चंद्रकांता

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:34

पंद्रहवां बयान

चंपा बेफिक्र नहीं है, वह भी कुमारी की खोज में घर से निकली हुई है। जब बहुत दिन हो गये और राजकुमारी चंद्रकान्ता की कुछ खबर न मिली तो महारानी से हुक्म लेकर चंपा घर से निकली। जंगल-जंगल पहाड़-पहाड़ मारी फिरी मगर कहीं पता न लगा। कई दिन की थकी-मांदी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगी कि अब कहां चलना चाहिए और किस जगह ढूंढना चाहिए, क्योंकि महारानी से मैं इतना वादा करके निकली हूं कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह से बिना मिले और बिना उनसे कुछ खबर लिए कुमारी का पता लगाऊंगी, मगर अभी तक कोई उम्मीद पूरी न हुई और बिना काम पूरा किये मैं विजयगढ़ भी न जाऊंगी चाहे जो हो, देखूं कब तक पता नहीं लगता।

जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठी हुई चंपा इन सब बातों को सोच रही थी कि सामने से चार आदमी सिपाहियाना पोशाक पहने, ढाल-तलवार लगाये एक-एक तेगा हाथ में लिये आते दिखाई दिये।

चंपा को देखकर उन लोगों ने आपस में कुछ बातें कीं जिसे दूर होने के सबब चंपा बिल्कुल सुन न सकी मगर उन लोगों के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगी। वे लोग कभी चंपा की तरफ देखते, कभी आपस में बातें करके हंसते, कभी ऊंचे हो-हो कर अपने पीछे की तरफ देखते, जिससे यह मालूम होता था कि ये लोग किसी की राह देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद वे चारों चंपा के चारों तरफ हो गए और पेडॊ के नीचे छाया देखकर बैठ गये।

चंपा का जी खटका और सोचने लगी कि ये लोग कौन हैं, चारों तरफ से मुझको घेरकर क्यों बैठ गये और इनका क्या इरादा है? अब यहां बैठना न चाहिए। यह सोचकर उठ खड़ी हुई और एक तरफ का रास्ता लिया, मगर उन चारों ने न जाने दिया। दौड़कर घेर लिया और कहा, ''तुम कहां जाती हो? ठहरो, हमारे मालिक दमभर में आया ही चाहते हैं, उनके आने तक बैठो, वे आ लें तब हम लोग उनके सामने ले चल के सिफारिश करेंगे और नौकर रखा देंगे, खुशी से तुम रहा करोगी। इस तरह से कहां तक जंगल-जंगल मारी फिरोगी!''

चंपा-मुझे नौकरी की जरूरत नहीं जो मैं तुम्हारे मालिक के आने की राह देखूं, मैं नहीं ठहर सकती।

एक सिपाही-नहीं-नहीं, तुम जल्दी न करो, ठहरो, हमारे मालिक को देखोगी तो खुश हो जाओगी, ऐसा खूबसूरत जवान तुमने कभी न देखा होगा, बल्कि हम कोशिश करके तुम्हारी शादी उनसे करा देंगे।

चंपा-होश में आकर बातें करो नहीं तो दुरुस्त कर दूंगी! खाली औरत न समझना, तुम्हारे ऐसे दस को मैं कुछ नहीं समझती!

चंपा की ऐसी बात सुनकर उन लोगों को बड़ा अचम्भा हुआ, एक का मुंह दूसरा देखने लगा। चंपा फिर आगे बढ़ी। एक ने हाथ पकड़ लिया। बस फिर क्या था, चंपा ने झट कमर से खंजर निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ दो को जख्मी करके भागी। बाकी के दो आदमियों ने उसका पीछा किया मगर कब पा सकते थे।

चंपा भागी तो मगर उसकी किस्मत ने भागने न दिया। एक पत्थर से ठोकर खा बड़े जोर से गिरी, चोट भी ऐसी लगी कि उठ न सकी, तब तक ये दोनों भी वहां पहुंच गये। अभी इन लोगों ने कुछ कहा भी नहीं था कि सामने से एक काफिला सौदागरों का आ पहुंचा जिसमें लगभग दो सौ आदमियों के करीब होंगे। उनके आगे-आगे एक बूढ़ा आदमी था जिसकी लंबी सफेद दाढ़ी, काला रंग, भूरी आंखें, उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी। उम्दे कपड़े पहने, ढाल-तलवार लगाये बर्छी हाथ में लिये, एक बेशकीमती मुश्की घोड़े पर सवार था। साथ में उसके एक लड़का जिसकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा न होगी, रेख तक न निकली थी, बड़े ठाठ के साथ एक नेपाली टांगन पर सवार था, जिसकी खूबसूरती और पोशाक देखने से मालूम होता था कि कोई राजकुमार है। पीछे-पीछे उनके बहुत से आदमी घोडे पर सवार और कुछ पैदल भी थे, सबसे पीछे कई ऊंटों पर असबाब और उनका डेरा लदा हुआ था। साथ में कई डोलियां थीं जिनके चारों तरफ बहुत से प्यादे तोड़ेदार बंदूकें लिये चले आते थे। दोनों आदमियों ने जिन्होंने चंपा का पीछा किया था पुकारकर कहा, ''इस औरत ने हमारे दो आदमियों को जख्मी किया है।'' जब तक कुछ और कहे तब तक कई आदमियों ने चंपा को घेर लिया और खंजर छीन हथकड़ी-बेड़ी डाल दी।

उस बूढ़े सवार ने जिसके बारे में कह सकते हैं कि शायद सबों का सरदार होगा, दो-एक आदमियों की तरफ देखकर कहा, ''हम लोगों का डेरा इसी जंगल में पड़े। यहां आदमियों की आमदरफ्त कम मालूम होती है, क्योंकि कोई निशान पगडण्डी का जमीन पर दिखाई नहीं देता।''

डेरा पड़ गया, एक बड़ी रावटी में कई औरतें कैद की गईं जो डोलियों पर थीं। चंपा बेचारी भी उन्हीं में रखी गई। सूरज अस्त हो गया, एक चिराग उस रावटी में जलाया गया जिसमें कई औरतों के साथ चंपा भी थी। दो लौडियां आईं जिन्होंने औरतों से पूछा कि तुम लोग रसोई बनाओगी या बना-बनाया खाओगी? सबों ने कहा, ''हम बना-बनाया खाएंगे।'' मगर दो औरतों ने कहा, ''हम कुछ न खाएंगे!'' जिसके जवाब में वे दोनों लौंडियां यह कहकर चली गईं कि देखें कब तक भूखी रहती हो। इन दोनों औरतों में से एक तो बेचारी आफत की मारी चंपा ही थी और दूसरी एक बहुत ही नाजुक और खूबसूरत औरत थी जिसकी आंखों से आंसू जारी थे और जो थोड़ी-थोड़ी देर पर लंबी-लंबी सांस ले रही थी। चंपा भी उसके पास बैठी हुई थी।

पहर रात चली गई, सबों के वास्ते खाने को आया मगर उन दोनों के वास्ते नहीं जिन्होंने पहले इंकार किया था। आधी रात बीतने पर सन्नाटा हुआ, पैरों की आवाज डेरे के चारों तरफ मालूम होने लगी जिससे चंपा ने समझा कि इस डेरे के चारों तरफ पहरा घूम रहा है। धीरे- धीरे चंपा ने अपने बगल वाली खूबसूरत नाजुक औरत से बातें करना शुरू किया-

चंपा-आप कौन हैं और इन लोगों के हाथ क्यों कर फंस गईं?

औरत-मेरा नाम कलावती है, मैं महाराज शिवदत्त की रानी हूं, महाराज लड़ाई पर गये थे, उनके वियोग में जमीन पर सो रही थी, मुझको कुछ मालूम नहीं, जब आंख खुली अपने को इन लोगों के फंदे में पाया। बस और क्या कहूं। तुम कौन हो?

चंपा-हैं, आप चुनार की महारानी हैं! हा, आपकी यह दशा! वाह विधाता तू धन्य है! मैं क्या बताऊं, जब आप महाराज शिवदत्त की रानी हैं तो कुमारी चंद्रकान्ता को भी जरूर जानती होंगी, मैं उन्हीं की सखी हूं, उन्हीं की खोज में मारी-मारी फिरती थी कि इन लोगों ने पकड़ लिया।

ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं कि बाहर से एक आवाज आई, ''कौन है? भागा, भागा, निकल गया'' महारानी डरीं, मगर चंपा को कुछ खौफ न मालूम हुआ। बात ही बात में रात बीत गई, दोनों में से किसी को नींद न आयी। कुछ-कुछ दिन भी निकल आया, वही दोनों लौंडियां जो भोजन कराने आई थीं इस समय फिर आईं। तलवार दोनों के हाथ में थी। इन दोनों ने सबों से कहा, ''चलो पारी-पारी से मैदान हो आओ।''

कुछ औरतें मैदान गईं, मगर ये दोनों अर्थात् महारानी और चंपा उसी तरह बैठी रहीं, किसी ने जिद्द भी न की। पहर दिन चढ़ आया होगा कि इस काफिले का बूढ़ा सरदार एक बूढ़ी औरत को लिए इस डेरे में आया जिसमें सब औरतें कैद थीं।

बुङ्ढी-इतनी ही हैं या और भी?

