके अंदर उतरो, देखो तो क्या है।'' यह सोच चपला उस तहखाने में उतरी।

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