सरदार-बस इस वक्त तो इतनी ही हैं, अब तुम्हारी मेहरबानी होगी तो और हो जायेंगी।

बुङ्ढी-देखिये तो सही, मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हां अब बताइये किस मेल की औरत लाने पर कितना इनाम मिलेगा।

सरदार-देखो ये सब एक मेल में हैं, इस किस्म की अगर लाओगी तो दस रुपये मिलेंगे। (चंपा की तरफ इशारा करके) अगर इस मेल की लाओगी तो पूरे पचास रुपये। (महारानी की तरफ बताकर) अगर ऐसी खूबसूरत हो तो पूरे सौ रुपये मिलेंगे, समझ गईं।

बुङ्ढी-हां अब मैं बिल्कुल समझ गई, इन सबों को आपने कैसे पाया।

सरदार-यह जो सबसे खूबसूरत है इसको तो एक खोह में पाया था, बेहोश पड़ी थी और यह कल इसी जगह पकड़ी गई है, इसने दो आदमी मेरे मार डाले हैं, बड़ी बदमाशहै!

बुङ्ढी-इसकी चितवन ही से बदमाशी झलकती है, ऐसी-ऐसी अगर तीन-चार आ जायें तो आपका काफिला ही बैकुण्ठ चला जाय!

सरदार-इसमें क्या शक है! और वे सब जो हैं, कई तरह से पकड़ी गई हैं। एक तो वह बंगाले की रहने वाली है इसके पड़ोस ही में मेरे लड़के ने डेरा डाला था, अपने पर आशिक करके निकाल लाया। ये चारों रुपये की लालच में फंसी हैं, और बाकी सबों को मैंने उनकी मां, नानी या वारिसों से खरीद लिया है। बस चलो अब अपने डेरे में बातचीत करेंगे। मैं बुङ्ढा आदमी बहुत देर तक खड़ा नहीं रह सकता।

बुङ्ढी-चलिए।

दोनों उस डेरे से रवाना हुए। इन दोनों के जाने के बाद सब औरतों ने खूब गालियां दीं-''मुए को देखो, अभी और औरतों को फंसाने की फिक्र में लगा है? न मालूम यह बुङ्ढी इसको कहां से मिल गई, बड़ी शैतान मालूम पड़ती है! कहती है, देखो मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हे परमेश्वर इन लोगों पर तेरी भी कृपा बनी रहती है? न मालूम यह डाइन कितने घर चौपट करेगी!''

चंपा ने उस बुढ़िया को खूब गौर करके देखा और आधो घंटे तक कुछ सोचती रही, मगर महारानी को सिवाय रोने के और कोई धुन न थी। ''हाय, महाराज की लड़ाई में क्या दशा हुई होगी, वे कैसे होंगे, मेरी याद करके कितने दु:खी होते होंगे!'' धीरे- धीरे यही कह के रो रही थीं। चंपा उनको समझाने लगी-

''महारानी, सब्र करो, घबराओ मत, मुझे पूरी उम्मीद हो गई, ईश्वर चाहेगा तो अब हम लोग बहुत जल्दी छूट जायेंगे। क्या करूं, मैं हथकड़ी-बेड़ी में पड़ी हूं, किसी तरह यह खुल जातीं तो इन लोगों को मजा चखाती, लाचार हूं कि यह मजबूत बेड़ी सिवाय कटने के दूसरी तरह खुल नहीं सकती और इसका कटना यहां मुश्किल है।''

इसी तरह रोते-कलपते आज का दिन भी बीता। शाम हो गई। बुङ्ढा सरदार फिर डेरे में आ पहुंचा जिसमें औरतें कैद थीं। साथ में सवेरे वाली बुढ़िया आफत की पुड़िया एक जवान खूबसूरत औरत को लिये हुए थी।

बुढ़िया-मिला लीजिये, अव्वल नंबर की है या नहीं?

सरदार-अव्वल नंबर की तो नहीं, हां दूसरे नंबर की जरूर है, पचास रुपये की आज तुम्हारी बोहनी हुई, इसमें शक नहीं!

बुढ़िया-खैर पचास ही सही, यहां कौन गिरह की जमा लगती है, कल फिर लाऊंगी, चलिये।

इस समय इन दोनों की बातचीत बहुत धीरे-धीरे हुई, किसी ने सुना नहीं मगर होठों के हिलने से चंपा कुछ-कुछ समझ गई। वह नई औरत जो आज आई बड़ी खुश दिखाई देती थी। हाथ-पैर खुले थे। तुरंत ही इसके वास्ते खाने को आया। इसने भीखूब लंबे-चौड़े हाथ लगाये, बेखटके उड़ा गई। दूसरी औरतों को सुस्त और रोते देख हंसती और चुटकियां लेती थी। चंपा ने जी में सोचा-यह तो बड़ी भारी बला है, इसको अपने कैद होने और फंसने की कोई फिक्र ही नहीं! मुझे तो कुछ खुटका मालूम होता है!



सोलहवां बयान

कल की तरह आज की रात भी बीत गई। लोंडियों के साथ सुबह को सब औरतें पारी-पारी मैदान भेजी गईं। महारानी और चंपा आज भी नहीं गईं। चंपा ने महारानी से पूछा, ''आप जब से इन लोगों के हाथ फंसी हैं, कुछ भोजन किया या नहीं!'' उन्होंने जवाब दिया, ''महाराज से मिलने की उम्मीद में जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ खा लेती हूं, क्या करूं, कुछ बस नहीं चलता।''

थोड़ी देर बाद दो आदमी इस डेरे में आये। महारानी और चंपा से बोले, ''तुम दोनों बाहर चलो, आज हमारे सरदार का हुक्म है कि सब औरतें मैदान में पेड़ों के नीचे बैठाई जायं जिससे मैदान की हवा लगे और तन्दुरुस्ती में फर्क न पड़ने पावे।'' यह कह दोनों को बाहर ले गये। वे औरतें जो मैदान में गई थीं बाहर ही एक बहुत घने महुए के तले बैठी हुई थीं। ये दोनों भी उसी तरह जाकर बैठ गई। चंपा चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखने लगी।

दो पहर दिन चढ़ आया होगा। वही बुढ़िया जो कल एक औरत ले आई थी आज फिर एक जवान औरत कल से भी ज्यादे खूबसूरत लिये हुए पहुंची। उसे देखते ही बुङ्ढे मियां ने बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया और उस औरत को उस जगह भेज दिया जहां सब औरतें बैठी हुई थीं। चंपा ने आज इस औरत को भी बारीक निगाह से देखा। आखिर उससे न रहा गया, ऊपर की तरफ मुंह करके बोली, ''मी सगमता।'' 1 वह औरत जो आई थी चंपा का मुंह देखने लगी। थोड़ी देर के बाद वह भी अपने पैर के अंगूठे की तरफ देख और हाथों से उसे मलती हुई बोली, ''चपकला छटमे बापरोफस।'' 2 फिर दोनों में से कोई न बोली।

शाम हो गई। सब औरतें उस रावटी में पहुंच गईं। रात को खाने का सामान पहुंचा। महारानी और चंपा के सिवाय सभी ने खाया। उन दोनों औरतों ने तो खूब ही हाथ फेरे जो नई फंसकर आई थीं।

रात बहुत चली गई, सन्नाटा हो गया, रावटी के चारों तरफ पहरा फिरने लगा। रावटी में एक चिराग जल रहा है। सब औरतें सो गई, सिर्फ चार जाग रही हैं-महारानी, चंपा और वे दोनों जो नई आई हैं। चंपा ने उन दोनों की तरफ देखकर कहा, ''कड़ाक मी टेटी, नो से पारो फेसतो'' 3 एक ने जवाब दिया, ''तोमसे की?'' 4 फिर चंपा ने कहा, ''रानी में सेगी।'' 5

उन दोनों औरतों ने अपनी कमर से कोई तेज औजार निकाला और धीरे

1. हम पहचान गये।

2. चुप रहोगी तो तुम्हारी भी जान बच जायेगी।

3. मेरी बेड़ी तोड़ दो, नहीं तो गुल कर गिरफ्तार करा दूंगी।

4. तुम्हारी क्या दशा होगी?

5. रानी का साथ दूंगी।

से चंपा की हथकड़ी और बेड़ी काट दी। अब चंपा लापरवाह हो गई, उसके ओठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी।

दो पहर रात बीत गई। यकायक उस रावटी को चारों तरफ से बहुत से आदमियों ने घेर लिया। शोर-गुल की आवाज आने लगी, 'मारो-पकड़ो' की आवाज सुनाई देने लगी। बंदूक की आवाज कान में पड़ी। अब सब औरतों को यकीन हो गया कि डाका पड़ा और लड़ाई हो रही है। खलबली पड़ गई। रावटी में जितनी औरतें थीं इधर-उधर दौड़ने लगीं। महारानी घबड़ाकर ''चंपा-चंपा'' पुकारने लगीं, मगर कहीं पता नहीं, चंपा दिखाई न पड़ी। वे दोनों औरतें जो नई आई थीं आकर कहने लगीं, ''मालूम होता है चंपा निकल गई मगर आप मत घबराइये, यह सब आप ही के नौकर हैं जिन्होंने डाका मारा है। मैं भी आप ही का ताबेदार हूं, औरत न समझिये।'' मैं जाती हूं। आपके वास्ते कहीं डोली तैयार होगी, लेकर आता हूं।'' यह कह दोनों ने रास्ता लिया।

जिस रावटी में औरतें थीं उसके तीन तरफ आदमियों की आवाज कम हो गई। सिर्फ चौथी तरफ जिधर और बहुत से डेरे थे लड़ाई की आहट मालूम हो रही थी। दो आदमी जिनका मुंह कपड़े या नकाब से ढंका हुआ था डोली लिये हुए पहुंचे और महारानी को उस पर बैठाकर बाहर निकल गये। रात बीत गई, आसमान पर सफेदी दिखाई देने लगी। चंपा और महारानी तो चली गई थीं मगर और सब औरतें उसी रावटी में बैठी हुई थीं। डर के मारे चेहरा जर्द हो रहा था, एक का मुंह एक देख रही थीं। इतने में पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल एक डोली जिस पर कि मख्वाब का पर्दा पड़ा हुआ था लिये हुए उस रावटी के दरवाजे पर पहुंचे, डोली बाहर रख दी, आप अंदर गये और सब औरतों को अच्छी तरह देखने लगे, फिर पूछा-''तुम लोगों में से दो औरतें दिखाई नहीं देतीं, वे कहां गई?''

सब औरतें डरी हुई थीं, किसी के मुंह से आवाज न निकली। पन्नालाल ने फिर कहा, ''तुम लोग डरो मत, हम लोग डाकू नहीं हैं। तुम्हीं लोगों को छुड़ाने के लिए इतनी धूमधाम हुई है। बताओ वे दोनों औरतें कहां हैं?' अब उन औरतों का जी कुछ ठिकाने हुआ। एक ने कहा, ''दो नहीं बल्कि चार औरतें गायब हैं जिनमें दो औरतें तो वे हैं जो कल और परसों फंस के आई थीं, वे दोनों तो एक औरत को यह कह के चली गईं कि आप डरिये मत, हम लोग आपके ताबेदार हैं, डोली लेकर आते हैं तो आपको ले चलते हैं। इसके बाद डोली आई जिस पर चढ़ के वह चली गई, और चौथी तो सब के पहले ही निकल गई थी।''

पन्नालाल के तो होश उड़ गए, रामनारायण और चुन्नीलाल के मुंह की तरफ देखने लगे। रामनारायण ने कहा, ''ठीक है, हम दोनों महारानी को ढाढ़स देकर तुम्हारी खोज में डोली लेने चले गये, जफील बजाकर तुमसे मुलाकात की और डोली लेकर चले आ रहे हैं, मगर दूसरा कौन डोली लेकर आया जो महारानी को लेकर चला गया! इन लोगों का यह कहना भी ठीक है कि चंपा पहले ही से गायब है। जब हम लोग औरत बने हुए इस रावटी में थे और लड़ाई हो रही थी महारानी ने डर के चंपा-चंपा पुकारा, तभी उसका पता न था। मगर यह मामला क्या है कुछ समझ में नहीं आता। चलो बाहर चलकर इन बर्देफरोशों 1 की डोलियों को गिनें उतनी ही हैं या कम? इन औरतों को भी बाहर निकालो।''

सब औरतें उस डेरे के बाहर की गईं। उन्होंने देखा कि चारों तरफ खून ही खून दिखाई देता है, कहीं-कहीं लाश भी नजर आती है। काफिले का बुङ्ढा सरदार और उसका खूबसूरत लड़का जंजीरों से जकड़े एक पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं। दस आदमी नंगी तलवारें लिए उनकी निगहबानी कर रहे हैं और सैकड़ों आदमी हाथ-पैर बंधे दूसरे पेड़ों के नीचे बैठाए हुए हैं। रावटियां और डेरे सब उजड़े पड़े हैं।

पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल उस जगह गये जहां बहुत-सी डोलियां थीं। रामनारायण ने पन्नालाल से कहा, ''देखो यह सोलह डोलियां हैं, पहले हमने सत्रह गिनी थीं, इससे मालूम होता है कि इन्हीं में की वह डोली थी जिसमें महारानी गई हैं। मगर उनको ले कौन गया? चुन्नीलाल जाओ तुम दीवान साहब को यहां बुला लाओ, उस तरफ बैठे हैं जहां फौज खड़ी है।''

दीवान साहब को लिए हुए चुन्नीलाल आये। पन्नालाल ने उनसे कहा, ''देखिए हम लोगों की चार दिन की मेहनत बिल्कुल खराब गई! विजयगढ़ से तीन मंजिल पर इन लोगों का डेरा था। इस बुङ्ढे सरदार को हम लोगों ने औरतों की लालच देकर रोका कि कहीं आगे न चला जाय और आपको खबर दी। आप भी पूरे सामान से आये, इतना खून-खराबा हुआ, मगर महारानी और चंपा हाथ न आईं। भला चंपा तो बदमाशी करके निकल गई, उसने कहा कि हमारी बेड़ी काट दो नहीं तो हम सब भेद खोल देंगे कि मर्द हो, धोखा देने आये हो, पकडे ज़ाओगे, लाचार होकर उसकी बेड़ी काट दी और वह मौका पाकर निकल गई। मगर महारानी को कौन ले गया?''

दीवान साहब की अक्ल हैरान थी कि क्या हो गया। बोले, ''इन बदमाशों को बल्कि इनके बुङ्ढे मियां सरदार को मार-पीटकर पूछो, कहीं इन्हीं लोगों की बदमाशी तो नहीं है।''

पन्नालाल ने कहा, ''जब सरदार ही आपकी कैद में है तो मुझे यकीन नहीं आता कि उसके सबब से महारानी गायब हो गई हैं। आप इन बर्देफरोशों को और फौज को लेकर जाइये और राज्य का काम देखिए। हम लोग फिर महारानी की टोह लेने जाते हैं, इसका तो बीड़ा ही उठाया है।''

दीवान साहब बर्देफरोश कैदियों को मय उनके माल-असबाब के साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल महारानी की खोज में चले, रास्ते में आपस में यों बातें करने लगे-

पन्नालाल-देखो आजकल चुनार राज्य की क्या दुर्दशा हो रही है, महाराज उधर फंसे, महारानी का पता नहीं, पता लगा मगर फिर भी कोई उस्ताद हम लोगों

1. 'बर्देफरोश' आदमियों की सौदागिरी कहते हैं, अर्थात् लौंडी-गुलाम बेचते हैं।

को उल्लू बनाकर उन्हें ले ही गया।

रामनारायण-भाई बड़ी मेहनत की थी मगर कुछ न हुआ। किस मुश्किल से इन लोगों का पता पाया, कैसी-कैसी तरकीबों से दो दिन तक इसी जंगल में रोक रखा कहीं जाने न दिया, दौड़ा-दौड़ चुनार से सेना सहित दीवान साहब को लाये, लड़े-भिड़े, अपनी तरफ के कई आदमी भी मरे, मगर वही पहला दिन, शर्मिन्दगी मुनाफे में!

चुन्नी-हम तो बड़े खुश थे कि चंपा भी हाथ आवेगी मगर वह तो और आफत निकली, कैसा हम लोगों को पहचाना और बेबस करके धमाका के अपनी बेड़ी कटवा ही ली! बड़ी चालाक है, कहीं उसी का तो यह फसाद नहीं है!

पन्ना-नहीं जी, अकेली चंपा डोली में बैठा के महारानी को नहीं ले जा सकती!

राम-हम तीनों को महारानी की खोज में भेजने के बाद अहमद और नाज़िम को साथ लेकर पंडित बद्रीनाथ महाराज को कैद से छुड़ाने गये हैं, देखें वह क्या जस लगा कर आते हैं।

पन्ना-भला हम लोगों का मुंह भी तो हो कि चुनार जाकर उनका हाल सुनें और क्या जस लगा कर आते हैं इसको देखें, अगर महारानी न मिलीं तो कौन मुंह ले के चुनार जायेंगे?

राम-बस मालूम हो गया कि आज जो शख्स महारानी को इस फुर्ती से चुरा ले गया वह हम लोगों का ठीक उस्ताद है। अब तो इसी जंगल में खेती करो, लड़के-बाले लेकर आ बसो, महारानी का मिलना मुश्किल है।

पन्ना-वाह रे तेरा हौसला, क्या पिनिक के औतार हुए हैं 1

थोड़ी दूर जाकर ये लोग आपस में कुछ बातें कर मिलने का ठिकाना ठहरा अलग हो गये।

Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:34

सत्रहवां बयान

एक बहुत बड़े नाले में जिसके चारों तरफ बहुत ही घना जंगल था, पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ तेजसिंह बैठे हैं। बगल में साधारण-सी डोली रखी हुई है, पर्दा उठा हुआ है, एक औरत उसमें बैठी तेजसिंह से बातें कर रही है। यह औरत चुनार के महाराज शिवदत्त की रानी कलावती कुंअर है। पीछे की तरफ एक हाथ डोली पर रखे चंपा भी खड़ी है।

महारानी-मैं चुनार जाने में राजी नहीं हूं, मुझको राज्य नहीं चाहिए, महाराज के पास रहना मेरे लिए स्वर्ग है। अगर वे कैद हैं तो मेरे पैर में भी बेड़ी डाल दो मगर उन्हीं के चरणों में रखो।

तेज-नहीं, मैं यह नहीं कहता कि जरूर आप भी उसी कैदखाने में जाइये जिसमें महाराज हैं। आपकी खुशी हो तो चुनार जाइये, हम लोग बड़ी हिफाजत से पहुंचा देंगे। कोई जरूरत आपको यहां लाने की नहीं थी, ज्योतिषीजी ने कई दफे आपके पतिव्रत धर्म की तारीफ की थी और कहा था कि महाराज की जुदाई में महारानी को बड़ा ही दुख होता होगा, यह जान हम लोग आपको ले आये थे नहीं तो खाली चंपा को ही छुड़ाने गये थे। अब आप कहिए तो चुनार पहुंचा दें नहीं तो महाराज के पास ले जायं क्योंकि सिवाय मेरे और किसी के जरिये आप महाराज के पास नहीं पहुंच सकतीं, और फिर महाराज क्या जाने कब तक कैद रहें।

महारानी-तुम लोगों ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की, सचमुच मुझे महाराज से इतनी जल्दी मिलाने वाला और कोई नहीं जितनी जल्दी तुम मिला सकते हो। अभी मुझको उनके पास पहुंचाओ, देर मत करो, मैं तुम लोगों का बड़ा जस मानूंगी!

तेज-तो इस तरह डोली में आप नहीं जा सकतीं, मैं बहोश करके आपको ले जा सकता हूं।

महारानी-मुझको यह भी मंजूर है, किसी तरह वहां पहुंचाओ।

तेज-अच्छा तब लीजिए इस शीशी को सूंघिये।

महारानी को अपने पति के साथ बड़ी ही मुहब्बत थी, अगर तेजसिंह उनको कहते कि तुम अपना सिर दे दो तब महाराज से मुलाकात होगी तो वह उसको भी कबूल कर लेतीं।

महारानी बेखटके शीशी सूंघकर बेहोश हो गईं। ज्योतिषीजी ने कहा, ''अब इनको ले जाइये उसी तहखाने में छोड़ आइए। जब तक आप न आवेंगे मैं इसी जगह में रहूंगा। चंपा को भी चाहिए कि विजयगढ़ जाय, हम लोग तो कुमारी चंद्रकान्ता की खोज में घूम ही रहे हैं, ये क्यों दुख उठाती है!

तेजसिंह ने कहा, ''चंपा, ज्योतिषीजी ठीक कहते हैं, तुम जाओ, कहीं ऐसा न हो कि फिर किसी आफत में फंस जाओ।''

चंपा ने कहा, ''जब तक कुमारी का पता न लगेगा मैं विजयगढ़ कभी न जाऊंगी। अगर मैं इन बर्देफरोशों के हाथ फंसी तो अपनी ही चालाकी से छूट भी गई, आप लोगों को मेरे लिए कोई तकलीफ न करनी पड़ी।''

तेजसिंह ने कहा, ''तुम्हारा कहना ठीक है, हम यह नहीं कहते कि हम लोगों ने तुमको छुड़ाया। हम लोग तो कुमारी चंद्रकान्ता को ढूंढते हुए यहां तक पहुंच गये और उन्हीं की उम्मीद में बर्देफराशों के डेरे देख डाले। उनको तो न पाया मगर महारानी और तुम फंसी हुई दिखाई दीं, छुड़ाने की फिक्र हुई। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को महारानी को छुड़ाने के लिए कोशिश करते देख हम लोग यह समझकर अलग हो गए कि मेहनत वे लोग करें, मौके में मौका हम लोगों को भी काम करने का मिल ही जायगा। सो ऐसा ही हुआ भी, तुम अपनी ही चालाकी से छूटकर बाहर निकल गईं, हमने महारानी को गायब किया। खैर इन सब बातों को जाने दो, तुम यह बताओ कि घर न जाओगी तो क्या करोगी? कहां ढूंढोगी? कहीं ऐसा न हो कि हम लोग तो कुमारी को खोजकर विजयगढ़ ले जायं और तुम महीनों तक मारी-मारी फिरो।''

चंपा ने कहा, ''मैं एकदम से ऐसी बेवकूफ नहीं, आप बेफिक्र रहें।''

तेजसिंह को लाचार होकर चंपा को उसकी मर्जी पर छोड़ना पड़ा और ज्योतिषीजी को भी उसी जंगल में छोड़ महारानी की गठरी बांधा कैदखाने वाले खोह की तरफ रवाना हुए जिसमें महाराज बंद थे। चंपा भी एक तरफ को रवाना हो गई।

अठारहवां बयान

तेजसिंह के जाने के बाद ज्योतिषीजी अकेले पड़ गये, सोचने लगे कि रमल के जरिये पता लगाना चाहिए कि चंद्रकान्ता और चपला कहां हैं। बस्ता खोल पटिया निकाल रमल फेंक गिनने लगे। घड़ी भर तक खूब गौर किया। यकायक ज्योतिषीजी के चेहरे पर खुशी झलकने लगी और होंठों पर हंसी आ गई, झटपट रमल और पटिया बांधा उसी तहखाने की तरफ दौड़े जहां तेजसिंह महारानी को लिये जा रहे थे। ऐयार तो थे ही, दौड़ने में कसर न की, जहां तक बन पड़ा तेजी से दौड़े।

तेजसिंह कदम-कदम झपटे हुए चले जा रहे थे। लगभग पांच कोस गये होंगे कि पीछे से आवाज आई, ''ठहरो-ठहरो!'' फिर के देखा तो ज्योतिषी जगन्नाथजी बड़ी तेजी से चले आ रहे हैं, ठहर गये, जी में खुटका हुआ कि यह क्यों दौड़े आ रहे हैं।

जब पास पहुंचे इनके चेहरे पर कुछ हंसी देख तेजसिंह का जी ठिकाने हुआ। पूछा, ''क्यों क्या है जो आप दौड़े आये हैं?''

ज्योतिषी-है क्या, बस हम भी आपके साथ उसी तहखाने में चलेंगे।

तेज-सो क्यों?

ज्योतिषी-इसका हाल भी वहीं मालूम होगा, यहां न कहेंगे।

तेज-तो वहां दरवाजे पर पट्टी भी बांधानी पड़ेगी, क्योंकि पहले वाले ताले का हाल जब से कुमार को धोखा देकर बद्रीनाथ ने मालूम कर लिया तब से एक और ताला हमने उसमें लगाया है जो पहले ही से बना हुआ था मगर आसकत से उसको काम में नहीं लाते थे क्योंकि खोलने और बंद करने में जरा देर लगती है। हम यह निश्चय कर चुके हैं कि इस ताले का भेद किसी को न बतावेंगे।

ज्योतिषी-मैं तो अपनी आंखों पर पट्टी न बंधाऊंगा और उस तहखाने में भी जरूर जाऊंगा। तुम झख मारोगे और ले चलोगे।

तेज-वाह क्या खूब! भला कुछ हाल तो मालूम हो!

ज्योतिषी-हाल क्या, बस पौ बारह है! कुमारी चंद्रकान्ता को वहीं दिखा दूंगा!

तेज-हां? सच कहो!!

ज्योतिषी-अगर झूठ निकले तो उसी तहखाने में मुझको हलाल करके मार डालना।

तेज-खूब कही, तुम्हें मार डालूंगा तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, बह्महत्या तो मेरे सिर चढ़ेगी!

ज्योतिषी-इसका भी ढंग मैं बता देता हूं जिसमें तुम्हारे ऊपर ब्रह्महत्या न चढ़े।

तेज-वह क्या?

ज्योतिषी-कुछ मुश्किल नहीं है, पहले मुसलमान कर डालना तब हलाल करना।

ज्योतिषीजी की बात पर तेजसिंह हंस पड़े और बोले, ''अच्छा भाई चलो, क्या करें, आपका हुक्म मानना भी जरूरी है।''

दूसरे दिन शाम को ये लोग उस तहखाने के पास पहुंचे। ज्योतिषीजी के सामने ही तेजसिंह ताला खोलने लगे। पहले उस शेर के मुंह में हाथ डाल के उसकी जुबान बाहर निकाली, इसके बाद दूसरा ताला खोलने लगे।

दरवाजे के दोनों तरफ दो पत्थर संगमर्मर के दीवार के साथ जड़े थे। दाहिनी तरफ के संगमर्मर वाले पत्थर पर तेजसिंह ने जोर से लात मारी, साथ ही एक आवाज हुई और वह पत्थर दीवार के अंदर घुसकर जमीन के साथ सट गया। छोटे से हाथ भर के चबूतरे पर एक सांप चक्कर मारे बैठा देखा जिसकी गर्दन पकड़कर कई दफे पेच की तरह घुमाया, दरवाजा खुल गया। महारानी की गठरी लिए तेजसिंह और ज्योतिषीजी अंदर गये, भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। भीतर दरवाजे के बाएं तरफ की दीवार में एक सूराख हाथ जाने लायक था, उसमें हाथ डाल के तेजसिंह ने कुछ किया जिसका हाल ज्योतिषीजी को मालूम न हो सका।

ज्योतिषीजी ने पूछा, ''इसमें क्या है?'' तेजसिंह ने जवाब दिया, ''इसके भीतर एक किल्ली है जिसके घुमाने से वह पत्थर बंद हो जाता है जिस पर बाहर मैंने लात मारी और जिसके अंदर सांप दिखाई पड़ा था। इस सूराख से सिर्फ उस पत्थर के बंद करने का काम चलता है खुल नहीं सकता, खोलते समय इधर भी वही तरकीब करनी पड़ेगी जो दरवाजे के बाहर की गई थी।''

दरवाजा बंद कर ये लोग आगे बढ़े। मैदान में जाकर महारानी की गठरी खोल उन्हें होश में लाये और कहा, ''हमारे साथ-साथ चली आइए, आपको महाराज के पास पहुंचा दें।'' महरानी इन लोगों के साथ-साथ आगे बढ़ीं। तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, ''बताइए चंद्रकान्ता कहां हैं?'' ज्योतिषीजी ने कहा, ''मैं पहले कभी इसके अंदर आया नहीं जो सब जगहें मेरी देखी हों, आप आगे चलिए, महाराज शिवदत्त को ढूंढिए, चंद्रकान्ता भी दिखाई दे जायगी।''

घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त को ढूंढ़ते ये लोग उस नाले के पास पहुंचे जिसका हाल पहले भाग में लिख चुके हैं। यकायक सबों की निगाह महाराज शिवदत्त पर पड़ी जो नाले के उस पार एक पत्थर के ढोके पर खड़े ऊपर की तरफ मुंह किए कुछ देख रहे थे।

महारानी तो महाराज को देख दीवानी-सी हो गईं, किसी से कुछ न पूछा कि इस नाले में कितना पानी है या उस पार कैसे जाना होगा, झट कूद पड़ीं। पानी थोड़ा ही था, पार हो गईं और दौड़कर रोती महाराज शिवदत्त के पैरों पर गिर पड़ीं। महाराज ने उठाकर गले से लगा लिया, तब तक तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी नाले के पार हो महाराज शिवदत्त के पास पहुंचे।

ज्योतिषीजी को देखते ही महाराज ने पूछा, ''क्योंजी, तुम यहां कैसे आये? क्या तुम भी तेजसिंह के हाथ फंस गये।''

ज्योतिषीजी ने कहा, ''नहीं तेजसिंह के हाथ क्यों फंसेंगे, हां उन्होंने कृपा करके मुझे अपनी मंडली में मिला लिया है, अब हम वीरेन्द्रसिंह की तरफ हैं आपसे कुछ वास्ता नहीं।''

ज्योतिषीजी की बात सुनकर महाराज को बड़ा गुस्सा आया, लाल-लाल आंखें कर उनकी तरफ देखने लगे। ज्योतिषीजी ने कहा, ''अब आप बेफायदा गुस्सा करते हैं, इससे क्या होगा? जहां जी में आया तहां रहे। जो अपनी इज्जत करे उसी के साथ रहना ठीक है। आप खुद सोच लीजिए और याद कीजिए कि मुझको आपने कैसी-कैसी कड़ी बातें कही थीं। उस वक्त यह भी न सोचा कि ब्राह्मण है। अब क्यों मेरी तरफ लाल-लाल आंखें करके देखते हैं!''

ज्योतिषीजी की बातें सुनकर शिवदत्त ने सिर नीचा कर लिया और कुछ जवाब न दिया। इतने में एक बारीक आवाज आई, ''तेजसिंह!''

तेजसिंह ने सिर उठाकर उधर देखा जिधर से आवाज आई थी, चंद्रकान्ता नजर पड़ी जिसे देखते ही इनकी आंखों से आंसू निकल पड़े। हाय, क्या सूरत हो रही है, सिर के बाल खुले हैं, गुलाब-सा मुंह कुम्हला गया, बदन पर मैल चढ़ी हुई है, कपड़े फटे हुए हैं, पहाड़ के ऊपर एक छोटी-सी गुफा के बाहर खड़ी 'तेजसिंह-तेजसिंह', पुकार रही है।

तेजसिंह उस तरफ दौडे चाहा कि पहाड़ पर चढ़कर कुमारी के पास पहुंच जायं मगर न हो सका, कहीं रास्ता न मिला। बहुत परेशान हुए लेकिन कोई काम न चला, लाचार होकर ऊपर चढ़ने के लिए कमंद फेंकी मगर वह चौथाई दूर भी न गई, ज्योतिषीजी से कमंद लेकर अपने कमंद में जोड़कर फिर फेंकी, आधी दूर भी न पहुंची। हर तरह की तरकीबें कीं मगर कोई मतलब न निकला, लाचार होकर आवाज दी और पूछा, ''कुमारी, आप यहां कैसे आईं?''

तेजसिंह की आवाज कुमारी के कान तक बखूबी पहुंची मगर कुमारी की आवाज जो बहुत ही बारीक थी तेजसिंह के कानों तक पूरी-पूरी न आई। कुमारी ने कुछ जवाब दिया, साफ-साफ तो समझ में न आया, हां इतना समझ पड़ा-''किस्मत...आई...तरह...निकालो...!''

हाय-हाय कुमारी से अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकते! यह सोच तेजसिंह बहुत घबराए, मगर इससे क्या हो सकता था, कुमारी ने कुछ और कहा जो बिल्कुल समझ में न आया, हां यह मालूम हो रहा था कि कोई बोल रहा है। तेजसिंह ने फिर आवाज दी और कहा, ''आप घबराइए नहीं, कोई तरकीब निकालता हूं जिससे आप नीचे उतर आवें।'' इसके जवाब में कुमारी मुंह से कुछ न बोली, उसी जगह एक जंगली पेड़ था जिसके पत्तो जरा बड़े और मोटे थे, एक पत्ता तोड़ लिया और एक छोटे नुकीले पत्थर की नोक से उस पत्तो पर कुछ लिखा, अपनी धोती में से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ उसमें वह पत्ता और एक छोटा-सा पत्थर बांधा इस अंदाज से फेंका कि नाले के किनारे कुछ जल में गिरा। तेजसिंह ने उसे ढूंढकर निकाला, गिरह खोली, पत्तो पर गोर से निगाह डाली, लिखा था, ''तुम जाकर पहले कुमार को यहां ले आओ।''

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को वह पत्ता दिखलाया और कहा, ''आप यहां ठहरिए मैं जाकर कुमार को बुला लाता हूं। तब तक आप भी कोई तरकीब सोचिए जिससे कुमारी नीचे उतर सकें!'' ज्योतिषीजी ने कहा, ''अच्छी बात है, तुम जाओ, मैं कोई तरकीब सोचता हूं।''

इस कैफियत को महारानी ने भी बखूबी देखा मगर यह जान न सकीं कि कुमारी ने पत्तो पर क्या लिखकर फेंका और तेजसिंह कहां चले गये तो भी महारानी को चंद्रकान्ता की बेबसी पर रुलाई आ गई और उसी तरफ टकटकी लगाकर देखती रहीं। तेजसिंह वहां से चलकर फाटक खोल खोह के बाहर हुए और फिर दोहरा ताला लगा विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

उन्नीसवां बयान

जब से कुमारी चंद्रकान्ता विजयगढ़ से गायब हुईं और महाराज शिवदत्त से लड़ाई लगी तब से महाराज जयसिंह और महल की औरतें तो उदास थीं ही उनके सिवाय कुल विजयगढ़ की रियाया भी उदास थी, शहर में गम छाया हुआ था।

जब तेजसिंह और ज्योतिषीजी को कुमारी की खोज में भेज वीरेन्द्रसिंह लौटकर मय देवीसिंह के विजयगढ़ आये तब सबों को यह आशा हुई कि राजकुमारी चंद्रकान्ता भी आती होंगी, लेकिन जब कुमार की जुबानी महाराज जयसिंह ने पूरा-पूरा हाल सुना तो तबीयत और परेशान हुई। महाराज शिवदत्त के गिरफ्तार होने का हाल सुनकर तो खुशी हुई मगर जब नाले में से कुमारी का फिर गायब हो जाना सुना तो पूरी नाउम्मीदी हो गई। दीवान हरदयालसिंह वगैरह ने बहुत समझाया और कहा कि कुमारी अगर पाताल में भी गई होंगी तो तेजसिंह खोज निकालेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं, फिर भी महाराज के जी को भरोसा न हुआ। महल में महारानी की हालत तो और भी बुरी थी, खाना-पीना बोलना बिल्कुल छूट गया था, सिवाय रोने और कुमारी की याद करने के दूसरा कोई काम न था।

कई दिन तक कुमार विजयगढ़ में रहे, बीच में एक दफे नौगढ़ जाकर अपने माता-पिता से भी मिल आये मगर तबीयत उनकी बिल्कुल नहीं लगती थी, जिधर जाते थे उदासी ही दिखाई देती थी।

एक दिन रात को कुमार अपने कमरे में सोए हुए थे, दरवाजा बंद था, रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी। चंद्रकान्ता की जुदाई में पडे-पडे क़ुछ सोच रहे थे, नींद बिल्कुल नहीं आ रही थी। दरवाजे के बाहर किसी के बोलने की आहट मालूम पड़ी बल्कि किसी के मुंह से 'कुमारी' ऐसा सुनने में आया। झट पलंग पर से उठ दरवाजे के पास आये और किवाड़ के साथ कान लगा सुनने लगे, इतनी बातें सुनने में आईं-

''मैं सच कहता हूं, तुम मानो चाहे न मानो! हां पहले मुझे जरूर यकीन था कि कुमारी पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह का प्रेम सच्चा है, मगर अब मालूम हो गया कि यह सिवाय विजयगढ़ का राज्य चाहने के कुमारी से मुहब्बत नहीं रखते, अगर सच्ची मुहब्बत होती तो जरूर खोज...''

इतनी बात सुनी थी कि दरबानों को कुछ चोर की आहट मालूम पड़ी, बातें करना छोड़ पुकार उठे, ''कौन है!'' मगर कुछ मालूम न हुआ। बड़ी देर तक कुमार दरवाजे के पास बैठे रहे, परंतु फिर कुछ सुनने में न आया, हां इतना मालूम हुआ कि दरबानों में बातें हो रही हैं।

कुमार और भी घबड़ा उठे, सोचने लगे कि जब दरबानों और सिपाहियों को यह विश्वास है कि कुमार चंद्रकान्ता के प्रेमी नहीं हैं तो जरूर महाराज का भी यही ख्याल होगा, बल्कि महल में महारानी भी यही सोचती होगी। अब विजयगढ़ में मेरा रहना ठीक नहीं, नौगढ़ जाने को भी जी नहीं चाहता क्योंकि वहां जाने से और भी लोगों के जी में बैठ जायगा कि कुमार की मुहब्बत नकली और झूठी थी। तब कहां जायं, क्या करें, इन्हीं सब बातों को सोचते सबेरा हो गया।

आज कुमार ने स्नान-पूजा और भोजन से जल्दी ही छुट्टी कर ली। पहर दिन चढ़ा होगा, अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और सवार हो किले के बाहर निकले। कई आदमी साथ हुए मगर कुमार के मना करने से रुक गये, लेकिन देवीसिंह ने साथ न छोड़ा। इन्होंने हजार मना किया पर एक न माना, साथ चले ही गये। कुमार ने इस नीयत से घोड़ा तेज किया जिससे देवीसिंह पीछे छूट जाये और इनका भी साथ न रहे, मगर देवीसिंह ऐयारी में कुछ कम न थे, दौड़ने की आदत भी ज्यादे थी, अस्तु घोड़े का संग न छोड़ा। इसके सिवाय पहाड़ी जंगल की ऊबड़-खाबड़ जमीन होने के सबब कुमार का घोड़ा भी उतना तेज नहीं जा सकता था, जितना कि वे चाहते थे।

देवीसिंह बहुत थक गये, कुमार को भी उन पर दया आ गई। जी में सोचने लगे कि यह मुझसे बड़ी मुहब्बत रखता है। जब तक इसमें जान है मेरा संग न छोड़ेगा, ऐसे आदमी को जान-बूझकर दुख देना मुनासिब नहीं। कोई गैर तो नहीं कि साथ रखने में किसी तरह की कबाहट 1 हो, आखिर कुमार ने घोड़ा रोका और देवीसिंह की तरफ देखकर हंसे।

हांफते-हांफते देवीसिंह ने कहा, ''भला कुछ यह भी तो मालूम हो कि आप का इरादा क्या है, कहीं सनक तो नहीं गये?'' कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और बोले, ''अच्छा इस घोड़े को चरने के लिए छोड़ो फिर हमसे सुनो कि हमारा क्या

1. झंझट।

इरादा है।'' देवीसिंह ने जीनपोश कुमार के लिए बिछाकर घोड़े को चरने के वास्ते छोड़ दिया और उनके पास बैठकर पूछा, ''अब बताइये, आप क्या सोचकर विजयगढ़ से बाहर निकले!'' इसके जवाब में कुमार ने रात का बिल्कुल किस्सा कह सुनाया और कहा कि ''कुमारी का पता न लगेगा तो मैं विजयगढ़ या नौगढ़ न जाऊंगा।''

देवीसिंह ने कहा, ''यह सोचना बिल्कुल भूल है। हम लोगों से ज्यादा आप क्या पता लगायेंगे? तेजसिंह और ज्योतिषीजी खोजने गये ही हैं, मुझे भी हुक्म हो तो जाऊं। आपके किये कुछ न होगा। अगर आपको बिना कुमारी का पता लगाये विजयगढ़ जाना पसंद नहीं तो नौगढ़ चलिए वहां रहिये, जब पता लग जायगा विजयगढ़ चले जाइयेगा। अब आप अपने घर के पास भी आ पहुंचे हैं।'' कुमार ने सोचकर कहा, ''यहां से मेरा घर बनिस्बत विजयगढ़ के दूर होगा कि नजदीक? मैं तो बहुत आगे बढ़ आया हूं।''

देवीसिंह ने कहा, ''नहीं, आप भूलते हैं, न मालूम किस धुन में आप घोड़ा फेंके चले आये, पूरब-पश्चिम का ध्यान तो रहा ही नहीं, मगर मैं खूब जानता हूं कि यहां से नौगढ़ केवल दो कोस है और वह देखिये वह बड़ा-सा पीपल का पेड़ जो दिखाई देता है वह उस खोह के पास ही है जहां महाराज शिवदत्त कैद हैं। (तेजसिंह को आते देखकर) हैं यह तेजसिंह कहां से चले आ रहे हैं? देखिये कुछ न कुछ पता जरूर लगा होगा।''

तेजसिंह दूर से दिखाई पड़े मगर कुमार से न रहा गया, खुद उनकी तरफ चले। तेजसिंह ने भी इन दोनों को देखा और कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़कर उनके पास पहुंचे। बेसब्री के साथ पहले कुमार ने यही पूछा, ''क्यों, कुछ पता चला?''

तेजसिंह-हां।

कुमार-कहां?

तेजसिंह-चलिए दिखाए देता हूं।

इतना सुनते ही कुमार तेजसिंह से लिपट गये और बड़ी खुशी के साथ बोले, ''चलो देखें।''

तेज-घोड़े पर सवार हो लीजिये, आप घबड़ाते क्यों हैं, मैं तो आप ही को बुलाने जा रहा था, मगर आप यहां आकर क्यों बैठे हैं।

कुमार-इसका हाल देवीसिंह से पूछ लेना, पहले वहां तो चलो।

देवीसिंह ने घोड़ा तैयार किया, कुमार सवार हो गए। आगे-आगे तेजसिंह और देवीसिंह, पीछे-पीछे कुमार रवाना हुए और थोड़ी ही देर में खोह के पास जा पहुंचे। तेजसिंह ने कहा, ''लीजिए अब आपके सामने ही ताला खोलता हूं क्या करूं, मगर होशियार रहिएगा, कहीं ऐयार लोग आपको धोखा देकर इसका भी पता न लगा लें।'' ताला खोला गया और तीनों आदमी अंदर गए। जल्दी-जल्दी चलकर उस चश्मे के पास पहुंचे जहां ज्योतिषीजी बैठे हुए थे, उंगली के इशारे से बताकर तेजसिंह ने कहा, ''देखिये वह ऊपर चंद्रकान्ता खड़ी हैं।''

कुमारी चंद्रकान्ता ऊंची पहाड़ी पर थीं, दूर से कुमार को आते देख मिलने के लिए बहुत घबडा गई। यही कैफियत कुमार की भी थी, रास्ते का ख्याल तो किया नहीं, ऊपर चढ़ने को तैयार हो गए, मगर क्या हो सकता था। तेजसिंह ने कहा, ''आप घबड़ाते क्यों हैं, ऊपर जाने के लिए रास्ता होता तो आपको यहां लाने की जरूरत ही क्या थी, कुमारी ही को न ले जाते?''

दोनों की टकटकी बंधा गई, कुमार वीरेन्द्रसिंह कुमारी को देखने लगे और वह इनको। दोनों ही की आंखों से आंसू की नदी बह चली। कुछ करते नहीं बनता, हाय क्या टेढ़ा मामला है? जिसके वास्ते घर-बार छोड़ा, जिसके मिलने की उम्मीद में पहले ही जान से हाथ धो बैठे, जिसके लिए हजारों सिर कटे, जो महीनों से गायब रहकर आज दिखाई पड़ी, उससे मिलना तो दूर रहा अच्छी तरह बातचीत भी नहीं कर सकते। ऐसे समय में उन दोनों की क्या दशा थी वे ही जानते होंगे।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर पूछा, ''क्यों आपने कोई तरकीब सोची?'' ज्योतिषीजी ने जवाब दिया, ''अभी तक कोई तरकीब नहीं सूझी, मगर मैं इतना जरूर कहूंगा कि बिना कोई भारी कार्रवाई किये कुमारी का ऊपर से उतरना मुश्किल है। जिस तरह से वे आई हैं, उसी तरह से बाहर होंगी, दूसरी तरकीब कभी पूरी नहीं हो सकती। मैंने रमल से भी राय ली थी, वह भी यही कहता है, सो अब जिस तरह हो सके कुमारी से यह पूछें और मालूम करें कि वह किस राह से यहां तक आईं, तब हम लोग ऊपर चलकर कोई काम करें। यह मामला तिलिस्म का है खेल नहीं है।''

तेजसिंह ने इस बात को पसंद किया, कुमारी से पुकारकर कहा, ''आप घबड़ायें नहीं, जिस तरह से पहले आपने पत्तो पर लिखकर फेंका था उसी तरह अब फिर मुख्तसर में यह लिखकर फेंकिये कि आप किस राह से वहां पहुंची हैं।''

Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:35

बीसवां बयान

चपला तहखाने में उतरी। नीचे एक लम्बी-चौड़ी कोठरी नजर आई जिसमें चौखट के सिवाय किवाड़ के पल्ले नहीं थे। पहले चपला ने उसे खूब गौर करके देखा, फिर अंदर गई। दरवाजे के भीतर पैर रखते ही ऊपर वाले चौखटे के बीचोंबीच से लोहे का एक तख्ता बड़े जोर के साथ गिर पड़ा। चपला ने चौंककर पीछे देखा, दरवाजा बंद पाया। सोचने लगी-''यह कोठरी है कि मूसेदानी? दरवाजा इसका बिल्कुल चूहेदानी की तौर पर है। अब क्या करें? और कोई रास्ता कहीं जाने का मालूम नहीं पड़ता, बिल्कुल अधेरा हो गया, हाथ को हाथ दिखाई नहीं पड़ता!'' चपला अधेरे में चारों तरफ घूमने और टटोलने लगी।

घूमते-घूमते चपला का पैर एक गङ्ढे में जा पड़ा, साथ ही इसके कुछ आवाज हुई और दरवाजा खुल गया, कोठरी में चांदना भी पहुंच गया। यह वह दरवाजा नहीं था जो पहले बंद हुआ था बल्कि एक दूसरा ही दरवाजा था। चपला ने पास जाकर देखा, इसमें भी कहीं किवाड़ के पल्ले नहीं दिखाई पड़े। आखिर उस दरवाजे की राह से कोठरी के बाहर हो एक बाग में पहुंची। देखा कि छोटे-छोटे फूलों के पेड़ों में रंग-बिरंगे कफूल खिले हुए हैं, एक तरफ से छोटी नहर के जरिये से पानी अंदर पहुंचकर बाग में छिड़काव का काम कर रहा है मगर क्यारियां इसमें की कोई भी दुरुस्त नहीं हैं। सामने एक बारहदरी नजर आई, धीरे- धीरे घूमती वहां पहुंची।

यह बारहदरी बिल्कुल स्याह पत्थर से बनी हुई थी। छत, जमीन, खंभे सब स्याह पत्थर के थे। बीच में संगमर्मर के सिंहासन पर हाथ भर का एक सुर्ख चौखूटा पत्थर रखा हुआ था। चपला ने उसे देखा, उस पर यह खुदा हुआ था-''यह तिलिस्म है, इसमें फंसने वाला कभी निकल नहीं सकता, हां अगर कोई इसको तोड़े तो सब कैदियों को छुड़ा ले और दौलन भी उसके हाथ लगे। तिलिस्म तोड़ने वाले के बदन में खूब ताकत भी होनी चाहिए नहीं तो मेहनत बेफायदे है।''

चपला को इसे पढ़ने के साथ ही यकीन हो गया कि अब जान गई, जिस राह से मैं आई हूं उस राह से बाहर जाना कभी नहीं हो सकता। कोठरी का दरवाजा बंद हो गया, बाहर वाले दरवाजे को कमंद से बांधाना व्यर्थ हुआ, मगर शायद वह दरवाजा खुला हो जिससे इस बाग में आई हूं। यह सोचकर चपला फिर उसी दरवाजे की तरफ गई मगर उसका कोई निशान तक नहीं मिला, यह भी नहीं मालूम हुआ कि किस जगह दरवाजा था। फिर लौटकर उसी बारहदरी में पहुंची और सिंहासन के पास गई, जी में आया कि इस पत्थर को उठा लूं, अगर किसी तरह बाहर निकलने का मौका मिले तो इसको भी साथ लेती जाऊंगी, लोगों को दिखाऊंगी। पत्थर उठाने के लिए झुकी मगर उस पर हाथ रखा ही था, कि बदन में सनसनाहट पैदा हुई और सिर घूमने लगा, यहां तक कि बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी।

जब तक दिन बाकी था चपला बेहोश पड़ी रही, शाम होते-होते होश में आई। उठकर नहर के किनारे गई, हाथ-मुह धोए, जी ठिकाने हुआ। उस बाग में अंगूर बहुत लगे हुए थे मगर उदासी और घबराहट के सबब चपला ने एक दाना भी न खाया, फिर उसी बारहदरी में पहुंची। रात हो गई, और र धीरे - धीरे वह बारहदरी चमकने लगी। जैसे-जैसे रात बीतती जाती थी बारहदरी की चमक भी बढ़ती थी। छत, दीवार, जमीन और खंभे सब चमक रहे थे, कोई जगह उस बारहदरी में ऐसी न थी जो दिखाई न देती हो, बल्कि उसकी चमक से सामने वाला थोड़ा हिस्सा बाग का भी चमक रहा था।

यह चमक काहे की है इसको जानने के लिए चपला ने जमीन, दीवार और खंभों पर हाथ फेरा मगर कुछ समझ में न आया। ताज्जुब, डर और नाउम्मीदी ने चपला को सोने न दिया, तमाम रात जागते ही बीती। कभी दीवार टटोलती, कभी उस सिंहासन के पास जा उस पत्थर को गौर से देखती जिसके छूने से बेहोश हो गई थी।

सबेरा हुआ, चपला फिर बाग में घूमने लगी। उस दीवार के पास पहुंची जिसके नीचे से बाग में नहर आई थी। सोचने लगी, ''दीवार बहुत चौड़ी नहीं है, नहर का मुंह भी खुला है, इस राह से बाहर हो सकती हूं, आदमी के जाने लायक रास्ता बखूबी है।'' बहुत सोचने-विचारने के बाद चपला ने वही किया, कपड़े सहित नहर में उतर गई, दीवार से उस तरफ हो जाने के लिए गोता मारा, काम पूरा हो गया अर्थात् उस दीवार के बाहर हो गई। पानी से सिर निकालकर देखा तो नहर को बाग के भीतर की बनिस्बत चौड़ी पाया। पानी के बाहर निकली और देखा कि दूर सब तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ दिखाई देते हैं जिनके बीचोबीच से यह नहर आई है और दीवार के नीचे से होकर बाग के अंदर गई है।

चपला ने अपने कपड़े धूप में सुखाए, ऐयारी का बटुआ भीगा न था क्योंकि उसका कपड़ा रोगनी था। जब सब तरह से लैस हो चुकी, वहां से सीधो रवाना हुई। दोनों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़, बीच में नाला, किनारे पारिजात के पेड़ लगे हुए। पहाड़ के ऊपर किसी तरफ चढ़ने की जगह नहीं, अगर चढ़े भी तो थोड़ी दूर ऊपर जाने के बाद फिर उतरना पड़े। चपला नाले के किनारे रवाना हुई। दो पहर दिन चढ़े तक लगभग तीन कोस चली गई। आगे जाने के लिए रास्ता न मिला, क्योंकि सामने से भी एक पहाड़ ने रास्ता रोक रखा था जिसके ऊपर से गिरने वाला पानी का झरना नीचे नाले में आकर बहता था। पहाड़ी के नीचे एक दलान था जो अंदाज में दस गज लंबा और गज भर चौड़ा होगा। गौर के साथ देखने से मालूम होता था कि पहाड़ काट के बनाया गया है। इसके बीचोबीच पत्थर का एक अजदहा था जिसका मुंह खुला हुआ था और आदमी उसके पेट में बखूबी जा सकता था। सामने एक लंबा-चौड़ा संगमर्मर का साफ चिकना पत्थर भी जमीन पर जमाया हुआ था।

अजदहे को देखने के लिए चपला उसके पास गई। संगमर्मर के पत्थर पर पैर रखा ही था कि धीरे-धीरे अजदहे ने दम खींचना शुरू किया, और कुछ ही देर बाद यहां तक खींचा कि चपला का पैर न जम सका, वह खिंचकर उसके पेट में चली गई साथ ही बेहोश भी हो गई।

जब चपला होश में आई उसने अपने को एक कोठरी में पाया जो बहुत तंग सिर्फ दस-बारह आदमियों के बैठने लायक होगी। कोठरी के बगल में ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। चपला थोड़ी देर तक अचंभे में भरी हुई बैठी रही, तरह-तरह के ख्याल उसके जी में पैदा होने लगे, अक्ल चकरा गई कि यह क्या मामला है। आखिर चपला ने अपने को सम्हाला और सीढ़ी के रास्ते छत पर चढ़ गई, जाते ही सीढ़ी का दरवाजा बंद हो गया। नीचे उतरने की जगह न थी। इधर-उधर देखने लगी। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़, सामने एक छोटा-सी खोह नजर पड़ी जो बहुत अंधेरी न थी क्योंकि आगे की तरफ से उसमें रोशनी पहुंच रही थी।

चपला लाचार होकर उस खोह में घुसी। थोड़ी ही दूर जाकर एक छोटा-सा दलान मिला, यहां पहुंचकर देखा कि कुमारी चंद्रकान्ता बहुत से बड़े-बड़े पत्तो आगे रखे हुए बैठी है और पत्तो पर पत्थर की नोक से कुछ लिख रही है। नीचे झांककर देखा तो बहुत ही ढालवीं पहाड़ी, उतरने की जगह नहीं, उसके नीचे कुंअर वीरेन्द्रसिंह और ज्योतिषीजी खड़े ऊपर की तरफ देख रहे हैं।

कुमारी चंद्रकान्ता के कान में चपला के पैर की आहट पहुंची, फिर के देखा, पहचानते ही उठ खड़ी हुई और बोली, ''वाह सखी, खूब पहुंची। देख सब कोई नीचे खड़े हैं, कोई ऐसी तरकीब नजर नहीं आती कि मैं उन तक पहुंचूं। उन लोगों की आवाज मेरे कान तक पहुंचती है मगर मेरी कोई नहीं सुनता। तेजसिंह ने पूछा है कि तुम किस राह से यहां आई हो, उसी का जवाब इस पत्तो पर लिख रही हूं, इसे नीचे फेंकूंगी।''

चपला ने पहले खूब ध्यान करके चारों तरफ देखा, नीचे उतरने की कोई तरकीब नजर न आई, तब बोली, ''कोई जरूरत पत्तो पर लिखने की नहीं है। मैं पुकार के कहे देती हूं, मेरी आवाज वे लोग बखूबी सुनेंगे, पहले यह बताओ तुमको बगुला निगल गया था या किसी दूसरी राह से आई हो?''

कुमारी ने कहा, ''हां मुझको वही बगुला निगल गया था जिसको तुमने उस खंडहर में देखा होगा, शायद तुमको भी वही निगल गया हो।'' चपला ने कहा, ''नहीं मैं दूसरी राह से आई हूं, पहले उस खण्डहर का पता इन लोगों को दे लूं तब बातें करूं, जिससे ये लोग भी कोई बंदोबस्त हम लोगों के छुड़ाने का करें। जहां तक मैं सोचती हूं मालूम होता है कि हम लोग कई दिनों तक यहां फंसे रहेंगे, खैर जो होगा देखा जायगा।''

इक्कीसवां बयान

कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह सबों ने देखा। ऊपर से चपला पुकारकर कहने लगी, ''जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खण्डहर में एक बड़ा भारी पत्थर का करामाती बगुला है, वही कुमारी को निगल गया था। वह तिलिस्म किसी तरह टूटे तो हम लोगों की जान बचे, दूसरी कोई तरकीब हम लोगों के छूटने की नहीं हो सकती। मैं बहुत सम्हलकर उस तिलिस्म में गई थी पर तो भी फंस गई। तुम लोग जाना तो बहुत होशियारी के साथ उसको देखना। मैं यह नहीं जानती कि वह खोह चुनार से किस तरफ है, हम लोगों को दुष्ट शिवदत्त ने कैद किया था।''

चपला की बात बखूबी सबों ने सुनी, कुमार को महाराज शिवदत्त पर बड़ा ही गुस्सा आया। सामने मौजूद ही थे कहीं ढूंढने जाना तो था ही नहीं, तलवार खींच मारने के लिए झपटे। महाराज शिवदत्त की रानी जो उन्हीं के पास बैठी सब तमाशा देखती और बातें सुनती थीं, कुंअर वीरेन्द्रसिंह को तलवार खींच के महाराज शिवद्त्त की तरफ झपटते देख दौड़कर कुमार के पैरों पर गिर पड़ीं और बोलीं, ''पहले मुझको मार डालिए, क्योंकि मैं विधावा होकर मुर्दों से बुरी हालत में नहीं रह सकती!'' तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और बहुत कुछ समझा-बुझाकर ठण्डा किया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, ''अगर मुनासिब समझो और हर्ज न हो तो कुमारी के मां-बाप को भी यहां लाकर कुमारी का मुंह दिखला दो, भला कुछ उन्हें भी तो ढाढ़स हो।'' तेजसिंह ने कहा, ''यह कभी नहीं हो सकता, इस तहखाने को आप मामूली न समझिए, जो कुछ कहना होगा मुंहजबानी सब हाल उनको समझा दिया जायगा। अब यह फिक्र करनी चाहिए जिससे कुमारी की जान छूटे। चलिए सब कोई महाराज जयसिंह को यह हाल कहते हुए उस खण्डहर तक चलें जिसका पता चपला ने दिया है।''

यह कहकर तेजसिंह ने चपला को पुकारकर कहा, ''देखो हम लोग उस खण्डहर की तरफ जाते हैं। क्या जाने कितने दिन उस तिलिस्म को तोड़ने में लगें। तुम राजकुमारी को ढाढ़स देती रहना, किसी तरह की तकलीफ न होने पाये। क्या करें कोई ऐसी तरकीब भी नजर नहीं आती कि कपड़े या खाने-पीने की चीजें तुम तक पहुंचाई जायं।''

चपला ने ऊपर से जवाब दिया, ''कोई हर्ज नहीं, खाने-पीने की कुछ तकलीफ न होगी क्योंकि इस जगह बहुत से मेवों के पेड़ हैं, और पत्थरों में से छोटे-छोटे कई झरने पानी के जारी हैं। आप लोग बहुत होशियारी से काम कीजिएगा। इतना मुझे मालूम हो गया कि बिना कुमार के यह तिलिस्म नहीं टूटने का, मगर तुम लोग भी इनका साथ मत छोड़ना, बड़ी हिफाजत रखना।''

महाराज शिवद्त्त और उनकी रानी को उसी तहखाने में छोड़ कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी चारों आदमी वहां से बाहर निकले। दोहरा ताला लगा दिया। इसके बाद सब हाल कहने के लिए कुमार ने देवीसिंह को नौगढ़ अपने मां-बाप के पास भेज दिया और यह भी कह दिया कि ''नौगढ़ से होकर कल ही तुम लौट के विजयगढ़ आ जाना, हम लोग वहां चलते हैं, तुम आओगे तब कहीं जायेंगे।'' यह सुन देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

सबेरे ही से कुंअर वीरेन्द्रसिंह विजयगढ़ से गायब थे, बिना किसी से कुछ कहे ही चले गये थे इसलिए महाराज जयसिंह बहुत ही उदास हो कई जासूसों को चारों तरफ खोजने के लिए भेज चुके थे। शाम होते-होते ये लोग विजयगढ़ पहुंचे और महाराज से मिले। महाराज ने कहा, ''कुमार तुम इस तरह बिना कहे-सुने जहां जी में आता है चले जाते हो, हम लोगों को इससे तकलीफ होती है, ऐसा न किया करो!''

इसका जवाब कुमार ने कुछ न दिया मगर तेजसिंह ने कहा, ''महाराज, जरूरत ही ऐसी थी कि कुमार को बड़े सबेरे यहां से जाना पड़ा, उस वक्त आप आराम में थे, इसलिए कुछ कह न सके।'' बाद इसके तेजसिंह ने कुल हाल, लड़ाई से चुनार जाना, महाराज शिवद्त्त की रानी को चुराना, खोह में कुमारी का पता लगाना, ज्योतिषीजी की मुलाकात, बर्देफरोशों की कैफियत, उस तहखाने में कुमारी और चपला को देख उनकी जुबानी तिलिस्म का हाल आदि सब-कुछ हाल पूरा-पूरा ब्यौरेवार कह सुनाया, आखिर में यह भी कहा कि अब हम लोग तिलिस्म तोड़ने जाते हैं।

इतना लंबा-चौड़ा हाल सुनकर महाराज हैरान हो गये। बोले, ''तुम लोगों ने बड़ा ही काम किया इसमें कोई शक नहीं, हद के बाहर काम किया, अब तिलिस्म तोड़ने की तैयारी है, मगर वह तिलिस्म दूसरे के राज्य में है। चाहे वहां का राजा तुम्हारे यहां कैद हो तो भी पूरे सामान के साथ तुम लोगों को जाना चाहिए, मैं भी तुम लोगों के साथ चलूं तो ठीक है।''

तेजसिंह ने कहा, ''आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं है, थोड़ी फौज साथ जायेगी वही बहुत है।''

महाराज ने कहा, ''ठीक है, मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं मगर इतना होगा कि चलकर उस तिलिस्म को मैं भी देख आऊंगा।'' तेजसिंह ने कहा, ''जैसी मर्जी।'' महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ''हमारी आधी फौज और कुमार की कुल फौज रात भर में तैयार हो रहे, कल यहां से चुनार की तरफ कूच होगा।''

बमूजिब हुक्म के सब इंतजाम दीवान साहब ने कर दिया। दूसरे दिन नौगढ़ से लौटकर देवीसिंह भी आ गए। बड़ी तैयारी के साथ चुनार की तरफ तिलिस्म तोड़ने के लिए कूच हुआ। दीवान हरदयालसिंह विजयगढ़ में छोड़ दिए गए।

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